SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८ आदर्श जीवन। main/VvM www on बिठाया और राजा अन्यान्य श्रोताओंके साथ दरीपर ही बैठ गये । उनके सेवकोंने उनके लिए गद्दी बिछाई थी उसको उन्होंने हटवा दी और कहा:-"सन्तोंके दर्वारमें सभी समान हैं। यहाँ ऊँच नचिका भेद नहीं है ।" धन्य हैं ऐसे विचारशील और नम्र राजा। पाट पर बिराजने पर श्रीहंसविजयजी महाराजने सुललित भाषामें मंगलाचरण कर गुरूका स्वरूप समझाया । उसके बाद उन्होंने हमारे चरित्रनायकसे व्याख्यान देनेके लिए कहा। आपने उत्तराध्ययनके तीसरे अध्ययनकी इस पहली गाथाका उच्चारण कर व्याख्यान प्रारंभ किया: चत्तारी परमंगाणी, दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणु सत्तं सुई सद्धा, संजमम्मीय वीरियं ॥ * मनुष्यता क्या है ? वह कैसे प्राप्त हो सकती है ? ज्ञान क्या है ? उसका उपयोग क्या है ? श्रद्धा क्या है ? उसके होनेसे क्या नफा है ? संयम क्या है और उसमें किस प्रकार आत्मशक्तिका विकास होता है ?, किया जाता है ? लगातार आठ दिनतक आप इसी श्लोकपर व्याख्यान देते रहे । तीन घंटेतक रोज व्याख्यान होता था। मगर लोग इतने तल्लीन होते थे कि, तीन घंटे तीन मिनिटके समान निकल जाते थे। * संसारमें जन्तुओंके लिए-जीवोंके लिए-चार परम अंग-साधन दुर्लभ हैं । वे चार परम साधन ये हैं-मनुष्यत्त्व, श्रुति-ज्ञान, श्रवण-श्रद्धा और संयममें वीर्यको प्रस्फुटित करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy