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( १६७ ) पूज्यपाद हरिभद्र सूरि महाराजने आजसे १५०० वर्ष पहले ' यात्रा पंचाशक ' नामक ग्रंथ रचा है, उसमें कल्याणक उत्सव मनानेकी आज्ञा दी गई है। (यहाँ आपने शास्त्रोंके प्रमाण दिये थे) इनसे सिद्ध होता है कि यद्यपि हममें जयन्ती मनानेकी प्रथा नवीन नहीं है तथापि समयानुसार हम इसको नवीज पद्धतिसे मनाते हैं इस लिए हमें यह नवीन लगती है।
गृहस्थोंमें अपने जन्मवाले दिन और अपने पिताके जन्मवाले दिन आनन्द मनानेका रिवाज है। प्रपिता और पितामह और उनके पहलेके पूर्वजाका यद्यपि गृहस्थ मानते हैं तथापि उनके जन्म दिन न तो याद रखते हैं और न उनका उत्सव ही करते हैं। अनन्त तीर्थकर हो चुके हैं। वे सभी हमारे पूज्य हैं। तो भी हम उनके कल्याणक नहीं मना सकते हैं । वर्तमान चौबीसीके सभी तीर्थकरोंके कल्याणकका उत्सव करें तो वर्ष भरमें १२० दिन चाहिए, जो वर्षका तीसरा भाग होता है। इस लिए उन सबके कल्याणक भी यद्यपि हम नहीं मना सकते हैं, तथापि जिन भगवान महावीरके शासनमें हम हैं और जिनके पुत्र कहलानेका हमें अभिमान है उनक कल्याणकके दिनकी तो हम आराधना कर सकते हैं इस लिए जितनी हो सके उतनी उत्तमताके साथ उनके कल्याणक मनाने चाहिए। ., जो पुत्र अपने पिताका जन्म दिन आनंदमें बिताते हैं, अपने पिताके सद्गुण याद करते हैं; पिताने जो उपकार उस पर किये हैं
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