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________________ आदर्श जीवन । रातमें गाँव के दूसरे लोगोंके साथ मिलकर मुसाफिरोंका सर्वस्व छीन लेता है । अगर प्राण लेने पड़ते हैं तो इसमें भी वह आगा पीछा नहीं करता । यद्यपि अपने पतिकी बुराई करना स्त्रीके लिए पाप है तथापि मैंने आपके सामने की है । इसके दो कारण हैं, एक तो यह कि, मेरे पति साधुको दुख देने से जो पाप लगेगा, उससे बचेंगे और दूसरा साधुकी रक्षा होगी।" ११६ आपके साथ तीन साधु थे और ७, ८ श्रावक । आपने उनसे मशवरा किया । इतनेहीमें वहाँ एक वृद्ध सिक्ख आ गया । उसने कहा : – “ महाराज ! मैं आपको यही सम्मति दूँगा कि आप यहाँ से चले जाइए । " 66 श्रावक बोले :- " महाराज ! यदि आप चल सकते हों तो हमारी कोई हानि नहीं है; भले चले चलिए, अन्यथा यहीं रहिए । चोर भी तो इन्सान हैं । हम देख लेंगे । " आप बोले :- " लाला तुम्हारा कहना ठीक है । मगर मैं विना प्रयोजन किसीके प्राण खतरे में डालना नहीं चाहता। अगर हम सब साधु ही होते तो हमें कोई चिन्ता न थी । हमारे पास चोर आकर क्या ले जाते ? मगर आप लोग हैं इसलिए मैं यह जोखम उठाना ठीक नहीं समझता । " आखिरकार खरे तड़के में आप वहाँसे रवाना हो गये और आठ कोसकी कठिन मुसाफिरी पैदल, नंगे पैर, तै करके संध्याको मियाँमीरकी छावनीमें पहुँचे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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