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दिन भगवत भूदबलि डरला जातो
महाबंधो
महाधवल सिद्धान्त-शाल
MER
भारतीय ज्ञानपीठ
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मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला प्राकृत ग्रन्थांक - १
सिरि भगवंत भूदबलि भडारय पणीदो
महाबंधो
[ महाधवल सिद्धान्त - शास्त्र ]
पढमो पयडिबंधाहियारो [ प्रथम प्रकृतिबन्धाधिकार ] महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना एवं हिन्दी अनुवाद सहित
पुस्तक १
सम्पादन- अनुवाद
पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर
भारतीय ज्ञानपीठ
तृतीय संस्करण : १६६८ मूल्य : १४०.०० रुपये
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भारतीय ज्ञानपीठ (स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ६, वीर नि. सं. २४७०, विक्रम सं. २०००, १८ फरवरी, १६४४)
स्व० पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में स्व० साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित
एवं उनकी धर्मपत्नी स्व० श्रीमती रमा जैन द्वारा संपोषित
मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन
भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन-साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की सूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन-साहित्य ग्रन्थ भी
इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं।
ग्रन्थमाला सम्पादक (प्रथम संस्करण) डॉ. हीरालाल जैन एवं डॉ. आ. ने. उपाध्ये
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-११० ००३
मुद्रक : विकास ऑफसेट, दिल्ली-११० ०३२
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित
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Moortidevi Jain Granthamala : Prākrita Grantha No. 1
MAHABANDHO [First Part : Prakrti Bandhādhikāra ]
of
Bhagvān Bhutabali
Vol. I
Edited and Translated by Pt. Sumeruchandra Diwakar
A99
0331
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BHARATIYA JNANPITH
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Third Edition : 1998
Price : Rs. 140.00
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BHARATIYA JNANPITH
Founded on Phalguna Krishna 9, Vira N. Sam. 2470 Vikrama Sam. 2000. 18th Feb. 1944
MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA
Founded by
Late Sahu Shanti Prasad Jain
In memory of his late Mother Smt. Moortidevi
and
promoted by his benevolent wife late Smt. Rama Jain
In this Granthamala Critically edited Jain agamic, philosophical, puranic, literary, historical and other original texts available in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsha, Hindi, Kannada, Tamil etc., are being published in the respective languages with their translations in modern languages. Also being published are
catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies, art and architecture by competent scholars, and also popular Jain literature.
General Editors (First Edition)
Dr. Hiralal Jain & Dr. A.N. Upadhye
Published by Bharatiya Jnanpith
18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110003
Printed at: Vikas Offset, Delhi-110032
All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith
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समर्पण
जिन्होंने समीचीन श्रद्धा, आत्म-विज्ञान और दुर्धर सकल संयम से समलंकृत हो, विषयासक्त विश्व को अपने विमल जीवन द्वारा आदर्श दिगम्बर श्रमण-चर्या का दर्शन कराया;
जिन्होंने अपने आत्मतेज और प्रशस्त अध्यवसाय द्वारा भव्यात्माओं के अन्तःकरण में रत्नत्रय की दिव्य ज्योति प्रदीप्त करते हुए उन्हें श्रेयोमार्ग में संलग्न कराया;
जिन्होंने परमपूज्य महाबन्धादि आगम ग्रन्थों के संरक्षण हेतु उन्हें ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण कराया, जिनवाणी की चिरस्मरणीय सेवा की तथा जनसाधारण में सम्यग्ज्ञान के प्रसार हेतु उपयोगी ग्रन्थों को मुद्रित करवाकर अमूल्य वितरण कराया;
जिन्होंने अपने नेत्रों की ज्योति मन्द होने पर अहिंसा पहाव्रत के रक्षणार्थ वैयावृत्य रहित इंगिनीमरण रूप उच्च सल्लेखना को धारण कर इस दुषमा काल में ३६ दिवस पर्यन्त आहार त्यागकर परम शान्तिपूर्वक आदर्श समाधिमरण किया;
जिनकी उच्च तपः साधना तथा अपूर्व आत्मतेज से शरीर पर लिपटनेवाले भीषण सर्पराज भी बाधाकारी न हुए तथा व्याघ्र आदि क्रूर वन्य पशु जिनके पार्श्व में आकर प्रशान्त बने;
उन भयविमुक्त, आध्यात्मिक चूडामणि, चारित्र - चक्रवर्ती, साधुरत्न, १०८ आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज की पावन स्मृति में -
- सुमेरुचन्द्र दिवाकर
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GENERAL EDITOTIAL
(Third Edition)
Mahābandha is the sixth khanda (section) of the great Siddhānta work Şarkhandägama of Acārya Bhūtabali. It is also known as Mahādhavala. The subject matter of this work is of a highly technical nature which could be interesting only to those who are adepts in Jaina Philosophy and who desire to probe into the karma theory. The entire work is published in seven volumes. Mahabandha is an integral part of Șatkhandāgama. Șatkhandāgama, was reduced to writing, just at the time when the whole Jain canon was on the point of being forgotten. In this connection it may be noted that according to the Digambara tradition all the twelve Angas have been lost except these portions of the last of them i.e. Ditthivāya and a bit of the fifth Anga. According to the Svetämbaras, on the other hand, the first eleven are preserved though in a mutilated form, while the Ditthivāya is totally lost. The last and 12th Anga of Jain canon is available in the form of Şatkhandāgama only. The age of Şatkhandāgama is about 614 years after the Nirvāņa of Tīrthanikara Mahāvira, i.e., A.D. 73-106 A.D. and it is accepted by all. The exact time of Bhutabali said to be about 87 A.D. and it is also confirmed that he was a Digambara Acārya.
Mahābandha is the composite work of the special features of Karman philosophy, and is was composed in forty thousand sutras in Prakrit prose. The prakrit of the sutras, is Saurseni with special features.
The literal meaning of 'Karma' is 'action'. In its widest sense, the word is used for (i) floating wave of Jiva or soul, (ii) the bhava of affective consciousness with influx of matter into the soul and (ii) that affective consciousness generated by Karman molecules due to Sanskāras. In fact, the activities of mind and matter constituted a superradio, with the quintillious of living cells sending out their individual waves to be tuned in quadrillious of receiving sets in the brain closely. It is regarded as a subtle form of matter which is drawn in towards the soul as a result of our desires, passions and other thought activities. It is a well-known fact that the whole cosmic evolution is due to the interaction between soul and matter. The bondage of Jiva and Karman has been classified into Prakriti (Nature of Species of Karman), Sthiti (duration of Karman), Anubhāga (fruition of Karman) and Pradeshabandha (quantity of space-points of Karman). The first volume of the work, the prakritibandha deals with the nature of the Karmic bondage. As it is in the nature of opium to bring intoxication so karman has its own nature. While explaining the nature of Karmas, the author has cited the instance of meals, transforming into blood flesh, bone, muscle, marrow etc., in accordance with the digestive power, similarly the Karmas assure in numerable forms in conformity with the psychic experience of the Jiva. The first chapter of the prakritibandha narrates the sarvabandha, no sarvabandha, utkristabandha, anutkristabandha etc. Adhikāras.
It is a matter of great pleasure that after a long time first part of Mahābandha
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Editorial
is coming forth neatly and well presented. According to the wishes of the former respected editors a few pages have been added to introduce the summary of this volume properly. I hope and trust it will be useful for readers to understand the subject-matter of this great work.
I take this opportunity to offer my humble thanks to Sahu Ashok Kumar Jain and Sahu Ramesh Chandra Jain who are carrying on the noble work originated by Late Sahu Shanti Prasad Jain and Smt. Ramarani Jain.
Devendra Kumar Shastri Editor Moortidevi Jain Granthamala
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प्रकाशकीय (प्रथम संस्करण)
प्राचीन जैन ग्रन्थों की शोध-खोज, सम्पादन-प्रकाशन तथा आधुनिक लोकोपयोगी, धार्मिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, सुरुचिपूर्ण भव्य साहित्य के निर्माण और प्रकाशन की भावनाओं से प्रेरित होकर सेठ शान्तिप्रसादजी और उनकी सहधर्मचारिणी श्रीमती रमारानीजी ने फाल्गुन कृष्ण ६, वि. सं. २०००, शुक्रवार, १८ फरवरी, १६४४ को बनारस में भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना की।
उनकी धर्मनिष्ठ स्नेहमयी स्वर्गीया माता मूर्तिदेवी की अभिलाषा जैन सिद्धान्त ग्रन्थों-विशेषकर जयधवल, 'महाधवल' के उद्धार की थी। अतः उनकी अभिलाषा की पूर्तिस्वरूप उनकी पवित्र स्मृति में ज्ञानपीठ से एक मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला प्रकाशित की जा रही है।
ज्ञानपीठ की स्थापना को ३-४ मास ही हुये थे कि श्री पं. सुमेरुचन्द्रजी दिवाकर ने स्वसम्पादित प्रस्तुत ग्रन्थराज प्रथम खण्ड को ज्ञानपीठ से प्रकाशित करने की अभिलाषा प्रकट की। माताजी की अभिलाषा पूर्तिस्वरूप जयधवल का प्रकाशन जैन संघ के तत्त्वावधान में प्रारम्भ हो चुका था। अतः 'महाधवल' को ज्ञानपीठ से प्रकाशित करना तुरन्त निश्चय कर लिया गया और वीरशासन जयन्ती की शुभ वेला में प्रेस में दे दिया। परम सन्तोष की बात है कि ३ वर्ष पश्चात् श्रुतपंचमी के पुण्य दिवस पर उत्सुक और भक्तिविभोर जनता को उसके पूजन का अवसर मिल रहा है। हमारी अभिलाषा इसे शीघ्र से शीघ्र प्रकाशित करने की थी, पर प्रेस आदि की कठिनाइयों के कारण ऐसा नहीं हो सका।
दिवाकर जी ने अनेक विघ्न-बाधाओं को पार करके जिस साहस और अदम्य उत्साह से यह अलभ्य ग्रन्थ प्राप्त किया, उतनी ही लगन और परिश्रम से इसका सम्पादन किया है। ग्रन्थराज की उपलब्धि, अनुवाद
और सम्पादनादि सब कुछ आत्मकल्याण की पवित्र भावना से किया है और इसी भाव से ज्ञानपीठ को प्रकाशन के लिए भेंट कर दिया है। जिनवाणी के उद्धार की दिवाकरजी की यह निस्पृह भावना और लगन अनुकरणीय और अभिनन्दनीय है।
हम उन धर्म-प्रेमी महाशयों का विशेषतः मूडबिद्री के पू. भट्टारकजी का स्मरण करके आत्म-विभोर हो उठते हैं, जिन्होंने घोर संकट काल में, जब कि शास्त्रों को जला-जलाकर स्नान के लिए पानी गरम किया जाता था, मन्दिर विध्वंस किये जाते थे प्राणों से लगाकर इस ग्रन्थरत्न की रक्षा की और उपयुक्त समय आने पर उनके उत्तराधिकारियों ने भगवन्त भूतबलि की यह धरोहर समाज के कल्याणार्थ सौंप दी।
समाज उन सभी बन्धुओं का आभारी है जिन्होंने इस ग्रन्थराज की गोपनीय भण्डार से उपलब्धि और प्रतिलिपि कराने में एक क्षण के लिए भी सहयोग दिया है अथवा प्रयत्न किया है।
वे महानुभाव भी कम आदर के पात्र नहीं हैं जिन्होंने ग्रन्थ की प्राप्ति में विघ्न नहीं डाला, क्योंकि बने-बनाये शुभ कार्य तनिक-से विघ्न से छिन्न-भिन्न होते देखे गये हैं।
पं. परमानन्दजी साहित्याचार्य और पं. कुन्दनलालजी शास्त्री के हम विशेषतः आभारी हैं जिन्होंने उक्त ग्रन्थ के सम्पूर्ण आद्य अनुवाद में दिवाकर जी को नींव की ईंट की तरह सहयोग देकर इस ग्रन्थप्रासाद की जड़ जमायी।
ज्ञानपीठ के प्राकृत विभाग के सम्पादक ख्यातिप्राप्त डॉ. हीरालालजी ने इस ग्रन्थ का प्रास्ताविक लिखा है और संस्कृत विभाग के सम्पादक न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजी की देख-रेख में मुद्रण और प्रकाशन हुआ है। समस्त प्रूफ उन्होंने देखे हैं। दोनों ही विद्वान् ज्ञानपीठ के विशिष्ट अंग हैं, उन्हें धन्यवाद देने का हमें अधिकार नहीं है।
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प्रकाशकीय
हम उन सभी बन्धुओं के आभारी हैं जिनकी कृपा या भावनाओं से यह ग्रन्थराज प्रकाश में आया और हमें भी घर बैठे दर्शनों और स्वाध्याय का पुण्य प्राप्त हुआ।
भार्गव प्रेस के मालिक पं. पृथ्वीनाथजी भार्गव भी धन्यवाद के पात्र हैं।
अयोध्याप्रसाद गोयलीय
मन्त्री
डालमियानगर, ५ मई, १९४७
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प्रास्ताविकं किंचित
(प्रथम संस्करण)
जब मैंने 'षटूखण्डागम' का सम्पादन प्रारम्भ किया था, तब मेरे मार्ग में अनेक विघ्न-बाधाएँ उपस्थित थीं। तो भी जब उक्त ग्रन्थ का प्रथम भाग सन् १९३६ में प्रकाशित हुआ और लोगों ने उसका आनन्द से स्वागत किया, तब मुझे यह आशा हो गयी कि कठिनाइयों के होते हुए भी यथासमय तीनों सिद्धान्त ग्रन्थ प्रकाश में लाये जा सकेंगे। फिर भी मुझे यह भरोसा नहीं था कि मेरी आशा इतने शीघ्र सफल हो सकेगी और साहित्यिक प्रवृत्तियों में संसार-युद्ध के कारण अधिकाधिक बाधाओं के उपस्थित होते हुए भी, जयधवल का प्रथम भाग सन् १६४४ में तथा 'महाबन्ध' का प्रथम भाग सन् १९४७ में ही प्रकाशित हो सकेगा। जैन समाज और उसके विद्वानों के इन सफल प्रयलों से भविष्य आशापूर्ण प्रतीत होता है।
___ मैं 'षट्खण्डागम' के प्रथम भाग की प्रस्तावना में बतला चुका हूँ कि धवल और जयधवल सिद्धान्तों की प्रतिलिपियाँ सन् १९२४ में ही मूडबिद्री के शास्त्रभण्डार से बाहर आ गयी थी और उसके पश्चात् कुछ वर्षों में उनकी प्रतियाँ उत्तर भारत में उपलभ्य हो गयीं। किन्तु 'महाधवल' नाम से प्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रन्थ फिर भी मूडबिद्री सिद्धान्त मन्दिर में ही सुरक्षित था। जब मैंने सन १६३५-३६ में इन सिद्धान्त ग्रन्थों अन्तर्गत विषयों को जानने का प्रयत्न प्रारम्भ किया, तब मुझे यह जानकर बड़ा विस्मय हुआ कि जो कुछ थोड़ा-बहुत वृत्तान्त 'महाधवल' की प्रति के विषय में प्राप्त हो सका था, उसके आधार पर उस प्रति में केवल वीरसेनाचार्यकृत 'सत्कर्म चूलिका' की एक पंजिका मात्र है और 'महाबन्ध' का वहाँ कुछ पता नहीं चलता। तब मैंने इस विषय पर अपनी आशंका और चिन्ता को प्रकट करते हुए कुछ लेख प्रकाशित किये और अधिकारियों से इस विषय की प्रेरणा भी की कि वे मूडबिद्री की समीक्षण कराकर 'महाबन्ध' का पता लगाएँ। मुझे यह कहते हर्ष होता है कि मेरी वह प्रार्थना शीघ्र सफल हुई। मूडबिद्री के भट्टारकजी महाराज ने, पं. लोकनाथ शास्त्री व पं. नागराज शास्त्री से ताड़पत्रीय प्रति की जाँच करायी और मुझे सूचित किया कि उक्त पंजिका ताडपत्र २७ पर समाप्त हो गयी है, एवं आगे के पत्रों पर 'महाबन्ध' की रचना है। देखिए, जैन सिद्धान्त भास्कर (भाग ७, जून १६४०, पृ. ८६-९८) में प्रकाशित मेरा लेख 'श्री 'महाधवल' में क्या है?' एवं 'षट्खण्डागम' भाग ३, १६४१ की भूमिका प्र. ६-१४ में समाविष्ट 'महाबन्ध' की खोज'।
इस अन्वेषण से उत्पन्न हुई रुचि बढ़ती गयी और शीघ्र ही, विशेषतः पं. सुमेरचन्द्रजी दिवाकर के सत्प्रयत्न से, दिसम्बर १६४२ तक 'महाबन्ध' की प्रतिलिपि भी तैयार हो गयी व उन्होंने प्रस्तुत प्रथम भाग का सम्पादन व अनुवाद कर डाला। उनके इस स्तुत्य कार्य के लिए मैं उन्हें बहुत धन्यवाद देता हूँ। पण्डितजी ने अपनी प्रस्तावना में जो सामग्री उपस्थित की है, उसके साथ 'षट्खण्डागम' के प्रकाशित ७ भागों में मेरे-द्वारा लिखी गयी भूमिकाओं को पढ़ लेने की मैं पाठकों से प्रेरणा करता हूँ। इससे इन सिद्धान्तों के इतिहास व विषय आदि का बहुत कुछ परिचय प्राप्त हो सकेगा। पण्डितजी की भूमिका के पृ. ३० पर णमोकार मन्त्र के जीवट्ठाण के आदि में अनिबद्ध मंगल होने के सम्बन्ध का वक्तव्य मुझे बिलकुल निराधार प्रतीत होता है, क्योंकि वह प्राचीन प्रतियों के उपलब्ध पाठ एवं आचार्य वीरसेन की टीका की युक्तियों के सर्वथा विरुद्ध है। इस सम्बन्ध में 'षट्खण्डागम', भाग २ की भूमिका के पृ. ३३ आदि पर मेरा ‘णमोकार मन्त्र के आदि कर्ता' शीर्षक लेख देखें।
१. "इदं पुण जीवट्ठाणं णिबद्धमंगलं। यत्तो 'इमेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं' इदि एदस्स सुत्तस्सादीए णिबद्ध ‘णमो
अरिहंताणं' इच्चादि देवदाणमोक्कारदसणादो।" -ध. टी., पृ. ४१
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प्रास्ताविक
११
णिबद्ध का अर्थ स्वरचित है, जिसे दिवाकरजी ने स्वयं अपनी भूमिका में स्वीकार किया है। यथा-"अर्थात् सूत्र के आदि में सूत्र रचयिता के द्वारा रचित देवता नमस्कार निबद्ध मंगल है।"
'महाधवल' सिद्धान्त नाम से प्रसिद्ध शास्त्र यथार्थतः 'षट्खण्डागम' का ही 'महाबन्ध' नामक छठा खण्ड है, जैसा कि मैं उसके प्रथम भाग की भूमिका में बतला चुका हूँ। वहाँ मैं इस ग्रन्थ के कर्ताओं व समय आदि के सम्बन्ध का भी विचार कर चुका हूँ। तब से अभी तक कोई ऐसी नवीन सामग्री प्रकाश में नहीं आयी, जिसके कारण मुझे अपने उस मत में परिवर्तन करने की आवश्यकता प्रतीत हो।
यद्यपि 'महाबन्ध' 'षट्खण्डागम' का ही एक अंश है और उन्हीं भूतबलि आचार्य की रचना है जिन्होंने पूर्व पाँच खण्डों के बहुभाग की रचना की है, यहाँ तक कि उसका मंगलाचरण भी पृथक् न होकर चतुर्थ खण्ड वेदना के आदि में उपलब्ध मंगलाचरण से ही सम्बद्ध है, तथापि यह रचना एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में उपलब्ध होती है। इसके मुख्यतः दो कारण हैं-एक तो यह ग्रन्थ पूर्व पाँचों भागों को मिलाकर भी उनसे बहुत अधिक विशाल है, और दूसरे उस पर धवलाकार वीरसेनाचार्य की टीका नहीं है, क्योंकि उन्होंने इतनी सुविस्तृत रचना पर टीका लिखने की आवश्यकता ही नहीं समझी। इस ग्रन्थ का विषय शास्त्रीय है जिसमें केवल जैनदर्शन के उन्हीं मर्मज्ञों की रुचि हो सकती है जिन्हें कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी सूक्ष्मतम व्यवस्थाओं की जिज्ञासा हो।
ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला के प्राकृत विभाग के सम्पादक और नियामक के नाते मैं इस अवसर पर श्रीमान् साहु शान्तिप्रसादजी जैन का अभिनन्दन करता हूँ और उन्हें धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने भारतीय ज्ञानपीठ-जैसी संस्था स्थापित की व भारतीय संस्कृति की छिपी हुई निधियों का संसार को परिचय कराने के हेतु अपनी गातृश्री की स्मृति में यह मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला प्रारम्भ करायी। मुझे आशा और विश्वास है कि उनकी धर्मपत्नी तथा ज्ञानपीठ की संचालक समिति की अध्यक्ष श्रीमती रमारानीजी की रुचि तथा संस्था के संचालक न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजी शास्त्री के परिश्रम, अभियोग और उत्साह से संस्था का कार्य उत्तरोत्तर गतिशील होगा। मेरी सब विद्वानों से प्रार्थना है कि वे संस्था के उद्देश्य की पूर्ति में सहयोग प्रदान करें।
मारिस कॉलेज, नागपुर, १५-४-४७
हीरालाल जैन ग्रन्थमाला सम्पादक
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द्वितीय आवृत्ति का प्रधान-सम्पादकीय
हर्ष का विषय है कि उन्नीस वर्षों के पश्चात् 'महाबन्ध' के प्रथम भाग की द्वितीय आवृत्ति पाठकों के हाथ पहुँच रही है। संयोग की बात है कि इससे पूर्व सन् १६५८ में उधर 'षट्खण्डागम' के प्रथम पाँच खण्ड सोलह भागों में पूर्ण प्रकाशित हो गये और इधर छठा खण्ड भी सात भागों में पूर्ण प्रकाशित हो गया । 'महाबन्ध' की मूल प्रति के प्रारम्भ में २७ पत्रों में जो 'संतकम्म पंजिका' पायी गयी थी, उसका भी सम्पादन करके 'षट्खण्डागम' के १५ वें भाग के परिशिष्ट रूप ११ पृष्ठों में प्रकाशन कर दिया गया है।
पाठक देखेंगे कि उक्त समस्त भागों में हमने प्रत्येक भाग के विषय का शास्त्रीय परिचय देने का व उसका वैशिष्ट्य बतलाने का प्रयत्न किया है। 'महाबन्ध' के अन्य भागों में भी यही किया गया है। तदनुसार प्रस्तुत भाग के सम्पादक से भी यही अपेक्षा की जाती थी कि वे इस भाग के विषय का शास्त्रीय परिचय प्रस्तुत करें और उन गूढ़ रहस्यों को सामने लाएँ जो इस महान् आगम की विशेषता हो । किन्तु उन्होंने वैसा न कर अपनी प्रस्तावना में ऐसी चर्चाएँ की हैं जिनका इस भाग से लेश मात्र भी सम्बन्ध नहीं है; जैसे गुरु-परम्परा व प्रशस्ति-परिचय व मंगल चर्चा । यथार्थतः प्रस्तुत ग्रन्थ में कोई मंगलाचरण नहीं है। 'षट्खण्डागम' के प्रथम व तृतीय खण्डों के प्रारम्भ में मंगल आया है, वहाँ प्रस्तावनाओं में उन पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इनके सम्बन्ध में अपनी धारणाओं व कल्पनाओं का नहीं, किन्तु धवलाकार वीरसेन स्वामी के अभिमत का विशेष महत्त्व है। उन्होंने णमोकार मन्त्र को निबद्ध मंगल और ‘णमो जिणाणं' आदि को अनिबद्ध मंगल कहा है। इसी से फलित होनेवाली व्यवस्था पर विवेकपूर्वक ध्यान देना योग्य है। कर्मबन्ध मीमांसा पर विद्वान् सम्पादक ने ३५ से ८५ तक पचास पृष्ठ लिखे हैं । किन्तु वह सब सामान्य चर्चा है और प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रतिपादन का वहाँ लेशमात्र भी परिचय नहीं है। इसके लिए सम्पादक से बहुत आग्रह किया गया, किन्तु उन्होंने प्रस्तावना में कोई हेरफेर करना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इस संस्करण के सम्बन्ध यह तो कहा कि १७ वर्ष के शास्त्राभ्यास के फलस्वरूप अनेक बातें परिवर्तन तथा संशोधन योग्य लगीं तथा सहारनपुर निवासी नेमीचन्दजी व रतनचन्दजी ने अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये । किन्तु यह बतलाने की कृपा नहीं की कि वे संशोधन कहाँ किस प्रकरण में कैसे किये गये हैं । दो-चार संशोधन भी बतला दिये जाते, तो उनसे पाठ संशोधन सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त होतीं । अस्तु, हम विद्वान् सम्पादक के अनुगृहीत हैं कि उन्होंने ग्रन्थ का यह द्वितीय संस्करण प्रस्तुत किया । ग्रन्थमाला अधिकारियों को भी धन्यवाद कि उन्होंने ग्रन्थ को द्वितीय बार भी सुन्दरता से प्रकाशित कराया।
जबलपुर २६-६-६६
हीरालाल जैन आ. ने. उपाध्ये प्रधान सम्पादक
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FOREWORD
When I started editing the Șatkhandāgama, there were several difficulties in my way. Still, when the first volume was published in 1939 and was received with general applause, I became hopeful that, inspite of all the hindrances then existing, all the three Siddhānta works would be brought to light in due course. But I did not then expect that my hope will materialize so soon as to lead to the publication of Jayadhavalā Vol. I in 1944 and of Mahābandha Vol. I in 1947, inspite of the additional difficulties in the way of such literary efforts, created by the World War. These successful efforts of the Jaina community and its scholars augur well for the future.
I had already described in my introduction to Vol. I of Șatkhandāgama, how copies of dhavalā and Jayadhavală Siddhānta had emerged from the Moodbidri temple as early as 1915 and how the same had become available in North India during the subsequent years, But the so-called Mahādhavalā Siddhānta was still confined to the private archives of the Moodbidri temple. When I examined critically the contents of these Siddhānta works in 1938-39, I was startled to find that the scanty information available about the manuscript of Mahädhavalā only showed the existence of a gloss (Parnjikā) on the supplementary portion (Cülikā) of Virasena's commentary Dhavală, and there was no trace of the Mahābandha. I, therefore, published a few articles on the subject expressing my anxiety in the matter and also urged upon the proper authorities the necessity of a thorough examination of the palm-leaf manuscript in search of Mahābadha. I am glad to say that my appeal met with a ready response. The Bhattārakaji got the palm-leaf manuscript examined by Pandit Lokanath Shastri and his colleagues, and reported to me that the gloss ended on leaf 27 and the rest of the MS. did contain the Mahābandha (see my article on “Sri Mahādhavalā men kyā hai?" in Jaina Siddhānta Bhāskara Vol. VII, June 1940, pp. 86-98; and “Mahābandha ki khoja" in Satkhandāgama Vol. III, 1941, Introdiction, pp. 6-14.)
The interest aroused by this discovery was kept up, and a transcript of the Mahābandha was completed by the end of 1942, mainly through the efforts of Pandit Sumeruchandra Diwakar, the editor of this volume, to whom my best thanks are due for the laudable task he has done in obtaining, editing and translating the text, as well as in writing the introduction which the readers would be well advised to supplement by the information presented in my introductions to the seven volumes of Satkhandāgama so for published, in order to get a clear idea of the history and subject-matter of these works. The remarks of Pandit Sumerchandraji on page 30 of his introduction regarding the Panca Namokāra Mantra as 'anibaddha mangala'in Jivatthāna appear to me to be entirely baseless as they are against the reading available in the old MSS. and the arguments set forth by Virasenacharya which I have discussed in my introduction to Vol. II, p. 33 ff. under the heading Namokara Mantra ke Adikartā.'
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महाबन्ध
The Mahābandha, popularly known as Mahādhavalā Siddhanta forms the sixth section (Khaņdā) of the Satkhandāgama, as I had already shown in my introduction to Vol. I of that work where I had also discussed all the evidence available on the point of authorship and the age of these works. No new material has since been brought to light and therefore my views on the subject remain unaltered.
Though Mahābandha is an integral part of the Șatkhandāgama, and is composed by the same author Bhūtabali who did not even provide it with a separate benediction (Mangala), but made it share the one given at the beginning of the fourth Khanda Vedana, yet it has come down to us in a separate manuscript for two reasons. Firstly, the composition is much larger in volume than even all the first five sections put together; and secondly, it contains no commentary by Virasena, the author of Dhavalā, who thought it unnecessary to comment upon a work which was so exhaustively self-sufficient. The subject matter of the work is of a highly technical nature which could be interesting only to those adepts in Jaina philosophy who desire to probe the minutest details of the Karma Siddhānta.
As the General Editor of the Series, I take this opportunity to congratulate and offer my best thanks to Mr. Shantiprasad Jain for establishing the Bharatiya Jnanapitha at Banares and starting this series of publications in memory of his mother Moortidevi, with the noble object of making known to the world the hidden treasures of ancient Indian culture. I hope and trust that with the keen interest of Mrs, Shantiprasad, Shrimati Rama Rani, the President of the Managing Committee, and the industry, zeal and enthusiasm of Nyayacharya Pandit Mahendrakumar Shastri, the acting Director of the institution, the work started would continue to advance steadily towards the goal. I appeal to all scholors to cooperate with the institution in achieving its laudable object.
Morris College, Nagpur. 15th March, 1947
Hiralal Jain General Editor
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द्वितीय संस्करण
यह परम आनन्द की बात है कि 'महाबन्ध' सदृश दुरूह और गम्भीर ग्रन्थ के प्रथम खण्ड का प्रथम संस्करण समाप्त हो जाने से उसके पुनः मुद्रण का मंगल प्रसंग प्राप्त हुआ। हमने 'महाबन्ध' का सूक्ष्मता से पुनः पर्यालोचन करके भूमिका, अनुवाद आदि में अत्यधिक आवश्यक तथा उपयोगी परिवर्तन और परिवर्धन किये हैं।
__इस ग्रन्थ की कोई पूर्व में टीका नहीं थी, अतः १७ वर्ष के शास्त्राभ्यास के फलस्वरूप अनेक बातें परिवर्तन तथा संशोधन योग्य लगीं। सहारनपुर के श्रुतप्रेमी बन्धु श्री नेमीचन्दजी एडवोकेट तथा ब्र.. रतनचन्दजी मुख्तार ने अनेक महत्त्वपूर्ण संशोधनों का सुझाव दिया। मूडबिद्री जाकर पुनः प्रतिलिपि मिलाने के कार्य में हमारे अनुज अभिनन्दनकुमार दिवाकर, एम.ए., एल.एल.बी., एडवोकेट ने महत्त्वपूर्ण योग दिया था। हमारे भाई श्रेयांसकुमार दिवाकर, बी.एस-सी. से भी उपयोगी सहायता मिली। भाई शान्तिलाल दिवाकर के ज्येष्ठ चिरंजीव ऋषभकुमार ने लेखन कार्य में पर्याप्त श्रम उठाया है।
भारतीय ज्ञानपीठ ने इस ग्रन्थ के पुनः मुद्रण का भार उठाया। इन सबके प्रति हम अत्यन्त आभारी हैं। चारित्रचक्रवर्ती, क्षपकशिरोमणि, १०८ आचार्य शान्तिसागर महाराज की इच्छानसार सम्पूर्ण 'महाबन्ध' की ताम्रपत्रीय प्रति के लिए पूर्ण ग्रन्थ संशोधन, सम्पादन तथा मुद्रण का महान कार्य करने का पवित्र सौभाग्य मिला था। उस कार्य के अनुभव से इस टीका के कार्य में विशेष लाभ पहुँचा। सन् १८५५ में उन ऋषिराज ने सिद्धक्षेत्र कुन्थलगिरि में ३६ दिन पर्यन्त सल्लेलखनापूर्वक आदर्श देहोत्सर्ग किया। अतः उनके पुण्यचरणों को कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करते हुए प्रणामांजलि अर्पित करते हैं। ऋषीश्वर धरसेन आचार्य तथा पुष्पदन्त-भूतबलि मुनीन्द्रों के चरणों को शतशः वन्दन है, जिनके कारण इस द्वादशांग वाणी के अंगरूप आगम का संरक्षण हुआ। 'जयउ सुयदेवदा।'
दिवाकर सदन, सिवनी ३० दिसम्बर, १६६४
-सुमेरुचन्द्र दिवाकर
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PREFACE
(First Edition)
Mahabandha and its importance
We have great pleasure in placing before the literary world the first volume of Mahābandha alias Mahādhavalā which was hitherto hidden in the śāstra Bhandār of Moodbidri (South Kanara.) It is one of the three most reputed and revered Jain canonical works, whereof Jayadhavalā and Dhavalā have seen the light of the day and have reached the hands of scholars. Ordinarily this Mahābandha is supposed to be as remarkable as the said two Šāstras but as a matter of fact, this is worthy of greater attention, since it is the biggest Prākrta sūtra work consisting of forty thousand ślokas, composed in the beginning of the Christian era.
This Mahābandha is the sixth part of the great Satkhandāgama sūtra. The commentary on the five parts is called Dhavală, composed by Acārya Virasen in the 9th century A.D. during the reign of Jain monarch Amoghavarsha having 72000 ślokas. The original sūtras consist of 6000 ślokas, out of which only 177 sütras had been written by Puspadanta Ācārya and the remaining portion was composed by Sri Bhūtabali Acaryā. Thus the entire composition of Bhūtabali comes to about 46000 slokas.
The other sacred work Jayadhavalā is a commentary written in the 9th century A.D. by Virasen and Bhāgwata Jinasen Acārya in 60000 slokas on one of the most sacre 1 scriptures, named Kasāya Pāhuda of Gunadhara Acārya. This Kaşāya Pāhuda consists of only hundred and eighty gāthās, which also belong to the early part of the Christian era. Naturally therefore Dhavalā and Jayadhavalā commentaries cannot rank with Mahābandha from antiquarian stand-point.
This work deals with the Bandha category, which is one of the sevenfold Tattvas in Jainism, in the Jain Sauraseni Prākrta. The language is simple and lucid. The entire work is in prose, with the exception of about one and a half dozen verses. About three thousand ślokas of the work are missing, since they have been eaten by worms and so they cannot be replaced by any amount of human effort. Historical reference
The entire work has no historical reference; even the name of the author Ācārya Bhūtabali does not appear in such a voluminous composition, probably reflecting the author's detachment for name, which according to poet Milton 'is the last infirmity of a noble mind.'
In the panegyric the name of the work appears as Mahābandha, which is a mine of metitorious karmas' (He qualche EGFETY05). This book has been referred to in the Dhavalā and Jayadhavalā on several occasions and its authorship is ascribed to Bhūtabali. The prasasti of palm-leaf manuscript mentions that it was written through the munificience of Rājā Sāntisena's pious and benevolent queen Mallikādevi for the purpose of presentation to an erudite Munirāj Māghanandi who was the disciple of Meghachandra Suri in commemoration of the successful
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Preface
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completion of her Pañcami-Vrta. This throws light upon the fact that in ancient India the ladies of high families had refined taste and were attached to literature. It is through the generosity of Mallikādevī that we have at least one copy amid us written in the Kannad script. It is really a matter of profound regret that such important work has not been preserved in any other Bhandāra.
The Dhavalā sheds light upon the descent of this work and the historicity of Monks Bhūtabali, Puspadanta and their spiritual preceptor Dharaşeņa Ācārya. He was a great soul and an enlightened scholar well-versed in some portions of the Twelve-Angas, which had been composed by the head of Jain hierarchy, Gautama Ganadhar, who had received direct Teaching from the Omniscient Tirthankara Bhagavān Mahāvīra. Dharaşena flourished after Lohācārya, who died 683 years after Mahavira's Nirvāņa i. e., in 137 A.D. What is the exact date of Dharaşeņa is not definitely known, but it is surmised that he must have lived a couple of years after Lohācārya. It is just possible that he might have seen the demise of Lohācārya, who possessed the knowledge of entire Acharanga. It appears, therefore, that Dharaşena should belong to the later half of the second century after Christ.
It transpires that Dharaşena Acārya was proficient in the occult science of Ashtanga Nimitta Šāstra; as also in 'Mahā-Karma-Prakriti-Prābhrita. On one occasion his mind was diverted towards the sudden disappearance of canonical Teachings of Mahavira Bhagavana and this fact grieved him a great deal. He made up his mind to preserve the Teaching, which was fresh in his memory. He imparted instructions to Bhūtabali and Puspadanta, who were sent to him by the religious head of the monks of the south on his requisition for sending disciples specially remarkable for their memory and retentive faculty. After the termination of studies, the disciples left the place in accordance with the wishes of their master. Puşpadanta went to Vanavās Desa (modern Wandewash), composed 177 sūtras and sent them to Bhūtabali with his high-souled disciple Jinapālita to Dramila Desa. After going through the sūtras Bhūtabali could see into the mind of Puspadanta. Jinapālita communicated to him that his master was not expected to survive long, thereby suggesting to him that he should speed up the matter of compiling the teaching imparted to them by the preceptor, Dharaşena Ācārya.
Bhūtabali devoted himself to writing with single minded devotion and was successful in completing the whole of Satkhandāgama sütra. Fortunately Puspadanta was alive then, therefore he sent the entire composition to his colleague Puspadanta with the self-same saint Jinapalita. Puspadanta was extremely delighted to see his heartfelt wishes fulfilled and he performed the worship of the scripture with due eclat and grandeur accompanied by the huge assemblage of Jains on jyeştha sudi 5th day.
Date of the author
The date of the author is not mentioned, but it appears that it must be assigned to the early part of the first century A.D.
The Subject matter
The subject matter of this book, as already mentioned, is Bandha, (Bondage) which forms an essential part of the doctrine of Karma. Almost all the believers in transmigration attach importance to the philosophy of Karmas. The adage, 'as you
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Sow, so you reap,' is significant enough to show the universality and popularity of this doctrine, but the treatment of this subject is unique in Jain philosophy, in as much as it is scientific, rational and elaborate. No other system has explained this matter, as has been done by Jain thinkers and sages.
With a view to appreciate this doctrine it is necessary to comprehend the nature of the world. Our analysis brings out that there are sentient and non-sentient beings in this universe. The soul is possessed of consciousness, while other objects, devoid of this faculty, are matter, space, time, etc. The special characteristics of matter are taste, smell, touch and colour. All that is perceived by us is material. Like the soul, matter is also indestructible. They are eternal, therefore they are not created by any agency, whether super-natural or super-human. The whold panorama of nature is the outcome of the combination or the chemical action of atoms due to the property of smoothness and aridity. The variegated forms and appearances are evolved out of material atoms. But this has driven many a thinker to the conclusion that some Intelligent and Supreme Being is at the helm of affairs. He creates, destroys and recreates. The entire world dances attendance to His sweet wishes. He is Omnipotent, Omniscient and Enjoyer of transcendental bliss.
The Jain philosophers do not agree with the idea of a Supreme Being guiding the destinies of all things, since it does not stand to critical examination and logical interpretation. Impartial study and mature thought lead us to the conclusion that this world full of barbarities and inequalities cannot be the handiwork of a good, happy, Omnipotent and Omniscient God. The observations of the scientist Huxley deserve special attention in this respect:
“In my opinion it is not the quantity, but the quality, of persons among whom the attributes of divinity are distributed, which is the serious matter. If the divine might is associated with no higher ethical attributes than those which obtained among ordinary men; if the divine intelligence is supposed to be so imperfect that it connot foresee the consequences of its own contrivances; if the supernal powers can become furiously angry with the creatures of their omnipotence and in their senseless wrath destroy the innocent along with the guilty; or if they can show themselves to be as easily placated by presents and gross flattery as any oriental or occidental despot; if in short, they are only stronger than mortal men and no better, then surely, it is time for us to look somewhat closely into their credentials and to accept none but conclusive evidence of their existence." (Science & Hebrew Tradition. p. 258)
This world connot be the creation of a benevolent and good God, for it presents a poor picture of the abundance of misery and calamity as the lot of the majority of its creatures, Edwin Arnold in his Light of Asia argues:
"How can it be, that Brahma, Would make a world, and keep it miserable, Since, if all-powerful, he leaves it so, He is no good, and if not powerful,
He is not God." Due to these failings, the Jains believe in a God, who is Omniscient, who is passionless and who enjoys the bliss of perfection, and who does not bother about
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Preface
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the creation or destruction of the world. The manifold conditions of sentient beings are due to fruition of Karmas acquired by the Jiva in the past.
Bondage of karma
Some think that the soul is pure and perfect; therefore it is wrong to suppose it as the reaper of the harvest of its merits or demerits. This view goes against our experience and reason. The mundane soul is impure, since it is contaminated with matter assuming the form of good or bad karmas. We see that the Jiva has been imprisoned in this body, which is a store-house of the filthiest of objects. The pure, perfect and powerful soul would never have liked to reside in such an impure tabernacle even for a moment. We, therefore, infer that the jīva is under forced servility of something, which is instrumental for such an awkward position of the soul. The main source of this downfall is the matter having assumed the form of a Karma.
This Karma is material since its effects, auspicious or otherwise, are visible either on the physical body or they are exhibited by means of association or separation of material objects.
This soul, although immaterial, is recipient of good or evil effects of the Karmas which are material. This phenomenon should not bewilder any one, for we see that the intelligent being is subject to intoxication caused by drinking wine which is non-sentient. It is to be noted that the very liquor does not cause any intoxication to the bottle which contains it. Such is the nature of things.
The mundane soul has got vibrations through mind, body or speech. The molecules which assume the form of mind, body or speech, engender vibrations in the fiva, whereby an infinite number of subtle atoms is attracted and assimilated by the Jiva. This assimilated group of atoms is termed as Karma. Its effect is visible in the multifarious conditions of the mundane soul. As a red-hot iron-ball, when dipped into water, assimilates its particles; or as a magnet draws iron filings towards itself due to magnetic force; in the like manner the soul, propelled by its psychic experiences of infatuation, anger, pride, deceit and avarice, attracts karmic molecules and becomes polluted by the Karmas. The psychic experience is the instrumental cause of this transformation of matter into a Karma; as the clouds are instrumental in the change of sun's rays into a rainbow.
When Karmas come in contact with the soul, fusion occurs, whereby a new condition springs up which is endowed with marvellous potentialities and is more powerful than infinite atom bombs. One can easily imagine the power of Karmas, which have covered infinite knowledge, infinite power, infinite bliss of the soul and have made a beggar of this very siva, who is no less than a Paramatman by its intrinsic nature. Psychic experiences of anger etc., cause the fusion of Karmas and these Karmas again produce feelings of attachment, aversion or anger etc., thus the chain of karmic bondage continues ad infinitum.
This karmas-soul-association is without a beginning. There has been no period when the fusion of Karmas took place in a pure soul. It is beyond comprehension that a perfect, pure, blissful, omniscient and powerful soul will ever enter into the folly of embracing the Karmas and thus dig its own grave by inviting innumerable and indescribable sufferings.
When the husk of paddy is removed from it, the rice loses its power of
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महाबन्ध
sprouting; likewise when the husk of Karmic molecules is removed from the mundane soul, the resulting perfect Jiva cannot be imprisoned by the regermination of Karmas. The nature of a soul, entangled in the cob-web of transmigration, can be understood easily, when we divert our attention to the impure gold found in a mine. The association of filth with golden ore is without beginning. but when the foreign matter is burnt by fire and various chemicals, the resulting pure gold glitters; in the like manner the fire of right belief, right knowledge and right conduct destroys the karmic bondage in no time. If the fire of self-absoprtion is intense, the work of destruction can be achieved within a span of 48 minutes. This destruction does not mean complete annihilation of the atoms, but it denotes the dissociation of Karmic molecules from the soul.
While explaining the nature of Karmas, the Jain saints have cited the instance of meals, transforming into blood, flesh, bone, muscle, marrow etc., in accordance with the digestive power; similarly the Karmas assume innumerable forms in conformity with the psychic experiences of the fiva. These Karmic molecules are superfine. They are not visible even with the aid of physical instruments. Even after the destruction of this physical gross body, the Karmas are not destroyed. The Karmic body and the electric body (Taijas Sharira) always control and regulate the activities of the Jiva. Had they left the Jiva for a moment, no power in the world could have recaptured the soul in the clutches of Karmas and debarred the Divine Being from enjoying transcendental bliss of liberation.*
*The doctrine of karma Philosophy has been dealt with at length in my book “Religion and Peace.” The great Hindu recondite scholar Dr. Sir C.P. Ramaswami Aiyar had observed in his letter : "The Chapter on Karma Philosophy is entitled to special attention, as the term Karma has not the same mening in Jain philosophy as in ordinary Parlance. Jain philosophers, as the author says, do not agree with the idea of a Supreme Being personally guiding the destinies of all things. Karma is in the nature of vibrations operating through mind, body or speech, by means of which atoms and molecules assume several aspects and forms. A group of atoms is termed Karma, whose effect is visible in exterior condition. This theory, in fact, embodies a marvellous pre-science of modern scientific developments. The whole chapter is intensely interesting and is an attempt at rational expostion of Karmic bonds, as they affect the soul's evolution.
“The final teaching that the Jiva with attachment gets bound by Karma, but the one with detachment remains free from Karma, is not different from the Vedantic approach, but the process of reasoning and the background of the doctrine are inherently sui generis and it is to the glory of the great Jain teachers that they were able to evolve a philosophy of conduct uninfluenced by any reliance upon supernatural intervention or guidance." (Relegion And Peace, p. 318.)
“For it is impossible that he who has once been made perfect by love and feasts eternally and insatiably on the boundless joy of contemplation, should delight in small and grovelling things. For what rational cause remains any more to the man who has gained the 'light inaccessible' for reverting to the good things of the world?" (Clement) A.N.C.L. Vol. XII, pp. 346-347).
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Preface
Varieties of Bandha
The bondage of Jiva and karma has been classified into 'Prakṛti', 'Sthiti, 'Anubhaga' and 'Pradeśa' bandha. The first i. e., the prakṛti bandha deals with the nature of the Karmic bondage; e.g. the nature of opium is intoxication. Similarly the 'Jñänävaraniya' Karma obstructs the knowledge; the 'Darianävaraniya' obstructs darsana (form of consciounsess, which precedes knowledge); Vedaniya' enables the soul to have sensations of pleasure or pain through senses; 'Mohaniya, the ringleader of the Karmas, causes delusion and perverse vision of the self and non-self; 'Ayuh' determines the length of life in a particular body; 'Nama' is responsible for physical form, complexion, constitution etc, 'Gotra' decides the birth in high or low family and the last one, 'Antaraya', acts as an impediment in the acquisition and enjoyment of things, possession of strength etc. These eightfold Karmas are further sub-divided into 148 varieties. The present volume deals with this präkṛti bandha from several stand-points. The second one i.e., 'sthiti bandha'determines duration of the bondage; the third. 'anubhāga bandha' deals with the potentiality of various karmas, the foruth, 'pradeśa bandha' causes the division of karmic molecules into several varieties in accordance with the vibrations of the soul.
The modern worldy-wise man perhaps may think that this work has not bearing upon life and it is a mere display of intellectual exercises.
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An aspirant for liberation will immediately differ from this viewpoint. In Mahabandha he will find wonderful remedy for warding off the feelings of attachment or aversion and thereby uplift the soul to the sphere of equanimous contemplation, which ultimately leads to the final beatitude. One who devotes himself to the study of this work is so deeply engrossed therein, that he forgets for a while. the world of attachment and aversion. His Holiness the Digamber Jain Acarya Caritra Cakravarti Sri Säntisägar Mahārāj had once remarked, "This Shastra must be thoroughly studied by those who are tired of transmigration and who long for liberation. Proper knowledge of Bandha-Tattva is essential before proceeding towards the ultimate goal of purity and perfection."
In the end, we deem it our duty to express our sincere gratefulness to Sri D. Manjjaiya Heggade, B. A., M.L.C., Dharmasthala, His Holiness Bhattarak Sriman Charukirti Panditacharya Swami, Moodbidri and the trustees of the Jain Siddhanta Temple, Moodbidri, (South Kanara) for the kind permission to take a copy from the original text preserved in the Siddhanta Mandir.
Diwakar Sadan
Seoni. (M.P.) 6th January, 1947
We are also thankful to Danvir Sri Shanti Prasal Jain, B. Sc., the founder of the Bharatiya Jñana-Pitha Kashi, through whose munificence this volume is coming to the hands of the public.
-Sumeruchandra Diwakar
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It is a matter of profound gratification that this sacrosanct scripture, Mahābandha, is undergoing the second edition. When it was first printed in 1947, it was revealed that more than three thousand slokas of the palm-leaf manuscript were irrevocably destroyed by moths. This information deeply pinched the soul of the greatest Digambar Jain Saint. His Holiness Caritra Cakravarti-108 Acārya Shanti Sagar Mahārāj, who was then spending his Chaturmās period of rainy season in the Jain Tirtha, Kunthalgiri (Maharashtra State). When the saint's mental worry and disturbed internal condition became known, the devoted disciples humbly prayed for conveying to them the internal difficulty. His Holiness observed. "Look here, precious part of the most ancient and sacred Jain literature is lost for ever. If immediate care is not taken for proper preservation of the remaining literary priceless treasure, we shall one day become paupers. I, therefore, feel it imperative that the entire Siddhanta literature comprising of one lakh and seventy thousand slokas should be inscribed in copper plates so that it may last for hundreds of years."
Preface to the Second Edition
The master's bidding was immediately obeyed and about two lakhs of rupees were contributed by the generous, opulent and cultured disciples to fulfil the sublime desire of the saint.
Fortunately, the sacred responsibility of critically editing and printing the entire Mahabandha comprising of forty thousand slokas was entrusted to me.
In view of my onerous responsibility and arduous duty, I had been to the Jain monastery at Moodbidri (South Kanara) with a view to critically examine and collate the press copy with the palm-leaf manuscript of the Shästra Bhandar with my younger brother Abhinandan Kumar Diwakar, M.A., LL, B., Advocate, Seoni. This effort was very fruitful since several inaccuracies could be detacted then. Thus the work was accomplished in such a way that His Holiness was much pleased and he bestowed his valuable blessings on me. I had made a deep study of several Jain canonical compositions of master thinkers and literary luminaries, This study equipped me with such new and novel material as necessitated to thoroughly revise the first edition and make necessary additions and alterations in order that the wisdom-lovers may be profited thereby. I, therefore, have improved this second edition with seveval new explanatory notes appended to the translation and have equipped the Hindi introduction with many a new points of information. All this is due to the great benevolent saint His Holiness Acarya Säntisāgar Mahārāj who was gracioulsy pleased to provide me the sublime opportunity to serve the cause of learning and thus purify and elevate my humble self. Since the said great Acarya left his mortal coil after a fast lasting for 36 days in 1955 by way of superb Sallekhana-Ideal and pious death-because his eyesight grew dimmer and thus he could not faithfully follow the Ahimsa Mahāvrata-complete vow of non-injury. I have, therefore, dedicated this volume to the sacred memory of the immortal saint.
Diwakar Sadan
Seoni
26th January, 1965
S.C. Diwakar
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प्राक्कथन
जैन वाङ्मय में धवल, जयधवल, महाधवल (महाबन्ध) इन सिद्धान्त ग्रन्थों का अत्यधिक सम्मान और श्रद्धापूर्वक नाम स्मरण किया जाता है। ये परम पूज्य शास्त्र मूडबिद्री, दक्षिण कर्णाटक के सिद्धान्त मन्दिर के शास्त्रभण्डार को समलंकृत करते हैं। इन ग्रन्थरत्नों के प्रभाववश सम्पूर्ण भारत के जैन बन्धु मूडबिद्री को विशेष पूज्य तीर्थस्थल सदृश समझ वहाँ की वन्दना को अपना विशिष्ट सौभाग्य मानते हैं, और वहाँ जाकर इन शास्त्रों के दर्शनमात्र से अपने को कृतार्थ मानते हैं। भगवद्भक्त जिस ममत्व, श्रद्धा तथा प्रेमभाव से पावापुरी, चम्पापुरी सम्मेदशिखर, राजगिरि आदि तीर्थस्थलों की वन्दना करते हैं, प्रायः उसी प्रकार की समुज्ज्वल भावनाओं सहित उत्तर भारत के श्रुतभक्त श्रावक तथा श्राविकाएँ दक्षिण भारत के पश्चिम कोण में मंगलूर बन्दर के पार्श्ववर्ती मूडबिद्री की वन्दना करते हैं। उसे वे श्रुतदेवता की भूमि सोचते हैं। जिन व्यक्तियों को सिद्धान्त ग्रन्थों के कारण पूज्य मानी गयी मुडबिद्री को जाने का सौभाग्य नहीं मिला, वे उक्त स्थल की परोक्षवन्दना करते हुए उस सुअवसर की बाट जोहा करते हैं कि, वे कब वहाँ पहुँचकर अपने चक्षुओं को सफल कर सकें।
कहते हैं, ये सिद्धान्तशास्त्र पहले जैनबद्री-श्रमणवेलगोला के महनीय ग्रन्थागार को अलंकृत करते थे। पश्चात् ये ग्रन्थ मूडबिद्री पहुंचे। इन ग्रन्थों की प्रतिलिपि भारतवर्ष-भर में अन्यत्र कहीं भी नहीं थी। इन शास्त्रों का प्रमेय क्या है, यह किसी को भी पता नहीं था। बहुत लोग तो यह सोचते थे कि इन शास्त्रों में आधनिक वैज्ञानिक आविष्कार सदश चमत्कारप्रद एवं भौतिक आनन्दवर्धक सामग्री-निर्माण का वर्णन किया गया होगा। हवाई जहाज, रेडियो, टेलीफोन, ग्रामोफोन, सोना बनाना आदि सब कुछ इन शास्त्रों में होंगे। इस काल्पनिक महत्ता के कारण साधारण व्यक्ति भी श्रुतदेवता की वन्दना को सोत्कण्ठ सन्नद्ध रहते थे।
दुर्लभ दर्शन
ये ग्रन्थ अपनी महत्ता, अपूर्वता तथा विशेष पूज्यता के कारण बड़े आदर के साथ निधि अथवा रत्नराशि के समान सावधानीपूर्वक सुरक्षित रखे जाते थे। जिस प्रकार विशेष भेंट लेकर भक्त गुरु के समीप जाता है, उसी प्रकार वन्दक व्यक्ति भी यथाशक्ति उचित द्रव्य-अर्पण करके ग्रन्थराज की वन्दना करता था। शास्त्रभण्डार खुलवाने के लिए द्रव्यार्पण आवश्यक था। सिद्धान्त मन्दिर मूडबिद्री के व्यवस्थापक लोग ही शास्त्रों पर अपना स्वत्व समझते थे, उनकी ही कृपा के फलस्वरूप दर्शन हुआ करते थे। शास्त्रों की एकमात्र प्रति पुरानी (हळेकन्नड) कनड़ी लिपि में थी, अतः उस लिपि से सुपरिचित तथा प्राकृत भाषा का परिज्ञाता हुए बिना ग्रन्थ का यथार्थ रस लेने तथा देनेवाला कोई भी समर्थ व्यक्ति ज्ञात न था। ग्रन्थ को उठाकर दर्शन करा देना और चोरों से या बाधकों से शास्त्रों को बचाना, इतना ही कार्य व्यवस्थापक करते थे। इसका फल यह हुआ कि अत्यन्त जीर्ण तथा शिथिल ताड़पत्र पर लिखे ग्रन्थों की पुनः प्रतिलिपि कराकर सुरक्षा की ओर ध्यान न गया, इससे दुर्भाग्यवश 'महाधवल'-'महाबन्ध' के लगभग तीन, चार हजार श्लोक नष्ट हो गये; किन्तु इसका पता किसी को भी नहीं हुआ।
जैन कुलभूषण श्रावकरत्न स्व. सेठ माणिकचन्दजी जे.पी. बम्बई से सन् १८८३ में वन्दनार्थ मूडबिद्री पहुँचे। वे एक विचारक दानी श्रीमान् थे। शास्त्रों का दर्शन करते समय उनकी भावना हुई कि ग्रन्थ को किसी विद्वान् से पढ़वाकर सुनना चाहिए, किन्तु योग्य अभ्यासी के अभाववश उस समय उनकी कामना पूर्ण न हो पायी। उनके चित्त में यह बात उत्कीर्ण-सी हो गयी कि किसी भी तरह इन शास्त्रों का उद्धार
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महाबन्ध
करके जगत् के समक्ष यह निधि अवश्य आनी चाहिए। तीर्थयात्रा से लौटते हुए उक्त सेठजी ने अपने हृदय की सारी बातें अपने अत्यन्त स्नेही सेठ हीराचन्द नेमचन्दजी सोलापुरवालों को सुनायीं। सेठ हीराचन्दजी के अन्तः करण में दक्षिणयात्रा की बलवती इच्छा हुई। अतः आगामी वर्ष वे मूडबिद्री के लिए रवाना हो गये। ब्रह्मसूरि शास्त्री नामक प्रकाण्ड जैन विद्वान् जैनबद्री (श्रमणवेलगोला) में रहते थे। वे इन शास्त्रों को बाँचकर समझा सकते थे। अतः सेठ हीराचन्द जी ने उक्त शास्त्रीजी को जैनबद्री से अपने साथ ले लिया था। जब ग्रन्थों का मंगलाचरण पढ़कर उनका अर्थ सुनाया गया, तब श्रोतृमण्डली को इतना आनन्द मिला कि उसका वाणी के द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता, कारण उन्हें साक्षात् जिनेन्द्र के वचनामृत के रसपान का सौभाग्य मिला।
प्रतिलिपि का संरम्भ
प्रवास से लौटने पर सेठ हीराचन्दजी के चित्त में ग्रन्थों की प्रतिलिपि कराने की इच्छा हुई, किन्तु लौकिक कार्यों में संलग्नता के कारण बहुत समय व्यतीत हो गया और मन की बात कृतिका रूप धारण न कर सकी। इस बीच में धनकुबेर सेठ नेमीचन्दजी सोनी (अजमेर) पं. गोपालदासजी वरैया को साथ लेकर तीर्थयात्रार्थ निकले और मूडबिद्री पहुंचे। उनके प्रभाव तथा सत्प्रयत्न से स्थानीय व्यवस्थापक पंचमण्डली ने पं. ब्रह्मसूरि शास्त्री के द्वारा देवनागरी लिपि में प्रतिलिपि कराने की स्वीकृति प्रदान की। अत्यन्त मन्दगति से कार्य प्रारम्भ किया गया और थोड़ी नकल मात्र हो पायी कि अन्तराय कर्म ने विघ्न उत्पन्न कर दिया।
सेठ हीराचन्दजी के प्रयत्न से प्रतिलिपि निमित्त लगभग चौदह हजार रुपयों की समाज-द्वारा सहायता की व्यवस्था हुई। अतः ब्रह्मसूरि शास्त्री के साथ गजपति उपाध्याय महाशय मिरजनिवासी के द्वारा पूर्वोक्त स्थगित कार्य पुनः चालू हुआ। कुछ काल व्यतीत होने पर दुर्भाग्य से ब्रह्मसूरि शास्त्री का स्वर्गवास हो गया। अतः पं. गजपतिजी ही कार्य करते रहे। धवला और जयधवला टीकाओं की नकल लगभग १६ वर्षों में पूर्ण हो पायी। इस बीच में श्रीदेवराज सेट्टि, शान्तप्पा उपाध्याय और ब्रह्मराज इन्द्र ने कनड़ी भाषा में एक प्रतिलिपि कर ली। देवनागरी में प्रतिलिपि
इधर गजपति उपाध्याय मूडबिद्री के सिद्धान्त मन्दिर में विराजमान करने के लिए देवनागरी लिपि में प्रतिलिपि करते थे, उधर गुप्त रूप से अपनी विदुषी धर्मपत्नी लक्ष्मीबाई के सहयोग से कनड़ी में भी एक प्रतिलिपि तैयार कर ली, जिसका किसी को रहस्य अवगत न था। वह प्रति उपाध्यायजी ने विशेष पुरस्कार लेकर परमधार्मिक स्वर्गीय लाला जम्बूप्रसादजी रईस (सहारनपुर) को प्रदान की। उन्होंने पं. विजय चन्द्रय्या और पं. सीताराम शास्त्री के द्वारा उस कनड़ी प्रतिलिपि से देवनागरी में जो प्रतिलिपि लिखवायी, उसमें सात वर्ष का समय व्यतीत हुआ। पं. विजयचन्द्रय्या से कनड़ी प्रति बँचवाकर सीताराम शास्त्री नकल करते थे। शीघ्र कार्य निमित्त सीतारामजी साधारण कागज पर पहले लिख लेते थे, पीछे लाला जम्बूप्रसादजी के भण्डार के लिए नकल करते थे। सीताराम शास्त्री ने अपने पास के साधारण कागज पर लिखी गयी नकल पर से अन्य प्रतिलिपि की। उसके आधार पर अन्य प्रतियाँ लिखाकर आरा, सागर, सिवनी, दिल्ली, बम्बई, कारंजा, इन्दौर, ब्यावर, अजमेर, झालरापाटन आदि स्थानों में पहुँचायी गयीं। इससे जयधवल और धवल शास्त्रों के दर्शन तथा स्वाध्याय का सौभाग्य अनेक व्यक्तियों को प्राप्त होने लगा।
'महाबन्ध' पर विशेष प्रतिबन्ध
मूडबिद्रीवालों को अन्धकार में रखकर जिस ढंग से पूर्वोक्त दो सिद्धान्त शास्त्र मूडबिद्री से बाहर गये और उनका प्रचार किया गया, उससे मूडबिद्री के पंचों के हृदय को बड़ा आघात पहुँचा। मूडबिद्री की विभूति के अन्यत्र चले जाने से मूडबिद्री के प्रति आकर्षण कम हो जाएगा, यह बात भी उनके चित्त में अवश्य रही
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प्राक्कथन
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होगी, इस कारण अब उन्होंने 'महाधवल'– 'महाबन्ध' की प्रतिलिपि के विषय में पूर्ण सतर्कता से कार्य लिया। 'दूधका जला छाँछ को भी फूंककर पीता है, इस कहावत के अनुसार उन्होंने 'महाबन्ध' को शास्त्र भण में इतना अधिक सुरक्षित कर दिया कि भेट देनेवाले व्यक्ति भी 'महाबन्ध' के स्थान में अनेक बार अन्य शास्त्र का दर्शन कर अपने मन को काल्पनिक सन्तोष प्रदान करते थे कि हमने भी 'महाधवल जी आदि की वन्दना कर ली। अब जब 'महाबन्ध' का यथार्थ दर्शन कठिन हो गया, तब प्रतिलिपि की उपलब्धि की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
प्रतिलिपि में समय - सेठ हीराचन्दजी के सत्प्रयत्न से 'महाबन्ध' की देवनागरी प्रतिलिपि का कार्य पं. लोकनाथजी शास्त्री
। के ग्रन्थागार के लिए करते जाते थे। यह कार्य सन १६१८ से १९२२ पर्यन्त चला। इसी बीच में पं. नेमिराजजी ने इसकी कनड़ी प्रतिलिपि भी बना ली। तीनों सिद्धान्त ग्रन्थों की प्रतिलिपि कराने में लगभग बीस हजार रुपये खर्च हुए और छब्बीस वर्ष का लम्बा समय लगा।
तीनों ग्रन्थों की देवनागरी तथा कनड़ी प्रतिलिपि के हो जाने से अब सुरक्षण सम्बन्धी चिन्ता दूर हो गयी, केवल एक ही जटिल समस्या श्रुतभक्त समाज के समक्ष सुलझाने को थी कि 'महाबन्ध' को बन्धनमुक्त करके किस प्रकार उस ज्ञाननिधि के द्वारा जगत् का कल्याण किया जाए? इस कार्य में महान् प्रयत्नशील सेठ माणिकचन्दजी (बम्बई) तथा सेठ हीराचन्दजी (सोलापूर) सफल मनोरथ होने के पूर्व ही स्वर्गीय निधि बन गये।
जैन महासभा का उद्योग
. दिगम्बर जैन महासभा ने इस विषय में एक प्रस्ताव पास करके प्रयत्न किया, किन्तु वह अरण्यरोदन रहा। महासभा का एक वार्षिक उत्सव सन् १९३६ में इन्दौर में रावराजा दानवीर श्रीमन्त सर सेठ हुकमचन्दजी की जुबली के अवसर पर हुआ। वहाँ 'महाबन्ध' के विषय में हमने प्रस्ताव पेश करने का प्रयत्न किया, तो महासभा के अनेक अनुभवी व्यक्तियों ने यह कहकर विरोध किया कि यह अनावश्यक है, क्योंकि वह ग्रन्थ मूडबिद्री की समाज देने को बिलकुल तैयार नहीं है। विशेष श्रम करने पर सौभाग्य से पुनः प्रस्ताव पास हआ और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा निमित्त एक उपसमिति का निर्माण हआ। उसके संयोजक जिनवाणी भूषण धर्मवीर सेठ रावजी सखारामजी दोशी बनाये गये। लेखक भी उसका अन्यतम सदस्य था। सेठ रावजी भाई ने दो बार मूडबिद्री का लम्बा प्रवास करके एवं हजारों रुपया भेंट करने का अभिवचन देकर भी सफलता निमित्त प्रयास किया, किन्तु दुर्भाग्यवश मनोरथ पूर्ण न हो पाया। कुछ ऐसी बातें उत्पन्न हो गयीं, जिन्होंने परस्पर के मधुर सम्बन्धों में भी शैथिल्य उत्पन्न कर दिया। 'महाबन्ध' उपसमिति के समक्ष यहाँ तक विचार आने लगा कि जिनवाणी माता की रक्षा निमित्त व्यक्तिगत अनुनय-विनय का मार्ग छोड़कर अब न्यायालय का आश्रय लेना चाहिए। किन्हीं व्यक्तियों के विचित्र ग्रन्थ-मोह की पूर्ति निमित्त विश्व की अनुपम निधि को अब अधिक समय तक बन्धन में नहीं रखा जा सकता।
न्यायालय के द्वार खटखटाने के विचार पर हमारी आत्मा ने सहमति नहीं दी। सहसा हृदय में यह भाव उदित हुए कि अदालत के द्वार पर मूडबिद्रीवालों को घसीटकर कष्ट देना योग्य नहीं है, कारण इनके ही विवेकी, धर्मात्मा तथा चतुर पूर्वजों के प्रयत्न और पुरुषार्थ के प्रसाद से ग्रन्थराज अब तक विद्यमान हैं,
और अब भी वे यथामति उनकी सेवा कर ही रहे हैं। उनकी श्रुत-भक्ति तथा सेवा के प्रति कृतज्ञतावश हमारा मस्तक नम्र हो जाता है। यदि हम पुनः उनसे सस्नेह अनुरोध करेंगे और अपनी सद्भावनापूर्ण बात समझाएँगे, तो वे लोग अवश्य हमारी हृदय की ध्वनि को ध्यान से सुनेंगे। न मालूम क्यों, हृदय बार-बार यह कहता था कि प्रेम-पूर्ण प्रयत्न के पथ में ही सफलता है। यह सूक्ति महत्त्वपूर्ण है: “मृदुना दारुणं हन्ति, मृदुना हन्त्यदारुणम्। नासाध्यः मृदुना किञ्चित्, तस्मात् तीक्ष्णतरं मृदुः ।
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महाबन्ध
जटिल समस्या
कुछ समय के बाद पुरुषार्थ धर्मवीर सेठ रावजी भाई का स्वर्गवास हो गया। इससे आत्मा बहुत व्यथित हुई। हमने सोचा-भगवन् ! अब यह 'महाबन्ध' की प्राप्ति की अत्यन्त कठिन तथा जटिल समस्या कब तक और कैसे सुलझती है?
सुदैव से ग्रन्थराज की प्रतिलिपि प्राप्ति के मार्ग की बाधाओं का अभाव होना तथा अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण आरम्भ हुआ। नवीन परिस्थिति
सन् १६३६ की बात है। श्रमणवेलगोला में १००८ भगवान् बाहुबलिस्वामी की भुवनमोहिनी, वेश्वातिशायिनी दिव्य मूर्ति के महाभिषेक की पुण्यवेला आयी। किन्तु मैसूर प्रान्त में स्व. सेठ एम. एल. वर्धमानैय्या सदृश कार्यकुशल, प्रभावशाली, उदार तथा समर्थ नेता के अभाव होने से आदरणीय भट्टारक श्री चारुकीर्ति पण्डिताचाय में जो ब्र. नेमिसागरजी वर्णी के रूप में विख्यात थे) महाराज श्रमणवेलगोला तथा उनके सहयोगी महानुभाव, अन्तरायों की अपरिमित राशि देख सचिन्त थे, और गोम्मटेश्वर स्वामी से पुनः-पुनः प्रार्थना करते थे-'देवाधिदेव, आपके चरणों के प्रसाद से यह मंगलकार्य सम्यक् प्रकार. सम्पन्न हो, कोई भी विघ्न नहीं आने पाए।'
उस समय दिगम्बर जैन महासभा के मुखपत्र जैन गजट के सम्पादक तथा अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन राजनीतिक स्वत्वरक्षक समिति के मन्त्री के रूप में हमने यथाशक्ति महाभिषेक की सफलता निमित्त पत्र-द्वारा आन्दोलन किया, विघ्नकारियों का तीव्र प्रतिवाद किया तथा मैसूर राज्य के दीवान सा. सर मिर्जा स्माइल आदि उच्च अधिकारियों से पत्र व्यवहार द्वारा अनुरोध किया। उस समय हमारे लेखों आदि का कनड़ी अनुवाद मैसूर राज्य के आस्थान महाविद्वान् पं. शान्तिराजजी शास्त्री के कनड़ी पत्र 'विवेकाभ्युदय' में छपता था। इस कारण कर्णाटक प्रान्तीय जैन बन्धुओं से हमारा आन्तरिक स्नेह-सम्बन्ध सहज ही स्थापित हो गया। यही स्नेह आगे सफलता में प्रमुख हेतु बना।
महाभिषेक-महोत्सव का पुण्य अवसर आया। लाखों वन्दक विश्ववन्दनीय विभूति की वन्दना द्वारा जीवन सफल करने के लिए भारतवर्ष के कोने-कोने से आये। उस महाभिषेक के अपूर्व तथा दिव्य समारोह को कौन भूल सकता है? बड़े सौभाग्य से हम भी अपने पूज्य पिता श्री सिंघई कुँवरसेनजी आदि के साथ वहाँ पहुँचे। जब भट्टारकजी से मिलने गये, तब उनके समीप उस प्रान्त के प्रमुख जैन बन्धु बैठे हुए थे। वहाँ स्वामीजी ने (भट्टारक महाराज का बड़ा प्रभाव तथा सम्मान है। मैसूर महाराज भी उनकी बड़ी प्रति करते हैं, उनको वहाँ स्वामीजी कहते हैं। हमारे प्रति प्रगाढ़ प्रेम प्रकट किया। उन्होंने बड़े गौरवपूर्ण शब्दों द्वारा लोगों को हमारा परिचय देते हुए इस महाभिषेक को सम्पन्न कराने का विशेष श्रेय हमें प्रदान किया
हम चकित हो गये। महाराज से कहा-"हमने क्या कार्य किया, जिसका आप इतना उल्लेख कर रहे हैं। हमारा इतना पुण्य नहीं है। गोम्मटेश्वर स्वामी के चरणों के प्रति भक्तिवश कुछ सेवा बन गयी, उसे अधिक मूल्यवान् बताना आपकी ही महत्ता है। स्वामीजी ने अपनी कर्णाटकी ध्वनि (tone) में कहा है, "क्या आपकी स्तुति करके हमें कुछ प्राप्त करना है, जो हम यहाँ अतिशयोक्तिपूर्ण बात कहते ?" हमें चुप हो जाना पड़ा।
वहाँ से चलते समय स्वामीजी ने हृदय से मंगल आशीर्वाद दिया और 'फलेन फलमालभेत'-इन फलों के द्वारा तुम्हें महाफल मिले-कहते हुए कुछ पक्व फल हमें दिये। वह पर्व का दिन था। हमारे हाथों में फलों को देखकर एक शास्त्रीजी ने व्यंग्य में कहा-"क्या अँगरेजी की शिक्षा ने आपकी प्रवृत्ति बदल तो नहीं दी?" हमने भट्टारकजी से फल-प्राप्ति की बात सुनायी, तो वे बोल उठे-“आप खूब मिले, और लोग तो भट्टारकजी को फल चढ़ाते हैं, भेंट देते हैं और भट्टारकजी आपको देते हैं।" हँसते हए हम अपने स्थान पर आ गये।
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प्राक्कथन
व्यवस्थापकों से मधुर सम्बन्ध - निर्माण
महाभिषेक बड़े वैभव और अपूर्व आनन्दपूर्वक सम्पन्न हुआ । अभिषेक के कलशों की बोली से प्राप्त रकम मैसूर स्टेट के अधिकारियों के पास जमा हो गयी । किन्तु बहुत-से धर्मबन्धु अपने धन को अपने ही अधिकार में रखने की बात सोचते थे। अर्थ-व्यवस्था निमित्त रावराजा श्रीमन्त सर सेठ हुकमचन्दजी के स्थान
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एक बैठक हुई। उसमें कर्णाटक प्रान्त के महान् प्रभावशाली व्यक्ति श्री डी. मंजैय्या हेगड़े, बी. ए., धर्मस्थल तथा उस प्रान्त के विशेष श्रीमन्त राजवंशीय श्रीरघुचन्द्रबल्लाल, मेंगलोर भी शामिल हुए थे । वह मीटिंग उक्त दोनों महानुभावों के साथ हमारे स्निग्ध सम्बन्धों के स्थापन तथा संवर्धन में कारण बनी। यहाँ यह लिख देना उचित होगा कि 'महाबन्ध' के व्यवस्थापकों में उन लोगों का प्रमुख स्थान था, इसलिए उनके साथ का परिचय तथा मैत्री सम्बन्ध भावी सफलता के मार्ग के लिए अनुकूलता को सूचित करते थे ।
महाभिषेक महोत्सव पूर्ण होने के पश्चात् मूडबिद्री, कार्कल आदि की वन्दना निमित्त हम पिताजी के साथ मेंगलोर पहुँचे। वहाँ माननीय श्रीबल्लाल महाशय से अकस्मात् भेंट हो गयी । प्रसंगवश हमने उनसे कहा- “पहले तो आपके बल्लाल वंश ने दक्षिण भारत में राज्य किया था। आपको भी उस वंश की प्रतिष्ठा के अनुरूप अपूर्व कार्य करना चाहिए। देखिए, आपके यहाँ मूडबिद्री के शास्त्र भण्डार में संसार की अपूर्व विभूति 'महाबन्ध' शास्त्र है। इसका उद्धार कार्य करने से विश्व आपका आभार मानेगा।” इसके अनन्तर कुछ और भी धार्मिक बातें हुईं। शायद वे उन्हें पसन्द आयीं। उन्होंने हमसे कहा- “हम मूडबिद्री में आपका भाषण कराना चाहते हैं, क्या आप बोलेंगे?" हमने विनोदपूर्वक कहा- “जब भी आप भाषण के लिए कहेंगे, तब ही हम बोलने को तैयार हैं, किन्तु इसके बदले में आपको 'महाबन्ध' शास्त्र देना होगा।" वे हँसने लगे ।
सक्रिय उद्योग
हम मूडबिद्री पहुँचे। वहाँ जैन नरेशों के औदार्य तथा भक्तिवश निर्माण कराये गये त्रिलोकचूड़ामणि चैत्यालय (चन्द्रनाथवसदि) की भव्यता तथा विशालता को देख बड़ा आनन्द आया। उस मन्दिर में अफ्रीका के कारीगरों ने आकर प्राचीन समय में शिल्प का कार्य किया था। हमें बताया गया कि पहले जैनियों की वहाँ बहुत समृद्धिपूर्ण स्थिति थी। बड़े-बड़े जहाजों के वे अधिपति थे । उनसे वे विदेश जाकर रत्नों का व्यापार करते थे और श्रेष्ठ वस्तु जिनशासन के उपयोग में लाते थे । इस प्रकार वहाँ की अमूल्य अपूर्व मूर्तियाँ बनायी गयी थीं। पुरातन जैन वैभव की चर्चा सुन-सुनकर हृदय हर्षित हो रहा था । उस समय वयोवृद्ध परमधार्मिक श्री नागराज श्रेष्ठी से भेंट हुई। उन्होंने बड़ा स्नेह व्यक्त किया। हमने विनीत भाव से कहा- “ बड़ी दया हो, यदि इस बार के महाभिषेक की स्मृति में आप लोग 'महाबन्ध' की प्रतिलिपि करने की अनुज्ञा दे दें। आपके पूर्वजों का ही पुण्य था जो रत्नराशि से भी अधिक मूल्यवान् इस ग्रन्थरत्न की अब तक रक्षा हुई।” हमारी बात सुनकर उन्होंने कहा – “प्रयत्न करो, आपको ग्रन्थ मिल जाएगा।” हमने कहा, “आपके आशीर्वाद और कृपा द्वारा ही यह कठिन कार्य सम्भव हो सकता है।” उन्होंने हमें उत्साहित करते हुए कहा - " अगर आप मंजैय्या हेगड़े तथा रघुचन्द्र बल्लाल को यहाँ ला सकें, तो सरलता से काम बन जाएगा। उन लोगों का यहाँ की समाज पर विशेष प्रभाव है। हेगड़ेजी का प्रभाव तो असाधारण है।” अतः दूसरे दिन सबेरे हम अपने छोटे भाई चिरंजीव (प्रोफेसर ) सुशीलकुमार दिवाकर (बी. काम., एम. ए., एल एल. बी.) को तथा ब्र. फतेहचन्दजी परवारभूषण नागपुरवालों को साथ लेकर धर्मस्थल गये तथा श्री मंजैय्या हेगड़े से मूडबिद्री चलने का अनुरोध किया। बड़े आग्रह करने पर उन्होंने हमारा निवेदन स्वीकार किया । धर्मस्थल में धर्ममूर्ति हेगड़ेजी के वैभव, प्रभाव तथा पुण्य को देखकर आनन्द हुआ ।
धर्मस्थल से वापस होते समय हम वेणूर की बाहुबलि स्वामी की विशाल तथा उच्च कलापूर्ण मूर्ति के दर्शनार्थ ठहरे। वहाँ सौभाग्य से दानवीर रावराजा श्रीमन्त सर सेठ हुकमचन्दजी से भेंट हो गयी। हमने उन्हें सिद्धान्तशास्त्र सम्बन्धी चर्चा सुनाकर सन्ध्या के समय मूडबिद्री पहुँचने का अनुरोध किया और अपने स्थान पर वापस आये। पश्चात् हम श्रीमन्त बल्लाल महोदय से मिलने मैंगलोर पहुँचे। उन्होंने पूछा- “कैसे आये
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महाबन्ध
हमने विनोदपूर्वक कहा- “उस दिन आपने कहा था कि मूडबिद्री में हम आपका व्याख्यान कराना चाहते हैं। आप अबतक नहीं आये। हमें अपने देश वापस जल्दी जाना है, इससे आपको लेने आये हैं कि आज सन्ध्या को हमारा व्याख्यान सुन लें।" वे मुस्करा पड़े। अनन्तर हमने सब कथा उनको सुनाकर शीघ्र चलने की प्रेरणा की। वे सहर्ष तैयार हो गये। उनकी मोटर में उनके साथ हम मूडबिद्री के लिए रवाना हुए। मार्ग में हमने सब विषय उनके समक्ष स्पष्ट किया, तो उन्हें अपनी स्वीकृति प्रदान करने में विलम्ब न लगा । उन्होंने अपार प्रेम दिखाया।
मूडबिद्री वापस आने पर हमें श्री हेगड़ेजी और सर सेठ हुकमचन्दजी मिल गये। रात्रि को पूर्वोक्त त्रिलोकचूड़ामणि चैत्यालय चन्द्रनाथवसदि के प्रांगण में सर सेठ हुकमचन्दजी की अध्यक्षता में एक सभा बुलायी गयी। अनेक प्रतिष्ठित महानुभाव पधारे थे । मूडबिद्री मठ के अधिपति आदरणीय भट्टारकजी चारुकीर्ति पण्डिताचार्य स्वामी भी उस सभा में आये थे। हमने 'महाबन्ध' - सम्बन्धी चर्चा प्रारम्भ की, उस समय ज्ञात हुआ कि मूडबिद्री सिद्धान्त शास्त्रमन्दिर के ट्रस्टी वर्ग तथा पंच महानुभावों के चित्त में इस बात की गहरी ठेस लगी कि एक जैन पत्र में यह वृत्तान्त प्रकाशित किया गया था कि 'महाबन्ध' शास्त्र न देने में मूडबिद्रीवालों का व्यक्तिगत स्वार्थ कारण है । वे शास्त्र - विक्रय (Traffic in literature) करके लाभ उठाना चाहते हैं । इस सम्बन्ध में भ्रमनिवारण किया गया कि जिन लोगों के पूर्वजों ने त्रिलोकचूड़ामणि चैत्यालय- जैसा विशाल जिन मन्दिर बनवाया, धर्मसेवा के उज्ज्वल कार्य निःस्वार्थ भाव से सम्पन्न किये, उनके विषय में दूषित कल्पना करना तथा मिथ्या प्रचार करना ठीक नहीं है ।
मूडी में भाषण
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इसके पश्चात् हमने अपने भाषण में मूडबिद्री के प्राचीन पुरुषों एवं वर्तमान धर्मपरायण समाज के प्रति आन्तरिक अनुराग तथा आदर का भाव व्यक्त करते हुए कहा- “जब लोग धार्मिक अत्याचार करते थे, उस संकट के युग में जिन्होंने शास्त्रों को छिपाकर श्रुत की रक्षा की, उनके प्रति हम हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं । किन्तु जगत् में बड़ा परिवर्तन हो गया। लोग ज्ञानामृत के पिपासु हैं। भूतबलिस्वामी ने जगत् के कल्याण निमित्त महान् कष्ट उठाकर इतना बड़ा और अत्यन्त गम्भीर शास्त्र बनाया। उसके प्रकाश में आने पर जगत् में ग्रन्थकर्ता की कीर्ति व्याप्त होगी तथा मुमुक्षुगण अपना हित सम्पन्न करेंगे। पूज्य पुरुषों की निर्मल कीर्ति का संरक्षण करना हमारा कर्तव्य है । सोमदेवसूरि ने बताया है- 'यशोवधः प्राणिवधात् गरीयान्' प्राणिघात की अपेक्षा यश का घात करना गुरुतर दोष है, कारण यशोवध द्वारा कल्पान्तस्थायी यशः शरीर का नाश होता है । भूतबलिस्वामी के साहित्य को छिपाने से उनके प्राणघात से भी बढ़कर दोष प्राप्त होता है भूतबलिस्वामी ने विश्वकल्याण के लिए यह रचना की थी। इस अमूल्य कृति का क्या उन्होंने कुछ मूल्य रखा था? हमारी भक्ति का अर्थ है - श्रुत का संरक्षण तथा सुप्रचार । उसे बन्धन में रखकर दीमक आदि द्वारा नष्ट होते देखना कभी भी श्रुतभक्ति नहीं कही जा सकती।” इतने में किसी ने कहा- “हमारे यहाँ लोग गरीब हैं, उनकी सहायतार्थ द्रव्य आवश्यक है"। इसे सुनते ही हमने कहा- "इन वाक्यों को सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ कि हमारे दक्षिण के कोई-कोई बन्धु अपने को गरीब समझ रहे हैं। जिनके पास भगवान् गोम्मटेश्वर जैसी अनुपम प्रभावशाली मूर्ति है, क्या वे गरीब हैं? जिनके पास बहुमूल्य तथा अपूर्व जिनबिम्ब विद्यमान हैं, वे क्या गरीब हैं? जिनके पास धवल, 'महाधवल' सदृश श्रेष्ठ ग्रन्थराज हैं, वे भी क्या गरीब हैं? यदि इसे ही गरीबी कहा जाता है, तो हम ऐसी गरीबी का अभिनन्दन करते हैं, अभिवन्दन करते हैं । लीजिए भौतिक संसार की समृद्धि को और हमें यह गरीबी दे दीजिए।” हमने यह भी कहा- “ बताइए, इन ग्रन्थों का आपने क्या मूल्य रखा है? रुपयों का मूल्य तो जाने दीजिए, हम तो जीवन-निधि तक अर्पण कर इस आगम-निधि को लेने आये हैं। बताइए, इससे भी अधिक और मूल्य आपको क्या चाहिए? हम जानते हैं, 'महाबन्ध' सदृश श्रुत की रक्षा निमित्त हमारे सदृश सैकड़ों व्यक्तियों का जीवन नगण्य है। लोग राष्ट्रप्रेम के कारण जीवन उत्सर्ग करते हैं, तो सकल सन्तापहारी श्रुतरक्षार्थ जीवन अर्पण करने में क्या भीति है? कहिए, ग्रन्थ के लिए आप और क्या मूल्य चाहते हैं?"
