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________________ सामानेके शास्त्रार्थादिका वर्णन। वि. सवत् १९५६ के सालमें मुनि श्रीकुशलविजयजी, हीरविजयजी, सुमतिविजयनी, वल्लभविजयजी, ( हमारे चरित्र नायक ) लब्धिवियनी और ललितविनयजी छः साधु शहेर समाना ( जिलापटियाला पंजाब ) में एक महीने तक रहे । मुनि श्रीवल्लभविजयनी व्याख्यान करते थे। व्याख्यान क्या करते थे मानो अमृतपान कराते थे। सेवकोंके सोये हुए दिल पुनः जागृत हो गये । बेशक वल्लभविजयजी नाम-गुण निष्पन्न ही हैं। स्वर्गीय गुरु महाराज श्री श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद सूरिजी महाराज ( आत्मारामनी महाराज ) ने जिस वीरशासनको उसके शुद्धरूपमें, पंजाबमें फैलाया था, उसकी सारसँभाल लेना इन्हींका कार्य है। ये सबको प्रिय लगते हैं, मगर कुमतियोंकी आँखोंमें काँटेसे खटकते हैं । सूर्य सबको अच्छा लगता है, मगर उल्लको उससे जलन है, इसका कोई क्या करे ? भाग्य उल्लूके । दूँढ़ियोंको चिन्ता हुई कि यहाँ पुजेरोंका पैर जमने लगा है और हमारा उखड़ने । बात कुछ ऐसी ही बनी है । अभी सं० १९६० के फाल्गुन महीनेमें मुनि श्रीहीरविजयजी, श्रीवल्लभविजयनी, श्रीविमलविनयजी और श्रीकस्तुरविजयजी इन चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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