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________________ (५७) पहले कभी भी कहीं एकत्रित नहीं हुआ था ! इस मुनि सम्मेलनका पूर्ण मान मुनिश्री वल्लभविजयजीको है; क्यों कि, इस तरह मुनिमंडलको एकत्र होनेकी प्रेरणा इन्होंने ही की थी, और उसी सूचनानुसार हम तुम यहाँ इकट्ठे हुए हैं। मुनिवरो ! यह मुझे अच्छी तरह याद है कि, आप सब दूर दूर प्रदेशसे बहुतसे परिषहोंको सहन करके यहाँ पधारे हैं, जिसको देखकर मुझे वह आनंद हो रहा है जो अकथनीय है। महाशयो ! आप सब जानते ही हैं कि कितनेक अरसेसे हरएक धर्म, हरएक समाज, और हरएक कौम वाले अपनी अपनी परिषदें, कॉन्फ्रेंन्से करते हैं और उसके द्वारा धर्ममें, समाजमें, कौममें जो खामियाँ हैं उनको दूर करनेका प्रयत्न करते हैं। ... अपने जैन कौमके नेता गृहस्थोने भी समाज और धर्मकी उन्नतिके लिये ऐसी कॉन्फ्रेंस करनेकी शुरूआत की थी और सात स्थानोंपर हुई भी थी; परंतु खेद है कि, उत्साही प्रचारकोंकी खामी होनेसे हाल कॉन्फ्रेंन्स सोती हुई मालूम देती है। अपने श्वेतांबर संप्रदायके अनुयायी समग्र साधुओंको कितनाक काल पूर्व ही ऐसे साधुसंमेलन करनेकी आवश्यकता थी; परंतु परस्पर चलते हुए कितनेक मतभेदादि कारणोंसे मुनिवर्ग संमेलनादि कार्य नहीं कर सका ! अपना अर्थात् साधु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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