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________________ आदर्श जीवन। भक्तोंके आग्रहसे आपका विचार ढीला पढ़ने लगा था; साधुओंके दिलोंमें भी श्रावकोंकी भक्तिगद्दकंठसे की गई प्रार्थनाने घर किया था; उनके आग्रह शिथिल होने लग रहे थे। भक्त दो कठिनाइयोंको लग भग पार कर चुके थे । अब केवल तीसरी कठिनाई ही रह गई थी। वह थी गुजरातकी विनती। विनती ही क्यों गुजरातके आपको लेनेके लिए आये हुए प्रतिनिधि और आपके सगे बंधु, मिचंद भाई । क्योंक दिल्लीसे विहारमें देरी हुई थी और खीमचंद भाईको दिल्लीके श्रीसंघने लिख दिया था कि महाराज साहिबका चौमासा दील्लीहीमें होगा इस लिए वे घर जाकर फिर दील्ली आ गये थे। श्रावकोंने खीमचंद भाईसे कहा । खीमचंद भाईने पहले तो हाँ, ना की; मगर अन्तमें उनका दिल भी पसीज गया। उन्होंने श्रीसंघके साथ आकर अर्ज की,-" मैं अपना आग्रह छोड़ता हूँ। बड़ौदेके श्रीसंघको इस वर्ष और शान्ति रखनेके लिए कहूँगा । आप संघको नाराज न करें; विनती स्वीकार कर लें।" आपने विनती स्वीकारी । जयनादसे उपाश्रय गूंज उठा। जब आपका चौमासा दिल्लीहीमें होना स्थिर हो गया तब एक दिन दिल्लीके श्रावकोंने प्रार्थना की,-" गुरुदयाल ! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर हस्तिनापुरजी तीर्थ स्थान है । उसमें, आप जानते ही हैं कि, श्रीशान्तिनाथ स्वामी,श्रीकुंथुनाथ स्वामी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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