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आदर्श जीवन ।
निकलता था। जब आप उनके चरणोंके पास जा बैठे तो. उन्होंने सस्नेह आपके सिरपर हाथ रक्खा और आन्तरिक आशीर्वादकी दृष्टि की ।
आचार्यश्री प्रयत्न करके बोले :- " लो भाई, अब हम चलते हैं और सबको खमाते हैं ।" इस बातको सुनकर सभी साधु रोने लगे । आचार्यश्रीने और दो चार बार 'अर्हन' शब्दका उच्चारण किया और उनका जीवनहंस सदाके लिए जड़ देहपिंजरका त्याग करके उड गया । उस समय जो दुःख साधु और श्रावक - मंडलमें फैल गया उसका वर्णन करना हमारी तुच्छ लेखनीकी शक्ति के बाहर है । हमारे चरित्र नायकको जो दुःख हुआ उसका अंदाजा वे सभी मनुष्य लगा सकते हैं जिन्होंने अपने पिताकी, महरबान पिताकी हृदयके टुकड़े कर देनेवाली मौत देखी है ।
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दुःखकी परमौषध रुदनका पूर्ण रूपसे पान करने पर जब हृदय कुछ हल्का हुआ तब शोकावेगमें जो दो भजन आपने लिखे थे हम उन्हें यहाँ उद्धृत कर देते हैं ।
( १ )
हेजी तुम सुनियो जी आतमराम, सेवक सार लीजो जी ॥ अंचली ॥ आतमराम आनंदके दाता, तुम बिन कौन भवोदधि त्राता ? हुं अनाथ शरणि तुम आयो, अब मोहे हाथ दजो जी ॥ हे० ॥ १ ॥ तुम बिन साधु-सभा नहिं सोहे, रयणी कर बिन रयणी खोहे । जैसे तरणि बिना दिन दीपे, निश्चय धार लीजो जी ॥ हे० ॥२॥
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