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आदर्श जीवन ।
आप भी मुस्कुराकर विनम्र शब्दोंमें कहते.---"गुरु महाराजकी थोड़ी सम्पत्ति मिलि इससे क्या हो गया ? आपकी भी तो सम्पत्ति अखूट है । उसमेंसे ही कुछ उदारता कर दिया कीजिए । लोगोंमें बँटेगी उसमेंसे थोड़ा हिस्सा मुझे भी मिल जायगा।" - प्रवर्तकजी महाराज फर्माते:--" तुमसे बातोंमें कौन जीत सकता है ? "
आप कहतेः-"आप जैसे गुरु जन ही तो, मुझ जैसे, अपने छोटोंका, जीतनेका लोभ दिखा कर, हौसला बढ़ाते हैं और उन्हें आगे लाते हैं।
एक दिन हमारे चरित्रनायकके साथ अनेक श्रावक भी मिल गये । सबने मिलकर प्रवर्तकजी महाराजसे आग्रह पूर्वक विनती की कि, आप अवश्यमेव उपदेशामृत पिलाकर हमें कृतार्थ करें । प्रवर्तकजी महाराजने बहुत 'नहीं' 'नहीं' किया; मगर हमारे चरित्रनायक भी आग्रह करके बैठ गये कि, मैं आज बिलकुल व्याख्यान नहीं बाँचूँगा । आपहीको कृपा करनी होगी।" - आखिर प्रवर्तकजी महाराज उपदेश देनेके लिए गद्दी पर आकर विराजे । हमारे चरित्रनायक भी, दाहिनी तरफ नीचे की तरफ पाटपर इसी तरह विनम्र भावसे बैठ गये जैसे आप स्वर्गीय आचार्य महाराजके पास व्याख्यानके समय बैठा करते थे; या यह कहिए कि, शिष्य जैसे गुरुके साथ व्याख्यानके समय बैठता है ।
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