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________________ (२३८) धीरे धीरे बेतन बढ़ता गया और सं० १९४४ में तो ये अपनी होशिया के कारण करसनदास लखमीदासकी पेढीमें हिस्सेदार होग ये । फिर इन्होंने सं० १९५३ में देवकरण नारायणजीके नामसे अपनी अलग दुकान खोल ली, सं० १९५६ में देवकरण मूलजीके नामसे अपनी पेढी चलाई और लाखों रुपये कमाये । - धर्म और विद्यापर इनका प्रेम पहलेहीसे है। ये नियमित रूपसे सेवा पूजा किया करते हैं। यदि कभी पूजा नहीं कर सकते हैं तो भगवानके दर्शन किये विना तो ये कभी अन्न जल ग्रहण नहीं करते हैं। जिस उत्साह और होशियारीसे इन्होंने धन कमाया उसी उत्साह और होशियारीसे उसे खर्च भी किया। उन्होंने जो धन धर्मार्थ और विद्या प्रचारार्थ खर्च किया उसकी सूची हम यहाँ दे देते हैं .१२५०००) जूनागढ देवकरण मूलजी वीसा श्रीमाली जैन बोर्डिंग। २९०००) श्रीमहावीर जैनविद्यालय बंबई । ४००००) सम्मेत शिखरका संघ निकाला और उसमें हर्ष मुनि जीमहाराजको भेजे। १०००००) वणथलीमें मंदिर बनवाया और प्रतिष्ठा करवाई। ७००००) मलाडमें मंदिर बनवाया । ३१०००) जामनगरमें विश्रांतिगृह करवाया । २००००) सीहोरमें धर्मशाला बनवाई । १५०००) वनथलीमें धर्मशाला बनवाई । ५०००) जूनागढ गिरनारजीर्णोद्धारमें । ८०००) वणथली कन्याशालामें । ४४३०००) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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