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प्राक्कथन
स्वीकृति
इस पर विवेकमूर्ति परम सज्जन श्री मंजैय्या हेगड़े ने द्रवित होकर कहा “You have given us more than we wanted - जो कुछ हम चाहते थे, उससे अधिक मूल्य आपने दे दिया। श्री हेगड़ेजी की अनुकूलता होने पर आदरणीय भट्टारक महाराज, श्री बल्लाल आदि सबने स्वीकृति प्रदान कर दी । हमारे पूज्य बड़े भाई सिंघई अमृतलालजी ने हमसे कहा - "यह महान् कार्य है। परिणामों में परिवर्तन का पदार्पण होते विलम्ब नहीं लगता, अतः लिखित स्वीकृति आवश्यक है । वह सर्व आशंकाओं को दूर कर देगी। हमने सब समाज से विनय की - “आज आप लोगों ने 'महाधवल' जी की बिना मूल्य प्रतिलिपि प्रदान करने की पवित्र स्वीकृति दी है। समाचार पत्रों में प्रामाणिकता पूर्वक समाचार प्रकाशित करने के लिए आप लोगों की लिखित स्वीकृति महत्त्वपूर्ण होगी, और लोगों को तनिक भी सन्देह नहीं रहेगा।” सबका हृदय पूर्णतया पवित्र था । स्वीकृति अन्तःकरण से दी गयी थी, अतः प्रमुख पुरुषों ने सहर्ष शीघ्र हस्ताक्षर करके स्वीकृतिपत्रक हमें दिया । उसे पा हमने अपने को धन्य तथा कृतार्थ समझा। इस कार्य को सम्पन्न करने में हमें अपने पूज्य पिताजी (सिंघई कुँवरसेनजी) से विशिष्ट पथ-प्रदर्शन प्राप्त हुआ था, कारण वे महान् शास्त्रज्ञ, लोक-व्यवहार- प्रवीण एवं अपूर्व कार्यकुशलता सम्पन्न थे । उनका प्रभाव भी कार्य सम्पन्न करने में बड़ा साधन बना ।
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मूडबिद्री के पत्रों की महान् उदारता को घोषित करनेवाला समाचार जब जैन समाज ने सुना, तब चारों ओर सबने महान् हर्ष मनाया और मूडबिद्री की समाज के कार्य की प्रशंसा की। किन्तु दुर्भाग्य से एक समाचार पत्र में कुछ ऐसे समाचार निकल गये, जिससे पुरातन विरोधाग्नि पुनः प्रदीप्त हो उठी। इससे दक्षिण के एक प्रमुख पुरुष ने हमें लिखा- “अब आप प्रतिलिपि ले लेना, देखें, कौन देता है?” इससे हमारी आत्मा काँप उठी। यह ज्ञात कर बड़ा दुःख हुआ, कि व्यक्तिगत विशेष मान की रक्षार्थ हमारे विज्ञबन्धु ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय को पुनः विरोध और विवाद की भँवर में फँसा रहे हैं। इसके अनन्तर ज्ञात हुआ कि न्यायदेवता के आह्वान निमित्त कानूनी कार्रवाई भी प्रारम्भ होने लगी। उस समय श्रुतभक्त ब्र. श्री जीवराज गौतमचन्दजी दोशी और मुनि समन्तभद्रजी के (जो उस समय क्षुल्लक थे) प्रभाव तथा सत्प्रयत्न से विरोध शान्त किया गया। यह चर्चा हमने इससे की कि लोग यह देख लें, कि बना-बनाया धर्म का कार्य किस प्रकार अकारण अवांछनीय संकटों में घिर जाता है । सोमदेव सूरि की उक्ति बड़ी अनुभवपूर्ण है। वे 'नीतिवाक्यामृत' में लिखते हैं-- ' धर्मानुष्ठाने भवति, अप्रार्थितमपि प्रातिलोम्यं लोकस्य' (१,३५) 'धर्मकार्य में लोग बिना प्रार्थना किये गये स्वयमेव प्रतिकूलता धारण करते हैं। ऐसी प्रवृत्ति पापानुष्ठान के विषय में नहीं होती ।
और भी विपत्तियों का वर्णन करके हम लेख को बढ़ाना उचित नहीं समझते। संक्षेप में इतना ही कहना है कि बड़े-बड़े विचित्र विघ्न आये, किन्तु श्रुतदेवता के प्रसाद से वे शरदऋतु के मेघों के सदृश अल्पस्थायी रहे ।
आबाधाकाल
वर्ष बीत गया, फिर भी प्रतिलिपि का कार्य प्रारम्भ नहीं हो रहा था। एक बार श्री मंजैय्या हेगड़े ने अपने धर्मस्थल के सर्वधर्म सम्मेलन में मुझे बुलाया । वहाँ पहुँचने से प्रतिलिपि का कार्य शीघ्र प्रारम्भ करने में विघ्न नहीं आता, किन्तु कारण विशेष से पहुँचना न हो सका। कुछ समय के अनन्तर दिसम्बर सन् १६४१ में गोम्मटेश्वर महामस्तकाभिषेक फण्ड सम्बन्धी कमेटी की बैठक में सम्मिलित होने को हमें बैंगलोर जाना पड़ा। उत्तर भारत से केवल श्रीमन्त सर सेठ हुकमचन्दजी, सर सेठ भागचन्दजी सोनी पहुँचे थे। मीटिंग के पश्चात् हम ग्रन्थप्राप्ति की आशा से श्री मंजैय्या हेगड़े, श्री रघुचन्द बल्लाल, श्री जिनराज हेगड़े एडवोकेट, एम. एल. ए., श्री शान्तिराज जी शास्त्री आस्थान महाविद्वान् (मैसूर) के साथ मूडबिद्री के लिए रवाना हुए।
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महाबन्ध
सब लोग आवश्यक कार्यवश अपने-अपने घर चले गये। अतः हम अकेले मूडबिद्री पहुँचे। दो-तीन दिन प्रयत्न करने पर भी प्रतिलिपि का कार्य प्रारम्भ न हो सका। आगे कब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, यह भी पता नहीं चलता था। इससे चित्त में विविध संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते थे। चित्त अपार चिन्ता-निमग्न था। जिनेन्द्र भक्ति का एकमात्र अवलम्बन था।
चिरस्मरणीय दिवस
परम सौभाग्य से तीन दिन की प्रबल प्रतीक्षा के पश्चात् व्यवस्थापक बन्धु श्री धर्मपालजी श्रेष्ठि की विशेष कृपा हुई। उन्होंने भण्डार खोलकर 'महाबन्ध' शास्त्र की ताड़पत्रीय प्रति हमारे समक्ष विराजमान कर दी। जिनेन्द्रदेव तथा जिनवाणी की पूजा के अनन्तर हमने स्वयं देवनागरी लिपि में प्रतिलिपि प्रारम्भ करने का परम सौभाग्य प्राप्त किया। वह ३० दिसम्बर, १६४१ का दिन जैन साहित्य के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा।
कृतज्ञता
अनन्तर प्रतिलिपि का कार्य पं. लोकनाथजी शास्त्री के तत्त्वावधान में सम्पन्न होता रहा। ३० दिसम्बर सन् १६४२ तक कार्य पूर्ण हो गया। पहले मूडबिद्री के भण्डार के लिए यही कापी ४ वर्ष में तैयार की गयी थी। यह कार्य शीघ्र सम्पन्न करने का श्रेय उक्त शास्त्रीजी के सहयोगी विद्वान् पं. नागराजजी तथा देवकुमारजी को भी है। भट्टारक महाराज तथा व्यवस्थापकों की भी विशेष कृपा रही जो उन्होंने इस कार्य में कोई भी बाधा नहीं उत्पन्न होने दी। इस सम्बन्ध में श्री मंजैय्या हेगड़े के हम अत्यन्त कृतज्ञ हैं कि उन्होंने सर्वदा इस पुण्य कार्य में सर्व प्रकार का सहयोग प्रदान किया। कुछ विद्वानों ने उत्तर भारत से श्री हेगड़ेजी को प्रतिलिपि न देने का अप्रार्थित बहुमूल्य परामर्श दिया, किन्तु विद्वान् हेगड़े महाशय के उत्तर से उन लोगों को चुप होना पड़ा। जब हम आपत्तियों से- आकुलित होकर हेगड़ेजी को लिखते थे, तो उनके उत्तर से निराशा दूर हो जाती थी। उन्होंने हमें लिखा था-"आप भय न करें, ग्रन्थ-प्रकाशन के विषय में कोई भी बाधा न आएगी। प्रतिलिपि का कार्य आपकी इच्छानुसार होता रहे, इस पर मैं विशेष ध्यान रसूंगा।" उन्होंने अपने वचन का पूर्णतया रक्षण किया। यथार्थ में वे महापुरुष थे। कुछ भी भेंट लिये बिना प्रतिलिपि की अनुज्ञा प्रदान करने की उदारता तथा कृपा के उपलक्ष में हम सिद्धान्त मन्दिर के ट्रस्टियों तथा मूडबिद्री के पंचों को हार्दिक धन्यवाद देते हैं। भट्टारक महाराज के भी हम अत्यधिक कृतज्ञ हैं। मूडबिद्री के महानुभवों के हार्दिक प्रेम, कृपा तथा उदार भाव की स्मृति चिरकाल पर्यन्त अन्तःकरण में अंकित रहेगी।
मूडबिद्री में प्रतिलिपि कराने में जो द्रव्य-व्यय हुआ, वह सेठ गुलाबचन्दजी हीराचन्दजी (सोलापुर) के पास से प्राप्त हुआ था। इसके लिए उन्हें धन्यवाद है। ब्र. श्री जीवराजजी ने इस श्रुत-रक्षा या सेवा के कार्य में जो सत्परामर्श तथा सर्व प्रकार का सहयोग दिया, उसके लिए हम अत्यन्त अनुगृहीत. हैं।
दानवीर साहू श्री शान्तिप्रसादजी जैन की वदान्यता से स्थापित भारतीय ज्ञानपीठ काशी ने इस टीका के प्रकाशन की उदारता की, इसके लिए हम साहू शान्तिप्रसादजी के अत्यन्त अनुगृहीत हैं। पं. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य ने प्रकाशन निमित्त जो श्रम किया, उसके लिए उन्हें विशेष धन्यवाद है।
इस शास्त्र का तेजी के साथ शब्दानुवाद प्रथम बार वैद्यराज पं. कुन्दनलालजी परवार, न्यायतीर्थ तथा पं. परमानन्दजी साहित्याचार्य (सौंरई निवासी) के सहयोग से लगभग सवा माह में पूर्ण हुआ था। इसके पश्चात् पं. कुन्दनलालजी के अस्वस्थ हो जाने के कारण उनका बहुमूल्य सहयोग न मिल सका। पं. परमानन्दजी का लगभग दो-एक सप्ताह और सहयोग बड़ी कठिनता से मिला, और आगे वे सहयोग न दे पाये। उन विद्वानों के अमूल्य सहयोग के लिए हम अत्यन्त आभारी हैं।
आद्य अनुवाद की प्रति देखकर अनेक अनुभवी विद्वानों ने सलाह दी कि सम्पूर्ण टीका पुनः लिखी जानी चाहिए। यह ग्रन्थ महान् है। हमने भी जब विशेष शास्त्रों का अभ्यास किया और रचना का सूक्ष्मतया
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प्राक्कथन
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निरीक्षण किया, तब नवीन रूप से टीका निर्माण करना ही उचित ऊँचा। 'महाबन्ध' की टीका को मुख्य कार्य समझ हम उसमें संलग्न हो गये। लगभग तीन वर्ष में यह कार्य बन पाया। बना या नहीं, यह हम नहीं कह सकते। हमारा भाव यह है कि इसमें पूर्वोक्त समय लगा। इस अनुवाद में विशेषार्थ, टिप्पणी, शुद्ध पाठ-योजना आदि भी कार्य हुए। इस अपेक्षा से यह टीका पूर्णतया नवीन समझना चाहिए।
सन् १६४५ के ग्रीष्मावकाश में न्यायालंकार, सिद्धान्त महोदधि, गुरुवर पं. वंशीधरजी शास्त्री (महरौनीवालों) ने सिवनी पधारकर अनुवाद को ध्यानपूर्वक देखा। उनके संशोधन के उपलक्ष में हम हृदय से कृतज्ञ हैं। यह उनकी ही कृपा है जो यह महान् कार्य हम-जैसे व्यक्ति से सम्पन्न हो गया।
पं. हीरालालजी शास्त्री, साढूमलने अनेक बहुमूल्य परामर्श तथा सुझाव प्रदान किये थे। पं. फूलचन्द्रजी शास्त्री ने सिवनी पधारकर अनेक महत्त्वास्पद बातें सुझायी थीं। इसके लिए हम दोनों विद्वानों के अनुगृहीत हैं। अन्य सहायकों के भी हम आभारी हैं।
हमें स्वप्न में इस बात का भान न था कि 'महाबन्ध' की प्रति मूडबिद्री से प्राप्त करने का परम सौभाग्य हमें मिलेगा और उसकी टीका करने का भी अमूल्य अवसर आयेगा। जैन धर्म के प्रसाद से और चारित्र चक्रवर्ती प्रातःस्मरणीय पूज्य आचार्य १०८ श्री शान्तिसागर महाराज के पवित्र आशीर्वाद से यह मंगलमय कार्य सम्पन्न हुआ। प्रमाद अथवा अज्ञानवश टीका में जो भूलें हुई हों, उन्हें विशेषज्ञ विद्वान् क्षमा करेंगे और संशोधनार्थ हमें सूचित करने की कृपा करेंगे, ऐसी आशा है। ऐसे महान् कार्य में भूलें होना असम्भव नहीं हैं। 'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे।' पौष कृ. ११, वीर संवत् २४७३
-सुमेरुचन्द्र दिवाकर १८ दिसम्बर, १६४६; सिवनी (म.प्र.)
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प्रस्तावना (प्रथम संस्करण से)
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'महाबन्ध' पर प्रकाश
जिनेन्द्रदेव की निर्दोष वाणी रूप होने के कारण सम्पूर्ण आगम ग्रन्थ समान आदर तथा श्रद्धा के पात्र हैं, फिर भी जैन संसार में धवल, जयधवल, 'महाधवल' नामक शास्त्रों के प्रति उत्कट अनुराग एवं तीव्र भक्ति का भाव विद्यमान है। इस विशेष आदर का कारण यह है कि तीर्थंकर भगवान् महावीर प्रभु की दिव्यध्वनि को ग्रहण कर गणधरदेव ने ग्रन्थ-रचना की। वह मौखिक परम्परा के रूप में, विशेष ज्ञानी मुनीन्द्रों की चमत्कारिणी स्मृति के रूप में, हीयमान होती हुई, विद्यमान थी। महावीर निर्वाण के छह सौ तिरासी वर्ष व्यतीत होने पर अंगों और पूर्वो के एक देश का भी ज्ञान लुप्त होने की विकट स्थिति आ गयी। उस समय अग्रायणीयपूर्व के चयनलब्धि अधिकार के चतुर्थ प्राभृत 'कम्मपयडि' के चौबीस अनुयोग द्वारों से 'षट्खण्डागम' के चार खण्ड बनाये गये, जिन्हें वेदना, वर्गणा, खुद्दाबन्ध तथा 'महाबन्ध' कहते हैं। बन्धक अनुयोग द्वार के अन्यतम भेद बन्धविधान से जीवट्ठाण का बहभाग और तीसरा बन्धसामित्तविचय निकले। इस प्रकार 'षट्खण्डागम' का द्वादशांग वाणी से सम्बन्ध है। इसी प्रकार ज्ञानप्रवाद नामक पंचमपूर्व के दशम वस्तु अधिकार के अन्तर्गत तीसरे 'पेज्जदेसपाहुड' से कषायप्राभृत की रचना की गयी। इन ग्रन्थों का द्वादशांगवाणी से अविच्छिन्न सम्बन्ध होने के कारण द्वादशांगवाणी के समान श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक आदर किया जाता है। 'षट्खण्डागम' के 'महाबन्ध' को छोड़कर पाँच खण्डों पर जो वीरसेनाचार्य रचित टीका है, उसे धवल टीका कहते हैं। 'महाबन्ध' पर कोई टीका उपलब्ध नहीं है।' 'कषाय प्राभृत' में गुणधर आचार्य रचित एक सौ अस्सी गाथाएँ हैं। इनमें तिरेपन गाथाएँ और जोड़ने पर गुणधर आचार्य रचित कुल गाथाओं की संख्या दो सौ तैतीस हो जाती है। जयधवला टीका में कहा है-“कसायपाहुडे सोलसपदसहस्साणि (१६०००)। एदस्स अवसंहारगाहाओ गुणहर-मुह-कमल- विणिग्गियायो तेत्तीसाहिय-विसदमेत्तीओ (२३३)” (भाग १, पृ. ६६)। यतिवृषभ आचार्य ने छह हजार श्लोकप्रमाण चूर्णि सूत्र बनाये। इसकी बहत्तर हजार श्लोकप्रमाण टीका वीरसेनाचार्य तथा उनके शिष्य भगवज्जिनसेन स्वामी ने बनायी, उसका नाम जयधवला टीका है।
सूत्र-रचना- 'षट्खण्डागम' में जीवट्ठाण के प्रारम्भिक सत्प्ररूपणा अधिकार के केवल एक सौ सतहत्तर सूत्रों की रचना पुष्पदन्त आचार्य ने की है, शेष समस्त रचना भूतबलि स्वामीकृत है। जीवट्ठाण, खुद्दाबन्ध, बन्धसामित्त, वेदना और वर्गणा-इन सूत्ररूप पाँच खण्डों की श्लोक संख्या छह हजार प्रमाण है। छठे खण्ड 'महाबन्ध' में चालीस हजार श्लोक प्रमाण सूत्र हैं। साधाराणतया सम्पूर्ण धवला, जयधवला टीका को द्वादशांग से साक्षात् सम्बन्धित समझा जाता है।
महाबन्ध का प्रमाण-द्वादशांग वाणी से सम्बन्ध रखनेवाले प्राचीन साहित्य की दृष्टि से गुणधर
१. वप्पदेव ने आठ हजार पाँच श्लोक प्रमाण महाबन्ध की टीका रची थी।
व्यलिखत् प्राकृतभाषारूपां सम्यक्पुरातनव्याख्याम्।
अष्टसहस्रग्रन्थां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे ॥१७६॥-इन्द्र. श्रुता.। २. गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा विहत्तम्मि।
वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि ॥-जयध. १,१५१ ।
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प्रस्तावना
३३ आचार्य रचित दो सौ तैतीस गाथाओं को जो विशेषता प्राप्त होगी, वह उनपर रची गयी बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण टीका को नहीं होगी। इसी दृष्टि से यदि धवला टीका पर भी प्रकाश डाला जाय, तो कहना होगा कि साठ हजार श्लोक प्रमाण टीका भी नौवीं सदी की है, प्राचीन अंश पाँच खण्डों के रूप में केवल छह हजार श्लोक प्रमाण हैं । 'महाबन्ध' ग्रन्थ की सम्पूर्ण चालीस हजार श्लोक प्रमाण रचना भूतबलि स्वामीकृत होने के कारण अत्यन्त प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार सबसे प्राचीन जैनवाङ्मय की दृष्टि से 'महाबन्ध' सूत्र की रचना धवला, जयधवला टीकाओं के मूल की अपेक्षा लगभग सातगुनी है। ब्रह्म हेमचन्द्र रचित श्रुतस्कन्ध में लिखा है
“सत्तरिसहस्सधवलो जयधवलो सट्ठिसहस्स बोधव्वो । महबंध चालीसं सिद्धंततयं अहं वंदे ॥”
'धवलशास्त्र सत्तर सहस्र प्रमाण है, जयधवल साठ हजार प्रमाण है तथा 'महाबन्ध' चालीस हजार प्रमाण है। इन सिद्धान्तशास्त्रत्रय की मैं वन्दना करता हूँ ।'
इन्द्रनन्दि ने 'महाबन्ध' को तीस हजार' कहा और ब्रह्म हेमचन्द्र चालीस हजार श्लोक प्रमाण बताते हैं । इस मतभेद का कारण यह विदित होता है कि सम्भवतः इन्द्रनन्दि ने 'महाबन्ध' में उपलब्ध अक्षरों की गणनानुसार अपनी संख्या निधारित की, ब्रह्म हेमचन्द्र ने 'महाबन्ध' के संक्षिप्त किये सांकेतिक अक्षरों को, सम्भयतः पूर्ण मानकर गणना की 'ओरालियसरीर' को 'महाबन्ध' में 'ओरा०' लिखा है। इसे इन्द्रनन्दि ने दो अक्षर माने और ब्रह्म हेमचन्द्र ने सात अक्षर रूप गिना । समस्त ग्रन्थ में पुनः पुनः प्रकृति आदि के नामों की गणना हुई है, इस कारण भूतबलि स्वामी ने सांकेतिक संक्षिप्त शैली का आश्रय लिया। अतः इन्द्रनन्दि और हेमचन्द्र की गणना में भिन्नता तात्त्विक भिन्नता नहीं है।
1
महाधवल - जैन समाज में 'महाबन्ध' शास्त्र 'महाधवल' जी के नाम से विख्यात है । 'महाबन्ध' नाम को पढ़कर कुछ लोग तो भ्रम में पड़ेंगे। यथार्थ में ग्रन्थ का नाम 'महाबन्ध' के अनुभागबन्ध खण्ड के अन्त की प्रशस्ति से प्रमाणित होता है । वहाँ लिखा है
"सकलधरित्री- विनुत-प्रकटितमधीशे मल्लिकच्चे वेरिसि सत्पुण्याकर- 'महाबन्ध' पुस्तकं श्रीमाघनंदिमुनिपतिगत्तल ।”
'यह 'महाबन्ध' भूतबलि स्वामी द्वारा रचित है, इस बात का निश्चय धवला टीका (सिवनी प्रति, पृ. १४३७ ) के इस अवतरण से होता है
I
"जं तं बंधविहाणं तं चउब्विहं पयडिबंधो, द्विदिबंधो अणुभागबंधो, पदेसबंधी चेदि एदेसिं चदुण्डं बंधाणं भूदबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिदं ति अम्हेहि ति अम्हेहि एत्थ ण लिहिदं । "
'धवला' टीका महाबन्धशास्त्र के रचयिता के रूप में भूतबलि का नाम बताती है 'महाबन्ध' नामका परिज्ञान पूर्वोक्त अनुभागबन्ध की प्रशस्ति से होता है; अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि इस महाबन्ध' के निर्माता भूतबलि स्वामी हैं इसी 'महाबन्ध' की 'महाधवल' के नाम से ख्याति है। संवत् १६१७ तक 'महाधवल' की प्रसिद्धि विदित होने का प्रमाण उपलब्ध है। कारंजा के प्राचीन शास्त्र भण्डार से प्रतिक्रमण नाम की एक पोथी है उसमें यह उल्लेख पाया जाता है
"धवली हि महाघवलो जयधवलो विजयधवलश्च । ग्रन्थाः श्रीमद्भिरमी प्रोक्ताः कविधातरस्तस्मात् (?) ॥१३॥
१. प्रवरच्य महाबन्धायं ततः षष्ठकं खण्डम् त्रिंशत्सहस्रसूत्रं व्यरचयदसौ महात्मा ॥
- इन्द्र श्रुता. १३६
२. समस्त महाबन्ध गद्यमय रचना है। अनुष्टुप् छन्द के ३२ अक्षरों को एक श्लोक का माप मानकर समस्त ग्रन्थ की गणना की गयी। इसे ही श्लोकों के नाम से कहा जाता है। 'महाबन्ध' सूत्र छन्दोबद्ध रचना नहीं है ।
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महाबन्ध
धवल, जयधवल तथा 'महाधवल' के साथ 'विजयधवल' का नवीन उल्लेख है जो अनुसन्धान का विषय है। आगे लिखा है
“तत्पट्टे धरसेनकस्समभव सिद्धान्तगः सेंशुभः (?) तत्पट्टे खलु वीरसेनमुनिपो यैश्चित्रकूटे परे। येलाचार्यसमीगं कृततरं सिद्धान्तमल्पस्य ये
वाटे चैत्यवरे द्विसप्ततिमति सिद्धाचलं चक्रिरे ॥१४॥" संवत १६३७ आश्विनमासे कृष्ण पक्षे अमावस्यातिथौ शनिवासरे शिवदासेन लिखितम्। कवि वृन्दावनजी ने 'महाधवल' नाम प्रयुक्त किया है।
पण्डितप्रवर टोडरमलजी की गोम्मटसार कर्मकाण्ड की टीका में भी 'महाधवल' नाम आया है। "तहाँ गुणस्थान विषै पक्षान्तर जो महाधवला का दूसरा नाम कषायप्राभृत (?) ताका कर्ता यतिवृषभाचार्य ताके अनुसार ताकरि अनुक्रम तें कहिए हैं।" 'कषाय प्राभृत' पर वीरसेनाचार्य ने जो "जयधवला' टीका लिखी है, उससे विदित होता है कि कषायपाहुड के गाथा सूत्रों पर यतिवृषभ आचार्य ने चूर्णिसूत्र बनाये थे। इसे पण्डित टोडरमलजी ने 'महाधवल' ग्रन्थ रूप में कह दिया। प्रतीत होता है, सिद्धान्तग्रन्थों का साक्षात्कार न होने के कारण 'कषाय-प्राभृत' का नामान्तर 'महाधवल' लिखा गया।
'महाधवल' नाम प्रचार का कारण
यहाँ यह विचार उत्पन्न होता है कि 'महाबन्ध' शास्त्र का नाम 'महाधवल' प्रचलित होने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में यह विचार उचित अँचता है कि 'महाबन्ध' में भूतबलि स्वामी ने अपने प्रतिपाद्य विषय का स्वयं अत्यन्त विशद तथा स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन किया है। इसी कारण वीरसेन आचार्य अपनी 'धवला' टीका में लिखते हैं-इन चार बन्धों का विस्तृत विवेचन भूतबलि भट्टारक ने 'महाबन्ध' में किया है, अतएव हम यहाँ इस सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखते। 'महाबन्ध' के विशेषण रूप में 'महाधवल' शब्द का प्रयोग अनुचित नहीं दिखता। यह भी सम्भव दिखता है कि विशेष्य के स्थान में विशेषण ने ही लोकदृष्टि में प्राधान्य प्राप्त कर लिया हो। यह भी प्रतीत होता है कि परम्परा शिष्य सदृश वीरसेन, जिनसेन स्वामी ने अपनी सिद्धान्त शास्त्र की टीकाओं के नाम धवला, जयधवला रखे, तब स्वयं स्पष्ट प्रतिपादन करनेवाले गुरुदेव भूतबलि की महिमापूर्ण कृति को भक्ति तथा विशिष्ट अनुरागवश 'महाधवल' कहना प्रारम्भ कर दिया गया होगा।
'महाबन्ध' के 'महाधवल' नाम के बारे में सन् १६४५ में, चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री १०८ शान्तिसागर महाराज के समक्ष चर्चा करने का अवसर आया था। इस ग्रन्थ की प्रस्तुत हिन्दी टीका का आचार्य महाराज
१. अग्रणीपूर्व के, पाँचवें वस्तु का, महाकरमप्रकृति नाम चौथा।
इस पराभृत का, ज्ञान तिनके रहा, यहाँ लग अंग का, अंश तौ था॥ सो पराभृत्त को भूतबलि पुष्परद, दोय मुनि को सुगुरु ने पढ़ाया। तास अनुसार, षट्खण्ड के सूत्र को, बाँधि के पुस्तकों में मढ़ाया ॥४६॥ फिर तिसी सूत्र को, और मुनिवृन्द पढ़ि, रची विस्तार सों तासु टीका। धवल महाधवल जयधवल आदिक सु, सिद्धान्तवृत्तान्त परमान टीका। तिरुन हि सिद्धान्त को, नेमिचन्द्रादि आचार्य, अभ्यास करिके पुनीता। रचे गोमट्टसारादि बहुशास्त्र यह, प्रथम सिद्धान्त-उतपत्ति-गीता ॥४७॥
-श्रीप्रवचनसार-परमागम, कवि वृन्दावन, पृ. ६,७। २. एदेसिं चदण्हं बंधाणं विहाणं भूदबलिभडारएण महाबन्धे सप्पवंचेण लिहिदंति, अम्हेहि एत्थ ण लिहिदं"-ध.टी., सि.
१४३७॥
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प्रस्तावना
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ध्यानपूर्वक स्वाध्याय कर चुके थे, अतः ग्रन्थराज से प्राप्त परिचय के आधार पर आचार्य महाराज ने कहा या-सचमुच में यह ग्रन्थ 'महाधवल' है। बन्ध पर स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र यथार्थ में महान है। बन्ध का ज्ञान होने पर ही मोक्ष का बराबर ज्ञान होता है। 'समयसार' पहले नहीं चाहिए। पहले 'महाबन्ध' चाहिए। पहले सोचो हम क्यों दुःख में पड़े हैं, क्यों नीचे हैं? तीन सौ त्रेसठ पाखण्ड मतवाले भी पूर्ण सुख चाहते हैं, किन्तु मिलता नहीं। हमें कर्मक्षय का मार्ग ढूँढ़ना है। भगवान ने मोक्ष जाने की सड़क बतायी है। चलोगे तो मोक्ष मिलेगा, इसमें शंका क्या?" यह 'महाबन्ध' शास्त्र वस्तुतः 'महाधवल' है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए आचार्य महाराज ने एक विद्वान् ब्राह्मण पुत्र की कथा सुनायी थी, जिसको उसके पिता ने, जो राजपण्डित था, अपने जीवन काल में अर्थकरी विद्या नहीं सिखायी थी; केवल इतनी बात सिखायी थी कि अमुक कार्य करने से अमुक प्रकार का बन्ध होता है। बन्धशास्त्र में पुत्र को प्रवीण करने के अनन्तर पिता की मृत्यु हो गयी। अब पितृविहीन विप्रपुत्र को अपनी आजीविका का कोई मार्ग नहीं सूझा। अतः वह धनप्राप्ति निमित्त राजा के यहाँ चोरी करने पहुंचा। उसने रत्न, सुवर्णादि बहुमूल्य सामग्री हाथ में ली तो पिता के द्वारा सिखाया गया पाठ उसे स्मरण आ गया कि इस कार्य के द्वारा अमुक प्रकार का दुःखदायी बन्ध होता है। अतः बन्ध के भय से उसने राजाकोष का कोई भी पदार्थ नहीं चुराया। उसे वापिस निराश लौटते समय मार्ग में भूसा मिला। भूसा के लेने में क्या दोष है, यह पिता ने नहीं सिखाया था, इसलिए वह भूसा का ही गट्ठा बाँधकर साथ ले चला। पहरेदारों ने उसे पकड़कर राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने पूछा-तुमने स्वर्ण, रत्नादि को छोड़कर भूसा की चोरी क्यों पसन्द की? तब ब्राह्मणपुत्र ने बताया कि मेरे पिताजी ने अपने जीवन में मुझे केवल बन्ध का शास्त्र पढ़ाया था। उसमें भूसा को लेने में दोष का कोई उल्लेख न पाकर मैंने उसे ही चुराना निर्दोष समझा। अपने राजपुरोहित के पुत्र को इतना अधिक पापभीरु देख राजा प्रभावित हआ और उसने उसको अत्यन्त विश्वासपूर्ण उच्च पद देकर निराकल कर दिया।” इस कथा को सुनाते हुए आचार्य श्री ने कहा-बन्धका ज्ञान होने से जीव पाप से बचता है, इससे कर्मों की निर्जरा भी होती है। बन्धका वर्णन पढ़ने से मोक्ष का ज्ञान होता है। बन्धका वर्णन करनेवाला यह शास्त्र वास्तव में 'महाधवल' है। इससे बहत विशद्धता होती है।"
'महाबन्ध' का अध्ययन बुद्धि का विलास या बौद्धिक व्यायाम की सामग्री मात्र उपस्थित करता है, यह धारणा अयथार्थ है। इस आगम रूप महान शास्त्र से आत्मा का वास्तविक कल्याणप्रद अमृत का निर्मल निर्झर प्रवाहित होता है। उसमें निमग्न होनेवाला मुमुक्षु महान शान्ति तथा आह्लाद को प्राप्त करता है। उसके असंख्यात गुणश्रेणी रूप कर्मों की निर्जरा भी होती है। - आचार्य यतिवृषभने 'तिलोयपण्णत्ति' में कहा है कि परमागम के अध्ययन-द्वारा अनेक लाभ होते हैं। उससे 'अण्णाणस्स विणासं' अज्ञान का विनाश होता है: 'णाणदिवायरस्स उप्पत्ती'-ज्ञान सर्य की प्राप्ति हो है तथा 'पडिसमयमसंखेज्ज-गुणसेढि-कम्मणिज्जरणं'-प्रतिक्षण असंख्यात गुणश्रेणी रूप कर्मों की निर्जरा होती है। (१, गाथा ३६, ३७)
इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि 'महाबन्ध' का परिशीलन विचारों को, बुद्धि को एवं आत्मा को धवल ही नहीं, महाधवल बनाता है। इस दृष्टि ने 'महाधवल' इस नाम के प्रचार में भी सहायता या प्रेरणा प्रदान की होगी।
'महाबन्ध' का परिशीलन तथा मनन करते समय यह बात समझ में आयी कि जब तक मनोवृत्ति पवित्र तथा निराकुल न हो, तब तक ग्रन्थ का पूर्वापर गम्भीर विचार नहीं हो पाता। महाधवल मनोवृत्तिपूर्वक 'महाबन्ध' का रसास्वादन किया जा सकता है, अतः इस मनोवृत्ति को लक्ष्य में रखकर भी यह 'महाधवल' नाम प्रचलित हो गया प्रतीत होता है। चारित्रचक्रवर्ती, मुनीन्द्र शांतिसागर महाराज ने जो यह कहा था कि सचमुच में 'यह ग्रन्थ महाधवल है', वह अक्षरशः यथार्थ है।
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महाबन्ध
'महाबन्ध' के अवतरण का इतिहास
कवि की कल्पना या विचारों के द्वारा जैसे काव्य की रचना होती है, उसी प्रकार यह 'महाबन्ध'-शास्त्र भूतबलि स्वामी के व्यक्तिगत अनुभव, विचार या कल्पनाओं की साकार मूर्ति नहीं है। इस ग्रन्थ का प्रमेय सर्वज्ञ भगवान महावीर स्वामी ने अपनी दिव्यध्वनि-द्वारा प्रकाशित किया था। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के प्रभात में विपुलाचल पर्वत पर सर्वज्ञ महावीर तीर्थंकर की कल्याणकारिणी धर्म-देशना हुई थी। उसे गौतमगोत्री चतुर्विध निर्मल ज्ञानसम्पन्न, सम्पूर्ण दुःश्रुति में पारंगत इन्द्रभूति ब्राह्मण ने वर्धमान भगवान् के पादमूल में उपस्थित हो सुना और अवधारण किया था। अनन्तर गौतम स्वामी ने उस वाणी की द्वादशांग तथा चतर्दश पूर्वरूप ग्रन्थात्मक रचना एक मुहूर्त में की 'एक्केण चेव मुहुत्तेण कमेण रयणा कदा' । उत्तरपुराण में गुणभद्र स्वामी ने कहा है कि अंगों की रचना पूर्वरात्रि में की गयी थी और पूर्वो की रचना रात्रि के अन्तिम भाग में की गयी थी:-'अंगानां ग्रन्थसन्दर्भ पूर्वरात्रे व्यधाम्यहम् । पूर्वाणां पश्चिमे भागे...' (७४-३७१, ३७२) इस सम्बन्ध में भगवान महावीर को अर्थकर्ता कहा गया है और गौतम स्वामी को ग्रन्थकर्ता। गौतम ने द्रव्यश्रुत की रचना की थी। तिलोयपण्णात्तिकार का कथन है
“इय मूलतंतकत्ता सिरिवीरो इंदभूदिविप्पवरो।
उवतंते कत्तारो अणुतंते सेसआइरया ॥ १,८० 'इस प्रकार श्री वीर भगवान् मूलतन्त्रकर्ता, विप्रशिरोमणि इन्द्रभूति उपतन्त्रकर्ता तथा शेष आचार्य अनुतन्त्रकर्ता हैं।
गणधर का व्यक्तित्व-इस द्वादशांग रूप परमागम का प्रमेय सर्वज्ञ भगवान् वर्धमान जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि से प्राप्त होने से वह प्रमाण रूप है। गणधर का भी व्यक्तित्व लोकोत्तर था। गौतम गणधर के विषय में 'जयधवला' में लिखे गये ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं :
जो आर्य क्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय-इन चार निर्मल ज्ञानों से सम्पन्न हैं, जिन्होंने दीप्त, उग्र और तप्त तप को तपा है, जो अणिमा आदि आठ प्रकार की वैक्रियिक लब्धियों से सम्पन्न हैं, जिनका सर्वार्थसिद्धि में निवास करनेवाले देवों से अनन्तगणा बल है. जो एक महर्त में अंगों के अर्थ और द्वादशांग रूप ग्रन्थों के स्मरण और पाठ करने में समर्थ हैं, जो अपने हाथरूपी पात्र में दी गयी खीर को अमृत रूप में परिवर्तित करने में या उसे अक्षय बनाने में समर्थ हैं, जिन्हें आहार और स्थान के विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त है, जिन्होंने सर्वावधिज्ञान से समस्त पुद्गल द्रव्य का साक्षात्कार कर लिया है, जिन्होंने अपने तप के बल से विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न कर लिया है, जो सप्त प्रकार के भय से रहित हैं, जिन्होंने क्रोध, मान, माया तथा लोभ रूप कषायों का क्षय किया है, जिन्होंने पाँच इन्द्रियों को जीत लिया है, जिन्होंने मन, वचन तथा काय रूपी तीन दण्डों को भग्न कर दिया है. जो छहकायिक जीवों की दया पालने में तत्पर हैं, जिन्होंने कुलमद आदि अष्ट मदों को नष्ट कर दिया है, जो क्षमा आदि दस धर्मों में निरन्तर उद्यत हैं, जो पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप अष्टप्रवचन मातृकाओं का पालन करते हैं, जिन्होंने क्षुधादि बाईस परीषहों को जीत लिया है और जिनका सत्य ही अलंकार है-“सच्चालंकारस्स"; ऐसे आर्य इन्द्रभूति के लिए उन महावीर भट्टारक ने अर्थ का उपदेश दिया। (जयधवला टीका भाग १, पृ. ८३, ७४)। ऐसी महनीय विभूति गुरु गौतम गणधर रचित होने से समस्त द्वादशांगवाणी पूज्य तथा विश्वसनीय है।
१. वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडिवाए।
अभिजीणक्खत्तम्मि य उप्पत्ती धम्मतित्थस्स॥-ति.प. १६६ २. पुणो तेणिंदभूतिणा भावसुदपज्जयपरिणदेण बारहंगाणं चोद्दसपुव्वाणं च गंथाणमेक्केण चेव मुहत्तेण कमेण रयणा
कदा। तदो भावसुदस्य अत्थपदाणं च तित्थयरो कत्ता। तित्थयरादो सुदपज्जाएण गोदमो परिणदो त्ति दव्वसुदस्स गोदमो कत्ता। तत्तो गंथरयणा जादेत्ति।-ध. टी. १,६५
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प्रस्तावना
३७
यह द्वादशांग समुद्र के समान विशाल तथा गम्भीर है। सम्पूर्ण द्वादशांग की 'मध्यमपद' के रूप में गणना करने पर जो संख्या प्राप्त होती है, उसे कविवर द्यानतरायजी इस प्रकार बताते हैं
“एक सौ बारह कोडि बखानो। लाख चौरासी ऊपर जानो ॥
ठावनसहस पंच अधिकानो। द्वादश अंग सर्व पद मानो ॥" सम्पूर्ण श्रुतज्ञान में पदों की संख्या ११२,८४,५८००,५ होती है। बारह अंगों में निबद्ध अक्षरों के अतिरिक्त अक्षरों का प्रमाण ८०१०८१७५ है। इनकी अनुष्टुप् छन्दरूप गणना करें, तो २५०३३८० श्लोकों का प्रमाण होता है।
प्रथम अंग का नाम आचारांग है। इसमें अठारह हजार पद कहे गये हैं। ये मध्यम पद रूप हैं। एक मध्यम पद में कितने श्लोक होंगे, इसके विषय में कहा है
“कोडि इक्कावन आठ हि लाखं। सहस चुरासी छह सौ भाखं॥
साढ़े इक्कीस श्लोक बताये। एक एक पद के ये गाये ॥" इन श्लोकों की संख्या से अचारांग के १८००० पदों का गुणा करने के अनन्तर आचारांग के अपुनरुक्त अक्षर विशिष्ट श्लोकों की प्राप्ति होगी। जिस 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' नामक पंचम अंग का उपदेश धरसेन आचार्य ने भूतबलि पुष्पदन्त को दिया था और जो इस ग्रन्थराज के बीज स्वरूप है, उसमें पदों की संख्या इस प्रकार कही है
"पंचम व्याख्याप्रगपति दरसं। दोय लाख अट्ठाइस सरसं।" धरसेन गुरु द्वारा दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के चौथे पूर्व अग्रायणी सम्बन्धी उपदेश दिया गया था। उस दृष्टिवाद का भी बड़ा विशाल रूप है।
"द्वादस दृष्टिवाद पनभेदं, एक सौ आठ कोडिपन बेद।
अडसठ लाख सहस छप्पन हैं, सहित पंच पद मिथ्या हन हैं।" 'व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग में जिनेन्द्र भगवान् के समीप में गणधरदेव से जो साठ हजार प्रश्न किये गये थे, उनका वर्णन है। 'दृष्टिवाद' में तीन सौ तिरेसठ कुवादों का वर्णन तथा निराकरण किया गया है। इस अंग के पूर्वगत भेद का उपभेद अग्रायणीपूर्व है। उसमें सुनय, दुर्नय, पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य, सप्ततत्त्व, नवपदार्थों आदि का वर्णन किया गया है। इस पूर्व के विषय में श्रुतस्कन्ध विधान में इस प्रकार कथन आया है-षण्णवति-लक्षसुपदं मुनि-मानसरत्न-कांचनाभरणम्, अंगाग्रार्थनिरूपकमर्थ्य चाग्रायणीयमिदम् ॥ द्वादशांग वाणी में दिव्यध्वनि का अधिक से अधिक सार संगृहीत रहता है। सर्वज्ञ भगवान ने विश्व के समस्त तत्त्वों का प्रतिपादन किया था, इस कारण द्वादशांग वाणी में भी सभी विषयों का विशद प्रतिपादन किया गया है। जब रत्नत्रय धर्म की विशुद्ध साधना होती थी, तब पवित्र आत्माओं में चमत्कारी ज्ञान की ज्योति जगती थी। अब राग-द्वेष-मोह के कारण आत्मा की मलिनता बढ़ जाने से महान् ज्ञानों की उपलब्धि की बात तो दूर है, वह चर्चा भी चकित कर देती है।
द्वादशांग वाणी की मर्यादा-द्वादशांग वाणी के अत्यन्त विस्तृत विवेचन के होते हुए भी समस्त पदार्थ का प्रतिपादन उसके द्वारा नहीं हो सका। कारण
१. षष्टिसहस्राणि भगवदर्हत्तीर्थंकरसन्निधौ गणधरदेवप्रश्नवाक्यानि प्रज्ञाप्यन्ते कथ्यन्ते यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम। २. द्वादशमङ्गं दृष्टिवाद इति । दृष्टिशतानां त्रयाणां त्रिषष्ट्युत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते।-त. रा., पृ. ५१। ३. अग्रस्य द्वादशाङ्गेषु प्रधानभूतस्य वस्तुनः अयनं ज्ञानं अग्रायणं तत्प्रयोजनं अग्रायणीयम्। तच्च सप्तशतसुनयदुर्नय
पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यसप्ततत्त्व-नवपदार्थादीन् वर्णयति।-गो. जीव. जी., गा. ३६५, पृ. ७७८
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महाबन्ध
“पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणमिलप्पाणं।
पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो ॥"-गो. जी., गा. ३३४ पदार्थों का बहुभाग वाणी के परे है। वह केवलज्ञान गोचर है। अनिर्वचनीय पदार्थों का अनन्तवाँ भाग सर्वज्ञवाणी के गोचर है। इसका भी अनन्तवाँ भाग श्रुतरूप में निबद्ध किया गया है। श्रुतकेवली के ज्ञान के अगोचर पदार्थ का निरूपण दिव्यध्वनि में होता है। उस दिव्यध्वनि के भी अगोचर पदार्थ केवलज्ञान के विषय होते हैं।
यह द्वादशांग वेद है, कारण यह किसी प्रकार के दोष से दूषित नहीं है। हिंसा का वर्णन करनेवाला वेद नहीं है। उसे तो कृतान्त (यम) की वाणी कहना चाहिए। महर्षि जिनसेन का कथन है
"श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशाङ्गमकल्मषम् ।
हिंसोपदेशि यद्वाक्यं न वेदोऽसौ कृतान्तवाक् ॥"-महापु. ३६,२२ गुरु-परम्परा-गौतमस्वामी ने द्वादशांग ग्रन्थ का सुधर्माचार्य को व्याख्यान किया। धवलाटीका में सधर्माचार्य के स्थान में लोहाचार्य का नाम ग्रहण किया गया है। कछ काल के अनन्तर गौतमस्वामी केवली हुए। उन्होंने बारह वर्ष पर्यन्त विहार करके निर्वाण प्राप्त किया। उसी दिन सुधर्माचार्य ने जम्बूस्वामी आदि अनेक आचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान किया और केवलज्ञान प्राप्त किया। इस प्रकार महावीर भगवान् के निर्वाण के बाद गौतमस्वामी, सुधर्माचार्य तथा जम्बूस्वामी-ये तीन सकलश्रुत के धारक हुए; पश्चात् केवलज्ञान-लक्ष्मी के अधिपति बने। परिपाटी क्रम से ये तीन सकलश्रुत के धारक कहे गये हैं और अपरिपाटी क्रम से सकलश्रुत के ज्ञाता संख्यात हजार हुए। जयधवला में बताया है कि सुधर्माचार्य ने अनेक आचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान किया। इसे ही धवलाटीका में स्पष्ट करते हुए कहा है कि अपरिपाटी की अपेक्षा संख्यात हजार श्रुतकेवली हुए। जम्बूस्वामी ने विष्णु आदि अनेक आचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान किया।
सुधर्माचार्य ने बारह वर्ष विहार किया और जम्बूस्वामी ने अड़तीस वर्ष विहार किया, पश्चात् जम्बूस्वामी ने मोक्ष प्राप्त किया। जम्बूस्वामी के बारे में जयधवलाकार लिखते हैं-'एसो एत्थोसप्पिणीए अंतिमकेवली।'-ये इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम केवली हुए। इस कथन से यही अर्थ निकाला जाता है कि जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् अन्य महापुरुष निर्वाण को नहीं गये। 'तिलोयपण्णत्ति' में लिखा है कि जम्बूस्वामी के निर्वाण जाने के पश्चात् अनुबद्ध केवली नहीं हुए।
“तम्मि कदकम्मणासे जंबूसामित्ति केवली जादो।
तम्मि सिद्धिं पत्ते केवलिणो णत्यि अणुबद्धा॥"-४,१४७७ गौतमस्वामी, सुधर्माचार्य तथा जम्बूस्वामी-ये तीन अनुबद्ध-क्रमबद्ध परिपाटीक्रम युक्त (In
१. श्रुतकेवलिनामपि अगोचरार्थप्रतिपादनशक्तिर्दिव्यध्वनेरस्ति। तद्दिव्यध्वनेरपि अगोचरजीवाद्यर्थ ग्रहणशक्तिः
केवलज्ञानेऽस्तीत्यर्थः-गो. जीव., संस्कृतटीका, पृ. ७३१ २. 'तेण गोदमेण दुविहमवि सुदणाणं लोहज्जस्स संचारिदं। -ध. टी., १,६५
तदो तेण गोअमगोत्तेण इंदभूदिणा सुहमा (म्मा) इरियस्स गंथो वक्खाणिदो। -ज. ध., १,८४ ३. 'परिवाडिमस्सिदूण एदे तिण्णि वि सयलसुदधारया भणिया। ____ अपरिवाडीए पुण सयलसुदपारगा संखेज्जसहस्सा ॥' -ध. टी., १,६५ ४. तद्दिवसे चेव सुहम्माइरियो जंबूसामियादीणमणेयाणमाइरियाणं वक्खाणिददुवालसंगो घाइचउक्कक्खएण केवली जादो।
-ज.ध., १,८४ "तद्दिवसे चेव जंबूसामिभडारओ विटु (विष्णु) आइरियादीणमणेयाणं वक्खाणिदुवालसंगो केवली जादो ॥"
-ध. टी., १,६५
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प्रस्तावना
३६
succession) केवली हुए। अननुबद्ध-अक्रमपूर्वक कैवल्य उपार्जन करनेवाले अन्य भी हुए हैं, जिनमें अन्तिम केवल श्रीधरमुनि ने कुण्डलगिरि से मुक्ति प्राप्त की।
___ "कुंडलगिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो।
चारणारिसीसु चरिमो सुपासचंदाभिधाणो य॥"-ति. प. ४,१४७६ तीन केवलियों में बासठ वर्ष व्यतीत हुए और विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन तथा भद्रबाहु इन पाँच श्रुतकेवलियों में सौ वर्ष का समय पूर्ण हुआ। इन पाँच श्रुतकेवलियों की गणना भी परिपाटी क्रम-अनुबद्धरूप से की गयी, जो इस बात को सूचित करती है कि यहाँ अपरिपाटी क्रम की अपेक्षा नहीं ली गयी है। इन पाँच श्रुतकेवलियों में प्रथम श्रुतकेवली के नाम के विषय में 'तिलोयपण्णत्ति' तथा 'उत्तरपुराण' में भिन्न कथन आया है। उक्त दोनों ग्रन्थों में 'विष्णु' के स्थान पर 'नन्दि' का कथन किया गया है। धवला, जयधवला, हरिवंशपुराण, श्रुतावतार में विष्णु नाम दिया गया है। ये पाँच महापुरुष पूर्ण श्रुतज्ञान के पारगामी हुए। इनके अनन्तर अनुक्रम से एकादश महामुनि ग्यारह अंग और दश पूर्व के पाठी हुए। निम्नलिखित इन एकादश मुनीश्वरों का काल एक सौ तिरासी वर्ष कहा गया है-१. विशाखाचार्य, २. प्रोष्ठिल, ३. क्षत्रिय, ४. जय, ५. नागसेन, ६. सिद्धार्थ, ७. धृतिषेण, ८. विजय, ६. बुद्धिल, १०. गंगदेव, ११. धर्मसेन। ये ग्यारह नाम गिनाये गये हैं। इन नामों के विषय में उत्तरपुराण, धवला, हरिवंशपुराण एकमत हैं, किन्तु 'तिलोयपण्णति' तथा 'श्रुतावतार' में विशाखाचार्य की जगह क्रमशः विशाख तथा विशाखदत्त नाम आया है। बुद्धिल के स्थान पर श्रुतावतार में बुद्धिमान शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'तिलोयपण्णत्ति' में धर्मसेन की जगह सुधर्म नाम आया है। इन मुनियों के विषय में आचार्य गुणभद्र ने लिखा है कि ये-"द्वादशांगार्थ-कुशला दशपूर्वधराश्च ते।” (उ. पु. पर्व ७६, श्लोक ५२३)-द्वादशांग में कुशल तथा दश पूर्वधर थे।
इनके अनन्तर एकादशांग के ज्ञाता नक्षत्र, जयपाल, पांडु, ध्रुवसेन और कंस ये पाँच महापुरुष दो सौ बीस वर्ष में हुए। इन नामों के विषय में तिलोयपण्णत्ति, उत्तरपुराण तथा धवला एकमत हैं। जयधवला में 'जयपाल' के स्थान में 'जसपाल' तथा हरिवंशपुराण में 'यशःपाल' नाम आये हैं। श्रुतावतार में 'ध्रुवसेन' की जगह 'द्रुमसेन' नाम आया है।
इनके पश्चात् आचारांग के ज्ञाता सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य एक सौ अठारह वर्ष में हुए। इन नामों में श्रुतावतार में इतनी भिन्नता है कि 'यशोभद्र' की जगह 'अभयभद्र' तथा 'यशोबाहु' की जगह 'जयबाहु' नाम प्रयुक्त हुए हैं। शेष ग्रन्थकार भिन्नमत नहीं हैं।
महावीर भगवान् के निर्वाण के पश्चात् अनुबद्ध क्रम से उपर्युक्त अट्ठाईस महाज्ञानी मुनीन्द्र छह सौ तिरासी वर्ष में हुए थे। क्रमबद्ध परम्परा को ध्यान में रखकर ही वीर निर्वाण के पश्चात् होनेवाले महापुरुषों का कथन किया गया है।
'श्रुतावतार' कथा में लोहाचार्य के पश्चात् विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, अर्हद्दत्त, अर्हबलि तथा
१. जयधवलाकारने परिपाटीक्रमका पर्यायवाची ‘अतुट्टसंताणेण' (१, ८५) जिसकी संतान या परम्परा अत्रुटित है, ऐसा
कहा है। २. अपने 'जैन साहित्य और इतिहास के पृ. १४, १५ पर श्री नाथूरामजी प्रेमी लिखते हैं-"भगवान् महावीर के बाद तीन ही केवलज्ञानी हुए हैं, जिनमें जम्बूस्वामी अन्तिम थे। ऐसी दशामें यह समझ में नहीं आता, कि यहाँ श्रीधर को क्यों अन्तिम केवली बतलाया और ये कौन थे तथा कब हुए हैं। शायद ये अन्तःकृत केवती हों।" इस शंका का निवारण पूर्वोक्त वर्णन से हो जाता है, कारण श्रीधर मुनि अननुबद्ध अन्तिम केवली हुए हैं, जिनका निर्वाणस्थल कुंडलगिरि है। इनको अन्तःकृत केवली मानने में कोई आगम का आधार नहीं है। सामान्यतया नन्दी, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन तथा भद्रबाहु-ये पाँच श्रुतकेवली कहे गये हैं, किन्तु धवलाटीका से ज्ञात होता है कि अपरिपाटी क्रम की अपेक्षा ये द्वाशांग के पाठी संख्यात हजार थे। 'जयधवला' से भी इस अधिक संख्या की पुष्टि होती है। यही युक्ति केवलियों के विषय में लगेगी। शास्त्रों में अनुबद्धकेवली तथा श्रुतकेवली की मुख्यता से प्रतिपादन किया गया है।
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महाबन्ध
माघनन्दि, इन छह महापुरुषों को अंगपूर्व के एकदेश के ज्ञाता कहा है। अन्य ग्रन्थों में ये नाम नहीं दिये गये हैं। सम्भवतः ये नाम अनुबद्ध परम्परा के क्रम से और भी अक्रमबद्ध परम्परावाले मुनीश्वर रहे होंगे।
अंग-पूर्वो के एकदेश ज्ञाता- जयधवला टीका में लिखा है कि लोहाचार्य के पश्चात् अंग और पूर्वो का एकदेश ज्ञान आचार्य परम्परा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ था। जयधवलाकार के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं- “तदो अंग-पुव्वाणमेगदेसो चेव आइरिय-परंपराए आगंतूण गुणहराइरियं संपत्तो” (जय. ध. भाग १, पृ. ८७)। धवलाटीका में इस सम्बन्ध में लिखा है-, "तदो सव्वेसिं-भंग-पुव्वाणमेगदेसो आइरियपरंपराए आगच्छमाणों धरसेणाइरियं संपत्तो"-(१,६७)-लोहार्य के पश्चात आचार्य परम्परा से सम्पूर्ण अंग और पूर्वो का एकदेशज्ञान धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ। आचार्य धरसेन अथवा गुणधर स्वामी भी विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, अर्हद्दत्त, अर्हबलि तथा माघनन्दि मुनीश्वरों के समान अंग-पूर्व के एकदेश के ज्ञानी थे। ये नाम सम्भवतः क्रमबद्ध परम्परागत न होने से हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों में नहीं पाये जाते हैं। प्रतीत होता है कि इन मुनीश्वरों के समय में कोई विशेष उल्लेखनीय अन्तर न रहने से इनके काल का पृथक् रूप से वर्णन नहीं पाया जाता है। आचारांग के पाठी आचार्य वीरनिर्वाण के पश्चात छह सौ तिरासी वर्ष तक हुए। स्थूल रीति से वही समय धरसेनस्वामी तथा गुणधर आचार्य का रहा होगा।
विचारणीय विषय-इस विषय में यह कथन विचारणीय है; वीर निर्वाण के छह सौ पाँच वर्ष तथा पाँच माह व्यतीत होने पर शकराजाकी उत्पत्ति कही गयी है। 'त्रिलोकसार' में लिखा है
"पण-छस्सयवस्सं षणमास जुदं गमिय वीरणिव्वइदो।
सगराजो तोकक्की चदु-णव-तिय-महियसगमासं ॥५०॥" वीरभगवान् के निर्वाण जाने के छह सौ पाँच वर्ष, पाँच माह पश्चात् शक राजा हुआ। उसके अनन्तर तीन सौ चौरानवे वर्ष, सात माह के पश्चात् कल्की हुआ। इस गाथा की टीका में माधवचन्द्र त्रैविद्यदेव कहते हैं-"श्रीवीरनाथनिवृत्तेः सकाशात् पंचोत्तरषट्शतवर्षाणि (६०५) पंच (५) मासयुतानि गत्वा पश्चात् विक्रमांकशकराजो जायते"-यहाँ शकराजा का अर्थ विक्रमराजा किया गया है। इस कथा के प्रकाश में आचारांग के पाठी मुनियों का सद्भाव विक्रम संवत् ६८३-६०५७८ आता है। विक्रम संवत् के सत्तावन वर्ष पश्चात् ईसवी सन् प्रारम्भ होता है; अतः ७८-५७=२१ वर्ष ईसा के पश्चात् आचारांगी लोहाचार्य हुए। उसके समीप ही धरसेन स्वामी का समय अनुमानित होने से उनका काल ईसवी की प्रथम शताब्दी पूर्वार्ध होना चाहिए।
दो परम्परा-श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार विक्रम के चार सौ सत्तर वर्ष पूर्व भगवान् महावीर का निर्वाण कहा जाता है। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा श्वेताम्बर मान्यता से एक सौं पैंतीस वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण
ती है। इतिहासकारों के मध्य प्रचलित वीरनिर्वाण काल ईसवी पूर्व पाँच सौ सत्ताईस वर्ष श्वेताम्बर परम्परा के आधार पर अवस्थित है। ४७० + ५७-५२७ वर्ष ईसा के पूर्व महावीर भगवान् हुए।
मुख्य विचारणीय विषय है कि 'शकराज' का क्या अर्थ किया जाय?' यदि शालिवाहन शक अर्थ किया जाता है, तो महावीर भगवान का निर्वाण काल ईसवी के पाँच सौ सत्ताईस वर्ष पूर्व होता है। उसके आधार पर यदि धरसेन स्वामी का समय निकाला जाएगा, तो ईसवी सन् इक्कीस में एक सौ पैंतीस और जोड़ने पड़ेंगे। इस प्रकार वह समय एक सौ छप्पन ईसवी होगा अर्थात् ईसा की दूसरी शताब्दी हो जाएगा। दिगम्बर आगम के कथन में श्रद्धा करनेवालों की दृष्टि में वीरनिर्वाण काल विक्रम संवत् से छह सौ पाँच वर्ष पाँच माह पूर्व माना जाएगा। अतः विक्रम संवत् २०२० में वीरनिर्वाण संवत् २०२० + ६०५ =२६२५ होगा।
१. इस सम्बन्ध में विशेष विवेचन आस्थान महाविद्वान् पण्डित शान्तिराज शास्त्री ने मैसूर राज्य-द्वारा मुद्रित तत्त्वार्थसूत्र
की भास्करनन्दी रचित टीका की संस्कृत भूमिका में किया है।
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प्रस्तावना
४१
दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए डॉ. जेकोवी ने लिखा था-"The traditional date of Mahavira's nirvana is 470 years before Vikrama according to the Svetambaras and 605 according to the Digambaras"-श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार महावीर का निर्वाण विक्रम से चार सौ सत्तर वर्ष पूर्व हुआ था तथा दिगम्बरों की परम्परा के अनुसार वह छह सौ पाँच वर्ष पूर्व हुआ था।
पुरावृत्तज्ञ श्री राइस ने अपने शिलालेख संग्रह की प्रस्तावना में महावीर भगवान के निर्वाण के छह सौ पाँच वर्ष बाद उज्जैन के विक्रमादित्य का उल्लेख करते हए लिखा है :-"There was born Vikramaditya in Ujjayini and he by his knowledge of astronomy, having made an almanac established his own era from the year Rudhirodgāri, the 605 year after the death of Vardhamana.
उज्जैनी में एक विक्रमादित्य राजा उत्पन्न हुआ था, जिसने अपने ज्योतिष ज्ञान के बलपर एक पंचांग बनाकर रुधिरोद्गारी वर्ष से अपना संवत् चलाया था, जिसका समय वर्धमान के निर्वाण के छह सौ पाँच वर्ष बाद था।
सूत्रकार का समय
__अतः दिगम्बर परम्परा को ध्यान में रखते हुए आचार्य धरसेन का समय ईसा की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्ध मानना होगा तथा वही समय उनके पास में 'महाकम्मपयडिपाहुड' के रहस्य का अभ्यास करनेवाले महाज्ञानी पुष्पदन्त, भूतबलि मुनीश्वरों का मानना सम्यक् प्रतीत होता है। इस प्रकाश में 'महाबन्ध' के रचयिता आचार्य भूतबलि का समय ईसा की प्रथम शताब्दी स्वीकार करना होगा।
_ 'महाबन्ध' शास्त्र की रचना भूतबलि आचार्य ने की थी। इस सम्बन्ध में 'धवला' टीका में कहा है कि सौराष्ट्र देश के गिरिनगर पत्तन की चन्द्रा गुफा में अंग तथा पूर्व के एकदेश के ज्ञाता धरसेन आचार्य विराजमान थे। वे अष्टांग महानिमित्त विद्या के पारगामी थे। उनके चित्त में यह भय उत्पन्न हुआ कि आगे श्रुतज्ञान का विच्छेद हो जाएगा। अतः प्रवचनवत्सल उन महर्षि ने दक्षिणापथ के निवासी तथा महिमा नगरी में एकत्रित आचार्यों के पास अपना एक लेख भेजा, जिसमें उनका मनोगत भाव सूचित किया गया था।
'श्रुतावतार' कथा में लिखा है-धरसेन आचार्य को अग्रायणी पूर्व के अन्तर्गत पंचम. वस्तु के चतुर्थ भाग महाकर्म प्राभृत का ज्ञान था। अपने निर्मलज्ञान में जब उन्हें यह भासमान हुआ कि मेरी आयु थोड़ी शेष रही है। यदि कोई प्रयत्न नहीं किया जाएगा, तो श्रुत का विच्छेद हो जाएगा। ऐसा विचारकर उन्होंने देशेन्द्र देश के वेणातटाकपुर में निवास करनेवाले महामहिमाशाली मुनियों के निकट एक ब्रह्मचारी के द्वारा पत्र भेजा। उस पत्र में लिखा था-"स्वस्ति श्री वेणाकतटवासी यतिवरों को उजयन्त तट निकटस्थ चन्द्रगुहानिवासी धरसेनगणि अभिवन्दना करके यह सूचित करता है कि मेरी आयु अत्यन्त अल्प रह गयी है। इससे मेरे हृदयस्थ शास्त्र की व्युच्छित्ति हो जाने की सम्भावना है, अतएव उसकी रक्षा के लिए आप शास्त्र के ग्रहण-धारण में समर्थ तीक्ष्ण बुद्धि दो यतीश्वरों को भेज दीजिए।" पश्चात् योग्य विद्वान् मुनीश्वरों के आने पर धरसेन स्वामी ने अपनी ज्ञाननिधि उन दोनों को सौंप दी थी।
बृहत्कथाकोश में विशेष कथन- 'आराधना कथाकोश' में दक्षिणापथ से आगत महिमा नगरी में विराजमान संघ के प्रमुख आचार्य का नाम महासेन दिया गया है। हरिषेण कृत बृहत्कथाकोश (पृ. ४२) में लिखा है कि उस समय सौराष्ट्र देश में धर्मसेन राजा का शासन था तथा उनकी रूपवती रानी का नाम धर्मसेना था। उसके गिरिनगर के समीप चन्द्रगुहा में धरसेन महामुनि रहते थे।
१. "तेण वि सोरट्ठविसय-गिरिणयरपट्टणचंदगुहाठिएण अटुंगमहाणिमित्तपारएण गंथवोच्छेदो होहदि त्ति जादभयेण पवयणवच्छलेण दक्खिणावहाइरियाणं महिमाए मिलियाणं लेहो पेसिदो।" .
