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________________ (८७) किया और झगड़ेको बढने न दिया। उसका यह संमेलन अनुमोदन करता है और यदि कोई समय भविष्यमें ऐसा प्रसंग आवे तो ऐसे ही शांतता रखने के लिये यह सम्मेलन सम्मति देता है। इस प्रस्तावके उपस्थित करते हुए पंन्यास श्रीसंपतविजयजी महाराजने कहा था कि, साधुओंका यही धर्म है कि, अगर कोई गालियाँ दे या इससे भी आगे बढ़कर कोई शरीर पर चोट पहुँचाने आवे तो भी शांति रखनी चाहिये । जब साधु होकर भी शांति न रखी तो वो साधु ही काहेका ? साधारण समयमें तो सभी प्रायः शांतता रखते हैं, लेकिन ऐसे विकट प्रसंगमें शांतता रहे, तो ही साधुपनेकी परीक्षा होती है। पूर्वोक्त हेन्डबिल, येभी एक ऐसा ही प्रसंग प्रवर्तक श्री कांतिविजयनी वगैरहके लिये था। उनकी तथा हमारे पूज्यपाद गुरुवर्य श्रीआत्माराम नी महाराज कि, जिनके लिये तमाम हिन्दुस्तान के जैन ही नहीं बलकि जैनेतर लोग भी मगरूर हैं, उनके निसबत भी विना ही कारण मगज भी फिर जाय ऐसे अश्लील शब्दोंका उपयोग किया है। तो भी श्रीप्रवर्तकनी महाराज तथा वल्लभविजयजीने शांतता धारण करके पंजाबादि देशोंके श्रावकोंके दुखे हुए दिलोंको भी शांत किया.+ जिससे + सभ्य वाचकवृंद ! मुनियों के क्षमा धर्मका तो अनुभव आपको. प्रत्यक्ष ही होगा ! परंतु ऐसे ऐसे पूज्य महात्माओंकी बाबत खोटी नजर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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