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चीनी न करते हुए उसके मात्र सरल आशयको ग्रहण करनेमें ही आप अपनी उदारता और सहृदयताका परिचय देंगें ऐसी मुझे आशा है ।
सद्गृहस्थो ! सुखकी अभिलाषा प्राणिमात्रको है, वह चाहे अमीर हो या गरीब, धनी हो चाहे निर्धन, संसार में छोटे से छोटे कीटसे लेकर बड़े से बड़े जानवर तक एवं साधारण मनुष्यसे लेकर इन्द्र आदि देवताओं तकमें ऐसा कोई भी जीव नहीं जो सुखकी इच्छा न करता हो ! पर सुखका साधन वही वस्तु है, जो कि मेरे आजके व्याख्यानका विषय है । शास्त्रकारोंने सब तरह के सुखका कारण धर्मको ही बतलाया है । इसलिये धर्मका पालन करना ही मनुष्य का सबसे पहला कर्तव्य ( फर्ज ) है ।
गृहस्थो ! एक बात पर विचार करते हुए मुझे बहुत आश्चर्य होता है । धार्मिक भाव अथवा धर्मके अनुष्ठान से मनु-ष्यको सुख मिलता है; यह हिन्दु, मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि सभी सम्प्रदायें पुकार रही हैं, और जिधर देखो उधर ही धर्म नामकी घोषणा सुनाई देती है । इससे मालूम होता है कि धर्म सबको प्यारा है और सभीने उसे ऐहिक और आमुष्मिकपरलोक सुखका हेतु माना है । परन्तु आज जितनी मारामारी लड़ाई बखेड़ा और परस्पर ईर्षा - द्वेष चल रहे हैं वे केवल धर्मके ही नामसे चल रहे हैं ! जो धर्म सुख और शान्तिका देनेवाला माना जा रहा है, उसीके नामसे आपस में भयंकर मारामारी
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