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________________ उपाध्याय श्रीमद् विनयविजयनीने काशी जैसे दूर प्रदेशमें जाकर कैसी मुसीबतसे विद्या प्राप्त की थी ! मगर इस जमानेमें जहाँ चाहें वहाँ अच्छेसे अच्छे पंडित रखकर विद्याभ्यास कर सकते हैं । इतनी अनुकूलता होनेपर भी साधुओंमें उच्च ज्ञानकी बहुत हामी नजर आती है। कितनेक साधु सामान्य ज्ञान अर्थात् साधारण कथा ग्रंथ बाँचने जितना बोध हुआ कि, बस सब कुछ आ गया । ऐसा मानकर आगे अभ्यास करना बंद कर देते हैं. ऐसा नहीं होना चाहिये । किंतु अच्छी तरह न्यायशास्त्रादिका पूरा अभ्यास करना चाहिये । यह खूब ध्यानमें रखना कि उँचे प्रकारके विद्याध्ययनके विना साधुओंका महत्व टिके, ऐसा समय अब नहीं रहा। इस लिये जैनसमुदायमें विद्याकी वृद्धि हो, ऐसे प्रयत्नकी बहुत जरूरत है । जब ऐसा होगा तभी समुदाय, समान और आत्माकी उन्नति होगी। शास्त्रोंमें भी “पढम नाणं तओ दया" "ज्ञानाहते न मुक्तिः" इत्यादि फरमान हैं। _अपनेमें अर्थात् श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजीके शिष्य समुदायमें देशकालानुसार प्रायः आचार संबंधी शिथिलता नहीं है तो भी, भविष्यके लिये समयानुसार कितनेक नियम करनेकी. आवश्यकता मालूम देती है । भिन्न भिन्न संप्रदायके साधुओंकी पृथक पृथक प्रवृत्ति देखकर भय है कि, अपने साधुओंमें भी संगत दोष न लग जाय, इस लिये भी कितनेक नियम करनेकी जरूरत है । कितनेक अन्य साधु विहारमें अपने उपकरण आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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