-ध. टी., १,६७
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महाबन्ध
“ततः सौराष्ट्रदेशेऽस्ति नगरं गिरिपूर्वकम् । धर्मसेननृपस्तत्र धर्मसेनास्य सुन्दरी ॥१॥ तत्पत्तनसमीपे च चन्द्रोपपदिका गुहा । सन्तिष्ठते गुरुस्तस्यां धरसेनो महामुनिः ॥२॥
विबुध श्रीधर रचित 'श्रुतावतार' (पृ. ३१६ ) से ज्ञात होता है कि धरसेन महामुनि के समीप भेजे गये दो शिष्यों का नाम 'सुबुद्धि' और 'नरवाहन' था । सुबुद्धि दीक्षा के पहले श्रेष्ठिवर थे और नरवाहन नरेश थे ।
जिस दिन मुनियुगल धरसेन मुनीन्द्र के समीप पहुँचे थे, उसके प्रभाव काल में धरसेन स्वामी ने एक स्वप्न देखा था कि दो सुन्दर धवलवर्ण बैलों ने उनके समीप आकर उनकी तीन प्रदक्षिणा दी और नम्रतापूर्वक उनके चरणों में पड़ गये। इस स्वप्न को देखकर स्वप्नशास्त्र के अनुसार उन्होंने उसे अत्यन्त शुभसूचक स्वप्न समझा। उन्होंने “जयउ सुददेवदा " - श्रुतदेवता की जय हो, ये शब्द उच्चारण किये। कुछ क्षण के अनन्तर महिमानगरी से आगत धारणा तथा ग्रहण शक्ति में प्रवीण मुनियुगल ने गुरुदेव को प्रणाम करके अपने आने का कारण निवेदन किया, “अणेण कज्जेणम्हा दोवि जणा तुम्हं पादमूलमुवगया" । आचार्य महाराज ने कहा, “सुट्टु, भद्दं” - ठीक है, कल्याण हो । (ध.टी., १,६८) हरिषेण कथाकोश (पृष्ठ ४२ ) में लिखा है
“उपविश्य क्षणं स्थित्वा प्रोचतुस्तौ मुनीश्वरम् । नाथ ! ग्रहीतुमायातौ त्वत्तो विद्यां मनोद्भवाम् ॥६॥"
वे क्षण-भर गुरु के चरणों में बैठे; पश्चात् खड़े होकर उन्होंने मुनीश्वर धरसेन स्वामी से कहा, “नाथ ! आपके अन्तःकरण से प्रसूत विद्या को ग्रहण करने को हम लोग आये हैं ।”
यह सुनकर धरसेन स्वामी ने समागत साधुयुगल की सत्पात्रता की परीक्षा करना उचित समझा, क्योंकि श्रुतज्ञान सामान्य वस्तु नहीं है। वह अमृत से भी विशेष महत्त्वपूर्ण है। आज जो पात्रता - अपात्रता का विशेष विचार किये बिना श्रुतदान का कार्य चलता है, उसका फल प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है कि किन्हीं के द्वारा पान किया गया श्रुतज्ञान रूप दुग्ध विषरूप परिणमन को प्राप्त होता है, अतः ऐसे लोग परमागम के द्वारा स्व-परकल्याण साधन के स्थान में अपनी शक्ति का उपयोग आगम निषिद्ध कार्यों में करते हैं । परम विवेकी धरसेन स्वामी ने सोचा- 'जहाछंदाईणं विज्जादाणं संसारभयवद्धणं' - स्वच्छन्द वृत्तिवालों को विद्यादान संसार भय का संवर्धक है, अतः उन्होंने उन साधुयगल की सत्पात्रता, वीतरागता, विवेकशीलता तथा निर्भीकता आदि की परीक्षा के हेतु कोई शास्त्रीय प्रश्न न पूछकर दो विद्याएँ सिद्ध करने को दीं। एक का मन्त्र हीनाक्षर था, दूसरे का मन्त्र अधिक अक्षर वाला था । आचार्य ने कहा था- दो उपवासपूर्वक इनको सिद्ध करो। जब उन्होंने विद्या सिद्ध की, तब एक के समक्ष कानी देवी आयी और अधिक अक्षरवाले साधक के समक्ष दन्तुरा -लम्बे दाँतोंवाली देवी आयी। उस समय वे साधकयुगल विचार करने लगे
“विलोक्य देवतां व्यग्रामेताभ्यां चिन्तितं तदा । काणिकोद्दन्तुरा देवी दृश्यते न कदाचन ॥१०॥ शोधयित्वा पुनर्विद्यां मन्त्रव्याकरणेन तु । ऊनाधिकाक्षरं दत्वा हित्वा ताभ्यां विचिन्ततम् ॥११॥ भूयोऽपि चिन्तिता विद्या ताभ्यां देवी समागता । सर्वलक्षणसम्पूर्णा किंकर्तव्यसमाकुला ॥१२॥ विसृज्य देवतां साधू सिद्धविद्यौ तपस्विनौ । गुरोः समीपतां प्राप्य प्रोचतुस्तौ यथाक्रमम् ॥१३॥”
इन्होंने देवता के व्यग्र स्वरूप को देखकर विचार किया कि कोई भी देवी एकाक्षी नहीं होती तथा विकृत दन्तवाली नहीं होती, इसलिए उन्होंने मन्त्र के व्याकरण के अनुसार विद्यासाधन हेतु दिये गये मन्त्र को शुद्ध किया । न्यूनाक्षर मन्त्र में अक्षर जोड़े और अधिक अक्षरवाले में कम किये। इसके पश्चात् उन्होंने पुनः मन्त्र का चिन्तवन किया। उस समय सर्वलक्षणों से समलंकृत देवता का आगमन हुआ और उन्होंने उनसे अपने योग्य कर्त्तव्य बताने का अनुरोध कया। उन तपस्वियों ने विद्या सिद्ध कर उनका सम्यक् प्रकार विसर्जन किया और गुरु के समीप आकर निवेदन किया
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प्रस्तावना
“भवद्भिर्दत्तविद्यायां दत्तमेकं मयाक्षरम् । तथा निरस्तमेकं च महातीचारकारिणा ॥१४॥ कृतातीचारपापस्य प्रायश्चित्तं त्वमावयोः । प्रदेहि साम्प्रतं तेन स्वचेतः शुद्धिमिच्छतोः ॥१५॥”
भगवन्! आपके द्वारा दी गयी विद्या में मैंने एक अक्षर जोड़ दिया। दूसरे साधक ने कहा- मैंने एक अक्षर कम कर दिया। ऐसा करने से हमारे द्वारा महान् दोष हुआ है। इस प्रकार अतिचाररूपी पाप करने के कारण आप हमें अभी प्रायश्चित्त दीजिए, जिससे हमारी मानसिक मलिनता दूर हो ।
उसे सुनकर धरसेन आचार्य ने कहा
"ऊनाधिकाक्षरे विद्ये परीक्षार्थं यथाक्रमम् ।
वितीर्णे ते भवद्भ्यां मे न वा दोषोऽल्पकोऽपि सः ॥१७॥
४३
मैंने तुम्हारी परीक्षा करने के लिए क्रमशः ऊन अक्षर और अधिक अक्षर युक्त विद्या तुम्हें दी थी। इसमें तुम्हारा तनिक भी दोष नहीं है ।
धरसेन स्वामी की परीक्षा में वे दोनों साधु विशुद्ध सुवर्ण सदृश प्रमाणित हुए। उन्होंने यह देख लिया कि साधु-युगल का चरित्र अत्यन्त निर्मल है । वे अत्यन्त बुद्धिमान, विवेकी ज्ञानवान् हैं तथा उनका मन विषयों के प्रति पूर्णतया विरक्त है । उन्हें विश्वास हो गया कि इनको दी गयी विद्या का मधुर परिणाम ही होगा, इसलिए उन्होंने–‘सोमतिहि णक्खत्त-वारे गंथो पारद्धो' - शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र तथा शुभ दिन में ग्रन्थ का पढ़ाना प्रारम्भ किया। आचार्य धरसेन स्वामी ने यह नहीं सोचा कि हमें धर्मरूप पवित्र ज्ञाननिधि इन्हें सौंपनी है, इसमें मुहूर्त आदि देखना अर्थहीन है। ऐसा न सोचकर उन परम विवेकी महाज्ञानी गुरुदेव ने शुद्ध काल रूप बाह्य सामग्री को अपने ध्यान में रखा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी सत्कार्य करने में बाह्य योग्य सामग्री की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । वादीभसिंह सूरिने 'क्षत्रचूड़ामणि' काव्य में लिखा है, “पाके हि पुण्य-पापानां भवेद् बाह्यं च कारणम्” ॥११- १४ ॥ पुण्य तथा पाप के उदय में बाह्य सामग्री भी कारण रूप होती है। उन महामेधावी, प्रतिभाशाली तथा लोकोत्तर व्यक्तित्व समलंकृत साधुयुगल को महाज्ञानी मुनीन्द्र धरसेन स्वामी ने उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया, जिसे उन महर्षियों ने अपने स्मृति पटल में पहले पूर्णतया अंकित कर लिया। इस प्रसंग में द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावरूप सामग्रीचतुष्य श्रेष्ठ रूप से विद्यमान थी, अतः धरसेनाचार्य का मनोरथ पूर्ण हो गया ।
आषाढ़सुदी एकादशी का महत्त्व - आषाढ़ सुदी एकादशी के पूर्वाह्न में 'महाकम्म- पयडि पाहुड' गत कर्म-साहित्य का उपदेश पूर्ण हो चुका। प्रवचन प्रेमवश धरसेन स्वामी के मन में जो पहले भय उत्पन्न हुआ था, वह भय अब दूर हो गया । उनकी श्रुतप्रेमी आत्मा को अवर्णनीय आनन्द हुआ। उन्होंने परम शान्ति तथा सन्तोष का अनुभव किया ।
देवों द्वारा पूजा - 'धवला' टीका में लिखा है- “विणएण गंथो समाणिदोत्ति” (१,७०) विनयपूर्वक ग्रन्थ समाप्त हुआ। “तुट्ठेहि भूदेहि तत्थेयस्तु महती पूजा पुष्प - बलि-संख - तूर-रव-संकुला कदा " - इससे सन्तोष को प्राप्त हुए भूतजाति के व्यन्तर देवों ने पुष्प, बलि, शंखों की उच्च ध्वनियुक्त वैभवपूर्ण पूजा की। पवित्र कार्य पूर्ति होने पर इस पंचमकाल में देवताओं का आगमन होकर पूजा का कार्य सम्पन्न होना असामान्य घटना थी ।
नामकरण - उस मंगल वेला में धरसेनाचार्य के मन में अपने श्रुतज्ञान निधि के उत्तराधिकारी उन शिष्य-युगल के नवीन नामकरण की भावना उत्पन्न हुई।
'धवला' टीका में लिखा है- “तं दट्ठूण तस्स भूदवलि' त्ति भडारएण णामं कयं । अवरस्स वि भूदेहि पूजिदस्स अत्थ - वियत्थ-ट्ठिय- दंत-पंति - भोसारिय भूदेहि समीकय दंतस्स 'पुप्फयंतो' त्ति णामं कयं । (१,७१)
उस महान् पूजाको देवताओं के द्वारा सम्पन्न हुई देखकर भट्टारक धरसेन स्वामी ने भूतजाति के देवों द्वारा पुष्पादि से पूजा की जाने के कारण उन मुनीश्वरों को 'भूतबलि', यह संज्ञा प्रदान की तथा अस्त-व्यस्त
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महाबन्ध
दन्तपंक्ति दूर कर भूत देवों ने जिनके दन्तों को समानरूपता प्रदान की, ऐसे देवपूजित द्वितीय साधुराज का नाम पुष्पदन्त रखा।
विबुध श्रीधर विरचित 'श्रुतावतार' में कहा है कि नरवाहन राजा ने मुनि पद को स्वीकार किया था। वे 'भूतबलि' इस संज्ञा-युक्त किये गये तथा सद्बुद्धि नामक द्वितीय मुनि का नाम पुष्पदन्त रखा था। पहले गृहस्थ जीवन में वे श्रेष्ठिवर थे।
धरसेन स्वामी का मनोगत-अष्टांग-निमित्त-विद्या के पारगामी धरसेन स्वामी को यह ज्ञात हो गया कि अब रत्नत्रय साधक उनका शरीर अधिक काल तक नहीं टिकेगा। अब उनका मरण समीप है। ऐसे अवसर पर ये दोनों मुनि यदि मेरे समीप रहेंगे, तो इनके चित्त में मेरे वियोग की व्यथा उत्पन्न होना सम्भव है, अतः उन वीतराग गुरुदेव ने मोहभाव का त्याग कर उन शिष्यों को उसी दिन प्रस्थान कर अन्यत्र चातुर्मास करने का आदेश दिया। धवला टीका में लिखा है-“पुणो तद्दिवसे चेव पेसिदा संतो-गुरुवयणमलंघणिज्ज इदि चिंतिऊणागदेहि अंकुलेसरे वरिसाकालो कओ” (१,७१) गुरु की आज्ञानुसार वे भूतबलि-पुष्पदन्त मुनिराज उसी दिन यह सोचकर कि 'गरु के वचन अलंघनीय होते हैं। वहाँ से रवाना हो गये और उन्होंने अंकलेश्वर में चातुर्मास किया।
इन्द्रनन्दि आचार्य ने लिखा है- "दूसरे दिन गुरु ने यह सोचकर कि मेरी मृत्यु निकट है, यदि ये समीप रहेंगे तो दुःखी होंगे। उन दोनों को कुरीश्वर भेज दिया। तब वे ६ दिन चलकर इस नगर में पहुँच गये और वहाँ पंचमी को योग ग्रहण करके उन्होंने वर्षाकाल समाप्त किया।"
विबुध श्रीधर ने धवलाकार के अनुसार उन मुनिद्वय का अंकुलेसर में चातुर्मास लिखा है। इसका कारण उन्होंने यह लिखा है कि धरसेन स्वामी ने अपनी मृत्यु को निकट ज्ञात किया तथा उससे इन मुनिद्वय को क्लेश न हो, इसलिए उनका वहाँ से प्रस्थान कराया।
वीतराग चित्तवृत्ति-इस प्रकरण से जिनेन्द्र के शासन में गुरु की वाणी का महत्त्व घोषित होता है। धरसेन आचार्य की वीतरागता का सजीव स्वरूप समझ आता है। अपने शिष्यों को मनोव्यथा न हो, यह विचार उनकी परम कारुणिक मनोवृत्ति को व्यक्त करता है। उनके वीतराग हृदय में यह मोहभाव नहीं रहा कि मेरे स्वर्ग प्रयाण करते समय मेरे शिष्य मेरे समीप में रहें। समाधिमरण के लिए तत्पर धरसेन स्वामी अपने को शरीर से भिन्न चैतन्य ज्योति स्वरूप एकाकी आत्मा सोचते थे, इसलिए उन्होंने विशुद्ध भावों के साथ उन अत्यन्त गुणी तथा महाज्ञानी साधुओं को सदा के लिए अपने पास से अलग भेज दिया। अब उनका विशुद्ध मन जिनेन्द्र-चरणों का स्मरण करते हुए कर्मजाल से विमुक्त चैतन्य की ओर विशेष रूप से केन्द्रित हो रहा था।
चातुर्मास का काल व्यतीत होने पर भूतबलि भट्टारक द्रमिल देश-तामिल देश को गये-'भूदबलि-भडारो दमिलदेस गदो' तथा पुष्पदन्ताचार्य वनवास देशको गये। प्रतीत होता है कि इस चातुर्मास के भीतर ही महामुनि धरसेन स्वामी का स्वर्गवास हो गया होगा; अन्यथा उनके जीवित रहते हुए कृतज्ञ शिष्य-युगल गुरुदेव के पुण्य दर्शन हेतु गये बिना न रहते।
१. विबुध श्रीधर के शब्दों में इन्द्रभूति गणधर ने श्रेणिक महाराज से षट्खण्डागम सूत्र की उत्पत्ति के विषय में प्रकाश डालते हुए कहा था :-“धरसेनभट्टारकः कतिपयदिनैर्नरवाहन-सद्बुद्धिनाम्नोः पठनाकर्णन-चिन्तनक्रियां कुर्वतोरषाढ-श्वेतैकादशीदिने शास्त्रं परिसमाप्ति यास्यति । एकस्य भूता रात्री बलिविधिं करिष्यन्ति, अन्यस्य दन्तचतुष्क सुन्दरम् । भूतबलिप्रभावाद् भूतबलिनामा नरवाहनो मुनिर्भविष्यति। समदन्तचतुष्टयप्रभावात् सद्बुद्धिः पुष्पदन्तनामा मुनिर्भविष्यति।
-श्रुतावतार, पृ. ३१७ । २. आत्मनो निकटमरणं ज्ञात्वा धरसेन एतयोर्मा क्लेशो भवतु इति मत्वा तन्मुनिविसर्जनं करिष्यति।
-श्रुतावतार, पृ. ३१७।
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प्रस्तावना
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पुष्पदन्तस्वामी की रचना - 'धवलाटीका ' में लिखा है कि वनवास देश में पहुँचकर पुष्पदन्त स्वामी ने जिनालित को दीक्षा दी ।' बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणाके १७७ सूत्र बनाये और उन्हें जिनपालित के द्वारा भूतबलि स्वामी के समीप भेजे ।
जिनपालित– इन्द्रनन्दि श्रुतावतार के कथनानुसार जिनपालित पुष्पदन्त स्वामी के भानजे थे । विबुधश्रीधर के श्रुतावतार में जिनपालित का नाम निजपालित आया है। धर्मकीर्ति शिलालेख नं. १ में ( पट्टावली बागड़ा संघ या लालवागढ़ ) जिनपालित को 'योगिराट्' - योगियों के अधीश्वर लिखा है ।
" तेषां नामानि वच्मीतः शृणु भद्र महान्वय । भद्रो भद्रस्वभावश्च धरसेनो यतीश्वरः ॥६॥ भूतबलिः पुष्पदन्तो निपालितयोगिराट् । समन्तभद्रो धीधर्मा सिद्धिसेनो गणाग्रणीः ॥७॥ *
भूतबलि की रचना - भूतबलि स्वामी ने जिनपालित के पास वीसदि सूत्रों को देखा, उसमें अन्तिम १७७वाँ सूत्र यह है- 'अणाहारा चदुसु ट्ठाणेसु विग्गहगइसमावण्णाणं, केवलीणं वा समुग्धादगदाणं अजोगिकेवली, सिद्धा चेदि।' उन्हें जिनपालित के द्वारा ज्ञात हुआ कि पुष्पदन्त का जीवन- प्रदीप शीघ्र बुझनेवाला है। इससे उनके हृदय में विचार उत्पन्न हुए कि अब 'महाकम्मपयडिपाहुड' का लोप हो जाएगा, अतः उन्होंने 'दव्यमाणानुगममादि काऊण गंथरचणा कदा' - द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि लेकर ग्रन्थरचना की । 'षट्खण्डागम' में भूतबलि स्वामी रचित आदि सूत्र यह है - 'दव्वपमाणानुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य ।'-ध. टी. २,१
इस सूत्र के प्रारम्भ में वीरसेनाचार्य धवलाटीका में लिखते हैं
“संपहि चोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव पिरमाणपडिवोहणटुं भूदबलियाइरियो सुत्तमाह ” ( २,१)
'अब चौदह जीवसमासों के अस्तित्व को जाननेवाले शिष्यों को परिमाण का अवबोध कराने के लिए भूतबलि आचार्य सूत्र कहते हैं ।'
पूर्वोक्त सूत्र को आदि लेकर शेष समस्त 'षट्खण्डागम' सूत्र भूतबलि स्वामी की उज्ज्वल कृति हैं । श्रुत पंचमी पर्व - इन्द्रनन्दिकृत 'श्रुतावतार' से विदित होता है कि जब यह रचना पूर्ण हो गयी, तब चतुर्विध संघ सहित भूतबलि स्वामी ने ज्येष्ठ सुदी पंचमी को ग्रन्थराज की बड़ी भक्तिपूर्वक पूजा की। उस समय से श्रुतपंचमी पर्व प्रचलित हो गया; जब कि श्रुत देवता की सर्वत्र अभिवन्दना की जाती है। इसके पश्चात् भूतबलि स्वामी ने यह रचना जिनपालित के साथ पुष्पदन्त स्वामी के पास भेजी। सौभाग्य की बात हुई, जो दुर्दैव ने पुष्पदन्ताचार्य को उस समय तक नहीं उठाया था। आचार्य पुष्पदन्त ने रचना देखी । अपना
१. तदो पुप्फदंताइरिएण जिणवालिदस्स दिक्खं दाऊण वीसदिसुत्ताणि कारिय पढाविय पुणो सो भूदवलिभयवंतस्स पासं पेसिदो । - ध. टी. १,७१
3. Documents produced by Digambaris bebore the court of Dhwajadand Commissioner Udaipur, pp. 29-30
३. भूदबलिभयवदा जिणवालिदासे दिट्ठवीसदिसुत्तेण अप्पाउओ त्ति अवगयजिणवालिदेण महाकम्मपयडिपाहुडस्स वोच्छेदो होहदि त्ति समुम्पण्ण-बुद्धिणा पुणो दव्वपमाणाणुगममादिं काऊण गंथ रचणा कदा । --ध. टी., १,७१ ४. ज्येष्ठसितपक्षपञ्चम्यां चातुर्वर्ण्यसंघसमवेतः । तत्पुस्तकोपकरणैर्व्यधात् क्रियापूर्वकं पूजाम् ॥१४३॥ श्रुतपंचमीति तेन प्रख्यातिं तिथिरियं परामाप । अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजां कुर्वते जैनाः ॥१४४॥
- इ. श्रु ।
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मनोरथ सफल हुआ ज्ञात कर वे अत्यन्त आनन्दित हुए । उन्होंने भी चातुर्वर्णसंघ सहित सिद्धान्तशास्त्र की पूजा की।
इस महाशास्त्र के रक्षण कार्य में जिनपालित की भी महत्त्वपूर्ण सेवा विदित होती है। हम देखते हैं कि चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात् पुष्पदन्त अपने साथी भूतबलि को छोड़कर जिनपालित के पास वनवास देश में पहुँचते हैं। वे विंशतिसूत्रों की रचना करके अपना मन्तव्य भूतबलि के पास प्रेषित करते हैं। भूतबलि जब ग्रन्थराज का निर्माण पूर्ण कर लेते हैं, तब वे इन्हीं जिनपालित के साथ अपनी अमूल्य जीवन निधि-ज्ञाननिधि को पुष्पदन्ताचार्य के समीप भेजते हैं, ताकि उनका भी इस आगम-रचना के विषय में अभिप्राय ज्ञात हो जाय । जिनपालित योगिराज थे तथा पुष्पदन्त-जैसे महामुनि के अत्यन्त विश्वासपात्र थे । भूतबलि स्वामी ने भी उन्हें योग्य समझ अपने समीप स्थान दिया था और अपनी रचना उनके ही साथ पुष्पदन्त स्वामी के पास भिजवायी थी। इससे हमें प्रतीत होता है कि महान् ग्रन्थ - रचनाकार्य में वे भूतबलि स्वामी के समीप अवश्य रहे होंगे। बहुत सम्भव है कि भूतबलि स्वामी के तत्त्व प्रतिपादन को लिखने का कार्य जिनपालित द्वारा सम्पन्न हुआ हो । कम से कम इतना तो दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि इस सिद्धान्तशास्त्र के उद्धार कार्य में जिनपालित मुनिराज का विशेष स्थान रहा। इसका वर्णन इसलिए नहीं मिलता कि पहले लोग कार्य को प्रधान मानते थे, नाम की ओर प्रायः कम ध्यान रहता था। इतना बड़ा 'षट्खण्डागम' महाशास्त्र निर्माण करते हुए भी ग्रन्थ में जब भूतबलि स्वामी का नाम कहीं नहीं आया, तब जिनपालित का नाम न आना विशेष आश्चर्यप्रद बात नहीं है ।
ग्रन्थ की प्रामाणिकता
'महाबन्ध' शास्त्र में सम्पूर्ण चर्चा आगमिक तथा अहेतुवाद- आश्रित है । आगम की निम्नलिखित परिभाषा प्रस्तुत शास्त्र के विषय में पूर्णतया चरितार्थ होती है
“पूर्वापरविरोधादेर्व्यपेतो दोषसन्ततेः ।
द्योतकः सर्वभावनामाप्तव्याहृतिरागमः ॥" - ध. टी., पृ. ८७५
- जो पूर्वापरविरोधादि दोषपरम्परा से रहित हो, सर्व पदार्थों का प्रकाशक हो तथा आप्त की वाणी हो, उसे आगम कहते हैं ।
कुन्दकुन्दस्वामी ने 'नियमसार' में कहा है
“तस्स मुहग्गयवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं ।
आगममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चया ॥८॥
अरहन्त परमात्मा के मुख से विनिर्गत, पूर्वापर दोष रहित शुद्धवाणी को आगम कहा है। उस आगम के द्वारा तत्त्वार्थ का कथन किया गया है। यह आगम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में निमित्त कारण कहा गया है । ( नियमसार गाथा ५३)
षट्खण्डासगम सूत्रों की, विशेषकर 'महाबन्ध' की चर्चा बहुत सूक्ष्म है। उसमें कहीं भी पूर्वापर विरोध का दर्शन नहीं होता। जितना सूक्ष्म चिन्तक एवं विचारक 'महाबन्ध' का पारायण करेगा, वह ग्रन्थ के विवेचन से उतना ही अधिक प्रभावित होगा। ग्रन्थ की महत्ता यथार्थ में पूर्वापर अविरोधिता में है। अपने विषय पर प्रकाश डालने में आचार्य ने किंचित् भी न्यूनता नहीं प्रदर्शित की है। ग्रन्थराज आप्त की कृति है, अतः यह स्वतः प्रमाण है। किसी हेतुवादरूप साधन-सामग्री की आवश्यकता नहीं है । आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र स्वामी का कथन है
१. विबुध श्रीधरकृत 'श्रुतावतार' से ज्ञात होता है कि पुष्पदन्त आचार्य के साथ चतुःसंघ ने तीन दिन पर्यन्त बड़े उत्साहपूर्वक पूजा प्रभावना की थी। धार्मिक समाज ने व्रतादि का परिपालन भी किया था। पृ. ३१६
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प्रस्तावना
“वक्तर्यनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधितम् ।
आप्ते वक्तरि तद्वाक्यात्साध्यमागमसाधितम् ॥७८॥
- वक्ता यदि अनाप्त है, तो युक्ति द्वारा जो बात सिद्ध की जाएगी, वह हेतुसाधित की जाएगी। और यदि वक्ता आप्त है, तो उनके वचनामत्र से ही बात सिद्ध होगी। इसे आगमसाधित कहते हैं।
भूतबलि को आप्त किस कारण माना जाय, इस सम्बन्ध में धवला टीका में सुन्दर तर्कणा की गयी है । शंकाकार कहता है; सूत्र की परिभाषा है
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"सुत्तं गणहरकहियं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च । सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुव्विकहियं च ॥"
- गणधर का कथन, प्रत्येकबुद्ध मुनिराज की वाणी, श्रुतकेवली का कथन, अभिन्नदशपूर्वी का कथन सूत्र है ।
“ण च भूदबलिभडारओ गणहरो, पत्तेयबुद्धो, सुदकेवली, अभिण्णदसपुव्वी वा येणेदं सुत्तं होज्ज ? जदि एदं सुत्तं ण होदि तो...पमाणत्तं कुदो णव्वदे?” भूतबलि भट्टारक गणधर नहीं हैं । न वे प्रत्येक बुद्ध, श्रुतकेवली अथवा अभिन्न दशपूर्वी हैं, जिससे यह शास्त्र 'सूत्र' हो जाय । यदि यह शास्त्र सूत्र नहीं होता है, तो इसमें प्रामाणिकता का किस प्रकार ज्ञान होगा?
इस शंका के समाधान में कहते हैं- “रागदोसमोहाभावेण पमाणीभूदपुरिसपरंपराये आगत्तादो” (ध. टी., पृ. १२८२) 'यह ग्रन्थ प्रमाण है, कारण राग-द्वेष-मोहरहित प्रामाणिकता प्राप्त पुरुषपरम्परा से यह प्राप्त हुआ है।
इस ग्रन्थ में अप्रामाणिकता का लेश भी नहीं है । इस सम्बन्ध में वीरसेनाचार्य का कथन महत्त्वपूर्ण है । वे लिखते हैं? – इस प्रकार प्रमाणीभूत महर्षिरूप प्रणालिका के द्वारा प्रवाहित होता हुआ महाकर्म- प्रकृतिप्राभृतरूप अमृत-जल-प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। उन्होंने भी गिरिनगरी की चन्द्रगुफा में भूतबलि, पुष्पदन्त को सम्पूर्ण महाकर्म- प्रकृति-प्राभृत सौंपा। तदनन्तर श्रुतनदी का प्रवाह व्युच्छिन्न न हो जाय, इस भय से भव्य जीवों के अनुग्रह के लिए उन्होंने 'महाकम्मपयडि पाहुड' का उपसंहार करके षट्खण्ड बनाये । अतः यह त्रिकालगोचर समस्त पदार्थों को ग्रहण करनेवाले प्रत्यक्ष तथा अनन्त केवलज्ञान से उत्पन्न हुआ है, प्रमाणस्वरूप आचार्य प्रणालिका के द्वारा आगत है और प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाण से अबाधित है। अतः यह शास्त्र प्रमाण है । इसलिए मोक्षाभिलाषी भव्यात्माओं को इसका अभ्यास करना चाहिए ।
पुनः शंकाकार कहता है- “सूत्र विसंवादी क्यों नहीं है?" उत्तर में कहते हैं- “ सूत्र में विसंवादीपना नहीं है, कारण यह विसंवाद के कारण सम्पूर्ण दोषों से मुक्त भूतबलि के वचनों से विनिर्गत है ।"२ पुनः शंकाकार तर्क करता है - " कदाचित् भूतबलि ने असम्बद्ध देशना की हो ?” इसके निराकरण में वीरसेन स्वामी कहते हैं- "ण चासंबद्धं भूदबलिभडारओ परूवेदि, महाकम्मपयडिपाहुड अभियधाणेण ओसारिदासेंसराग-दोस
१. एवं पमाणीभूदमहरिसिपणालेण आगंतूण महाकम्मपयडिपाहुडामियजलपहावो धरसेणभडारयं संपत्तो । तेण वि गिरिणयरचंदगुहाए भूदबलिपुप्फदंताणं महाकम्मपयडिपाहुडं सयलं समप्पिदं । तदो भूदबलिभडारएण सुद-इ-पवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहट्टं महाकम्मपयडिपाहुडमुवसंहरियऊण छखंडाणि कयाणि, तदो तिकालगोयरासेस-पयत्थविसय-पच्चक्खाणंत केवलणाणप्पभवादो पमाणीभूदआइरियपणालेणादत्तादो, दिट्ठिट्ठविरोहाभावादो पमाणमेसो गंथो, तम्हा मोक्खत्थिणा अब्भसेयव्वो ।
- ध. टी., सि., पृ. ७६२ ।
२. विसंवादी सुत्तं किण्ण जायदे ? ण, विसंवादकारण-सयलदोसमुक्क भूदबलि-वयणविणिग्गयस्स सुत्तस्स विसंवादत्तविरोहादो । -ध. टी. सि., पृ. १०३३
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महाबन्ध
मोहत्तादो”–भूतबलि भट्टारक असम्बद्ध प्ररूपण नहीं करेंगे, कारण उन्होंने महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के अवधारण करने से रागद्वेष तथा मोह का निराकरण कर दिया है।
महाधवल मनोवृत्ति-वक्ता का जब विशिष्ट व्यक्तित्व स्थापित हो जाता है, तब उनकी वाणी में भी स्वयं विशेषता का अवतरण हो जाता है। इस चर्चा से यह बात भी ज्ञात हो जाती है कि महाकर्मप्रकृति प्राभूत के परिशीलन से राग, द्वेष तथा मोह का विनाश होता है, तब उस महाशास्त्र के उपसंहाररूप इस ग्रन्थराज के द्वारा भी रागद्वेष-मोह की विशेष मन्दता होती है। कषायादि की विशेष तीव्र अवस्था में तो मनोवृत्ति 'महाबन्ध' का अवगाहन भी नहीं कर सकेगी। इसके लिए अन्तःकरण वृत्ति की निर्मलता तथा निश्चिन्तता की परम आवश्यकता है। गृहस्थ सदृश आकुलतापूर्ण श्रमण भी इस शास्त्र का रसास्वाद नहीं कर सकता। श्रमणसदृश मनोवृत्ति तथा पवित्र परिणतियुक्त व्यक्ति इस महाशास्त्र का सम्यक् परिशीलन करने में समर्थ होगा। गार्हस्थिक आकुलतावाला व्यक्ति इस अमृतनिधि का आनन्द न ले सकेगा। प्रतीत होता है, इस बात को लक्ष्य में रखकर सर्वसाधारण को इस ज्ञानसिन्धु में अवगाहन करने का पात्र नहीं कहा। 'महाबन्ध' का रसास्वादन करनेवाले की मनोवृत्ति 'महाधवल' होनी चाहिए। इस ग्रन्थराज के द्वारा जीवन महाबन्ध से मुक्त हो महाधवल रूप होता है।
मंगल-चर्चा जैन शास्त्रकार अपने शास्त्र के प्रारम्भ में जिनेन्द्र भगवान् के गुणस्मरणरूप मंगल-रचना करते हैं। इसका कारण आचार्य विद्यानन्दि यह बताते हैं कि
“अभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यः तत्प्रसादप्रबुद्धैर्न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥"
-श्लो. वा., पृ.२ 'अभिमतफल-सिद्धि का उपाय सुबोध है, वह शास्त्र से प्राप्त होता है और शास्त्र की उत्पत्ति आप्त से होती है, अतः शास्त्र के प्रसाद से प्रबोध प्राप्त पुरुषों का कर्तव्य है कि आप्त को अपनी प्रणामांजलि अर्पित करें, कारण सत्पुरुष अपने पर किये गये उपकार को नहीं भूलते।' मंगल के विषय में तिलोयपण्णत्ति में कहा है
“पढमे मंगलवयणे सिस्सा सत्थस्स पारगा होति।
मज्झिम्मे णिव्विग्घं विज्जा, विज्जाफलं चरिमे ॥१.२E" ग्रन्थ के आरम्भ में मंगल पाठ से शिष्य लोग शास्त्र के पारगामी होते हैं। मध्य में मंगल के करने से निर्विघ्न विद्या की उपलब्धि होती है तथा अन्त में मंगल करने से विद्या का फल प्राप्त होता है। 'महाबन्ध' का प्रथम पत्र नष्ट हो गया है. अतः ग्रन्थ के आदि में क्या मंगल श्लोक या सूत्र रहे, इसका परिज्ञान नहीं हो सकता। यह भी कल्पना हो सकती है कि 'कषायप्राभूत' के समान यहाँ भी मंगल न किया गया हो।
कषायप्रामृत में मंगल का अभाव-कषायप्राभूत की टीका में वीरसेन स्वामी लिखते हैं-“ववहारणयमस्सिदूण गुणहरभडारयस्स पुण एसो अहिप्पाओ, जहा-कीरउ अण्णत्थ सव्वत्थ णियमेण
अरहंतणमोक्कारो, मंगलफलस्स पारद्धकिरियाए अणुवलंभादो। एत्थ पुण णियमो णत्थि, परमागमुवजोगम्मि णियमेण मंगलफलोवलंभादो। एदस्स अत्यविसेसस्स जाणावणटुं गुणहरभडारण गंथस्सादीए ण मंगलं कयं।" (१६)।
“व्यवहार नय की अपेक्षा गुणधर भट्टारक का यह अभिप्राय है कि परमागम के अतिरिक्त अन्यत्र सर्वत्र नियम से अरहन्त-नमस्कार करना चाहिए, कारण प्रारब्धक्रियाओं में मंगलफलविघ्नध्वंसकता की अनुपलब्धि है। यहाँ इस बात का नियम नहीं है। परमागम में उपभोग लगने पर नियम से मंगल के फल
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प्रस्तावना
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की प्राप्ति होती है । इस अर्थविशेष का परिज्ञान कराने के लिए गुणधर भट्टारक ने ग्रन्थ के आदि में मंगल नहीं किया।
यह विवेचन आपाततः विरोधात्मक दृष्टिगोचर होता है; किन्तु अनेकान्त शैली के प्रकाश में इनका समाधान स्वयं हो जाता है।
महाबन्ध का मंगल - 'महाबन्ध' के मंगल के विषय में 'धवला' टीका के चतुर्थ वेदना नामक खण्ड में महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। उसमें आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं- "निबद्ध और अनिबद्ध के भेद से मंगल दो प्रकार का है।" १
1
अनिबद्ध मंगल-तब फिर वेदना खण्ड के आदि में ' णमो जिणाणं' आदि मंगल सूत्र हैं, वे निबद्ध मंगल हैं या अनिबद्ध मंगल ? वे निबद्धमंगलरूप नहीं हैं । कृति आदि चौबीस अनुयोग हैं अवयव जिसके, ऐसे महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के आदि में गौतमस्वामी द्वारा प्ररूपित मंगल को भूतबलि भट्टारक ने वहाँ से उठाकर वेदना खण्ड के प्रारम्भ में स्थापित कर दिया, इस कारण इसे निबद्ध मंगल मानने में विरोध आता है । वेदनाखण्ड तो महाकर्मप्रकृति प्राभृत नहीं है । अवयव को अवयवी मानने में विरोध है । अर्थात् वेदनाखण्ड अवयव है, उसे महाकर्म प्रकृति प्राभृत रूप अवयवी मानने में विरोध आता है । भूतबलि तो गौतम हैं नहीं, विकल श्रुत के धारी धरसेनाचार्य शिष्य भूतबलि को सकल श्रुतधारी वर्धमान भगवान् शिष्य गौतम मानने में विरोध है । निबद्ध मंगल मानने में कारण रूप अन्य प्रकार है नहीं, अतः यह अनिबद्ध मंगल है | " आचार्य अपनी तर्कशैली से इसे निबद्धमंगल भी सिद्ध करते हैं । महापरिमाणवाले गणधरदेव रचित वेदना खण्ड के उपहसंहाररूप वेदनाखण्ड में वेदना का अभाव सर्वथा नहीं है । उनमें प्रमेय की दृष्टि से कथंचित् ऐक्य है। आचार्य भूतबलि और गौतम में भी कथंचित् अभिन्नता द्योतित करते हुए कहते हैं- “अथवा भूदवली गोदमो चेव, एगाहिप्पायत्तादो; तदो सिद्धं णिवद्धमंगलत्तमपि ।" अथवा भूतबलि गौतम है, कारण उनके अभिप्राय में एकत्व है ।
विशेष विचार - वेदना खण्ड में मंगल के दो भेद टीकाकार ने कहे हैं- “णिबद्धा - णिबद्धभेण दुविहं मंगलं" (पृ. ३१, ताम्रपत्र प्रति ) । मंगल के इन दो भेदों का कथन जीवट्ठाण प्रथम खण्ड में (पृष्ठ ७ ताम्रपत्रीय प्रति में) इस प्रकार आया है - " तच्च मंगलं दुविहं णिबद्धमणिबद्धमिदि” – वह मंगल निबद्ध, अनिबद्ध के भेद से दो प्रकार हैं । वेदना खण्ड में निबद्ध, अनिबद्ध शब्दों का उल्लेख करके उनकी परिभाषा नहीं दी गयी है। वहाँ इतना ही कहा है कि ' णमो जिणाणं' आदि सूत्र 'महाकम्मपयडि पाहुड' में गौतम स्वामीने रचे थे । उनकी वेदना, वर्गणा तथा 'महाबन्ध' इन तीन खण्डों का मंगल भूतबलि स्वामी ने माना है । भूतबलि स्वामी ने अन्य मंगल नहीं लिखे । जब ये मंगल सूत्र अन्य रचित हैं (borrowed ) तथा अन्य ग्रन्थ से उद्धृत किये गये हैं, तब ये अनिबद्ध मंगल हैं, ऐसा स्पष्ट धवला टीका में उल्लेख किया गया है।
जीवद्वाण की टीका में मंगल के दो भेदों का उल्लेख करके इस प्रकार स्पष्ट किया है- “ तत्थ णिबद्ध णाम, जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कय- देवदा - णमोक्कारो तं णिबद्धमंगलं । जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धो देवदा-णमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं ।” (पृ.७, ताम्रपत्र प्रति ) - जो सूत्र के आरम्भ में सूत्रकर्ता के द्वारा किया गया अर्थात् रचा गया देवता का नमस्कार है, वह निबद्ध मंगल है तथा जो सूत्र के आदि में सूत्रकर्ता के द्वारा निबद्ध अर्थात् उद्धृत (borrowed) देवता का नमस्कार है, वह अनिबद्ध मंगल है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न होता है कि जीवद्वाण के प्रारम्भ में पुष्पदन्त आचार्य ने जो णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं,
१. णिबद्धाणिबद्धभेएण दुविहं मंगलं । तत्थेदं किं णिबद्धमाहो अणिबद्धमिदि । ण ताव णिबद्धमंगलमिदं ? महाकम्पयडिपा हुस्स कदिआदिचउवीस-अणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा परूविदस्स भूदबलिभडारएण वेयणाखंडस्स आदीए मंगलडं तत्तो आणेण ठविदस्स णिबद्धत्तविरोहादो। ण च वेयणाखण्डं महाकम्मपयडिपाहुडं, अवयवस्स अवयवित्तविरोहादो। ण च भूदबली गोदमो, विगलसुदधारयस्स धरसेणाइरियसीसस्स भूदबलिस्स सयलसुदाधारवड्ढमाणंतेवासिगोदमत्तविरोहादो । ण च अण्णो पयारो णिबद्धमंगलत्तस्स हेदुभूदो अत्थि । तम्हा अणिबद्धमंगलमिदं । (ताम्रपत्र प्रति, भाग ४, पृ. ३१)
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महाबन्ध
णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं' सूत्र लिखा है उसे कौन-सा मंगल माना जाए? वेदना खण्ड में गणधर-रचित 'णमोजिणाणं' आदि सूत्र उद्धृत होने से जैसे अनिबद्ध मंगल है, उसी प्रकार 'णमो अरिहंताणं' आदि को भी पारिभाषिक अनिबद्ध मंगलरूपता प्राप्त होती है।
शंका-इस सम्बन्ध में शंकाकार कहता है कि यह मान्यता भ्रमपूर्ण है। णमोकार मन्त्र निबद्ध मंगल है, ऐसा वीरसेन स्वामी ने जीवट्ठाण की टीका में लिखा है- 'इदं पुण जीवट्ठाणं णिबद्धमंगलं' । (पृ. ७, ताम्र पत्र प्रति)-यह जीवट्ठाण निबद्ध-मंगल है, अतः यह पुष्पदन्त आचार्यकृत है। यह उनसे पूर्व में रचित मंगल नहीं है।
समाधान-यह धारणा भ्रान्त है। खण्डागम के प्रथम खण्ड का नाम जीवट्ठाण है। वह ग्रन्थ निबद्ध मंगल अर्थात् पारिभाषिक निबद्ध मंगल रूप नहीं है। वहाँ निबद्ध मंगल शब्द बहुव्रीहि समास रूप है; 'निबद्ध मंगलं जत्थ एवंभूतं जीवट्ठाणं' -जीवट्ठाण ग्रन्थ मंगल युक्त है। यदि निबद्धमंगल रूप पारिभाषिक मंगल अपेक्षित होता तो पाठ होता-'इदं जीवट्ठाणं सणिबद्ध-मंगलं'। किन्तु ग्रन्थगत पाठ है-'जीवट्ठाणं णिबद्धमंगलं'। अतः बहुव्रीहि समास की अपेक्षा जीवट्ठाण मंगल युक्त है, इतना ही अर्थ होता है। इससे इस कथन के आधार पर णमोकार मन्त्र को पुष्पदन्ताचार्य की कृति मानना अनुचित है। जिस तरह ‘णमोजिणाणं' आदि वेदना खण्ड के प्रारम्भ में निबद्ध सूत्र गौतम गणधर रचित हैं, वही बात णमोकारमन्त्र के विषय में भी है।
प्रश्न-'जीवद्वाणं णिबद्धमंगलं'-इन शब्दों-द्वारा जीवदाण रूप प्रथम ग्रन्थ में निबद्ध मंगलं' शब्द देने का क्या प्रयोजन है?
समाधान-टीकाकार का अभिप्राय यह है कि ग्रन्थ के आरम्भ में मंगल होना चाहिए-इस सामान्य शिष्टाचार की मान्यता का परिपालन जीवट्ठाण में हुआ है। उसका उल्लंघन नहीं हुआ है। यह उन्होंने सूचित किया है।
प्रश्न-जब मंगल के निबद्ध, अनिबद्ध ये दो भेद जीवट्ठाण में किये गये, तब आचार्य ने टीका में वेदना खण्ड के समान णमोकार मन्त्र को अनिबद्ध मंगल क्यों नहीं कहा? यदि णमो जिणाणं' आदि मंगल सूत्रों के समान णमोकार मन्त्र को भी अनिबद्ध मंगल कह देते तो भ्रम ही उत्पन्न न होता।
समाधान-णमोकार मन्त्र निबद्ध मंगल है या अनिबद्ध है, यह चर्चा टीकाकार ने नहीं की; क्योंकि णमोकार मन्त्र अनादि मूल मन्त्र रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध है, अतः उसके विषय में चर्चा करना धवलाकार को अनावश्यक प्रतीत हुआ। ‘णमो जिणाणं' आदि मंगल सूत्रों के कर्तृत्व के विषय में अवबोध न रहने से वीरसेन स्वामी ने अपनी वेदना खण्ड की टीका में यह स्पष्ट किया कि ये मंगल सूत्र उद्धृत किये गये हैं, अतः ये अनिबद्ध मंगल हैं, अर्थात् भूतबलि स्वामी की रचना नहीं है। जहाँ सन्देह या भ्रम की सम्भावना हो, वहाँ स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती है।
प्रश्न-यदि णमोकार मन्त्र अनादि मूल मन्त्र है तथा वह द्वादशांग वाणी का अंग है, तो णमोकार मन्त्र को पुष्पदन्त आचार्यरचित सूचित करने के लिए जो मुद्रित धवलाटीका के प्रथम खण्ड में आदर्श प्रतियों के पाठ में परिवर्तन किया गया, वह कैसा है?
समाधान-आदर्श प्रतियों में जो पाठ हैं, उसके अर्थ में पूर्ण संगति बैठने से उसमें फेरफार करने की कोई भी आवश्यकता नहीं थी। उसमें परिवर्तन करने का ही यह फल हुआ, कि जब से धवला टीका हिन्दी में मुद्रित हई, तब से कोई-कोई लोग इस भ्रम में आ गये कि णमोकार मन्त्र पुष्पदन्त आचार्य की रचना है तथा उसे अनादि मूल मन्त्र मानना ठीक नहीं है। मूडबिद्री की ताड़पत्र की प्रतियों में इस प्रकार पाठ है- 'जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कयदेवदा-णमोक्कारो तं णिबद्धमंगलं' इसका पाठ इस प्रकार बदला गया-'जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धदेवदा-णमोक्कारो तं णिबद्धमंगलं।'
मूल पाठ यह था-'जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धो देवदा-णमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं।'
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प्रस्तावना
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परिवर्तित पाठ यह किया गया-'सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कय-देवदा-णमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं' (पृ. ४१, ध. टी. १)।
प्रश्न-इस छोटे-से परिवर्तन से क्या बाधा हो कि?
समाधान-सूत्रकर्ता के द्वारा स्वयं रचित देवता का नमस्कार निबद्ध मंगल है तथा जीवट्ठाण निबद्ध मंगल है, इससे सामान्य बुद्धि के पाठकों को यह भ्रम हो गया कि णमोकार रूप मंगल निबद्ध मंगल है। यथार्थ बात यह है कि टीकाकार वीरसेन स्वामी ने णमोकार मन्त्र कौन-सा मंगल है, यह चर्चा ही नहीं की। उन्होंने मंगल के दो भेद कहने के पश्चात् मात्र सूचित किया कि जीवट्ठाण में मंगल है। वह ग्रन्थ मंगलरहित नहीं है। 'कसायपाहुड' में मंगलाचरण नहीं रचा गया; ऐसी अवस्था इस जीवट्ठाण की नहीं है, इसे स्पष्ट करने को आचार्य ने कहा-'जीवट्ठाणं णिबद्धमंगलं' (१९४१)-यह जीवट्ठाण ग्रन्थ मंगलाचरण युक्त है। यह ग्रन्थ निबद्ध मंगल नहीं है।
भूतबलि स्वामी की विशिष्ट दृष्टि-भूतबलि स्वामी-जैसे महाज्ञानी, प्रतिभासम्पन्न तथा परम विवेकी आचार्य ने वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड और 'महाबन्ध'-इन तीन खण्डों के लिए स्वतन्त्र मंगल रचना न करके गौतम गणधर रचित 'महाकम्मपयडि पाहुड' के अन्तर्गत वेदना खण्ड के आरम्भ में दिये णमो जिणाणं, णमो
ओहिजिणाणं आदि सूत्रों को वहाँ से उठाकर अपनी रचना में मंगलरूप में स्थापित किया, इससे यह सूचित होता है कि वे महर्षि परम वीतरागभावसम्पन्न थे। वे अपनी रचना-द्वारा अपना पाण्डित्य प्रदर्शन करने की कल्पना नहीं सोचते थे। प्रतीत होता है कि वे गौतम गणधर के उन सूत्रों से विशेष प्रभावित थे। अतः उन्हें अन्य मंगल रचना करने की आवश्यकता नहीं प्रतीत हुई। अपनी रचना को वे स्वयं की कृति न सोचकर जिनेन्द्र की वाणी मानते थे। जैसे समस्त ग्रन्थ गणधर रचित 'महाकम्म-पयडि पाहुड' का अवयव है, उसी प्रकार उन्हीं गणधर की रचना रूप मंगलसूत्र को लेना किसी प्रकार भी अनुचित नहीं प्रतीत हुआ।
णमो जिणाणं' आदि सूत्रों को वीरसेन आचार्य गौतम गणधर की कृति स्वीकार करते हैं। उन्होंने वेदनाखण्ड की 'धवला टीका' में लिखा है “महाकम्म-पयडि-पाहुडस्स कदिआदि-चउवीस-अणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा परूविदस्स भूदबलि भडारएण वेयणाखंडस्स आदीए मंगलटुं ततो आणेदूण ठविदस्स णिबद्धत्त विरोहादो-तम्हा अणिबद्धमंगलमिदं” (पृ. ३१, ताम्रपत्रीय प्रति)। वेदनाखण्ड, वर्गणा खण्ड तथा 'महाबन्ध' के मंगलरूप गौतम गणधर रचित 'णमो जिणाणं' आदि सूत्र हैं। अतः उनके मूलका भूतबलि स्वामी नहीं हैं। अन्य कृत रचना को अपने ग्रन्थ में निबद्ध करने के कारण उन सूत्रों को अनिबद्ध मंगल माना गया है। अलंकार चिन्तामणि में लिखा है
“स्वकाव्यमुखे स्वकृतं पद्यं निबद्धं परकृतमनिबद्धम्" __ नय-दृष्टि- 'महाबन्ध' का प्रथम मंगलसूत्र ‘णमो जिणाणं' द्रव्यार्थिक नयाश्रित लोगों के अनुग्रह हेतु गौतम स्वामी ने रचा था। इसके पश्चात् रचित ४३ सूत्रों को पर्यायार्थिक नयाश्रित जीवों के अनुग्रह हेतु रचा था। उनमें 'णमो ओहिजिणाणं' प्रथम सूत्र है। वेदना खण्ड में टीकाकार वीरसेन स्वामी ने कहा है-“एवं दव्वट्ठिय-जणाणुग्गहटुं णमोक्कारं गोदमभडारओ महाकम्म-पयडि-पाहुडस्स आदिम्हि काऊण पज्जवट्ठिय-णयाणुग्गहणट्ठमुत्तर-सुत्ताणि भणदि" (ताम्रपत्रीय प्रति, पृ. ४)-इस प्रकार द्रव्यार्थिक दृष्टि युक्त जीवों के अनुग्रह हेतु गौतम भट्टारक ने 'महाकर्म प्रकृति' प्राभृत के आरम्भ में नमस्कार करके पर्यायार्थिक नयवालों के अनुग्रह के हेतु उत्तरसूत्र कहते हैं। इस प्रकार स्याद्वाद दृष्टि को श्रद्धा की दृष्टि से देखनेवाले महर्षि ने दोनों नयों के प्रति समान आदरभाव व्यक्त किया।
१. जयधवला भाग १, पुस्तक १, पृ. ८
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महाबन्ध गौतम गणधर की दृष्टि
गणधरदेव गौतम स्वामी ने जो मंगलसूत्रों की रचना की थी, वह व्यवहार नय की अपेक्षा से की थी, क्योंकि उन्होंने व्यवहार नय को अनेक जीवों का कल्याणकारी मानकर उसका आश्रय लिया है। जयधवला टीका के ये शब्द विशेष महत्त्वपूर्ण हैं - "ववहारणयं पडुच्च पुण गोदमसामिणा चदुबीसण्हमणियोगद्दाराणमादीए मंगल कदं" व्यवहार नय का आश्रय लेकर गौतम स्वामी ने चौबीस अनुयोगद्वारों के प्रारम्भ में (णमो जिणाणं आदि) मंगल किया है।
यहाँ यह शंका होती है कि गणधर देव ने अभूतार्थ व्यवहार नय का आश्रय क्यों लिया, वह तो छोड़ने योग्य नय है; क्योंकि वह असत्य है।
समाधान-“ण च ववहारणओ चप्पलओ। तत्तो सिस्साण-पउत्तिदंसणादो। जो बहुजीवाणुग्गहकारी ववहारणओ, सो चेव समस्सिदब्यो त्ति मणेणावहारिय गोदमथेरेण मंगलं तत्थकयं"-"व्यवहार नय चपल अर्थात् असत्य नहीं है। क्योंकि उससे शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है। गौतम स्थविर ने इस बात को मन में अवधारण करके वहाँ मंगल रचना की कि व्यवहार नय बहत जीवों का अनग्रहकारी है और उस व्यवहार नय का आश्रय लेना चाहिए। इसके द्वारा व्यवहार नय का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है।
णमोकार मन्त्र की प्राचीनता पर प्रकाश-णमोकार मन्त्र अनादि मूलमन्त्र है। इसके लिए जैन परम्परा में यह प्रसिद्धि है
"अनादिमूलमन्त्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः ।
मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलो मतः ॥" इसके सिवाय मूलाराधना टीका में अपराजित सूरि ने (पृ. २) कहा है कि गणधर ने ‘णमो अरहंताणं' इत्यादि शब्दों-द्वारा सामायिक आदि 'लोकबिन्दुसार' पर्यन्त समस्त परमागम में पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया है।" ग्रन्थ में ये शब्द आये हैं-“यद्येवं सकलस्य श्रुतस्य सामायिकादेर्लोकबिन्दुसारान्तस्यादौ मंगलं कुर्वद्भिर्गणधरैः णमो अरहताणमित्यादिना कथं पंचानां नमस्कारः कृतः ?"
प्रायश्चित्त में णमोकार का उपयोग-मुनि-जीवन में प्रतिक्रमण रूप अन्तरंग नय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान् ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर महावीर के तीर्थ में अपराध न करनेवाले भी श्रमणों को प्रतिक्रमण रूप प्रायश्चित्त करने का विधान है। शेष बाईस तीर्थंकरों के तीर्थ में होनेवाले मुनियों के लिए ऐसा कथन नहीं आया है। उनके तीर्थ में दोष लगने पर ही प्रतिक्रमणरूप प्रायश्चित्त किया जाता था, किन्तु आदि जिन और अन्तिम जिन के तीर्थ में दोष लगाने की सदा सम्भावना रहने से प्रायश्चित्त कहा है। प्रायश्चित्त के भेद प्रतिक्रमण में णमोकार मन्त्र के जाप का आवश्यक और महत्त्वपूर्ण स्थान है। मूलाचार में कहा है
'."सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स।
अवराहे पढिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥७,१५४॥" आदि जिन तथा पश्चिम जिन अर्थात वीरभगवान ने प्रतिक्रमण युक्त धर्म का उपदेश दिया है। अपराध न होने पर भी प्रतिक्रमण करना ही चाहिए, ऐसी आद्यन्त तीर्थंकरों ने शिष्यों को आज्ञा दी है। मध्यम तीर्थंकरों ने अपराध होने पर प्रतिक्रमण कहा है। इसका हेतु मूलाचार में यह दिया है
"मज्झिमया दिढबुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खा य। . तम्हा हु जमाचरंति तं गरहंता विसुज्झंति ॥७,१५७॥"
१. कोश में 'चपल' शब्द का अर्थ 'असच्च'-असत्य किया है-दे. नाममाला ३-२० ।
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प्रस्तावना
मध्यम तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़बुद्धि अर्थात् मजबूत स्मरण शक्ति युक्त थे, एकाग्रमन थे, मोहरहित होते थे। इससे उनसे जो अतिचार होता था, उस दोष की वे गर्दा करते थे और शुद्ध चारित्रवाले बनते थे।
___"पुरिम-चरिमा दु जम्मा चलचित्ता चेव मोहलक्खा च।
तो सव्वपडिक्कमणं अंधलम-घोडय-दिटुंता ॥१५८॥" आद्यन्त तीर्थंकरों के शिष्य चंचलचित्त हैं। उनका मन दृढ़ नहीं है। मोह से उनका मन आक्रान्त है। वे ऋजुजड़ और वक्रजड़ हैं। अतः सर्व प्रतिक्रमण दण्डकों का वे उच्चारण करते हैं। उनके लिए का दृष्टान्त है। जैसे वैद्य पुत्र ने अन्धे घोड़े की औषधि का ज्ञान होने से नेत्र की भिन्न-भिन्न दवाओं को क्रम-क्रम से लगा, उसे रोगमुक्त कर दिया, उसी प्रकार सर्व प्रतिक्रमणों का उच्चारण करते हैं, क्योंकि सर्व प्रतिक्रमण दण्डक कर्मक्षय के कारण हैं।
उच्छ्वास का उपयोग-दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक आदि प्रतिक्रमणों में णमोकार के जप की आवश्यकता कही गयी है। मूलाचार में लिखा है-“दैवसिक प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में एक सौ आठ उच्छ्वास करना चाहिए। अर्थात् छत्तीस बार पंच नमस्कार का जाप करना चाहिए। एक बार णमोकार का पाठ करने में तीन उच्छ्वास का काल लगता है। ‘णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं' में एक उच्छ्वास, ‘णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं' में दूसरा उच्छ्वास तथा ‘णमो लोए सव्वसाहूणं' पदोच्चारण में तीसरा उच्छ्वास होता है। प्राण वायु को भीतर लेना और बाहर छोड़ना, यह उच्छ्वास का लक्षण है। रात्रिक प्रतिक्रमण में चौवन उच्छ्वास करना चाहिए अर्थात् १८ बार पंच नमस्कार मन्त्र को चौवन उच्छ्वासों में पढ़ना चाहिए। पाक्षिक प्रतिक्रमण तीन सौ उच्छ्वासों में अर्थात् सौ बार णमोकार पढ़ना चाहिए। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सौ उच्छ्वास, सांवत्सरिक में पाँच सौ उच्छ्वास कहे हैं। (मूलाचार पृ. ३३८, अ. ७, गा. १८५, १८६) अनगारधर्मामृत टीका (अ. ८, पृ. ६७५) में यह पद्य उद्धृत किया गया है,
“सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे।
सन्ति पंचनमस्कारे नवधा चिन्तिते सति ॥" पंचनमस्कार मन्त्र का नौ बार चिन्तवन करने में २७ उच्छ्वास होते हैं। इस प्रकार इसका चिन्तवन संसार का उच्छेद करने में समर्थ होता है।
णमोकार मन्त्र के पाठ में तीन उच्छ्वास प्रमाण काल लगता है। यह उच्छ्वास व्यवहार काल का भेद कहा है। 'आवलि असंखसमया संखेज्जावलि समूहमुच्छ्वासो'-असंख्यात समय प्रमाण आवलि होती है तथा संख्यात आवली प्रमाण उच्छ्वास होता है। चरणानुयोग रूप आगम में णमोकार के जाप की गणना को उच्छ्वास के माध्यम से भी कहा गया है। जैसे नौ बार णमोकार का जाप करे, इसको इस रूप से कहेंगे कि २७ उच्छ्वास करते हैं। अनगारधर्मामृत में लिखा है
"उच्छ्वासा : स्युस्तनूत्सर्गे नियमान्ते दिनादिषु।
पंचस्वष्ट-शतार्ध-त्रि-चतुःपंचशतप्रमाः ॥८-७२॥" दिन, रात्रि, पक्ष, चतुर्मास, संवत्सर इन पाँच अवसरों पर वीर भक्ति करते समय जो कायोत्सर्ग किया जाता है, उसमें क्रम से एक सौ आठ, चौअन, तीन सौ, चार सौ, और पाँच सौ उच्छ्वास हुआ करते हैं।
अनादि मन्त्र मानने में हेतु-जैनधर्म का प्राण श्रमण धर्म है। उस मुनिधर्म को निर्दोष बनाने के लिए साधुगण संदा प्रतिक्रमणादि-द्वारा अपनी आत्मा को परिशुद्ध करते हैं। उस प्रतिक्रमण कार्य में पंच णमोकार का स्मरण अत्यन्त आवश्यक अंग है। भगवान् ऋषभनाथ तीर्थंकर के समय में भी जो साधुराज होते थे, वे प्रतिक्रमण करते समय णमोकार मन्त्र को पढ़ा करते थे। अतः यह णमोकार मन्त्र गौतम गणधर से ही सम्बन्धित नहीं है, किन्तु इसका सम्बन्ध प्रथम गणधर वृषभसेन स्वामी से भी रहा है। यथार्थ में यह अनादि मूल मन्त्र है। चौदह पूर्व के अन्तर्गत जो विद्यानुवाद नाम का दशम पूर्व है, उसमें णमोकार मन्त्र को पैंतीस अक्षरों से युक्त मन्त्र के रूप में निरूपण किया गया है। अतः चरणानुयोग रूप परमागम
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महाबन्ध
के प्रकाश में भी णमोकार मन्त्र अनादि मूल मन्त्र निश्चित होता है। ऐसी स्थिति में मुद्रित हिन्दी धवला टीका के नाम पर जिन्होंने यह धारणा बना ली है कि यह णमोकार पुष्पदन्त आचार्य की रचना है, वह योग्य नहीं है। यह णमोकार मन्त्र उसी प्रकार अनिबद्ध मंगल रूप है, जिस प्रकार णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं आदि वेदना खण्ड, वर्गणा खण्ड तथा 'महाबन्ध' के मंगल सूत्र अनिबद्ध मंगल हैं।
प्रश्न- 'षट्खण्डागम' के प्रारम्भ में पुष्पदन्त आचार्य णमोकार मन्त्र रूप मंगल सूत्र को उद्धृत करके जीवट्ठाण को अलंकृत किया गया, चौथे, पाँचवें तथा छठे खण्ड में भूतबलि स्वामी ने भी ग्रन्थान्तर का मंगल उद्धृत किया, तो क्या दूसरे और तीसरे खण्ड में भी इसी प्रकार अनिबद्ध मंगल को अपनाने की पद्धति अंगीकार की गयी है?
समाधान-दूसरे तथा तीसरे खण्ड में भूतबलि स्वामी ने स्वयं मंगल पद्यों को रचकर उन खण्डों को निबद्ध मंगल युक्त किया है। इस प्रकार 'षट्खण्डागम' सूत्र में निबद्ध और अनिबद्ध दोनों प्रकार के मंगल पाये जाते हैं। अन्य ग्रन्थों में निबद्ध मंगल ही पाया जाता है। निबद्ध मंगल-दूसरे खण्ड में क्षुद्रबन्ध में यह महत्त्वपूर्ण मंगल श्लोक है
“जयउ धरसेणणाहो जेण महाकम्मपयडि-पाहुड-सेलो।
बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ पुप्फयंतस्स॥" वे धरसेन स्वामी जयवन्त हों, जिन्होंने महा-कर्मप्रकृति-प्राभृत रूप पर्वत को अपनी बुद्धिरूपी मस्तक के द्वारा धारण करके उसे पुष्पदन्त को सौंपा।
इस गाथा में भूतबलि आचार्य ने 'महाकम्म-पयडि-पाहड' ग्रन्थ की पर्वत से तलना की है। पर्वत विशाल होता है, यह दुर्गम होता है, असमर्थ तथा दुर्बल हृदयवाले उस पर्वत के पास नहीं जाते हैं, इसी प्रकार यह कर्मविषयक ग्रन्थ महान् है, गम्भीर है तथा सर्व साधारण की पहुँच के परे है। यह महाज्ञानियों की बुद्धि के द्वारा गम्य है।
भूतबलि आचार्य की महत्ता-इस ग्रन्थ का उपदेश धरसेन स्वामी ने पुष्पदन्त के साथ भूतबलि को भी दिया था, किन्तु अत्यन्त विनम्र भाव से भूषित हृदय होने से भूतबलि स्वामी अपना कोई भी उल्लेख न करके अपने साथी का ही वर्णन करते हैं। बन्ध-स्वामित्व-विचय नाम के तीसरे खण्ड की मंगल गाथा इस प्रकार है
“साहू-वज्झाइरिए अरहते वंदिऊण सिद्धे वि।
जे पंच लोगवाले वोच्छं बंधस्स सामित्तं॥" साधु, उपाध्याय, आचार्य, अरहंत तथा सिद्ध-इन पंच लोकपालों की वन्दना करके मैं बन्ध-स्वामित्व . विचय ग्रन्थ का कथन करता हूँ।
पाँचों परमेष्ठी का जीवन त्रस तथा स्थावर जीवों का रक्षक होने से उनको लोकपाल कहा है। वे प्राणीमात्र का रक्षण करते हैं।
'षट्खण्डागम' सूत्र के विषय में यह बात ज्ञातव्य है कि जीवट्ठाण के १७७ सूत्रों के सिवाय द्रव्यप्रमाणानुगम आदि समस्त ग्रन्थ भूतबलि मुनीन्द्र की रचना होते हुए भी उन्होंने प्रकारान्तर से भी अपने नाम की झलक तक नहीं दी। (वेदना खण्ड, ताम्रपत्र, पृ. ४०, ४१) में टीकाकार वीरसेन-स्वामी ने कहा है-'एवं पमाणीभूदमहरिसि-पणालेण आगंतूण महाकम्मपयडि-पाहुडामिय-जलप्पवाहो धरसेणभडारयं संपत्तो। तेण वि गिरिणयर-चंदगुहाए भूदबलि-पुप्फदंताणं महाकम्मपयडिपाहुडं सयलं समप्पिदं। तदो भूदबलिभडारयेण सुदणईपवाह-वोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहटुं महाकम्म-पयडिपाहुडं उवसंहरिय छखंडाणि कयाणि"-इस प्रकार प्रमाणरूप महर्षिरूप प्रणालिका से आता हुआ महाकर्म-प्रकृतिप्राभृतरूप अमृत जल का प्रवाह धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ। उन्होंने गिरिनगर की चन्द्रगुहा में भूतबलि तथा पुष्पदन्त को सम्पूर्ण महाकर्मप्रकृतिप्राभृत प्रदान किया। इसके अनन्तर भूतबलि भट्टारक ने श्रुतज्ञान रूप नदी के प्रवाह के व्युच्छेद
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प्रस्तावना
के भय से भव्यलोक के अनुग्रह के हेतु महाकर्मप्रकृतिप्राभृत का उपसंहार करके छह खण्ड रूप रचना की।" इस प्रकार धवलाटीकाकार भूतबलि भट्टारक के विषय में प्रकाश डालते हैं, जिससे यह प्रतीत हो जाता है कि इस ग्रन्थरचना में उनका बहुत बड़ा हाथ था। फिर भी, वे महापुरुष अपने विषय में मौन धारण करते हैं; ऐसी विश्वपूज्य आत्माओं का जीवन धन्य माना गया है। यथार्थ में धरसेन स्वामी, पुष्पदन्त स्वामी, भूतबलि स्वामी ये रत्नत्रय तुल्य थेआचार्य धरसेन की विशेषता-वीरसेन स्वामी धरसेन भट्टारक के विषय में लिखते हैं
“पसियउ यहु घरसेणो पर-वाइ-गओह-दाण-वर-सीहो।
सिद्धतामिय-सायर-तरंग-संघाय-धोय-मणो ॥४॥" वे धरसेन आचार्य मुझ पर प्रसन्न हों जो परवादी रूप गजसमूह के मद को नष्ट करने के लिए श्रेष्ठ सिंह के समान हैं तथा जिनका अन्तःकरण सिद्धान्त रूपी अमृत के सागर की तरंगों के समूह से परिशुद्ध हो चुका है। पुष्पदन्त को प्रणामांजलि
“पणमामि पुप्फदंतं दुकयंतं दुण्णयंधयार-रविं।
भग्ग-सिव-भग्ग कंटयनिसि-समिइ-वई सया दंतं ॥५॥" ___ मैं उन पुष्पदंत आचार्य को प्रणाम करता हूँ जो दुष्कृतों का अन्त करनेवाले हैं, कुनयरूपी अन्धकार के लिए सूर्य के समान हैं, जिन्होंने मोक्षमार्ग के कंटकों को नष्ट कर दिया है, जो ऋषि समाज के स्वामी हैं तथा निरन्तर इन्द्रियों का दमन करते हैं।
भूतबलि भट्टारकभूतबलि स्वामी के विषय में आचार्य वीरसेन कहते हैं
“पणमह कय-भूय-बलिं भूयबलि केस-वास परिभूय-बलिं।
विणिहय-वम्मह पसरं वड्ढाविय विमल-णाण-वम्मह-पसरं ॥६॥" जो प्राणिमात्र अथवा भूत जाति के व्यन्तर देवों से पूजे गये हैं, जिन्होंने अपने केशपाश के द्वारा जरा आदि से उत्पन्न हुई शिथिलता को तिरस्कृत किया है, जिन्होंने कामभाव के प्रसार को नष्ट करके वर्द्धमान, निर्मल ज्ञान के द्वारा ब्रह्मचर्य के प्रसार को बढ़ाया है, ऐसे भूतबलि स्वामी को प्रणाम करो।
जैनी दीक्षा में उपयोग-इस महामन्त्र णमोकार का जैन संस्कृति में दीक्षा प्रदान करते समय उपयोग किया जाता है। 'महापुराण' में नवीन जैन दीक्षा लेनेवाले व्यक्ति के लिए इस प्रकार संस्कार का वर्णन आया है-"जिनेन्द्र भगवान के समवसरण में मंगल की पूजा हो जाने के उपरान्त आचार्य उस भव्य पुरुष को जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा के सम्मुख बैठाएँ और बार-बार उसके मस्तक को स्पर्श करता हुआ कहें कि यह तेरी श्रावक की दीक्षा है-“तवोपासकदीक्षेयं” (पर्व ३६, श्लोक ४१)। पंच गुरु मुद्रा के विधानपूर्वक उसके मस्तक का स्पर्श करें तथा तू दीक्षा से पवित्र हुआ है-“पूतोऽसि दीक्षया", इस प्रकार कहकर उससे पूजा के शेषाक्षत ग्रहण कराएँ।
"ततः पंचनमस्कारपदान्यस्मा उपादिशेत् ।
मन्त्रोऽयमखिलात्पापात्त्वां पुनीतादितीरयन् ॥४३॥" इसके पश्चात् आचार्य उस भव्य को पंचनमस्कार पदों का उपदेश दें तथा उसके पूर्व यह आशीर्वाद दें कि यह मन्त्र समस्त पापों से तुझे पवित्र करे।
यह अडतालीस प्रकार की दीक्षान्वय क्रिया के अन्तर्गत तीसरी स्थानलाभ नाम की क्रिया कही गयी है।
गणधर कथित पर्युपासना में णमोकार-गौतम गणधर रचित 'प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी में प्रतिक्रमण करते समय यह पाठ पढ़ा जाता है-“जाव अरहंताणं भयवंताणं णमोक्कारं करेमि, पज्जुवासं करेमि ताव कायं
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महाबन्ध
पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि " - जब तक मैं अरहन्त भगवान् को नमस्कार करता हूँ, पर्युपासना करता हूँ, तब तक मैं पापकर्म तथा दुश्चरित्र के कारण शरीर के प्रति उदासीनो भवामि - मैं उदासीनता धारण करता हूँ । पर्युपासना के विषय में टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द इस प्रकार प्रकाश डालते हैं- “एकाग्रेण हि विशुद्धेन मनसा चतुर्विंशत्युत्तर- शतत्रयाद्युच्छ्वासैरष्टोत्तरशतादिवारान् पञ्चनमस्कारोच्चारणमर्हतांपर्युपासनकरणं”(बृहत्प्रतिक्रमण, पृष्ठ १५१ ) । एकाग्रचित्त हो विशुद्ध मनोवृत्तिपूर्वक तीन सौ चौबीस उच्छ्वास में एक सौ आठ बार पंचनमस्कार का उच्चारण करना अर्हन्त की पुर्वपासना है।” इससे स्पष्ट होता है कि प्रतिक्रमण करते समय १०८ बार णमोकार का जापरूप पर्युपासना का कार्य आवश्यक है। अतः णमोकार मन्त्र की रचना 'षट्खण्डागम' सूत्रों के मंगल रूप में आचार्य पुष्पदन्त द्वारा की गयी है, यह धारणा पूर्णतया भ्रान्त प्रमाणित होती है। यह द्वादशांगवाणी का अंग है ।
यह णमोकार मन्त्र जैन संस्कृति का हृदय है। श्रमणों तथा उपासकों के लिए प्राणसदृश है। धर्मध्यान के दूसरे भेद पदस्थ ध्यान में मन्त्रों के जाप और ध्यान का कथन किया गया है। पंचपरमेष्ठी के वाचक पैंतीस अक्षर रूप मन्त्र का ध्यान तथा जप का उल्लेख आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने द्रव्यसंग्रह गाथा ४६ में किया है। उसकी टीका में द्वादश सहस्र श्लोकप्रमाण पंचनमस्कार ग्रन्थ का उल्लेख किया गया है । '
निष्कर्ष - इस प्रकार णमोकार मन्त्र की प्राचीनता के विषय में शास्त्राधार तथा गुरुपरम्परा सद्भाव होने से उसे द्वादशांग वाणी का अंग मानना चाहिए। इस चर्चा से यह ज्ञात होता है कि सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्रों के प्रारम्भ में महाज्ञानी मुनीन्द्र पुष्पदन्त स्वामी ने णमोकारमन्त्र रूप अनिबद्ध मंगल को निबद्ध किया था तथा वेदना, वर्गणा तथा 'महाबन्ध' रूप तीन खण्डों के लिए णमो जिणाणं' आदि ४४ मन्त्रों को भूतबलि स्वामी ने मंगल सूत्र बनाये, जो कि णमोकार मन्त्र के समान ही द्वादशांग वाणी के ही साक्षात् अंग रूप । वास्तव में यह हमारा अनादिमूलमन्त्र है तथा यथार्थ में यह अपराजित मन्त्रराज है । 'अनादिमूलमन्त्रोऽयम्' यह पाठ पूजा के समय पढ़ा जाता है; वह वास्तविकता से सम्बन्ध रखता है।
यह भी स्मरणीय बात है कि श्वेताम्बर जैन साहित्य में भी इस महामन्त्र को दिगम्बरों के समान ही पूज्य और प्राचीन माना गया है।
जिस प्रकार गौतम गणधर के मंगलसूत्रों को भूतबलि स्वामी ने अपनी रचना का मंगल बनाया, तदनुसार इस हिन्दी टीका में भी वीरसेन स्वामी के मंगलपद्यों को हमने विघ्न विनाश निमित्त अपने मंगलरूप में ग्रहण किया ।
प्रतिलिपि के विषय में
'महाबन्ध' की मूल प्रति ताड़पत्र पर कन्नड़ लिपि में है । भाषा प्राकृत है। प्राचीन प्रति होने के कारण उसकी लिपि भी पुरातन कन्नड़ है। 'महाबन्ध ग्रन्थ २१६ ताड़पत्रों में है। इसके आरम्भ के २६ ताड़पत्रों का 'महाबन्ध' से कोई सम्बन्ध नहीं है । उसमें सत्कर्मपंजिका है जो 'षट्खण्डागम' के अन्य विषय स्थलों पर प्रकाश डालती है । 'महाबन्ध' का प्रारम्भिक ताड़पत्र अनुपलब्ध है । सम्पूर्णग्रन्थ के १४ पत्र नष्ट हो चुके हैं। इससे लगभग तीन-चार सहस्र श्लोक प्रमाण, शास्त्र तो सदा के लिए हमारे दुर्भाग्य से चला गया। कहीं-कहीं पत्र इतस्ततः त्रुटित भी हैं । इसके कारण अनेक महत्त्वपूर्ण स्थलों का अवबोध नहीं हो सकता तथा किसी विषय का सहसा रस भंग हो जाता है, कारण प्रसंग-परम्परा का अभाव हो गया है। ऐसे अवसर पर हृदय में अवर्णनीय वेदना होती है कि हमारी असावधानी के कारण उसे द्वादशांग वाणी की महानिधि का वह अंश लुप्त हो गया जो जगत् के कल्याण निमित्त धरसेन स्वामी ने भूतबलि मुनीन्द्र के द्वारा बड़ी कठिनता से नष्ट होने से बचाया था। आज उस लुप्त अंश की पूर्ति की कथा ही दूर, उसकी पंक्तियों की पूर्ति करना भी असम्भव है। कारण भूतबलि स्वामीसदृश क्षयोपशम किसे प्राप्त है ?
