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(१७९) वर्षा दहनसे फूलोंकी होती मकानमें।
वो रस भरीसी बानी जो पड़ती थी कानमें । महिमा कथाकी क्या कहूँ हीरोंकी फुलझड़ी ॥ गु० ॥२॥ समताका वास गुरुके हिरदें बिराजता ।।
करनेसे दरस जिनके अज्ञान भाजता ॥ दूषणसे रहित बिल्कुल आनंद गाजता ।
ज्ञानीको खुशी होती मूरख है त्रासता ॥ सनअतें गुरुकी क्या कहूँ ? लाखों भरी पड़ी ॥ गु० ॥ ३ ॥ बिन ज्ञानके हिरदेमें बिल्कुल अंधेर है।
नामको इन्सान पर मिट्टीका खेल है ।। निंदा जो गुरुकी करें किस्मतका फेर है। -: जानेमें उनके नरकको हरगिज न देर है । आती है दया देख बात मूर्खता भरी ॥ गु० ॥ ४ ॥ चंदाके निकलनेकी खुशी सब जहानमें ।
चकवी व चोर रोते हैं चुर चुर मैदानमें ॥ सूरजकी कला तेज है सारे जहानमें।।
उल्लू खुशी करता नहीं सूरजकी शानमें । ऐसे ही लोग वादी गुरुसे नाखुशी खरी ॥ गु० ॥ ५॥ थोडसिी सिफत करता हूँ गुरुकी बयान मैं। • इक बार कोई आगया सुनने बखानमें ॥ कुगुरको तजके होगया सत्गुरके ध्यानमें । . सूत्रोंका अर्थ आगया उसकी पहचानमें । तारीफ मुझ नादानसे हरगिज न जाकरी । गु० ॥६॥
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