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________________ आदर्श-जीवन । - - भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, 'वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् ॥ दुनिया है वह सय्याद कि सब दाममें इसकेआ जाते हैं लेकिन कोई दाना नहीं आता। हमारे चरित्र नायक तो कबसे मोक्षके अभिलाषी थे । उस मार्ग पर चलनेका यत्न करते थे; कवि जौकके कथनानुसार आप दाना बनकर इस दुनियाकी जाल में फँसना नहीं चाहते थे। ___लगभग दस महीने तक आप स्वर्गीय महाराज साहबके पास रह चुके थे । साधुसंगति और श्रावकोंके घर भोजन करने जाया करते थे इससे दिलकी झिझकन मिट गई थी। एक तो साधर्मी भाई और दूसरे दीक्षा लेनेका उम्मेदवार; श्रावक लोग सोचते हमारा धनभाग है कि, हमें ऐसे सुपात्रको भोजन करानेका अवसर मिलता है । वे बड़े आदर और आग्रहके साथ आपको अपने यहाँ ले जाते और प्रेमके साथ भोजन कराते । स्त्री पुरुष आपकी प्रशंसा करते,-तुम धन्य हो ! तुम्हारा जीवन धन्य है ! आप सिर झुका लेते। लोग कहते,कैसे विनयी हैं ? इनसे शासनकी प्रभावना होगी। इतना होनेपर भी आपके दिलमें बेचैनी थी। आपका १. संसार ऐसा शिकारी है कि, सभी उसकी जालमें फँस जाते. हैं; कोई दाना- बुद्धिमान ही उसमें नहीं आता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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