१. “ द्वादश सहस्र-प्रमित-पंचनमस्कारग्रन्थ-कथितक्रमेण लघुसिद्धचक्रं, बृहत्सिद्धचक्रमित्यादिदेवार्चन - विधानं भेदाभेदरत्नत्रयाराधक- गुरुप्रसादेन ज्ञात्वा ध्यातव्यम् ॥”
बृहत् द्रव्यसंग्रह, २०४
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प्रस्तावना
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आचार्य शान्तिसागर महाराज की श्रेष्ठ श्रुतसेवा इस सम्बन्ध में यह कथन उल्लेखनीय है कि चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर महाराज ने सन् १६४३ के दशलक्षण पर्व के समय स्वर्गीय ब्रह्मचारी फतेचन्द्रजी परवारभूषण के द्वारा एक पत्र भिजवाया था । उसमें यह लिखा था कि '१०८ पूज्य आचार्य महाराज 'महाबन्ध' के सूत्रों की प्रतिलिपि चाहते हैं, अतः उसको लिखकर शीघ्र भिजवाएँ।' उस समय हमने आचार्य महाराज को समाचार भेजा था कि 'महाबन्ध' भूतबलि स्वामी रचित सूत्ररूप ही है। उस पर कोई टीका नहीं है। चालीस हजार प्रमाण ग्रंथ की प्रतिलिपि के लिए लेखक भिजवाना आवश्यक होगा। दुर्भाग्य से ग्रन्थ के १४ ताड़पत्र नष्ट हो जाने से तीन-चार हजार श्लोक सदा के लिए विलुप्त हो गये।"
हमारे पत्र को प्राप्त कर प्रवचनभक्ति-भावना-भूषित आचार्य महाराज के हृदय में अपार चिन्ता उत्पन्न हो गयी। उन्होंने कहा था- "तुम्हारे पत्र को पाकर हमें ऐसी ही चिन्ता हो गयी थी, जैसी चिन्ता धरसेन स्वामी के मन में शास्त्र के उद्धार हेतु हुई थी। रात्रि को नींद नहीं आयी। हमने सोचा तीन, चार हजार श्लोक तो नष्ट हो चुके । यदि शीघ्रता से ग्रन्थों की रक्षा का कार्य नहीं किया गया, तो और भी अपार क्षति हो जाएगी । इससे हमने कुन्धलगिरि में संघपति गेंदनमल भट्टारक जिनसेन (नोंदणी मठ), चन्दूलाल सराफ, बारामती आदि के समक्ष कहा था कि हमारी इच्छा है कि धवल, 'महाधवल' और जयधवल इन आगम-ग्रन्थों को ताम्रपत्र में खुदवाकर उनकी रक्षा की जाए, जिससे वे चिरकाल तक सुरक्षित रह सकें। उस समय संघपति सेठ गेंदनमल ने कहा कि वे इस काम के लिए सारा खर्चा देने को तैयार हैं; किन्तु हमने कहा कि यह काम एक का नहीं है। समाज के द्वारा यह कार्य होना चाहिए। लोगों ने रात्रि के समय बैठक करके इस कार्य के लिए अर्थ की व्यवस्था की। इस कार्य के लिए जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था की स्थापना की गयी । 'महाराज ने हमसे कई बार कहा था कि इन सिद्धान्त ग्रन्थों को ताम्रपत्र में उत्कीर्ण किये जाने में मुख्य कारण तुम हो। तुम्हारे पत्र के कारण ही हमारा ध्यान ताम्रपत्र में ग्रन्थ को उत्कीर्ण कराने को गया था ।” उक्त संस्था के मन्त्री श्री बालचन्द्र देवचन्द शहा, बी. ए. सोलापुर ने महत्त्वपूर्ण सेवा की ।
उन जगद्वंद्य, बालब्रह्मचारी, श्रमणशिरोमणि आचार्य महाराज की प्रेरणा से एक लाख सत्तर हजार श्लोक के लगभग सिद्धान्त शास्त्र ताम्रपत्र में उत्कीर्ण हो गये तथा उनकी पाँच सौ प्रतियाँ भी कागज में मूल रूप
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मुद्रित हो गयीं । उन प्रभावक मनस्वी गुरुदेव के प्रभाव से जैनधर्म तथा रत्नत्रय की ज्योति बहुत दीप्तिमान् हुई थी, किन्तु उनके कार्यों में सिद्धान्त-शास्त्र-संरक्षण तथा उसका प्रचार कार्य सर्वोपरि गिना जाएगा। उन्हीं साधुराज की इच्छानुसार सम्पूर्ण मूल रूप 'महाबन्ध' के संशोधन, सम्पादन का कार्य करके ताम्रपत्र में उत्कीर्ण कराने में हमें भी अपनी नम्र ऑनरेरी सेवा अर्पण करने का परम सौभाग्य मिला । हमने सम्पूर्ण 'महाबन्ध' मुद्रित कराकर सन् १६५४ के दशलक्षण पर्व में फलटण के जिनालय में आचार्य शान्तिसागर महाराज के कर-कमलों में सविनय समर्पण कर उनका हार्दिक आशीर्वाद प्राप्त किया था। हमारे द्वारा एक वर्ष में ही सम्पूर्ण कार्य को सम्पन्न देखकर उन गुरुदेव को अपार आनन्द तथा सन्तोष हुआ था।
१. श्री १०८ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर दिगम्बर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था की रिपोर्ट में लिखा है - " आचार्य शान्तिसागर महाराज ने अनेक बार यह कहा था कि इस जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था के कार्यपूर्ति के कारण दिवाकरजी हैं, क्योंकि इनके द्वारा जब पूज्य श्री को महाघवल ग्रन्थ के चार, पाँच हजार श्लोकों के नष्ट होने की सूचना प्रेषित की गयी, तब आचार्यश्री के मन में श्रुतरक्षण की ऐसी ही तीव्र भावना उत्पन्न हुई, जिस प्रकार आचार्य धरसेन स्वामी को श्रुतरक्षण की चिन्ता उत्पन्न हुई थी। श्री पं. सुमेरचन्दजी दिवाकर शास्त्रीजी ने महाधवल के सम्पादन, प्रकाशन आदि का कार्य बहुत धर्मप्रेमवश परिश्रमपूर्वक किया और उसके बदले में किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता या भेंट स्वीकार नहीं की। फलटण में उक्त पण्डित जी को आचार्यश्री के समक्ष संवत् २०१० भाद्रपद वदी ५ को सम्मानित किया । आचार्यश्री ने पं. दिवाकरजी की निःस्वार्थ सेवा और किसी प्रकार की भेंट स्वीकार न करने पर अत्यन्त हर्ष प्रदर्शित करते हुए पण्डितजी को मंगलमय पवित्र आशीर्वाद प्रदान किया।" (पृष्ठ ६ तथा ७ संवत् २०१० से २०१६ का अहवाल, प्रकाशक, बालचन्द देवचन्द शहा, बी.ए. मन्त्री तथा माणिकचन्द मलूकचन्द दोशी, बी. ए. एल एल बी, उपमन्त्री, फलटण (महाराष्ट्र ) ।
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महाबन्ध
महाबन्ध की प्रतिलिपि- 'महाबन्ध' आदि सिद्धान्त ग्रन्थों की जो कन्नड़ लिपि में ताड़पत्र में उत्कीर्ण प्रति मूडबिद्री के सिद्धान्त मन्दिर में विद्यामन है, वह यथार्थ में मूल प्रति नहीं है। वह प्रति सात या आठ सौ वर्ष पुरानी कही जाती है। उस प्रति के आधार पर अन्य प्रतियाँ तैयार कराकर कुछ स्थानों पर भेजी गयी हैं। हमने मूडबिद्री जाकर इन ग्रन्थों को देखा, कारण ताम्रपत्र की प्रति तैयार करने में कोई त्रुटि न रह जाए, अतः मूडबिद्री की कॉपी का सूक्ष्म निरीक्षण आवश्यक था। 'महाबन्ध' की हमारी प्रति में पाठ कहीं-कहीं दूसरा था, ज्ञानपीठ काशी से मुद्रित प्रति में भिन्न था। इससे मूडबिद्री के ताड़पत्र के शास्त्र का क्या पाठ है, यह जानना आवश्यक तथा पुण्य कर्त्तव्य था। हम अपने साथ में सन् १९५३ में छोटे भाई अभिनन्दनकुमार दिवाकर एम.ए., एल-एल. बी, एडवोकेट को भी मूडबिद्री ले गये थे, क्योंकि ग्रन्थ का सम्यक्-परिशीलन बड़े उत्तरदायित्व का कार्य था। पं. चन्द्रराजैय्या कन्नड़ी भाषा के विशेषज्ञ से ग्रन्थ को हम बँचवाते थे। उस समय हमें ज्ञात हुआ था कि ताड़पत्र की प्रतियाँ कहीं-कहीं अशुद्ध पाठयुक्त भी हैं। पं. लोकनाथजी शास्त्री, पं. नागराजजी शास्त्री तथा पं. चन्द्रराजेन्द्रजी ने पहले हमारे लिए देवनागरी लिपि में प्रतिलिपि तैयार की थी। उसमें कुछ त्रुटियों को देखकर ताड़पत्र की प्रतिलिपि के साथ अपनी प्रतिलिपि का दोबारा सन्तुलन का कार्य पं. चन्द्रराजेन्द्र शास्त्री ने बड़े परिश्रम से सम्पन्न किया था। फलतः महत्त्वपूर्ण भूलों को सुधारा गया है।
महारानी मल्लिका देवी का शास्त्र-दान-मूडबिद्री में विद्यमान ताड़पत्रीय प्रति के विषय में यह बात ज्ञातव्य है कि वनितारत्न महारानी मल्लिकादेवी ने अपने पंचमी व्रत के उद्यापन में उक्त प्रतिलिपि तैयार कराकर यतिपति मुनिराज श्रीमाघनन्दि महाराज को अर्पण की थी। अतः भूतबलि स्वामी के द्वारा लिखित 'महाबन्ध' की मूल प्रति मूडबिद्री में है, ऐसी कल्पना अयथार्थ है। प्रथम प्रति के जीर्ण होकर नष्ट होने के पूर्व दूसरी प्रति श्रुतभक्त व्यक्तियों-द्वारा तैयार की गयी थी। ऐसा ही क्रम अन्य ग्रन्थों के विषय में रहा है। अतः ग्रन्थों के पाठों में संशोधन आदि कार्य करते समय जो यह सोचा जाता है कि यह परिवर्तन भूतबलि, पुष्पदन्त रचित मूल सूत्रों के विषय में किया गया है, यथार्थ में यह बात नहीं है। वास्तव में बात यह है कि मूडबिद्री की प्रतियाँ भी प्रतिलिपियाँ ही हैं। इतने बड़े ग्रन्थों को ताड़पत्र में उत्कीर्ण करने के अनेक वर्ष के परिश्रमसाध्य कार्य में प्रमाद, क्षयोपशम की मन्दता अथवा शारीरिक परिस्थिति आदि अनेक कारणों से कहीं कुछ अयथार्थ लिखा जाना असम्भव नहीं है। पापभीरु, आगमभक्त, श्रुतसेवी विद्वान् पूर्वापर सम्बन्ध, परम्परा आदि के प्रकाश में कार्य किया करते हैं।
मूडबिद्री की प्रति-पूर्ण 'महाबन्ध' २१६ ताड़पत्रों में अंकित है। उसमें २७ पत्र पंजिका के हैं, जिसका 'महाबन्ध' से कोई सम्बन्ध नहीं है। ग्रन्थ के १४ ताड़पत्र नष्ट हो गये; इस प्रकार 'महाबन्ध' की ताड़पत्रीय प्रति १७८ पत्रों में विद्यमान है।
'महाबन्ध' में प्रकृतिबन्ध का कथन ताड़पत्र ५० पर्यन्त है। 'महाबन्ध' के इस प्रथम खण्ड में २२ ताड़पत्रों का मूल तथा अनुवाद छापा जा रहा है। स्थितिबन्ध का वर्णन ताड़पत्र ११३ पर्यन्त है, अनुभाग बन्ध का वर्णन एक सौ तेरह ताड़पत्र तक है तथा प्रदेशबन्ध दो सौ उन्नीस ताड़पत्र पर्यन्त है। मूड़बिद्री के पण्डित लोकनाथ जी शास्त्री के नेतृत्व में हमने देवनागरी लिपि में प्रतिलिपि तैयार करायी थी। उन्होंने हमें लिखा था कि ताड़पत्र की प्रति लगभग सात सौ या आठ सौ वर्ष प्राचीन होगी। 'महाबन्ध' की ताड़पत्र की राशि में चार-पाँच त्रुटित ताड़पत्र भी अलग हैं, जो किसी-किसी प्रकरण के त्रुटित अंश के पूरक प्रतीत होते हैं।
'महाबन्ध शास्त्र द्वादशांगवाणी से साक्षात् सम्बन्ध रखता है। इस ग्रन्थराज पर कोई भी टीका उलब्ध नहीं होती है। कहते हैं, तुम्बलर नामक आचार्य ने 'महाबन्ध' पर सात हजार श्लोक प्रमाण टीका रची थी, किन्तु उसकी अब तक उपलब्धि नहीं हुई है। 'महाबन्ध' के सूत्र गद्यरूप हैं। इसके प्रारम्भ में सोलह गाथाएँ आयी हैं। स्थितिबधाधिकार में तीन गाथाएँ और पायी जाती हैं।
महाबन्ध में भिन्न परम्परा का संकेत-यह चालीस हजार श्लोकप्रमाण 'महाबन्ध' शास्त्र भूतबलि
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प्रस्तावना
स्वामी की अनुपम रचना है। इस ग्रन्थ में आचार्य भूतबलि स्वामी ने कहीं-कहीं भिन्न गुरुपरम्परा का द्योतक उल्लेख भी किया है। वे काल प्ररूपणा में (ताम्रपत्र, पृ. १२, १३) तेजोलेश्या की अपेक्षा प्ररूपणा करते हैं- “थीणगिद्धितिगं अणुंताणुबं. ४ एय.। उक्क. वेसागरोव. सादिरे. । णवरि केसिं च जह. एगस." पद्मलेश्या का कथन करते हुए आचार्य लिखते हैं-"थीणगिद्धि. अणंताणु. ४ एगसं (स.)। उक्क. अट्ठारस. सादि.। णवरि के सिंच एगस.।" यहाँ 'केसिं च' शब्द-द्वारा अन्य पक्ष का प्रतिपादन किया गया है। यह अन्य पक्ष किनका है, इसका उल्लेख नहीं हुआ है। यह प्रकृतिबन्ध खण्ड का कथन है।
'महाबन्ध' के स्थिति बन्ध खण्ड में (ताम्रपत्र प्रति ७७) 'अद्धच्छेद परूवणा' का निरूपण करते हुए कहते हैं-"सहमसं. पंचणाणा. चददंस. पंचतरा उक्क. द्विदि. महत्तपधत्तं, अंतोम. आबधा. णिसे.। सादावे. जसगि. उच्चागो. उक्क. ट्ठिदि. मासपधत्तं अंतो. आबा. णिसे.। अथवा पंचणा. चदुदंस. पंचतरा. उक्क. द्विदि. दिवसपुधत्तं अंतो. आबा. णिसे.। सादा. जसगि. उच्चा. उक्क. द्विदि. वासपुधत्तं, अंतो आबा. णिसे.” यहाँ 'अथवा' के द्वारा भिन्न परम्परा का कथन किया प्रतीत होता है।
यतिवृषभ आचार्य का भिन्न मत
_ 'गोम्मटसार' में भूतबलि आचार्य के कथन से भिन्न 'कषाय प्राभृत' के चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ का कथन मिलता है। यतिवृषभ आचार्य कहते हैं कि नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव में उत्पन्न हुए जीव के प्रथम समय में क्रमशः क्रोध, माया, मान तथा लोभ का उदय होता है अर्थात् नारकी के क्रोध का, तिर्यंच के माया का, मनुष्य के मान का और देव के लोभ का उदय प्रथम समय में पाया जाता है, किन्तु भूतबलि आचार्य का कथन है कि इस विषय में कोई नियम नहीं है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने दोनों मान्यताओं का प्रतिपादन इस गाथा में किया है
"णारय-तिरिक्ख-णर-सुरगईस उप्पण्ण-पढमकालम्हि।
कोहो माया माणो लोहुदओ अणियमो वापि ॥गा. २८८॥"--जीवकाण्ड ___ इस काल में, इस क्षेत्र में केवली, श्रुतकेवली का असद्भाव रहने से ‘गोम्मटसार' में दोनों मान्यताओं का कथन किया है। संस्कृत टीकाकार के शब्द महत्त्वपूर्ण हैं:-“अस्मिन् भरते तीर्थंकर-श्रुतकेवल्याभावात्; आरातीयाचार्याणां सिद्धान्तशास्त्रकर्तृभ्यो ज्ञानातिशयवतामभावाच्च"-इस भरत क्षेत्र में तीर्थंकर तथा केवली का अभाव है और उक्त सिद्धान्तशास्त्रों के कर्ताओं से अधिक ज्ञानियों के पश्चातवर्ती आचार्यों का अभाव है। ऐसी स्थिति में दोनों मतों का कथन करने के सिवाय अन्य मार्ग नहीं है।
'गोम्मटसार कर्मकाण्ड' में भी भूतबलि स्वामी का मत प्रतिपादन के साथ दूसरा मत भी प्रदर्शित किया है। उदय-व्युच्छित्ति का वर्णन करते हुए भूतबलि आचार्य का मत इस गाथा-द्वारा व्यक्त किया है
"पण-णव-इगि-सत्तरसं-अड-पंच च चउर छक्क छच्चेव।
इगि-दुग-सोलस-तीसं बारस उदये अजोगंता ॥२६४॥" मिथ्यात्व गुणस्थान में ५, सासादन में ६, मिश्र में १, अविरत में १७, देशविरत में ८, प्रयत्तसंयत में ५, अप्रमत्तसंयत में ४, अपूर्वकरण में ६, अनिवृत्तिकरण में ६, सूक्ष्मसाम्पराय में १, उपशान्तकषाय में २, क्षीणकषाय में १६, सयोगीजिन में ३० तथा अयोगकेवली में १२ प्रकृति की व्युच्छित्ति कही है। अन्य आचार्य-परम्परा का कथन इस गाथा में किया है
“दस-चउ-रिगि-सत्तरसं अट्ठ य तह पंच चेव चउरो य।
छच्छक्क-एक्क-दुग-दुग-चोद्दस उगुतीस तेरसुदयविधिः ॥२६३॥" मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में दस, चार, एक, सत्रह, आठ, पाँच, चार, छह, छह, एक, दो, दो, चौदह, उन्तीस तथा तेरह प्रकृतियों की उदय च्युच्छित्ति कही है।
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महाबन्ध
'महाबन्ध' का प्रभाव
समस्त जैनवाङ्मय में बन्ध के विषय में 'महाबन्ध' श्रेष्ठ रचना है। इतना ही नहीं, किन्तु विश्व के कर्म-सम्बन्धी साहित्य में यह श्रेष्ठ कृति ही अत्यन्त प्राचीन, पूज्य तथा प्रामाणिक ग्रन्थ होने के कारण यह महाशास्त्र भूतबलि स्वामी के पश्चाद्वर्ती प्रायः सभी महान शास्त्रकारों का बन्ध के विषय में मागदर्शक रहा है। 'तत्त्वार्थवार्तिकालंकार' के देखने से ज्ञात होता है कि अकलंक स्वामी पर 'महाबन्ध' का प्रभाव पड़ा है। वे 'महाबन्ध' को 'आगम' शब्द से संकीर्तित करके अपना आदर तथा श्रद्धा का भाव व्यक्त करते हुए प्रतीत होते हैं
“आगमे ह्युक्तं मनसा मनः परिच्छिद्य परेषां संज्ञादीन जानाति, इति मनसात्मनेत्यर्थः । तमात्मनावबुध्यात्मन परेषां च चिन्ता-जीवित-मरण-सुख-दुःख-लाभालाभादीन् विजानाति। व्यक्तमनसां जीवानामर्थं जानाति, नाव्यक्तमनसाम्।"
-त. रा., पृ. ५८। "मणेण माणसं पडिविंदइत्ता परेसिं सण्णासदिमदिचिंतादि विजाणदि। जीविदमरणं लाभालाभं सुहदुक्खं णगरविणासं देहविणासं जणपदविणासं अदिवुट्ठि-अणावुट्ठि-सुबुट्टि-दुवुट्टि-सुभिक्खं दुभिक्खं खेमा-खेमं भयरोगं उब्भमं इब्भमं संभमं। वत्तमाणाणं जीवाणं, णोअवत्तमणाणं जीवाणं जाणदि।" ।
- 'महाबन्ध', ताम्रपत्र प्रति, पृ. २ 'गोम्मटसार' पर भी 'महाबन्ध' का प्रभाव स्पष्टतया दृग्गोचर होता है। उदाहरणार्थ, इस प्रकृतिबन्धाधिकार के बन्धसामित्तविचय अध्याय से तुलना करें, तो पता चलेगा, कि यहाँ वर्णित कर्मप्रकृतियों के बन्धकों, अबन्धकों आदि का कथन 'गोम्मटसार' कर्मकाण्ड की 'मिच्छत्तहंडसंढा' आदि गाथा ६५ से १२० तक पद्यरूप में निबद्ध हैं। 'महाबन्ध' में बन्ध के सादि-अनादि, ध्रुव-अध्रुवरूप भेदों का वर्णन ३३-४३ पृष्ठ पर किया गया है। वह गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा १२२ से १२४ में निरूपित हुआ है।
'महाबन्ध' के पृ. २१-२४ में 'ओगाहणा जहण्णा' आदि सोलह गाथाएँ हैं, वे तनिक परिवर्तन के साथ गोम्मटसार जीवकाण्ड की ज्ञानमार्गणामें वर्णित हैं।
अन्य आगम पर 'महाबन्ध' का प्रभाव प्रकट ज्ञात होगा। वहाँ भी उनमें 'महाबन्ध' के प्रमेयसम्बन्धी चर्चा की गयी है, कारण बन्धविषय के विशदरूप से प्रतिपादक 'महाबन्ध' से प्राचीन ग्रन्थराज की अनुपलब्धि
ग्रन्थ की उपयोगिता
भौतिक उपयोगितावादी 'महाबन्ध' को देखकर आनन्दामृत पान नहीं कर सकेगा, कारण उसकी दृष्टि में बाह्य पदार्थों की उपलब्धि ही आत्मोपलब्धि है। अनेक व्यक्तियों की यह धारणा रही है कि इन सिद्धान्तग्रन्थों में अपूर्व तथा अश्रुतपूर्व विद्या का भण्डार है, जिसके बल से लोहा सोना रूप में परिणत किया जा सकता है, आकाश में विमान उड़ाये जा सकते हैं, आदि विविध वैज्ञानिक चमत्कारों का आकर होने की मधुर कल्पना के कारण लोगों की इन शास्त्रों के प्रति अत्यधिक ममता रही; किन्तु प्रत्यक्ष परिचय के द्वारा जब यह ज्ञात होता है कि 'महाबन्ध' में केवल प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेशरूप बन्धचतुष्टय का सूक्ष्म एवं विस्तृत वर्णन है, तब वह सोचता है कि इससे हमें क्या करना है? अपना काम करो, ऐसी रचनाओं में अपने बहुमूल्य समय का व्यय क्यों किया जाए? आपाततः यह दृष्टि प्रिय तथा आकर्षक मालूम पड़ती है, किन्तु ज्ञानवान व्यक्ति को यह विचार अविद्यान्धकार पूर्ण प्रतीत होता है। लौकिक अर्थभक्त, अनर्थ की जननी तथा आत्मनिधि का लोप करनेवाली सामग्री को सर्वस्व मानता है। वह इन ग्रन्थों में भौतिक विज्ञान की सामग्री न पाकर निराश होता है, किन्तु ज्ञानवान् तथा आत्मनिधि के वैभव को समझनेवाला सत्पुरुष यह अनुभव करता है कि वास्तविक वैज्ञानिक चमत्कारपूर्ण सामग्री से यह महाशास्त्र आपूर्ण है।
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प्रस्तावना
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आत्मा अपने प्रयत्न से कर्मों के जाल में फँसता है । जो ज्ञान नामक सामग्री बन्धन को और पुष्ट करती है, वह तो महान् अविद्या है। श्रेष्ठ कला, विद्या, विज्ञान या चमत्कार तो इसमें है कि यह आत्मा कर्मों की राशि को पृथक् करके अपने अनन्त तथा अमर्यादित विभूतियों से अलंकृत 'आत्मत्व' को अभिव्यक्त करे । भगवान् वृषभदेव ने आसमुद्रान्त विशाल साम्राज्य को छोड़कर 'आत्मवान्' की प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। अर्थशास्त्री रुपयों के हानि-लाभ पर ही दृष्टि रखता है, किन्तु ज्ञानी जीव आत्मा के स्वरूप को ढकनेवाले आस्रव को हानि तथा संवर और निर्जरा को अपना लाभ समझता है । वही सच्चा सम्पत्तिशाली है, जि आत्मत्व की उपलब्धि है और वही चमत्कारपूर्ण शक्ति विशिष्ट है, जिसने कर्म राशि को चूर्ण किया है तथा इसमें उद्योग करता रहता है।
नाटक समयसार में कितनी सुन्दर बात कही गयी है
"जे जे जगवासी जीव थावर जंगम रूप, ते ते निज बस करि राखे बल तोरिके । महा अभिमानी ऐसो आस्रव अगाध जोधा, रोपि रणथम्म ठाड़ो भयो मूठ मोरिके ॥ आयो तिहि थानक अचानक परमधाम, ज्ञान नाम सुभट सवायो बल फेरिके । आस्रव पछारयो रणथम्भ तोड़ि डास्यो ताहि निरखि बनारसि नमत कर जोरिके ।”
अभिमानी आस्रव सुभट को पछाड़कर विजय प्राप्त करनेवाले आत्मज्ञानी को 'महाबन्ध' सदृश शास्त्र अपूर्व बल प्रदान करते हैं। कर्मों का आत्मा के साथ जो बन्ध है, वह इतना सुदृढ़ और सूक्ष्म है कि भयंकर से भयंकर अस्त्र-शस्त्रादि के प्रहार होने पर भी उस पर कुछ भी असर नहीं होता। आध्यात्मिक शक्ति के जागृत होते ही कर्मों का सुदृढ़ बन्धन ढीला होने लगता है। ऐसे ग्रन्थ उस आत्मीक तेज को प्रवृद्ध करते हैं, जिसके द्वारा यह आत्मा कर्मबन्धन के प्रपंच से मुक्त होने के मार्ग में लग जाता है। कर्मों के प्रपंच से छूटने का उपाय ही यथार्थ में सबसे बड़ा चमत्कार है। संसार के समस्त भौतिक चमत्कार और अन्वेषण एक ओर रखकर दूसरी ओर कर्मनाश करने की आत्मचातुरी अथवा चमत्कार को रख सन्तुलन किया जाए, तो यह आत्मबोध की कला ही श्रेष्ठ निकलेगी, जो अनन्तभव से बँधे हुए अनन्त दुःखों के मूलकारण कर्मों का पूर्णतया उन्मूलन कर आत्मा में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य तथा अनन्तसुख को अभिव्यक्त कर देती है। भौतिकता की आराधना से आत्मत्व का हास ही हुआ करता है। इसका ही कारण है जो जीव अपने 'स्व' को भूलकर 'पर' का उपासक बनता है। अनादि काल से मोह - महाविद्यालय में अभ्यास करनेवाला यह जीव जहाँ भी जाता है और जिस किसी पदार्थ के सम्पर्क में आता है, वहाँ वह या तो आसक्ति धारण करता है या द्वेषभाव रखता है। वीतरागता का प्रकाश कभी भी इसकी जीवनवृत्ति को आलोकित नहीं कर
पाया।
'महाबन्ध' सदृश शास्त्र के परिशीलन से आत्मा को पता चलता है कि किस-किस कर्म का मेरे साथ सम्बन्ध होता है, उसके स्वरूपादि का विशद बोध होने से राग, द्वेष तथा मोह का अध्यास एवं अभ्यास मन्द होने लगता है। आर्त और रौद्र नामक दुर्ष्यानों का अभाव होकर धर्मध्यान की विमल चन्द्रिका का प्रकाश तथा विकास होता है जो आनन्दामृत को प्रवाहित करती है और मोह के सन्ताप का निवारण करती है। समुद्र के तल में डुबकी लगाने वालों को बाह्यजगत् की शुभ, अशुभ बातों का पता नहीं चलता; इसी प्रकार कर्मराशि का विशद तथा विस्तृत विवेचन करने वाले इस ग्रन्थार्णव में निमग्न होने वाले मुमुक्षु के चित्त में राग-द्वेषादि सन्तापकारी भाव नहीं उत्पन्न होते। वह बड़ी निराकुलता तथा विशिष्ट शान्ति का अनुभव करता है।
व्यायामादि का सम्यक् अभ्यासशील व्यक्ति व्याधियों के आक्रमण से प्रायः बचा रहता है; इसी प्रकार
१. “विहाय यः सागरवारिवाससं वधूमिवेमां वसुधावधूं सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः ॥" बृहत्स्व. ३
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महाबन्ध
ऐसे पुण्यानुबन्धी वाङ्मय के परिशीलन-द्वारा भव्य जीव उस आध्यात्मिक परिशुद्ध व्यायाम को करता है, जिससे आत्मा बलिष्ठ होती है और भौतिक चमक-दमक चित्त में चमत्कृति या विकृति उत्पन्न नहीं कर पाती तथा काम-क्रोध-मोहादि दोष आत्मशक्ति को न्यून नहीं कर पाते।
विपाकविचय धर्मध्यान का साधक-शास्त्रकारों ने धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान को निर्वाण का कारण बताया है। धर्म ध्यान के चार भेदों में विपाकविचय नाम का ध्यान कहा गया है। आचार्य अकलंक लिखते हैं-“कर्मफलानुभवनविवेकं प्रति प्रणिधानं विपाकविचयः। कर्मणां ज्ञानावरणादीनां द्रव्यक्षेत्रकाल-भवभावप्रत्ययफलानुभवनं प्रति प्रणिधानं विपाकविचयः।" -त. रा., ३५३ । “कर्मों के फलानुभव विवेक के प्रति उपयोग का होना विपाकविचय है। ज्ञानावरणादिक कर्मों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव के निमित्त से जो फलानुभवन होता है, उस ओर चित्तवृत्ति को लगाना विपाकविचय है।" कर्मों के विपाक आदि के विषय में अनुचिन्तन करने से रागादि की मन्दता होती है और कषायविजय का कार्य सरल हो जाता है। समय प्राभृतकार के शब्दों में जीव विचारता है
“जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा व फड्ढया केई। णो अज्झप्पट्ठाणा व य अणुभायठाणाणि ॥५२॥ जीवस्स णत्थि केई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा। णेव य उदयट्ठाणा मग्गट्ठाणया केई ॥५३॥ णो ठिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा ॥५४॥ णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स।
जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा ॥५५॥" इस जीव के न तो वर्ग है, न वर्गणा है, न स्पर्धक है, न अध्यवसायस्थान है, न अनुभागस्थान है। जीव के न योगस्थान है, न बन्धस्थान है, न उदयस्थान है, न मार्गणास्थान है, न स्थितिबन्धस्थान है, न संक्लेशस्थान है, न विशुद्धिस्थान है, न संयमलब्धिस्थान है। जीव के न जीवस्थान है, न गुणस्थान है, कारण ये सब पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं।
यह है-परिशुद्ध परमार्थ दृष्टि। मुमुक्षु व्यवहार दृष्टि को भी दृष्टिगोचर रखता है। यदि एकान्त शुद्ध दृष्टि पर आश्रित हो जाए, तो फिर वह मोक्षमार्ग के विषय में अकर्मण्य बनकर विषयादि में प्रवृत्ति कर पाप-पंक में अधिक निमग्न होता है। जिसने अपूर्ण अवस्था में भी अपने को साक्षात् पूर्ण मान लिया है, उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है; इसी प्रकार निश्चयैकान्त का आश्रय ह्रास का हेतु बन जाता है। व्यवहारैकान्तवाला तात्त्विक दृष्टि को सर्वथा भुला अपने को 'दासोऽहं' का पाठ पढ़ने वाला समझता है। 'सोऽहं' की विमल दृष्टि उसे नहीं प्राप्त होती है। ‘सोऽहं' का भक्त यदि कल्याण चाहता है, तो उसे 'दासोऽहं' के पूर्व में 'उदासोऽहं' का पथ भी पकड़ना आवश्यक है; अन्यथा एकान्तवाद की महामारी उसका पिण्ड नहीं छोड़ती है। इस कारण समन्तभद्र स्वामी कहते हैं
“निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्॥” –आ. मी., १०८ विवेकी साधक व्यवहार दृष्टि से विचारता है
__ “ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया।
गुणगाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ॥समयपाहुड. गा. ५६॥ ये वर्ण आदि गणस्थान पर्यन्त भाव व्यवहार नय से पाये जाते हैं। निश्चय नय की अपेक्षा वे कोई नहीं हैं।
१. “परे मोक्षहेतू"-त. सू. ६, २६.
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प्रस्तावना
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अल्पज्ञानी पुरुषों के के लिए बन्ध के विषय में परिज्ञान कराने के लिए सूत्रकार उमास्वामी ने लिखा
“प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः॥"-त. सू. ८,३ उस बन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश बन्ध ये चार भेद हैं। विस्तृतरुचि एवं सूक्ष्मबुद्धिधारी महाज्ञानियों के लिए सही तत्त्व महर्षि भूतबलि ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण 'महाबन्ध' शास्त्र-द्वारा निबद्ध किया है। 'महाबन्ध' के विमल और विपुल प्रकाश से साधक अपनी आत्मा के अन्तस्तल में छिपे हुए अज्ञान एवं मोहान्धकार को दूर कर जीवन को 'महाधवल' बनाता है। जिस प्रकार जिनेन्द्रदेव की आराधना के द्वारा पूजक जिनेन्द्र का पद प्राप्त करता है, उसी प्रकार 'महाधवल' के सम्यक् परिशीलन तथा स्वाध्याय से जीवन भी 'महाधवल' हो जाता है। अनुभागबन्ध की प्रशस्ति में ग्रन्थ को 'सत् पुण्याकर' बताया है। यथार्थ में यह सातिशय पुण्य की उत्पत्ति का कारण है। प्रशस्त पुण्य का भण्डार है। श्रेयोमार्ग की सिद्धि का निमित्त है। 'प्रवचनसार' में कुन्दकुन्द स्वामी ने अर्हन्त की पदवी को पुण्य का फल कहा है। 'पुण्णफला अरहंता' (गाथा १, ४५)। अमृतचन्द्र सूरि ने टीका में पुण्य को 'कल्पवृक्ष' कहते हुए उसके पूर्ण परिपक्व फल को 'अर्हन्त' कहा है। 'अर्हन्तः खलु सकल-सम्यक् परिपक्व-पुण्य-कल्पपादपफला एव' (प्रवचनसार टीका, पृष्ठ ५८) प्रशस्ति-परिचय
'महाबन्ध' ग्रन्थ में ऐतिहासिक उल्लेख का दर्शन नहीं होता। प्रकृतिबन्ध-अधिकार के प्रारम्भिक अंश के नष्ट हो जाने से उसके ऐतिहासिक उल्लेख का परिज्ञान होना असम्भव है। इस अधिकार के अन्त में प्रशस्तिरूप में भी कोई उल्लेख नहीं है। स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध तथा प्रदेशबन्ध-इन तीन अधिकारों के अन्त में ही प्रशस्ति पायी जाती है।
प्रशस्ति में ग्रन्थ कर्ता का नाम तक नहीं आया है। स्थितिबन्ध के पद्य नं. ७ और प्रदेश-बन्ध के पद्य नं. ५ से, जो समान हैं, विदित होता है, कि सेनवधू वनितारन मल्लिका देवी ने अपने पंचमी व्रत के उद्यापन में शान्त तथा यतिपति माघनन्दि महाराज को इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि अर्पण की थी।
मल्लिका देवी को शीलनिधान, ललनारत्न, जिनपदकमलभ्रमर, सिद्धान्त शास्त्र में उपयुक्त अन्तःकरणवाली तथा अनेकगुणगण अलंकृत बताया है। उन्होंने पुण्याकर 'महाबन्ध' पुस्तक जिन माघनन्दि मुनीश्वर को भेंट की थी। वे गुप्तित्रयभूषित, शल्यरहित, कामविजेता, सिद्धान्तसिन्धु की वृद्धि करने को चन्द्रमा तुल्य तथा सिद्धान्त शास्त्र के पारंगत विद्वान थे।
वे मेघचन्द्र व्रतपति के चरणकमल के भ्रमर-सदृश थे।
मल्लिका देवी सारे जगत् में अपने गुणों के कारण विख्यात थी। ‘सत्कर्ष-पंजिका' से ज्ञात होता है कि प्रशस्ति में आगत 'सेन' का पूरा नाम शान्तिषेण है। वे राजा थे। राजपत्नी मल्लिका देवी-द्वारा व्रतोद्यापन के अवसर पर शास्त्र का दान इस बात को सूचित करता है कि उस समय महिला जगत के हृदय में जिनवाणी माता के प्रति विशेष भक्ति थी।
राजा शान्तिषेण सद्गुण-भूषित थे। प्रशस्ति में गुणभद्रसूरि का भी उल्लेख आया है। उनको कामविजेता, निःशल्य बताया है। उग्रादित्य नाम के लेखक ने 'महाबन्ध' की कापी लिखी थी, यह बात सत्कर्मपंजिका से ज्ञात होती है। प्रशस्ति इस प्रकार है
१. कर्नाटक के गंगवंश की महिलाओं ने प्राचीन काल में महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं। इस वंश की महिला अतिमव्वेने अपने
द्रव्य के द्वारा महाकवि पोन्न रचित शान्तिनाथ पुराण की एक हजार प्रतियाँ लिखवाकर दान की थीं। ऐसी प्रसिद्धि है कि उस वीरांगना ने सोना, चाँदी, जवाहरात आदि की बहुमूल्य सैकड़ों मूर्तियाँ मन्दिरों में विराजमान की थीं।
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महाबन्ध स्थितिबन्धाधिकार के अन्त की प्रशस्ति
नमस्सिद्धेभ्यः। नमो वीतरागाय शान्तये यो दुर्जयस्मरमदोत्कटकुम्भिकुम्भसंचोदनोत्सुकतरोग्र-मृगाधिराजः। शल्यत्रयादपगतस्त्रयगौरवारिः संजातवान्स भुवने गुणचन्द्रसूरिः ॥१॥ दुर्वारमारमदसिन्धुरसिन्धुरारिः शल्यत्रयाधिकरिपुस्त्रयगुप्तियुक्तः। सिद्धान्तवार्धिपरिवर्धन-शीतरश्मिः श्रीमाघनन्दिमुनिपोऽजनि भूतलेऽस्मिन् ॥२॥
स्रग्धरावृत्तम् (कन्नड़) वरसम्यक्त्वद-देशसंयमद-सम्यग्बोधदत्यन्तभासुरहारत्रिकसौख्यहेतु-वेनिसिर्दा-दानदौदार्यदेल्तरदिं गी (दी) तने जन्मभूमि येनुतं सानंददिक्कतुभूभरमेल्लं पोगकुत्तमिर्पदभिमानाधीननं सेननम् ॥३॥ सुजनते सत्यमोलपुदयेशील-गुणोन्नति पेंपु जैन-मार्गज गुणमेंब सद्गुणमिवत्यधिक तनगोप्पनूतनधर्मजनिवनेंदु कित्ते सुमतीधरे मेदिनि गोप्पे तोबेचित्तजसमरूपनं नेगलद 'सेनन' नुद्धगुणप्रधानम् ॥५॥
कन्नड़ कन्दपद्य अनुपमगुणगणदतिवर्मन शीलनिदानमेसेव जिनपदसत्कोकनद-शिलीमुखियेने मांतनदिदं 'मल्लिकब्बे ललनारत्नम् ॥६॥ आवनिता रत्नदो. पेंपावंगं पोगललरिद जिनपजये नानाविधद-दानदमलिन-भावदोला 'मल्लिकब्बेयं' पोल्ववरार श्री पंचमियं नोंतुद्यापनमं माडि बरेसि रांद्धांतगना [राद्धांतमना]।
रूपवती 'सेनवधू' जितकोपं श्रीमाघनंदियतिपति-गित्तल् ॥७॥ अनुभागबन्धाधिकार के अन्त की प्रशस्ति
स्रग्धरावृत्तम् जितचेतोजातनुर्वीश्वर-मुकुटतटोघृष्टपादारविन्दद्वितयं वाक्कामिनी-पीवरकुचकलशालंकृतोदारहारप्रतिमं दुर्झरसंसृत्यतुल-विपिनदावानलं माघनन्दिवतिनाथं शारदाभ्रोज्ज्वलविशदयशोराजिता शान्तकान्तम् ॥१॥
कन्दपद्य भावभवविजयि-वरवाग्देवीमुखनूलरत्नदर्पनानम्नावनि-पालकनेनिसिद-नला विश्रुतकित्ते माघनंदिमुनीन्द्रम् ॥२॥
महास्रग्धरावृत्तम्
वरराद्धान्तामृताम्भोनिधि-तरल-तरंगोत्कर-क्षालितान्तःकरणं श्रीमेघचन्द्रव्रतिपतिपदपंकेरुहासक्तसत्स (त्ष) ट्चरणं तीव्र प्रतापोद्धृत-विततबलोपेत-पुष्पेषुभृतसंहरणं सैद्धान्तिकाग्रेसरनेने नेगल्दं माघनन्दिव्रतीन्द्रम् ॥३॥
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प्रस्तावना
कन्दपद्य महनीय गुणनिधानं, सहजोन्नतबुद्धिविनयनिधियेन नेगब्दं महि बिनुतकित्ते कित्तित (मही) महिमानं मानिताभिमानं सेनम् ॥४॥ विनयद-शीलदोल गुणदोलादिय पेंपिन पुडिजंमनोजनरतिरूपि नोल्यनिलिसिर्द-मनोहरमप्पुदोंदुरूपिनमने दानदा (सा) गरमेमिप्प वधूतमे यप्प संदसेनन सति मल्लिकब्बेगे धरित्रियोलारि सद्गुणंगलिं ॥५॥ सकलधरित्रीविनुत-प्रकटितयशे मल्लिकब्बे बरेयिसि सत्पुण्याकर महाबन्धद पुस्तकम श्रीमाघनंदि मुनिपति गित्तल् ॥६॥
प्रदेशबन्धाधिकार के अन्त की प्रशस्ति
कन्दपद्य श्रीमलधारिमुनीन्द्रपदामलसरसीरुहशृंगनमलिकित्ते। प्रेमं मुनिजनकैरवासोमनेनल्माघनंदियतिपतियेसेदं ॥१॥ जितपपंचेषु-प्रतापानलमलतरोत्कृष्टचरित्रराराजिततेतं भारती-भासुर-भासुरकुचकलशालीढ-भाभारनूला। यत् तारोदारहारं समदमनियमालंकृतं माघनंदिव्रतिनाथं शारदाभ्रोज्ज्वलविशदयशो-वल्लरी-चक्रवालम् ॥२॥ जिनवक्त्रांभोज-नीनिर्गत-हितनुतराद्धान्तकिंजल्कसुस्वादन... ... ... ... ... जपदनत भूपेन्द्रकोटीरसेना। तिनिकायभ्राजितांघ्रिद्वयनखिल-जगद्व्यनीलोत्पलाल्हादनताराधीशनें केवलमें भुवनदोल् माघनंदिव्रतीन्द्रम् ॥३॥ वरराद्धान्तामृतांभोनिधितरलतरंगोत्करक्षालितांत:करणं श्रीमेघचंद्रव्रतपतिपपंकेरुहासक्तषट्चरणं ॥ ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... त्स। च्चारणं सैद्धान्तिकाग्रेसरनेने नेगदंमाघनंदिव्रतीन्द्रम् ॥४॥ श्री पंचमियं नोंतुद्यापनमं माडि बरेसि राद्धांतमना रूपवती सेनवधू जितकोपं श्रीमाघनंदियतिपतिगित्तल् ॥५॥
कर्मबन्धमीमांसा
“जह भारवहो पुरिसो वहइ भरं गेहिऊण कावडियं । एमेव वहइ जीवो कम्मभरं कायकावडियं ॥ -गो. जी., गा. २०१
. १. जैसे कोई बोझा ढोनेवाला पुरुष काँवड़ को ग्रहण कर बोझा ढोता है, इसी प्रकार यह जीव शरीर रूप काँवड़ में
कर्म-भार को रखकर ढोता है।
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महाबन्ध
'महाबन्ध' शास्त्र का प्रमेय बन्ध तत्त्व है। 'षटूखण्डागम' के द्वितीय खण्ड 'खुद्दाबन्ध' (क्षुद्रबन्ध) की अपेक्षा षष्ठखण्ड में बन्ध के विषय में विस्तारपूर्वक प्रतिपादन होने के कारण प्रतीत होता है कि उसे 'महाबन्ध' कहा गया है। 'तत्त्वार्थसूत्र' बन्ध के विषय में यह व्याख्या करता है
"सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्धः।" ८,२
'जीव कषायसहित होने से कर्मरूप परिणत होने योग्य पुद्गलों को-कार्मण वर्गणाओं को ग्रहण करता है, उसे बन्ध कहते हैं।'
यहाँ बन्ध को समझने के पूर्व कर्मसिद्धान्त पर प्रकाश डालना उचित ऊँचता है। कारण, बन्ध के विवेचन की आधारभूमि कर्मतत्त्व को हृदयंगम करना परमावश्यक है। कर्म की अवस्था-विशेष का ही नाम बन्ध है।
कर्मविषयक मान्यताएँ
जैन आगम में कर्मसाहित्य का अतीव महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ कर्म के विषय में सर्वांगीण, सुव्यवस्थित एवं वैज्ञानिक (Scientific) पद्धति से विवेचन किया गया है। अन्य धर्मों तथा दर्शनों ने भी कर्म को महत्त्व प्रदान किया है। अज्ञ जगत् में भी कर्मसिद्धान्त की मान्यता पायी जाती है। जैसा करो, तैसा भरो' यह सक्ति इसी सिद्धान्त की ओर निर्देश करती है। अँगरेजी भाषा में 'As you sow, so you reap'-'जैसा बोओ, तैसा काटो'-कहावत प्रचलित है। तुलसीदास का कथन है
"तुलसी काया खेत है, मनसा भयो किसान।
पाप पुण्य दोउ बीज हैं, बुवै सो लुनै निदान ॥". कहते हैं एक बार गौतम बुद्ध भिक्षार्थ किसी सम्पन्न किसान के यहाँ गये। इस कृषक ने कहा-"आप मेरे समान किसान बन जाइए। मेरे समान आपको धन-धान्य की प्राप्ति होगी। ऐसा करने से भीख माँगने का प्रसंग नहीं प्राप्त होगा। बुद्ध ने कहा-“भाई! मैं भी तो किसान हूँ। मेरा खेत मेरा हृदय है। इसमें सत्कर्मरूपी बीज बोकर मैं विवेकरूपी हल चलाता हूँ। मैं विकार-वासनारूपी घास आदि की निराई करता हूँ और प्रेम तथा आनन्द की अपार फसल काटता हूँ।"
दार्शनिक ग्रन्थों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि 'कर्म' शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग हुआ है। मीमांसा दर्शन पशुबलि आदि यज्ञ तथा अन्य क्रियाकाण्ड को कर्म मानते हैं। वैयाकरण पाणिनि अपने 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' (१,४,७६) सूत्र-द्वारा कर्ता के लिए अत्यन्त इष्ट को कर्म कहते हैं। वैशेषिक दर्शन ने अपने सप्तपदार्थों की सूची में कर्म को भी स्थान प्रदान किया है। वैशेषिक दर्शनकार कणाद कहते हैं - "जो एक द्रव्य हो-द्रव्यमात्र में आश्रित हो, जिसमें कोई गुण न रहे तथा जो संयोग और विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न करे, वह कर्म है। उसके उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमन ये पाँच भेद कहे गये हैं। नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य क्रियाओं को भी कर्म-कहते हैं। सांख्यदर्शन ने संस्कार अर्थ में 'कर्म' को ग्रहण किया है। ईश्वर कृष्ण की सांख्यकारिका में लिखा है- 'सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति होने पर भी पुरुष संस्कारवश-कर्म के वश से शरीर धारण करके रहता है, जैसे गति प्राप्त चक्र संस्कार के वश से भ्रमण करता रहता है।" ___ वाचस्पति मिश्र का कथन है-“४ क्लेशरूपी जल से सिंचित बुद्धिरूपी भूमि में कर्मरूपी बीज अंकुरों
१. एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति कर्मलक्षणम्।" १,७।
-सभाष्य वैशेषिक दर्शन ४,३५ २. “उत्क्षेपणं ततोऽवक्षेपणमाकुञ्चनं तथा। प्रसारणं च गमन कर्माण्येतानि पञ्च च ॥" -सि. मुक्तावली ६ ३. “सम्यक्ज्ञानाधिगमाद्धर्मादीनामकारणप्राप्तौ। तिष्ठति संस्कार वशाच्चक्रभ्रमिवद्धृतशरीरः ॥" -सां. त. कौ. ६७ ४. "क्लेशसलिलावसिक्तायां हि बुद्धिभूमौ कर्मबीजान्यङ्करं प्रसुवते। तत्त्वज्ञाननिदाघनिपीतसकलक्लेशसलिलायामूषरायां कुतः कर्मबीजानामङ्कुरप्रसवः?"
-सां. त. कौ., पृ. ३१५ ।
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को उत्पन्न करते हैं। तत्त्वज्ञानरूपी ग्रीष्मकाल के द्वारा जिसका सम्पूर्ण क्लेशरूप जल सूख चुका है, उस शुष्क भूमि में कर्मबीजों का अंकुर कैसे उत्पन्न होगा ?"
गीता में कार्यशीलता (activity) को कर्म बताया है ।' कहा है- “ अकर्मण्य रहने की अपेक्षा कर्म करना श्रेयस्कर है। संन्यास और कर्मयोग ये दोनों ही कल्याणकारी हैं; किन्तु कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग विशेष महत्त्वास्पद है । " ३
महाभारत शान्तिपर्व में लिखा है
"कर्मणा बध्यते जन्तुः, विद्यया तु प्रमुच्यते ।” ( २४०, ७)
- यह प्राणी कर्म से बँधता है, विद्या के द्वारा मुक्ति लाभ करता है ।
पतंजलि योगसूत्र में कहते हैं* - " क्लेश का मूल कर्माशय - कर्म की वासना है । वह इस जन्म में वा जन्मान्तर में अनुभव में आती है। अविद्यादिरूप मूल के सद्भाव में जाति, आयु तथा भोगरूप कर्मों का विपाक होता है। वे आनन्द तथा सन्ताप प्रदान करते हैं, क्योंकि उनका कारण पुण्य तथा अपुण्य है । " योगी के अशुक्ल तथा अकृष्ण कर्म होते हैं । संसारी जीवों के शुक्ल, कृष्ण तथा शुक्ल कृष्ण कर्म होते हैं ।
न्यायमंजरी में लिखा है- “जो देव, मनुष्य तथा तिर्यंचों में शरीरोत्पत्ति देखी जाती है, जो प्रत्येक पदार्थ के प्रति बुद्धि उत्पन्न होती है, जो आत्मा के साथ मन का संसर्ग होता है, वह सब प्रवृत्ति के परिणाम का वैभव है। सर्व प्रवृत्ति क्रियात्मक है, अतः क्षणिक है; फिर भी उससे उत्पन्न होनेवाला धर्म, अधर्म पदवाच्य आत्म-संस्कार कर्म के फलोपभोग पर्यन्त स्थिर रहता ही है ।"
अशोक के शिलालेख नं. ८ में लिखा है- “इस प्रकार देवताओं का प्यारा प्रियदर्शी अपने भले कर्मों से उत्पन्न हुए सुख का उपभोग करता है ।
भिक्षु नागसेनने मिलिन्द सम्राट् से जो प्रश्नोत्तर किये थे, उनसे कर्मों के विषय में बौद्ध दृष्टि का अवबोध होता है" -
१. “योगः कर्मसु कौशलम् । ”
२. "कर्मज्यायो ह्यकर्मणः ।" - गी. ३,८
३. “संन्यास कर्मयोगश्चय निःश्रेयसकरावुभौ । तयोस्तु कर्मसंन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते ॥ " - गी. ५,२
४. “ क्लेशमूलः कर्माशयः दृष्टादृष्टजन्यवेदनीयः । सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः । ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् । " - यो. सू. २,१२ - १४ । “कर्माशुक्लकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् ” - यो. द. कैवल्यपाद. ७
५. “यो ह्ययं देव-मनुष्य - तिर्यग्भूमिषु शरीरसर्गः, यश्च प्रतिविषयं बुद्धिसर्गः, यश्चात्मना सह मनसा संसर्गः स सर्वः प्रवृत्तेरेव ' परिणामविभवः । प्रवृत्तेश्च सर्वस्याः क्रियात्वात् क्षणिकत्वेऽपि तदुपहितो धर्माधर्मशब्दवाच्य आत्मसंस्कारः कर्मफलोपभोगपर्यन्तस्थितिरस्त्येव । ” - न्या. म., पृ. ७०
६. बुद्ध और बुद्धधर्म, पृ. २५६
७. “राजा आह-भन्ते नागसेन, केन कारणेन मनुस्सा न सव्वे समका, अञ्जे अप्पायुका, अञ्जे दीघायुका, अञ बह्वाबाधा अञ्जे अप्पाबाधा, अञ्ञ दुव्वण्णा, अञ्ञे वण्णवन्तो, अञ्जे अप्पेसक्खा, अञ्ञे महेसक्खा, अञ्ञ अप्पभोगा, अञ्ञे महाभोगा, अञ्ञे नीचकुलीना, अञ्ञे महाकुलीना, अञ्ञ दुप्पञ्ञा, अञ्ञे पञ्ञावन्तीति । ”
थेरो आह, किस्स पन, महाराज! रुक्खा न सव्वे समका, अञ्ञ अंविला, अञ्ञ लवणा, अज्ञे तित्तका, अज्ञ कटुका, अञ्ञ कसावा, अज्ञे मधुराति ।
मञ्ञामि भंते! बीजानां नानाकरणेनाति ।
एवमेव खो महाराज कम्मानं नानाकरणेन मनुस्सा न सव्वे समका । भासितं पेतं महाराज! भगवता कम्म कामाणवसत्ता, कम्मदायादा, कम्मयोनी, कम्मबंधु, कम्मपरिसरणा, कम्मं सत्ते विभजति यदिदं हीनप्पणीततायीति । कल्लोसि भंते नागसेनाति । ”
—Pali Reader p. 39 मिलिन्दपञ्ह in अंगुत्तनिकाय, मिलिन्दप्रश्न ८१
Thus spoke king Milinda: 'How comes it, reverend Sir, that men are not alike? some
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महाबन्ध
राजा बोला-भन्ते! क्या कारण है, कि सभी आदमी एक ही तरह के नहीं होते? कोई कम आयुवाले, कोई दीर्घ आयुवाले, कोई बहुत रोगी, कोई नीरोग, कोई भद्दे, कोई बड़े सुन्दर, कोई प्रभावहीन, कोई बड़े प्रभाववाले, कोई गरीब, कोई धनी, कोई नीच कुलवाले, कोई ऊँच कुलवाले, कोई मूर्ख, कोई बुद्धिमान क्यों होते हैं?
स्थविर बोले-महाराज! क्या कारण है कि सभी वनस्पतियाँ एक-सी नहीं होती? कोई खट्टी, कोई नमकीन, कोई तिक्त, कोई कड़वी, कोई कषायली और कोई मधुर क्यों होती हैं?"
भन्ते! मैं समझता हूँ कि बीजों की भिन्नता के कारण ही वनस्पतियों में भिन्नता है।
महाराज! इसी प्रकार सभी मनुष्यों के अपने-अपने कर्म भिन्न-भिन्न होने से वे सभी एक ही प्रकार के नहीं हैं। महाराज! बुद्धदेव ने भी कहा है-हे मानव! अपने कर्मों का सभी जीव उपभोग करते हैं। सभी जीव अपने कर्मों के स्वामी हैं। अपने कर्मों के अनुसार नाना योनियों में जन्म धारण करते हैं। अपना कर्म ही अपना बन्धु है, अपना आश्रय है। कर्म से ही लोग ऊँचे-नीचे हुए हैं।
भन्ते-“आपने ठीक कहा।"
इस प्रकार दार्शनिक साहित्य के अवगाहन से और सामग्री प्राप्त होगी जो यह ज्ञापित करेगी कि कर्मसिद्धान्त की किसी-न-किसी रूप में दार्शनिक जगत् में अवस्थिति अवश्य है। जैनवाङ्मय में कर्मसिद्धान्त पर बड़े-बड़े ग्रन्थ बने हैं। उनसे विदित होता है कि जैनसिद्धान्त में कर्म का सुव्यवस्थित, शृंखलाबद्ध तथा विज्ञानदृष्टिपूर्ण वर्णन किया गया है। जैनदर्शन में कर्म
जैन दृष्टि से कर्म पर विचार करने के पूर्व यदि हम इस विश्व का विश्लेषण करें, तो हमें सचेतन (जीव), तथा अचेतन (अजीव) ये दो तत्त्व उपलब्ध होते हैं। पुद्गल (matter), आकाश, काल तथा गमन और स्थिति के माध्यमरूप धर्म और अधर्म ये पाँच द्रव्य अचेतन हैं। ज्ञान-दर्शन गुणसमन्वित जीव द्रव्य
प्रकार छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिस्पन्दात्मक क्रियाशील हैं। धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार द्रव्य निष्क्रिय हैं। इनमें प्रदेश-संचलन रूप क्रिया नहीं पायी जाती। इनमें अगुरुलघु गुण के कारण षड्गुणीहानिवृद्धिरूप परिणमन अवश्य पाया जाता है। इस परिणमन को अस्वीकार करने पर द्रव्य का स्वरूप परिणमनहीन कूटस्थ बन जाता है। ___ इसी बात को पंचाध्यायीकार दूसरे शब्दों में प्रकट करते हैं
"भाववन्तौ क्रियावन्तौ द्वावेतौ जीवपुद्गलौ। तौ च शेषचतुष्कं च षडेते भावसंस्कृताः ॥
live long and some are short lived; some are hale and some weak, some comely and some ugly; some powerful and some with no power; some rich, some poor; some born of noble stock, some meanly some wise born; and some foolish.'
To whom Nagasena the Elder made answer : ___ How comes it that all plants are not alike? Some have a sour taste and some are salt, some are acid, some bitter and some sweet'. 'It must be, I take it, reverend sir, that they spring from various kinds of seed.'
___ Even so, O Maharaja, it is beccause of differences of action that men are not alike: for some live long, and some are short-lived; some are hale and some weak; some comely and some ugly; some powerful, and some without power; some rich, some poor; some borm of noble some meanly born; stock, some wise and some foolish.'
- The Heart of Buddhism, p. 85
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प्रस्तावना
तत्र क्रिया प्रदेशानां परिस्पन्दश्चलात्मकः।
भावस्तत्परिणामोऽस्ति धारावाोकवस्तुनि॥ --२,२५-२६ -"जीव तथा पुद्गल में भाववती तथा क्रियावती शक्ति पायी जाती है। शेष चार द्रव्यों में तथा पूर्व के दो द्रव्यों में भी भाववती शक्ति उपलब्ध होती है। प्रदेशों के संचालन रूप परिस्पन्दन को क्रिया कहते हैं। धारावाही एक वस्तु में जो परिणमन है, वह भाव है।"
इससे यह स्पष्ट होता है, कि जीव पुद्गल में ही प्रदेशों का हलन-चलन पाया जाता है। जीव और पुद्गल-विशेष का परस्पर में बन्धन होता है, कारण जीव में बन्ध का कारण वैभाविक शक्ति का सद्भाव है। यदि वैभाविक शक्ति न होती, तो जीव और पुद्गल का संश्लेष नहीं होता।
जिस प्रकार चुम्बक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है, उसी प्रकार वैभाविक शक्ति विशिष्ट जीव रागादि भावों के कारण कार्मणवर्गणा तथा आहार, तैजस, भाषा तथा मनरूप नोकर्मवर्गणाओं को अपनी
ओर आकर्षित करता है। पुद्गलद्रव्य के तेईस प्रकारों में कार्मण वर्गणा नाम का एक भेद है। अनन्तानन्त परमाणुओं के प्रचयरूप वर्गणा होती है। रागादिभावों के कारण जीव का कर्मों के साथ सम्बन्ध होता है। जीव का अहित धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल द्रव्यों-द्वारा नहीं होता है। पद्मनंदि पंचविंशतिका में कहा
“धर्माधर्मनभांसि काल इति मे नैवाहितं कुर्वते चत्वारोऽपि सहायतामुपगतास्तिष्ठन्ति गत्यादिषु । एकः पुद्गल एव सन्निधिगतो नोकर्म-कर्माकृतिः
वैरी बन्धकृदेष सम्प्रति मया भेदासिना खण्डितः ॥”-आलोचनाधिकार २५ -धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये द्रव्य मेरा अहित नहीं करते। ये चारों गमनादि कार्यों में मेरी सहायता करते हैं। एक पुद्गल द्रव्य ही कर्म तथा नोकर्म रूप होकर मेरे समीप रहता है। अब मैं उस बन्ध के कारण रूप कर्म शत्रु का भेदविज्ञानरूपी तलवार के द्वारा विनाश करता हूँ।
परिभाषा - ‘परमात्मप्रकाश' में कर्म की इस प्रकार परिभाषा की गयी है
“विसयकसायहिं रंगियहं, जे अणुया लग्गति।
जीवपएसहं मोहियहं, ते जिण कम्म भणंति ॥६२॥" प्रवचनसार टीका में अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं- “क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म, तन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म।" (पृ. १६५)
–“आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से क्रिया को कर्म कहते हैं। उसके निमित्त से परिणमन को प्राप्त पुद्गल भी कर्म कहा जाता है।" इसका अभिप्राय यह है कि आत्मा में कम्पनरूप क्रिया होती है। इस क्रिय निमित्त से पुद्गल के विशिष्ट परमाणुओं में जो परिणमन होता है, उसे कर्म कहते हैं। यह व्याख्या आध्य दृष्टि से की गयी है।
१. “अयस्कान्तोपलाकृष्टसूचीवत्तद्वयोः पृथक् । अस्ति शक्तिः विभावाख्या मिथो बन्धाधिकारिणी॥
-पंचा. २,४२
२. "देहोदयेण सहिओ जीवो आहरदि कम्मणोकम्म।
पडिसमयं सव्वंग तत्तायसपिंडओव्व जलं॥"-गो. क., गा.३ ३. “परमाणूहिं अणंताहि वग्गणसण्णा दु होदि एक्का हु।" -गो. जी., गा. २४४
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महाबन्ध
जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल की अवस्था, जिससे जीव परतन्त्र-सुख-दुःख का भोक्ता किया जाता है, कर्म कहलाती है।
आचार्य अकलंकदेव अपने राजवार्तिक (पृ. २६४) में लिखते हैं-“यथा भाजनविशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामः, तथा पुद्गलानामपि आत्मनि स्थितानां योगकषायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः।" जैसे पात्रविशेष में डाले गये अनेक रसवाले बीज, पुष्प तथा फलों का मदिरारूप में परिणमन होता है, उसी प्रकार योग तथा कषाय के कारण आत्मा में स्थित पुद्गलों का कर्मरूप परिणाम होता है। महर्षि कुन्दकुन्द 'समयसार' में लिखते हैं
“जीवपरिणामहेदूं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति।
पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ॥५०॥" -“जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल का कर्मरूप परिणमन होता है। इसी प्रकार पौद्गलिक कर्म के निमित्त से जीव का भी परिणमन होता है।" केशवसिंह ने 'क्रियाकोष' में कहा है
"सूरज सन्मुख दरपण धरै, रुई ताके आगे करै। रवि-दर्पण को तेज मिलाया, अगन उपज रुई बलि जाय ॥५४॥ नहि अगनी इकली रुइ माहिं, दरपन मध्य कहूँ है नाहिं।
दुहुयनि को संयोग मिलाय, उपजै अगनि न संशै थाय ॥५५॥" 'समयसार' में कहा है
"ण वि कुव्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे।
अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोण्हंपि॥ ८१॥" -“तात्त्विक दृष्टि से विचार किया जाए, तो जीव न तो कर्म में गुण करता है और न कर्म ही जीव में कोई गुण उत्पन्न करता है। जीव तथा पुद्गल का एक-दूसरे के निमित्त से विशष्ट परिणमन हुआ करता
प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव में स्थित है। उसके परिणमन में अन्य द्रव्य उपादान कारण नहीं बन सकता। जीव न पुद्गल का कारण है और न पुद्गल जीव का उपादान हो सकता है। इनमें उपादान-उपादेयभाव के स्थान में निमित्त-नैमित्तिकपना पाया जाता है। इससे जो सिद्धान्त स्थिर होता है, उसके विषय में कुन्दकुन्द स्वामी का कथन है
“एदेण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण ।
पुग्गलकम्मकदाणं दु कत्ता सव्वभावाणं ॥२॥" - "इस कारण आत्मा अपने भाव का कर्ता है। वह पुद्गलकर्मकृत समस्त भावों का कर्ता नहीं है।" इस विषय पर अमृतचन्द्रसूरि इन शब्दों में प्रकाश डालते हैं
“जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ -पु. सि., १२ -"जीवके रागादि परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गलों का कर्म रूप में परिणमन स्वयमेव हो जाता है।"
जैसे मेघ के अवलम्बन से सूर्य की किरणों का इन्द्रधनुषादिरूप परिणमन हो जाता है; उसी प्रकार स्वयं अपने चैतन्यमय भावों से परिणमनशील जीव के रागादिरूप परिणमन में पौद्गलिक कर्म निमित्त पड़ा
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करता है।' यदि जीव और पुद्गल में निमित्त भाव के स्थान में उपादान उपादेयत्व हो जाए, तो जीव द्रव्य का अभाव होगा अथवा पुद्गल द्रव्य नहीं रहेगा। दोनों में भिन्नत्व का अभाव होकर स्थापित होगा। भिन्न द्रव्यों में उपादान-उपादेयता नहीं पायी जाती है। 'प्रवचनसार' में लिखा है
"कम्मत्तण-पाओग्गा खंधा जीवस्स परिणई पप्पा।
गच्छंति कम्ममावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥” -प्रवचनसार, गा. २,७७ (१६६) -- “जीव की रागादिरूप परिणतिविशेष को प्राप्त कर कर्मरूप परिणमन के योग्य पुद्गलस्कन्ध कर्म भाव को प्राप्त करते हैं। उनका कर्मत्वपरिणमन जीव के द्वारा नहीं किया गया है।"२
"ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स।
संजायते देहा देहतरसंकमं पप्पा।" -प्रवचनसार, गा. २,७८ (१७०) -“कर्मत्व को प्राप्त पुद्गलकाय जीव के देहान्तररूप संक्रम-परिवर्तन को पाकर पुनः देहरूप को प्राप्त करते
“आदा कम्ममलिमसो परिणाम लहदि कम्मसंजुत्तं।
तत्तो सिलसदि कम्मं तम्हा कम्मं तु परिणामो।" -प्रवचनसार, गा. १२१ -“कर्म के कारण मलिनता को प्राप्त आत्मा कर्म-संयुक्त परिमाण को प्राप्त करता है। इससे कर्मों का सम्बन्ध होता है। अतः परिणाम को भी कर्म कहते हैं।" इस विषय को स्पष्ट करते हुए अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं
आत्मपरिणामरूप भाव कर्म का कर्ता है। पुद्गल परिणामरूप द्रव्यकर्म का कर्ता नहीं है। द्रव्यकर्म का कर्ता कौन है? पुद्गल का परिणाम स्वयं पुद्गल रूप है। इससे परमार्थ दृष्टि से पुद्गलात्मक द्रव्य कर्म का पुद्गल का परिणाम स्वयं है। वह आत्मपरिणाम स्वरूप भाव कर्म का कर्ता नहीं है। इससे जीव आत्मस्वरूप से परिणमन करता है, पुद्गल रूप से परिणमन नहीं करता
कर्म के द्रव्यकर्म और भावकर्म ये दो भेद कहे गये हैं। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कहते हैं -पुद्गल का पिण्ड द्रव्यकर्म है। उस पिण्ड स्थित शक्ति से उत्पन्न अज्ञानादि भावकर्म हैं।' अध्यात्म शास्त्र की दृष्टि से आत्मा के प्रदेशों का सकम्प होना भावकर्म है। इस कम्पन के कारण पुद्गल की विशिष्ट अवस्था की उत्पत्ति को द्रव्यकर्म कहा है।
बन्ध का स्वरूप
कर्मों की अवस्थाविशेष को बन्ध कहते हैं। जीव और कर्मों के सम्बन्ध होने पर दोनों के गुणों में विकृति की उत्पत्ति होना बन्ध है। उदाहरणार्थ, हल्दी और चूना के सम्बन्ध से जो विशेष लालिमा की उत्पत्ति हुई है, वह वर्ण एक जात्यन्तर है। वह न हल्दी में है और न चूने में ही पाया जाता है। इसी प्रकार राग-द्वेषादि
१. “परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैविः।
भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिक कर्म तस्यापि ॥"-पु. सि., १३ २. यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढ-जीवपरिणाममात्रं बहिरंगसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिनः पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्म भावेन परिणमन्ति। ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति
अमृतचन्द्रसूरिकृत-प्रवचनसार टीका तत्त्व-प्रदीपिकावृत्तिः, पृ. २३१ ३. कर्मभावं ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मपर्यायम्-जयसेनाचार्य। ४. “पोग्गलपिंडो दव्यं तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥" -गो.क., गा.६
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विकारी भाव न शुद्ध आत्मा में उपलब्ध होते हैं और न जीव से असम्बद्ध पुद्गल में उनकी प्राप्ति होती है। बन्ध की अवस्था में जिन दो वस्तुओं का परस्पर में बन्ध्य-बन्धक भाव उत्पन्न होता है, उन दोनों के स्वगुणों में विकृति उत्पन्न होती है। कहा भी है
___ "हरदी ने जरदी तजी, चूना तज्यो सफेद।
दोऊ मिल एकहि भए, रह्यो न काहू भेद ॥" 'पंचाध्यायी' में कहा है
"बन्धः परगुणाकारा क्रिया स्यात् पारिणामिकी।
तस्यां सत्यामशुद्धत्वं तद्वयोः स्वगुणच्युतिः ॥२,१३०॥" - 'अन्य के गुणों के आकार रूप परिणमन होना बन्ध है। इस परिणमन के उत्पन्न होने पर अशुद्धता आती है। उस समय उन दोनों बन्ध होने वालों के स्वगुणों का विपरिणमन होता है।'
जीव के रागादि भाव न शुद्ध जीव के हैं और न शुद्ध पुद्गल के हैं। 'बन्धोऽयं द्वन्द्वजः स्मृतः'-यह बन्ध दो से उत्पन्न होता है। एक द्रव्य का बन्ध नहीं होता।
इस प्रसंग में 'बृहद्रव्यसंग्रह' टीका का यह कथन विशेष उद्बोधक है-आगम में बन्ध के कारण मोह, राग और द्वेष कहे गये हैं। 'मोह' शब्द दर्शनमोहनीय अर्थात मिथ्यात्व का सूचक है। राग और द्वेष चारित्र मोह रूप हैं- 'मोहो दर्शनमोहो मिथ्यात्वमिति यावत्...चारित्र-मोहो रागद्वेषौ भण्येते।'
प्रश्न-चारित्रमोह शब्द से राग-द्वेष किस प्रकार कहे जाते हैं
___ “चारित्रमोह शब्देन रागद्वेषौ कथं भण्येते? इति चेत्।"
उत्तर-“कषायमध्ये क्रोध-मानद्वयं द्वेषाङ्गम्, मायालोभद्वयं च रागाङ्गम्, नोकषायमध्ये तु स्त्री पुं-नपुंसकवेदत्रयं हास्य-रतिद्वयं च रागाङ्गम्, अरति-शोकद्वयं भयजुगुप्साद्वयं च द्वेषाङ्गमिति ज्ञातव्यम्।"- कषाय में द्वेष के अंग रूप क्रोध तथा मान अन्तर्भूत हैं। राग के अंग माया तथा लोभ अन्तर्भूत हैं। नोकषाय में स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ये तीन तथा हास्य और रतिद्वय राग के अंगरूप हैं। अरति, शोक तथा भय और जुगुप्सा युगल द्वेष के अंग हैं।
प्रश्न-राग-द्वेष आदिक परिणाम क्या कर्मजनित हैं अथवा जीव से उत्पन्न हुए हैं?
उत्तर-स्त्री और पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान, चूना तथा हल्दी के संयोग से उत्पन्न हुए वर्ण-विशेष के समान राग और द्वेष जीव और कर्म के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। नय की विवक्षा के अनुसार विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चय से राग-द्वेष कर्मजनित कहलाते हैं तथा अशुद्ध-निश्चयनय से जीवजनित कहलाते हैं। यह अशुद्ध निश्चयनय शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से व्यवहारनय ही है।
प्रश्न-साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से ये राग-द्वेष किसके हैं?
उत्तर-स्त्री और पुरुष के संयोग बिना पुत्र की अनुत्पत्ति के समान तथा चूना और हल्दी के संयोग बिना रंगविशेष की अनुत्पत्ति के समान साक्षात् शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से राग-द्वेषादि की उत्पत्ति ही नहीं होती, क्योंकि शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में जीव और पुद्गल दोनों ही शुद्ध हैं और इनके संयोग का अभाव है।
नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कहते है
१. अत्राह शिष्यः-रागद्वेषादयः किं कर्मजनिताः, किं जीवजनिता इति? तत्रोत्तरम्-स्त्री-पुरुषसंयोगोत्पत्रपुत्र इव सुधाहरिद्रासंयोगोत्पन्नवर्णविशेष इवोभयसंयोगजनिता इति। पश्चात्रयविवक्षावशेन विवक्षितैक-देशशुद्धनिश्चयेन कर्मजनिता भण्यन्ते। तथैवाशुद्धनिश्चयेन जीवजनिता इति। स चाशुद्धनिश्चयः शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव। अथ मतम्-साक्षाच्छुद्धनिश्चयनयेन कस्येति पृच्छामो वयम् ? तत्रोत्तरम्-साक्षाच्छुद्धनिश्चयेन स्त्री पुरुष-संयोगरहितपुत्रस्येव सुधाहरिद्रासंयोगरहितरङ्ग विशेषस्येव तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं प्रयच्छाम इति। बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ४८ की टीका, पृष्ठ २०१-२०२
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"बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो।
कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो ॥"-द्रव्यसंग्रह, गा. ३२ जिस चैतन्य परिणति से कर्मों का बन्ध होता है, उसे भावबन्ध कहते हैं। आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर में प्रवेश हो जाना द्रव्यबन्ध है।
सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर विदित होता है कि जिस प्रकार कर्मों को यह जीव बाँधता है-पराधीन करता है, उसी प्रकार कर्म भी इस जीव को पराधीन बनाते हैं। बन्ध में दोनों की स्वतन्त्रता का परित्याग होता है। दोनों विवश किये जाते हैं। पण्डितप्रवर आशाधरजी लिखते हैं
“स बन्धो बध्यन्ते परिणतिविशेषेण विवशीक्रियन्ते कर्माणि प्रकृतिविदुषो येन यदि वा। स तत्कर्माम्नातो नयति पुरुषं यत् स्ववशतां
प्रदेशानां यो वा स भवति मिथः श्लेष उभयोः ॥” –अन. धर्मा. २,३८ - "जिस परणति विशेष से कर्म अर्थात् कर्मत्व परिणत पुद्गल- द्रव्यकर्म विपाक-अनुभव करने वाले जीव के द्वारा परतन्त्र बनाये जाते हैं-योगद्वार से प्रविष्ट होकर पुण्य-पापरूप परिणमन करके भोग्यरूप से सम्बद्ध किये जाते हैं, वह बन्ध है। अर्थात् आत्मा के जिन भावों से कर्मत्वपरिणत पुद्गल जीव के द्वारा परतन्त्र किया जाता है, वह बन्ध है। अथवा जो कर्म जीव को अपने अधीन करता है, वह बन्ध है अथवा जीव और पुद्गल के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना बन्ध है।"
बन्ध के विषय में यह बात तो सर्वसाधारण के दृष्टिपथ में रहती है कि जीव कर्मों को बाँधता है, किन्तु कर्म भी जीव को बाँधते हैं, प्रायः यह बात ध्यान में नहीं लायी जाती। पं. आशाधरजी ने यही विषय बताया कि बन्ध में दोनों की स्वतन्त्रता का परित्याग होता है। जीव तथा कर्म दोनों स्वतन्त्र नहीं रहते हैं। अर्थात् वे परतन्त्र हो जाते हैं।
यह बन्ध आत्मा और कर्म की परस्पर अनुकूलता होने पर ही होता है। प्रतिकूलों का बन्ध नहीं होता है। यही बात पंचाध्यायी कही गयी है
___ “सानुकूलतया बन्धो न बन्धः प्रतिकूलयोः ॥” –२,१०२ मुनीन्द्र कुन्दकुन्द कहते हैं
“फासेहिं पुग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमादीहिं।
अण्णोण्णमवगाहो पुग्गलजीवप्पगो भणिदो ॥" -प्रवचनसार, गा. २,८५ (१७७) -- “यथायोग्य स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्श से पुद्गल-कर्म-वर्गणाओं का परस्पर में पिण्डरूप बन्ध होता है। रागद्वेष मोहरूप परिणामों से जीव का बन्ध होता है। जीव के परिणामों का निमित्त पाकर जीव पुद्गल का बन्ध होना जीव पुद्गल का बन्ध है।"१
“सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पुग्गला काया।
पविसंति जहाजोग्गं चिट्ठति य जंति बज्झंति ॥" -२,८६(१७८) यह आत्मा असंख्यातप्रदेशी है। उसके प्रदेशों में आत्मप्रदेश-परिस्पन्दनरूप योग के अनुसार
१. यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषैरेकत्वपरिणामः स केवल पुद्गलबन्धः। यस्तु जीवस्योपाधिक-मोह-राग
द्वेषपर्यायैरेकत्वपरिणामः स केवल जीवबन्धः। यः पुनः जीवकर्म-पुद्गलयोः परस्परनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाहः स तदुभयबन्धः-अमृतचन्द्र सूरि कृत प्रवचनसार टीका, २,६५
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महाबन्ध
मन-वचन-कायवर्गणाओं की सहायता से पुद्गल कर्म-वर्गणारूप पिण्ड आकर प्रविष्ट होता है । वे कर्म-वर्गणाएँ राग-द्वेष तथा मोह के अनुसार अपनी स्थिति प्रमाण ठहरकर क्षीण हो जाती हैं ।
यथार्थ बात यह है कि राग-द्वेष, मोह के कारण आत्मा में एक उत्तेजना विशेष उत्पन्न होती है। उससे वह कर्मों को आकर्षित कर बाँधता है; जैसे गरम लोहपिण्ड जलराशि को आत्मसात् किया करता है। रागादि से बन्ध होता है
'समयसार' में संक्षेप में बन्धतत्त्व को इस प्रकार समझाया है
" रत्तो बंधदि कम्मं, मुंचदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा |
एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥ १५०॥ " - प्रवचनसार, गा. १७६
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रागपरिणाम विशिष्ट जीव कर्मों का बन्ध करता है। रागरहित आत्मा कर्मों से मुक्त होता है। जीवों के बन्ध का संक्षेप में यहीं तात्त्विक वर्णन है ।
राग-द्वेष से बन्ध होता है, रागादि के अभाव होने पर क्रियाओं के होते हुए भी बन्ध नहीं होता, इसे सोदाहरण कुन्दकुन्द स्वामी इन शब्दों में स्पष्ट करते हैं
“जह णाम कोवि पुरिसो नेहभत्तो दु रेणुबहुलम्म । ठाणम्मि ठाइदूण य करेदि सत्थेहि वायामं ॥ छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकलिवंसपिंडीओ । सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ॥ उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं । णिच्छयदो चिंतिज्जदु किं पच्चयगो दु तस्स रयबंधो ॥ जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो । णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ॥
एवं मिच्छादिट्ठी वट्टतो बहुविहासु चेट्ठासु ।
रायादी उवओगे कुव्वतो लिप्पदि रयेण ॥” – समयसार, गा. २३७-२४१ - आचार्य महाराज के कथन का भाव यह है कि कोई व्यक्ति अपने शरीर में तेल लगाता है तथा धूलिपूर्ण स्थल में जाकर शस्त्र-संचालनरूप व्यायाम करता है तथा ताड़, केला, बाँस आदि के वृक्षों का छेदन - भेदन करता है । इन क्रियाओं के करते हुए जो धूलि उड़कर उसके शरीर पर चिपकती है, उसका कारण व्यायाम क्रिया नहीं है। उसका वास्तविक कारण है- शरीर में तेल का लगाना। इसी प्रकार मिथ्यात्वी जीव अनेक चेष्टाओं को करता है । अपने उपभोग- परिणामों में रागादि धारण करता है, इससे वह कर्म रूपी धूलि के द्वारा लिप्त होता है।
यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि शरीर में रज-लेपका कारण तेल के स्थान में व्यायाम क्रिया को क्यों न माना जाए? इसका समाधान स्वामी कुन्दकुन्द अधिक स्पष्टतापूर्वक करते हुए लिखते हैं“जह पुण सो चेव णरो गेहे सव्वा अवणिये संते । रेणुबहुलम्म ठाणे करेदि सत्थेहि वायामं ॥
छिंददि मिंददि य तहा तालीतलकदलिवंसपिंडीओ ।
सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ॥ - समयसार, गा. २४२ - २४३ उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं । णिच्छयदो चिंतिज्जहु किं पच्चयगो ण तस्स रयबंधो ॥
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प्रस्तावना
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जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्टाहिं सेसाहिं ॥ एवं सम्मादिट्ठी वट्टतो बहुविहेसु जोगेसु।
अकरंतो उवओगे रागादी व बज्झदि रयेण ॥-समयसार, गा. २४५-२४६ इसका भाव यह है कि वही पूर्वोक्त पुरुष अपने शरीर के तेल को पोंछकर उसी प्रकार धूलिपूर्ण प्रदेश में शस्त्र द्वारा व्यायाम तथा वृक्ष-छेदनादि कार्य करता है। अब तेल का अभाव होने से उसके शरीर पर धुलि नहीं जमती है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अनेक प्रकार के योगों में विद्यमान रहता है, किन्तु उसके उपयोग में रागादि का अभाव रहता है, इस कारण वह कर्म-रज से लिप्त नहीं होता।
शरीर पर धूलि जमने का कारण व्यायाम नहीं है, कारण शस्त्रसंचालन का अन्वय-व्यतिरेक धूलि जमने के साथ नहीं देखा जाता। शस्त्र-संचालन दोनों अवस्थाओं में होते हुए भी धूलि लेप तब होता है, जब शरीर पर तेललिप्त रहता है। शरीर पर तेल के अभाव में धूलि का लेप भी नहीं पाया जाता, इससे यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि धूलि के जमने में कारण तेल का लेप है। इसी प्रकार रागादि के होने पर कर्मों का लेप होता है। आसक्तिजनक रागादि के अभाववश कर्मों का भी लेप नहीं होता। पं. आशाधरजी ने कहा है
"भूरेखादिसदृक्कषायवशगो यो विश्वदृश्वाज्ञया हेयं वैषयिकं सखं निजम्पादेयं त्विति श्रद्दधत चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणेवात्मनिन्दादिमान्
शर्माक्षं भजते रुजत्यपि परं नोत्तप्यते सोऽप्यघैः ॥" -सागरधर्मा. १,१३ अप्रत्याख्यानावरणादि कषाय के अधीन रहनेवाला अविरत सम्यक्त्वी सर्वज्ञदेव के वचनानुसार विषय-सुख को त्याज्य और आत्मीक आनन्द को ग्राह्य श्रद्धान करता हुआ भी, जैसे कोट्टपाल के द्वारा मारने के लिए पकड़ा गया चोर आत्मनिन्दा-गर्दा आदि में प्रवृत्ति करता है, उसी प्रकार वह कषायोद्रेकवश इन्द्रियजन्य सुख का अनुभव करने में प्रवृत्त होता है और प्राणियों को पीड़ा भी देता है, किन्तु वह पापों से पीड़ित नहीं होता। अनासक्त भाव से विषय सेवन करने के कारण वह बन्ध की तीव्र व्यथा नहीं उठाता। इसका भाव यह नहीं है कि चतुर्थगुणस्थानवाला सर्वथा बन्ध-विमुक्त हो जाता है। अनन्तानुबन्धी का उदय न होने से उस सम्बन्ध से होनेवाला बन्ध नहीं होता है। एकान्त नहीं है। कर्मबन्ध पर परमार्थदृष्टि
जीव परमार्थदृष्टि अपने भावों का कर्ता है, फिर उसे कर्म का कर्ता क्यों कहते हैं? इसके समाधानार्थ समयसारकार कहते हैं
“जीवहि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं । जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण ॥ जोधेहि कदे जुद्धे राएण कदं ति जंपदे लोगो। तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण॥*-समयसार, गा. १०५-१०६॥
१. “तैल-म्रक्षणा भावे यथा रजोबन्धो न भवति, तथा वीतरागसम्यग्दृष्टेर्जीवस्य रागाद्यभावाद्बन्धो न भवति"-जयसेनाचार्यकी टीका पृ. ३३६, स.सा. गाथा २४६ । जैसे तेल की चिकनाई के अभाव में धूलिका बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार वीतराग
सम्यक्त्वी जीव के रागादिके अभाव से बन्ध नहीं होता है, अर्थात् सरागी सम्यक्त्वीके रागके कारण बन्ध होता है। २. “नोत्तप्यते नोत्कृष्टं क्लिश्यते। कोऽसौ, सोऽपि अविरतसम्यग्दृष्टिः, किं पुनः त्यक्तविषयसुखः सर्वात्मनैकदेशेन वा हिंसादिभ्यो विरतश्चेत्यपि शब्दार्थः ।" -स्वोपज्ञ टीका सा.ध. १,१३
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महाबन्ध
'जीव के निमित्त को पाकर कर्मबन्ध रूप परिणमन देखकर उपचारवश कहते हैं कि जीव ने कर्मबन्ध किया। उदाहरणार्थ, यद्यपि योद्धा लोग ही युद्ध करते हैं, किन्तु लोग कहते हैं राजा युद्ध करता है, इसी प्रकार व्यवहारनय से कहते हैं कि जीव ने ज्ञानावरणादि का बन्ध किया है।"
अमृतचन्द स्वामी की इसी प्रसंग पर बड़ी सुन्दर उक्ति है
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'यदि जीव पुद्गलकर्म का कर्ता नहीं है, तो उसका कर्ता कौन है? ऐसी आशंका होने पर शीघ्र मोह निवारणार्थ कहते हैं, उसे सुन लो कि पौद्गलिक कर्मों का कर्ता पुद्गल ही है ।'
आत्मा परभावों का कर्ता नहीं होगा, वह अपने निज भाव का कर्ता है, यह बात समझाते हुए कहते
हैं
“जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म नैव कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशङ्कयैव । एतर्हि तीव्ररजमोहनिवर्हणाय संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्म कर्तृ ॥ ३ ॥ १८ ॥ *
“ आत्मभावान् करोत्यात्मा परभावान् परः सदा ।
आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ॥ - समयसार, पृ. १४४
'आत्मा सदा अपने भावों का कर्ता है, पर अर्थात् पुद्गल सदा पौद्गालिक भावों का कर्ता है। आत्मा के भाव आत्मरूप ही हैं, इसी प्रकार पुद्गल भाव भी पुद्गलरूप हैं ।'
उपरोक्त सत्य को हृदयंगम करनेवाले जीव के विषय में कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं
“परमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वतो ।
सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि । " - समयसार, गा. ६३
'ज्ञानी जीव पर को आत्मरूप नहीं मानता है और न आत्मा को पर ही करता है, वह कर्मों का अकर्ता होता है।' जयसेनाचार्य अपनी टीका में यह स्पष्ट करते हैं- “स निर्मलात्मानुभूतिलक्षणभेदज्ञानी जीवः कर्मणामकर्ता भवतीति” – निर्मल आत्मानुभूति स्वरूप भेदज्ञानी जीव कर्मों का अकर्ता होता है ।
यहाँ यह गम्भीर बात समझाते हैं कि जब आत्मा अपने भाव के सिवाय परमार्थ से परभावों का कर्ता नहीं है, तब जीव में कर्मों का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व नहीं रहेगा ।
नाटक समयसार में कहा है
"जोलों ज्ञान को उदोत तोलों नहिं बन्ध होत बरतै मिथ्यात्व तब नानाबन्ध होहि है । ऐसो भेद सुन के लग्यो तू विषय भोगन सूं जोगनि सूं उद्यम की रीति तै बिछोहि है ॥ सुनो भैया सन्त तू कहे मैं समकितवन्त यहू तो एकन्त परमेश्वर का द्रोही है । विषै सुं विमुख होहि अनुभव दशा आरोहि मोक्ष सुख ढोहि तोहि ऐसी मति सोही है ॥३६॥ "
जिस आत्मा के हृदय में सम्यग्ज्ञान की निर्मल ज्योति प्रदीप्त होती है, उस आत्मा का जीवन सहज पवित्रता के रस से शोभित होता है। वह विषय - सुखों में आसक्त होता है, ऐसा जिन्हें भ्रम है, उनके समाधान निमित्त कविवर बनारसीदासजी कहते हैं
“ज्ञानकला जिसके घट जागी । ते जग माहिं सहज बैरागी ॥ ज्ञानी मगन विषै सुख माहीं । यह विपरीत सम्भवै नाहीं ॥ ४० ॥ ज्ञानशक्ति वैराग्यबल शिवसाधे समकाल ।
ज्यों लोचन न्यारे रहें, निरखे दोऊ ताल ॥४१॥"
१. अनादिबन्धपर्यायवशेन वीतरागस्वसंवेदनलक्षण-भेदज्ञानाभावाद् रागादिपरिणामस्निग्धः सन्नात्मा कर्मवर्गणायोग्य-पुद्गलद्रव्यं कुम्भकारो घटमिव द्रव्यकर्मरूपेणोत्पादयति करोति स्थितिबन्धं बध्नात्यनुभागबन्धं परिणमयति प्रदेशबन्धं तप्तायः पिण्डो जलवत् सर्वात्मप्रदेशैर्गृह्णाति चेत्यभिप्रायः ॥ - जयसेनाचार्य - तात्पर्यवृत्ति टीका ।
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प्रस्तावना
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अमृतचन्द्रस्वामी ने कहा है
“सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्य-शक्तिः स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या। यस्माद् ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च
स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ॥”-समयसार कलश, १३६ सम्यक्त्वी के नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है, क्योंकि यह सम्यग्दृष्टि अपने वस्तुपना-यथार्थ स्वरूप का अभ्यास करने को अपने स्वरूप का ग्रहण और पर के त्याग की विधि कर 'यह तो अपना स्वरूप है और यह पर द्रव्य का है, ऐसे दोनों का भेद परमार्थ से जानकर अपने स्वरूप में ठहरता है और पर द्रव्य से सब तरह राग का योग छोड़ता है। आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं है
कोई लोग कर्म के मर्म को यथार्थ रूप से समझकर आत्मा को सर्वथा अकर्ता मानते हैं और कहते हैं कि जो कुछ भी परिणमन होता है, सब का कर्तृत्व कर्म पर है। जड़ की क्रिया होती है। सांख्यदर्शन भी पुरुष को कमलपत्र सम मानकर कर्म-जल से उसे पूर्णतया अलिप्त बताता है। वह प्रकृति को ही सब कुछ कर्ता-धर्ता मानता है। इस प्रकार की दृष्टि को महर्षि कुन्दकुन्द एकान्तवादी कहते हैं
__ "कम्मेहिं दु अण्णाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं।
। कम्मेहिं सुवाविज्जदि जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं ॥”-समयसार, गा. ३३२ -'यह जीव कर्म के ही द्वारा अज्ञानी किया जाता है। उसके द्वारा ही वह ज्ञानी किया जाता है। कर्म ही जीव को सुलाता है, कर्म ही उसे जगाता है।'
“कम्मेहिं भमाडिज्जदि उड्ढमहं चावि तिरियलोयं च।
कम्मेहिं चेव किज्जदि सहासहजे त्तियं किंचि ॥"-समयसार, गा. ३३२ - 'कर्म के कारण ही जीव ऊर्ध्व, मध्य तथा अधोलोक में भ्रमण करता है। जो कुछ भी शुभाशुभ कर्म हैं, वे भी कर्म के ही द्वारा किये जाते हैं। इस प्रकार कर्मैकान्त मानने वाले के अनुसार कर्म को ही कर्ता, हर्ता, दाता आदि माना जाए, तो क्या आपत्ति है? इस पर कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं
"जम्हा कम्म कुव्वदि कम्मं देदि हरत्ति जं किंचि।
तम्हा सव्वे जीवा अकारगा होति आवण्णा ॥"-समयसार, गा. ३३५ 'यतः कर्म ही सब कुछ करता है, देता है, हरण करता है, अतः सर्व जीवों में अकारकत्व आ गया।' पुनः उस एकान्त मान्यता में दोषोद्भावन कहते हैं
"पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि। एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी ॥३३६॥" तम्हा ण कोवि जीवो अबंभचारी दु तुम्हमुवदेसे। जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसदि जं भणिदं ॥३३७॥ जम्हा घादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा पयडी। एदेणत्येण दु किर भण्णदि परघादणामेत्ति ॥३३॥ तम्हा ण कोवि जीवो उवघादगो अत्थि तुम्ह उवदेसे। जम्हा कम्मं चेव हि कम्म घादेदि इदि भणियं ॥३३६॥ एवं संखुवदेसं जेदु परूविंति एरिसं समणा। तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे ॥३४०॥"
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इस विषय में आचार्य कहते हैं- 'पुरुष नामक कर्म के उदय से स्त्री की अभिलाषा उत्पन्न होती है । स्त्री कर्म के कारण पुरुष की वांछा होती है। ऐसी बात स्वीकार करने पर कोई भी अब्रह्मचारी नहीं होगा, कारण कर्म ही कर्म की अभिलाषा करता है, यह कहा जाएगा।
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कोई जीव दूसरे को मारता है या मारा जाता है, इसका कारण परघात, उपघात नाम की प्रकृतियाँ हैं । यह मानने पर कोई वध करने वाला न होगा । कारण यह कथन किया जाएगा कि कर्म ही कर्म का घात करने वाला है। इस प्रकार जो सांख्य सिद्धान्त के अनुसार मानते हैं, उनके यहाँ प्रकृति ही करती है और सर्व आत्मा अकारक हुए।
समन्वय पथ-इस जटिल समस्या को सुलझाते हुए अनेकान्त विद्या के मार्मिक आचार्य अमृतचन्द कहते हैं
" मा कर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः
कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः । ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेव स्वयं
पश्यन्तु च्युतकर्मभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ॥” – समयसारकलश, २०५
- 'अर्हन्त भगवान् के भक्तों को यह उचित है कि वे सांख्यों के समान जीव को सर्वथा अकर्ता न मानें, किन्तु उनको भेदविज्ञान होने के पूर्व आत्मा को सदा कर्ता स्वीकार करना चाहिए । जब भेदविज्ञान की उत्पत्ति हो जाए, तब आत्मा को कर्म भावरहित, अविनाशी, प्रवृद्ध ज्ञान का पुंज, प्रत्यक्षरूप एक ज्ञातारूप में दर्शन करो।'
आचार्य महाराज की देशना का भाव यह है कि जब तक भेदविज्ञान ज्योति के प्रकाश से आत्मा आलोकित नहीं हुई है, तब तक आत्मा को रागादिरूप भाव कर्मों का कर्ता मानो । भेद - विज्ञान की उपलब्धि के पश्चात् आत्मा को ज्ञाता - द्रष्टा मानो । बहिरात्मा में कर्म-कर्तृत्व का भाव मानना चाहिए । परिग्रह-रहित योगरूप अन्तरात्मा को अपने ज्ञान स्वभाव का कर्ता जानना उचित है। आत्मा निर्विकल्प समाधि की अवस्था में अकर्ता कहा गया है । भेद-ज्ञान निर्विकल्प समाधिरूप अवस्था का ज्ञापक है । जयसेनाचार्य समयसार टीका में कहते हैं- “ततः स्थितमेतत्, एकान्तेन सांख्यमतवदकर्ता न भवति किं तर्हि रागादिविकल्परहित-समाध लक्षण-भेदज्ञानकाले कर्मणः कर्ता न भवति, शेष काले कर्तेति” ( गाथा ३४४ ) - अतः यह बात जाननी चाहिए कि आत्मा सांख्यमत के समान अकर्ता नहीं है । वह रागादि विकल्परहित समाधिरूप भेद - विज्ञान के काल में कर्मों का कर्ता नहीं है; शेषकाल में कर्ता होता है । यह विकल्परहित समाधि गृहस्थावस्था में असम्भव है । मुनिपद में ही वह होती है। इस प्रकार दृष्टिभेद से आत्मा में कर्तृत्व और अकर्तृत्व का समन्वय किया जाता है। अकर्तापने का एकान्तपक्ष सांख्यदर्शन की मान्यता है । स्याद्वादशासन की मान्यता एकान्तवाद रूप नहीं हो सकती है ।
सांख्यतत्त्वकौमुदी में कहा है
" तस्मान्न बध्यतेऽसौ न मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥६२॥”
इससे कोई भी पुरुष न बँधता है, न मुक्त होता है, न परिभ्रमण करता है । अनेक आश्रयों को ग्रहण करने वाली प्रकृति का ही संसार होता है, बन्ध होता है तथा मोक्ष होता है।
भेदज्ञान का रहस्य - इस पद्य से स्पष्ट हो जाता है कि जो आत्मा की निश्चयनय की अपेक्षा प्रतिपादित शुद्धता को ही एकान्त रूप से ग्रहण कर उसे सर्वथा कर्मबन्ध रहित मानते हैं, वे यथार्थ में सांख्यदर्शनवाले बन जाते हैं । सर्वज्ञ अरहन्त भगवान् की वाणी अनेकान्त तत्त्व को सत्य का स्वरूप बताती । इस कारण जयसेनाचार्य ने कहा है- “ ततः स्थितमेतत्, एकान्तेन सांख्यमतवदकर्ता न भवति । किं तर्हि ? रागादिविकल्परहित-समाधिलक्षणभेदज्ञानकाले कर्मणः कर्ता न भवति, शेषकाले भवति” ( समयसार, गाथा
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प्रस्तावना
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३४४-टीका)-अतः यह बात निर्णीत है कि आत्मा एकान्तरूप से सांख्यमत के समान अकर्ता नहीं है। फिर आत्मा कैसी है? रागादि विकल्परहित समाधिरूप भेदज्ञान के समय यह कर्मों का कर्ता नहीं है। शेष काल में आत्मा कर्मों का कर्ता होता है। अर्थात् जब वह अभेद समाधिरूप नहीं होता है, तब उसके रागादि के कारण बन्ध हुआ करता है। भेदज्ञान का अर्थ अविरत सम्यक्त्वी का ज्ञान समझने से यह भ्रम होता है कि अविरत सम्यक्त्वी के बन्ध नहीं होता है। भेदविज्ञान निर्विकल्प समाधि का द्योतक है जो मुनिपद धारण करने के उपरान्त ही प्राप्त होती है। विकल्पजालपूर्ण गृहस्थावस्था में उसकी सम्यक कल्पना भी अशक्य
है।
आत्मा कर्मस्वरूप नहीं होता। मुनीन्द्र कुन्दकुन्द का कथन है
"जह सिप्पिओ दु कम्म कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि।
तह जीवो वि य कम्म कुव्वदि ण य तम्मओ होदि ॥" -समयसार, गा. ३४६ -जैसे शिल्पकार आभूषण आदि के निर्माण कार्य को करता है, किन्तु वह स्वयं आभूषण स्वरूप नहीं होता; उसी प्रकार यह जीव कर्मों को बाँधता हुआ भी कर्मस्वरूप नहीं होता है।
शिल्पकार सुनार आभूषण निर्माण में निमित्त कारण है, अतः वह अपने स्वरूप से भी च्युत नहीं होता और निमित्त कारण भी बनता है। इसी प्रकार जीव भी अपने स्वरूप का नाश नहीं करता है और कर्मों । बन्धन में निमित्त रूप भी रहा आता है। उपादान-उपादेय भाव का यहाँ निषेध किया गया है, निमित्त-नैमित्तिक-भाव की अपेक्षा कर्ता, कर्म, भोक्ता, भोग्यपने का व्यवहार उपयुक्त माना है। अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं"ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तन कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः”।
-समयसार, पृ. ४५५ शंका-सच्चा नय तो निश्चय नय है। व्यवहार तो अभूतार्थ है; मिथ्या है, अतः सांख्यदर्शन की तरह आत्मा को सदा पुरुष के समान निर्लेप शुद्ध मानना चाहिए। प्रत्यक्ष स्वीकार करने में भय नहीं करना चाहिए।
समाधान-सम्यग्ज्ञान के अंग होने से जितना सत्यपना निश्चय नय में है, उतना ही समीचीनपना व्यवहार नय में भी है। जो नय परस्पर में निरपेक्ष हो, अन्य नयको मिथ्या मानता है, वह स्वयं मिथ्या रूपता को प्राप्त होता है। निश्चय का यह कथन यथार्थ है कि जीव शुद्ध है, किन्तु व्यवहार का कथन भी सम्यक् है कि जीव में कथंचित कर्तत्व आदि भाव भी पाये जाते हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य पद्यनन्दि का 'पंचविंशतिका' के निश्चय पंचाशत अधिकार में किया गया प्रतिपादन महत्त्वपूर्ण है। वे कहते हैं
"व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः।
शुद्धनयमाश्रिता ये प्राप्नुवन्ति यतयः पदं परमम् ॥" -स"यसार, गा. ६ से उद्धृत व्यवहार नय अभूतार्थ है तथा शुद्धनय भूतार्थ कहा है। जो मुनीश्वर शुद्धनय का आश्रय लेते हैं, वह परम पद को प्राप्त करते हैं। यहाँ श्लोक में आगत 'यतयः' शब्द महत्त्वपूर्ण है। उससे गृहस्थ की व्यावृत्ति हो जाती है। आकुलता के जाल में फँसा हुआ परिग्रह पिशाच के द्वारा छला गया गृहस्थ शुद्ध दृष्टि का पात्र नहीं है। उसका कल्याण व्यवहार नय द्वारा प्रतिपादित पथ का आश्रय ग्रहण करने में है। सविकल्प अवस्थावाले श्रमण का भी अवलम्बन व्यवहार नय रहा करता है। शुद्धोपयोगी निर्विकल्प समाधिवाला दिगम्बर मुनि अभेद दृष्टि रूप निश्चय नय का आश्रय लेता है। पदमनन्दि आचार्य कहते हैं
“तत्त्वं वागतिवर्ति व्यवहृतिमासाद्य जायते वाच्यम्। गुण-पर्यायादि-विवृत्तेः प्रसरति तच्चापि शतशाखम् ॥" -पदमनन्दिपंच. श्लो. 10
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वास्तविक दृष्टि से अथवा निश्चय नय की अपेक्षा तत्त्व का स्वरूप वचन के अगोचर है, किन्तु व्यवहार नय का आश्रय ले वह कथंचित् वाणी का विषय हो जाता है। गुण, पर्याय आदि के भेद से वह सैकड़ों भेद युक्त हो जाता है। वस्तु का विवेचन भेदग्राही व्यवहार नय के द्वारा ही सम्भव है। एकान्तवादी व्यवहार नय को तिरस्कार और निन्दा का पात्र मानता है, किन्तु अनेकान्त तत्त्वज्ञान का सौन्दर्य समझनेवाला स्याद्वादी व्यवहार नय को भी आदरणीय स्वीकार करता है 1
महत्त्व की बात - 'पद्मनन्दि पंचविंशतिका' का यह कथन विशेष ध्यान देने योग्य है
το
“मुख्योपचार- विवृतिं व्यवहारोपायतो यतः सन्तः ।
ज्ञात्वा श्रयन्ति शुद्धं तत्त्वमिति व्यवहृतिः पूज्या ॥ ११ ॥ *
मुनीश्वर व्यवहारनय की सहायता से मुख्य तथा उपचार के भेद को समझकर शुद्ध तत्त्व का आश्रय लेते हैं, इस कारण व्यवहार - नय पूज्य है । 'व्यवहृतिः पूज्या' शब्द महान् आध्यात्मिक मुनीश्वर के द्वारा कहे गये हैं।
अभेद रत्नत्रयरूप अद्वैत तत्त्व में स्थित निश्चय नयवाला योगी परम पदवी को प्राप्त करता है। एकत्व वितर्क नामक शुक्ल ध्यान के द्वितीय भेद का आश्रय कर शुक्लध्यानी शुद्धोपयोगी मोहनीय कर्म को नष्ट करता है । वास्तव में शुद्ध तत्त्व नयादि के विकल्पों से अतीत है। उस अनुभव की दशा में व्यवहारनय और निश्चयनय दोनों समान रूप से अग्राह्य बन जाते हैं। पद्यनन्दि आचार्य कहते हैं
“नय - निक्षेप - प्रमिति प्रभृति - विकल्पोज्झितं परं शान्तम् ।
शुद्धानुभूति - गोचरमहमेकं धाम चिद्रूपम् ॥४५॥” निश्चयपंचाशत्
मैं नय, निक्षेप, प्रमाण आदि विकल्पों से रहित, परमशान्त, शुद्धानुभूतिगोचर चिद्रूप - तेजस्वरूप हूँ । जिनागम का रसपान करनेवाले को एकान्तवाद के दलदल से बचना चाहिए। 'तत्त्वज्ञान - तरंगिणी' का यह कथन हृदयग्राही है
" व्यवहारेण बिना केचित्रष्टाः केवल निश्चयात् ।
निश्चयेन बिना केचित् केवल व्यवहारतः ॥” -- तत्त्वज्ञानतरंगिणी
कोई लोग व्यवहार का लोप करके निश्चय के एकान्त से विनाश को प्राप्त हुए और कोई निश्चय दृष्टि को भूलकर केवल व्यवहार का आश्रय ले विनष्ट हुए । अतएव समन्वय की पद्धति अभिवन्दनीय है । अतः उक्त ग्रन्थकार कहते हैं
" द्वाभ्यां दृग्भ्यां बिना न स्यात् सम्यग्द्रव्यावलोकनम् । यथा तथा नयाभ्यां चेत्युक्तं च स्याद्वादिभिः ॥”
जैसे दोनों नेत्रों के बिना सभ्यक् प्रकार से वस्तु का अवलोकन नहीं होता है, उसी प्रकार दोनों नयों के बिना भी यथार्थ रूप में वस्तु का ग्रहण नहीं होता ऐसा भगवान् ने कहा 1
महान् भ्रम - लोग प्रायः लोकाचार तथा लौकिक व्यवहार को (formalities) व्यवहार नय सोचते हैं और निश्चय को सुदृढ़ विचार ( determination) समझकर भ्रान्त धारणा बनाते हैं। इसी के आधार पर वे कहते हैं कि किसी कार्य के सम्पादन के पूर्व निश्चय नय होता है, पश्चात् उसकी पूर्ति हेतु प्रवृत्ति व्यवहारनय है । यह कथन इतना ही विपरीत है, जितना बकराज को हंसराज बताना मिथ्या है। शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं, जिनका आगमानुसार अर्थ करना तत्त्वज्ञ का कर्तव्य है । सम्यग्ज्ञान के भेदनय का उपभेद व्यवहारनय निश्चयन का साधक है। दोनों में साधनसाध्यभाव है । 'तत्त्वानुशासन' में कहा है
1
“मोक्षहेतुः पुनर्वेधा निश्चयाद् व्यवहारतः ।
तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥” – तत्त्वानुशासन, श्लो. २८
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प्रस्तावना
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मोक्षका मार्ग निश्चय तथा व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। उसमें निश्चयमोक्षमार्ग साध्यरूप है तथा व्यवहार मोक्षमार्ग साधनरूप है। 'तत्त्वार्थसार' में अमृतचन्द्र सूरि ने भी लिखा है
“निश्चय-व्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः।
तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥" -तत्त्वार्थसार साधन से साध्य की सिद्धि की जाती है, इससे साधनरूप व्यवहारनय पूर्ववर्ती होगा और साध्यरूप निश्चयनय पश्चाद्वर्ती होगा। इसका विपरीत कथन करना ऐसी ही विचित्र बात होगी, जैसे यह कहना कि पहले मोक्ष होता है, फिर बन्ध होता है। बुद्धिमान् तथा विवेकी व्यक्ति जैसे बन्धपूर्वक मोक्ष को स्वीकार करता है, उसी प्रकार अनेकान्त दृष्टि तत्त्वज्ञ साधनरूप व्यवहार दृष्टि को प्राथमिकता देकर साध्यरूप दृष्टि को पश्चाद्वर्ती मानेगा।
निश्चयनय और व्यवहारनय का आगम में क्या अर्थ है, यह 'तत्त्वानुशासन' में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है
"अभिन्न-कर्तृ-कर्मादि-विषयो निश्चयो नयः।
व्यवहारनयो भिन्न-कर्तृ-कर्मादि-गोचरः ॥२६॥ निश्चनय में कर्ता, कर्म, कारण आदि भिन्न नहीं होते हैं, अतः वह अभिन्न कर्तृ-कर्मादि विषयक है। वह अभेदग्राही (synthetic approach) है। व्यवहारनय कर्ता-कर्मादि भेद का ग्राहक है। वह (analytic approach) भेद दृष्टि युक्त है। समन्तभद्र स्वामी ने- 'आप्तमीमांसा' में वस्तु का स्वरूप भेद तथा अभेद रूप माना है-"भेदाभेदौ न संवृती"-भेद तथा अभेद वस्तु रूप हैं; कल्पना नहीं है।
निर्विकल्प समाधि की स्थिति सामान्य बात नहीं है। उस अवस्था में अद्भुत रूप से आत्मनिमग्नता पायी जाती है। भीम, अर्जुन तथा युधिष्ठिर ने मुनिपद को स्वीकार कर जब निर्विकल्प समाधि में तल्लीनता प्राप्त की थी, तब उनके शरीर पर जलते हुए लोहे के आभूषण पहनाये जाने पर भी वे पूर्णतया स्थिर थे। जब सुकुमाल मुनि निर्विकल्प समाधि का रसपान कर रहे थे, तब स्यालनी उनका शरीर भक्षण कर रही थी; फिर भी वे स्वरूप में निमग्न थे। सुकौशल मुनि की भी ऐसी ही अभेद रत्नत्रय रूप परिणति थी, जब व्याघ्री ने उनके शरीर का भक्षण किया था। उस निर्विकल्प समाधि की स्थिति के अनुसार सांख्य का आत्मा का अकर्तत्व पक्ष निर्दोष तथा यथार्थ है, किन्तु वह सविकल्पदशा में भी अकर्तत्व कहता है, इससे उसकी मान्यता पूर्णतया अवास्तविक बन जाती है।
अभेद स्वरूप में निमग्न योगी अद्वैत भाव को प्राप्त होता है। वेदान्तदर्शन भी उस अद्वैत का कथन करता है। इस प्रकार शुद्ध निश्चनय की दृष्टि वेदान्त की अद्वैत विचारधारा के सदृश प्रतीत होती है, किन्तु उसमें और जैन विचारधारा में इतना अन्तर है कि जैनदर्शन सविकल्प अवस्था में भेदरूप द्वैत दृष्टि को भी यथार्थ मानता है। वेदान्ती द्वैत दृष्टि को अयथार्थ तथा काल्पनिक बताता है। स्याद्वाद सिद्धान्त में अद्वैत दृष्टि प्राप्त व्यक्ति इस प्रकार अनुभव करता है
“एकमेव हि चैतन्यं शुद्धनिश्चयतोऽथवा।
कोऽवकाशः विकल्पानां तत्राखण्डैकवस्तुनि ॥१५॥* –पद्मनन्दिपंचविंशति, एकत्वाशीति शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा चैतन्य एक है, अद्वैत रूप है। उस अखण्ड आत्मस्वरूप में विकल्पों के लिए कोई स्थान नहीं है।
"बद्धो मुक्तोऽहमथ द्वैते सति जायते ननु द्वैतम्।
मोक्षायेत्युभय-मनोविकल्परहितो भवति मुक्तः ॥४६॥" -वही मैं बद्ध हूँ, मुक्त हूँ, ऐसी द्वैतबुद्धि द्वैतभाव के होने पर होती है। बद्ध और मुक्त के दोनों मानसिक विकल्पों का भय होना मोक्ष का कारण है।
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महाबन्ध
" बद्धो वा मुक्तो वा चिद्रूपो नय- विचारविधिरेषः ।
सर्वनय पक्षरहितो भवति हि साक्षात्समयसारः ॥५३॥” वही
चिद्रूप बद्ध है अथवा मुक्त है, यह नयय - दृष्टि का कथन है। सर्व प्रकार के नयपक्षरहित साक्षात् समयसार है।
'पंचास्तिकाय' में कहा है
"जो संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसुगदी ॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते ।
हिंदु विसयग्गहणं तत्तो रागो य दोसो वा ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि ।
इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिघणो सणिघणो वा ॥ " - गा. १२८ - १३०
- 'जो जीव संसार में स्थित है, उसके राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं । उन भावों से कर्मों का बन्धन होता है । कर्मों के कारण नरक आदि गतियों में गमन होता है। गतियों में जाने पर शरीर की प्राप्ति होती है । शरीर से इन्द्रियों की प्राप्ति होती है । इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ग्रहण होता है। इससे राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। संसार चक्र में परिभ्रमण करते हुए जीव के इस प्रकार के भाव होते हैं। जिनेन्द्र ने कर्म को सन्तति की अपेक्षा अनादि-निधन और पर्याय की अपेक्षा सादि कहा । इस विवेचन का निष्कर्ष यह है कि यह जीव राग-द्वेष के कारण इस अनादिनिधन संसार चक्र में परिभ्रमण किया करता है ।
कर्म को पौद्गलिक एवं मूर्तिक मानने में युक्ति
आत्मा से सम्बद्ध कर्मों को पौद्गलिक प्रमाणित करते हुए - 'पंचास्तिकाय' में लिखा है
" जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं भुंजदे णियदं ।
जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि ॥” – पंचास्तिकाय., गा. १३३
'जीव कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख के हेतु स्वरूप विषयों को मूर्तिमान् इन्द्रियों के द्वारा भोगता है, इससे कर्म मूर्तिक हैं । '
एक पुद्गल द्रव्य ही स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण विशिष्ट होने के कारण मूर्तिक है। अतः कर्मों में मूर्तिक पना सिद्ध होने पर उनकी पौद्गलिकता स्वयं प्रमाणित होती है।
टीकाकार अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं- 'मूर्तं कर्म मूर्तसम्बन्धेनानुभूयमानमूर्तफलत्वादाखुविषवत्, इति' - कर्म मूर्तिक हैं, कारण उसका फल मूर्तिक द्रव्य के सम्बन्ध से अनुभवगोचर होता है, जैसे चूहे के काटने से उत्पन्न हुआ विष। चूहे के काटने से शरीर में जो शोथ आदि विकार उत्पन्न होता है, वह इन्द्रियगोचर होने से मूर्तिमान् है, इससे उसका मूल कारण विष भी मूर्तिमान् होना चाहिए। इसी प्रकार यह जीव मणि, पुष्प, वनितादि के निमित्त से सुख तथा सर्प सिंहादि के निमित्त से दुःखरूप कर्म के विपाक का अनुभव करता है, अतः इस सुख-दुःख का कारण जो कर्म है, वह भी मूर्तिमान् मानना उचित है । '
जयधवला टीका (१।५७) में लिखा है - "तंपि मुत्तं चेव । तं कथं णव्वदे ? मुत्तोसहसंबंधेण परिणामांतरगमणण्णहाणुववत्तीदो। ण च परिणामांतरगमणमसिद्धं तस्स तेण विणा जरकुट्ठक्खयादीणं विणासाणुववत्तीए परिणामंतरगमणसिद्धीदो ।”—
१. “यदाखुविषवन्मूर्तसम्बन्धेनानुभूयते ।
यथास्वं कर्मणः पुंसा फलं तत्कर्म मूर्तिमत् ॥” अन. धर्मा, २,३०
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प्रस्तावना
८३ 'कर्म मूर्त हैं यह कैसे जाना? इसका कारण यह कि यदि कर्म को मूर्त न माना जाय तो मूर्त औषधि के सम्बन्ध से परिणामान्तर की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अर्थात् रुग्णावस्था में औषधि ग्रहण करने से रोग के कारण कर्मों की उपशान्ति देखी जाती है, वह नहीं बन सकती है। औषधि के द्वारा परिणामान्तर की, प्राप्ति असिद्ध नहीं है, क्योंकि परिणामान्तर के अभाव में ज्वर, कुष्ठ तथा क्षय आदि रोगों का विनाश नहीं बन सकता, अतः कर्म में परिणामान्तर की प्राप्ति होती है, यह सिद्ध हो जाता है।' ।
कर्म मूर्तिमान् तथा पौद्गलिक है। जीव अमूर्तिक तथा अपौद्गलिक है, अतः जीव से कर्मों को सर्वथा भिन्न मान लिया जाय, तो क्या दोष है? इस विषय में वीरसेनाचार्य 'जयधवला' में इस प्रकार प्रकाश डालते हैं- 'जीव से यदि कर्मों को भिन्न माना जाए, तो कर्मों से भिन्न होने के कारण अमूर्त जीव का मूर्त शरीर तथा औषधि के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता। इससे जीव तथा कर्मों का सम्बन्ध स्वीकार करना चाहिए। शरीर आदि के साथ जीव का सम्बन्ध नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते, कारण शरीर के छेदे जाने पर दुःख की उपलब्धि देखी जाती है। शरीर के छेदे जाने पर आत्मा में दुःख की उत्पत्ति से जीवकर्म का सम्बन्ध सूचित होता है। एक के छेदे जाने पर दूसरे में दुःख की उत्पत्ति नहीं पायी जाती। ऐसा मानने पर अव्यवस्था होगी।
भिन्नता का पक्ष मानने पर जीव के गमन करने पर शरीर का गमन नहीं होना चाहिए, कारण दोनों में एकत्व का अभाव है। ओषधिसेवन भी जीव की नीरोगता का सम्पादक नहीं होगा, कारण ओषधि शरीर के द्वारा पिई गयी है। अन्य के द्वारा पिई गयी औषधि अन्य की नीरोगता को उत्पन्न नहीं करेगी। इस प्रकार की उपलब्धि नहीं होती। जीव के रुष्ट होने पर शरीर में कम्प, दाह, गले का सूखना, नेत्रों की लालिमा, भौंहों का चढ़ना, रोमांच का होना, पसीना आना आदि बातें शरीर में नहीं होनी चाहिए, कारण उनमें भिन्नता है। जीवन की इच्छा से शरीर का गमनागमन, हाथ, पाँव, सिर तथा अंगुलियों का हलन-चलन भी नहीं होना चाहिए। कारण वे पृथक् हैं। सम्पूर्ण जीवों के केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति, सम्यक्त्वादि हो जाना चाहिए, कारण सिद्धों के समान जीव से कर्मों का पृथक्पना है। अथवा सिद्धों में अनन्तगुणों का अभाव मानना होगा; किन्तु ऐसी बात नहीं पायी जाती; इससे कर्मों को जीव से अभिन्न श्रद्धान करना चाहिए। अमूर्त स्वभाव आत्मा को मूर्तिक कर्मों ने क्यों बाँधा?
प्रस्तुत समस्या पर प्रकाश डालते हुए अकलंकदेव आत्मा को कथंचित् मूर्तिक और कथंचित् अमूर्तिक बताते हैं। उन्होंने लिखा है :
"अनादिकर्मबन्धसन्तानपरतन्त्रस्यात्मनः अमूर्ति प्रत्यनेकान्तो बन्धपर्यायं प्रत्येकत्वात् स्यान्मूर्तम्, तथापि ज्ञानादिस्वलक्षणापरित्यागात् स्यादमूर्तिः। ...मदमोहविभ्रमकरी सुरां पीत्वा नष्टस्मृतिर्जनः काष्ठवदपरिस्पन्द उपलभ्यते, तथा कर्मेन्द्रियाभिभवादात्मा नाविभूतस्वलक्षणो मूर्त इति निश्चीयते।"-तत्त्वार्थवार्तिक, रा., पृ.८१
___ “अनादिकालीन कर्मबन्ध की परम्परा के अधीन आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकान्त है। बन्धपर्याय के प्रति एकत्व होने से आत्मा कथंचित् अमूर्तिक है, किन्तु अपने ज्ञानादि लक्षण का परित्याग न करने के कारण कथंचित् अमूर्तिक भी है। मद, मोह तथा भ्रम को उत्पन्न करने वाली मदिरा को पीकर मनुष्य स्मृतिशून्य हो काष्ठ की भाँति निश्चल हो जाता है तथा कर्मेन्द्रियों के अभिभव होने से अपने ज्ञानादि स्वलक्षण का अप्रकाशन होने से आत्मा मूर्तिक निश्चय किया जाता है।"१ इस विषय में 'प्रवचनसार' में एक मार्मिक बात कही गयी है
__ "रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि।
दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ॥२,८२।"
१. “वण्ण-रस-पंचगंधा दो फासा अट्ठ णिच्छया जीवे।
णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधा दो ॥-द्रव्यसंग्रह ७।"
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महाबन्ध
-"जिस प्रकार रूपादिरहित आत्मा रूपी द्रव्यों तथा उनके गुणों को जानता-देखता है, उसी प्रकार रूपादिरहित जीव पुद्गल कर्मों से बाँधा जाता है। कदाचित् ऐसा न माना जाय, तो यह शंका उत्पन्न होती है कि अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक पदार्थों को क्यों देखता जानता है। निष्कर्ष यह है, अमूर्तिक आत्मा अपने विशिष्ट स्वभाव के कारण जैसे मूर्तिक पदार्थों का ज्ञाता-द्रष्टा है, उसी प्रकार वह अपनी वैभाविक शक्ति के परिणमन विशेष से मूर्तिक कर्मों के-से बन्ध को प्राप्त करता है।' वस्तुस्वभाव तर्क के अगोचर है।"
'तत्त्वार्थसार' में कहा है- “आत्मा अमूर्तिक है, फिर भी उसका कर्मों के साथ अनादिनित्य सम्बन्ध है। उसके ऐक्यवश आत्मा को मूर्तिक निश्चय करते हैं।"२ आत्मा को कर्मबद्ध मानने का कारण
कोई-कोई सोचते हैं यह हमारा भ्रम है जो हम अपनी आत्मा में कर्मों का बन्धन स्वीकार करते हैं। यथार्थ ज्ञान होने पर विदित होता है कि आत्मा कर्मादि विकारों से रहित पूर्णतया परिशुद्ध है। ऐसे विचार वालों के समाधाननिमित्त विद्यानन्दिस्वामी 'आप्तपरीक्षा' (पृ. १) में लिखते हैं
“विचार प्राप्त संसारी जीव बँधा हुआ है, कारण यह परतन्त्र है; जैसे हस्तिशाला के स्तम्भ में बँधा हुआ हाथी परतन्त्र रहता है। इसी प्रकार संसारी जीव भी पराधीन होने के कारण बँधा हुआ है।" ।
जीव की पराधीनता को सिद्ध करने के लिए आचार्य कहते हैं-“यह संसारी जीव पराधीन है, कारण इसने हीनस्थान को ग्रहण किया है। कामवासनावश श्रोत्रिय ब्राह्मण वेश्या के घर को अंगीकार वेश्या का घर निन्द्य स्थान है। वहाँ उच्च ब्राह्मण की उपस्थिति प्रमाणित करती है कि वह अपनी वासना वेग से अत्यन्त पराधीन बन चुका है। इसी प्रकार हीन स्थान को अंगीकार करने वाला संसारी जीव परतन्त्र सिद्ध होता है।"
हीनस्थान क्या है, इस पर प्रकाश डालते हैं कि "संसारी जीव का शरीर ही हीनस्थान है, कारण वह शरीर दुःख का कारण है। जैसे कारागार दुःखप्रद होने के कारण हीनस्थान माना जाता है, उसी प्रकार यह शरीर भी हीनस्थान है।"
आत्मा यदि स्वतन्त्र होता, तो वह मूत्रपुरीषभण्डाररूप इस महान् अपावन घृणित देह को अपना आवासस्थल कभी न बनाता। विवश हो जीव को इस शरीर में रहना पड़ता है। मोहवश वह फिर इसमें आसक्त हो जाता है। प्रबुद्ध पुरुष शरीर में ममत्व भाव का त्याग करते हैं। जीव को विवश करनेवाला कर्म है।
यह विश्ववैचित्र्य कर्मों के कारण दृष्टिगोचर होता है। कोई धनवान् है, कोई गरीब है, कोई बीमार है, तो कोई नीरोग है, आदि विविधताओं का कारण कर्म है।
“अहं प्रत्ययवेधत्वाज्जीवस्यास्तित्वमन्वयात् । एको दरिद्रः एको हि श्रीमानिति च कर्मणः ॥" पंचाध्यायी-२.५०
'मैं हूँ' इस प्रकार अहं प्रत्यय से जीव का अस्तित्व ज्ञात होता है। यह ज्ञान अन्वय रूप से पाया जाता है। एक दरिद्र है, एक श्रीमान्, यह भेद कर्म के कारण है।
यह आत्मा तात्त्विक दृष्टि से विचार करे, तो उससे प्रतीत होगा कि यह जगत् एक रंग-मंच के समान
१. येन प्रकारेण रूपादिरहितो रूपीणि द्रव्याणि तद्गुणांश्च पश्यति जानाति च, तेनैव प्रकारेण रूपादिरहितो रूपिभिः कर्मपुद्गलैः किल बध्यते, अन्यथा कथममूर्तो मूर्तं पश्यति जानाति चेत्यत्रापि पर्यनुयोगस्यानिवार्यत्वात् (अमृतचन्दाचार्य
की टीका) २. “अनादिनित्यसम्बन्धात् सह कर्मभिरात्मनः।
अमूर्तस्यापि सत्यैक्ये मूर्तत्वमवसीयते ॥" -तत्त्वार्थसार, ५,१७
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प्रस्तावना
८५ है। यहाँ जीव विविध वेष धारण कर अपना अभिनय दिखाते हैं। अपना खेल दिखाने के अनन्तर वे वेष बदलते हैं। कर्मविपाक के अनुसार उनका वेष और अभिनय हुआ करता है।' विश्ववैचित्य कर्मकृत है
कोई लोग कर्मकृत विश्ववैचित्र्य को स्वीकार करते हुए भी कहते हैं-ईश्वर ही कर्मों के अनुसार इस अज्ञ जीव को विविध योनियों में पहुँचाकर दुःख और सुख देता है। महाभारत में लिखा है
“अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥* वनपर्व ३०,२८ कोई ईश्वर को सुख-दुःख का केवल निमित्त कारण मानते हैं। इस विषय में स्वामी समन्तभद्र अपनी 'आप्तमीमांसा' में कहते हैं
"कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः।
तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्ध्यशुद्धितः ॥६६॥" 'काम, क्रोध, मोहादिका उत्पत्तिरूप जो भावसंसार है, वह अपने-अपने कर्म के अनुसार होता है। वह कर्म अपने कारण रागादिकों से उत्पन्न होता है। वे जीव शुद्धता, अशुद्धता से समन्वित होते हैं।'
इस पर तार्किक पद्धति से विचार करते हुए आचार्य विद्यानन्दि 'अष्टसहस्री' में लिखते हैं कि अज्ञान, मोह, अहंकाररूप यह भाव-संसार है। यह एक स्वभाववाले ईश्वर की कृति नहीं है, कारण उसके कार्य में सुख-दुःखदि में विचित्रता दृष्टिगोचर होती है। जिस वस्तु के कार्य में विचित्रता पायी जाती है, उसका कारण एक स्वभाव विशिष्ट नहीं होता है। जैसे अनेक धान्य अंकुरादिरूप विचित्र कार्य अनेक शालिबीजादिक से उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार सुख-दुःखविशिष्ट विचित्र कार्यरूप जगत एक स्वभाव वाले ईश्वरकृत नहीं हो सकता।
जब कारण एक प्रकार का है, तब उससे निष्पन्न कार्य में विविधता नहीं पायी जाती। एक धान्य-बीज से एक ही अंकुर की उद्भूति होती है। इस प्राकृतिक नियम के अनुसार एक स्वभाव वाला ईश्वर क्षेत्र, काल तथा स्वभाव की अपेक्षा भिन्न शरीर, इन्द्रिय तथा जगत् आदि का कर्ता नहीं सिद्ध होता है। अनादि कर्मबन्ध का अन्त क्यों है?
प्रश्न-जब कर्मबन्ध और रागादिभाव का चक्र अनादि काल से चलता है, तब उसका भी अन्त नहीं होना चाहिए?
समाधान-यह शंका ठीक नहीं है। कारण अनादि की अनन्तता के साथ कोई व्याप्ति नहीं है। अनादि होते हुए भी सान्तता की उपलब्धि होती है। बीज वृक्ष की सन्तति को परम्परा की अपेक्षा अनादि कहते
१. All the world's a stage,
And all the men and women merely players; They have their exits and their entrances; And one man in his time plays many parts,
Shakespeare :-AS YOU LIKE IT. Act. II, Sc. VII.. २. अष्टस., पृ. २६८-२७३। ३. “संसारोऽयं नैकस्वभावेश्वरकृतः, तत्कार्यसुख-दुःखादिवैचित्र्यात्। न हि कारणस्यैकरूपत्वके कार्यनानात्वं युक्तं
शालिबीजवत्",-अष्टशती '४. इस सम्बन्ध में विशद चर्चा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, आप्तपरीक्षा आदि जैन ग्रन्थों में की गयी है।
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महाबन्ध
हैं। बीज को यदि दग्ध कर दिया जाए, तो फिर वृक्ष - परम्परा का अभाव हो जाएगा। कर्म बीज के नष्ट हो जाने पर भवांकुर की उत्पत्ति नहीं हो सकती । तत्त्वार्थसार में कहा है
“ दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः ।
कर्मबीजे तथा दग्धे न प्ररोहति भवाङ्कुरः ॥ - तत्त्वार्थसार, ८७
अकलंक स्वामी का कथन है कि आत्मा में आने वाला कर्ममल प्रतिपक्षरूप है, अतः वह आत्मगुणों के विकास होने पर क्षयशील हैं।
जैसे प्रकाश के आते ही सदा अन्धकाराक्रान्त प्रदेश से अन्धकार दूर होता है अथवा सदा शीत भूमि में गरमी के प्रकर्ष होने पर शीत का अपकर्ष होता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि के प्रकर्ष से मिथ्यात्वादिक विकारों का अपकर्ष होता है । रागादि विकारों के अपकर्ष में हीनाधिकता देखकर तार्किक समन्तभद्र कहते हैं कि ऐसी भी आत्मा हो सकती है जिसमें से रागादि का पूर्णतया क्षय हो चुका हो। २ उसे ही परमात्मा कहते हैं । ३
अनादि-सादि बन्धके विषय में अनेकान्त
प्रश्न- शंकाकार कहता है-आपका यह कथन कि 'कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः ' विचित्र कामादिक की उत्पत्ति कर्मबन्ध के अनुसार होती है', निर्दोष नहीं है। हम पूछते हैं, जीव और कर्मों का सम्बन्ध कब से है?
समाधान- द्रव्यदृष्टि अथवा सन्तति की अपेक्षा यह बन्ध अनादि है। पर्याय की अपेक्षा यह सादि कहा जाता है। पंचाध्यायीकार का कथन है
“ यथाऽनादिः स जीवात्मा यथाऽनादिश्च पुद्गलः ।
द्वयोर्बन्धोऽप्यनादिः स्यात् सम्बन्धो जीवकर्मणोः ॥” – पञ्चाध्यायी, २,३५
जिस प्रकार जीवात्मा अनादि है, उसी प्रकार पुद्गल भी अनादि है । जीव और कर्मों का सम्बन्ध रूप बन्ध भी अनादि है ।
“द्वयोरनादिसम्बन्धः कनकोपलसन्निभः ।
अन्यथा दोष एव स्यादितरेतरसंश्रयः ॥” – पञ्चाध्यायी, २,३६
जीव और कर्मों का अनादि सम्बन्ध है; जैसे सुवर्ण-पाषाण में सुवर्ण द्रव्य किट्ट, कालिमादि विशिष्ट पाया जाता है, उसी प्रकार संसारी जीव भी अशुद्ध रूप में उपलब्ध होता है। ऐसा न मानने पर अन्योन्याश्रय दोष आता है।
" तद्यथा यदि निष्कर्मा जीवः प्रागेव तादृशः ।
बन्धाभावेऽथ शुद्धेऽपिं बन्धश्चेन्निर्वृतिः कथम् ॥” – पञ्चाध्यायी, २,३७
१. “प्रतिपक्ष एवात्मनामागन्तुको मलः परिक्षयी, स्वनिर्ह्रासनिमित्तविवर्धनवशात् ।” - अष्टशती । २. “ दोषावरणयोर्हानिर्निःशेषाऽस्त्यतिशायनात् ।
क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥” - आप्तमीमांसा, कारिका ४
३. अमितगति आचार्य कहते हैं
“यो दर्शन - ज्ञान - सुखस्वभावः समस्त संसारविकारबाह्यः । समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१३॥”
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प्रस्तावना
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यदि जीव पूर्व में कर्म रहित माना जाए, तो उसके बन्ध का अभाव होगा । शुद्धात्मा के भी बन्ध मानने पर मुक्ति कैसे होगी ?
यहाँ आचार्य का भाव यह है कि पूर्व अशुद्धता के बिना बन्ध नहीं होगा। पूर्व में शुद्ध जीव के भी कर्मबन्ध मान लेने पर निर्वाण का लाभ असम्भव हो जाएगा। जब शुद्ध जीव कर्म बाँधने लगेगा, तब संसार का चक्र पुनः पुनः चलने से मुक्ति का अभाव हो जाएगा।
यदि पुद्गल को अनादि से शुद्ध माना जाए, तो क्या बाधा है? पंचाध्यायीकार कहते हैं
“ अथ चेत्पुद्गलः शुद्धः सर्वतः प्रागनादितः । हेतोर्विना यथा ज्ञानं तथा क्रोधादिरात्मनः ॥
एवं बन्धस्य नित्यत्वं हेतोः सद्भावतोऽथवा ।
द्रव्याभावो गुणाभावे क्रोधादीनामदर्शनात् ! ॥ - पञ्चाध्यायी, २, ३८-३६
- यदि पुद्गल को अनादि से शुद्ध मान लिया जाए तो जैसे बिना कारण के स्वभावतः जीव में ज्ञान पाया जाता है, उसी प्रकार क्रोधादि भी जीव के स्वभाव या गुण हो जाएँगे । क्रोधादि के सदा सद्भाववश बन्ध में नित्यता आ जाएगी। अथवा यदि क्रोधादि गुणों का अभाव माना जाएगा, तो स्वभाववान् या गुणी जीव का भी लोप हो जाएगा। क्रोधादि का अदर्शन पाया जाता है।
1
यहाँ अभिप्राय यह है कि यदि कामादिक कर्मबन्ध से उत्पन्न नहीं हुए, कारण पुद्गल सदा शुद्ध रहता है, तब ऐसी स्थिति में क्रोधादिक जीव के स्वभाव हो जाएँगे। संयमी पुरुषों में क्रोधादि विकारों का अदर्शन पाया जाता है । क्रोधरूप स्वभाव का अभाव होने पर स्वभाववान् आत्मा का भी लोप हो जाएगा। अतः पुद्गल को अनादि शुद्ध मानकर क्रोधादि को जीव का स्वभाव मानना अनुचित है। क्रोधादि भावों को कर्मकृत मानना ही श्रेयस्कर है। ग्रन्थकार कहते हैं
“पूर्वकर्मोदयाद्भावो भावात्प्रत्यग्रसंचयः ।
तस्य पाकात्पुनर्भावो भावाद् बन्धः पुनस्ततः ॥ एवं सन्तानतोऽनादिः सम्बन्धो जीवकर्मणोः ।
संसारः स च दुर्मोच्यो विना सम्यग्दृगादिना ॥” – पश्चाध्यायी, २,४२-४३
- पूर्वकर्मोदय से रागादि भाव होते हैं । उन भावों से आगामी कर्म का संचय होता है। उस कर्म विपाक से पुनः रागादिभाव होते हैं । उन भावों से पुनः बन्ध होता है। इस प्रकार जीव तथा कर्म का सम्बन्ध सन्तान की अपेक्षा अनादि है । सम्यग्दर्शनादि के बिना यह संसार दुर्मोच्य है ।
निष्कर्ष - आत्मा और कर्म का सादि सम्बन्ध स्वीकार करने पर दोषों का उद्भावन ऊपर किया जा चुका है। यह भी कहा जा चुका है कि वर्तमान आत्मा परतन्त्र है । वह कर्मों के अधीन है। यह कर्मबन्धन सादि स्वीकार करने में भयंकर आपत्तियाँ आती हैं । यदि आत्मा को शुद्ध, बुद्ध, सर्वज्ञ, आनन्दमय तथा अनन्त शक्तिमान माना जाए, तो यह प्रश्न होता है कि वह संसार के बन्धन में कैसे फँस गया? पूर्व में शुद्ध का बन्धन में आना ऐसा ही असंगत और असम्भव है, जैसे बीज के दाह किये जाने पर उससे वृक्ष का प्रादुर्भाव मानना असंगत और असम्भाव्य है । जीव की बन्धन अवस्था स्वयंसिद्ध अनुभव गोचर है। उसके लिए तर्क की जरूरत नहीं है।
ऐसी स्थिति में एक ही मार्ग निरापद बचता है कि कर्म और आत्मा का अनादि सम्बन्ध माना जाए। इसके सिवाय कोई और मध्यम मार्ग नहीं है। आत्मशक्ति के विकसित होने पर कर्मों का बन्धन शिथिल होने लगता है और शक्ति के पूर्ण प्रबुद्ध होने पर कर्मों का नाश हो जाता है। फिर वह शुद्ध जीव कर्मबन्धन में नहीं फँसता है । सर्वज्ञ तथा अनन्तशक्ति युक्त शुद्ध जीव कर्मों के जाल में फँसने का कदापि उद्योग नहीं करेगा।
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τι
महाबन्ध
कर्मों के आस्रव का कारण योग है।
इस जीव के कर्मबन्धन का कारण रागादिभावों को कहा है : कर्मों के आगमन में कारण-आत्म-प्रदेशों का परिस्पन्दन होना । मनोवर्गणा, वचनवर्गणा अथवा कायवर्गणा के अवलम्बन से आत्मप्रदेशों में सकम्पपना पाया जाता है । मन, वचन, काय का क्रियारूप योग के द्वारा नवीन कर्मों का आस्रव - आगमन तथा जीव के साथ संयोग होता है। योगों के त्रयात्मक भेदों पर प्रकाश डालते हुए आचार्य वीरसेन धवलाटीका (१,२७६) में लिखते हैं- “कः पुनः मनोयोग इति चेद्भावमनसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो मनोयोगः । तथा वचसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो वाग्योगः । कायक्रियासमुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नः काययोगः । " - "मनोयोग का क्या स्वरूप है? भावमन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, उसे मनोयोग कहते हैं। इसी प्रकार वचन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, उसे वचनयोग कहते हैं और काय की क्रिया की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, उसे काययोग कहते हैं।' यह योग ध्यानरूप योग से भिन्न है ।
पुण्य-पाप का विश्लेषण
प्रश्न - 'सर्वार्थसिद्धि' में यह शंका की गयी है कि जिस योग के द्वारा पुण्य कर्म का आस्रव होता है, उसी योग के द्वारा क्या पाप का आस्रव होता है?
समाधान-‘शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य' (त. सू. ६, ३) - शुभयोग के द्वारा पुण्य का आस्रव होता है तथा अशुभयोग के द्वारा पाप का आस्रव होता है। शुभयोग अशुभयोग की परिभाषा 'सर्वार्थसिद्धि' में इस प्रकार की गयी है- “ शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभः " - शुभ परिणामों से रचित योग शुभ है तथा अशुभ परिणामों के द्वारा रचित योग अशुभ है जिस शुभ परिणाम के द्वारा पुण्य का आस्रव होता है, उसके विषय में कुन्दकुन्द स्वामी ने 'प्रवचनसार' में इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है
“देवद - जदि - गुरु- पूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु ।
उपवासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा ॥” – प्रवचनसार १,६६
जिनेन्द्र भगवान् रूप देवता, इन्द्रियजय के द्वारा शुद्धात्म स्वरूप के विषय में तत्पर यति (इन्द्रियजयेन शुद्धात्मस्वरूप प्रयत्नपरो यतिः), स्वयं भेदाभेदरूप रत्नयत्रय के आराधक तथा उस रत्नत्रय के आकांक्षी भव्यों को जिनदीक्षा देनेवाले गुरु (स्वयं भेदाभेद - रत्नत्रयाराधकस्तदर्थिनां भव्यानां जिनदीक्षादायको गुरुः) तथा उनकी प्रतिमा की द्रव्य तथा भावरूप पूजा ( द्रव्य भावरूपा पूजा), चार प्रकार का दान देना, शीलव्रतादि का परिपालन तथा उपवासादि शुभ अनुष्ठानों में जो व्यक्ति अनुरक्त होता है तथा अशुभ अनुष्ठानों से विरत रहता है, वह जीव शुभ उपयोगवाला होता है ।
जीवघात, चोरी आदि अशुभ कार्य, सत्य, पीड़ाकारी हिंसारूप अशुभ वचन तथा ईर्ष्या, जीवबन्धादि रूप अशुभ मन से अशुभ उपयोग होता है । 'प्रवचनसार' में लिखा है
“धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्ध संपयोगजुदो ।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ॥” - प्रवचनसार १,११
धर्म से परिणत आत्मा जब शुद्धोपयोग रूप परिणति को धारण करता है, तब वह निर्वाण सुख को प्राप्त करता । धर्म से परिणत आत्मा जब शुभोपयोग को प्राप्त होता है, तब वह स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है ।
इस विषय को स्पष्ट करते हुए जयसेनाचार्य तात्पर्यवृत्ति टीका में कहते हैं- “तत्र यच्छुद्धं सम्प्रयोगशब्द वाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं वीतरागचारित्रं तेन निर्वाणं लभते " - गाथा में आगत 'शुद्ध सम्प्रयोग' शब्द के द्वारा वाच्य जो शुद्धोपयोग स्वरूप वीतराग चारित्र है, उससे निर्वाण प्राप्त होता है। वीतराग चारित्र ध्यानस्थ मुनि
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के ही होता है। आत्मसमाधि में स्थित परमध्यानी मुनिराज के ही शुद्धोपयोग होता है। सरागसंयमी अवस्था में मुनिराज के शुद्धोपयोग नहीं होता है। अतः गृहस्थावस्था में शुद्धोपयोग की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जब सरागी सकलसंयमी महाव्रती भावलिंगी मुनीश्वर के शुद्धोपयोग का अभाव है, तब असंयमी अथवा देशसंयमी श्रावक के शुद्धोपयोग का अभाव स्वयमेव सिद्ध होता है। "निर्विकल्प समाधिरूप-शुद्धोपयोगशक्त्यभावे सति यदा शुभोपयोगरूप-सरागचारित्रेण परिणमति, तदाऽपूर्वमनाकुलत्वलक्षण-पारमार्थिकसुखविपरीतमाकुलत्वोत्पादक स्वर्गसुखं लभते, पश्चात् परमसमाधि-सामग्रीसद्भावे मोक्षं च लभते"-निर्विकल्प समाधि (अभेदरत्नत्रयरूपपरिणति) रूप शुद्धोपयोग की सामर्थ्य के अभाव होने पर जब वह जीव शुभोपयोग रूप (भेदरत्नत्रय रूप परिणति) सराग चारित्र को धारण करता है, उस समय वह अपूर्व, अनाकुलतास्वरूप परमार्थ सुख के विपरीत आकुलता का उत्पादक स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है। इसके अनन्तर वह परम समाधि (शुद्धोपयोग) को सामग्री का लाभ होने पर मोक्ष को भी प्राप्त करता है। इससे अमृतचन्द्र स्वामी कहते हैं कि शुद्धोपयोग परिणतिके द्वारा निर्वाण का सुख प्राप्त होता है, अतः “शुद्धोपयोग उपादेयः” -शुद्धोपयोग उपादेय है। सविकल्प अवस्थारूप भेद रत्नत्रयस्वरूप शुभोपयोग से आकुलता उत्पादक स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है, निर्वाण का सुख नहीं मिलता है; इससे 'शुभोपयोगो हेयः' मुनिराज के लिए कथंचित् शुभोपयोग हेय है। (प्रवचनसार, १.११, पृ. १३)
हेय तथा उपादेय उपयोग-मुनि अवस्था में शुद्धोपयोग और शुभोपयोग दोनों होते हैं, अतः उस अपेक्षा से उपादेय तथा हेय का कथन किया गया है। गृहस्थावस्था में शुद्धोपयोग की पात्रता ही नहीं है; अतः उसकी अपेक्षा एकमात्र शुभोपयोग आश्रय योग्य होगा। शुभोपयोग कथंचित् हेय है, तो कथंचित् उपादेय भी है। निर्विकल्प समाधि निमग्न महामुनि की अपेक्षा शुभोपयोग हेय है, किन्तु उस उच्च ध्यान की प्राप्ति में असमर्थ मुनिराज के लिए शुभोपयोग उपादेय है। ऐसी स्थिति में गृहस्थ के लिए शुभोपयोग को हेय नहीं कहा जा सकता है। परम हेयरूप गृहस्थ की दशा है। उस स्थिति को ध्यान में रखते हुए उस आर्त, रौद्रध्यान के जाल में जकड़े हुए जीव का उद्धार शुभोपयोग के द्वारा ही होगा। यदि शुद्धोपयोग को उपादेय मानते हुए परिग्रह तथा पापाचार के त्याग से विमुख गृहस्थ ने शुभोपयोग को हेय सोचकर उसे छोड़ दिया, तो अशुभोपयोग के द्वारा उस गृहस्थ की दुर्गति होगी। अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं, “अत्यन्त हेय एवायमशुभोपयोगः”-अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है। शुद्धोपयोग उपादेय है। उसकी अपेक्षा शुभोपयोग हेय है, किन्तु अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है। ऐसी स्थिति में अशुभोपयोग की अपेक्षा शुभोपयोग उपादेय है। बुद्धिमान् व्यक्ति अत्यन्त हेय अशुभ का त्याग कर शुभ का आश्रय लेता है, क्योंकि वह Lesser art अपेक्षाकृत अल्प दोषरूप है।
उदाहरणार्थ-सत्परुष को ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिए। वह श्रेष्ठ व्रत है. किन्त जिसकी आत्मा पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन में असमर्थ है, उसे स्वस्त्रीसन्तोषव्रती बनने का कथन किया जाता है। यदि वह पर-स्त्री सेवन में प्रवृत्ति करता है, तो सत्पुरुष उसे महापापी कहते हैं। यद्यपि दोनों ही ब्रह्मचर्य व्रत पालन नहीं करते हैं और ब्रह्मचर्य की अपेक्षा स्त्रीमात्र का सेवन हेय है, किन्तु असमर्थ व्यक्ति की अपेक्षा स्वदारसन्तोषव्रती को शीलवान् कहकर उसकी स्तुति की जाती है तथा उसको परस्त्री सेवन का त्यागी होने से आदर का पात्र मानते हैं। इस उदाहरण के प्रकाश में शुद्धोपयोग ब्रह्मचर्य के समान परम उपादेय है। शुभोपयोग स्वदारसन्तोषव्रत के समान कथंचित् उपादेय है तथा अशुभोपयोग परस्त्री सेवन रूप महापाप के समान सर्वथा हेय है-अत्यन्त हेय है। स्वदारसंतोषी तथा परस्त्रीसेवी इन दोनों में स्त्रीसेवनरूपताका सद्भाव होते हुए भी स्वस्त्रीसंतोषी गृहस्थ की अवस्था उपादेय है। किन्तु परस्त्रीसेवन का कार्य अत्यन्त निषिद्ध है। इसी प्रकार अशुद्धोपयोगपना शुभ तथा अशुभ उपयोग में है, किन्तु गृहस्थ के लिए शुभ उपयोग उपादेय है तथा अशुभ उपयोग सर्वथा हेय है। दोनों को समान मानकर अशुभ की प्रवृत्ति से विमुख न होनेवाला अपार कष्ट पाता है। शीलवती सीता स्वर्ग गयी। कुशील परिणामवाला रावण नरक गया। दोनों को एक समान मानने वाला
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चतुर व्यक्ति नहीं कहा जाएगा। अशुभोपयोग के विषय में 'प्रवचनसार' में इस प्रकार कथन किया गया
“असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय रइयो।
दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्वंतं ॥" -प्रवचनसार, १,१२ अशुभोपयोग परिणति के द्वारा आत्मा दीन-दुःखी मनुष्य, तिर्यंच तथा नारकी होकर हजारों दुःखों से दुःखी होता हुआ संसार में निरन्तर भ्रमण करता है।
अशुभोपयोग के कारण संचित पापोदयवश जीव इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग, पीड़ाचिन्तवन आदि मलिन सामग्री को प्राप्त कर संक्लेशभाव-द्वारा पुनः पाप का बन्ध करता है।
पुण्य-पाप में समानता तथा भित्रता-संसर के कारणपने की अपेक्षा यद्यपि शुभोपयोग तथा अशुभोपयोग और उनके द्वारा प्राप्त पुण्य तथा पाप समान हैं, किन्तु उनमें दूसरी अपेक्षा से महान् भिन्नता है। पूर्ण ब्रह्मचर्य की अपेक्षा विचार करने पर स्वस्त्रीसन्तोष तथा परस्त्रीसेवन दोनों में स्त्री के सम्पर्क का त्याग नहीं है, किन्तु जैसे उन दोनों के फल को देखकर उनको भिन्न माना जाता है, उसी प्रकार अशुद्धोपयोग की अपेक्षा शुभ और अशुभ उपयोग यद्यपि समान हैं, किन्तु उनमें महान् भित्रता भी है। अध्यात्म शास्त्र में निश्चय नय की मुख्यता से शुद्धोपयोग को आदर्श मानकर अन्य उपयोगों को हेय कहा है; किन्तु निर्विकल्प समाधि में असमर्थ व्यक्ति की दृष्टि से शुभोपयोग और अशुभ उपयोग में भिन्नता माननी होगी। अमृतचन्द्रसूरि ने 'तत्त्वार्थसार' में कहा है
"हेतु-कार्यविशेषाभ्यां विशेषः पुण्य-पापयोः।
हेतु शुभाशुभौ भावी कार्ये चैव सुखासुखे ॥"-तत्त्वार्थसार आस्रवतत्त्व, श्लोक १०३ साधन और फल की भिन्नता से पुण्य तथा पाप में भिन्नता है। पुण्य और पाप के कारण भिन्न-भिन्न हैं। पुण्य का कारण शुभ परिणाम है, पाप का कारण अशुभ परिणाम है। पुण्य का फल इन्द्रियजनित सुख की उपलब्धि है तथा पाप का फल दुःख की प्राप्ति है। तात्त्विक बात-कुन्दकुन्द स्वामी ने 'वारसाणुवेक्खा' में यह महत्त्वपूर्ण कथन किया है
"सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स।
सुहजोगस्स गिरोहो सुद्धवजोगेण संभवदि ॥" -वारसाणुवेक्खा, गा. ६३ शुभ योगों में प्रवृत्ति होने पर अशुभ योग का संवर होता है। शुभ योग का संवर शुद्धोपयोगरूप परमसमाधि-द्वारा सम्भव है। सामान्यतया अध्यात्मशास्त्र का ऊपरी पल्लवग्राही परिचय प्राप्त व्यक्ति पूजा, दान, स्वाध्याय आदि सत्कार्यों को शुभोपयोगरूप कहकर उसके विरुद्ध अमर्यादित आक्षेपपूर्ण शब्द कहता है, किन्तु वह स्वयं को विकथा, पंचपाप, सप्तव्यसन आदि अशुभोपयोग के महान् दूतों के हाथों में सौंपता है। उसे यह ज्ञात होना चाहिए कि शुभोपयोग शुद्धोपयोग के द्वारा रुकेगा। शुद्धोपयोगरूप अभेद रत्नत्रय की आराधना महान् मुनीन्द्रों को भी कठिन है, परिग्रही गृहस्थ को वह उसी प्रकार असम्भव है, जिस प्रकार देव पर्यायवाले जीव को मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है। इसी कारण भव्य जीवों के कल्याणार्थ आचार्यों ने शुभोपयोग-द्वारा पुण्यसंचय को प्रशस्त मार्ग कहा है। हिन्दी के कुछ लेखकों और कवियों ने पुण्यबन्ध और शुभोपयोग के विरुद्ध इतना अतिरेकपूर्ण प्रतिपादन किया है कि वह एकान्तवाद की सीमा का स्पर्श कर जाता है।
पुण्य-संचय की प्रेरणा-अध्यात्मशास्त्र के मार्मिक आचार्य पद्यनन्दि भव्य जीव को पुण्यसंचय के लिए प्रेरणा करते है। अपनी 'पंचविंशतिका' के दानपंचाशत् अध्याय में वे कहते हैं
“दूरादभीष्टमभिगच्छति पुण्ययोगात् पुण्याद्विनाकरतलस्थमपि प्रयाति।
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अन्यत्परं प्रभवतीहं निमित्तमात्रं
पात्रं बुधा भवत निर्मलपुण्यराशेः ॥” – पद्मनन्दिपंचविंशविक्रका, श्लोक १७
पुण्य के होने पर दूर से भी अभीष्ट वस्तु का लाभ होता है। पुण्य के बिना अर्थात् पापोदय होने पर हाथ में रखी हुई वस्तु भी उपयोग में नहीं आ पाती। पुण्य को छोड़कर अन्य सामग्री निमित्तमात्र है । अतः विवेकियो ! निर्मल पुण्य की राशि के पात्र बनो; अर्थात् पवित्र पुण्य का संग्रह करो ।
वे
पुनः कहते हैं
“ग्रामान्तरं व्रजति यः स्वगृहाद् गृहीत्वा पाथेयमुत्रततरं स सुखी मनुष्यः ।
जन्मान्तरं प्रविशतोऽस्य तथा व्रतेन
दानेन चार्जितशुभं सुखहेतुरेकम् ॥” - वही, श्लोक २६
जो व्यक्ति अपने घर से देशान्तर को जाते समय बढ़िया पाथेय - ( कलेवा) साथ में रखता है, वह सुखी रहता है। इसी प्रकार इस भव को छोड़कर अन्य भव में यदि सुख चाहिए तो व्रत पालन और पात्रदान करो । इससे प्राप्त किया गया शुभ अर्थात् पुण्य ही सुख का हेतु होगा ।
उनका यह कथन विशेष ध्यान देने योग्य है
"नार्थः पदात्पदमपि व्रजति त्वदीयो व्यावर्तते पितृवनादपि बन्धुवर्गः ।
दीर्घे पथि प्रवसतो भवतः सखैकं
पुण्यं भविष्यति ततः क्रियतां तदेव ॥” - वही, श्लोक ४३
६१
अरे जीव! तेरा धन एक डग भी तेरे साथ नहीं जाता है । बन्धुवर्ग श्मशान तक जाकर लौट जाते हैं । एक तेरा मित्र पुण्य ही तेरे साथ दूर तक जाएगा। इससे उस पुण्य को प्राप्त करो। आचार्य के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं । “पुण्यं भवतः सखा भविष्यति” - पुण्य ही तेरा मित्र रहेगा, क्योंकि वह तेरा साथ देगा। वे महान् आचार्य जिनेन्द्र की स्तुति करते समय अपने को “पुण्य-निलयोऽस्मि ” – मैं पुण्य का घर हूँ, ऐसा कहते हैं।
“धन्योऽस्मि पुण्यनिलयोऽस्मि निराकुलोऽस्मि
शान्तोऽस्मि नष्टविपदस्मि विदस्मि देव |
श्रीमज्जिनेन्द्र भवतोऽङ्घ्रियुगं शरण्यं
प्राप्तोऽस्मि चेदहमतीन्द्रिय- सौख्यकारि ॥६॥” – क्रियाकाण्डचूलिका ।
हे जिनेन्द्र ! मैं अतीन्द्रिय आनन्द के प्रदाता आपके चरणों की शरण को प्राप्त हुआ हूँ, इससे मैं धन्य हूँ। मैं पुण्य का भवन हूँ। मैं निराकुल हूँ। मैं शान्त हूँ। मैं संकटमुक्त हो गया हूँ तथा मैं ज्ञानवान् बन गया हूँ ।
'कल्याणमन्दिर स्तोत्र' में जिनेन्द्र भगवान् को करुणा तथा पुण्य की निवास भूमि कहा है
" त्वं नाथ ! दुःखि - जन-वत्सल हे शरण्य! कारुण्य- पुण्यवसते वशिनां वरेण्य ! | भक्त्यानते मयि महेश दयां विधाय
दुःखाङ्कुरोद्दलन - तत्परतां विधेहि ॥३६॥
हे स्वामिन्! आप दुःखी जीवों के प्रति प्रेमभाव धारण करते हैं, अतः आप दुःखीजनवत्सल हैं। हे शरण्यरूप भगवन्! हे करुणा और पुण्य की निवासभूमि, जितेन्द्रियों के शिरोमणि महेश, भक्तिपूर्वक मुझ
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महाबन्ध विनत पर आप दयाभाव धारण करके तत्काल मेरे दःखों के अंकरों को उच्छेद करने की कृपा
___ भगवज्जिनसेन स्वामी ने 'सहस्रनाम पाठ' में जिनेन्द्र भगवान् को पुण्यगी अर्थात् पुण्यवाणी युक्त, पुण्यवाक् पुण्यनायक, पुण्यधी, पुण्यकृत्, पुण्यशासन आदि नामयुक्त बताया है
"गुणादरी गुणोच्छेदो निर्गुणः पुण्यगीर्गुणः। शरण्यः पुण्यवाक् पूतो वरेण्यः पुण्यनायकः ॥ अगण्यः पुण्यधीगण्यः पुण्यकृत्पुण्यशासनः।
धर्मारामो गुणग्रामः पुण्यापुण्य-निरोधकः" ॥ -महाशोकध्वजादिशतकम्, ४-५ भगवान् को पुण्यराशि भी कहा है
"शुभंयुः सुखसाद्भूतः पुण्यराशिरनामयः।
धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायकः ॥ -दिग्वासादिशतम्, १० अनेकान्त शैली का मर्म न समझकर कोई-कोई निश्चयाभासी व्रतशुन्य गृहस्थ पुण्य को पाप के समान घृणा योग्य मानते हुए पुण्य को छोड़कर पाप की ओर प्रवृत्त होते हुए ऐसे लगते हैं, मानो वे गंगा को छोड़कर वैतरिणी की ओर प्रवृत्ति करते हैं अथवा अमृतघट को फोड़कर विषकुम्भ के रस को प्रेम तथा श्रद्धा से सेवन करते हैं।
पुण्य के फल की कथा विकथा नहीं है। वह तो धर्मकथा का अंग है, उसे संवेदनी कथा कहा है। “काणि पुण्णफलाणि? तित्थयर-गणहर-रिसिचक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहर-रिद्धाओ” (ध.टी. १,१०५)
पण्य के फल क्या हैं? तीर्थंकर. गणधर. ऋषि. चक्रवर्ती, बलदेव, वासदेव, सर, विद्याधर की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं। इन पुण्यफलों की प्राप्ति शुभोपयोग से होती है।
जिनेन्द्रदेव की आराधना-द्वारा पुण्य की प्राप्ति होती है। भरत चक्रवर्ती ने समवसरण में जाकर आदिनाथ भगवान् का स्तवन करते हुए कहा था
"भगवंस्त्वद् गुणस्तोत्राद् यन्मया पुण्यमर्जितम् ।
तेनास्तु त्वत्पदाम्भोजे परा भक्तिः सदापि मे ॥" -आ. जिनसेन, आदिपुराण, प. ३३,१६६ हे भगवान् ! आपके गुणस्तवन-द्वारा जो मैंने पुण्य प्राप्त किया है, उसके फलस्वरूप आपके चरण कमलों में मेरी सदा श्रेष्ठ भक्ति होवे। भगवज्जिनसेन की यह वाणी इस विषय के अज्ञानान्धकार को दूर कर देती है कि विवेकी गृहस्थ को पुण्यरूपी वृक्ष का रक्षण करना चाहिए या उसका उच्छेद करके पाप रूप विष का वृक्ष बोना चाहिए। आचार्य जिनसेन कहते हैं
"पुण्याच्चक्रधर-श्रियं विजयिनीमैन्द्रीं च दिव्यश्रियं पुण्यात्तीर्थकरश्रियं च परमां नैःश्रेयसी चाश्नुते। पुण्यादित्यसुभृच्छ्रियां चतसृणामाविर्भवेद् भाजनं
तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियः पुण्याग्जिनेन्द्रागमात् ॥"-आदिपुराण, प. ३०, श्लोक १२६ पुण्य से सर्वविजयिनी चक्रवर्ती की लक्ष्मी प्राप्त होती है। पुण्य से इन्द्र की दिव्यश्री प्राप्त होती है। पुण्य से ही तीर्थंकर की लक्ष्मी प्राप्त होती है तथा परम कल्याणरूप मोक्षलक्ष्मी भी पुण्य से प्राप्त होती है। इस प्रकार पुण्य से ही जीव चार प्रकार की लक्ष्मी को प्राप्त करता है। इसलिए हे सुधीजनो! तुम लोग भी जिनेन्द्र भगवान के पवित्र आगमन के अनुसार पुण्य का उपार्जन करो।
प्रश्न-आगम में पण्य प्राप्ति का क्या उपाय कहा है? यह प्रश्न उत्पन्न होता है। समाधान-महाकवि जिनसेन इस विषय का समाधान इस महत्त्वपूर्ण पद्य-द्वारा करते हैं
"पुण्यं जिनेन्द्र-परिपूजनसाध्यमाद्यं
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पुण्यं सुपात्र-गत-दानसमुत्थमन्यत् । पुण्यं व्रतानुचरणादुपवासयोगात्
पुण्यार्थिनामिति चतुष्टयमर्जनीयम् ॥" -आदिपुराण, प. २८, श्लोक २१६ जिनेन्द्र भगवान् की पूजा से उत्पन्न होने वाला पुण्य प्रथम है। सुपात्र को दान देने से उत्पन्न पुण्य दूसरा है। व्रतों के पालन से उत्पन्न पुण्य तीसरा है। उपवास करने से चौथा पुण्य होता है। इस प्रकार पुण्यार्थी पुरुष को पूजा, दान, व्रत तथा उपवास-द्वारा पुण्य का उपार्जन करना चाहिए।
प्रश्न-पूजा, दान, व्रत तथा उपवास से आत्मा को क्या लाभ होगा?
समाधान-इन चार कारणों से कषायभाव मन्द होते हैं। आत्मा की विभाव परणति न्यून होने लगती है। उससे अशुभ का संवर होता है। पूर्वबद्ध पापराशि प्रलय को प्राप्त होती है। इसी प्रकार पुण्य बन्ध के साथ मोक्ष के अंगरूप संवर और निर्जरा तत्त्वों की भी प्राप्ति होती है।
मुमुक्षु को मोक्षाभाव-जैन धर्म का कथन निरपेक्ष नहीं है। शुद्धोपयोगरूप परम समाधि की स्थिति में पुण्य उपादेय नहीं रहता है। उस अवस्था में यह जीव मुमुक्षु भी नहीं कहा जा सकता है। सूक्ष्म दृष्टि से विचारने पर यह कहना होगा कि मोक्ष जानेवाले व्यक्ति को मुमुक्षु की भी उपाधि से विमुक्त होना पड़ेगा। जब तक यह जीव मुमुक्षु रहेगा, तब तक उसे मोक्ष नहीं प्राप्त होगा और वह संसार में परिभ्रमण करेगा। "मोक्तुमिच्छु: मुमुक्षुः” –जिसके मोक्ष की इच्छा है, वह मुमुक्ष है। जब तक मोक्ष की इच्छा है, तब तक राग भाव है, क्योंकि इच्छा रागरूप परिणाम है। रागी को मोक्ष नहीं प्राप्त होता है; विरागी ही मोक्ष प्राप्त करता है।
पद्मनन्दिने ‘पंचविंशतिका' में कहा है"मोक्षेऽपि मोहादभिलाषदोषो विशेषतो मोक्षनिषेधकारी। यतस्ततोऽध्यात्मरतो मुमुक्षुभवेत्किममन्यत्र कृताभिलाषः ॥" --पद्मनन्दिपंच विंशतिका, श्लोक ५५
मोहवश मोक्ष की इच्छा भी दोष रूप है, जो विशेष रूप से मोक्ष की प्राप्ति में बाधक है; इससे आत्मतत्त्व में लीन मुमुक्षु अन्य पदार्थ की इच्छा कैसे करेगा?
उन्होंने यह भी कहा है कि परिग्रहधारी के सच्चा कल्याण असम्भव है। “परिग्रहवतां शिवं यदि तदानलः शीतलः" -यदि परिग्रही व्यक्ति को कल्याण का लाभ हो जाए, तो कहना होगा कि अग्नि शीतल हो गयी।
परम प्रवीण वीतराग ऋषियों ने संसारी विषयलोलुपी जीव की मनोदशा को सम्यक प्रकार ज्ञात कर उसे पुण्य के माध्यम से श्रेष्ठ इन्द्रियजनित सुखों की ओर आकर्षित करते हुए धर्म की ओर आकर्षित किया है तथा पश्चात् विषयसुख की निःस्सारता का उपदेश देकर उसे निर्वाण दीक्षा की ओर आकर्षित करते हैं और शुद्धोपयोगी बना मुक्तिश्री का स्वामी बना देते हैं। उनकी तत्त्वदेशना की पद्धति यह है कि जीव को सर्वप्रथम पापों से विमुख बनाकर पुण्य की ओर उन्मुख कर उसके फल वैभव को भी त्याग कर अकिंचन भावना द्वारा उसे त्रिलोकीनाथ बनाया जाए। जो व्यक्ति हीनप्रवृत्ति को अपनाकर पाप में निमग्न हो रहा है, उसे कोई पाप से विमुख न बनाकर पुण्यक्रियाओं से विमुख बनाता है, तो वह उस जीव के कल्याण के प्रति महान् शत्रुता दिखाता है। पूज्यपाद स्वामी का यह कथन स्मरणीय है
“अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः।
अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥" -समाधिशतक, श्लोक ८३ असंयमी जीवन-द्वारा पाप का संचय होता है। अहिंसादि व्रतों के द्वारा पुण्य की प्राप्ति होती है। पुण्य-पाप दोनों के क्षय होने पर मोक्ष होता है। इससे मोक्षार्थी मुनि अभेद रत्नत्रयरूप निर्विकल्प समाधि का आश्रय लेकर अव्रत के समान विकल्पात्मक व्रतों को भी त्यागे।
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विकास-क्रम-कोई-कोई सद्गुरु का शरण न मिलने से पाप को तो जोर से पकड़ते हैं और पुण्य को छोड़कर यह सोचते हैं कि उन्होंने मोक्षमार्ग को प्राप्त कर लिया है। उन्हें पूज्यपाद स्वामी-द्वारा 'समाधिशतक' में प्रतिपादित त्याग का यह क्रम हृदयंगम करना चाहिए
"अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः।।
त्यजेत्तानपि सम्प्राप्य परमं पदमात्मनः ॥"-समाधिशतक, श्लोक ८४ सर्वप्रथम प्राणातिपात, अदत्तादान, असत्यभाषण, कुशील सेवन, परिग्रहासक्तिरूप पाप के कारणों को-अव्रतों को छोड़कर अहिंसा, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहरूप व्रतों में पूर्णता प्राप्त करनी चाहिए। इसके पश्चात् आत्मा के निर्विकल्प स्वरूप में लीन हो परम समाधि को प्राप्त करता हुआ उन विकल्परूप व्रतों को छोड़कर आत्मा के परम पद को प्राप्त करे।
जब सविकल्प दशावाले परिग्रह-त्यागी मुनीश्वरों के लिए पुण्य का कारण शुभयोग अथवा शुभोपयोगयुक्त सरागसंयम आश्रयणीय है, तब प्रमादमूर्ति परिग्रही गृहस्थ के लिए आर्त, रौद्र ध्यान से सम्बन्धित अशुभयोग का त्याग करते हुए पुण्य हेतु शुभयोग सदा उपादेय रहता है। शुद्धोपयोग सर्वश्रेष्ठ । निधि है, किन्तु विषय कषायों के कारण जिसकी आत्मा अत्यन्त अशक्त है, वह निर्विकल्प परम समाधिरूप अप्रमत्त दशाको नहीं प्राप्त कर सकता है, अतः उसके लिए शुभोपयोग कथंचित् उपादेय है तथा अशुभयोग दुर्गति का बीज होने से सर्वथा तथा सर्वदा हेय है। अमृतचन्द्रसूरि की यह वाणी सर्वदा स्मरण योग्य है-“अत्यन्तहेय एवायमशुभोपयोगः”। 'आत्मानुशासन' में गुणभद्राचार्य कहते हैं
“परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्य-पापयोः प्राज्ञाः।
तस्मात्पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः ॥" ज्ञानी पुरुष पुण्य तथा पाप का कारण जीव का परिणाम ही कहते हैं, अतः निर्मल परिणामों के द्वारा पूर्वसंचित पाप का विनाश तथा आगामी पुण्य का संचय करना चाहिए। उन्होंने कहा है
"शुभाशुभे पुण्य पापे सुख-दुःखे च षट् त्रयम्।
हितमाघमनुष्ठेयं शेषत्रयमथाहितम् ॥" -वही, श्लोक २३६ शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप, सुख-दुःख से छह अर्थात् तीन युगल हैं। इनमें आधशुभ, पुण्य तथा सुख-ये तीन उपादेय हैं तथा शेष अशुभ, पाप और दुःख त्याज्य हैं।
"तत्राप्याद्यं परित्याज्यं शेषौ न स्तः स्वतः स्वयम् ।
शुभं च शुद्धे त्यक्त्वाऽन्ते प्राप्नोति परमं पदम् ॥" -वही, श्लोक २४० पूर्वोक्त शुभ, पुण्य और सुख इनमें से प्रथम शुभ का त्याग होने पर पुण्य तथा इन्द्रियजनित सुख स्वयमेव दूर हो जाएँगे। राग-द्वेषरहित उदासीनतारूप शुद्ध परिणति को प्राप्त होने पर शुभ का त्याग कर मोक्षरूप उत्कृष्ट पद को प्राप्त होता है।
यह बात स्मरण योग्य है कि योग्य के द्वारा कर्मों का आस्रव होता है। इसके पश्चात् आत्मा और कर्मों का एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध रूप बन्ध है।' उस समय की अवस्था को पंचाध्यायीकार इस प्रकार समझाते
१. “आत्माकर्मणोरन्योन्यानुप्रवेशात्मको बन्धः” -स.सि.।
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प्रस्तावना
“जीवः कर्मनिबद्धो हि जीवबद्धं हि कर्म तत् ॥ - २ । १०४
- जीव कर्म से निबद्ध हो जाता है और कर्म जीव से बद्ध हो जाता है। दोनों का परस्पर में संश्लेष होता है। इस संश्लेष तथा परस्पर बन्धनबद्धता का भाव यह है कि कर्म अपना फलोपभोग दिये बिना आत्मा से पृथक् नहीं होते ।
शंका - तत्त्वार्थसूत्र में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को बन्ध का कारण कहा है ( अ. ८, सू. १० ) । इसी प्रकार समयसार में भी मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग बन्ध का कारण गिनाया है। कहा भी है
“सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसाय-जोगा य बोधव्वा ॥ १०६ ॥ " 'गोम्मटसार' कर्मकाण्ड में मिथ्यात्व आदि को आस्रवरूप कहा है
“मिच्छत्तं अविरमणं कसाय-जोगा य आसवा होंति ।
पण बारस पण बीसं पण्णारसा होंति तब्मेया ॥ ७८६ ॥ "
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इस प्रकार भिन्न कथनों में कैसे समन्वय किया जा सकता है?
समाधान- इस विषय में 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' से इस प्रकार समाधान प्राप्त होता है । उसमें कहा है कि मिथ्यात्व आदि चारों कारण बन्ध और आस्रव में हेतु हैं, क्योंकि उनमें दोनों प्रकार की शक्तियाँ पायी जाती हैं; जिस प्रकार अग्नि में दाहकत्व और पाचकत्वरूप शक्तियों का सद्भाव पाया जाता है । जो मिथ्यात्वादि प्रथम समय में आस्रव के कारण होते हैं, उन्हीं से द्वितीय क्षण में बन्ध होता है, इसलिए पूर्वोक्त कथनों में अपेक्षा भेद है; वस्तुतः देशना में भिन्नता नहीं है । 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' के निम्नलिखित पद्य ध्यान देने योग्य हैं
" चत्वारः प्रत्ययास्ते ननु कथमिति भावास्रवो भावबन्धश्चैकत्वाद्वस्तुतस्तो बत मतिरिति चेतन्न शक्तिद्वयात्स्यात् । एकस्यापीह वह्नेर्दहन- पचन - भावात्म-शक्तिद्वयाद्वै वह्निः स्याद्दाहकश्च स्वगुणगणबलात्पाचकश्चेति सिद्धेः । मिथ्यात्वाद्यात्मभावाः प्रथमसमय एवास्रवे हेतवः स्युः पश्चात्तत्कर्मबन्धं प्रतिसमसमये तौ भवेतां कथञ्चित् । नव्यानां कर्मणागमनमिति तदात्वे हि नाम्नास्रवः स्याद्
आयत्यां स्यात्स बन्धः स्थितिमिति लयपर्यन्तमेषोऽनयोर्मित् ॥” – परिच्छेद ४
शंका- श्लोकवार्तिक में एक शंका उत्पन्न करके समाधान किया गया है। शंकाकार कहता है, “योग एव आस्रवः सूत्रितो न तु मिथ्यादर्शनादयोऽपीत्याह " - योग ही आस्रव कहा गया है, मिथ्यादर्शनादि को आस्रव नहीं कहा गया है, इसका क्या कारण है?
