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________________ आदर्श जीवन । गये । जाते हुए मुनि श्रीविद्याविजयजी, मुनि श्री विचारविजयजी, और लक्ष्मीचंदपर चोट भी करते गये । जब वे चले गये तब हमारे चरित्रनायकने सिपाहीकी तरफ ध्यान दिया । देखा, उसके सिर से खून निकल रहा है और वह बेहोश पड़ा है । समयको विचार हमारे चरित्रनायकने तर्पणीमें पानी था, वह सिपाहीके सिरपर डाला | उसने आँखें खोलीं और कहा :- " महाराज ! आपने मुझे बचा लिया । वरना यहाँ मेरा कौन था ! " ३३२ आप बोले: - " तुम किसी तरहकी चिन्ता न करो । हम "सब तुम्हारे ही हैं । " सिपाहीको बड़ा आश्वासन मिला । वह बोला :- " क्यों न हो ? आप जीवदया प्रतिपालक कहलाते हैं; आपने यह प्रत्यक्ष बता दिया कि आप साक्षात् दयाकी मूर्ति हैं ! " आपने कहा:- “ मनुष्य दयालु तो हमेशा ही कहलाते हैं; परन्तु वास्तविक दया तो वही है जो समय पड़े काम आती है । " पाठक स्वतः कष्टमें पड़े हुए भी दुःखमें पड़े हुएको सहायता देना कितने मनुष्य करते हैं ? सर्दी की मौसिम थी । ठंडी हवा चल रही थी । तीरकी तरह वह शरीर में घुस जाती थी । आपके और दूसरे साधुओंके पहनने के लिए केवल एक चोलपट्टा था । लुटेरोंने नंगापन ढका रहे इस हेतुसे उसे लिया न था । ऐसी दशामें आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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