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________________ आदर्श-जीवन प्रथम खंड | धकेल रहे थे । इस ( सं. १९२७ से सं. १९४४ तक ) बड़ोदेके जानीसेरीका उपाश्रय नरनारियोंसे भरा हुआ थ महात्माकी जलद गंभीर वाणीका श्रवण करनेके लिए लोग आगे बैठने का प्रयत्न करने में एक दूसरेको धकापेलमें लोगों की उपदेशामृत की बहुत ही थोड़ी बूँदें पान करनेको मिल रही थीं। ऐसे समय में भी एक दीवार के सहारे एक १५ वर्षीय बालक एकाग्रचित्तसे उस अमृत वाणीका पान कर रहा था । उसकी आँखें महात्माके भव्य तेजोदीप्त मुख मंडल पर स्थिर थीं और उसके कान अस्खलित भावसे उस अमृतको पीकर अपने अन्तस्थल में पहुँचा रहे थे और वहाँसे अनन्त जीवनके बद्ध कर्म मलको, उस अमृतद्वारा ढीलाकर, बाहर फेंक देनेका यत्न कर रहे थे । व्याख्यान समाप्त हुआ । श्रोता लोग महात्माको वंदना कर, एक एक करके अपने घर चले गये, मगर वह बालक उसी तरह स्थिर बैठा रहा । महात्माने पूछा :- " बालक क्यों बैठे हो ? ” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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