SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदर्शजीवन | • दाबादमें गुरु महाराजस कहा भी था कि, थोड़े समयतक आप इसको अपने पास रखकर पढ़ाइए; फिर समय आनेपर मैं खुद ही इसको दीक्षा दिला दूँगा । मैं समझता हूँ आप यह बात अबतक भूले न होंगे ? महाराज साहबने अपने वचनानुसार अबतक मेरी दीक्षाका नाम भी नहीं लिया है। अब समय आ गया है कि, आप अपना वचन पालिए और अपनी धर्मज्ञता और उदारताका परिचय दीजिए । " ५० पासहीमें भूआजी बैठी हुई थीं । वे बोलीं- “ खीमा ! देख तो किस तरह बातोंके तड़ाके लगा रहा है ! है जरा भी लाज शरम ! आगे कभी तेरे सामने बोला भी था ? तू अब इसको घर ले जाकर क्या करेगा ? इससे क्या तेरा दरिद्र दूर होगा ? उठ ! चल अपने घर चलें । " आप तो यह चाहते ही थे कि, ये लोग राजीखुशी या नाराज होकर किसी भी तरहसे घर चले जायँ और आप अपने साध्यको सिद्ध करें - अपनी इच्छानुसार दीक्षा ले लें । इसलिए आप इस गीदड़भपकीका कुछ जवाब न देकर मौन रहे । कहा है < मौनं सर्वार्थसाधकम् ' थोड़ी देर सभी चुप एक दूसरेकी तरफ देखते रहे फिर आप उठ खड़े हुए और यह कहते हुए चले गये कि, प्रतिक्रम १ मौन सारे कामों को सिद्ध करनेवाली है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy