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________________ आदर्श जीवन। १६१ ARANA बार नहीं मिलता; इस लिए इसके हरेक क्षणका सदुपयोग करना चाहिए। किसी भी धर्ममें दीक्षित होनेके पहले मनुष्यको चाहिए कि, वह उसकी भली प्रकारसे परीक्षा कर ले । तुम अभी हमारे साथ रहो, जैनशास्त्रोंका अनुशीलन करो और क्रियानुष्ठान सीखो । जब तुम्हें पूरा विश्वास हो जाय,-जब तुम्हारा मन सच्चे धर्म पर हिमालयकी तरह अटल हो जाय और जब हम तुम्हें दीक्षा देनेके पात्र समझेंगे तभी दीक्षा दे देंगे। उन दोनान कहा----" कृपानाथ ! हमारा मन हिमालयके समान स्थिर हो गया इसी लिए तो नाभासे दौड़े हुए आपके चरणोंमें आये हैं । अगर ऐसा न होता यदि स्थानकवासी साधु रह कर ही हम सत्य धर्मकी क्रिया कर सकते तो एक दीक्षाको छोड़कर दूसरीको ग्रहण करने न आते । महाराज! कृपा कीजिए और हमें इस बंधनसे मुक्त कीजिए।" लाला पन्नालालजी जौहरी, लाला महाराजमल, लाला नाथूमल आदि श्रावक आपके दर्शन करने तरनतारन आये हुए थे । वे भी उस समय मौजूद थे। उन्होंने विनती की," गुरुदयाल ! प्यासेको पानी पिलाना, भूखेको अन्न देना, दुखीका दुःख मिटाना तो धर्म है ही मगर आत्माको मुक्तिके मार्गमें लगाना सबसे बड़ा धर्म है। यह बात आपसे निवेदन करना छोटे मुँह बड़ी बात करना है। मगर इन साधुओंकी व्याकुलता देखहमसे चुप न रहा गया इसी लिए अर्ज कर दी है। हमें क्षमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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