समाधान - ज्ञानावरणादि कर्मों के आगमन का कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्यादृष्टि ही होता है; सासादन सम्यग्दृष्टि आदि के नहीं होता है। अविरति पूर्णतया असंयत के ही पूर्णतया तथा एकदेश रूप से पायी जाती है, संयत के नहीं पायी जाती है। प्रमाद भी प्रमत्तपर्यन्त पाया जाता है; अप्रमत्तादि के नहीं । कषाय सकषाय के ही पायी जाती है, उपशान्त कषायादि के नहीं पायी जाती है । भोगरूप आस्रव सयोगकेवली पर्यन्त सबके पाया जाता है। अतः उसे आस्रव कहा है। मिथ्यादर्शनादि का संक्षेप से भोग में ही अन्तर्भाव हो जाता है । (६,२, पृ. ४४३ )
T
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महाबन्ध
आस्रव के भेद-'द्रव्यसंग्रह' में कहा है-जीव के जिन भावों से कर्मों का आगमन होता है उनको भावास्रव कहते हैं। कर्मों का आगमन द्रव्यास्रव है। भावास्रव में मिथ्यात्वादि का समावेश किया गया है।
"मिच्छत्ताविरदि-पमाद-जोग-कोधादओ अथ विण्णेया। पण-पण-पण-दस-तिय-चदु कमसो भेदा दु पुव्वस्स ॥"-द्रव्यसंग्रह, गा.३०
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग तथा क्रोधादि कषाय ये भावास्रव के भेद हैं। उनके क्रमशः पाँच, पाँच पन्द्रह, तीन तथा चार भेद कहे गये हैं।
“णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो स णेओ अणेयभेओ जिणक्खादो ॥"-द्रव्यसंग्रह, गा. ३१
ज्ञानावरणादि आठ कर्मों रूप परिणमन करने योग्य जो पुदगल आता है, वह द्रव्यास्रव है। उसके अनेक भेद होते हैं, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है।
आस्रव के उत्तर क्षण में बन्ध
आस्रव और बन्ध के पौर्वापर्य के विषय में विचार करते हुए पण्डितप्रवर आशाधरजी अपने 'अनगारधर्मामृत' में लिखते हैं
“प्रथमक्षणे कर्मस्कन्धानामागमनमास्रवः, आगमनानन्तरं द्वितीयक्षणादौ जीवप्रदेशेष्ववस्थानं बन्ध इति भेदः।"-पृ. ११२
प्रथम क्षण में कर्मस्कन्धों का आगमन-आस्रव होता है। आगमन के पश्चात् द्वितीय क्षणादिक में कर्मवर्गणाओं की आत्मप्रदेशों में अवस्थिति होती है, उसे बन्ध कहते हैं। यह उनमें अन्तर है। और भी ज्ञातव्य बात यह है
“आस्रवे योगो मुख्यो बन्धे च कषायादिः। यथा राजसभायामनुग्राह्यनिग्रह्ययोः प्रवेशने राजादिष्टपुरुषो मुख्यः, तयोरनुग्रहनिग्रहकरणे राजादेशः” (११२)।
“आस्रव में योग की मुख्यता है तथा बन्ध में कषायादिक की प्रधानता है। जैसे राजसभा में अनुग्रह करने योग्य तथा निग्रह करने योग्य पुरुषों के प्रवेश कराने में राज्य-कर्मचारी मुख्य है; किन्तु प्रवेश होने के पश्चात् उन व्यक्तियों को सत्कृत करना या दण्डित करना इसमें राजाज्ञा मुख्य है।"
इस प्रकार योग की मुख्यता से कर्मों के आगमन का द्वार खोल दिया जाता है। आगत कर्मों का आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध होना कषायादि की मुख्यता से होता है।
योग की प्रधानता से आकर्षित किये गये तथा कषायादि की प्रधानता से आत्मा से सम्बन्धित कर्म किस भाँति जगत की अनन्त विचित्रताओं को उत्पन्न करने में समर्थ होता है? कोई एकेन्द्रिय है, कोई दो इन्द्रिय है, आदि ८४ लाख योनियों में जीव कर्मवश अनन्त वेष धारण करता फिरता है। यह परिवर्तन किस प्रकार सम्पन्न होता है; इस विषय को कुन्दकुन्दस्वामी इन शब्दों-द्वारा स्पष्ट करते हैं
“जह पुरिसेणाहारो गहिओ परिणमदि सो अणेयविहं। मंसवसारुहिरादीभावे उदरग्गिसंजुत्तो ॥ तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं।
बज्झंते कम्मं ते णयपरिहीणा दु ते जीवा ॥"-समयसार, गा. १७६-१८० जैसे पुरुष के द्वारा खाया गया भोजन जठराग्नि के निमित्तवश मांस, चर्बी, रुधिर आदि पर्यायों को प्राप्त होता है, उसी प्रकार ज्ञानवान् जीव के पूर्वबद्ध द्रव्यास्रव बहुत भेदयुक्त कर्मों को बाँधते हैं। वे जीव परमार्थ दृष्टि से रहित हैं।
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प्रस्तावना
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आचार्य पूज्यपाद तथा अकलंक स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि (८,२) और राजवार्तिक (६,७) में भी यही लिखा है।
जिस प्रकार भोज्यवस्तु प्रत्येक के आमाशय में पहुँचकर भिन्न-भिन्न रूप में परिणत होती है, उसी प्रकार योग के द्वारा आकर्षित किये गये कर्मों का आत्मा के साथ संश्लेष होने पर अनन्त प्रकार परिणमन होता है। इस परिणमन की विविधता में कारण रागादि परणति की हीनाधिकता है।
क्या बन्ध का कारण अज्ञान है?
आत्मा के बन्धन-बद्ध होने का कारण कोई लोग अज्ञान या अविद्या को बताते हैं। अज्ञान से ही बन्ध होता है और ज्ञान से मुक्ति लाभ होता है-इस विचार की मीमांसा करते हुए स्वामी समन्तभद्र कहते हैं
"अज्ञानाच्चेद् ध्रुवो बन्धो ज्ञेयानन्त्यान केवली।
ज्ञानस्तोकाद्विमोक्षश्चेदज्ञानाद् बहुतोऽन्यथा ॥* -आप्तमीमांसा, कारिका, ६६ - “अज्ञान के द्वारा नियम से बन्ध होता है, ऐसा सिद्धान्त अंगीकार करने पर कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञकेवली न हो सकेगा, कारण ज्ञेय अनन्त हैं। अनन्त ज्ञेयों का बोध न होगा, अतः जिनका ज्ञान नहीं हो सकेगा, वे बन्ध के हेतु होंगे। इससे सर्वज्ञ का सद्भाव न होगा। कदाचित् यह कहा जाए कि समीचीन अल्पज्ञान से मोक्ष प्राप्त हो जाएगा, तो अवशिष्ट महान् अज्ञान के कारण बन्ध भी होगा। इस प्रकार किसी को भी मुक्ति का लाभ नहीं होगा।"
शंकाकार कहता है-आपके सिद्धान्त में भी तो अज्ञान को बन्ध तथा दुःख का कारण बताया गया है, फिर 'अज्ञान से बन्ध होता है' इस पक्ष के विरोध करने में क्या कारण है? देखिए, अमृतचन्द्र सूरि क्या कहते हैं?
“अज्ञानान्मृगतृष्णकां जलधिया धावन्ति पातुं मृगाः अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः। अज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरङ्गाब्धिवत्
शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कीभवन्त्याकुलाः ॥-समयसारकलश, श्लो. ५८ -अज्ञान के कारण मृगगण मृगतृष्णा में जल की भ्रान्तिवश पानी पीने के लिए दौड़ते हैं। अज्ञान के कारण लोग रस्सी में सर्प की भ्रान्ति धारण कर भागते हैं। जैसे पवन के वेग से समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार अज्ञानवश विविध विकल्पों को करते हुए स्वयं शुद्धज्ञानमय होते हुए भी अपने को कर्ता मानकर ये प्राणी दुःखी होते हैं।
समाधान-यहाँ मिथ्यात्व भाव विशिष्ट ज्ञान को अज्ञान मानकर उस अज्ञान की प्रधानता की विवक्षावश उपर्युक्त कथन किया गया है। यथार्थ में देखा जाए, तो बन्ध का कारण दूसरा है। राग-द्वेषादि विकारों सहित अज्ञान बन्ध का कारण है। थोड़ा भी ज्ञान यदि वीतरागता सम्पन्न हो तो कर्मराशि को विनष्ट करने में समर्थ हो जाता है। 'परमात्मप्रकाश' टीका में लिखा है
“वीरा वेरग्गपरा थोवं पि हु सिक्खिऊण सिझंति।
ण हु सिज्झति विरागेण विणा पढिदेसु वि सव्वसत्येसु ॥"-अ. २, दो. ८४ टीका -वैराग्यसम्पन्न वीर पुरुष अल्प ज्ञान के द्वारा भी सिद्ध हो जाते हैं। सम्पूर्ण शास्त्रों के पढ़ने पर भी वैराग्य के बिना सिद्ध पद की प्राप्ति नहीं होती।
१. “जठराग्न्यनुरूपाहारग्रहणवत्तीव्रमन्दमध्यमकषायाशयानुरूपस्थित्यनुभवविशेषप्रतिपत्त्यर्थम्"-स.सि. ८,२,२५२. २. “ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययदिष्यते बन्धः।" -सांख्यकारिका, ४४
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महाबन्ध
कुन्दकुन्द स्वामी ने 'भावपाहुड' में कहा है
"अंगाई दस य दुण्णिय चउदस-पुव्वाई सयलसुयणाणं।
पढिओ अ भव्वसेणो ण भाव-सवणत्तणं पत्तो ॥"-भावपाहुड, गा. ५२ भव्यसेन मुनि ने बारह अंग तथा चौदह पूर्व रूप सकल श्रुतज्ञान को पढ़ा था, फिर भी वे अन्तरंग से श्रमणपने को-भावलिंगी मुनिपने को नहीं प्राप्त हुए।
"तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य।
णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ ॥" -भावपाहुड, गा. ५३ निर्मल परिणाम मुक्त तथा महान् प्रभाव वाले शिवभूति मुनिराज ने 'तुष माष' भिन्न-दाल और छिलका जैसे पृथक् हैं, इस प्रकार मेरा आत्मा भी कर्मरूपी छिलके से जुदा है-इस पद को स्मरण करते हुए केवलज्ञान पाया था।
इसका यह अर्थ नहीं है कि शास्त्र का अभ्यास व्यर्थ है। उसका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है; किन्तु ऐसा नहीं है कि ज्ञानावरण के उदयवश मन्दज्ञानी, किन्तु विशुद्धचारित्र व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिले। सम्यक् चारित्र से समलंकत मन्दज्ञानी भी कैवल्यश्री का स्वामी होता है। मोह का क्षय अत्यन्त आवश्यक है। उसके साथ में आवश्यक अल्पज्ञान भी अद्भुत शक्तियुक्त हो जाता है। तार्किक समन्तभद्र अपने युक्तिवाद-द्वारा इस समस्या को सुलझाते हुए कहते हैं
"अज्ञानान्मोहिनो बन्धो न ज्ञानाद्वीतमोहतः।
ज्ञानस्तोकाच्च मोक्षः स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा ॥" -आप्तमीमांसा, कारिका., ६८ -'मोहविशिष्ट अर्थात मिथ्यात्वयुक्त व्यक्ति के अज्ञान से बन्ध होता है। मोहरहित व्यक्ति के ज्ञान से बन्ध नहीं होता है। मोहरहित अल्प ज्ञान से मोक्ष होता है। मोही के ज्ञान से बन्ध होता है।'
___ यहाँ बन्ध का अन्वयव्यतिरेक ज्ञान की न्यूनाधिकता के साथ नहीं है। इससे ज्ञान को बन्ध या मुक्ति का कारण नहीं माना जा सकता। मोहसहित ज्ञान बन्ध का कारण है और मोहरहित ज्ञान मुक्ति का कारण है। अतः यह बात प्रमाणित होती है कि बन्ध का कारण मोहयुक्त अज्ञान है और मुक्ति का कारण मोहका अभाव युक्त ज्ञान है; क्योंकि इसके साथ ही अन्वयव्यतिरेक सुघटित होता है।
शंका-यहाँ यह आशंका सहज उत्पन्न होती है कि इस कथन का सूत्रसार उमास्वामी के इस सूत्र के साथ विरुद्धता है-“मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः”-(८,१)-तत्त्वका अनवबोध, असंयम, असावधानता, क्रोध, मान, लोभ, तथा मन, वचन, कायकी चंचलता के द्वारा बन्ध होता है।
समाधान-इस विषय का समाधान करते हुए विद्यानन्दिस्वामी कहते हैं (अष्टसह.पृ. २६७) -मोहविशिष्ट अज्ञान में संक्षेप में मिथ्यादर्शन आदि का संग्रह किया गया है। इष्ट अनिष्ट फल प्रदान करने में समर्थ-कर्म बन्ध का हेतु कषायैकार्थसमवायी अज्ञान के अविनाभावी मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग को कहा गया है। मोह और अज्ञान में मिथ्यात्व आदि का समावेश हो जाता है। दोनों आ के कथन में तात्त्विक भेद नहीं है; केवल प्रतिपादनशैली की भिन्नता है। एकान्तदर्शनों में कर्म सिद्धान्त का असम्भवपन
स्वामी समन्तभद्र का कथन है कि यह कर्म बन्ध की व्यवस्था स्याद्वाद शासन में ही निर्दोष रीति से बनती है। एकान्त दर्शनों में कर्मबन्ध, फलानुभवन आदि बातें असम्भव हैं। वे कहते हैं-हे जिनेन्द्र!
१. “कुशलाऽकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित।।
एकान्तग्रहरक्तेषु नाथ स्वपरवैरिषु ॥"-आप्तमीमांसा, का. ८
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प्रस्तावना
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अनित्यैकान्त आदि सिद्धान्तवादियों के यहाँ पुण्य कर्म, पाप कर्म, परलोक सिद्ध नहीं होते। एकान्तग्रहाविष्ट लोग अनेकान्त पक्ष के विरोधी तो हैं ही, साथ ही वे स्वपक्ष के भी घातक हैं।
नित्यैकान्त अथवा अनित्यैकान्त पक्ष में क्रम तथा अक्रमपूर्वक अर्थक्रिया नहीं बनती। अर्थक्रियाकारित्वपने के अभाव में पुण्य-पाप बन्धादि की व्यवस्था भी नहीं हो सकती। उदाहरणार्थ, बौद्धदर्शन में कर्म की मान्यता है-यह स्थविर नागसेन और सम्राट् मिलिन्द के पूर्व प्रतिपादित प्रश्नोत्तर से ज्ञात होता है; किन्तु बौद्धदर्शन के सर्व क्षणिकवाद तत्त्व के साथ उस कथानक का सामंजस्य नहीं होता। बात यह है कि क्षणिक पक्ष में प्रत्येक पदार्थ क्षणस्थितिशील है, अतः उसमें कर्मों का बन्धन और फलोपभोग आदि की बातें क्षणिकत्व सिद्धान्त के विरुद्ध पड़ती हैं। हिंसादि पापों का कर्ता अकुशल कर्म का सम्पादन तथा फलानुभवन नहीं करेगा, कारण उसका हिंसादि कार्य क्षण में क्षय हो गया, अतः फलोपभोक्ता अन्य व्यक्ति होगा। क्षणिक पक्ष में वस्तु तथा लोकव्यवस्था नहीं बनती।
- इसे आप्तमीमांसाकार इस प्रकार समझाते हैं - "हिंसाका संकल्प करनेवाला द्वितीय क्षण में नष्ट हो चुका, अतः संकल्पविहीन व्यक्ति ने हिंसा की, ऐसा कहना होगा। हिंसक व्यक्ति का भी उत्तर क्षण में विनाश हो गया, इससे हिंसनकार्य के फलस्वरूप पीड़ा प्राप्त करने वाला और बन्धन में फँसने वाला ऐसा व्यक्ति होगा, जिसने न तो हिंसा का संकल्प किया और न हिंसा ही की है। इसी न्याय के अनुसार बन्धनबद्ध व्यक्ति तो नष्ट हो गया, मुक्ति प्राप्तकर्ता दूसरा ही होगा।" सूक्ष्म दृष्टि से विचारने पर इस प्रकार की विचित्र स्थिति और अव्यवस्था क्षणिकैकान्त पक्ष में उत्पन्न होती है।
क्षण-क्षण में पदार्थों का सर्वथा नाश स्वीकार करने पर किसी प्रकार की नैतिक जिम्मेदारी भी नहीं होगी। किये गये कर्मों का नाश और अकृत कर्मों का फलोपभोग होगा, ऐसे सिद्धान्त में कर्मबन्ध व्यवस्था नहीं बन सकती। नित्यैकान्त में दोष
एकान्त नित्य पक्ष अंगीकार करने पर क्रियाशीलता का अभाव होगा। अतः देश-क्रम का कारण देशान्तर गमन नहीं होगा। शाश्वतिक होने से कालक्रम नहीं बनेगा। सकल कालकलाव्यापी वस्तुको विशेष काल में स्थित मानने पर नित्यत्व का विरोध होगा। कदाचित् सहकारी कारण की अपेक्षा वस्तु में क्रम मानते हो, तो यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि सहकारी कारण उस पदार्थ में कुछ विशेषता उत्पन्न करते हैं या नहीं? यदि उसमें विशेषता की उत्पत्ति मानते हो तो नित्यत्व का एकान्त नहीं रहता है। यदि नित्य वस्तु में विशेषता उत्पन्न किये बिना भी सहकारी कारणों के द्वारा क्रम मानते हो, तो यह क्रमतत्त्व सहकारियों में ही रहेगा। दूसरी बात यह है कि नित्य वस्तु में देशक्रम, कालक्रम नहीं पाया जाता।
नित्य पदार्थ में युगपद् अर्थक्रियांकारित्व मानने पर एक ही समय में समस्त कार्यों की उत्पत्ति हो जाएगी और द्वितीय क्षण में क्रिया के अभाव में अवस्तुत्व हो जाएगा। अतः नित्यैकान्त पक्ष में अर्थक्रिया का अभाव होने से कर्मबन्ध की व्यवस्था भी नहीं बनती। ऐसी स्थिति में सांख्यादिकों की कर्ममान्यता उनकी मनोनीत सत्कार्यवाद रूप तत्त्व-व्यवस्था आदि के प्रतिकूल सिद्ध होती है।
१. "हिनस्त्यनभिसन्धातृ न हिनस्त्यभिसन्धिमत्।
बध्यते तद्वयोपेतं चित्तं बद्धं न मुच्यते ॥" -आप्तमीमांसा, का., ५१ २. प्रतिक्षणं भङ्गिषु तत्पृथक्तवान मातृघाती स्वपतिः स्वजाया।
दत्तग्रहो नाधिगतस्मृतिर्न न वत्वार्थ-सत्यं न कुलं न जातिः ॥ युक्त्यनुशासन, १६
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महाबन्ध
अद्वैत मान्यता में बाधा
अद्वैत पक्ष मानने पर कर्मव्यवस्था नहीं बनती।' लौकिक-वैदिक कर्म, कुशल-अकुशल कर्म, पुण्य-पाप कर्म आदि को स्वीकार करने पर अद्वैत मान्यता पर वज्रपात होता है। अविद्या के कारण कर्मद्वैत मानना भी युक्तिसंगत नहीं है; कारण ऐसी स्थिति में विद्या, अविद्या का द्वैत उपस्थित होगा। स्वामी समन्तभद्र का (आप्तमी. २६, २७) कथन है कि द्वैत के बिना अद्वैत नहीं बनता; जैसे हेतु के अभाव में अहेतु नहीं पाया जाता है। प्रतिषेध्यके बिना संज्ञावान् पदार्थ का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता। उनकी एक सुन्दर तथा सरल युक्ति है। यदि युक्ति से अद्वैततत्त्व मानते हो, तो साधन और साध्य का द्वैत उपस्थित होता है। कदाचित् अपने वचनमात्र से अद्वैत को प्रमाणित करते हो, तो इस पद्धति से द्वैत पक्ष भी क्यों नहीं सिद्ध किया जा सकता है? अतः प्रमाण एवं युक्तिविरुद्ध अद्वैत की एकान्त मान्यता में कर्मसिद्धान्त सिद्ध नहीं होता।
___ अनेकान्त शासन में ही समीचीन रूप से कर्म-बन्ध व्यवस्था सिद्ध होती है। एकान्तवादी अपनी दार्शनिक मान्यता के आधार पर कर्म-व्यवस्था को प्रमाणित नहीं कर सकते।
कर्मसिद्धान्त का अतिरेक
___ कर्मसिद्धान्त का अतिरेक भी इष्ट साधक नहीं है। इसके अतिरेकवश मनुष्य दैव के नाम पर अकर्मण्यता का आश्रय लेकर अपने विकास के मार्ग को अवरुद्ध करता है। कर्म को ही सब कुछ समझनेवाला कहता है-“यदत्र लिखितं भाले तस्थितस्यापि जायते” जो भाल में लिखा है वह उद्यम न करने पर भी प्राप्त हुए बिना न रहेगा। पौरुष करने में शक्ति लगाना व्यर्थ है-'विधिरेव शरणम्' भाग्य ही का भरोसा है; इस प्रकार दैवैकान्त के चक्र में फँसे हुए व्यक्ति प्रलाप करते हैं। स्वामी समन्तभद्र कहते हैं-“दैव से ही यदि प्रयोजन सिद्ध होता है, तो यह बताओ, जीव के प्रयत्न के द्वारा, दैव की उत्पत्ति क्यों होती है? आज जो हमारा पुरुषार्थ है, भावी जीवन के लिए वह दैव बन जाता है। पूर्वकृत कर्म को छोड़कर दैव और क्या
है?"
___यदि दैव के द्वारा दैव की उत्पत्ति मानते हो और उसमें बुद्धिपूर्वक किये गये मानव प्रयत्नों का तनिक भी हस्तक्षेप नहीं मानते, तो मोक्ष की प्राप्ति सम्भव न होगी; क्योंकि पूर्वकृत कर्मबन्ध के अनुसार ही आगामी कर्म का बन्ध होगा; इस प्रकार की परम्परा चलने से मोक्ष का अवसर नहीं मिलेगा और पौरुष अकार्यकारी ठहरेगा।
दैवैकान्त की दुर्बलता से लाभ उठाते हुए पुरुषार्थवादी कहता है-बिना पौरुष के कोई कार्य नहीं बनता। सोमदेवसूरि के शब्दों में वह कहता है
“येषां बाहुबलं नास्ति, येषां नास्ति मनोबलम् ।
तेषां चन्द्रबलं देव! किं कुर्यादम्बरस्थितम् ॥”-यशस्तिलक, ३,५४ जिनकी भुजाओं में बल नहीं है और न जिनके पास मनोबल है, ऐसे व्यक्तियों का आकाश में स्थित चन्द्रबल-जन्मकालीन नक्षत्र आदि की स्थिति क्या करेगी?"
केवल भाग्य को ही भगवान माननेवाले पुरुषों का कृषि आदि कार्य, कोई अर्थ नहीं रखता है।
१. “कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत्।
विद्याऽविद्याद्वयं न स्याद्बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥" -आप्तमीमांसा, का. ३५ २. “दैवादेवार्थसिद्धिश्चेदैवं पौरुषतः कथम् । दैवतश्चेदनिर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत् ॥"-आप्तमीमांसा, का. ८८
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प्रस्तावना
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पुरुषार्थ का एकान्त भी बाधित है
पुरुषार्थ के अनन्य भक्त से स्वामी समन्तभद्र पूछते हैं यदि पुरुषार्थ से ही तुम कार्य सिद्धि मानते हो तो यह बताओ, दैव से तुम्हारा पुरुषार्थ कैसे उत्पन्न होता है? कदाचित् यह मानो कि हम सब कुछ पुरुषार्थ के द्वारा ही सम्पन्न करते हैं, तब सम्पूर्ण प्राणियों का पुरुषार्थ जयश्री समन्वित होना चाहिए। कर्म का तीव्र उदय आने पर पुरुषार्थ कार्यकारी नहीं होता है। समान पुरुषार्थ करते हुए भी पूर्वकृत कर्मोदयानुसार फल में भिन्नता पायी जाती है। समान श्रम करनेवाले किसान दैववश एक समान फसल नहीं काट पाते हैं।
समन्वय पथ
___ इस दैव और पुरुषार्थ के द्वन्द्व में अनेकान्त समन्वय शैली-द्वारा मैत्री स्थापित करता है। सोमदेवसूरि कहते हैं-“इस लोक में फल प्राप्ति दैव-पूर्वोपार्जित कर्म तथा मानुषकर्म-पुरुषार्थ इन दोनों के अधीन है। ऐसा न मानने वालों से आचार्य पूछते हैं कि क्या कारण है, समान चेष्टा करनेवालों के फलों में-सिद्धि में भिन्नता प्राप्त होती है? ।” आचार्य कहते हैं
“परस्परोपकारेण जीवितौषधयोरिव।
दैवपौरुषयोवृत्तिः फलजन्मनि मन्यताम् ॥” –यशस्तिलक, ३, ६३ जैसे औषधि जीवन के लिए हितप्रद है और आयुकर्म औषधि के प्रभाव के लिए आवश्यक है, अर्थात् जैसे फलोत्पत्ति में आयुकर्म और औषधिसेवन परस्पर में एक-दूसरे को लाभ पहुंचाते हैं, उसी प्रकार दैव और पौरुष की वृत्ति समझना चाहिए।
वे कहते हैं- 'दैव चक्षु आदि इन्द्रियों के अगोचर अतीन्द्रिय आत्मा से सम्बन्धित है और प्राणियों की सम्पूर्ण क्रियाएँ पुरुषार्थपर निर्भर हैं, इसलिए उद्यम की ओर ध्यान रहना चाहिए।
सत्परामर्श-'आत्मानुशासन' में भव्य प्राणी को यह सत्परामर्श दिया गया है कि वह वर्तमान जीवन को सुखी बनाने के लिए जो अधिक श्रम उठाता है, वह अच्छा नहीं है। उसे उज्ज्वल भविष्य निर्माण के क्षेत्र में विशेष प्रयत्नशील होना चाहिए। वर्तमान जीवन तो अतीत के पुरुषार्थ का पुरस्कार है जो दैव के नाम से वर्तमान में माना जाता है। भदन्त गुणभद्र के महत्त्वपूर्ण शब्द इस प्रकार हैं
"आयुः श्रीवपुरादिकं यदि भवेत्पुण्यं पुरोपार्जितं स्यात् सर्वं न भवेन्न तच्च नितरामायासितेऽप्यात्मनि। इत्यार्याः सुविचार्य कार्यकुशलाः कार्येऽत्र मन्दोधमा
द्रागागामिभवार्थमेव सततं प्रीत्या यतन्तेतराम् ॥"-आत्मानुशासन, श्लोक ३७ -यदि पूर्व में संचित पुण्य पास में है, तो दीर्घ जीवन, धन तथा शरीर, सम्पत्ति आदि मनोवांछित पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं। यदि वह पुण्य नहीं है, तो स्वयं को अपार कष्ट देने पर भी वह सामग्री प्राप्त नहीं हो सकती। अतएव उचित-अनुचित का सम्यक् रूप से विचार करने में प्रवीण श्रेष्ठजन भावी जीवन निर्माण के विषय में शीघ्र ही प्रीतिपूर्वक विशेष प्रयत्न करते हैं तथा इस लोक के कार्यों के विषय में उद्यम नहीं करते।
कोई-कोई प्रमादी मानवोचित पुरुषार्थ करने से जी चुराते हुए भाग्य का अथवा नियति (Destiny) का
१. “पौरुषादेव सिद्धिश्चेत् पौरुषं दैवतः कथम् । पौरुषाच्चेदमोघं स्यात् सर्वप्राणिषु पौरुषम् ॥"-आप्तमीमांसा, का. ८६ २. “दैवं च मानुषं कर्म लोकस्यास्य फलाप्तिषु । कुतोऽन्यथा विचित्राणि फलानि समचेष्टिषु ॥"-यशस्तिलक, ३, ६० ३. "तथापि पौरुषायत्ताः सत्त्वानां सकलाः क्रियाः। अतस्तच्चिन्त्यमन्यत्र का चिन्तातीन्द्रिन्यात्मनि ॥"
-यशस्तिलक, ३, ६४
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महाबन्ध
आश्रय लेकर अपने मिथ्या पक्ष को उचित बताने का प्रयत्न करते हैं। वे लोग कहते हैं कि जिस समय जैसा होना है, उस समय वैसा ही होगा। नियति के विधान को बदलने की किसी में समार्थ्य नहीं है। उसका उल्लंघन नहीं हो सकता। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने ऐसे भीरुतापूर्ण भावों को मिथ्यात्वका भेद नियतिवाद कहा है
"जत्तु जदा जेण जहा जस्स य णियमेण होदि तत्त तदा।
तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदिवादी हूँ ॥-गो. कर्मकाण्ड, गा. ८८२ जो जिस काल में जिसके द्वारा जैसे जिसके नियम से होता है, वह उस काल में उससे उस प्रकार उसके होता है। इस प्रकार का पक्ष नियतिवाद है।
विवेकी व्यक्ति आत्मशक्ति, जिनेन्द्रभक्ति तथा जिनागम की देशना का आश्रय लेकर अपना जीवन संयम तथा सदाचार समलंकृत बनाता हुआ, दैव का दास न बनकर अपने भविष्य का निर्माता बनता है। जो दैव या नियति आदि की ओट में पाप से चिपके रहते हैं, वे अपने नरजन्म रूपी चिन्तामणि रत्न को समुद्र में फेंक देते हैं।
समन्तभद्र स्वामी इस सम्बन्ध में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन करते हैं-अबुद्धि पूर्वक इष्ट-अनिष्ट कार्य अपने दैव की प्रधानता से होता है। बुद्धिपूर्वक इष्ट-अनिष्ट फल प्राप्ति में पौरुष की प्रधानता है।
सोते हुए व्यक्ति का सर्प से स्पर्श होते हुए भी मृत्यु न होने में दैव की प्रधानता है। लेकिन सर्प देखकर बुद्धिपूर्वक आत्मरक्षा करने में पुरुषार्थ की विशेषता कारण है।
भोगी प्राणी दैव और पुरुषार्थ के महोदधि को मथकर अमृत के स्थान पर विष निकालकर सोचता है और तदनुसार निःसंकोच हो प्रवृत्ति भी करता है। वह अविवेकी मोक्ष-मार्ग के लिए दैव की ओर निहारा करता है और विषय-भोग के लिए कमर कसकर पुरुषार्थी बनता है। मुमुक्षु प्राणी विषयादिकों के विषय में पुरुषार्थ को अधिक महत्त्व नहीं देता। वह अपने पौरुष का प्रयोग कर्मजाल के काटने में करता है। तत्त्व की बात यह है कि मुमुक्षु के धर्माराधनरूप प्रयत्न से विरुद्ध कर्म भी क्षीण-शक्तियुक्त बन जाता है। इस प्रकार आत्म-विकास का मार्ग अधिक सरल और उज्ज्वल हो जाता है।
जैनशासन में यह बताया है कि रत्नत्रय रूप सच्चे पुरुषार्थ के द्वारा यह जीव अनादि काल से आगत पुरातन कर्म-पुंज को अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही विनष्ट करने में समर्थ होता है। आत्मकल्याण के क्षेत्र में दैव या नियति का आश्रय लेकर प्रमादी तथा विषयासक्त न बनकर सत्साहस पूर्वक कर्मों को नष्ट करने के हेतु सत्प्रयत्न करते जाना चाहिए। मोक्ष पुरुषार्थी को मिलता है। वह स्वयं चतुर्थ पुरुषार्थ कहा गया है। कर्मों का विभाजन
'कर्म के स्वभाव की अपेक्षा असंख्यात भेद हैं। अनन्तानन्त प्रदेशात्मक स्कन्धों के परिणमन की अपेक्षा कर्म के अनन्त भेद होते हैं। ज्ञानावरणादि अविभागी प्रतिच्छेदों की अपेक्षा भी अनन्त भेद कहे जाते हैं। इस कर्म की बन्ध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति, निकाचना रूप दस कारणात्मक अवस्थाएँ पायी जाती हैं। बन्ध की परिभाषा की जा चुकी है। उत्कर्षण करण में कर्म के अनुभाग तथा स्थिति की वृद्धि होती है। अपकर्षण में इसके विपरीत बात होती है। संक्रमण करण में एक कर्मप्रकृति का अन्य प्रकृति रूप परिणमन किया जाता है। कर्मों को उदय काल के पूर्व उदयावली
-आप्तमीमांसा, का. ६१
१. “अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः। बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥" २. अनगारधर्मामृत पृ. ३००। ३. “बंधुक्कट्टणकरणं संकममोकटुंदीरणा सत्तं।
उदयुवसामणिधत्ती णिकाचणा होदि पडिपयडी।"-गो. कर्मकाण्ड, गा. ४३७ ४. गो. कर्मकाण्ड, ४३८-४०
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में लाना उदीरणा करण है। कर्मों का सत्ता में रहना सत्त्व है। फलदान उदय कहलाता है। उदयावली में न आकर कर्मों की उपशान्त अवस्था उपशम है। कर्मों की ऐसी अवस्था, जिसमें उत्कर्षण, अपकर्षण करण के सिवाय उदीरणा तथा संक्रमण न हो सके, निधत्ति है। ऐसी कर्म-स्थिति, जिसमें उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण तथा अपकर्षण न हो सके, निकाचना कही जाती है।
कर्मों की इन दस अवस्थाओं पर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह जीव अपने परिणामों के अनुसार कर्मों को हीनशक्ति और महान् शक्ति युक्त बना सकता है। यह उदीरणा के द्वारा उदयकाल के पूर्व भी कर्मों को उदय अवस्था में लाकर निर्जीर्ण कर सकता है। कभी कर्म शक्तिहीन बनकर निर्जरा को प्राप्त होते हैं। सार बात यह है कि जीव अपने परिणामों के अनुसार कर्मों को भिन्न रूप में परिणत कर सकता है।
कर्म का फल भोगना ही पड़ेगा-"नाभुक्तं क्षीयते कर्म" यह बात जैन सिद्धान्त में सर्वथा रूप में सम्भव नहीं है। जब आत्मा में रत्नत्रय की ज्योति प्रदीप्त होती है, तब अनन्तानन्त कार्मणवर्गणाएँ बिना फल दिये हुए निर्जरा को प्राप्त हो जाती हैं। केवली भगवान् को असाता प्रकृति कुछ भी बिना फल दिये हुए साता रूप में परिणत होकर निकल जाती है। इसलिए वीतराग शासन में केवली के असाता निमित्तक आदि की पीड़ा का अभाव माना गया है।
बन्ध के प्रकार
कर्मबन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश-ये चार भेद बताये गये हैं। 'महाबन्ध' के इस प्रथम खण्ड में प्रकृतिबन्ध का विविध अनुयोग-द्वारों से वर्णन किया गया है। प्रकृति शब्द का अर्थ है-स्वभाव, जैसे गुड़ की प्रकृति मधुरता है। ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव ज्ञान का आवरण करना है। दर्शनावरण की प्रकृति दर्शन गुण को ढाँकना है। वेदनीय का स्वभाव सुख-दुःख का अनुभवन कराना है। मोहनीय का स्वभाव आत्मा के दर्शन और चारित्र गुणों को विकृत करना है। यह आत्मा के सुख गुण को भी नष्ट करता है। मनुष्यादि के भवधारण का कारण आयु कर्म है। नर-नारकादि नाम से जीव संकीर्तित होता है। इसका कारण नाम की रचनाविशेष है। उच्च या नीच शरीर में जीव को रखना गोत्र की प्रकृति है। दान-भोगादि में बाधा डालना अन्तराय कर्म की प्रकृति है।
इन आठ कर्मों के नाम के अनुसार उनकी प्रकृति कही गयी है। इन कर्मों का स्वभाव समझाने के लिए जैन आचार्यों ने निम्नलिखित उदाहरण दिये हैं। ज्ञानावरण का उदाहरण परदा है। दर्शनावरण का द्वारपाल है, कारण उसके द्वारा इष्ट दर्शन का आवरण होता है। मधुलिप्त असिधारा के समान वेदनीय कर्म है। वह मधुरता के साथ जीभ कटने का सन्ताप पैदा करती है। मोहनीय मदिरा के समान जीव को आत्म-स्मृति नहीं होने देता है। आयु कर्म काष्ठ के खाण्डा-बन्धनविशेष-द्वारा व्यक्ति को कैदी बनाने के समान है। नाम कर्म भिन्न-भिन्न शरीर आदि की रचना चित्रकार के समान किया करता है। गोत्रकर्म जीव को उच्च, नीच शरीरधारी बनाता है; जैसे कुम्भकार छोटे-बड़े बर्तन बनाता है। भण्डारी जिस प्रकार स्वामी-द्वारा स्वीकृत द्रव्य को देने में बाधा पैदा करता है, उसी प्रकार विघ्न करना अन्तराय का स्वभाव
इन आठ कर्मों के १४८ भेद कहे गये हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय कर्म जीव के क्रमशः ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व तथा अनन्त वीर्यरूप अनुजीवी गुणों को घातने के कारण घातिया कहे जाते हैं। आयु, नाम, गोत्र तथा वेदनीय को अघातिया कर्म कहा है। ये जीव के अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व तथा अव्याबाधत्व नामक प्रतिजीवी गुणों को घातते हैं।
स्थितिबन्ध उसे कहते हैं, जिसके कारण प्रत्येक कर्म के बन्धन की कालमर्यादा निश्चित होती है। कर्मों के रस प्रदान की सामर्थ्य को अनुभागबन्ध कहा है। कर्मवर्गणाओं के परमाणुओं की परिणगना को प्रदेशबन्ध कहते हैं। कहा भी है
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“स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्ता स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो विपाकस्तु प्रदेशोंऽशविकल्पनम् ॥*
योग के कारण प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं । कषाय के कारण कर्मों में स्थिति और अनुभाग का बन्ध होता है ।
कर्मकृत परिणमन पर वैज्ञानिक दृष्टि
गन्धक, शोरा, तेजाब आदि के मिलने पर रासायनिक प्रक्रिया प्रारम्भ होती है तथा भिन्न प्रकार के तत्त्वविशेष की उपलब्धि होती है; इसी प्रकार कर्मों का जीव के साथ सम्मेलन होने पर रासायनिक क्रिया (Chemical action) प्रारम्भ होती है और उससे अनन्त प्रकार की विचित्रताएँ जीव के भावानुसार व्यक्त हुआ करती हैं। जीव के परिणामों में वह बीज विद्यमान है जो प्रस्फुटित तथा विकसित होकर अनन्तविध विचित्रताओं को विशाल वट वृक्ष के समान दिखाता है। कोई जीव मरकर कुत्ता होता है, तो श्वान पर्याय में उत्पन्न होने के पूर्व व्यक्ति की मनोवृत्ति में श्वान वृत्ति के बीज सार रूप में संगृहीत होंगे; जिनके प्रभाव से गृहीत कार्मण-वर्गणा श्वान सम्बन्धी सामग्री ( Environment) को प्राप्त करा देगी या उस रूप परिणत होगी ।
आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, इसलिए उसे बाँधने वाली कार्मण वर्गणाओं का पुंज भी बहुत सूक्ष्म है। उस सूक्ष्म पुंज में अनन्त प्रकार के परिणमन प्रदर्शन की सामर्थ्य है । अणु बम में (Atom bomb) आकार की अपेक्षा अत्यन्त लघुता का दर्शन होता है, किन्तु शक्ति की अपेक्षा वह सहस्रों विशाल बमों से अधिक कार्य करता है। भौतिक विज्ञान प्रयत्न करे तो राई के दाने से भी छोटा बम बन सकता है जो संसार-भर को हिला दे ।
आत्मा के साथ मिली हुई कार्मण वर्गणाओं में अनन्तानन्त प्रदेश कहे गये हैं जो अभव्य जीवों से अनन्त गुणित हैं, फिर भी सूक्ष्म होने के कारण वे इन्द्रियों के अगोचर हैं। उनमें विद्यमान कर्मशक्ति (Karmicenergy) अद्भुत खेल दिखाती है। किसी जीव को निगोद, अपर्याप्तक पर्यायवाला जीव बना एक श्वास में अठारह बार शरीर-निर्माण और ध्वंस द्वारा जीवन-मरण को प्रदर्शित करती है। वह आत्मा की अनन्त ज्ञान-शक्ति को ढाँककर अक्षर के अनन्तवें भाग बना देती है। 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहा है
"का वि अपुव्वा दीसादे पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती । केवलणाणसहाओ विणासिदो जाइ जीवस्स ॥२११॥"
- पुद्गल कर्म की भी ऐसी अद्भुत सामर्थ्य है, जिसके कारण जीव का केवलज्ञान स्वभाव विनाश को प्राप्त हो गया है।
उस कर्म शक्ति के कारण गाय, बैल, ऊँट आदि का आकार-प्रकार प्राप्त होता है। ऐसा कौन-सा काम है जो उस शक्ति की परिधि के बाहर हो । ज्ञानावरण के रूप में उसके द्वारा बुद्धि की हीनाधिकता का विचित्र दृश्य निर्मित होता है, लेकिन जिस प्रकार नाटक का अभिनय करानेवाला सूत्रधार होता है, जिसके संकेत के अनुसार कार्य होता है, इसी प्रकार सूत्रधारक जीव के भाव हैं। उन भावों की हीनता, उच्चता, वक्रता, सरलता, समलता, विमलता आदि पर जिन बाहा क्रियाओं का प्रभाव पड़ता है, उनसे भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्म बँधते हैं। उनका वर्णन जैन महर्षियों ने किया है जिनके अध्ययन से मानव इस बात की कल्पना कर सकता है कि उसका अतीत कैसा था, जिससे उसे वर्तमान सामग्री मिली और वर्तमान विकृत अथवा विमल जीवन के अनुसार वह अपने किस प्रकार के भविष्य का निर्माण कर सकता है।
उदाहरणार्थ - एक व्यक्ति अत्यन्त मन्द ज्ञानी है। इसका क्या कारण है? शरीरशास्त्री तो शारीरिक कारणों के द्वारा मस्तिष्क के परमाणुओं की दुर्बलता को दोषी ठहराएगा; किन्तु कर्म सिद्धान्त का ज्ञाता कहेगा कि इस जीव ने पूर्व में जब कि इसके वर्तमान जीवन का निर्माण हो रहा था, ज्ञान को ढाँकने वाली साधन
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सामग्री को संग्रहीत किया था। इसी प्रकार अन्य प्रकार के बाह्य और आभ्यन्तर कार्यों के विषय में कर्म सिद्धान्त वाला समर्थन करेगा। कर्मों के आगमन के कारणों का स्पष्टीकरण
ज्ञानावरण के कारण-ज्ञानावरण कर्म में विशेष कारण निम्नलिखित बातें बतायी गयी हैं; जैसे-निर्मल ज्ञान के प्रकाशित होने पर मन में दूषित भाव रखना, ज्ञान को छिपाना, योग्य व्यक्ति को दुर्भाववश ज्ञान प्रदान न करना, दूसरे की ज्ञान-साधना में बाधा डालना, वाणी अथवा प्रवृत्ति के द्वारा ज्ञानवान् के ज्ञान का निषेध करना, पवित्र ज्ञान में लांछन लगाना, निरादरपूर्वक ज्ञान का ग्रहण करना, ज्ञान का अभिमान तथा ज्ञानियों का अपमान, अन्याय पक्ष समर्थन में शक्ति लगाना, अनेकान्त विद्या को दूषित करनेवाला कथन करना, आदि। इस प्रकार के कार्यों से जो जीव के मलिनभाव होते हैं, उनके द्वारा इस प्रकार का मलिन कर्मपुंज गृहीत होता है जो ज्ञान के प्रकाश को ढाँकता है।
दर्शनावरण के कारण-उपर्युक्त बातें दर्शन के विषय में करने से दर्शनावरण कर्म आता है। उसके अन्य भी कारण हैं; जैसे अधिक सोना, दिन में सोना, आँखों को फोड़ देना, निर्मल दृष्टि में दोष लगाना, मिथ्या मार्गवालों की प्रशंसा करना, आदि।
वेदनीय के कारण-जिस असातावेदनीय के कारण जीव कष्टमय जीवन बिताता है, उसके कारण ये हैं-स्व-पर अथवा दोनों को पीड़ा पहुँचाना, शोकाकुल रहना, हृदय में दुःखी बने रहना, रुदन करना, प्राणघात करना, अनुकम्पा उत्पादक फूट-फूटकर रोना, अन्य की निन्दा और चुगली करना, जीवों पर दया न करना, अन्य को सन्ताप देना, दमन करना, विश्वासघात, कुटिल स्वभाव, हिंसापूर्ण आजीविका, साधुजनों की निन्दा करना, उन्हें सदाचार के मार्ग से डिगाना, जाल, पिंजरा आदि जीवघातक पदार्थों का निर्माण करना, अहिंसात्मक वृत्ति का विनाश करना आदि।
जीव को आनन्दप्रद अवस्था प्राप्त करानेवाले सातावेदनीय के कारण ये हैं-जीवमात्र पर दया करना, सन्त जनों पर स्नेह रखना, उन्हें दान देना, प्रेमपूर्वक संयम पालन करना, विवशता में शान्त भाव से कष्टों को सहना करना, क्रोधादि का त्याग करना, जिनेन्द्र भगवान् की पूजा, सत्पुरुषों की सेवा-परिचर्या, आदि।
मोहनीय के कारण-मोहनीय कर्म के कारण मदोन्मत्त हो यह जीव न आत्मदर्शन कर पाता है और न सच्चे कल्याण के मार्ग में लगता है।' दर्शनमोहनीय के कारण देव, गुरु, शास्त्र तथा तत्त्वों के विषय में यह सम्यक् श्रद्धा वंचित रहता है और वैज्ञानिक दृष्टि से श्रेष्ठ और पवित्र प्रकाश को नहीं प्राप्त करता। इसके कारण ये हैं-जिनेन्द्र देव, वीतराग वाणी तथा दिगम्बर मुनिराज के प्रति काल्पनिक दोष लगाकर संसार की दृष्टि में मलिन भाव उत्पन्न करना, धर्म तथा धर्म के फलरूप श्रेष्ठ आत्माओं में पाप प्रवृत्तियों के पोषण की सामग्री को बताकर भ्रम उत्पन्न करना, मिथ्या मार्ग का प्रचार करना, आदि।
चारित्रमोहनीय के कारण यह जीव अपने निज स्वरूप में स्थित न रहकर क्रोधादि विकृत अवस्था को प्राप्त करता है। क्रोधादि के तीव्र वेगवश मलिन प्रचण्ड भावों का करना, तपस्वियों की निन्दा तथा धर्म का ध्वंस करना, संयमी पुरुषों के चित्त में चंचलता उत्पन्न करने का उपाय करने से कषायों का बन्ध होता
१. आत्मा को पराधीन बनाकर दुःखी बनाने में प्रमुख स्थान मोहनीय कर्म का है। मोह के कारण ज्ञान अज्ञानरूप बनता
है। 'तत्त्वानुशासन' में मिथ्याज्ञान को मोह महाराज का मन्त्री कहा है“बन्धहेतुषु सर्वेषु मोहश्चक्रीति कीर्तितः । मिथ्याज्ञानं तु तस्यैव सचिवत्वमशिश्रयत ॥" -तत्त्वानुशासन, श्लोक १२ बन्ध के कारणों में मोह चक्रवर्ती कहा गया है। मिथ्याज्ञान ने सचिवरूप में उसका आश्रय लिया। . "भमाहंकारनामानौ सेनान्यौ च तत्सुतौ। यदायत्तः सुदुर्भेदो मोह-व्यूहः प्रवर्तते ॥” -तत्त्वानुशासन, श्लोक १३ उस मोह के ममकार अहंकार नाम के दो पुत्र सेनानायक हैं। उन दोनों के आधीन मोह का व्यूह-सेना का चक्र कार्य करता है।
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महाबन्ध है। अत्यन्त हास्य, बहुप्रलाप, दूसरे के उपहास से हास्य का पात्र बनता है। विचित्र रूप से क्रीड़ा करने से, औचित्य की सीमा का उल्लंघन करने से रति-वेदनीय का आगमन होता है। दूसरे के प्रति विद्वेष उत्पन्न करना, पापप्रवृत्ति वालों का संसर्ग करना, निन्द्य प्रवृत्ति को प्रेरणा प्रदान करना, आदि अरति प्रकृति के कारण हैं। दूसरे को दुःखी करना और दूसरे के दुःखों को देख हर्षित होना, शोक प्रकृति का कारण है। भय के द्वारा यह जीव भयभीत रहता है, उसका कारण भय के परिणाम रखना, दूसरों को डराना, सताना तथा निर्दयतापूर्ण प्रवृत्ति करना है। ग्लानिपूर्ण अवस्था का कारण जुगुप्सा प्रकृति है। पवित्र पुरुषों के योग्य आचरण की निन्दा करना, उनसे घृणा करना, आदि से यह बँधती है। स्त्रीत्व विशिष्ट स्त्रीवेद का कारण महान क्रोधी स्वभाव रखना, तीव्र मान, ईर्ष्या, मिथ्यावचन, तीव्रराग, परस्त्रीसेवन के प्रति विशेष आसक्ति रखना सम्बन्धी भावों के प्रति तीव्र अनुराग भाव है। पुरुषत्व सम्पन्न पुरुषवेद के कारण क्रोध की न्यूनता, कुटिल भावों का अभाव, लोभ तथा मान का त्याग, अल्प राग, स्वस्त्रीसन्तोष, ईर्ष्या परिणाम की मन्दता, आभूषण आदि के प्रति उपेक्षा के भाव आदि हैं, जिसके उदय से नपुंसक वेद मिलता है। उसके कारण प्रचुर प्रमाण में क्रोध, मान, माया, लोभ से दूषित परिणामों का सभाव, परस्त्रीसेवन, अत्यन्त हीन आचरण, तीव्र राग, आदि हैं।
आयु के कारण-नरक आयु के कारण बहुत आरम्भ और अधिक परिग्रह, हिंसा के परिणाम, मिथ्यात्वपूर्ण आचरण, तीव्र मान तथा लोभ, दूसरे को सन्ताप पहुँचाना, सदाचार तथा शीलहीनता, काम, भोगसम्बन्धी अभिलाषा में वृद्धि, बध-बन्धन करने के भाव, मिथ्याभाषण, पापनिमित्तक आहार, सन्मार्ग में दूषण लगाना, कृष्ण लेश्या युक्त रौद्र ध्यानसहित मरण करना है।
पशु पर्याय के कारण कुटिल तथा छलपूर्ण मनोवृत्ति तथा प्रवृत्ति, अधर्म प्रचार, विसंवाद उत्पन्न करना, जाति, कुल तथा शील में कलंक लगाना, नकली नाप-तौल का सामान रखना, नकली सोना, मोती, घी, दूध, अगर, कपूर, कुंकुम आदि के द्वारा लोगों को ठगना, सद्गुणों का लोप करना, आर्तध्यान युक्त मरण करना, आदि हैं।
मनुष्यायु के कारण अल्पारम्भ तथा अल्पपरिग्रह, मृदुल परिणाम, महान् पुरुषों का सम्मान, सन्तोष वृत्ति, दान में प्रवृत्ति, संक्लेश का अभाव, वाणी का संयम, भोगों के प्रति उदासीनता, पापपूर्ण कार्यों से निवृत्ति, अतिथि-संविभागशीलता, आदि हैं। प्रेमपूर्वक पूर्ण तथा अल्प संयम का धारण करना, संकट आने पर शान्त भाव धारण करना, तत्त्वज्ञान शून्य तपश्चर्या, दयापूर्ण अन्तःकरण आदि से देवायु की प्राप्ति होती है।
नाम के कारण-विकृत अंग-उपांग होना, शरीर सम्बन्धी दोषों का सद्भाव, अपयश आदि का कारण अशुभ नाम-कर्म है। वह मन, वचन, कायकी कुटिलता, मिथ्याप्रचार, मिथ्यात्व, परनिन्दा, मिथ्या, कठोर तथा निरंकुश भाषण, महा आरम्भ और परिग्रह, आभूषणों में आसक्ति, मिथ्यासाक्षी, नकली पदार्थों का देना, वन में आग लगाना, पापपूर्ण आजीविका करना, तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभ के परिणाम, मन्दिर के धूप, गन्ध, माल्य, आदि का अपहरण करना, अभिमान करना, अन्य के घातक यन्त्र आदि बनाना, दूसरे के द्रव्य का अपहरण करने से सम्पादित होता है। इस अशुभ नाम कर्म के कारण आज जगत् में शारीरिक विकृतियों की बहुलता दिखती है। शुभ नाम कर्म का कारण पूर्वोक्त प्रवृत्तियों से विपरीतपना है।
गोत्र के कारण-लोकनिन्दित कुलों में जन्म धारण करने का कारण नीच गोत्र है। वह जाति, कुल, रूप, बल, ऐश्वर्य आदि का मद, दूसरों का तिरस्कार अथवा अपवाद, सत्पुरुषों की निन्दा, यश का अपहरण करना, पूज्य पुरुषों का तिरस्कार करना, अपने को बड़ा बताना, दूसरों की हँसी उड़ाना आदि से प्राप्त होता है। श्रेष्ठ कुलों में उत्पन्न होकर लोकप्रतिष्ठा लाभ का कारण उच्च गोत्र कर्म है। यह मानरहितपना, सत्पुरुषों का आदर करना, जाति-कुल आदि का उत्कर्ष होते हुए उसका अभिमान नहीं करना, अन्य का तिरस्कार, निन्दा, उपहास न करना, अनुपमगुणभूषित होते हुए भी निरभिमानता, भस्म से ढंकी हुई अग्नि के समान अपनी महिमा को स्वयं प्रकाशित न करना, धर्म के साधनों का सम्मान करना, आदि से प्राप्त होता है।
अन्तराय के कारण प्रत्येक कार्य में विघ्न उपस्थित करनेवाला अन्तराय कर्म है। वह प्राणिवध, ज्ञान
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प्रस्तावना
१०७ का निषेध करना, धर्म-कार्यों में विघ्न उत्पन्न करना, देवता को अर्पित नैवेद्य का प्रसादपूर्वक ग्रहण करना, भोजन-पान आदि में विन करना, निर्दोष सामग्री का परित्याग, गुरु तथा देवपूजा का व्याघात करना, आदि के द्वारा सम्पन्न होता है। यह अन्तराय कर्म दान देना, पदार्थों की प्राप्ति, उनका भोग तथा उपभोग में बाधा उत्पन्न करता है। इसके ही कारण जीव शक्तिहीन होता है।
उपर्युक्त कारणों से ज्ञानावरण आदि को विशेष अनुभाग मिलता है, कारण आयुकर्म को छोड़कर शेष कर्मों का निरन्तर बन्ध हुआ करता है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी ने यदि ज्ञान के साधनों में बाधा उपस्थित की, तो उसके मोहनीय, अन्तराय आदि कर्मों का भी आस्रव होगा। इतनी विशेषता होगी कि ज्ञानावरण को विशेष अनुराग मिलेगा, ज्ञानावरण के रस में प्रकर्षता होगी।
तत्त्वज्ञानी के बन्ध होता है या नहीं?
इस बन्धतत्त्व के विषय में कुछ लोगों की ऐसी समझ है कि सम्यक्त्व की आत्मनिधि मिलने पर आत्मा की बन्ध-परम्परा नष्ट हो जाती है। वे कहते हैं-बन्ध का कारण अज्ञान चेतना है। सम्यग्दृष्टि के ज्ञानचेतना होती है, इसलिए वह बन्धन की व्यथा से मुक्त है। ज्ञान से मुक्ति लाभ का समर्थन सांख्य, बौद्ध, नैयायिक
आदि भी करते हैं। यदि ज्ञान अथवा सम्यग्दर्शन के द्वारा कर्मों का अभाव हो जाये, तो रत्नत्रय-मार्ग की मान्यता के साथ कैसे समन्वय होगा?
सम्यग्दृष्टि के बन्ध के विषय में अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं-“ज्ञानी जीव आस्रव-भावना के अभिप्राय के अभाववश निरास्रव है। वहाँ उसके भी द्रव्यप्रत्यय प्रत्येक समय अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों को बाँधते हैं। इसमें ज्ञान गुण का परिणमन कारण है।"
यहाँ शंकाकार पूछता है-ज्ञान गुण का परिणमन बन्ध का हेतु किस प्रकार है? इस पर महर्षि कुन्दकुन्द कहते हैं
“जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि।
अण्णत्तं गाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ॥” –समयसार, गा. १७१ - 'यतः ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण से पुनः अन्यरूप परिणमन करता है, ततः वह ज्ञानगुण कर्म का बन्धक कहा गया है।
इस प्रकार प्रकाश डालते हए अमतचन्द्र सरि कहते हैं-"ज्ञानगुणस्य यावज्जघन्यो भावः, तावत तस्यान्तर्मुहूर्तविपरिणामित्वात् पुनः पुनरन्यतयाऽस्ति परिणामः । स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावा
बन्धहेतुरेव स्यात्" 'जब तक ज्ञानगुण का जघन्यभाव है-क्षायोपशमिक भाव है, तब तक उसका अन्तर्मुहूर्त में विपरिणमन होता है, इस कारण पुनःपुनः अन्यरूप परिणमन होता है। वह ज्ञान का परिणमन यथाख्यात चारित्ररूप अवस्था के नीचे निश्चय से रागसहित होने से बन्धका ही कारण है।'
सर्वार्थसिद्धि' में कहा है; “यथाख्यात-विहारशुद्धि-संयता उपशान्तकषायादयोऽयोगकेवल्यन्ताः” (१,८, पष्ठ १२)-यथाख्यात विहारशद्धि संयमी उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गणस्थान से अयोगी जिनपर्यन्त पाये जाते हैं। अतः कषायरहित जीवों के ही अबन्ध होता है। अध्यात्मशास्त्र में सम्यक्त्वी के अबन्धकपने का अर्थ यही है कि कषायरहित सम्यक्त्वी के बन्ध नहीं होता है; शेष के बन्ध होता है। जिसके कषाय है. उससे अवश्य बन्ध होता है।
यदि ज्ञानगुण का जघन्य भावरूप परिणमन बन्ध का कारण है, तो ज्ञानी को कैसे निरास्रव कहा? इस शंका के समाधान में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
"दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्ण-भावेण।
_णाणी तेण दु बज्झदि पुग्गलकम्मेण विविहेण ॥” –समयसार, गा. १७२ -- "दर्शन, ज्ञान, चारित्र का जघन्य भाव से परिणमन होता है, इससे ज्ञानी जीव अनेक प्रकार के पुद्गल
कर्मों से बँधता है।"
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इस विषय पर विशेष प्रकाश डालते हुए टीकाकार जयसेनाचार्य लिखते हैं
- “इस कारण भेदज्ञानी अपने गुणस्थानों के अनुसार परम्परा रूप से मुक्ति के कारण तीर्थंकर नामकर्म आदि प्रकृतिरूप पुद्गलात्मक अनेक पुण्यकर्मों से बँधता है।" (समयसार, पृ. २४५)
शंका- कोई स्वाध्यायशील व्यक्ति पूछता है - यदि उपर्युक्त कथन ठीक है, तो उसका भगवत्कुन्दकुन्द के इस वचन से किस प्रकार समन्वय होगा
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“ रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स ॥” समयसार, गा. १७७ 'सम्यक्त्वी के राग, द्वेष, मोह रूप आस्रवों का अभाव है।' इस गाथा के उत्तरार्ध में आचार्य लिखते
" तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति ।”
- अर्थात् इस कारण आस्रवभाव के अभाव में द्रव्यप्रत्यय कर्मबन्ध के कारण नहीं होते हैं । समाधान- इस विषय में विरोध की कल्पना का निराकरण करते हुए जयसेनाचार्य लिखते हैं- “सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्वोदयजनित राग-द्वेष मोह नहीं हैं; अन्यथा वह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सरागसम्यक्त्वी नहीं हो सकेगा । अथवा अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभोदयजनित राग, द्वेष-मोह सम्यक्त्वी के नहीं पाये जाते हैं, कारण षष्ठ गुणस्थानरूप सरागचारित्र के अविनाभावी सरागसम्यत्क्व की अन्य प्रकार से उपपत्ति नहीं पायी जाती है। अथवा अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभोदयजनित प्रमाद के उत्पादक राग-द्वेष-मोह सम्यक्त्वी के नहीं हैं, कारण अप्रमत्तादिगुणस्थानवर्ती वीतरागचारित्र के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखनेवाले वीतराग सम्यक्त्व की अन्य प्रकार से उपपत्ति नहीं पायी जाती है ।"
इस सुव्यवस्थित तथा सुस्पष्ट निरूपण-द्वारा आचार्य महाराज ने यह समझा दिया है कि सम्यक्त्वी के बन्ध - अबन्ध का कथन एकान्तरूप से नहीं है। अविरत सम्यक्त्वी के मिध्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी निमित्तक प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, किन्तु अन्य कषायादि निमित्तक प्रकृतियों का बन्ध होता है । मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी निमित्तक प्रकृतियों के अभाव को मुख्य बना अविरत सम्यक्त्वी के अबन्ध का वर्णन सुसंगत है। इस विवक्षा को गौण बनाकर बन्ध को प्राप्त होनेवाली प्रकृतियों की अपेक्षा बन्ध का कथन भी समीचीन है।
शंका- सम्यक्त्वी के बन्धाभाव का एकान्तपक्ष वाले कहते हैं कि 'अविरत सम्यक्त्वी के जो अप्रत्याख्यानावरण, वज्रवृषभ संहनन, औदारिक शरीर आदि का बन्ध है, वह बन्ध नहीं के समान है ।'
समाधान- इस कथन में तात्त्विक विचार का अभाव है। जब अविरतसम्यक्त्वी के द्वारा बाँधे गये कर्मों में कषाय और योग के कारण प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग बन्ध होते हैं, तब उनको बिलकुल ही तुच्छ मानना और सर्वथा अबन्ध घोषित करना जैन दृष्टि-स्याद्वाद विचार शैली के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। जयसेनाचार्य ने पूर्णतया विश्लेषण करके सम्यक्त्वी को कथंचित् बन्धक और कथंचित् अबन्धक प्रमाणित कर दिया है ।
आगम की आज्ञा - इस प्रसंग में 'षट्खण्डागमसूत्र' के दूसरे खण्ड क्षुद्रबन्ध में भूतबलि भट्टारक रचित महत्त्वपूर्ण सूत्र आया है। 'षट्खण्डागम' सूत्र का साक्षात् सम्बन्ध गणधर की वाणी से रहा है, अतः उस सूत्र का सर्वोपरि महत्त्व हो जाता है। वह सूत्र इस प्रकार है - " सम्मादिट्ठी बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अतिथ" ३६ - सम्यक्त्वी के बन्ध होता है, अबन्ध भी होता है। इस पर धवला टीकाकार कहते हैं- “कुदो? सासवाणासवेसु सम्मद्दंसणुवलंभा”.
प्रश्न- उपर्युक्त कथन क्यों किया गया?
उत्तर - आस्रवयुक्त तथा आस्रवरहित जीवों में सम्यग्दर्शन का सद्भाव पाया जाता है।
इस कथन से दो प्रकार के सम्यक्त्वी ज्ञात होते हैं। एक सम्यक्त्वी सास्रव है और दूसरा आस्रवरहित
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है। आस्रव के उत्तर क्षण में बन्ध होता है, अतः बन्धसहित भी सम्यक्त्वी होता है; यह सर्वज्ञ की प्ररूपणा
करना श्रेयस्कर है। आस्रव का कारण योग है-"काय-वाङमनः कर्मयोगः.स आस्रवः"। ऐसी स्थिति में सयोगकेवली को आस्रवयुक्त मानना होगा। आस्रवरहित अयोगकेवली माने गये हैं-"णिरुद्धणिस्सेस-आस्रवो जीवो...गय जोगो केवली"-जब केवली भगवान के सयोगी होने पर कर्मबन्ध माना है, तब अविरत सम्यक्त्वी को सर्वथा बन्धरहित कहना उचित नहीं है। उसके आस्रव तथा बन्ध के चार कारण अविरति, प्रमाद, कषाय और योग पाये जाते हैं। ____बन्ध का लक्षण सूत्रकार ने इस प्रकार किया है-“सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः" -(८/२) जीव सकषाय होने के कारण जो कर्मों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, उसे बन्ध कहते हैं। यह लक्षण अविरत सम्यक्त्वी आदि के द्वारा गृहीत कर्मों में गर्भित होने से उनके पाया जानेवाला बन्ध काल्पनिक नहीं है। सम्यग्दर्शन की प्राथमिक दशा में अल्प मात्रा में निर्जरा होती है। अविरति आदि कारणों से कर्मों का निरन्तर बन्ध होता रहता है। अविरत दशावाला कों की महान निर्जरा करता है, उसके बन्ध नहीं होता, ऐसा साहित्य प्रचार में आता है; उससे प्रभावित चित्तवालों को पक्षमोह छोड़ना चाहिए।
महत्त्वपूर्ण कथन-गुणभद्र आचार्य का यह कथन ध्यान से मनन करने योग्य है। उन्होंने 'उत्तरपुराण' में विमलनाथ भगवान् के वैराग्यभाव का उल्लेख करते हुए कहा है कि भगवान् इस प्रकार सोचते हैं-जब तक संसार की अवधि है, तब तक इन उत्तम तीन ज्ञानों से क्या काम निकलता है और इस वीर्य से भी क्या लाभ है; यदि मैंने श्रेष्ठ विकास-मोक्ष को नहीं प्राप्त किया। भगवान अपने चित्त में विच
"चारित्रस्य न गन्धोऽपि प्रत्याख्यानोदयो यतः। बन्धश्चतुर्विधोऽप्यस्ति बहुमोहपरिग्रहः ॥ प्रमादाः सन्ति सर्वेऽपि निर्जराप्यल्पिकेव सा।
अहो मोहस्य माहात्म्यं मान्द्याम्यहमिहैव हि॥ -उत्तरपुराण, पर्व ५६, श्लोक ३५-३६ प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय होने से मेरे चारित्र की गन्ध तक नहीं है तथा बहुत मोह और परिग्रह
प्रकति. प्रदेश. स्थिति तथा अनभाग रूप चतर्विध बन्ध हो रहा है। मेरे सभी प्रमाद पाये जाते हैं। मेरे कर्मों की निर्जरा भी अत्यन्त अल्प प्रमाण में होती है। अहो! यह मोह की महिमा है, जो मैं (तीर्थंकर होते हुए भी) इस संसार में ही बैठा हूँ"। भगवान विमलनाथ के विचारों के माध्यम से चतुर्थ, पंचम गुणस्थानवी व्यक्ति की मनोदशा का यथार्थ स्वरूप समझा जा सकता है तथा इस प्रकाश में देखने पर यह प्रतीत होता है कि कुछ आध्यात्मिक कवियों, लेखकों तथा भजन-निर्माताओं ने जो अविरत सम्यक्त्वी के महत्त्व पर गहरा रंग भरा है और उसे अबन्धक कहा है, वह उनकी निजी वस्तु है। आगम तो यह मानता है कि अविरत दशा में अविरति आदि कारणों से बन्ध होता रहता है तथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा अत्यन्त अल्प मात्रा में होती है।
प्रश्न-चौथे गुणस्थान से आगे के गुणस्थान चारित्र के विकास से सम्बन्ध रखते हैं। असली रत्न कहो, विधि कहो; वह तो सम्यक्त्व है। चारित्र का कोई विशेष महत्त्व नहीं है क्या?
समाधान-यह धारणा सर्वज्ञ प्रणीत देशना से विपरीत है। सम्यक्त्व का महत्त्व सर्वोपरि है, किन्तु बिना चारित्र के वह सम्यक्त्व मोक्ष का कारण नहीं हो सकता। सम्यक्त्वी जिस वीतरागता की चर्चा करता है, वह रागरहितपना चारित्र धारण किए बिना असम्भव है। राग चारित्रमोह का भेद है। जितना-जितना चारित्र का धारण होता है, उतना-उतना रागरहित भाव जागृत होता जाता है। सोमदेव सूरि ने बड़ी मार्मिक बात कही है
“सम्यक्त्वात्सुगतिः प्रोक्ता ज्ञानात्कीर्तिरुदाहृता। वृत्तात्पूजामवाप्नोति त्रयाच्च लभते शिवम् ॥"
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से मनुष्य तथा देवगति में जन्म प्राप्त होता है, ज्ञान के द्वारा कीर्ति मिलती है तथा चारित्र के द्वारा पूज्यता प्राप्त होती है। तीनों के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है।
सम्यक्चारित्र का महत्त्व-आचरण के बिना श्रद्धा शोभायान नहीं होती। सम्यक् श्रद्धा तथा चारित्र का भोग मणि-कांचन योग सदृश है। कुन्दकुन्द स्वामी ने 'रयणसार' में कहा है
... "णाणी खवेई कम्मं णाणबलेणेदि बोल्लए अण्णाणी।
वेज्जो मेसज्जमहं जाणे इदि णस्सदे वाही ॥"-रयणसार, गा. ७२ ज्ञानी पुरुष ज्ञान के प्रभाव से कर्मों का क्षय करता है, यह कथन करने वाला अज्ञानी है। मैं वैद्य हूँ. मैं औषधि को जानता हूँ. क्या इतने जानने मात्र से व्याधि दर हो जाएगी?
केवल सम्यग्दर्शन से सुगति प्राप्त होती है तथा मिथ्यात्व से नियमतः कुगति मिलती है-यह कथन कुन्दकुन्द स्वामी को भी सम्मत है, इससे वे कहते हैं
“सम्मत्तगुणाइ सुग्गइ मिच्छादो होइ दुग्गई णियमा।
इदि जाण किमिह बहुणा जं ते रूचेइ तं कुणहो ॥"-रयणसार, गा. ६६ सम्यक्त्व के कारण सुगति तथा मिथ्यात्व से नियमतः दुर्गति होती है, ऐसा जानो। अधिक कहने से क्या प्रयोजन? जो तुझको रुचे, वह कर। 'प्रवचनसार' में कहा है
“ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्येसु।
सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ॥" -प्रवचनसार, गा. २३७ यदि पदार्थों की सम्यक श्रद्धा नहीं है, तो शास्त्रज्ञान के बल से मोक्ष नहीं होगा। कदाचित् पदार्थों की श्रद्धा भी है और संयम नहीं है, तो ऐसा असंयमी सम्यक्त्वी भी मोक्ष नहीं पाएगा। अतः अमृतचन्द्र सूरि कहते है-“ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्विः।” (पृ. ३२८)
अयोगकेवली रूप सम्यक्त्वी के सर्वथा बन्ध का अभाव है। उपशान्त कषाय, क्षीण कषाय तथा सयोगी . जिनके केवल सातावेदनीय का प्रकृति तथा प्रदेशबन्ध योग के कारण होता है। उससे नीचे चारों बन्ध होते
सम्यक्त्वी ही कुछ प्रकृतियों का बन्धक-कर्मों में कुछ प्रकृतियाँ तो मिथ्यात्वी जीव बाँधता है और कुछ ऐसी प्रकृतियाँ जिनके लिए विशुद्धभाव कारण होने से सम्यक्त्वी ही बन्धक कहा गया है। इतना ही नहीं, शुक्लध्यानी, शुद्धोपयोगी मुनीन्द्र तक पुण्य कर्म रूप प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। जिनके क्रोध, मान तथा माया कषाय का अभाव हो चुका है, ऐसे सूक्ष्म लोभ गुणस्थान वाले मुनिराज के उच्चगोत्र, यशःकीर्ति रूप पुण्यप्रकृतियाँ उत्कृष्ट अनुभागबन्ध युक्त बँधती हैं। 'महाबन्ध' में लिखा है-“आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगाणं को बंधको? को अबंधको? अप्पमत्त-अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा"-आहारकशरीर तथा आहारकशरीरांगोपांग का कौन बन्धक है, कौन अबन्धक है? अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि तथा अपूर्वकरण के काल में संख्यातभाग व्यतीत होने पर बन्ध की व्युच्छित्ति होती है। उपर्युक्त गुणस्थान वाले बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं।
___"तित्थयरस्स को बंधको, को अबंधो? असंजदसम्माइट्टि याव अपुव्वकरण० बंधा०। अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा।-" तीर्थंकर प्रकृतिका कौन बन्धक है, कौन अबन्धक है? असंयतसम्यग्दृष्टि लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त बन्धक है। अपूर्वकरण के काल के संख्यातभाग व्यतीत होने तक बन्ध होता है। आगे बन्ध की व्युच्छित्ति हो जाती है। अतः पूर्वोक्त बन्धक है तथा शेष अबन्धक हैं। ('महाबन्ध' प्रकृतिबन्ध, भाग १, ताम्र पत्र प्रति, पृ. ५) जीव के भावों की विचित्रता का रहस्य सर्वज्ञ ज्ञानगम्य है। सकल संयम के धारक शुक्लध्यान में निमग्न शुद्धोपयोग की उच्च स्थिति
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को प्राप्त व्यक्ति के जब पुण्य प्रकृतियों का बन्ध होता है, तब नीचे की अवस्थावाले अविरत सम्यक्त्वी को बन्धरहित कहना सोचना, समझना तथा समझाना परमागम की देशना के विपरीत कथन करना है।
क्या सम्यक्त्वी के ज्ञानचेतना ही होती है?
शंका-सम्यक्त्वी के बन्धाभाव का समर्थन शंकाकार अन्य प्रकार से करता हुआ कहता है। सम्यक्त्वी के ज्ञानचेतना होती है, इससे उस बन्ध का अभाव आगमाविरुद्ध है।
समाधान-मिथ्यात्वी के ज्ञान चेतना का अभाव सबको इष्ट है। सम्यक्त्वी के ज्ञान चेतना ही होती है, ऐसी बात नहीं है। चेतना के स्वरूपपर विशेष प्रकाश डालते हुए अमृतचन्द्रसूरि 'समयसार' की टीका
(पृ. ४८१) लिखते हैं-"ज्ञान से अन्यत्र मैं 'यह' हूँ; इस प्रकार का चिन्तन अज्ञानचेतना है। वह कर्मचेतना, कर्मफल चेतना के भेद से दो प्रकार की है। ज्ञान से पृथक् मैं 'यह' करता हूँ, यह चिन्तन कर्म चेतना है। ज्ञान से अन्य मैं यह अनुभव करता हूँ, इस प्रकार का चिन्तन कर्मफल चेतना है। दोनों चेतनाएँ समान रसवाली हैं तथा संसार की कारण हैं। संसार का बीज अष्टविध कर्मों के बीजरूप होता है। अतः मुमुक्षु को उचित है कि वह अज्ञान चेतना को दूर करने के लिए सम्पूर्ण कर्मों के त्याग की भावना तथा सम्पूर्ण कर्मफल त्याग की भावना को नृत्य कराकर आत्मस्वरूपवाली भगवती ज्ञान चेतना को ही नित्य नृत्य करावे।"
इस विषय को अधिक स्पष्ट करते हुए जयसेनाचार्य लिखते हैं-"मेरा कर्म है, मेरे द्वारा किया गया है, इस प्रकार अज्ञान भाव से मन-वचन-काय की क्रिया करना कर्म चेतना है। आत्मस्वभाव से रहित अज्ञानभाव द्वारा इष्ट अनिष्ट विकल्परूप से हर्ष, विषाद, सुख-दुःख का जो अनुभवन करना है, वह कर्मफल चेतना है। (पृ. ४६०) कुन्दकुन्द स्वामी 'प्रवचनसार' में कहते हैं
“परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा।
सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा ॥” –गा. १२३ -'चेतना की ज्ञानरूप परिणति ज्ञानचेतना है, कर्मरूप परिणति कर्म-चेतना तथा फलरूप परिणति कर्मफल-चेतना है।'
इससे यह प्रकट होता है कि ज्ञानचेतना में ज्ञातृत्व भाव है, कर्मचेतना में कर्तृत्व परिणति है और कर्मफल चेतना में भोक्तृत्व भाव है। सम्यक्त्वी के कर्म तथा कर्मफल चेतना का सद्भाव
सम्यक्त्वी के ज्ञान चेतना ही पायी जाती है, इस भ्रम का निवारण करते हुए पंचाध्यायीकार कहते
“अस्ति तस्यापि सदृष्टेः कस्यचित् कर्मचेतना।
अपि कर्मफले सा स्यादर्थतो ज्ञानचेतना ॥ -पंचाध्यायी, २,२७५ -'किसी सम्यक्त्वी के कर्म तथा कर्मचेतना भी पायी जाती हैं। किन्तु परमार्थ से सम्यक्त्वी के ज्ञान चेतना पायी जाती है।'
यहाँ पूर्ण ज्ञान विशिष्ट सम्यक्त्वी को लक्ष्य में रखकर उसके ज्ञानचेतना का परमार्थ रूप से सद्भाव प्रतिपादित किया है। अपूर्ण ज्ञानी की अपेक्षा कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना भी कही है। इस दृष्टि का स्पष्टीकरण निम्नलिखित पद्य से होता है
१. “सर्वे कर्मफलं मुख्यभावेन स्थावरास्त्रसाः। सकार्य चेतयन्तस्ते प्राणित्वाज्ञानमेव च ॥" अन. ध. २/३५
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महाबन्ध
"चेतनायाः फलं बन्धस्तत्फले वाऽथ कर्मणि ।
रागाभावान्न बन्धोऽस्य तस्मात्सा ज्ञानचेतना ॥” – पंचाध्यायी, २,२७६
- 'कर्म तथा कर्मफलचेतना का फल बन्ध कहा है। उस सम्यक्त्वी के राग का अभाव होने से बन्ध नहीं है। अतः उसके ज्ञानचेतना है।' यहाँ रागाभाव होने से बन्ध का अभाव कहा है। यह रागाभाव उपशान्तकषायादि गुणस्थान में होगा, अतः उसके पूर्व रागभाव का सद्भाव होने से बन्ध का होना स्वीकार करना होगा । यथार्थ ज्ञानचेतना केवलज्ञानी के होगी जिनके अज्ञान का अभाव हो गया है और छद्मस्थ अवस्था से अतीत हो गये हैं। कुन्दकुन्द स्वामी की यह गाथा इस विषय में बहुत उपयोगी है।
“सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसादि कज्जजुदं । पाणित्तमदिक्कता णाणं विंदति ते जीवा ॥” – पंचास्तिकाय, गा. ३६ ।
- "सम्पूर्ण स्थावर जीवों के कर्मफल चेतना है । त्रस जीवों में कर्मफल के सिवाय कर्मचेतना भी पायी जाती है। प्राणी इस व्यपदेश को अतिक्रान्त-जीवन्मुक्त ज्ञानचेतना का अनुभवन करते हैं। यहाँ 'जीवन्मुक्त' शब्द का अर्थ अविरत सम्यक्त्वी नहीं, किन्तु केवली भगवान् हैं; कारण टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है कि सम्पूर्ण मोह कलंक के नाशक, ज्ञानावरण-दर्शनावरण ध्वंस करनेवाले, वीर्यान्तराय के क्षय से अनन्तवीर्य को प्राप्त करने वाले अत्यन्त कृतकृत्य केवली भगवान् ज्ञानचेतना को ही अनुभव करते हैं।
'पंचास्तिकाय ' टीका के ये शब्द महत्त्वपूर्ण हैं- “ तत्र स्थावराः कर्मफलं चेतयन्ते । त्रसाः कार्यं चेतयन्ते । केवलज्ञानिनो ज्ञानं चेतयन्ते (पंचास्तिकाय. टीका, पृ. १२) स्थावर जीव कर्मफलचेतना का अनुभवन करते हैं। सजीव कर्मचेतना का अनुभव करते हैं । केवलज्ञानी ज्ञानचेतना का अनुभवन करते हैं। /
'अनगारधर्मामृत' की संस्कृत टीका (पृ. १०७ में पण्डितप्रवर आशाधरजी लिखते हैं- “जीवन्मुक्तास्तु मुख्यभावेन ज्ञानम् । गौणतया त्वन्यदपि ।...सा चोभय्यपि जीवन्मुक्तेर्गौणी बुद्धिपूर्वक कर्तृत्व- भोक्तृत्वयोरुच्छेदात्” - जीवन्मुक्तों के मुख्यता से ज्ञान चेतना है। गौण रूप से उनके अन्य भी चेतनाएँ हैं। वे कर्म और कर्मफल चेतनाएँ जीवन्मुक्त में मुख्य नहीं, किन्तु गौणरूप से हैं; कारण उनमें बुद्धिपूर्वक कर्तृत्व और भोक्तृत्व का अभाव हो चुका है ।
इस विवेचन से यह विदित हो जाता है कि केवली भगवान् से नीचे के गुणस्थानवर्ती सम्यक्त्वी जीवों में कर्म और कर्मफल चेतनाएँ भी पायी जाती हैं। अविरत सम्यक्त्वी के विचित्र कार्यों को बन्धरहित बताना और उसे सदा सजग ज्ञानचेतना का ही स्वामी कहना बड़ी आश्चर्यप्रद बात है। क्षायिक सम्यक्त्वी श्रेणिक महाराज ने आत्मघात करके प्राण परित्याग किये। परम धार्मिक सीता के प्रतीन्द्र पर्याय के जीवन ने तपश्चर्या में निमग्न महामुनि रामचन्द्र को धर्म से डिगाने का मोहवश प्रयत्न किया, ताकि रामचन्द्रजी का सीता के स्वर्ग में ही उत्पाद हो जाए। ये क्रियाएँ शुद्धचेतना के प्रकाश को नहीं बताती हैं। इन पर कर्म, कर्मफल चेतनाओं का प्रभाव स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है । चारित्रमोहोदयवश ये क्रियाएँ हुआ करती हैं। 'सदन - निवासी, तदपि उदासी तातें आस्रव छटाछटी सी - यह सम्यक्त्वी गृहस्थ का चित्रण सम्पूर्ण आस्रव के निरोध को नहीं बताता है। मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी तथा असंयम निमित्तक आस्रव के निरोध का ज्ञापक है । अतः परमागम के प्रकाश से ज्ञात होता है कि सम्यक्त्वी के जघन्य अवस्था में ज्ञानचेतना के सिवाय कर्म और कर्मफल चेतनाएँ भी पायी जाती हैं। उनके कारण वह किन्हीं प्रकृतियों का बन्ध नहीं करता है और किन्हीं कर्म-प्रकृतियों का बन्ध भी करता है; इस प्रकार का स्याद्वाद है ।
ग्रन्थ का विषय - 'महाबन्ध' के इस 'पयडिबन्धाहियार' - प्रकृतिबन्धाधिकार नामक खण्ड में प्रकृतिसमुत्कीर्तन, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, बन्धकाल, बन्ध - अन्तर, बन्धसन्निकर्ष, भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव तथा अल्पबहुत्व - इन चौबीस अनुयोग द्वारों से प्रकृति बन्ध पर प्रकाश डाला गया है।
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प्रस्तावना
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इस कर्मबन्धन के कारण अनन्त ज्ञान-आनन्द शक्ति, आदि का अधिपति यह आत्मा दीनतापूर्ण जीवन बिता कष्ट उठाता है। इस आत्मा का यथार्थ कल्याण आत्मीय दोषों के निर्मूल करने में है। समाधि की प्रचण्ड अग्नि द्वारा इस दोष-पुंज का अविलम्ब क्षय होता है। संवर और निर्जरा रूप परिणति से उस स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है, जिसको परम निर्वाण कहते हैं। इस पद का प्रधान कारण भेदज्ञान की प्राप्ति है। मेरा आत्मा एक है, ज्ञान-दर्शनमय है; शेष सर्व अनात्म भाव है। इस विद्या के प्रभाव से सिद्धत्व की अभिव्यक्ति होती है। बन्ध की विपत्ति से बचने के लिए योगीन्द्रदेव कहते हैं
"अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय, अण्णु जि गुरुउ म सेवि।
अण्णु जि देउ म चिंति तुहुं, अप्पा विमलु मुएवि ॥* परमात्मप्रकाश, अ. १, दो. ६५ "हे आत्मन् ! तू दूसरे तीर्थों को मत जा; अन्य गुरु की शरण में मत पहुँच, अन्य देव का चिन्तवन मत कर। अपनी निर्मल आत्मा को छोड़कर अन्य का चिन्तन मत कर।"
जब आत्मा यह समझ लेता है कि मैं कर्मों के बन्ध में बद्ध हो गया हूँ; किन्तु मैं इससे भिन्न स्वरूपवाला हूँ, तब उसे सच्चा प्रकाश प्राप्त हो जाता है। तत्त्व की बात तो इतनी है
"भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।
तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥" 'जो जीव सिद्ध हुए हैं, वे सब अभेदरत्नत्रय स्वरूप भेद-विज्ञान से सिद्ध हुए हैं। जो अब तक संसार में बद्ध हैं, वे उस निर्विकल्पज्ञान के अभाव से बँधे हैं। भेदविज्ञान की लोकोत्तरता
भेदविज्ञान की उपलब्धि सरल कार्य नहीं है। उसके लिए ही सर्व उद्योग मुमुक्ष पुरुष किया करते हैं। विश्व के अतुलनीय साम्राज्य और विभूति का त्याग करके भी उसकी प्राप्ति दुर्लभ रहती है। भेदविज्ञान के पश्चात् अद्वैत भावना के अभ्यास द्वारा निर्विकल्प समाधि को प्राप्त करके जब जीव एकत्व-वितर्क नाम के द्वितीय शुक्लध्यान को प्राप्त करता है, तब कर्मों का राजा मोहनीय क्षय को प्राप्त होता है। उस समय क्षण मात्र में आत्मा अर्हन्त बनकर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख तथा अनन्तवीर्य रूप अनन्त चतुष्टय से समलंकृत होता है। उस प्राप्तव्य परम पदवी के लिए उपायरूप मार्गदर्शन गुणभद्राचार्य के इन शब्दों-द्वारा प्राप्त होता है
“अकिंचनोऽहमित्यास्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवः।
योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥-आत्मानुशासन, श्लोक ११० हे भद्र! 'अकिंचनोऽहं' 'मेरा कुछ नहीं है', इस भावना के साथ स्थित हो। ऐसा करने से तू त्रिलोकीनाथ बन जाएगा। मैंने यह तुझको परमात्मा का रहस्य कहा है जो योगियों के ही अनुभवगम्य है।
सत्पथ-इस अकिंचनपने की भावना के साथ संयमशील पुनीत जीवन भी आवश्यक है। वे मुनीश्वर यह मार्मिक बात कहते हैं
“दुर्लभमशुद्धमपसुखमविदितमृतिसमयमल्पपरमायुः।
मानुष्यमिहैव तपो मुक्तिस्तपसैव तत्तपः कार्यम् ॥१११॥" यह मनुष्य पर्याय दुर्लभ, अशुद्ध, सुखरहित है। इस पर्याय में आगामी मरण कब होगा, यह अविदित है। अन्य पर्यायों की तुलना में आयु भी थोड़ी है। यह विशेष बात है कि तपःसाधना इसी पर्याय में सम्भव है। कर्मक्षयरूप मुक्ति उसी तप से प्राप्त होती है। इससे तप का आचरण भी करना चाहिए। .
