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आदर्श जीवन।
सके और चौमासा वहीं करना पड़ा । कारण यह हुआ कि
चैत्र सुदी १० बुधवारके दिन करीब साढ़े पाँच बजे शामको रतनचंदजी और चुन्नीलालजी नामके दो ढूंढिये साधु, जहाँ हमारे चरित्रनायक ठहरे हुए थे वहाँ गये और सड़क पर खड़े हो गये । वहींसे उन्होंने हमारे चरित्रनायकको पुकारा । जब आपने झरोखेमें आकर नीचेकी तरफ देखा तो वे बोले:" हम शास्त्रार्थ करनेके लिए आये हैं । तुम यहाँसे बिहार मत करना । अगर करोगे तो हारे हुए समझे जाओगे।"
आप-शास्त्रार्थ तुम करोगे या कोई और ? । वे- स्वामीजी महाराज श्रीउदयचंद्रजी करेंगे।
आप-उनके साथ तो पहले शास्त्रार्थ हो गया है। उसका फैसला भी प्रकाशित हो चुका है। अब बार बार पीसेको क्या पीसना है ? हारे हुओंके साथ शास्त्रार्थ करना ठीक नहीं है; तो भी यदि उदयचंदजीकी तीव्र उत्कंठा है तो जाकर अपने श्रावकोंसे शास्त्रार्थका बंदोबस्त करा लो हम तैयार हैं।
वे-हम क्या श्रावकोंके बँधे हुए हैं ?
आप-यदि आप श्रावकोंके बंधे हुए नहीं हैं तो ऊपर आ जाइए और चर्चा कर लीजिए।
वे-हम चोर नहीं हैं, हम तो खुले मैदानमें चर्चा करेंगे ।
आप-बड़ी अच्छी बात है । आप पंडितोंको मध्यस्थ नियत कर सभा कीजिए । हमको सूचना मिलते ही हम आ जायँगे।
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