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________________ ( ११२ ) नहीं हो अन्यत्र हजारों रुनये उड़ा देते हो । श्रावकों में से अधिकांश तो चौबीस तीर्थङ्करोंके नाम तक नहीं जानते । खेतीहर (कृषक ) भी क्षेत्रकी परीक्षा करके बीज बोता है। किस समय, किस क्षेत्र में, । कौनसा बीज, किस प्रकार बोना चाहिये यदि इस बातका ध्यान नहीं रखते हो, तो तुम खेतीहरसे भी गये बीते हो । गृहस्थो ! हम तुम दोनों मिलकर काम करना चाहे तो हो सकता है । एकसे काम नहीं हो सकता । हाँ कितने ही कार्य हमारे ( साधुओंके ) बिना भी तुम कर सकते हो । साधु न होनेसे विवाह बन्द न रहेगा, सामायिक पौषधादि भी बन्द न रहेंगे, परन्तु छ: छ: महीने पहाड़ोंमें रहकर भी साधुओंको तुम्हारे पास आकर हाथ पसारना पड़ता है । सारांश यह है कि तुम्हारा हमारा परस्पर धार्मिक सम्बन्ध है । लक्ष्मी स्वभावसे चपल है. धर्म के काम में विलम्ब नहीं करना और बुरे कामों में विलम्ब करना अच्छा है । सामर्थ्य के रहते हुये भी अपनी जातिका, 1 अपने धर्मका उद्धार न करोगे तो दूसरा कौन करेगा ? शास्त्र के अनुसार जो कहोगे साधु मानने को तैयार हैं। जो श्रावक होगा वह शास्त्रका उल्लङ्घन कर साधुको कदापि कुछ नहीं कह सकता । साधुओंकी सार सम्भाल लेना, श्रावकोंका परम कर्तव्य है। श्रावकको जनशास्त्र में साधुके मातापिताकी उपमा दी है, - " अम्मापि उसमाणे श्रावकको साधुका राजा कहा है, सादूणं सहो राया " तब तुम्हारा फर्ज है कि सात क्षेत्रों में जहाँ त्रुटि मालूम देवेशिथिलता मालूम देवे उसे दूर करनेका प्रयत्न करो । ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only 99 www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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