आचार्य वादीभसिंहसूरि 'क्षत्रचूडामणि' में कहते हैं
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महाबन्ध
“ नटवन्नैकवेषेण भ्रमस्यात्मन्स्वकर्मतः ।
तिरश्चि निरये पापाद्दिवि पुण्याद्वयान्नरे ॥” - क्षत्रचूडामणि, ११,३६
" हे आत्मन् ! तू अपने कर्म के उदय से नाटक के नटके समान जगत् में भ्रमण करता है । पाप के उदय से तिर्यंच और नरक पर्याय पाता है। पुण्य के उदय से देव होता है तथा पाप और पुण्य के संयुक्त उदय से मनुष्य पर्याय पाता है । "
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" त्वमेव कर्मणां कर्त्ता भोक्ता च फलसन्ततेः ।
भोक्ता च तात किं मुक्तौ स्वाधीनायां न चेष्टसे ॥” – क्षत्रचूडामणि, ११,४५
हे आत्मन्! तू ही अपने कर्मों का बन्ध करता है और उसकी फलपरम्परा का भोक्ता भी तू है । तू ही कर्मों का क्षय करने में समर्थ है। हे तात! मुक्ति तेरे स्वाधीन है, उसके लिए क्यों नहीं उद्योग करता है ?
कवि कर्मों के कुचक्र से बचने के हेतु आत्मा को सचेत करता हुआ कहता है-भद्र ! तू इन कर्माष्ट के दुष्कृत्यों पर दृष्टि देकर उनके विषय में धोखा मत खा । इन कर्मों का ढंग बड़ा अद्भुत है। क्षणभर में ये तुझे सिंहासन का अधिपति बनाकर दूसरे काल में तुझे भिखारी भी बना सकते हैं। इन पर विश्वास
मत कर
" आठन की करतूति विचारहु कौन-कौन ये करते हाल । कबहूँ सिर पर छत्र फिरावें, कबहूँ रूप करें बेहाल । देव - लोक सुख कबहूँ भुगते, कबहूँ रंक नाज को काल । ये करतूति करें कर्मादिक चेतन रूप तू आप सम्हाल ॥”
सार की बात
मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थी मानव को आत्मा और अनात्मा का पूर्णतया स्पष्ट अवबोध आवश्यक है। इसके पश्चात् जीव परम-यथाख्यात चारित्र के द्वारा कर्म-शैल के ध्वंस करने में समर्थ होता है । आचार्य कुन्दकुन्द की यह अमृतवाणी अमृत पथ को इन सारगर्भित शब्दों द्वारा स्पष्ट करती है
“बंधाणं च सहावं वियाणिदु अप्पणी सहावं च ।
बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्म विमोक्खणं कुणदि ॥” – समयसार, गा. २६३
जो विवेकी बन्ध का तथा आत्मा का स्वभाव सम्यक् प्रकार से अवगत कर बन्ध से विरक्त होता है, वह कर्मों का पूर्णतया क्षय करता है । '
'तत्त्वानुशासन' की तत्त्वदेशना अभिवन्दनीय है
“कर्मजेभ्यः समस्तेभ्यः भावेभ्यो भिन्नमन्वहम् । ज्ञ-स्वभावमुदासीनं पश्येदात्मानमात्मना ॥१६४॥”
मेरा आत्मा सम्पूर्ण कर्मजनित भावों से सर्वदा भिन्न है तथा वह ज्ञान स्वभाव एवं उदासीनरूप (राग-द्वेषरहित) है, ऐसा अपनी आत्मा के द्वारा आत्मा का दर्शन करे ।
9. Whoever with a clear knowledge of the nature of Karmic bondage as welll as the nature of the Self, does not get attracted by bondage-that person obtains liberation from karmas. (Samayasara by Prof. A. Chakravarti, P. 189.)
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११५
विषय-परिचय
'महाबन्ध' के प्रथम भाग का नाम-प्रकृतिबन्धाधिकार (पयडिबंधाहियारो) है। इसमें प्रकृतिबन्ध का अधिकार है। प्रकृतियों के स्वरूप का निरूपण करना 'प्रकृति समुत्कीर्तन' कहलाता है जो ‘महाबन्ध' के प्रथम भाग का मूल विषय है, किन्तु ताड़पत्र के त्रुटित होने से कुछ अंश प्रकाशित नहीं हो सका है। प्रकृतिसमुत्कीर्तन के दो भेद हैं-मूलप्रकृतिसमुत्कीर्तन और उत्तरप्रकृतिसमुत्कीर्तन। अपने अन्तर्गत समस्त भेदों का संग्रह करनेवाली तथा द्रव्यार्थिकनय-निबन्धक प्रकृति का नाम मूल प्रकृति है। अलग-अलग अवयव वाली तथा पर्यायार्थिकनय निमित्तक प्रकृति को उत्तरप्रकृति कहते हैं। मूल में जीव और कर्म स्वतन्त्र दो द्रव्य हैं। जीव -अमूर्त है और कर्म मूर्तिक है। अनादि काल से जीव और कर्म का भावात्मक तथा द्रव्यात्मक सम्बन्ध है। 'प्रकृति' शब्द का अर्थ शील, स्वभाव है। निक्षेप की दृष्टि से विचार किया जाए, तो नामप्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ये चार भेद किये गये हैं। द्रव्यप्रकृति के भी दो भेद हैं-आगमद्रव्यप्रकृति और नोआगमद्रव्यप्रकृति। 'द्रव्य' का अर्थ यहाँ पर भव्य है। इसके दो भेद हैं-कर्मद्रव्यप्रकृति और नोकर्मद्रव्यप्रकृति। जैसे, घट, सकोरा आदि की प्रकृति मिट्टी है, पुद्गल की प्रकृति
; वैसे ही ज्ञानावरवादि आठ कर्मों की अपनी-अपनी प्रकृति है। ज्ञान जीव का स्वभाव है और ज्ञान का आवरण करना यह ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव है। ज्ञानावरणकर्म की पाँच प्रकृतियाँ हैं-आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण। मिथ्यात्व के उदय में होने वाले आभिनिबोधिक, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान को कुज्ञान कहा जाता है। ज्ञान एक होने पर भी बन्धविशेष के कारण वह पाँच प्रकार का कहा गया है। - आभिनिबोधिकज्ञान पाँच इन्द्रियों और मनके निमित्त से अप्राप्त रूप बारह प्रकार के पदार्थों का अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा एवं प्राप्त रूप उन बारह प्रकार के पदार्थों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियों के द्वारा मात्र अवग्रह रूप होता है, इसलिये इसके अनेक भेद हो जाते हैं। अर्थावग्रह रूप होता है, इसलिए इसके अनेक भेद हो जाते हैं। अर्थावग्रह व्यक्त वस्तु को ग्रहण करता है जो इन्द्रिय और मन के द्वारा होता है। ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान भी पाँच इन्द्रियों और मन से होने के कारण अर्थावग्रहकी भाँति प्रत्येक छह-छह भेदवाला है। इस कारण व्यंजनावग्रह के चार भेदों में अर्थावग्रहादि के चौबीस भेदों को मिलाने से २८ भेद होते हैं। अतएव आभिनिबोधिकज्ञानावरण कर्म के भी २८ भेद हो जाते हैं। इसके बहु, एक, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, उक्त, अनुक्त, ध्रुव, अध्रुव, निःसृत, अनिःसृत-इन बारह प्रकार के पदार्थों को विषय करने से प्रत्येक के बारह-बारह भेद हो जाते हैं। इस प्रकार २८ x १२-३३६ भेद मतिज्ञान या आभिनिबोधिकज्ञान के होते हैं। अतः आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकर्म के भी ३३६ भेद होते हैं।
ज्ञानका दूसरा भेद श्रुतज्ञान है। यह मतिज्ञानपूर्वक मन के आलम्बन से होता है। श्रुतज्ञान के शब्दजन्य तथा लिंगजन्य दो भेद किये गये हैं। यथार्थ में पदार्थ को जानकर उसके सम्बन्ध में या उससे सम्बन्धित अन्य पदार्थ के सम्बन्ध में विचार-धारा की प्रवृत्ति होना श्रुतज्ञान है। इस दृष्टि से श्रुतज्ञान अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक अथवा द्रव्य-भाव के भेद से दो प्रकार का है। अतः आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह अंग, उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्व और सामायिकादि चौदह प्रकीर्णक द्रव्यश्रुत हैं। द्रव्यश्रुत अक्षरात्मक है। उसके सुनने-पढ़ने से श्रुतज्ञान की पर्याय रूप जो उत्पन्न हुआ ज्ञान है, वह भावश्रुत है। वर्तमान परमागम नामसे द्रव्यश्रुत तथा परमागके आधार से उत्पन्न निर्विकार, स्वसंवेदन (आत्मानुभव) ज्ञान रूप भावश्रुतज्ञान है। अतः आत्मविषयक उपयोग दर्शन कहा गया है। दर्शन ज्ञानरूप नहीं होता, क्योंकि ज्ञान बाह्य अर्थों को विषय करता है।
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११६
महाबन्ध
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा से सीमित ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। इसको सीमाज्ञान भी कहते हैं। महास्कन्ध से लेकर परमाणु पर्यन्त समस्त पुद्गल द्रव्यों को, असंख्यात लोकप्रमाण क्षेत्र, काल
और भावों को तथा कर्म के सम्बन्ध से पुद्गलभावको प्राप्त हुए जीवों को जो प्रत्यक्ष रूप से जानता है, उसे अवधिज्ञान समझना चाहिए। जहाँ इस ज्ञान का विकास नहीं हो रहा है, वह अवधिज्ञानावरणीय कर्म है जो एक प्रकार का है। उसकी प्ररूपणा दो प्रकार की है। क्षयोपशम की दृष्टि से असंख्यात प्रकार : होने पर भी अवधिज्ञान के मुख्य दो भेद कहे गये हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों, नारकियों और तीर्थंकरों के होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तिर्यंचों तथा मनुष्यों के होता है। इन दोनों अवधिज्ञानों के अनेक भेद हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि तथा हीयमान, वर्द्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र । इन सबका प्रतिबन्धक होने से अवधिज्ञानावरण कर्म कहा जाता है। इसकी असंख्यात कर्म-प्रकृतियाँ हैं। काल की अपेक्षा अवधिज्ञान जघन्य से दो-तीन तथा उत्कर्ष से सात-आठ भवों का जानता है।।
दूसरे के मन में स्थित विषय को जो जानता है, वह मनःपर्यय ज्ञान है। इसका जो आवरण करता है, वह मनःपर्यय ज्ञानावरण कर्म है। मनःपर्ययज्ञान के दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति। पैंतालीस लाख योजन के भीतर के चित्तगत स्थित पदार्थ को मनःपर्ययज्ञान जानता है। मनःपर्ययज्ञान पराधीन ज्ञान नहीं है। वर्तमान काल में जीवों के मन में स्थित सरल मनोगत, वचनगत और कायगत पदार्थ को जो जानता है, वह ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान है। जिसकी मति विस्तीर्ण है, वह विपुलमति मनःपर्ययज्ञान है। द्रव्य की अपेक्षा वह जघन्य रूप से चक्षु इन्द्रिय की निर्जरा को जानता है। कालकी अपेक्षा जघन्य से सात-आठ भवों को
और उत्कृष्ट से असंख्यात भवों को जानता है। श्रेत्र की अपेक्षा जघन्य से योजनपृथक्त्वप्रमाण (आठ-नौ घन योजन प्रमाण) क्षेत्र को जानता है। भाव की अपेक्षा जो भी द्रव्य इसे ज्ञात है उस-उसकी असंख्यात पर्यायों को जानता है। ऋजुमति में इन्द्रियों और मन की अपेक्षा होती है; किन्तु विपुलमति में उनकी अपेक्षा नहीं होती है।
केवलज्ञान सम्पूर्ण तथा अखण्ड है। खण्डरहित होने से वह सकल है। पूर्ण रूप से विकास को प्राप्त होने से उसे सम्पूर्ण कहा गया है। कर्म-शत्रुओं का अभाव होने से वह असपत्न है। केवलज्ञान का विषय तीनों कालों और तीनों लोकों के सम्पूर्ण पदार्थ माने गये हैं। यथार्थ में केवलज्ञान की स्वच्छता का ऐसा परिणमन है कि तीनों लोकों व तीनों कालों के जितने पदार्थ हैं वे सब एक साथ एक समय में केवलज्ञान में झलकते हैं। लोक में ऐसा कोई ज्ञेय नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो। अतः ज्ञान का धर्म ज्ञेय को जानना है और ज्ञेय का स्वभाव ज्ञान का विषय होना है। इन दोनों में विषय-विषयीभाव का सम्बन्ध है। लेकिन सर्वज्ञ का ज्ञान सम्पूर्ण सम्बन्धों से रहित परम स्वाधीन है। फिर, ज्ञान ज्ञान-चेतना से निकलकर बाहर जाता नहीं है और ज्ञेय कभी भी ज्ञान में प्रवेश करता नहीं है। अतएव केवलज्ञान असहाय है. उसे मन और इन्द्रियों की तथा ज्ञेय द्रव्यों की सहायता लेने की आवश्यकता नहीं होती है। यही कारण है कि केवलज्ञानी का ज्ञान युगपत् (एक साथ) सब को जानता है; क्रमवार नहीं। लेकिन एक साथ तीनों लोकों, तीनों कालों के सभी द्रव्यों, उनके गुणों और पर्यायों को जानने पर भी ज्ञान सीमित नहीं होता, बल्कि व्यापक हो जाता है।
कर्म की सामान्य प्रकृत्तियाँ १४८ हैं। इनके विशेष भेद किये जायें, तो अनन्त भेद हो जाते हैं। ओघसे ५ ज्ञानावरण तथा ५ अन्तराय की प्रकृतियों का सर्वबन्ध होता है। आयुकर्म को छोड़कर सातों कर्मों की प्रकृतियों का निरन्तर बन्ध होता है। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगों के निमित्त से कर्म उत्पन्न होते हैं और कर्मों के निमित्त से जाति, बुढ़ापा, मरण और वेदना उत्पन्न होते हैं। शुभाशुभ कर्मों का विपाक प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग इन चार भागों में विभक्त है। जीवों को एक और अनेक जन्मों में पण्य तथा पाप कर्म का फल प्राप्त होता है।
धर्मध्यान कषायसहित जीवों के होता है। जिनदेव का उपदेश है कि असंयत सम्यग्दृष्टि के धर्मध्यान
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विषय- परिचय
११७
होता है। (षट्खण्डागम, वर्गणाखण्ड ५, ४, २६) प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मिथ्यात्व गुणस्थान सम्बन्धी १६ और सासादन गुणस्थान सम्बन्धी २५ प्रकृतियों का अभाव होने से बन्ध योग्य ७७ प्रकृतियाँ कही गयी हैं । द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में सातवें गुणस्थान से ग्यारहवें पर्यन्त आरोहरण कर जब उतरकर चौथे गुणस्थान में आता है, तब भी ७७ प्रकृतियों का बन्ध होता है तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व की भाँति मनुष्यायु और देवायु का अभाव होता है ।
दर्शनावरण, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी, तिर्यंचगति त्रिक का जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। 'कर्मस्थिति' शब्द से केवल दर्शनमोहनीय की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति का ग्रहण हुआ है। उस में सब कर्मों की स्थिति संगृहीत है । ( महाबन्ध, भा. १, पृ. ६३) अनन्तानुबन्धी का सासादन पर्यन्त बन्ध होता है, किन्तु मिथ्यात्व का प्रथम गुणस्थान पर्यन्त ।
'महाबन्ध' के प्रथम भाग का 'प्रकृतिबन्धाधिकार' षट्खण्डागमके वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत बन्धनीय अर्थाधिकार में २३ पुद्गल वर्गणाओं की प्ररूपणा में विवेचित है। मिथ्यादर्शन, असंयमादि परिणाम विशेष से कार्मणवर्गणा के परमाणु कर्म रूप से परिणत होकर जीवप्रदेशों के साथ सम्बद्ध होते हैं जिसे 'प्रकृतिबन्ध ' कहते हैं। इस प्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा २४ अनुयोग द्वारों में की गयी है जो इस प्रकार है
१. प्रकृति समुत्कीर्तन - इस अनुयोगद्वार में कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा है । महाबन्ध के इस भाग में ज्ञानावरणीय की उत्तर तथा उत्तरोत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा अनुयोगद्वार के समान प्ररूपित है ।
२-३. सर्वबन्ध-नोसर्वबन्ध - इन दो अनुयोगद्वारों में ज्ञानावरणादि कर्म-प्रकृतियों के विषय में सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध की प्ररूपणा की गयी है। जिस कर्म की जब अधिक से अधिक प्रकृतियाँ एक साथ बँधती हैं, तब उनके बन्ध को सर्वबन्ध कहते हैं । उदाहरण के लिए, ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियाँ और अन्तराय की पाँच प्रकृतियाँ दोनों अपनी बन्ध-व्युच्छित्ति होने तक सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान तक साथ-साथ बँधती हैं, इसलिए इन दोनों कर्मों का सर्वबन्ध है। दर्शनावरण की नौ प्रकृतियाँ दूसरे गुणस्थान तक साथ-साथ बँधती हैं, इसलिए उसका दूसरे गुणस्थान तक सर्वबन्ध । दूसरे गुणस्थान में निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला तथा स्त्यानगृद्धि इन तीन की बन्ध-व्युच्छित्ति हो जाने से उसके बाद के अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग तक छह प्रकृतियाँ बँधती हैं, इसलिए उसका यह नोसर्वबन्ध है । इसी प्रकार प्रथम भाग में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों के व्युच्छिन्न हो जाने पर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक उसकी चार प्रकृतियाँ बँधती हैं जो दर्शनावरण का नोसर्वबन्ध है । वेदनीय, आयु और गोत्र इन तीन कर्मों का नोसर्वबन्ध ही होता है । इसका कारण यह है कि एक समय में इन कर्मों की एक प्रकृति का ही बन्ध सम्भव है ।
४-७. उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध और अजघन्यबन्ध ये प्रकृतिबन्ध में सम्भव नहीं हैं । ८- ६. सादि-अनादिबन्ध - किसी कर्मप्रकृति के बन्ध का अभाव हो जाने पर पुनः उसका बन्ध होना सादिबन्ध कहा जाता है। जैसे कि ज्ञानावरण की ५ प्रकृतियों का बन्ध सूक्ष्मसाम्पराय तक होता है । जो जीव इस गुणस्थान में बन्ध-व्युच्छित्ति करके उपशान्तकषाय हुआ है, उसके वहाँ उनके बन्ध का अभाव हो गया। परन्तु जब उपशान्तकषाय से गिरकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में आता है, तब उन प्रकृतियों का पुनः बन्ध होने लगता है । इसे सादिबन्ध कहते हैं ।
जब तक जीव श्रेणि पर आरोहण नहीं करता, तब तक उसके अनादिबन्ध होता रहता है । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक अनादिबन्ध कहा गया है। इसी प्रकार अन्य कर्मों के सम्बन्ध में भी सादि-अनादि बन्ध का विचार किया गया है।
१०-११. ध्रुव-अध्रुवबन्ध - अभव्य जीव के जो बन्ध होता है वह ध्रुवबन्ध है, क्योंकि उसके अनादिकाल से होने वाले उस कर्मबन्ध का कभी अभाव होने वाला नहीं है । किन्तु भव्य जीवों का कर्मबन्ध अध्रुवबन्ध है. क्योंकि उनके कर्मबन्ध का अभाव हो सकता है।
१२. बन्ध-स्वामित्वविचय - इस प्रकरण का ओघ तथा आदेश से दो प्रकार का निर्देश किया गया है।
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११८
महाबन्ध
ओघ की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगकेवली पर्यन्त चौदह जीव-समास-गुणस्थान होते हैं। इन में प्रकृतिबन्ध की व्युच्छित्ति कही गई है। बन्ध-व्युच्छित्ति प्राप्त प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं
मिथ्यात्व में १६, सासादन में २५, अविरत में १०, देशविरत में ४, प्रमत्तसंयत में ६, अप्रमत्तसंयत में १, अपूर्वकरण में ३६, अनिवृत्तिकरण में ५, सूक्ष्मसाम्पराय में १६, सयोगकेवली में १-इस प्रकार इन १० गुणस्थानों के जीव बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं।
मनुष्यगति में मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थान हैं। कर्म-बन्ध के योग्य १२० प्रकृतियाँ हैं। इनका वर्णन ओघवत् किया गया है। इनमें विशेष यह है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थंकर, आहारक द्विकका बन्ध न होने से शेष ११७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्वादि १६ प्रकृतियों का बन्ध न होने से १०१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। मिश्र गुणस्थान में ६६ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अविरत सम्यग्दृष्टि के देवायु तथा तीर्थकर का बन्ध प्रारम्भ हो जाने से ७१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। देशविरत में अप्रत्याख्यानावरण ४ का बन्ध न होने से ६७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। प्रमत्त गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण ४ का बन्ध न होने से ६३ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अप्रमत्तसंयत के अस्थिर, असाता, अशुभ, अरति, शोक, अयश कीर्ति इन छह का बन्ध नहीं होता, किन्तु आहारकद्विकका बन्ध होने से ५६ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अपूर्वकरण में देवायु का बन्ध न होने से ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अनिवृत्तिकरण में बन्ध योग्य २२ प्रकृतियाँ हैं। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में अनिवृत्तिकरण की पुरुषवेद और ४ संज्वलन कषायों की बन्ध-व्युच्छित्ति हो जाने से १७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। उपशान्तकषाय में एक सातावेदनीय का ही बन्ध होता है। क्षीणकषाय और सयोगी जिन के एक सातावेदनीय का ही बन्ध कहा गया है। अयोगकेवली के कोई बन्ध नहीं होता। ___ इनके अतिरिक्त बारह अनुयोगद्वारों में भी उल्लेख किया गया है। उन अनुयोगद्वारों के नाम इस प्रकार
१३. एक जीव की अपेक्षा काल-प्ररूपणा, १४. एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगम प्ररूपणा, १५. सन्निकर्ष-प्ररूपणा, १६. भंगविचय-प्ररूपणा, १७. भागाभागानुगम-प्ररूपणा, १८. परिमाणानुगम-प्ररूपणा, १६. क्षेत्रानुगम-प्ररूपणा, २०. स्पर्शनानुगम-प्ररूपणा, २१. अनेक जीवों की अपेक्षा कालानुगम प्ररूपणा, २२. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम प्ररूपणा, २३. भावानुगम-प्ररूपणा, २४. अल्पबहुत्वानुगम-प्ररूपणा
इस प्रकार चौबीस अनुयोगद्वारों में कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा के समान प्रकृत प्रकृतिबन्धाधिकार (महाबन्ध) में प्रकृत्ति अनुयोगद्वार के समान ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के प्रसंग से उत्तर प्रकृतियों तथा उत्तरोत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा की गई है। प्रकृतिअनुयोगद्वार में जिन गाथा-सूत्रों का उपयोग किया गया है, 'महाबन्ध' की इस पुस्तक में भी आगे-पीछे वे ही प्रयुक्त हैं। (महाबन्ध, १, पृ. २१-२३)
-देवेन्द्रकुमार शास्त्री
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विषय-सूची
विषय
मङ्गलाचरण मूल प्रकृतिसमुत्कीर्तन आठ प्रकार के कर्म ज्ञानावरण कर्म की पाँच प्रकृतियाँ आभिनिबोधिक ज्ञानावरण-प्ररूपणा श्रुतज्ञानावरण-प्ररूपणा अवधिज्ञानावरण-प्ररूपणा भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान के तीन भेद अवधिज्ञान सम्बन्धी १६ काण्डकों
का निरूपण परमावधि का काल
परमावधि का क्षेत्र २. मनःपर्ययज्ञानावरण-प्ररूपणा
दो प्रकार की प्ररूपणा ...क्षेत्र तथा काल की अपेक्षा प्ररूपणा ३. केवलज्ञानावरण-प्ररूपणा
त्रैकालिक तथा त्रिलोक विषयक ज्ञान ३२
सर्वज्ञता ४. दर्शनावरणादि कर्ग-प्ररूपणा
दर्शनावरणादि कर्म-प्रकृतियाँ कुल १४८ कर्म-प्रकृतियाँ सर्वबन्धनोसर्वबन्ध-प्ररूपणा सर्वबन्ध तथा नोसर्वबन्ध उत्कृष्टबन्ध-अनुत्कृष्टबन्ध-प्ररूपणा जघन्यबन्ध-अजघन्यबन्ध-प्ररूपणा ३५ सादि-अनादि-धूव-अधुवबन्ध-प्ररूपणा ओघ से सादिबन्ध आयुबन्ध के विषय में नियम ओघ तथा आदेश का अर्थ . ३७ ध्रुव तथा अध्रुवबन्ध
३७
७. बन्धस्वामित्वविचय-प्ररूपणा
ओघ से चौदह गुणस्थानों में
प्रकृतिबन्ध की व्युच्छित्ति तीर्थंकर नामगोत्रकर्म का बन्ध आदेश से तीसरे नरक तक
तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध तिर्यंचों में बन्धक
मिथ्यात्व गुणस्थान के बन्धक ८. काल-प्ररूपणा
एक जीव की अपेक्षा वर्णन तिर्यंचों में बन्धकाल देवों में जघन्य तथा उत्कृष्ट आयु एकेन्द्रियों में जघन्य तथा उत्कृष्ट
बन्धकाल पंचेन्द्रियों में जघन्य तथा उत्कृष्ट
बन्धकाल स्त्रीवेद में जघन्य तथा उत्कृष्ट
बन्धकाल उपशम श्रेणी की अपेक्षा बन्धकाल अभव्यसिद्धिक जीव की अपेक्षा
बन्धकाल तिर्यंचगति त्रिक का ओघ से
बन्धकाल मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी
का बन्धकाल मनुष्यगति पंचक का जघन्य
तथा उत्कृष्ट बन्धकाल संयमासंयम का स्थितिकाल लेश्याओं में बन्धकाल सम्यक्त्व में बन्धकाल
७६ आहारकों-अनाहारकों में बन्धकाल ७८ अन्तरानुगम-प्ररूपणा एक जीव की अपेक्षा ओघ से वर्णन ७६
६.
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महाबन्ध
११४ ११६ ११६ ११७
११८
११६
१२०
१२१
१२३ १२४
६६
१२५
૧૦૧
१२७ १२८ १२८
१२६
१३१
प्रत्याख्यानावरणी-अप्रत्याख्यानावरणी
रूप आठ कषायों का बन्ध-काल ८० अप्रमत्तसंयत का उत्कृष्ट अन्तर ८१ नारकियों में आदेश से बद्धयमान
प्रकृतियों में अन्तर तिर्यंचों में बन्ध का अन्तर देवों में बन्ध का अन्सर एकेन्द्रियों में बन्ध का अन्तर विकलत्रयों में बन्ध का अन्तर पंचेन्द्रिय, त्रसकाय तथा उनके
पर्याप्तकों में अन्तर योगों तथा काययोगों का अन्तर-काल वेदों का अन्तरकाल ज्ञानावरणादि का अन्तर नहीं अज्ञानी जीवों का उत्कृष्ट अन्तर
૧૦૨ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान
तथा मनःपर्ययज्ञान में अन्तर १०३ चक्षुदर्शनी तथा अचक्षुदर्शनी का अन्तर
१०५ छहों लेश्या वाले जीवों में अन्तर १०६ क्षायिक सम्यक्त्व तथा वेदक सम्यक्त्व में अन्तर
१०८ उपशम सम्यक्त्वी में अन्तर १०६
आहारक तथा अनाहारकों में अन्तर ११० १०. स्वस्थानसन्निकर्ष-प्ररूपणा
ज्ञानावरण की प्रकृति का बन्धक
नियमतः चारों का बन्धक १११ निद्रानिद्रा का बन्धक नियम से . __दर्शनावरण का बन्धक अनन्तानुबन्धी क्रोध के बन्धक के मिथ्यात्व का बन्ध होने का नियम नहीं अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण
तथा संज्वलन क्रोध के बन्धक के मिथ्यात्व का बन्ध होने का नियम नहीं
११३ संज्वलन क्रोध का बन्धक मान,
माया, लोभ रूप संज्वलन का नियम से बन्धक
नोकषायादि का बन्धक मिथ्यात्व __ का स्यात् बन्धक है नरकत्रिक का बन्धक तिर्यंचगति का बन्धक मनुष्यगति का, देवगति का बन्धक एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय
जाति नामकर्म का बन्धक औदारिक, वैक्रियिक शरीर
का बन्धक तैजस शरीर का बन्धक छह संहननों के बन्धक, अबन्धक परघात के बन्धक आताप और उद्योत के बन्धक बादर-सूक्ष्म के बन्धक स्थिर के बन्धक गोत्र, अन्तराय के बन्धक आदेश से चारों गतियों के बन्धक काययोगों में बन्धक संयतासंयत, वेदक-उपशम
सासादन सम्यक्त्व में बन्धक ११. परस्थानसन्निकर्ष-प्ररूपणा
ओघ से आभिनिबोधिक ज्ञानावरण
के बन्धक निद्रा, निद्रा-निद्रा के बन्धक साता-असाता के बन्धक नोकषायों के बन्धक मिथ्यात्व के बन्धक
अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण___ संज्वलन क्रोध के बन्धक वेदों के बन्धक हास्य, रति, भय के बन्धक चारों गतियों के बन्धक आहारकादि शरीरों के बन्धक संस्थान एवं संहननादि के बन्धक उद्योत के बन्धक तीर्थंकर तथा उच्चगोत्र के बन्धक काययोगों के बन्धक
लेश्याओं में बन्धक १२. मंगविचयानुगम-प्ररूपणा
ओघ से नाना जीवों की अपेक्षा साता के बन्धक
१३२
१३३
१३४ १३४
१३५
१३६
१३७
१११
११२
१३६ १४० १४४ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८
११४
१४६
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१६६
१६७
२०१
१५६
१६३
२११
विषय-सूची
१२१ आदेश की अपेक्षा नरकगति
१४. परिमाणानुगम-प्ररूपणा के बन्धक
१५० ओघ से वर्णन
१६४ तिर्यंचों में बन्धक
१५१
आदेश से नरक-तिर्यंचगति में बन्धक १६५ मनुष्यत्रिक में बन्धक
मनुष्यों में बन्धक मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकों में बन्धक
१५२
ओघ से देवगति में बन्धक देवों में बन्धक
९५३ त्रसपर्याप्तकों में बन्धक
१९८ काययोगों में बन्धक
१५३ योगों में बन्धक
૧૬૬ क्षायिक, वेदक, उपशम सम्यक्त्व में
स्त्रीवेद में बन्धक बन्धक
मति-श्रुत-अवधिज्ञान में बन्धक अनाहारकों में बन्धक
२०२ १५७
छहों लेश्याओं में बन्धक २०३ १३. भागाभागानुगम-प्ररूपणा ओघ से वर्णन
सम्यग्दृष्टियों में बन्धक
२०४ १५८ आदेश से साता-असाता के बन्धक १६०
१५. क्षेत्रानुगम-प्ररूपणा मनुष्य तथा तिर्यंचगति के बन्धक
ओघ से बन्धक १६२
२०६ पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में बन्धक
साता-असाता के बन्धक
२०६ मनुष्य-देव-नरकायु के बन्धक १६४
काययोगों के बन्धक
२०६ पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्धि पर्याप्तक
आदेश से नारकियों में बन्धक २१० अपर्याप्तकों में बन्धक
१६६
तिर्यंचों में बन्धक मनष्यलब्ध्यर्याप्त-पर्याप्तकों में बन्धक १६७
मनुष्यत्रिकों में बन्धक
२१२ ओघ से देवगति में बन्धक १६८
एकेन्द्रियों में बन्धक
२१४ एकेन्द्रियों में बन्धक
१७० १६. स्पर्शनानुगम-प्ररूपणा सूक्ष्म अपर्याप्तकों में बन्धक १७२
ओघ से बन्धकों का क्षेत्र-स्पर्शन २१७ पंचेन्द्रियों में बन्धक
१७३
मिथ्यात्व तथा अप्रत्याख्यानावरण त्रसों में बन्धक
१७४
के बन्धकों का सर्वलोक-स्पर्शन २१६ योगों में बन्धक
१७५
तीनों वेदों तथा चारों आयु के काययोगों में बन्धक
बन्धकों का क्षेत्र-स्पर्शन
२२० वेदों में बन्धक
१७६
आदेश से नारकियों में बन्धकों का क्रोधकषाय में बन्धक
१८० क्षेत्र-स्पर्शन
२२१ साता-असाता के बन्धक
१८३
तिर्यंचगति के बन्धकों का क्षेत्रमति-श्रुत-अवधि-मनःपर्ययज्ञान
स्पर्शन
२२२ __ में बन्धक
१८४
छहों संहननों के बन्धकों का क्षेत्रपरिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय,
स्पर्शन __ यथाख्यातसंयम में बन्धक १८५ छहों लेश्याओं में बन्धक
पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-लब्ध्यपर्याप्तकों में क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में बन्धक
बन्धकों का क्षेत्र-स्पर्शन
२२६ १८६ वेदक-उपशम-सासादन सम्यक्त्व में
लबध्यपर्याप्तक मनुष्यों में बन्धक
१६० बन्धकों का क्षेत्र-स्पर्शन
२३० सम्यक्त्वमिथ्यात्वी में ध्रुव प्रकृतियों
देवों में बन्धकों का क्षेत्र-स्पर्शन २३३ के बन्धक
१६०
एकेन्द्रियों में बन्धकों का क्षेत्र-स्पर्शन २३६ आहारक-अनाहारकों में साता
पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में बन्धकों का असाता के बन्धक
૧૬૧ क्षेत्र-स्पर्शन
२३८
१७६
२२५
१८६
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१२२
महाबन्ध
२५
३०१ ३०५ ३०७ ३०८ ३०६ ३१२ ३१५
२६२
३१६ ३१७
३१८
३१८ ३२०
३२१
३२१
ओघ से काययोगियों में बन्धकों का क्षेत्र-स्पर्शन
२४२ वेदों में बन्धकों का क्षेत्र-स्पर्शन २४७ मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी में बन्धकों का
क्षेत्र-स्पर्शन आभिनिबोधिक-श्रुत-अवधिज्ञानियों में __बन्धकों का क्षेत्र-स्पर्शन २५७ संयतासंयत जीवों में बन्धकों का क्षेत्र-स्पर्शन
२६० छहों लेश्याओं में बन्धकों का
क्षेत्र-स्पर्शन सम्यक्त्वों में बन्धकों का क्षेत्र-स्पर्शन २६८ आहारक-अनाहारकों में बन्धकों का क्षेत्र-स्पर्शन
२७२ १७. कालानुगम-प्ररूपणा नाना जीवों की अपेक्षा ओघ से वर्णन
२७३ आदेश से नारकियों में बन्धकाल २७४ तिर्यंचों में बन्धकाल
२७५ मनुष्यों में बन्धकाल
२७६ योगों, काययोगों तथा वेदों में बन्धकाल
२७८ मति-श्रुत-अवधिज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयम तथा संयतासंयतों में बन्धकाल
२८३ लेश्याओं तथा सम्यक्त्वों में बन्धकाल २८४ १८. अन्तरानुगम-प्ररूपणा ओघ से अन्तर-निरूपण
२८७ आदेश से नारकियों तथा तिर्यंचों __ में अन्तर
२८८ मनुष्यों तथा देवों में अन्तर
२८६ योगों में अन्तर
२६० वेदों में अन्तर
२६२ आभिनिबोधिक श्रुत, अवधि,
मनःपर्यय में अन्तर लेश्याओं में अन्तर
२६४ सम्यग्दृष्टियों में अन्तर १६. भावानुगम-प्ररूपणा
भावानुगम का निर्देश ओघ से बन्धकों के भावों का निरूपण
२६८
आदेश से नारकियों में बन्धकों
के भाव तिर्यंचों में बन्धकों के भाव एकेन्द्रियों में बन्धकों के भाव देवों में बन्धकों के भाव काययोगों में बन्धकों के भाव वेदों के बन्धकों के भाव अपगतवेद में बन्धकों के भाव सामायिक, छेदोपस्थापना संयम में
बन्धकों के भाव तेजोलेश्या में बन्धकों के भाव तिर्यंच-मनुष्य-देवायु के
बन्धकों के भाव उपशमादि सम्यक्त्व में
बन्धकों के भाव
अनाहारकों में बन्धकों के भाव २०.स्वस्थानजीव-अल्पबहुत्व-प्ररूपणा
अल्पबहुत्व के भेद ओघ से अल्पबहत्व का निर्देश आदेश से नारकियों में
अल्पबहुत्व का कथन तिर्यंचों में अल्पबहुत्व चारों गतियों की आयु के - बन्धक जीव देवगति के बन्धक जीव
औदारिक शरीर के बन्धक जीव पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में
जीव मनुष्यगति के बन्धक जीव दर्शनावरण, साता-असाता, लोभ,
संज्वलन तथा नोकषाय के
अबन्धक जीव चारों गतियों के अबन्धक जीव आहारक शरीर के बन्धक जीव नामकर्म सम्बन्धी चारों गतियों के
अबन्धक जीव काययोगियों में बन्धक जीव वेदों में बन्धक जीव कषाय-अकषायों में बन्धक जीव ।
३२५
३२६
३२७ ३२८ ३२८
३२६ ३२६
३३०
२६३
३३१ ३३७
२६४
२६७
३३७ ३३६ ३४१
३४३
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मनुष्य- देव- नरकायु के बन्धकअबन्धक जीव
सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, यथाख्यातसंयम एवं संयतासंयतोंमें बन्धक-अबन्धक जीव
तीन कृष्ण, नील, तेजलेश्याओं में बन्धक-अबन्धक जीव
अन्य तीन लेश्याओं में बन्धकअबन्धक जीव
विषय-सूची
३४६
३४७
३४८
३५०
३५२
पाँचों शरीरों, संस्थानों तथा संहननों के बन्धक जीव सम्यग्दृष्टियों में बन्धक, अबन्धक जीव ३५३ आनुपूर्वियों में आहारक शरीर के
बन्धक-अबन्धक जीव
वैक्रियिक, तैजस, कार्मण शरीर के
बन्धक जीव
अनाहारकों में बन्धक जीव
२१. परस्थान - जीव - अल्प- बहुत्व - प्ररूपणा
ओघ से बन्धक जीव
३५८
आदेश से नारकियों में बन्धक जीव ३५६ तिर्यंचों में बन्धक जीव मनुष्यों में बन्धक जीव देवों में बन्धक जीव एकेन्द्रियों में बन्धक जीव
स पर्याप्तकों में बन्धक जीव योगों तथा काययोगियों में बन्धक जीव
३५४
३५६
३५७
३६०
३६२
३६३
३६५
३६६
३६७
वेदों में बन्धक जीव आभिनिबोधक-श्रुत-अवधिज्ञान में
बन्धक जीव
३७१
३७२
मन:पर्ययज्ञान में बन्धक जीव छहों लेश्याओं में बन्धक जीव सम्यग्दृष्टियों में बन्धक जीव
३७३
३७५
आहारक- अनाहारकों में बन्धक जीव ३७८ २२. स्वस्थान अद्धा - अल्पबहुत्व-प्ररूप ओघ से परिवर्तमान प्रकृतियों के
बन्धकों का जघन्य उत्कृष्टकाल ३७६ चौदह जीवसमासों में तकों का काल ३७६ आदेश से नारकियों में बन्धकों का काल
पंचेन्द्रिय तिर्यंचों तथा मनुष्यों में बन्धकों का काल. एकेन्द्रियों में बन्धकों का काल काययोगियों में बन्धकों का काल सम्यग्दृष्टियों, मति श्रुत-अवधि
मन:पर्ययज्ञान में बन्धकों का काल ३८७ छहों लेश्याओं में बन्धकों का काल ३८७ २३. परस्थान-अद्धा-अल्पबहुत्व-प्ररूपणा परिवर्तमान सत्रह प्रकृतियों के
बन्धकों का काल
आदेश से नारकियों में बन्धकों का
काल
मनुष्य - तिर्यचायु के बन्धकों का
जघन्य काल
लेश्याओं में बन्धकों का काल
१२३
३६६
३८.३
३८४
३८५
३८६
३८८
३८६
३६० ३६३
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महाबंधस्स
पयडिबंधो पढमो अत्याहियारो
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मंगल-स्मरणम्
बारह-अंगगिज्झा वियलिय-मल-मूढ-दसणुत्तिलया। . विविह-वर-चरण-भूसा पसियउ सुय-देवया सुइरं ॥ १ ॥
जयउ धरसेणणाहो जेण महाकम्मपयडि-पाहुडसेलो। बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ पुप्फयंतस्स ।। २ ।।
पणमह कय-भूय-बलिं भूगबलि केस-वास-परिभूय-बलिं । विणिहय-बम्मह-पसरं वड्दाविय-विमल-णाण-बम्मह-पसरं ॥३॥
भूतबलिप्रणीतं तं बन्धतत्वप्रकाशकम् । महाधवलविख्यातं महाबन्धं नमाम्यहम् ॥ ४ ॥
सिद्धानां कीर्तनादन्ते यः सिद्धान्त-प्रसिद्ध-वाक् । सोऽनाधनन्तसंतानः सिद्धान्तो नोऽवताच्चिरम् ॥ ५॥
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुह-विरेयणं अमिदभूयं । जर-मरण-बाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥ ६ ॥
जयउ सुब-देवदा
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सिरि भगवंतभूदबलिभडारयपणीदो
महाबंधो
[ पढमो पयडिबंधाहियारो]
[ अनुवादक का मंगल ] महाधवल नामसे प्रसिद्ध इस महाबन्ध महाशाखको टीकानिर्माणका कठिन कार्य निर्दोष तथा निरन्तराय सम्पन्न हो, इस कामनासे वेदनाखण्डकी धवलाटीकाके प्रारम्भमें वीरसेनाचार्यकृत मंगलगाथाओं द्वारा पंच-परमेष्ठीका पुण्य-स्मरण किया जाता है
सिद्धा दट्ठमला विसुद्धबुद्धीय लद्धसव्वत्था ।
तिहुवण-सिर-सेहरया पसियंत भडारया सव्वे ॥१॥ अर्थ-जिन्होंने ज्ञानावरणादि अष्ट प्रकारके कर्ममलको दग्ध कर दिया है, जिन्होंने विशुद्ध बुद्धि-केवलज्ञान-द्वारा समस्त पदार्थों की उपलब्धि की है-उनका पूर्ण बोध प्राप्त किया है, जो त्रिभुवनके मस्तकपर मुकुट के समान विराजमान हैं, वे सम्पूर्ण सिद्ध भट्टारक प्रसन्न होवें।
भावार्थ-आत्माका सहज स्वभाव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य है। मोहनीय ज्ञानावरणादि कर्मोंका मल आत्मामें अनादिसे लगा हुआ है, जिससे यह संसारी आत्मा जगत्में परिभ्रमण किया करती है। सिद्ध भगवान्ने उस कममलका वंस कर दिया है। विशुद्धज्ञानके कारण समस्त पदार्थोंका बोध होता है। जिस प्रकार दर्पणके तलसे मल दूर होनेपर बाह्य वस्तुएँ स्वयमेव दर्पणकी निर्मलताके, कारण उसमें प्रतिबिम्बित होती हैं, उसी प्रकार कर्ममलरहित आत्मामें स्वतः सर्व पदार्थ झलकते हैं।
निर्मल तथा पूर्णबोधयुक्त होनेसे तथा कर्ममलरहित होने के कारण सिद्ध परमात्मा जगत्में श्रेष्ठ हैं। उनके द्वारा विश्व शोभित होता है। वे लोकके अग्रभागमें विद्यमान ईषत्प्राग्भार पृथ्वीके ऊपर अवस्थित हैं और ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो त्रिभुवनके मस्तकपर मुकुट ही हो । यहाँ लोककी पुरुषाकृतिको दृष्टिमें रखकर सिद्धोंको मुकुट कहा गया है।
सिद्ध परमात्माकी निवासभूमिके विषयमें तिलोयपण्णत्तिमें इस प्रकार कथन किया गया है, "सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक विमानके ध्वज-दण्डसे द्वादश योजन मात्र ऊपर जाकर आठवीं पृथ्वी स्थित है । उसके उपरिम और अधस्तन तल में से प्रत्येकका विस्तार पूर्व-पश्चिममें .
.. १. "सिद्धा गट्ठमला विमुद्धबुद्धीय लद्धसभावा......."-प्रा० सिद्धभ० श्लो०५।
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महाबंधे
रूपरहित एक राजू है । वेत्रासनके सदृश वह पृथ्वी उत्तर-दक्षिण भागमें कुछ कम सात राजू लम्बी तथा आठ योजन बाहुल्यवाली है। यह पृथ्वी घनोदधि, घनवात और तनुवात इन तोन वायुओंसे युक्त है। इनमें प्रत्येक वायुका बाहुल्य बीस हजार योजन प्रमाण है (८-६५४, ति० प०)।"
इसके बहुमध्य भागमें चाँदी तथा सुवर्णके समान नाना रत्नोंसे परिपूर्ण ईषत् प्राग्भार नामका क्षेत्र है। यह क्षेत्र ऊर्ध्वमुखयुक्त धवल छत्रके समान सुन्दर और पैंतालीस लाख योजन प्रमाण विस्तारसहित है। उसका मध्य बाहुल्य अष्ट योजन और अन्त में एक अंगुलमात्र है। अष्टम भूमिमें स्थित सिद्ध क्षेत्रको परिधि मनुष्य क्षेत्रकी परिधिके समान है। (गाथा ६५२ से ६५८ पृ० ६४ ति०५०) त्रिलोकसारमें अष्टम पृथ्वीको ईषत्प्राम्भारा कहा है
त्रिभुवन-मर्धारूढा ईषत्प्राग्भारा धराष्टमी रुन्द्रा ।
दीर्घा एक-सप्तरज्जू अष्टयोजन-प्रमितबाहुल्या ॥ ५५६ ।। त्रिलोकसारके शिम्बरपर स्थित ईषत्प्राग्भारा नामकी आठवीं पृथ्वी है। वह एक राजू पौड़ी, सात राजू लम्बी तथा आठ योजन प्रमाण बाहुल्य युक्त है।
उस पृथ्वीके मध्य में जो सिद्धक्षेत्र छत्राकार कहा है, उसका वर्ण त्रिलोकसारमें चाँदीका बताया है।
तन्मध्ये रूप्यमयं छत्राकारं मनुष्यमही-व्यासम् ।
सिद्धक्षेत्रं मध्येऽष्टवेधक्रमहीनं बाहुल्यम् ॥ ५५७ ।। इस सिद्धक्षेत्रके ऊपर तनुवातवलयमें अष्टगुणयुक्त तथा अनन्त सुखसे सन्तुष्ट सिद्ध त भगवान् रहते हैं। आठवीं पृथ्वीके ऊपर सात हजार पचास धनुष जाकर सिद्धोंका निवास है। राजवार्तिकके अन्तमें लिखा है
तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परमभासुरा । प्रारभारा नाम वसुधा लोकनि व्यवस्थिता ॥ १६ ।। नृलोकतुल्य विष्कम्भा सितच्छत्रनिभा शुभा।
ऊध्वं तस्याः वितेः सिद्धाः लोकान्ते समवस्थिताः ।। २० ॥ त्रिलोकसारके मस्तकपर स्थित प्राग्भारा नामकी पृथिवी है जो तन्वी अर्थात् स्थूलतारहित है, मनोज्ञ है, सुगन्धयुक्त है, पवित्र है तथा अत्यन्त देदीप्यमान है।
वह पृथ्वी नरलोक तुल्य विस्तारयुक्त है। श्वेत वर्णके छत्र समान तथा शुभ है । उस पृथ्वीके ऊपर लोकके अन्त में सिद्ध भगवान् विराजमान हैं। सकल सिद्धोंका निवास स्थल ही यथार्थमें ब्रह्मलोक है । धवलवर्णयुक्त निर्वाण-स्थलमें महाधवल परणतियुक्त परमात्माका निवास पूर्णतया सुसंगत प्रतीत होता है।
सिद्ध, भगवानने राग-द्वेप, मोहादि विभावोंका त्याग कर स्वभावकी उपलब्धि की है। वे वीतराग हो चुके हैं। किसीकी स्तुतिसे वे प्रसन्न नहीं होते और न निन्द्रासे खिन्न ही
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मंगलायरणं
होते हैं। वे राग-द्वेषको दुविधाके चक्करसे परे पहुँच चुके हैं। ऐसी व्यवस्था होते हुए मंगलगाथामें सिद्ध परमात्मासे प्रसन्नताकी प्रार्थनाका क्या रहस्य है ? यह विशेष विचारणीय है। यदि भगवान् यथार्थमें प्रसन्न हो गये, तो उनकी वीतरागता कहाँ रही और यदि वे प्रसन्न न हुए, तो प्रसन्नताकी प्रार्थना अप्रयोजनीक ठहरती है।
यथार्थ बात यह है कि प्रसन्न-निर्मलभावपूर्वक प्रभुकी आराधना करनेवाला भक्त उपचारसे प्रभु में प्रसन्नताका आरोप करता है।।
आचार्य विद्यानन्दी आप्तपरीक्षामें लिखते हैं-वीतरागमें क्रोधके समान सन्तोषलक्षण प्रसादकी भी सम्भावना नहीं है। अतः प्रसन्न अन्तःकरण-द्वारा प्रभुकी आराधना करना वीतरागकी प्रसन्नता मानी जाती है । इसी अपेक्षासे भगवानको प्रसन्न कहते हैं जैसे प्रसन्न अन्तःकरणपूर्वक रसायनका सेवन करके नीरोग व्यक्ति कहता है कि रसायनके प्रसादसे मैं नीरोग हुआ हूँ, उसी प्रकार प्रसन्न चित्तवृत्तिपूर्वक वीतराग प्रभुकी आराधनासे इष्टसिद्धि प्राप्त कर भक्त उपचारसे कहता है कि परमात्माके प्रसादसे मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ है। इसी दृष्टिसे वीतराग सिद्ध परमात्मासे प्रसन्नताकी प्रार्थना की गयी है।
तिहुवण-भवणप्पसरिय-पच्चक्खववोह-किरण-परिवेदो।
उइओ वि अणत्थवणो अरहंत-दिवायरो जयऊ ।। २ ।। अर्थ-वे अरहन्त भगवानरूपी सूर्य जयवन्त हों, जो तीन लोकरूपी भवन में फैली हुई ज्ञानकिरणोंसे व्याप्त हैं, तथा जो उदित होते हुए भी अस्तको प्राप्त नहीं होते हैं।
. भावार्थ-यहाँ अरहन्त भगवानको सूर्यके साथ तुलना की है । सूर्य स्वपरप्रकाशक है । अरहन्त भगवान्का केवलज्ञान भी स्वपरप्रकाशक है। लोकप्रसिद्ध सूर्यकी अपेक्षा अरहन्तसूर्यमें विशेषता है। लौकिक सूर्य जब कि मध्यलोकके थोड़े-से प्रदेशको आलोकित करता है, तब अरहन्त सूर्य सकल विश्वको प्रकाशित करता है । सूर्यका उदय और अस्त होता है, किन्तु केवलज्ञान सूर्य का उदय तो होता है, पर अस्त नहीं। जब कैवल्यका प्रकाश आत्मामें उत्पन्न हो चुका, तब उस सर्वज्ञ आत्माकी ज्ञानज्योतिको कर्मपटल पुनः कैसे ढाँक सकेंगे ? अतः केवलज्ञानसूर्य उदययुक्त होते हुए भी अस्तरहित है। वह अनन्त काल पर्यन्त प्रकाशित रहता है । अरहन्तसूर्यको किरणें ज्ञानात्मक हैं, लौकिक सूर्यकी किरणें पौद्गलिक हैं।
ति-रयण-खग्ग-णिहाएणुत्तारिय-मोह-सेण्ण-सिर-णिवहो । आइरिय-राउ पसियउ परिवालिय-भविय-जिय-लोओ ॥ ३ ॥
____१. "प्रसाद: पुन: परमेष्ठिनस्त दिनयानां प्रसन्न मनोविषयत्वमेव, वीतरागाणां तुष्टिलक्षणप्रसादा. संभवात् कोपासंभववत् । तदाराधकजनैस्तु प्रसन्नेन मनसोपास्यमानो भगवान् प्रसन्न इत्यभिधीयते रसायनवत् । यथैव हि प्रसन्नेन मनसा रसायनमासे व्य तत्फलमाप्नुवन्तः सन्तो रसायनप्रसादादिदमस्माकमारोग्यादिफलं समुत्पन्नमिति प्रतिपद्यन्ते तथा प्रसन्नेन मनसा भगवन्तं परमेष्टिनमुपास्य तदुपासनफलं श्रेयोमार्गाधिगमलक्षणं प्रतिपद्य मानास्तद्विनयजना: भगवत्परमेष्ठिन: प्रसादादस्माकं श्रेयोमार्गाधिगमः सम्पन्न इति समनुमन्यन्ते ।"
आप्तप० पृ०२,३ । २. "नास्तं कदाचिदुपयासि न राहगम्यः स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति ।। नाम्भो धरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्रलोके ॥"-भक्तामर० श्लो०१७॥
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६
महाबंधे
अर्थ- जिन्होंने रत्नत्रयरूपी खड्ड के प्रहारसे मोहरूपी सेनाके शिर-समूहका नाश कर दिया है तथा भव्य जीव-लोकका परिपालन किया है वे आचार्य महाराज प्रसन्न होवें ।
भावार्थ - यहाँ आचार्य महाराजकी राजासे तुलना की गयी है। जैसे कोई प्रतापी राजा अपनी प्रचण्ड तलवारके प्रहार से शत्रुसैन्यका नाश करता है, उसी प्रकार आचार्य परमेष्ठी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र रूपी अजेय बन से मोहरूपी सेनाके मस्तकों का नाश करते हैं । जिस प्रकार राजा अत्याचारीका अन्त करके धर्मपरायण प्रजाका रक्षण करता है, उसी प्रकार आचार्य महाराज मोहका ध्वंस करके भव्यात्माओंका रक्षण करते हैं। मोहके कारण संसार में भव्य जीव बहुत कष्ट पा रहे थे । आचार्य महाराजने रत्नत्रय से अपनी आत्माको सुसज्जित करके अपनी पुण्य अभय वाणी तथा जीवनदात्री लेखनीके द्वारा जो वीतरागताकी धारा बहायी, उससे भव्यात्माओंके अन्तःकरण में जो मोहका आतंक था, वह दूर हुआ और उन्होंने अपने निज रूपकी उपलब्धि की । भव्यात्माओं को जब भी मोहका आतंक व्यथा पहुँचाता है, तब ही वे आचार्य परमेष्ठी के चरणोंका आश्रय ले अभय अवस्थाको प्राप्त होते हैं ।
अण्णाणयंधयारे अणोरपारे भमंत-भवियाणं ।
उज्जोवो जेहि कओ पसियंतु सया उवज्झाया ॥ ४ ॥
अर्थ - जिसके ओर-छोरका पता नहीं है, ऐसे अज्ञान-अन्धकार में भटकनेवाले भव्यजीवोंको जिन्होंने प्रकाश प्रदान किया है वे उपाध्याय प्रसन्न होवें ।
भावार्थ - यहाँ अज्ञानको अन्धकारकी उपमा दी गयी है। जिस प्रकार चक्षुष्मान् व्यक्ति प्रकाशरहित स्थल में अन्धेकी भाँति आचरण करता है, उसी प्रकार सम्यकज्ञानज्योतिके अभाव में यह जीव परद्रयको स्व मानकर तथा आत्मतत्त्वको अनात्म पदार्थ मानकर अन्धे के समान प्रवृत्ति करता है । इस मिथ्याज्ञानरूप अन्धकारके आदि-अन्तका पता नहीं चलता है । वह अपार है । उसमें भव्य जीव भटक रहे हैं और परको अपना मानकर दुःखी हो रहे हैं । यह मिथ्याज्ञानका ही प्रभाव है कि जीव कल्याणके मार्गको न पाकर चौरासी लाख योनियोंमें परिभ्रमण करता फिरता है। जैसे अन्धकार में भटकनेवाले जीवोंको प्रकाशका दर्शन होते ही हित-सार्ग सूझने लगता है, उसी प्रकार उपाध्याय परमेष्ठीके प्रसादसे सम्यकज्ञानका प्रकाश प्राप्त होता है, जिससे यह मोहान्ध प्राणी पंच परावर्तनरूप संसारका परिभ्रमण छोड़कर शाश्वतिक शान्तिमय शिवपुर की ओर उन्मुख हो जाता है ।
उपाध्याय के समीप सविनय आकर भव्यात्माएँ आगमका अभ्यास करती हैं, और सम्यक ज्ञानका लाभ करती हैं, इस कारण अज्ञान अन्धकार निवारण करनेवाले उपाध्याय परमेष्ठी से प्रसन्नता की प्रार्थना की गयी है ।
दुह-तिब्व-तिसा-विदिय- तिहुवण- भवियाण सुङ्कुराएण । परिठविया धम्म- पवा सुअ-जल-वाणप्पयाणेण ॥ ५ ॥
१.
'अण्णाणघोर तिमिरे दुरंततीरम्हि हिंडमाणाणं । भवियाणुज्जोयपरा उवसाया वरमदि देतु ॥" -ति० प० गा० ४ । २. "विनयेनोपेत्य यस्माद् व्रतशीलभावनाधिष्ठानादागमं श्रुतारूयमधीयते स उपाध्यायः । " - त० रा० पृ० ३४६ ॥
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मंगलायरणं
अर्थ-दुःखरूप तीव्र प्याससे पीड़ित तीनलोकके भव्योंके प्रति प्रशस्त रागवश जिन्होंने श्रुतज्ञानरूपी जल पिलानेके लिए धर्मरूप प्रपा-प्याऊ स्थापित की है, वे 'उपाध्याय सदा प्रसन्न होवें।
भावार्थ-इस जगत्के प्राणियोंको विषयोंकी लालसासे जनित सन्ताप सदा दुःखी करता है । महान पुण्यशाली देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि भी विषयतृष्णाके तापसे नहीं बच सके हैं। उनकी तृष्णाग्नि तो और अधिक प्रज्वलित रहती है । इस तृष्णाकी शान्ति के लिए यह जीव विषयोंका सेवन करता है, किन्त इससे वेदना तनिक भी न्यन न होकर उत्तरोत्तर वृद्धिंगत हआ करती है। जिस प्रकार पिपासाकुल व्यक्तियोंकी तृषानिवृत्ति-निमित्त उदार पुरुष प्याऊकी व्यवस्था करते हैं, जिससे सबको मधुर शीतल जलकी प्राप्ति हो, उसी प्रकार उपाध्याय परमेष्ठीने परम करुणाभावसे विषयोंकी तृष्णासे सन्तप्त भव्योंके कल्याणार्थ श्रुतज्ञानरूप प्रपा स्थापित की है । उनके द्वारा शास्त्रका उपदेश होते रहनेसे तथा आगमका शिक्षण होनेसे भव्यात्माओंकी विषयतृष्णा कम होती जाती है ओर वे आत्मोन्मुख बनकर विषयोंकी आशा ही नहीं करती हैं। श्रुतज्ञान प्रपाके जलका पान करनेसे भोगोंकी अभिलाषारूप तृषा दूर होती है तथा आत्मा, स्वरूपकी उपलब्धि कर, महान् शान्तिका लाभ करती है। द्वादशांगरूप महाशास्त्रसिन्धुमें अवगाहन कर अपनी पिपासाकी शान्ति साधारण आत्माएँ नहीं कर पाती हैं,अतः उनके हितार्थ प्रपा बनायी गयी, जहाँ अपनी मन्दमतिरूपी चुल्लू में श्रुतरूपी पानी भरकर आत्मा पिपासाकी शान्ति करती है। जितना-जितना यह जीव श्रुतज्ञानके रसका पान करता है और अपनी आत्माको तृप्त करता है, उतना-उतना वह सन्तापमुक्त हो शान्ति लाभ करता है।
१.झांका-राग परिणाम मोहनीय कर्मका भेद है। मोहनीय कर्म घातिया कममि प्रमख है। घातिया कर्म जब पाप प्रकृतियों में अन्तर्भत हैं, तब रागभाव भी पापप्रकृति रूप स्वयं सिद्ध होता है। अतएव पापप्रकृति रूप राग परिणामको 'सुटु' ( शुभ ) रूप कहना कैसे उचित होगा ?
समाधान-इस विषयमें सन्देह निवारण हेतु महर्षि कुन्दकुन्द स्वामोके प्रवचनसारसे प्रकाश प्राप्त होता है। वहाँ ज्ञेयाधिकारमें रागभावके शुभ तथा अगुभ रूप भेद कहे गये हैं-"सुहो व असुहो हवाद रागो । ( १८० ) उक्त ग्रन्थके चारित्र अधिकारमें लिखा है-"रागो पसत्थभूदो" ( २५५ ) राग प्रशस्त रूप होता है। अतः राग परिणाम प्रशस्त रूप भी होता है, यह कथन आगमके प्रतिकुल नहीं है। रागको शुभ या प्रशस्त कहने का कारण यह है कि उसके द्वारा पुण्य कर्मका बन्ध होता है। जिस रागात्मक चित्तवृत्तिके द्वारा पुण्य कर्मका बन्ध होता है उस पुण्यबन्धके उत्पादक राग भावको आगममें शुभ रोग यां प्रशस्त राग माना गया है। शुभ भाव पुण्यबन्धका कारण कहा गया है । कुन्दकुन्द स्वामीने लिखा है
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावत्ति भणियमण्णेसु । परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ।। १८१ ।।
--प्रवचनसार
शुभ परिणाम रूप रागभावसे पुण्यका बन्ध होता है और अगुभ भावसे पापका बन्ध होता है । अन्यमें रमण न करनेवाला मुद्धभाव आगममें ममस्त दुःखोंके क्षयका कारण कहा गया है ।
इम कारण शुभ रागभावमे प्रेरित होकर उपाध्याय परमेष्टी दुःखी जीवोंका मनाप दूर करते हैं ।
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८
महा
संधारिय-सीलहरा उत्तारिय-चिरपमाद-दुस्सीलभरा ।
साहू जयंतु सव्वे सिवसुह-पह - संठिया हु णिग्गलियभया ॥ ६ ॥
अर्थ- जिन्होंने शीलरूप हारको धारण किया है, चिरकालीन प्रमाद तथा कुशील के भारको दूर कर दिया है, जो शिव-सुखके मार्ग में स्थित हैं तथा निर्भीक हैं, वे सर्व साधु जयवन्त हों ।
भावार्थ - हारके धारण करनेसे कण्ठ शोभनीक मालूम पड़ता है, इसीलिए साधुओंने शीलरूप हारसे अपने कण्ठको भूषित किया है। कण्ठमें स्थित हार प्रत्येक के देखने में आता है, साधुओंकी दिगम्बर वृत्ति होनेके कारण उनके शीलरूपी हारको प्रत्येक व्यक्ति देख सकता है । प्रायः संसारी जन प्रमाद् तथा कुशील (अनात्मभाव ) में निमग्न रहा करते हैं किन्तु मुनिराज प्रमादोंका परित्याग करते हैं तथा ब्रह्मचर्यमें निमग्न रहने के कारण कुशील रूप विकारी भावसे दूर रहते हैं । निरन्तर कर्मशत्रुओं का संहार करने में संलग्न रहनेके कारण उनके पास प्रमादका अवसर ही नहीं आता है । आत्मकल्याण में वे सदा सावधान रहते हैं । महर्षि पूज्यपाद के शब्दों में वे मुनिराज बोलते हुए भी मौनीके समान रहते हैं, गमन करते हुए भी नहीं गमन करते हुए सरीखे हैं, देखते हुए भी नहीं देखते हुए सदृश हैं, कारण उन्होंने आत्मतत्त्वमें स्थिरता प्राप्त की है । सम्पूर्ण परिग्रहका परित्याग करके तथा सकल संयमको अंगीकार करने
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कारण वे निराकुलतापूर्ण यथार्थ निर्वाण सुखके मार्ग में प्रवृत्त हैं । उन्हें जीवनकी न ममता है, न मृत्युका भय है । तिलतुषमात्र भी परिग्रह न रहनेसे किसी प्रकारकी भीति नहीं है । वे आत्माको अजर-अमर तथा अविनाशी आनन्दका भण्डार समझ भयमुक्त रहते हैं । ऐसी उज्ज्वल आत्माओंके प्रसादसे अनुवादक निर्विघ्न रूपसे ग्रन्थसमाप्ति के लिए मंगलकामना करता है।
[ मूलग्रन्थका मंगल ]
महाकर्म- प्रकृति-प्राभृतके प्रारम्भ में गौतम गणधर - द्वारा विरचित मंगलको वहाँ से उद्धृत कर भूतबलि आचार्य इस शास्त्रका मंगल मान ग्रन्थारम्भ करते हैं । द्रव्यार्थिक नाश्रित भव्य जीवों के अनुग्रहार्थ गौतम स्वामी सूत्रका प्रणयन करते हुए कहते हैं. -
मोजणं ॥ १ ॥
अर्थ - जिन भगवान्को नमस्कार हो ।
विशेषार्थ 'जिन' शब्द से तात्पर्य उन श्रेष्ठ आत्माओंसे है, जिन्होंने सम्पूर्ण आत्मप्रदेशोंमें निबिड रूपसे निबद्ध घातिया कर्मरूप मेघपटलको दूर करके अनन्तज्ञान, अनन्त
१. " धीरधरियसीलमाला वत्रगयराया जसो
हत्या । बहु-विषय-भूसियंगा सुहाई साहू पयच्छंतु ॥" - ति० प० गा० ५ । २. " ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते गच्छन्नपि न गच्छति । स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु पश्यन्नपिन पश्यति ॥ " - इष्टोप० इलो० ४१ । ३. "एवं दञ्चट्ठिय-जणागुग्गहण णमोक्कारं गोदमभडारओ महाकम्मपाहुडस आदिहिं काऊण " ध० टी० । ४. “ॐ ह्रीं अहं णमो अरिहंताणं, णमो जिणाणं । ..... - भ० क० ० १ | "ॐ ह्रीं जिणाणं भ० क० ० २।
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मंगलायरणं
दर्शन', अनन्त-दानादि नव केवल लब्धियोंको प्राप्त किया है, जिन्होंने अनेक विषम भवोंके
:ख प्रदान करनेवाले कमशत्रुओंको जीता है--निर्जरा की है, वे जिन हैं। जिन्होंने घातिया कर्मों का नाश किया है वे सकल अर्थात् पूर्णरूपसे जिन कहलाते हैं। उनमें अरहन्त और सिद्ध गभित हैं । आचार्य, उपाध्याय तथा साधु एकदेश जिन कहे जाते हैं।
शंका-इसपर विशेप प्रकाश डालनेकी दृष्टिसे सूत्रके टीकाकार बीरसेनाचार्य कहते हैं - यह सूत्र क्यों कहा गया ?
समाधान-मंगलके लिए कहा गया है। पुनः प्रश्न उठता है कि मंगल क्या है ? पूर्वसंचित कर्मों का विनाश मंगल है।
शंका-यदि मंगलका यह भाव है, तो यह सूत्र निष्फल है। कारण, जिनेन्द्र के मुखसे विनिर्गत है अर्थ जिसका, जो अविसंवादसे केवलज्ञान के समान है तथा वृषभसेनादि गणधर देवोंके द्वारा जिनकी शब्दरचना की गयी है ऐसे सर्व सूत्रोंके पठन, मनन तथा क्रियामें प्रवृत्त सम्पूर्ण जीवोंके प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणी रूपसे पूर्व संचित कर्मोंकी निर्जरा होती है। कदाचित् यह मंगलसूत्र सफल है, तो ग्रन्थरूप सूत्रका अध्ययन निष्फल है, क्योंकि उससे उत्पन्न कर्मक्षयकी उपलब्धि इसके ही द्वारा हो जायेगी।
समाधान-यह ठीक नहीं है। सूत्राध्ययन-द्वारा सामान्यरूपसे कोंकी निर्जरा होतो है, किन्तु इस मंगल सूत्रसे स्वाध्यायमें वित्रकारक कर्मका नाश होता है। इस कारण मंगल सूत्रका प्रारम्भ हुआ।
शंका-तीन कपाय, इन्द्रिय तथा मोहका विजय करनेसे सकल जिनोंका नमस्कार पापनाशक हो, कारण उनमें सम्पूर्ण गुणोंका सद्भाव पाया जाता है, किन्तु यह वात देश जिनोंमें नहीं पायी जाती। अतः 'णमो जिणाणं' सूत्र-द्वारा अरहन्त-सिद्धंके सिवाय आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठीका नमस्कार मानना युक्तियुक्त नहीं है ।
जिन दिमत्तम तय
१. "मकलात्मपदेश - निबिड - निबघातिकममेघपटलविघटनप्रकटीभूतानन्तज्ञानादिनवकेवललब्धिवान जितः ।" -गो० जो० जी० प्र०। “अनेकविषमभवगहनदुःखद्यापणहेतुन् कर्मारातोन् जयन्ति, निर्जरयन्तीति जिनाः ।।" -गो० जी० मं० प्र०टी०। २. किमट्टमिदं वुच्चदे ? मंगलटुं । कि मंगलं. ? पवमंचियकम्मविणामो । जदि एवं तो जिणवयण विणिग्गयत्यादो अविसंबादेण वे वलणाणममाणादो उमरसेणादिगण दर देवेहि विरइयगदरयणादो सव्व मुत्तादो तप्पडण-गुणण-किरियावावाणं रावजीवाणं पडिसमयम. संवेज्जगणसेडीए पुवसंचिदकम्मणिज्जरा होदि त्ति णिफ्फलादिमुत्तमिदि । अह सफलमिदं, णिफ्फलं सत्तज्झयणं, तत्तो समवजायमाण कम्म वयस्म एत्थे वोवलंभो त्ति । ण एम दोसो, सुत्तज्झयणेण सामणकम्मणिज्जरा कीरदे एदेण पण मृत्तज्झयण-विग्घ-फल-कम्मविणासो कीरदि त्ति, भिषण विसयत्तादो मृत्तज्झयणविग्यफलकम्मविणासो मामण्णकम्मविरोहयुत्तन्भासादो चेव होदि ति मंगलमुत्तारंभो।"जिणा दुविहा सयल-देस जिणभेरण । खवियघाइकम्मा सयलजिणा । के ते ? अरिहंतसिद्धा। अवरे आइरिय-उवझाय-साहू देसजिणा, तिबकसायइंदियमोहविजयादो।" -धा टी वेल। ३. "सयलासयलजिपट्टियतिर यणाणं ण समाणतं, संपण्णासंपण्णाणं समाणतविरोहादी । मंपुषण-तिर यणक उजममपुण्ण-तिरयणाणि ण कति, असमाणत्तादो ति। ण, दमणणाणचरणाणमुप्पण्णममाण तुवलं भादो। ण च अममाणाणं क अममाण मेवेत्ति णियमा अस्थि, संपुष्णाग्गिणा कोरमागदाहकज्जम्म तदवयवेत्रि उवलं भादो। अमियघडमाण कीरमाण णिविसीकरणादिकज्जस्स अमियचलवेवि उवभादो वा। ण च तिरपणाणे देमजिट्टियाणं मयलजिणट्टिएहि भेो । एवं......"गोदमभडारओ महाकम्मपडियाहुइम्म पज्जवट्टियणवाणुगहणट्टमुत्तरमुत्ताणि भणदि ।''-ध०टी० वेदना०प० ६२३ ।
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महाबंधे
समाधान-रत्नत्रयकी अपेक्षा पाँचों परमेष्ठी समान हैं, कारण सकल जिनोंके समान एकदेश जिनोंमें भी रत्नत्रय विद्यमान हैं। देवत्वके लिए रत्नत्रयके सिवाय अन्य कारण नहीं है । इससे सकल जिनोंके समान देशजिनोंका नमस्कार भी कर्मक्षयकारी जानना चाहिए।
शंका-सकल और असकल जिनोंके रत्नत्रयमें समानता नहीं पायी जाती है । सम्पूर्ण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय और असम्पूर्ण रत्नत्रयमें समानताका विरोध है । सम्पूर्ण रत्नत्रयका कार्य असम्पूर्ण रत्नत्रय नहीं करते, कारण वे असमान हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्रमें समानताकी उपलब्धि नहीं पायी जाती है ?
