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________________ ( ११६ ) हैं । गतसंवत्सर में आपने हमारे यहाँ श्री १०८ श्रीमन्महाराजाधिराज नाभानरेशजी के हज़र में छः ६ प्रश्न निवेदन करके कहा था कि यद्यपि जैनमत और जैनशास्त्र भी सर्वथा एक हैं परंच कालांतर से हमारे और ढूंढियों में परस्पर विवाद चला आता है बलकि कई एक जगा पर शास्त्रार्थ भी हुए हैं परन्तु यह बात निश्चय नहीं हुई कि अमुक पक्ष साधु है । श्रीमहाराज की न्यायशीलता और दयालुता । देशांतरों में विख्यात है इससे हमें आशा है कि हमारे भी परस्पर विवादका मूल आपके न्यायप्रभाव से दूर हो जावेगा । भगवदिच्छासे इन दिनों में ढूँढियों के महंत सोहनलालजी यहाँ आये हुए हैं उनके सन्मुख ही हमें इन छः ६ प्रश्नों का उत्तर जैनमत के शास्त्रानुसार उनसे दिलाया जावे। आपके कथनानुसार उक्त महंतजी को इस विषय की इत्तला दी गई, आपने इत्तला पाकर साधु उदयचंदजी को अपने स्थानापन्न का अधिकार देकर उनके हानि लाभ को अपना स्वीकार करके शास्त्रार्थ करना मान लिया था । 3.5 तदनंतर श्री १०८ श्रीमन्महाराजाधिराजजी की आज्ञानुसार हम लोगों को शास्त्रार्थ के मध्यस्थ नियत किया गया । तिस पीछे कई दिन तक हमारे सामने आपका और उदयचंदजी का शास्त्रार्थ होता रहा शास्त्रार्थ के समय पर जो प्रमाण आपने दिखलाये सो शास्त्र विहित थे । आपकी उक्ति और युक्तियाँ भी निःशंकनीय और प्रामाण्य थीं । प्रायः करके श्लाघनीय हैं । उक्त शास्त्रार्थ के समय पर और इस डेढ वर्ष के अंतर में भी जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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