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________________ १२४ आदर्श जीवन। m mmmchhaavn गुरु भक्त हैं वैसे ही वे विद्वान और वक्ता भी हैं। तो भी मैं उन्हें आचार्य पद देने में सम्मत नहीं हूँ। कारण,-वे दीक्षा पर्यायमें कई मुनियोंसे छोटे हैं। मान लो कि हमने उन्हें आचार्य पदवी दी और एक दो साधुओंने इन्कार कर दिया तो इसका फल क्या होगा? आपसी विरोधसे दो दल हो जायँगे । मुझे गुरु महाराजके संघाड़ेमें दो दल हों यह बात बिलकुल मंजूर नहीं है । मुझे विश्वास है कि, वल्लभविजयजी भी यही चाहते होंगे क्योंकि मैं उनकी महत्ता और शासनभक्ति जानता हूँ। इस लिए मेरी सम्मति है कि, यह पद मुनि श्रीकमलविजयजीको दिया जाय; क्योंकि वे दीक्षापर्यायमें बड़े हैं। ज्ञाता भी अच्छे हैं और वयोवृद्ध भी हैं ।" __ आप तो पहले ही कह चुके थे कि मैं यह पद स्वीकार न करूँगा । संसारके कार्य बहु सम्मतिसे हुआ करते हैं। इसीके अनुसार अनेक प्रावकों और मुनियोंने आग्रह किया कि, आप इस पदको स्वीकार कर लें; मगर आप सम्मत न हुए, यही कहते रहे कि, गुरु-" महाराजके समुदायको एकताके मूत्रमें बाँधकर रखना मेरे लिए और मेरे साथ ही आप सभीके लिए महान कार्य है । इस लिए आप सभी इस कार्यको कीजिए । मैं आचार्य न बननेसे आपको धर्मकार्यमें मदद न दूँगा, इस तरहकी शंका यदि किसीके दिलमें हो तो उसे निकाल दीजिए।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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