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आदर्श जीवन।
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योगोद्वहनकी क्रिया समाप्त होनेपर आचार्यश्री जोधपुर पधारे और आप अपने गुरुमहाराजके साथ पाली ही रहे । श्रीसूरिजी महाराजका चौमासा जोधपुरमें हुआ और आपका हुआ पालीमें । १०८ श्री हर्षविजयजी महाराजकी तबीअत उस समय खराव थी । इस लिए उनकी सेवा करनेके लिए किसी सेवापरायण साधुकी आवश्यकता थी। मूरिजी महाराज हमारे चरित्रनायकको इसके लिए सबसे ज्यादा योग्य समझकर अन्यान्य साधुओंके वहाँ होते हुए भी पाली ही छोड़ गये । इसलिए आपका सं० १९४६ का तीसरा चौमासा पालीमें हुआ। इस चौमासेमें कभी कभी आपको व्याख्यान भी वाँचना पड़ता था । पर्युषणमें तो आपहीको कल्पसूत्र बाँचना पड़ा था । यहीं आपने अपने गुरुमहाराजसे आत्मप्रबोध और कल्पसूत्रकी सुबोधिका टीकाका अध्ययन किया था । १०८ श्रीहर्षविजयजी महाराज बड़े ही शान्त
और अध्ययन करानेमें अथक परिश्रम करने करानेवाले सच्चे उपाध्याय थे । आचार्यश्री ( आत्मारामजी महाराज ) के 'एक भी साधु ऐसे न होंगे जिन्हें इन्होंने सूत्राध्ययन न कराया हो । ये उपाध्याय पदके न होते हुए भी वास्तविक उपा'ध्यायका काम करते थे।
आप पालीमें थे इसलिए आचार्यश्रीको पत्रव्यवहार और अन्य लेखन के काममें बहुतसी असुविधा हुई । जो जरूरी पत्र होते थे उनका जवाब आचार्यश्री ही लिख देते थे. बाकी
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