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________________ (३०) तो न कोई करता है और नाहीं किसीको करना चाहिए। इस लिए स्वधर्म क्या और परधर्म क्या इसका प्रथम तात्पर्य समझना चाहिए | स्वधर्म अर्थात् आत्माका धर्म । परधर्म नाम मायिक पदाथका जो धर्म नाम स्वभाव | इसका तात्पर्य यह है कि, आत्माका जो धर्म है वह ग्रहण करने योग्य है, और मायिकपौगलिक धर्म त्यागने योग्य है। आत्मिक धर्मकी प्राप्ति निवृत्ति मार्ग अनुमरणसे होती है, निवृत्ति मार्गका अनुष्ठान मायिक धर्मके त्याग विना नहीं हो सकता । इस लिए आत्मस्वभावमें रमण करना और असार मायिक पदार्थोंका त्याग करना ही स्वधर्मके अनुष्ठान और परधर्मके त्यागसे बोधित होता है । आशा नहीं कि इस प्रकार के उपदेश में किसीको विवाद हो । सभ्य पुरुषो ! शास्त्रकारोंने ज्ञान, दर्शन और चारित्र इस रत्नत्रयीको मोक्षका मार्ग बतलाया है । अर्थात् श्रवण, मनन और निदिध्यासन द्वारा यह आत्मा मायिक - पौद्गलिक यावत् उपाधियोंसे रहित होकर सत् चित् आनंद परमात्मरूपको प्राप्त कर लेता है । फिर उसके लिए कोई कर्तव्य अवशिष्ट नहीं रहता, इसीका नाम वास्तविक सुख है । इसीके लिए प्राणिमात्र प्रयत्न शील हो रहे हैं । यही अलौकिक सुख, धर्मके सतत अनुष्ठानसे प्राप्त होता है । परंतु इतना ख्याल रखनेकी अवश्य जरूरत है कि, जब तक देव और गुरुकी पहचान न हो तब तक धर्मके रहस्यकी प्राप्ति होनी मुशकिल है । उसपर भी इतना ध्यान 1 Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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