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________________ ( २३३ ) दिया करते थे। दुकानसे घर आते ही वे पहले अपने सभी कुटुंबियों और नौकरोंकी प्रसन्नताके समाचार पूछते थे । अगर किसीके चहरे पर उदासी दिखाई देती या किसीका सिर दुखता सुनते तो पहले उसकी खबर लेते । घरमें जो औषध होती उसका उपयोग करते अन्यथा झटसे डॉक्टरको टेलिफोन कर देते । वे नौकरको भी अपने घरका ही आदमी समझते थे। उनकी रसोईमें जीमनेवाले क्या नौकर और क्या बाहिरके आदमी सभीके लिए एकसी रसोई होती थी । आम वगैरा कोई भी नई चीज खानेकी घरमें आती तो कुटुं बियोंकी तरह उनके नौकरोंको भी बराबरका हिस्सा मिलता था । इनके पिता सेठ अमरचंदजी स्वर्गीय आत्मारामजी महाराजक संघाडे पर बहुत भक्ति रखते थे । इनके हृदय में भी वह मौजूद थी । हमारे चरित्रनायक आचार्य श्रीविजयवल्लभसूरिजी के एक बार इन्होंने दर्शन किये थे। तभीसे इनके हृदयमें भक्तिभावका संचार हो गया था। जब बंबईमें आपका दूसरा चौमासा सं० १९७० में हुआ था, तब आप दादरमें इन्हीं सेठ हेमचंद अमरचंदके बंगले में ठहरे थे । सेठ आपके व्यवहार, उपदेश, निस्पृह भाव और साम्य दृष्टिसे मुग्ध हो गये । इन्होंने आजतक किन्हींको आंतरिक श्रद्धासे नहीं माना था, परन्तु उस समय से हमारे चरित्रनायकको उन्होंने संपूर्ण श्रद्धा माना और तबसे वे हमारे चरित्रनायककी आज्ञा पूरी तरहसे पालने लगे थे । वे कहा करते थे कि - " अगर मुझे गुरुमहाराज हुक्म दें तो मैं जलती अग्निमें तक कूदने को तैयार हूँ । ” I जब महावीर जैन विद्यालय स्थापन करनेका हमारे चरित्रनायकने उपदेश दिया और अनेक तरहकी वाघाओंका विचार किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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