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(३५) जैसे इस गाममें छाछका मूल स्थान उक्त नम्बरदारका घर है,
और अन्यान्य लोग उसके घरसे छाछ लाकर उसमें अपनी तर्फसे थोड़ा २ पानी मिलाकर छाछवाले बन रहे हैं। इसी तरह धर्मका मूल स्थान ईश्वर है और उसका उपदेशरूप धर्म भी एक है। 'परन्तु भिन्न२ मार्गानुयायी लोग उसे ग्रहण करके अपनी कल्पनाके अनुरूप बनाकर धर्मज्ञ बन रहे हैं । जैसे छाछमें पानी मिलाने पर भी मूल छाछका अंश उसमें बना रहता है, ऐसे ही जुदे २ मतोंमें भी न्यून अथवा अधिक रूपमें वास्तविक धर्माश अवश्य है ! वही अंश मनुष्यको अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। इसलिए जलमिश्रित तक्रकी तरह कल्पना मिश्रित धर्माश भी धर्मरूपसे भासमान हो रहा है । अतः निखिल धर्मों में रहे हुए सत्यांशका ग्रहण करना ही विवेकी पुरुषोंका काम है । आहा ! महात्माओंके सारगर्भित कैसे निष्पक्ष विचार होते हैं !
सज्जनो ! परमात्मा सबके लिए समान है। हमारी स्वतन्त्र कल्पनाएँ उसकी अप्रतिहत ज्ञान सीमाको अणुमात्र भी विचलित नहीं कर सकती । परन्तु जब तक परमेश्वरके वास्तविक स्वरूपको हम अच्छी तरह समझ न सकें तब तक ईश्वर विषयक निर्धात मानसिक विचारों की स्थिरता दुष्प्राप्य है । इसलिए 'देव-परमात्माके स्वरूपका कुछ परामर्श करना प्रथम आवश्यक है।
प्रत्येक धर्मवाला ईश्वरको क्षमावान, दयालु, और निर्दोषपरम पवित्र मानता है। यथार्थमें परमात्मा निर्दोष, निर्विकार और
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