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आदर्श जीवन।
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श्रीलावण्यविजयजी आचार्य महाराज १०८ श्रीविजयकमलसूरि जीके शिष्य और मुनि श्रीजिनीवजयजी पंन्यासजी महाराज श्रीसुंदरविजयजीके शिष्य थे; बाकी आपहीका, शिष्य प्रशिष्यादि, परिवार था । बड़े योगमें प्रवेश कराया । पालनपुरकी तरह बड़ोदेमें भी अठाई करनेवाले पर जातिभोजका टेक्स था । वह आपके उपदेशसे बंद हो गया। पर्युषणपर्वमें श्रीमहा वीर स्वामीके जन्म-महिमावाले दिन, कोठीपोलकी रहनेवाली श्रीमती प्रधानबाईकी तरफसे हर साल नोकारसी होती थी। उसमें संबजी काममें लाई जाती थी। आपके उपदेशसे उसका इस्तेमाल-उपयोग बंद हुआ। आपके व्याख्यानोंकी तो बड़ी धूम थी। जिन्होंने आपकी बचपनमें कर्णमधुर तोतली बोली सुनकर जितनी प्रसन्नता लाभ की थी, वे ही अब आपकी कर्णमधुर, हृदयमें धर्मज्योति जगानेवाली, ज्ञानगंभीर वाणी सुनकर दंग रह जाते थे और उससे सौगुनी प्रसन्नता एवं तृप्ति लाभ करते थे । चौमासा बड़े आनंदसे समाप्त हुआ। - इस चौमासेमें खीमचंद भाईने सोचा,-यदि छगन दीक्षित न हुआ होता और विवाह-शादीका प्रसंग आता तो मुझे उस समय उचित खर्च करना ही पड़ता, तब इस समय भी मैं, छगनके, नहीं मेरे कुलदीपकके, वल्लभविजयजी महाराजके यहाँ विराजते हुए, इनके दर्शनार्थ जो भाई बहिन आवें उनकी यथाशक्ति सेवाभक्ति करके सधर्मीवात्सल्यका लाभ क्यों न उठाऊँ ? संघके सामने उन्होंने अपनी इच्छा
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