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________________ आदर्श जीवन । कोई बोली नहीं देता । इस हालतमें मंदिरजीकी आमदनी में हानि होती है । दरअसल बात विचारी जावे तो कुछ भी सार नहीं पाया जाता है। पहला किया तो क्या, पीछे किया तो क्या और अगर ना भी किया तो क्या ? मगर परस्पर बात ममत्व पर चढ़ गई। यहाँ तक कि अदालती मामला हो गया। पहला फैसला गामवालोंके हकमें हो गया । उसपर चौवटियेने अगली अदा लतका शरण लिया, जिसमें चौवटियेका हक कायम किया गया । उसपर गामवालोंने अपील की; मगर वो खारिज हो गई । जिससे चौवटियेका जोर बढ़ गया । गामवाले लाचार चुप चाप बैठ गये। मगर अंदरला द्वेष न गया, जिससे दिन प्रति दिन विरोध बढ़ता ही गया और उसीकी शाखा प्रतिशाखा रूप एककी दो और दोकी चार यूँ कई तड़ें पड़ गई हालांकि और और तड़ें पड़नेमें और ही और कारण हुए हैं । ३४५ परंतु पोलमें पोल वाला हिसाब प्रथम तड़ पड़नेसे कोई किसीको न तो कह सकता था और न कोई किसीका मानता था, तब फिर तड़मेंसे तड़ निकले तो कोई आश्चर्य नहीं । अदालतकी तर्फसे जो कुछ आखिरी फैसला हुआ है, धर्मशास्त्र और जैनधर्मके रीति रिवाज से बिलकुल गलत है । अदालतने इस बातकी तहकीकात करनेकी कोशिश करनेकी महेरबानी नहीं की अगर की जाती तो उम्मीद है, जो फैसला दिया गया है, कभी भी न दिया जाता । Jain Education International For Private & Personal Use Only · www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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