समाधान- असमानोंका कार्य असमान ही होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है । सम्पूर्ण अग्निके द्वारा क्रियमाण दाह-कार्यकी उपलब्धि उसके अवयवमें भी देखी जाती है। अमृतके शतघटों-द्वारा सम्पादित किया जानेवाला निर्विषीकरणरूप कार्य चुल्लू-भर अमृत में भी पाया जाता है। रत्नत्रयकी अपेक्षा देश तथा सकल जिनों में भेद नहीं पाया जाता है। ___ अब पर्यायार्थिक नयाश्रित जीवोंके कल्याणार्थ गौतमस्वामी आगामी सूत्रोंको कहते हैं
णमो ओहिजिणाणं ॥२॥ अर्थ-अवधिज्ञानी जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-यहाँ 'जिन' शब्दको अनुवृत्ति आगे भी करनी चाहिए । अवधिज्ञानी देव, नारकी, मनुष्य तथा तिर्यच भी होते हैं। उन सबको नमस्कार करनेसे क्या कर्मोको निर्जरा हो सकती है ? उससे तो कोका बन्ध ही होगा। 'जिन' शब्दका ग्रहण करनेसे ऐसी आशंकाका निराकरण हो जाता है। इससे रत्नत्रयसे भूषित अवधिज्ञानियोंको नमस्कार करना यहाँ इष्ट है।
णमो परमोहिजिणाणं' ॥ ३ ॥ अर्थ-परमावधिज्ञानधारी जिनोंको नमस्कार हो। णमो सव्वोहिजिणाणं ॥४॥ अर्थ--सर्वावधिज्ञानधारी जिनोंको नमस्कार हो। णमो अणंतोहि जिणाणं ॥५॥ अर्थ-अनन्त अवधिवाले जिनोंको नमस्कार हो। विशेषार्थ--अनन्त है अवधि-मर्यादा जिसकी, ऐसे केवलज्ञानधारक अनन्तावधि
जिनोंको नमस्कार हो
१. परमावधयश्च ते जिनाश्च परमावधिजिनाः तेभ्यो नमः । २. "ॐ ह्रीं अहं णमोहिजिणाणं..." -म०क०य.३। “ॐ ह्रीं अहं णमोहिबुद्धीणं"-भ०कल्य०१२। ३. 'ॐ ह्रीं अहं णमो सम्वोहिजिणाणं..."-भक०य०४। ४. "ॐ ह्रीं अहं णमो अणंतोहिजिणाणं...."-भक०य०५। ५. अन्तश्च अवधिश्न अन्तावधिः। न विद्यतेऽन्तो यस्य सः अनन्तावधिः। अभेदाज्जीवस्यापीय संज्ञा। अनन्तावधयश्च ते जिनाश्च अनन्तावधिजिनाः तेभ्यो नमः । भणंतोहिजिणा णाम केवलणाणिणो।
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मंगलायरणं
णमो कोहबुद्धीणं ॥६॥ अर्थ-कोष्ठबुद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ--जिस प्रकार किसी कोठे में पृथक-पृथक् तथा सुरक्षित बहुत-से धान्यके बीजोंका संग्रह रहता है, उसी प्रकार कोष्ठबुद्धिनामक ऋद्धिमें परोपदेशके बिना ही तत्त्वोंके अर्थ, ग्रन्थ तथा बीजोंका अवधारण करके पृथक्-पृथक् अवस्थान किया जाता है। इस बुद्धि में कोष्ठके समान भिन्न-भिन्न बहुत तत्त्वोंकी अवधारणा रहती है ( तरा० अ०३, पृ० १४३ )।
तिलोयपण्णत्तिमें कहा है कि उत्कृष्ट धारणासम्पन्न कोई पुरुष गुरुके उपदेशसे नाना प्रकारके ग्रन्थोंसे विस्तारपूर्वक लिंगसहित शब्दरूप बीजोंको अपनी बुद्धि से ग्रहण करके बिना मिश्रणके अपनी बुद्धिरूपी कोठेमें धारण करता है, उसे कोष्ठबुद्धि कहते हैं (पृ० २७२) ।
णमो वीजवुद्धीणं ॥ ७ ॥ अर्थ-बीजबुद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ--जैसे सम्यक् प्रकार हल-बखरसे तैयार की गयी उपजाऊ भूमिमें योग्य कालमें बोया गया एक भी बीज बहुत बीजोंको उत्पन्न करता है, उसी प्रकार नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशम-प्रकर्षसे एक बीज पदके ग्रहण-द्वारा अनेक पदार्थोंको जाननेवाली बीजबुद्धि है । ( राजवा० पृ० १४३ )।
तिलोयपण्णत्तिमें कहा है-नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय इन तीन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट क्षयोपशमसे विशुद्ध हुई किसी भी महर्षिकी जो बुद्धि, संख्यातस्वरूप शब्दोंके बीच में-से लिंगसहित एक ही बीजभूत पदको परके उपदेशसे प्राप्त करके उस पदके आश्रयसे सम्पूर्ण श्रुतको विस्तार कर ग्रहण करती है, वह बीज बुद्धि है ( पृ० २७२ ) ।
णमो पदाणुसारीणं ॥८॥ अर्थ--पदानुसारी ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ-दूसरे व्यक्तिसे एक पदके अर्थको सुनकर आदि, मध्य तथा अन्तके शेष प्रन्थार्थका निश्चय करना पदानुसारित्व है। यह अनुश्रोत, प्रतिश्रोत तथा उभयरूप तीन प्रकार है। तिलोयपण्णत्ति में कहा है-जो बुद्धि आदि, मध्य अथवा अन्त में गुरुके उपदेशसे एक बीज पदको ग्रहण करके उपरिम ग्रन्थको ग्रहण करती है वह अनुसारिणी बुद्धि है । गुरुके उपदेशसे आदि, मध्य अथवा अन्त में एक बीज पदको ग्रहण करके जो बुद्धि अधस्तन ग्रन्थको जानती है, वह प्रतिसारिणी बुद्धि कहलाती है । जो बुद्धि नियम अथवा अनियमसे एक बीज शब्दको ग्रहण करनेपर उपरिम और अधस्तन ग्रन्थको एक साथ जानती है वह उभयसारिणी है । ये पदानुसारित्वके तीन भेद हैं । (गा०९८१-८३ )।
णमो संभिण्णसोदाराणं ॥ ६॥ अर्थ-सम्भिन्नश्रोतृत्व नामक ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो।
१. 'ॐ ह्रीं अर्ह णमो कुट्ट बुद्धोणं...."-भ० क० य०६। २. "ॐ ह्रीं अहं णमो बीजबुद्धोणं...." भ० क० य०७। ३. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो अरिहंताणं णमो पादानुसारोणं....''-भ० कया ८। ४. "ॐ ह्रीं अहै णमो अरिहंताणं णमो संभिण्णसोदराणं..."-भ० क. य० ९ । ५. सम्यक श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमन भिन्ना: अनुविद्धाः संभिन्नाः। संभिन्नारच ते श्रोतारश्च संभिन्नश्रोतारः ।
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१२.
महाबंधे
विशेषार्थ- नौ योजन लम्बी, बारह योजन चौड़ी चक्रवर्तीकी सेनाके हाथी, घोड़ा, ऊँट तथा मनुष्यादिकों के एक साथमें उत्पन्न अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक अनेक प्रकारके शब्दोंको तपोबलविशेषके कारण सर्वजीव-प्रदेशोंमें कर्ण-इन्द्रियका परिणमन होनेसे सर्व शब्दोंका एक कालमें ग्रहण करना सम्भिन्नश्रोतृत्व ऋद्धि है।
तिलोयपरणत्तिमें कहा है--श्रोत्रेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नाम कर्मके उदय होनेपर श्रोत्रेन्द्रियके उत्कृष्ट क्षेत्रसे बाहर दसों दिशाओं में संख्यात योजनप्रमाण क्षेत्रमें स्थित मनुष्य एवं तिथंचोंके अक्षरात्मक-अनक्षरात्मक बहुत प्रकार के उत्पन्न होनेवाले शब्दोंको सुनकर जिससे उत्तर दिया जाता है वह सम्भिन्नश्रोतृत्व है।
णमो उजुमदीणं' ॥ १० ॥ अर्थ-ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञानी जिनोंको नमस्कार हो । णमो विउलमदीणं ॥ ११ ॥ अर्थ--विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानी जिनोंको नमस्कार हो । णमो दसपुब्बीणं ॥ १२ ॥ अर्थ-दहा पूर्वधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ--महारोहिणी आदि विद्याओंके द्वारा अपने रूप, सामर्थ्य आदिका प्रदर्शन करनेपर भी अडिग चारित्रधारीका जो दशमपूर्व रूप दुस्तर-सागरके पार पहुँचना है, वह दशपूर्वित्व है । यहाँ जिन शब्दकी अनुवृत्ति होनेसे अभिन्नदशपूर्वित्वका ग्रहण किया है ।
तिलोयपण्णनिमें कहा है-दशम पूर्व के पढ़ने में रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याओं तथा अंगुष्ठप्रसेनादिक सात सौ क्षुद्र विद्याओंके द्वारा आज्ञा माँगनेपर भी जो महर्षि जितेन्द्रिय होने के कारण उन विद्याओंकी इच्छा नहीं करते हैं, वे 'विद्याधरश्रमण' या 'अभिन्नदशपूर्वी कहलाते हैं । (पृ. २७४) ।
णमो चोदसपुवीणं ॥ १३ ॥ अर्थ--चौदह पूर्वधारी जिनोंको नमस्कार हो। विशेषार्थ--जो सम्पूर्ण श्रुत केवलीपनेको प्राप्त हैं, वे चतुर्दशपूर्वी कहलाते हैं।
१. "ॐ ह्रीं अहं णमो ऋजुमदाणं...."-भ० क. य० १३। २. "ॐ ह्रीं अहं णमो विउ. लमदीणं ..." भ० क. य० १४। ३. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो दसवीणं..." -भ० क. य०१५। ४. "एत्थ दसविणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होति । भिण्णदसवीणं कथं पडिणियत्ती? जिणसहाणवत्तीदो। ण च तेलि जित्तमत्यि, भगमहत्वएसु जिणत्ताणुववत्तीदो।"-ध० टी०। ५. "ॐ ह्रीं अहं णमो चउदसवीणं..'' --भ० क० य०१६।
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मंगलायरणं
णमो अट्ठगमहाणिमितकुसलाणं ॥ १४ ॥
अर्थ - अष्टांग महानिमित्त विद्या में प्रवीण जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ - अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न और स्वप्नये आठ महानिमित्त कहे जाते हैं । सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, ताराओंके उदय, अस्त आदिसे भूतभविष्यत्सम्बन्धी फलका ज्ञान करना अन्तरिक्षज्ञान है । पृथ्वीके घन, सुषिर, रूक्षतादिके ज्ञानसे अथवा पूर्वादि दिशाओं में सूत्रनिवास करनेसे वृद्धि, हानि, जय, पराजय आदिका ज्ञान करना तथा भूमि में छिपे हुए स्वर्ण, चाँदी आदिका परिज्ञान करना भौमज्ञान है । अंग- उपांगों के देखने आदि त्रिकालवर्ती सुख-दुःखादिको जान लेना अंगज्ञान है । अक्षरात्मक या अनक्षरात्मक शुभ-अशुभ शब्दको सुनकर इष्ट-अनिष्ट फलको जान लेना स्वरज्ञान है । मस्तक, ग्रीवा आदि में तिल, मशक आदि चिह्नोंको देखकर त्रिकालसम्बन्धी हित-अहितका जानना व्यंजनज्ञान है । श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, भृंगार, कलश आदि लक्षणों को देखकर त्रिकालवर्ती स्थान, मान, ऐश्वर्य आदिका विशेष ज्ञान करना लक्षण नामक निमित्तज्ञान है । वस्त्र, शस्त्र, छत्र, जूता, आसन, शयनादिकों में देव, मानुप, राक्षसादि विभागों से शस्त्र, कण्टक, चूहा आविकृत छेदनको देखकर त्रिकालसम्बन्धी हानि, लाभ, सुख, दुःखादिको सूचित करना छिन्न नामक ज्ञान है। बात, पित्त, कफ दोषोंके उदयसे रहित व्यक्ति रात्रिके पिछले भाग में, चन्द्र, सूर्य, पृथ्वी, समुद्र आदिका अपने मुख में प्रवेश करना सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डलका उपगृह्न आदि शुभ स्वप्न तथा घृत या तैललिप्त अपना शरीर देखना, गर्दर्भ, ऊँटपर चढ़े हुए इधर-उधर भटकते फिरना आदि अशुभ स्वप्न के दर्शन से आगामी जीवन, मरण, सुख, दुःखादिका ज्ञान करना स्वप्नज्ञान है । इन महानिमित्तों में जो कुशलता है, वह अष्टांगमहानिमित्तता है । ( ० रा० पृ० १४३ ) ।
१३
णमो उव्वणपत्ताणं ।। १५ ।।
अर्थ - वैक्रियिक ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ - विक्रियाको विषय करनेवाली ऋद्धिके अनेक भेद हैं। जैसे अणिमा, महिमा, लधिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान, कामरूपित्व आदि । शरीरको अत्यन्त छोटा करना 'अणिमा' है । इस ऋद्धिके प्रभाव से कमल - मृणाल के छिद्र में प्रवेश करके वहाँ ठहरने तथा चक्रवर्तीके परिवारकी विभूतिको उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य प्राप्त होती है | अपने शरीरको मेरु पर्वत से भी विशाल करना 'महिमा' ऋद्धि है | शरीरको वायुसे भी हलका करना ‘लघिमा ' है | शरीरको वज्र से भी अधिक भारी बनाना 'गरिमा' है । भूमिपर स्थित रहते हुए भी अंगुली के कोनेसे मेरु, शिखर, सूर्य आदिका स्पर्शन करनेकी सामर्थ्यको 'प्राप्ति' कहते हैं । जल में पृथ्वीके समान चलना, भूमिपर जलके 'समान तैरना 'प्राकाम्य' ऋद्धि है। तीन लोककी प्रभुता 'ईशित्व' है । सम्पूर्ण जीवोंको वश करने की सामर्थ्य 'वशित्व' है । पर्वतके भीतर भी आकाश में गमनागमन के समान बिना रुकावट के आना-जाना 'अप्रति
१. ॐ ह्रीं अर्ह णमो अट्टांगमहानिमित्त कुसलाणं -भ० क० य० १७ । २. " अंगं सरो वंजणखणाणि छष्णं च भीमं सुमिणंतरिखखं । एदे निमित्ते हि पराहि णिच्चा जाणंति लोयस्स सुहासुहाई || " -ध० टी० प० ६२७ । ३. देव, दानव, राक्षस, मनुष्य और तिर्यचोंके द्वारा छेदे गये शास्त्र एवं वस्त्रादिक तथा भवन नगर और देशादि चिह्नोंको देखकर त्रिकालभावी शुभ, अशुभ, मरण, विविध प्रकार के द्रव्य और सुखदुःखको जानना यह चिह्न निमित्त ज्ञान है । यहाँ छिन्न' का नाम 'चिह्न' दिया गया है । -ति०प० पृ० २७६ ।
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१४
महाबंधे
घात' है। अदृश्य रूप होनेकी सामर्थ्य 'अन्तर्धान' है। युगपत् अनेक आकार और रूप बनानेकी शक्ति 'कामरूपित्व' है।
___ यहाँ जिन शब्दकी अनुवृत्ति होनेसे अष्टगुण ऋद्धि होते हुए भी देवोंका ग्रहण नहीं किया गया है,कारण,देवोंमें संयमका अभाव है,अतः वे 'जिन' नहीं हैं।
णमो विज्जाहराणं ॥१६॥ अर्थ-विद्याधारी जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-विद्या तीन प्रकारकी होती हैं। मातृ पक्षसे प्राप्त जाति विद्या है । पितृपक्षसे प्राप्त कुलविद्या है । षष्ठ, अष्टम आदि उपवास करनेसे सिद्ध की गयी तपविद्या है। यहाँ देव तथा विद्याधरोंका ग्रहण नहीं किया गया है, कारण वे जिन नहीं हैं।
णमो चारणाणं ॥ १७ ॥ अर्थ-चारणऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-जल, जंघा, तन्तु, पुष्प, पत्र, अग्नि-शिखादिके आलम्बनसे गमन करना 'चारण' ऋद्धि है। कुँआ, बावड़ी आदिमें जलकायिक जीवोंकी विराधना नहीं करते हुए भूमिके समान चरणोंके उठाने-धरनेकी प्रवीणताको 'जलचारण' कहते हैं । भूमिसे चार अंगुल ऊँचे आकाशमें जंघाके उठाने-धरनेकी कुशलतासे सैकड़ों योजन गमन करनेकी प्रवीणता 'जंघाचारण' है। इसी प्रकार इस ऋद्धिके अन्य भेद हैं।
णमो पण्हसमणाणं ॥ १८ ॥ अर्थ-'प्रज्ञाश्रमण जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-असाधारण प्रज्ञाशक्तिधारी प्रज्ञाश्रमण कहलाते हैं। अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्वार्थचिन्तनके प्रभावसे चौदह पूर्वोके विषयमें पूछे जानेपर जो द्वादशांग, चतुर्दश पूर्वको बिना पढ़े हुए भी उत्कृष्ट श्रुतावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न असाधारण प्रज्ञाशक्तिके लाभसे स्पष्ट निरूपण करते हैं वे प्रज्ञाश्रमणधारी हैं।
तिलोयपण्णत्ति (पृ. २७७ ) में प्रज्ञाके चार भेद कहे हैं-औत्पत्तिकी, पारिणामिको, वैनयिकी तथा कर्मजा। भवान्तर में कृत श्रुतके विनयसे उत्पन्न होनेवाली औत्पत्तिकी, निजनिज जातिविशेष में उत्पन्न हुई पारिणामिकी, द्वादशांगश्रुतकी विनयसे उत्पन्न वैनयिकी एवं उपदेशके बिना तपविशेषके लाभसे उत्पन्न कर्मजा कहलाती है।
१. "अट्रगणाजुत्ताण देवाण एसा णमाक्काराकिण्ण पाबद! ण ए
देवाणं एसो णमोक्कारोकि.ण्ण पाबदे?ण एस दोसो, जिणसहाणवणेण तष्णिराकरणादो। ण च देवाणं जिणत्तमस्थि। तत्थ संजमाभावादो॥"-ध०टी० । २. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो विज्जाहराणं"-भ० क. य० १९ । ३. "तत्थ सगमादुपक्खादो लद्धविज्जाओ जादिविज्जाओ णाम । पिदुपक्सलदाओ कुलविज्जाओ। छट्टट्ठमादिउववासविहाणेहि साहिदाओ तवविज्जाओ । एवमेदाओ. तिविहाओ हाँति ।"-ध०टी०। ४. “ॐ ह्रीं अहं णमो चारणाणं"-भ० क० य०२०। ५. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो पणसमणाणं..."-भक० य०२१। ६. "औत्पत्तिको वनयिको कर्मजा पारिणामिकी चेति चतुविधा प्रशा। प्रज्ञा एव श्रवणं येषां ते प्रज्ञाश्रवणाः । असंजदाणं न पण्णसमणाणं गहणं जिणस हाणउत्तीदो।" -ध० टी०।
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मंगलायरणं
यहाँ जिन'शब्दकी अनुवृत्ति रहनेसे असंयतोंका निराकरण हो जाता है । णमो आगासगामीणं ॥१६॥ अर्थ-आकाशगामी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ--पल्यंकासन वा कायोत्सर्ग आसनसे ही पैरोंको बिना उठाये-धरे आकाशमें गमन करनेकी विशेषताको आकाश-गमन ऋद्धि कहते हैं । यहाँ जिन शब्दकी अनुवृत्ति रहनेके कारण देव विद्याधरोंका निराकरण हो जाता है। ..
णमो आसीविसाणं ॥२०॥ अर्थ-आशीविष ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
उग्र विपयुक्त आहार भी जिनके मुखमें जाकर निर्विष हो जाता है वा जिनके मुखसे निकले हुए वचनोंके श्रवणसे महाविषयुक्त व्यक्ति निर्विष हो जाता है, वे 'आस्याविष' ऋद्धिधारी हैं । महान तपोबलसे विभूषित यतिजन जिसको कहें 'तू मर जा' वह तत्क्षण ही महाविषयुक्त हो मृत्युको प्राप्त हो जाता है, वह 'आस्यविष' ऋद्धि है । इस प्रकार 'आस्य अविष' तथा 'आस्य विष' दोनों प्रकारके अर्थ कहे गये हैं ।
णमो दिठिविसाणं ॥२१॥ अर्थ-दृष्टिविष ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ-जिनके देखने मात्रसे अत्यन्त तीव्र विषसे दूषित भी प्राणी विषरहित हो जाता है वे 'दृष्टिविष' ऋद्धिधारी हैं। उग्र तपस्वी मुनिजन क्रुद्ध हो जिसे देख लें, वह उसी समय उग्र विषयुक्त हो मर जाता है। इसे भी दृष्टिविष ऋद्धि कहते हैं। यहाँ भी 'जिन' शब्दकी अनुवृत्ति है, अन्यथा दृष्टिविष सोको भी प्रणामका प्रसंग आतां । यद्यपि साधुजन तोष अथवा रोषसे मुक्त हैं, फिर भी तपस्याके कारण उनमें उपर्युक्त विशेष शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिसका उपयोग वीतराग ऋषिगण नहीं करते हैं।
णमो उग्गतवाणं ॥ २२॥ अर्थ-उग्र तपवाले जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह दिन वा पक्ष मासादिके अनशन योगों में किसी भी रूपके उपवासको प्रारम्भ करके मरणपर्यन्त भी उस योगसे विचलित नहीं होना उग्रतप ऋद्धि है।
१. "ॐ ह्रीं अहं णमो आगासगामीणं"- भ० क० य० २२। २. "ॐ ह्रीं अहं णमो आसीविसाणं"-भ० क० य० २३ । ३. "अविद्यमानस्यार्थस्य अशंसमाशी:. आशीविषं येषां ते आशीविषाः। तवोवलेण एवंविहात्तिसंजतवयणा होदूण जे जीवाणं णिग्गहाणग्गहं ण कूर्णति । ते आसीविसा ति घेतवा । कुदो ? जिणाणुउत्तीदो। ण च णिग्गहाणुग्गहेहि संदरिसिदरोसतोसाणं जिणत्तमस्थि विरोधादो।" -ध० टी०। ४. "ॐ ह्रीं अहं णमो दिद्विविसायं..." :-भ० क० य० २४ । ५. "दृष्टिरिति चक्षुर्मनसोर्ग्रहणं । जिणाणमिदि अणुक्ट्टदे, अण्णहा दिट्ठिविसाणं सप्पाणं पि णमोक्कारप्प
संगादो।" -ध० टी०। ६. "ॐ ह्रीं अहं णमो उगतवाणं..." -भ० क० य० २५ ।
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१५
महाबंधे
णमो दित्ततवाणं ॥ २३ ॥ अर्थ-दीप्त तपवाले जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ-महान् उपवास करनेपर भी जिनकी मन, वचन, कायकी शक्ति बढ़ती हुई ही पायी जाती है, जो दुर्गन्धरहित मुखवाले, कमल-उत्पलादिकी सुगन्धके समान श्वासवाले तथा शरीरकी महाकान्तिसे सम्पन्न हैं, वे दीप्ततपस्वी जिन हैं।
णमो तत्ततवाणं ॥ २४ ॥ अर्थ-तप्त तपवाले जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-तप्त लोहेकी कढ़ाई में पतित जलकणके समान शीघ्र ही जिनका अल्प आहार शुष्क हो जाता है, उसका मल रुधिरादि रूपमें परिणमन नहीं होता वे तप्ततपस्वी हैं।
णमो महातवाणं ॥२५॥ अर्थ-महातपधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ-सिंह निष्क्रीडितादि महान् उपवासादिके अनुष्ठानमें परायण महातपस्वी कहलाते हैं।
णमो घोरतवाणं ॥ २६ ॥ अर्थ-घोर तपधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ-वात, पित्त, कफकी विषमतासे उत्पन्न ज्वर, खाँसी, श्वास, नेत्रपीड़ा, कुष्ठ, प्रमेहादि रोगोंसे पीड़ित शरीरयुक्त होते हुए भी जो अनशन, कायक्लेशादि तपांसे अविचलित रहते हैं तथा भयंकर श्मशान, पर्वत-शिखर, गुहा, दरी, शून्य ग्राम आदिमें, जहाँ अत्यन्त दुष्ट,यक्ष, राक्षस,पिशाच,बेताल भयंकर रूपका प्रदर्शन कर रहे हैं एवं जहाँ शृगालके कठोर शब्द, सिंह, व्याघ्र, सर्प आदिके भीषण शब्द हो रहे हैं,ऐसे भयंकर प्रदेशों में सहर्ष रहते हैं वे घोर तपस्वी हैं।
णमो घोरपरकमाणं ॥ २७ ॥ अर्थ-घोर पराक्रमवाले जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-पूर्वोक्त तपस्वी जब ग्रहण किये गये तपकी साधनामें वृद्धि करते हैं, तब वे घोर पराक्रमी कहलाते हैं।
__ तिलोयपण्णत्ति (पृ० २८१ ) में कहा है-जिस ऋद्धि के प्रभावसे मुनिजन अपनी अनुपम सामर्थ्यसे कण्टक, शिला, अग्नि, पर्वत, धूम्र और उल्का आदिके पात करने में तथा सागरके समस्त जलका शोषण करनेमें समर्थ होते हैं, वह घोर पराक्रम ऋद्धि है।
१. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो दित्ततवाणं...." -भ० क० य०२६। २. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो तत्ततवाणं...." -भ० क० य०२७। ३. "ॐ ह्रीं अहं णमो महातवाणं..."-भ० क० य०२८। ४. "ॐ ह्रीं अहं णमो घोरतवाणं.." -भ० क० य०२९ । '५. "घोरा र उद्दा गुणा जेसि ते घोरगुणा । कथं चौरासीदिलक्खगुणाणं घोरतं? घोरकज्जकारिसत्तिजणणादो। तसि घोरगणाणं णमो इदि उत्तं होदि।" -ध० टी०। ६. "ॐ ह्रीं अहं णमो घोरपरक्कमाणं..." -भ० क० य०३१।
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मंगलाय रणं
णमो घोरगुणाणं ॥ २८ ॥
अर्थ - घोर गुणवाले जिनोंको नमस्कार हो । णमोsघोर गुण बह्मचारीणं ॥ २९ ॥
२
अर्थ-अघोर ब्रह्मचर्यधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ - वीरसेनाचार्य कहते हैं - जिनमें तपोमाहात्म्यसे मारी आदि रोग, दुर्भिक्ष, वैर, कलह, वध, बन्धन आदिके प्रशमन करनेकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, वे अघोर ब्रह्मचारी हैं। देवांगनाओंके द्वारा आलिंगनादि किये जानेपर भी वे निर्विकार परिणामयुक्त रहते हैं ।
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अकलंक स्वामी राजवार्तिक ( पृ० १४४ ) में अघोरके स्थानमें घोर पाठ मानकर यह अर्थ करते हैं - जो चिरकालसे अखण्ड ब्रह्मचर्यके धारक हैं और चारित्रमोहके उत्कृष्ट क्षयोपशमसे जिनके दुःस्वप्नोंका विनाश हो चुका है वे घोर ब्रह्मचारी हैं ।
तिलोयपणत्तिकार ( पृ० २८२ ) कहते हैं - जिस ऋद्धिसे मुनिके क्षेत्र में चोरादिककी बाधा, दुष्काल तथा महायुद्ध आदि नहीं होते हैं, वह अघोर ब्रह्मचारित्व है, अथवा चारित्रनिरोधक मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेसे जो ऋद्धि दुःस्वप्नोंको दूर करती है वह अघोर ब्रह्मचारित्व है; अथवा जिस ऋद्धिके होनेसे महर्षिजन सब गुणों के साथ अघोर अर्थात् अविनाशी ब्रह्मचर्यका आचरण करते हैं, वह अवोरब्रह्म वारित्व है ।
४
णमो आमोसहिपत्ताणं ॥ ३० ॥
अर्थ - जिनका आम अर्थात् अपक्वाहार औषधिरूपताको प्राप्त हो, उन जिनों को नमस्कार हो ।
तिलोयपण्णत्ति में इसे आमशौषधि कहा है । वहाँ लिखा है, जिस ऋद्धिके प्रभाव से जीव पास में आनेपर ऋषिके हस्त व पादादिके स्पर्शसे ही नीरोग हो जाते हैं वह आमशौषधि है ( ति० प० पृ० २८३ ) ।
णमो खेलो सहि पत्ताणं ॥ ३१ ॥
अर्थ - लौषधि प्राप्त जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ - जिनका निष्ठीवन ( थूक ) औषधिरूप अर्थात् रोगनिवारक होता है, वे मुनिराज क्ष्वेौषधि प्राप्त हैं ।
१. "ॐ ह्रीं अहं णमो घोरगुणाणं " - भ० क० य० ३० । २. "ॐ ह्रीं अहं णमो घोरगुणबंभचारीणं..." - भ० क० य० ३२ । घोरो दुर्धरो गुणो निरतिचारतालक्षणो यस्य तद्घोरगुणम्, दिव्याङ्गनालिङ्गनादिभिरप्यक्षुभितचित्तम् - प्रतिक्र मणग्रन्यत्रयी पृ० ९४ । ३. "ब्रह्म चारित्रं पञ्चव्रतसमितित्रिगुप्त्यात्मकं शान्तिमुष्टिहेतुत्वात् । अघोराः अन्ताः गुणाः यस्मिन् तदघोरगुणम् अघोरगुणं ब्रह्म चरन्तीति अघोरगुणब्रह्मचारिणः । जेसि तवोमाहप्पेण मारिदुब्भिक्ग्वत्रे र कलहबधबंधणरोगादिपसमणती समुपणा ते अघोरगुणबंभचारिणो त्ति उत्तं होदि । एत्य अकारो किष्ण सुणिज्जदे ? संविणिद्दे सादो ।" - ध० टी० । ४. आमोऽमक्वाहारः स एबोषधिः तां प्राप्ता आमीषधिप्राप्ताः- प्रतिक्र० पृ० ९४ । ५. ॐ ह्रीं अहं णमो खिल्लो सहिपत्ताणं ।" - भ० क० ० ३४ ।
३
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महाबंधे
णमो जल्लोसहिपत्ताणं ॥ ३२ ॥ अर्थ-जल्लौषधि ऋद्धिप्राप्त जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-पसीने से मिले हुए धूलिसमूहरूप मलको जल्न कहते हैं। जिन मुनियोंका जल्ल औषधिरूप होता है, वे जल्लौषधि प्राप्त जिन कहलाते हैं।
णमो विट्ठोसहिपत्ताणं ॥ ३३ ॥ अर्थ-जिनका मल औषधिरूप परिणत हो गया है, उन जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ-जिनका मूत्र-पुरीषादि मल रोगनिवारक होता है, वे विष्ठौषधिप्राप्त हैं। महान् तपश्चर्या के प्रभावसे यह सामर्थ्य प्राप्त होती है।
णमो सव्वोसहिपत्ताणं ॥ ३४ ॥ अर्थ-सौषधि ऋद्धिप्राप्त जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-जिन ऋषियोंके अंग, प्रत्यंग, नख, दन्त, केशादि स्पर्श करनेवाले जल, पवनादि जीवोंके लिए औषधिरूप परिणत हो जाते हैं, वे सर्वौषधिप्राप्त जिन हैं।
णमो मणवलीणं ॥ ३५ ॥ अर्थ-मनबलधारी जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तणय कर्मके क्षयोपशमके प्रकर्षसे अन्तर्मुहूर्त में ही सम्पूर्ण श्रुतके अर्थ-चिन्तनमें प्रवीण मनोबली हैं ।
णमो वचिवलीणं" ॥ ३६॥ अर्थ-- वचनबली जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-मन, रसना तथा श्रुतज्ञानावरण एवं वीर्यान्तरायके क्षयोपशमके अतिशयसे जो अन्तर्मुहूर्त में सम्पूर्ण श्रुतके उच्चारण करनेमें समर्थ हैं तथा निरन्तर उच्चस्वरसे उच्चारण करनेपर भी जो श्रमरहित एवं कण्ठके स्वर में हीनतारहित हैं, वे ऋषि वचनबली हैं ।
णमो कायबलीणं ॥ ३७॥ अर्थ-कायबली जिनोंको नमस्कार हो।
विशेषार्थ-वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न असाधारण शरीरबल होनेसे मासिक, चातुर्मासिक, वार्पिक आदि प्रतिमायोग धारण करते हुए भी जिन्हें खेद नहीं होता,वे मुनिवर कायबली हैं।
तिलोयपण्णत्ति ( पृ० २८३ ) में कहा है-जिस ऋद्धिके बलसे वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट भयोपशम होनेपर मुनिराज मास वा चातुर्मास आदि कायोत्सर्ग करते हुए भी श्रमरहित
१. "ॐ ह्रीं अहं णमो जल्लोसहिपत्ताणं"-भ० क० य०३५। २. "ॐ ह्रीं अहं णमो विट्ठोसहिपत्ताणं"-भ० क. य०३६। ३. "ॐ ह्रीं अहं णमो सम्बोसहिपत्ताणं" -भ० क० य०३३-३७ । ४. "ॐ ह्रीं अहं णमो मणवलीणं"-भ० क० य०३८। ५. "ॐ ह्रीं अर्ह णमो वचबलीणं" -भ०क० य०३९ । ६. "ॐ ह्रीं अहं णमो कायबलोणं" -भ० क० य०४०।
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मंगलायरणं
१६.
होते हैं तथा शीघ्र ही तीनों लोकोंको कनिष्ठ अंगुलीपर उठाकर अन्यत्र धरने में समर्थ होते हैं, वह कायबल नामकी ऋद्धि है ।
។
णमो खीर सवीणं ॥ ३८ ॥
अर्थ-क्षीरस्रवी ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ - नीरस भोजन भी जिनके हस्त-पुट में रखे जानेपर क्षीर-गुणरूप परिणमन करता है वा जिनके वचन क्षीण व्यक्तियोंको दुग्धके समान तृप्ति प्रदान करते हैं, वे क्षीरस्रवी हैं । तवार्थराजवार्तिक ( पृ० १४५ ) में क्षीरास्रवी' पाठ ग्रहण किया है ।
णमो सप्पिसवीणं ॥ ३६ ॥
अर्थ - घृतस्रवी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ - रूक्ष भोजन भी जिनके कर पात्रमें पहुँचते ही घृत के समान शक्तिदायक हो जाता है अथवा जिनका सम्भाषण जीवोंको घृत सेवन के समान तृप्ति पहुँचाता है, वे घृतस्रवी हैं ।
णमो महुसवणं ॥ ४० ॥
अर्थ - मधुस्रवी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ - जिनके हस्त-पुट में रखा हुआ नीरस आहार भी मधुर रसपूर्ण तथा शक्तिसम्पन्न हो जाता है, अथवा जिनके वचन दुःखी श्रोताओंको मधुके समान सन्तोष देते हैं, मधुस्रवी हैं। यहाँ 'मधु' शब्दका तात्पर्य मधुररसवाले गुड़, खाँड़, शर्करा आदि है, कारण उन सबमें मधुरता पायी जाती है ।
णमो अमइसवीणं ॥ ४१ ॥
अर्थ - अमृतस्रवी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ - जिनके हस्त-पुट में पहुँचकर कोई भी भोज्य वस्तु अमृतरूप हो जाती है, अथवा जिनकी वाणी जीवोंको अमृत तुल्य कल्याण देती है, वे अमृतस्रवी हैं ।
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णमो अक्खीणमहाण साणं ॥ ४२ ॥
अर्थ --अक्षीण महानस ऋद्धिधारी जिनोंको नमस्कार हो ।
विशेषार्थ--लाभान्तरायके क्षयोपशमके उत्कर्षको प्राप्त मुनीश्वरोंको जिस पात्रसे आहार दिया जाता है, उससे यदि चक्रवर्तीका कटक भी भोजन करे, तो उस दिन अन्नकी कमी न पड़े यह अक्षीण महानस ऋद्धि है । तिलोयपण्णत्ति ( पृ० २८५ ) में कहा है--लाभान्तरायके क्षयोपशम से संयुक्त मुनिराज के भोजनानन्तर भोजनशालाके अवशिष्ट अन्नमें से जिस किसी भी प्रिय वस्तुका उस दिन चक्रवर्तीके कटकको भोजन करानेपर भी लेशमात्र क्षीण न होना अक्षीण महानस ऋद्धि है ।
१. "ॐ ह्रीं अहं णमो खीरसवीणं" - भ० क० य० ४२ । २. ॐ ह्रीं अहं णमो महरसवीगं"भ० क० य० ४३ । ३. " महुवयणेण गुडखंडसक्करादीणं गणं महरसादं पडि एदासि साहम्मुवलंभादो ।" ध० टी० । ४. ॐ ह्रीं अहं णमो अभियसवीण." -भः कः य० ४४ । ५. "ॐ ह्रीं अहं णमो अक्खीण माणसाणं
भ० क० य० ४५ ।
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महाबंधे
णमो सव्वसिद्धायदणाणं' ॥ ४३ ॥ अर्थ–सम्पूर्ण सिद्धायतनों अर्थात् निर्वाणक्षेत्रोंको नमस्कार हो । णमो वड्ढमाणबुद्धरिसिस्स ॥ ४४ ॥ अर्थ-वर्धमान बुद्ध ऋषिको नमस्कार हो ।
[प्रकृतिसमुत्कीर्तननिरूपणा ] [इस महाबन्ध अथवा महाधवल शास्त्रका प्रारम्भिक ताड़पत्र नं० २७११ नष्ट हो गया है उसकी उसी रूप में पूर्ति होना असम्भव है। आगेके वर्णनक्रमके साथ सम्बन्ध मिलानेकी दृष्टिसे मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण तथा अवधिज्ञानावरणका संक्षेपमें वर्णन करते हैं, कारण ग्रन्थमें ज्ञानावरणपर आरम्भमें प्रकाश डाला गया है।]
जो त्रिकालवर्ती द्रव्य, गुण, पर्यायोंको नाना भेदोसहित प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूपसे जानता है, उसे ज्ञान कहते हैं। उस ज्ञानका आवरण करनेवाला ज्ञानावरण कर्म है। यह ज्ञान जीवका स्वभाव है। इसके द्वारा जीव स्व तथा अपूर्व वस्तुका व्यवसाय निश्चय करता है । वस्तु सामान्य तथा विशेष धर्मोसे समन्वित है । साकार उपयोग ज्ञान तथा निराकार उपयोग दर्शन कहलाते हैं। ज्ञान तथा दर्शन जीवके पृथक्-पृथक् गुण हैं। चित्-प्रकाशकी बहिर्मुख वृत्तिको भी ज्ञान कहते हैं और चित-प्रकाशकी अन्तर्मुख वृत्तिको दर्शन कहते हैं । गोम्मटसार'जीवकाण्डमें लिखा है-सामान्य विशेषात्मक पदार्थोके भेदको ग्रहण न करके जो सामान्यग्रहण-स्वरूपमात्रका अवभासन है, वह दर्शन है (४८२ गाथा)। इस दर्शनका आवरण करनेवाला कर्म दर्शनावरण है। जिसके उदयसे देवादि गति योंमें शारीरिक तथा मानसिक सुखकी प्राप्ति होती है, उसे माता कहते हैं, उसको जो भोगवावे तथा जिससे साताका वेदन करना, भोगना होता है, वह सातावेदनीय है । जिसके उदयका फल अनेक प्रकारके दुःख हैं, वह असाता है । जो उसे भोगवावे-अनुभवन करावे, वह असातावेदनीय है । जो जीवको मोहित करे, वह मोहनीय कर्म है। भव धारण करने में कारण आयु कर्म है । इस जीवकी नर-नारकादि विविध पर्यायोंमें कारण नाम कर्म है। कुलपरम्परासे प्राप्त जीवके उच्च अथवा नीच आचरणका कारण गोत्रकर्म है । इस जीवके दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य (शक्ति) में जो अन्तराय-बाधा डालता है, वह अन्तराय कर्म है । इन आठ कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह तथा अन्तरायको घातिया कर्म कहते हैं, कारण ये जीवके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य नामक गुणोंका
१. "सिद्धानां मक्तात्मनामायतनानि निर्वाणस्थानानि तेषां नमः"-प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी.पृ.१५ । २. "ॐ ह्रीं अहं णमो वड्ढमाणाणं...."-भ० क० य०४६। “ॐ ह्रीं अर्ह णमो सवमाहूर्ण महति महावीर. व ढमाण बुद्धिरिसीणं...."-भ० क० य०४८। "बुद्धश्च स्वहेयोपादेयविवेकसंपन्न:, ऋषिश्च प्रत्यक्षवेदी' प्र० ग्रन्थत्रयी पृ०१५। ३. "जाणइ तिकालविसए दब्वगुणे पज्जए य बहुभेदे । पच्चक्खं च परोवखं अणेग णाणे त्ति णं वेति ॥"-गो० जी०,गा०२६८। ४. 'साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनम्'-त. रा०पृ०६६। ५. "अन्तर्वहिमखयोश्चित्प्रकाशयोदर्शनज्ञानगपदेशभाजोरेकत्व विरोधात्"-ध० टी०, भा०१, पृ०१४५ । ६. 'यदुदयात् देवादिगति शारीरमानससुखप्राप्ति: तत्सातम् । तद्वेदयति वेद्यते इति नातवंदनीयम् । यदुदयफलं. दुःखमने कविधं तदसातम्, द्वेदयति वेद्यते, इत्यसातवेदनीयमिति- गो० क.,टीका पृ०२७ ।
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पयडिबंधाहियारो
घात करते हैं । ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य जीवके अनुजीवी गुण हैं । सिद्धोंके अव्याबाध सुखका घात आठों ही कर्म करते हैं । प्रत्येक कर्मका कार्य जीवके विशेष गुणके घात करनेका है, किन्तु उन सबका सामान्य धर्म जीवके सुख गुणके भी विनाश करनेका पाया जाता है।
वेदनीय, आयु, नाम तथा गोत्र ये प्रतिजीवी गुणोंका नाश करते है। अनुजीवी गुणोंका घात न करने के कारण इनको अघातिया कर्म कहते हैं। ये क्रमशः अव्याबाध, अवगाहन सूक्ष्मत्व तथा अगुरुलघुत्व गुणोंका नाश करते हैं। चार घातियाका नाश करनेवाले अरहन्त भगवान में गुणचतुष्टयकी अभिव्यक्ति होती है तथा सिद्धोंमें कर्माष्टकके ध्वंस करनेसे आठ गुण व्यक्त होते हैं। कर्मों के ध्वंसका अर्थ पुगलका अत्यन्त क्षय नहीं है, कारण सत्का अत्यन्त विनाश नहीं हो सकता। पुद्गलकी कर्मत्वपर्यायका नष्ट हो जाना अर्थात् आत्माके साथ उसका सम्बन्ध न रहना ही कर्मक्षय है।
____ ज्ञानावरण कर्मकी पाँच प्रकृतियाँ हैं-आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण। ये आवरणपंचक आभिनिबोधिकज्ञान-श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनापर्ययज्ञान तथा केवलज्ञानरूप ज्ञानकी पाँच अवस्थाओंको आवृत करते हैं। मिथ्यात्व के उदयसे आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञानको मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान तथा विभंगज्ञान कहते हैं। इन तीन ज्ञानोंको कुज्ञान भी कहते हैं।
इन्द्रिय तथा मनकी सहायतासे अभिमुख तथा प्रतिनियत पदार्थको जाननेवाला आभिनिबोधिक या मतिज्ञान कहलाता है। मतिज्ञान-द्वारा गृहीत अर्थसे जो अर्थान्तरका बोध होता है.
ह, उसे श्रुतज्ञान कहते है। द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी अपेक्षा जिस प्रत्यक्ष ज्ञानके विषयकी अवधि या सीमा हो, उसे अवधिज्ञान या सीमाज्ञान कहते हैं। परकीय मनमें स्थित पदार्थको जो ज्ञान जानता है, उसे मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। त्रिकालगोचर सर्वद्रव्यों तथा उनकी समस्त पर्यायोंको ग्रहण करनेवाला केवलज्ञान है ।
[आभिनिबोधिकज्ञानावरणप्ररूपणा] जो आभिनिबोधिक ज्ञानावरण कर्म है, वह चार, चौबीस, अट्ठाईस तथा बत्तीस प्रकारका है । अवग्रह, ईहा, अवाय तथा धारणाका आवरण करनेवाला अवग्रहावरण, ईहावरण, अवायावरण तथा धारणावरण कर्म है। विषय और विषयीके सन्निपात के अनन्तर पदार्थका आद्य ग्रहण अवग्रह है। इसका आवरण करनेवाला अवग्रहावरण कर्म है। अवग्रहके द्वारा गृहीत अर्थक विषयमें विशेष जाननेकी इच्छाके बाद भवितव्यता प्रत्ययरूप ज्ञानको ईहा कहते हैं । उसका आवारक कर्म ईहावरण कर्म है । इसके अनन्तर भाषा, वेष आदिका विशेष ज्ञान होनेसे जो संशयादिका निराकरण करके निर्णयरूप ज्ञान होता है, वह अवाय है । उसका आवारक अवायावरण कर्म है। अवायज्ञानके विषयभूत पदार्थके कालान्तरमें स्मरणका कारण धारणाज्ञान है, उसका आवारक धारणावरण
१. "कर्माएक विपक्षि स्यात् सुखस्यक गुणस्य च । अस्ति किंचिन्न कमक तद्विपक्षं तत: पृथक् ।। -पञ्चाध्यायी २।११५। २. "मणेमलादेवित्तिः क्षयः । सतोऽत्यन्तविनाशानुपपत्तेः । ताद्गात्मनोऽपि कर्मणो निवृत्तौ परिशुद्धिः ।'-अष्टसह. पृ०५३। ३. "तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्"-त० सू० १३१४ । ४. “अत्थादो अयंत रमुवलंभं तं भणंति सुदणाणं । आभिणिबोहियपुष्वं णियमेणिह सद्दजं पहुमं ॥"-गो० जी०,३१४। ५. 'अवह। यदि ति ओही सीमाणात्ति वणियं समये। भवगुणपच्चयविहियं जमोहिणाणे त्ति णं वेति ॥"-गो०जी०,३६६ ।
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२२
महाबंध
अवग्रहावरण कर्मके अर्थावग्रहावरण तथा व्यंजनावग्रहावरण कर्म ये दो भेद हैं । अव्यक्त पदार्थका ग्रहण करना व्यंजनावग्रह है । यह इन्द्रियोंसे सम्बद्ध अर्थका होता है । इसके विपरीत स्वरूपवाला अर्थावग्रह है । व्यंजनावग्रहका आवारक व्यंजनावग्रहावरण कर्म है तथा अर्थावग्रहका आवारक अर्थावग्रहावरण कर्म है । व्यंजनावग्रह चक्षु तथा मनको छोड़कर शेष स्पर्शन, रसना, घ्राण तथा श्रोत्र इन्द्रियसे होता है । अतएव इसके स्पर्शनेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरण कर्म, रसनेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरण कर्म, घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरण कर्म तथा श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरण कर्म ये चार भेद होते हैं ।
अर्थावग्रह व्यक्त वस्तुका ग्राहक होनेके कारण पाँच इन्द्रिय तथा मनके द्वारा होता है । इस कारण उसके आवारक स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु तथा श्रोत्रेन्द्रियावरण कर्म और नोइन्द्रियावरण कर्म हैं । ईहा, अवाय तथा धारणा ज्ञान भी पाँच इन्द्रिय तथा मनसे होनेके कारण अर्थावग्रह के समान प्रत्येक छह-छह भेदवाला है । इस कारण व्यंजनावग्रहके चार भेदोंमें अर्थावग्रहादिके चौबीस भेदोंको मिलानेसे २८ भेद होते हैं । अतएव मतिज्ञानावरण कर्मके भी २८ भेद हो जाते हैं। इसके बहु, एके, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिम, उक्त, अनुक्त, ध्रुव, अध्रुव, निःसृत, अनिःसृत - इन बारह प्रकारके पदार्थोंको विषय करनेके कारण प्रत्येकके द्वादश भेद हो जाते हैं। इस प्रकार २८x१२ = ३३६ भेद मतिज्ञानके हैं। अतएव मतिज्ञानावरण कर्मके भी ३३६ भेद होते हैं ।
[ श्रुतज्ञानावरणप्ररूपणा ]
मतिज्ञानके द्वारा जाने गये पदार्थ से पदार्थान्तरका ग्रहण करना श्रुतज्ञान है । वह 'नित्य शब्दनिमित्त है अथवा अन्य-निमित्तक है' ऐसी शंकाका निराकरण के लिए उस श्रुतज्ञानको मतिपूर्वक कहा है । यद्यपि श्रुतज्ञानपूर्वक भी श्रुतज्ञान होता है, फिर भी श्रुतज्ञानके मतिपूर्वकत्वमें बाधा नहीं आती है। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, इसका तात्पर्य इतना है कि प्रत्येक श्रुतज्ञानके प्रारम्भ में मतिज्ञान निमित्त हुआ करता है । पश्चात् मतिपूर्वकत्वका कोई नियम नहीं है।
उस श्रुतज्ञानके शब्दजन्य तथा लिंगजन्य ये दो भेद कहे गये हैं । अक्षरात्मक तथा अनक्षरात्मक रूपसे भी उसके दो भेद कहे जाते हैं । श्रुतज्ञानको अक्षरात्मक या शब्दात्मक मानना उपचरित कथन है । 'श्रुतज्ञानका कारण प्रवचन है, इससे प्रवचनको भी श्रुतज्ञान कह दिया है । अनक्षरात्मक श्रुतज्ञानके असंख्यात भेद हैं । अपुनरुक्त अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के संख्यात भेद हैं । पुनरुक्त अक्षरात्मक श्रुतज्ञानका प्रमाण इससे कुछ अधिक है । ३३ व्यंजन, २७ स्त्रर तथा ४ अयोगवाह मिलकर कुल चौसठ मूलवर्ण होते हैं। इन चौसठ वर्णों के संयोग १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ इन बीस अंक प्रमाण अपुनरुक्त अक्षर होते हैं । उपर्युक्त अक्षरोंमें १६३४८३०७८८८ इन एकादश अंकप्रमाण अक्षरात्मक मध्यम पदका भाग देनेपर लब्धिरूपमें प्राप्त संख्या प्रमाण अंगप्रविष्ट पद होते हैं जो द्वादशांग आचारांगादिके नामसे ख्यात हैं ।
१. " श्रुतज्ञानस्य कारणं हि प्रवचनं श्रुतमित्युपचर्यते । मुख्यस्य श्रुतज्ञानस्य भेदप्रतिपादनं कथमुपपन्नम् ? तज्ज्ञानस्य भेदप्रभेदरूपत्वोपपत्तेः । द्विभेदप्रवचनजनितं हि ज्ञानं द्विभेदम् । अङ्गबाह्यप्रवचनजनितस्य ज्ञानस्याङ्गजात्वात् अङ्गप्रविष्टजनितज्ञानस्याङ्गप्रविष्टत्वात् । त० इलो० पृ० २३६ । "तत्य अंगबाहिरस्स चोट्स अत्याहियारा, अंगपविट्ठ अत्याधियारो बारसविहो ।" ध० टी० भाग १, ५० ६६ |
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पयडिबंधाहियारो
बुद्धिके अ
भाग देनेसे शेष बचे हुए अक्षरोंको अंगबाह्य कहते हैं। अंगबाह्य के सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक तथा निषिद्धिका ये चौदह प्रकार हैं।
अतिशय तथा ऋद्धिविशिष्ट गणधरदेवके द्वारा अनुस्मृत जो द्वादशांगरूप जिनवाणीकी प्रन्थरचना है, वह अंगप्रविष्ट है। आचार्य अकलंकदेव उन गणधरदेवके शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा आरातीय आचार्योंके पाससे श्रुतज्ञानके तत्त्वको ग्रहण करके कालदोपसे अल्पमेधा, अल्पबल तथा अल्प आयुयुक्त प्राणियोंके अनुग्रह के लिए उपनिबद्ध संक्षिप्तरूपसे अंगोंके अर्थरूप वचनविन्यासको अंगबाह्य कहते हैं । इस दृष्टिसे आचार्यपरम्परासे प्राप्त तथा जिनवाणीके तत्त्वका प्रतिपादन करनेवाले अन्य ग्रन्थान्तर अंगबाह्य श्रुतमें समाविष्ट होते हैं।
अनक्षरात्मक श्रुतज्ञानका सबसे छोटा रूप पर्यायज्ञान कहलाता है। उससे कम ज्ञान किसी भी जीवके नहीं पाया जा सकता है। उस ज्ञानको नित्य प्रकाशमान तथा निरावरण कहा है। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव अपने योग्य सम्भवनीय ६०१२ भवोंमें परिभ्रमण कर अन्तके अपर्याप्तक शरीरको तीन मोड़ाओंसहित जब ग्रहण करता है, तब उसके प्रथम मोड़ाके समयमें सर्व जघन्य ज्ञान होता है।
'इस पर्यायज्ञानसे आगे पर्याय-समास, अक्षर, अक्षर-समास, पद, पद-समास, संघात, संघात-समास, प्रतिपत्तिक, प्रतिपत्तिक-समास, अनुयोग, अनुयोग-समास, प्राभृत, प्राभृतसमास, प्राभृत-प्राभृत, प्राभृत-प्राभृत-समास, वस्तु, वस्तु-समास, पूर्व, पूर्व-समास भेद होते हैं।
"श्रुतज्ञानका विषयभूत अर्थ मनका विषय होता है। श्रुतज्ञानमें मानसिक व्यापार होता है। ऐसी स्थिति में जिनके मन नहीं है, उन असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके श्रुतज्ञानका अभाव समझा जाना चाहिए था, किन्तु परमागममें कमसे-कम छद्मस्थोंके मति तथा श्रुत ये दो ज्ञान नियमतः कहे गये हैं । श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे एकेन्द्रियादिके मन न होते हुए भी श्रुतज्ञानका सद्भाव आगममें वर्णित है । इसका कारण यह है कि असंज्ञी जीवोंमें जो कुछ ऐसी क्रियाएँ पायी जाती हैं, जिनसे उनके मनके सद्भावको कल्पना होने लगती है उनका कारण मन नहीं है, किन्तु श्लोकवार्तिककार विद्यानन्दी स्वामीके शब्दों में मतिसामान्यके समान स्मृतिसामान्य, धारणासामान्य तथा उनके निमित्तरूप अवायसामान्य, ईहासामान्य, अवग्रहसामान्य पाये जाते हैं, जो कि अनादिभवाभ्यासके कारण उत्पन्न होते हैं। उनके क्षयोपशमनिमित्त भावमन नहीं है, कारण वह प्रति नियत संज्ञी प्राणियोंके होता है। इसका भाव यह है कि पिपीलिका आदिमें योग्य आहारका ग्रहण, अनुसन्धान, अयोग्य
१. "तत्राङ्गप्रविष्टमङ्गबाह्य चेति द्विविधमङ्गप्रविष्टमाचारादिद्वादशभेदम, बुद्धयतिशयर्यादयुक्तगणधरानुस्मतग्रस्थरचनम् । आरातीयाचार्यकृताङ्गार्थ-प्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम् । तद्गणधरशिष्यैः प्रशिष्यरारातोयैरधिगतश्रुतार्थतत्त्वैः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचनविन्यासं तदङ्गबाह्यम् । -त०रा०पृ०५४ । २. "सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि । हवदि हु सव्वजहण्णं णिच्चुग्घाडं णिरावरणं ॥ ३१९ ।। सुहमणिगोदअपज्जत्तगेमु सगसंभवेसु भमिऊण । चरिमापुण्णतिवक्काणादिमवक्कट्टियेव हने ॥३२०॥"-गो० जी०। ३. "पज्जायक्खरपदसंघादं पडियत्तियाणिजोगं च । दुग्वारपाहडं च य पाहडयं पत्थु पुर्व च ॥ तेसि च समासेहि य बीसविहं वा हु होदि सुदणाणं । आवरणस्स वि भेदा तत्तियमेत्ता हवंति त्ति ॥"-गो० जी०३१६,१७। ४. "श्रुतज्ञानविषयोऽर्थः श्रुतम् । स विषयोऽनिन्द्रियस्य । अथवा श्रतज्ञानं श्रुतम् । तदनिन्द्रियस्यार्थः प्रयोजनमिति यावत् ।"-स० सि०,पृ० १०५ ।
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२४
महा
का परिहार आदि बातें पायी जाती हैं, उसका कारण मन न होकर स्मृतिसामान्य धारणासामान्य, ईहासामान्य, अवायसामान्य आदि हैं ।'
२
यहाँ श्रुतज्ञानकी प्ररूपणा की गयी है। इससे श्रुतज्ञानावरण कर्मकी प्ररूपणा कैसे हों जायेगी ? इसके समाधानमें वीरसेनाचार्य लिखते हैं - यह दोष नहीं है, आवरण किये जानेवाले ज्ञानके स्वरूपकी प्ररूपणाका ज्ञानावरणके स्वरूप परिज्ञानके साथ अविनाभाव है । इस अविनाभाव के कारण श्रुतज्ञानके स्वरूपनिरूपण-द्वारा श्रुतज्ञानावरणका परिज्ञान कराया गया है ।
इस प्रकार श्रुतज्ञानावरणकी प्ररूपणा हुई ।
[ अवधिज्ञानावरणप्ररूपणा ]
जो अवधिज्ञानावरणीय कर्म है, वह एक प्रकारका है। उसकी दो प्रकारकी प्ररूपणा है । एक भवप्रत्यय अवधिज्ञान, दूसरा गुणप्रत्यय अवधिज्ञान । अवधिज्ञान सीमाज्ञान भी कहा जाता है, कारण यह द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी मर्यादासे रूपी पदार्थको विषय करता है । भवप्रत्यय अवधिज्ञान में भव निमित्त है । उस भवमें नियमसे क्षयोपशम होता ही है । जैसे पक्षियोंकी पर्याय में उत्पन्न होनेवाले जीवके गगन-गमन विषयक क्षयोपशम पाया जाता है । इसी प्रकार देव तथा नारकियोंकी पर्यायमें जानेवाले सम्पूर्ण जीवधारियोंको नियमसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है। तीर्थंकर भगवान् के भी जन्मसे जो अवधिज्ञान होता है, उसे भवप्रत्यय कहा है ।
1
सम्यग्दर्शनादि निमित्तोंके सन्निधान होते हुए शान्त तथा क्षीण कर्मवालोंके जो अवधिज्ञान होता है, उसे क्षयोपशमनिमित्तक या गुणप्रत्यय अवधि कहते हैं । यह जीवके विशेष प्रयत्नपर अवलम्बित रहता है, भवमात्र इसमें कारण नहीं है । गुण या क्षयोपशम निमित्त होनेसे इसे क्षयोपशमनिमित्तक कहते हैं ।
१. “न चामनस्कानां स्मरणसामान्याभावोऽनादिभवसंभूतविषयानुभवोद्भवायाः सामान्यधारणायातस्द्धेतोः सद्भावात् आहारसंज्ञासिद्धेः प्रवृत्तिविशेषोपलब्धेः ततो नाममतिवदाहारादिसंज्ञातद्धेतुश्च स्मृतिसामान्यं धारणा सामान्यं च तन्निमित्तपत्रासामान्य मोहासामान्यमवग्रहसामान्यं च सर्वप्राणिसाधारणमनादिभवाभ्यास संभूतमभ्युपगन्तव्यम्, न पुनः क्षयोपशमनिमित्तं भावमनः, तस्य प्रतिनियतप्राणिविषयतयानुभूयमानत्वात् ।।" - त० इलो० पृ० ३२६,३३० । २. सुदणाणस्स एयट्ट परूवणा भणिस्समाणा कथं सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स परूवणा होज्ज ? ण एस दोसो, आवरणिज्जस रूवपरूवणाए तदावरणसरूवावगमाविणाभावितादो ।" - ध० टी०, प० १२५५ । ३. "ययाकाशे सति पक्षिणो गतिर्भवति तथा ज्ञानावरणक्षयोपशमेऽन्तरंगे हेतौ सत्यवधेर्भावः, भवस्तु बाह्य हेतुः । कथं पुनर्भवो हेतुः ? इति चेत्; व्रतनियमाद्यभावात् । यथा तिरश्चां मनुष्याणां चाहिंसादिव्रतनियमहेतुकोऽवधिर्न तथा देवानां नारकाणां चाहिंसा दिव नियमाभिसंधिरस्ति । कुतो भवं प्रतीत्य कर्मोदास्य तथाभावात् । तस्मात् तत्र भत्र एवं बाह्यसाधनमुच्यते । " - त०रा०, पृ० ५४,५५ । "यथोक्तसम्यग्दर्शनादिनिमित्तसन्निधाने सति शान्तक्षीणकर्मणां तस्य उपलब्धिर्भवति ।" -त०रा०, पृ० ५६ । ४. "मोहिस्स य अवरं णरतिरिये होदि संजदम्हि वरं । परमोही सत्रोही चरमसरीरस्स विरदस्स ।' पडिवादी सोही अपवादी हवंति सेसाओ । मिच्छत्तं अविरमणं ण य पडिवज्जति चरिमदुगे । दव्वं खेत्तं कालं भावं पsिह विजाण ओही । अवरादुक्कसोत्ति य वियप्पर हिदो दु सन्वोही ।" गो० जी० ३७३-७५ ।
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पय डिबंधाहियारो
...........[ अत्र सप्तविंशतितमं ताडपत्रं त्रुटिनम् ] ......... १. अयणं-संवच्छर-पलिदोपम-सागरोपमादया वि भवंति ।
ओगाहणा जहण्णा णियमा दु सुहुमणियोदजीवस्स । यद्देहो तद्देही जहण्हयं खेत्तदो ओधी ॥१॥
अवधिज्ञानके देशावधि, परमावधि तथा सर्वावधि रूपसे तीन भेद भी हैं । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देशावधिके जघन्य भेदरूप होता है। गुणप्रत्यय तीनों भेदरूप होता है। गुणप्रत्यय देशावधिका जघन्य असंयमी मनुष्य, तिर्यंचोंके पाया जा सकता है। इसके आगेके विकल्प संयमी मनुष्यके ही पाये जाते हैं। परमावधि, सर्वावधि चरमशरीरी मुनिराजके ही पाया जाता है । सर्वावधि जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट आदि भेदोंसे रहित है ।
'सम्यक्त्वरहित अवधिज्ञानको विभंगावधि कहते हैं । अवधिज्ञानत्वको अपेक्षा दोनों में विशेष अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व, मिथ्यात्वके सहचारवश उनमें नाममात्रका भेद है।
कालकी अपेक्षा अवधिज्ञानके समय, आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग (पंचवर्ष), पूर्व (सत्तरकोटि छप्पनलक्ष, सहस्र कोटि वर्षे), पर्व (चौरासी लाख पूर्व प्रमाण), पल्योपम, सागरोपम आदि विधान जानना चाहिए।
महाबन्धके त्रुटित पत्रमें जो प्रथम पंक्ति है उसमें लिखा है-'अयन, संवत्सर, पश्योपम, सागरोपम आदि होते हैं।' धवला टीकाके प्रकरणसे तुलना करनेपर ज्ञात होता है कि यहाँ अवधिज्ञानसम्बन्धी कालका निरूपण चल रहा है।
१.... अयन,संवत्सर,पल्योपम,सागरोपम आदि होते हैं ।
अवधिज्ञान के क्षेत्रकी प्ररूपणा करने के लिए उत्तर सूत्र कहते हैं-सूक्ष्मलमध्यपर्याप्तक निगोदिया जीवकी जघन्य अवगाहना है । जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र उसके शरीरप्रमाण है।
विशेषार्थ-सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक निगोदिया जीवके ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेके तीसरे समयमें घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण सर्वजघन्य अवगाहना होती है। उस समय निगोदियाकी शरीराकृति वर्तुलाकार होनेसे सबसे कम क्षेत्रफल रहता है। उतना जघन्यावधिका क्षेत्र है।
१. "दोण्णं पि ओहिणाणतं पडि भेदाभावादो। ण च सम्मत्त-मिच्छत्तसहचारेण कदणामभेदादो भेदो अत्थि अइप्पसंगादो।......'कालदो ताव समयावलियखण-लब-महत्त-दिवस-पक्ख-मास-उद्- 'अवण-संवच्छर-- जुग-पुव्व-पलिदोवम-सागरोवमादओ विधओ णादव्या भवंति।"
-ध० टी०प० १२५८ ।
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महाबंध
'अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्जदो वि संखेज्जा | अंगुलमावलियंतो आवलियं अंगुलपुत्तं ॥ २ ॥ आवलियधत्तं पुण हत्थोवथा (हत्थं तह) गाउदं मुहुत्तो । जोजण भिण्णमुहुत्तं दिवसंतो पण्णुवीसं तु ॥ ३ ॥ "भरदं च अद्धमासं साधियमासं [च] जंबुदीवं हि । वासं च मणुसलोगे वासपुधत्तं च रुजगंहि ॥ ४ ॥ "संखेज्जदिमे कालं दीवसमुद्दा हवंति संखेज्जा | कालं हि असंखेज्जो दीवसमुद्दा हवंति असंखेज्जा ||५|| तेजाकम्म सरीरं तेजादव्वं च भासदव्वं च (भासमणदव्वं ) । बोद्धव्वं असंखेज्जा दि( दी ) व समुदा (द्दा ) य वासाय || ६ ||
अब क्षेत्र तथा कालकी अपेक्षा अवधिज्ञानसम्बन्धी १९ काण्डकोंका निरूपण करते हैं। प्रथम काण्डक में अंगुलका असंख्यातवाँ भाग जघन्य क्षेत्र है । आवलीका असंख्यातवाँ भाग जघन्य काल है । अंगुलका संख्यातवाँ भाग उत्कृष्ट क्षेत्र है, आवलीका संख्यातवाँ भाग उत्कृष्ट काल है । दूसरे काण्डकमें घनांगुलप्रमाण क्षेत्र है, कुछ कम आवलीप्रमाण काल है ।
विशेषार्थ - यहाँ दूसरे, तीसरे आदि काण्डकों में उत्कृष्टकी अपेक्षा वर्णन किया गया है। तीसरे काण्डक में अंगुलपृथक्त्व क्षेत्र है, आवली पृथकत्वप्रमाण काल है || २ ||
चतुर्थ काण्डक में आवली पृथक्त्व काल है, हस्तप्रमाण क्षेत्र है । पंचम काण्डकमें अन्तमुहूर्त काल है, एक कोश क्षेत्र है । छठेमें भिन्न मुहूर्त ( एक समय कम मुहूर्त ) काल है । एक योजन क्षेत्र है । सप्तम में कुछ कम एक दिन काल है, २५ योजन क्षेत्र है || ३ ||
अष्टम में अर्धमास काल है, भारतवर्ष क्षेत्र है । नवममें साधिक मास काल है, जम्बूद्वीप क्षेत्र है । दशममें वर्षप्रमाण काल है, मनुष्य लोकप्रमाण क्षेत्र है । ग्यारहवें में वर्षपृथकत्व काल है, रुचक द्वीप क्षेत्र है || ४ ||
बारहवेंमें संख्यात वर्ष काल है, संख्यात द्वीप समुद्र क्षेत्र है । तेरहवें में असंख्यात वर्ष काल है, असंख्यात द्वीप समुद्रप्रमाण क्षेत्र है ॥ ५ ॥
विशेष, आगामी पंच काण्डकोंका द्रव्यकी अपेक्षा कथन है ।
चौदहवें में देशावधिके मध्यम विकल्परूप विस्रसोपचयसहित तैजस शरीररूप द्रव्य विषय है । पन्द्रहवें में विस्रसोपचयसहित कार्मण शरीर स्कन्ध विषय है । सोलहवें में विस्रसोपचयरहित केवल तेजोवर्गणा विषय है । सत्रहवें में विस्रसोपचयरहित केवल भाषावर्गणा विषय है । अठारहवें में विस्रसोपचयरहित केवल मनोवर्गणा विषय है ।
१. गो० जी०, गा०, ४०३ । २. " सूक्ष्मनिगोदस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य जातस्य, ऋजुगत्या उत्पन्नस्य, उत्तृतीयसमये वर्तमानस्य जीवस्य घनाङ्गुला संख्येय भागमात्रं सर्वजघन्यमवगाहनं भवति" गो०जी०, गाथा ६४, संस्कृत टीका, पृ० २१५ । ३. " आवलियपुधत्तं पुण हत्थं तह -गो० जी०, गा० ४० । ४. “भरहम्मि अद्धमासं साहियमासं च जंबुदोवम्मि" गो० जी०, गा० ४०५ । ५. "संखेज्जरमे वासे दीवसमुद्दा.. वासम्मि असंखेज्जे''''''-गो० जी०, गा०,४०६ ।
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पर्याडबंधाहियारो
'कालो (काले) चदुणं बुड्डी कालो भजिदव्वे खेत्तवुड्डीए । उड्डीयं दव्वपज्जयं भजिदव्वं खेत्तकालो य ॥७॥ परमोधिमसंखेज्जा लोगामेत्ताणि समय-कालो दु । रूवगदं लभदि दव्यं खेत्तोवममगणि जीवेहिं ॥ ८ ॥ पणुवी जोण ( ) णाणं ओधी वेंतरकुमारवग्गाणं | संखेज्जजोजणाणं जोदिसियाणं जहण्होधी | ॥ असुराणामसंखेज्जा जोजणकोडी सेसजोदिसंताणं । खाती ( दी ) दसहस्सा उक्कस्सेणोधिविसे ( स ) यो दु ॥ १० ॥ कीसा पढमं दो चदु विदियं) सणक्कुमार- माहिंदे | तच्चदु ( तदियं तु) बम्हलंतय सुक्कसहस्सारया उत्थी ॥११॥ 'आणदपाणदवासी तथ आरणआरणच्चुदा देवा ।
पसंति पंचमखिदिं छुट्टी गेवेज्जया देवा ॥ १२ ॥
तेरहवें, चौदहवें आदि काण्डकों में असंख्यातगुणित क्षेत्र तथा असंख्यातगुणित काल है । अर्थात् बारहवें काण्डकके काल तथा क्षेत्र से असंख्यातगुणित काल तथा क्षेत्र तेरहवें काण्डक में है । इसी प्रकार आगे जानना चाहिए ||६||
विशेषार्थ - उन्नीसवें काण्डकमें एक समय कम पत्यप्रमाण काल है, सम्पूर्ण लोकाकाश क्षेत्र है ।
कालकी वृद्धि होनेपर द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावरूप चारों वृद्धियाँ होती हैं। क्षेत्रकी वृद्धि होनेपर कालकी वृद्धि भजनीय है अर्थात् हो भी, न भी हो । द्रव्य और भाव (पर्याय ) की वृद्धि होनेपर क्षेत्र, कालकी वृद्धि भजनीय है ॥७॥
२७
परमावधिका काल एक समय अधिक लोकाकाशके प्रदेशप्रमाण है, क्षेत्र असंख्यात लोकप्रमाण है, जो अग्निकायिक जीवोंकी संख्याप्रमाण है । एक प्रदेशाधिक लोकाकाशप्रमाण इसका द्रव्य है ' ॥८॥
८
व्यन्तरों तथा भवनवासी देवोंमें जघन्य क्षेत्रपच्चीस योजन प्रमाण है, ज्योतिषी देवोंका जघन्य क्षेत्र संख्यात योजन है । असुरकुमारोंका उत्कृष्ट क्षेत्र संख्यात. कोटि योजन है । शेष नव भवनवासी तथा व्यन्तरों- ज्योतिषियोंका उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात हजार योजन है ॥६- १०॥ सौधर्मद्विकका क्षेत्र प्रथम नरकपर्यन्त हैं । सनत्कुमार, माहेन्द्रका दूसरे नरकपर्यन्त है । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठवासियोंका तीसरे नरकपर्यन्त, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रारवाले चौथे नरकपर्यन्त जानते हैं ॥। ११ ॥
आनत, प्राणत, आरण, अच्युत स्वर्गवासी पाँचवें नरक तक, नवग्रैवेयकवासी छठीं पृथ्वीपर्यन्त देखते हैं ॥ १२ ॥
१. “काले चउण्ण उड्ढो..."-गो० जी०, गा० ४११ । २. यह गाथा १६ वें नम्बरपर भी पायी जाती है । वर्णक्रमकी दृष्टिसे यह १६ वें नम्बरपर विशेष उपयुक्त प्रतीत होती है । ३. गो० जी०, गा० ४२५ । ४. गो० जी० गा० ४३६ । ५. "सक्कीसाणा पढमं विदियं तु सणक्कुमारमाहिंदा । तदियं तु बम्हलांतव..." - गो० जी०, गा० ४२६ । ६. गो० जी०, गा ४३० । ७. त० रा० पृ० ५७ । ८. त०
रा०, पृ० ५७ ।
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महाबंधे
सव्वं पि लोगणालिं पसंति अणुत्तरेसु जे देवा । 'संखेते ( सक्खेत्ते ) य सकम्मे रूवगदमणंतभागो य ॥ १३ ॥ तेजासरीरलंभो उक्कस्सेण दु तिरिक्खजोणीणं । गाउदजहण्णमोधी णिरयेसु य जोजणुक्कस्सं ॥ १४ ॥ उक्कस्समणुसे ( स्से ) सु य मणुस ( स्स ) तेरच्छिए जहण्होधी । उकस्सं लोगमेत्तं पडिवादी तेण परमप्पडिवादी ।। १५ ॥ परमोधि असंखेजा लोगामेत्ताणि समय कालो दु ।
नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानवासी देव सर्व बसनालीको देखते हैं ॥ १३ ॥
विशेषार्थ-सौधर्मादिकके देव अपने विमानकी ध्वजाके दण्डके शिखरपर्यन्त ऊपर जानते हैं। नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानवासी देव अपने विमानके शिखरपर्यन्त ऊपर देखते हैं। नीचे बाह्य तनुवात वलयपर्यन्त सम्पूर्ण त्रसनालीको देखते हैं। अनुदिश विमानवाले कुछ अधिक तेरह राजू प्रमाण तथा अनुत्तर विमानवाले कुछ कम इक्कीस योजनरहित चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रको देखते हैं। गाथाके उत्तरार्धमें अवधिके विषयभूत द्रव्यको जाननेका क्रम कहते हैं-अपने-अपने अवधिज्ञानावरण कर्मके द्रव्यमें एक बार ध्रुवहारका भाग देनेपर अपने क्षेत्रके प्रदेश में-से एक-एक प्रदेश कम करते जाना चाहिए और यह कार्य तबतक करते जाना चाहिए, जबतक कि क्षेत्रके प्रदेशोंका प्रमाण घटते-घटते समाप्त न हो जाये । इस प्रकार करनेके अनन्तर जो अनन्तभाग प्रमाण द्रव्य अवशिष्ट रहेगा वहाँ-वहाँ उतना-उतना ही द्रव्यका प्रमाण समझना चाहिए।
_ तियंचगतिमें अवधिका उत्कृष्ट द्रव्य तैजस शरीरके द्रव्यप्रमाण है; क्षेत्र भी इतना ही है। अर्थात् तैजस शरीर द्रव्य के परमाणुप्रमाण आकाश प्रदेशोंसे जितने द्वीप, समुद्र व्याप्त किये जायें, उतना है । वह असंख्यात द्वीप समुद्रप्रमाण होता है ।। १४ ।।
नरकगति में अवधिका जघन्य क्षेत्र एक कोस, उत्कृष्ट क्षेत्र एक योजन है ।
उत्कृष्ट देशावधि मनुष्योंमें ही होता है । जघन्य देशावधि मनुष्य, तिथंचों में होता है। उत्कृष्ट देशावधिका क्षेत्र लोकप्रमाण है। यह प्रतिपाती होता है अर्थात् इसके धारकका मिथ्यात्वादि में पतन सम्भव रहता है । परमावधि तथा सर्वावधि अप्रतिपाती होते हैं ॥ १५ ॥
परमावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र लोकालोकप्रमाण असंख्यात लोक है। यह अग्निकायिक
१. "सक्खेते य सकम्मे .."-गो० जी०, गा० ४३१ । २. "तिरश्चामुत्कृष्टदेशावधिरुच्यते ... तेजशरीरप्रमाणं द्रव्यम् । कियच्च तत् ? असंख्ये यसमुद्राकाशप्रदेशपरिच्छिन्नाभिरसंख्येयाभिस्तेजःशरीर. द्रव्यवगणाभिनिवर्तितं तावदसंख्येयस्कन्धाननन्तप्रदेशान् जानातीत्यर्थः ।"-त०रा०पू०५७। ३. उत्कृष्ट. परमावधेः क्षेत्र सलोकालोकप्रमाणा असंख्येया लोकाः । कियन्तस्ते अग्निजीवतुल्या:""कालः प्रदेशाधिकलोका. काशप्रदेशावधुतप्रमाणा अविभागिनः समयास्ते चासंख्याताः संवत्सराः।" "द्रव्यं प्रदेशाधिक लोकाकाशप्रदेशावधुतप्रमाणम् ।।" त०रा०,पृ०५७।
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पय डिबंधाहियारो रूवगदं लभदि दव्वं खेत्तोपममगणिजीवेहिं ॥ १६ ॥
एवं ओधिणाणावरणीयस्स कम्मस्स परूवणा कदा भवदि । २. यं तं मणपजवणाणावरणीयं कम्मं बंधतो (कम्म) तं एयविधं । तस्स दुविधा परूवणा-उजमदिणाणं चेव विपुलमदिणाणं चेव । यं तं उमदिणाणं तं तिविधं-उज्जगं मणोगदं जाणदि। उज्जुगं वचिगदं जाणदि । उज्जुगं कायगदं जाणदि। मणेण माणसं पडिविंदइत्ता परेसिं सण्णासदिमदिचिंतादि विजाणदि, जीविदमरणं लाभालाभं
जीवोंकी संख्याप्रमाण है। परमावधिका काल समयाधिक लोकाकाशके प्रदेशप्रमाण है यह असंख्यात वर्षे रूप है । इसका द्रव्य प्रदेशाधिक लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण है ।। १६॥
विशेष-अवधिज्ञानके जितने भेद कहे गये हैं, उतने ही अवधिज्ञानावरण कर्मके भेद हैं। अवधिज्ञानका अवधिज्ञानावरण कर्मके साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। अतः श्रुतज्ञानके समान यहाँ भी अवधिज्ञानके वर्णन-द्वारा अवधिज्ञानावरणीय कर्मका वर्णन हुआ समझना चाहिए।
इस प्रकार अवधिज्ञानावरण कर्मकी प्ररूपणा हुई।
[ मनःपर्ययज्ञानावरणप्ररूपणा'] २. यह जो मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है, वह एक प्रकारका है। उसकी दो प्रकारको प्ररूपणा है । एक ऋजुमतिज्ञान है, दूसरा विपुलमति मनःपर्ययज्ञान है । जो ऋजुमतिज्ञान है, वह तीन प्रकारका है। वह सरल मनोगत पदार्थको जानता है। सरल वचनगत पदार्थको जानता है। सरल कायगत पदार्थको जानता है। यह ऋजुमतिज्ञान मनसे-मतिज्ञानसे अन्य जीवके मनको अथवा मनःस्थित पदार्थको ग्रहण करके मनःपर्ययज्ञानके द्वारा अन्यकी संज्ञा ( प्रत्यभिज्ञान ) स्मृति, मति, चिन्तादिको जानता है।
विशेषार्थ-मनसे अर्थात् मति ज्ञानसे मानसिक पदार्थको पर्यय-ग्रहण करना मनःपर्ययज्ञान है। मति ज्ञान मनःपर्ययमें अवलम्बनमात्र है, कारणरूप नहीं है। जैसे आकाशमें स्थित चन्द्रदर्शनके लिए वृक्ष की शाखादिकी सीधका अवलम्बनमात्र लिया जाता है, चन्द्रदर्शनमें कारण नेत्रकी शक्ति है। इसी प्रकार मनोगतादि भावोंका परिज्ञान करने में मनःपर्ययज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम कारण है । मन अथवा मतिज्ञान अवलम्बनमात्र हैं । विपुलमति मनःपर्ययज्ञान मनके द्वारा अचिन्तित अथवा अर्धचिन्तित पदार्थको भी ग्रहण करता है।
१. "परूवणा णाम किं उत्तं होदि ? ओघादेसेहि गुणेसु जीवसमासेसु पज्जत्तीसु पाणेसु सणासु गदीसु इंदिएसु काएसु जोगेसु वेदेसु कसाएसु णाणेसु संजमेसु दंसणेसु लेस्सासु भविएसु अभविए सु सम्मत्तेसु सणि असण्णोसु आहारि-अणाहारीसु उवजोगेसु च पज्जत्तापज्जतविससणेहि विसेसिऊण जा जोव-परिक्खा सा पक्षणा णाम ।"-ध०टी०भा०२.पृ०४१२। २. “यथाऽभ्रे चन्द्रमसं पश्येति अभ्रमपेक्षाकारणमात्र भवति, न च चक्षुरादिवनिर्वर्तकं चन्द्रज्ञानस्य । तथाऽन्यदीयमनोऽप्यपेक्षाकारणमात्रं भवति । परकीयमनसि व्यवस्थितमर्थ जानाति मनःपर्ययः । ततो नास्य तदायत्तः प्रभव इति न मतिज्ञानप्रसंगः।"-त०रा०,पृ०५८।
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३०
महाधे
सुखदुक्खं णगरविणासं देह ( देस ) विणासं जणपदविणासं अदिवुट्ठि अणावुट्ठीसुबुट्टि दुबुट्टी सुभिक्खं दुब्भिक्खं खेमाखेमं भयरोगं उभमं विब्भमं संभमं वत्तमाणाणं जीवाणं, णो अवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि । जहणणेण गाउदपुधत्तं । उक्कस्सेण जो जण धत्तस्स अन्तरादो, णो वहिद्धा । जहण्णेण दो तिष्णि भवगहणाणि, उक्कस्सेण सत्तभवग्गणाणि गदिरागदिं पदुप्पादेति ।
यह ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान 'बत्तमाणाणं' - व्यक्तमनवाले ( संशय, विपर्यय, अनध्यवसायरहित मनयुक्त ) अन्य जीवोंके एवं अपने अथवा 'वत्तमाणाणं' ' - 'वर्तमान' जीवोंके, वर्तमानमें मनःस्थित त्रिकालसम्बन्धी पदार्थको जानता है । अतीत अथवा अनागत मनोगत पदार्थको यह ऋजुमति नहीं जानता है । यह वर्तमान अथवा व्यक्तमनवाले जीवोंके जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, नगर विनाश, देशविनाश, जनपद विनाश, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्षेम, अक्षेम, भय, रोग, उद्भ्रम, विभ्रम तथा सम्भ्रमको जानता है । यह ऋजुमति जघन्यसे कोसपृथक्त्व, उत्कृष्टसे योजनपृथक्त्वके भीतर जानता है । बाहर नहीं जानता है । कालकी अपेक्षा जघन्यसे दो तीन भव, उत्कृष्टसे सात आठ भव ग्रहणसम्बन्धी गति-आगतिका प्रतिपादन करता है ।
१. " चतुर्गोपुरान्वितं नगरम् | अंगवंगकलिंगमगधादओ देसा णाम । देसस्स एगदेसो जणवओ णाम जहा सूरसेकासिगांधारआवंति आदओ । सस्यसम्पादिका वृष्टिः सुवृष्टिः । सालीवोहीजवगोधूमादिघाणाणं सुहत्तं सुविखं णाम । अरादीणामभावो खेमं णाम । परचक्कागमादओ भयं णाम ।" - ध० टी०, प० १२९६ । २. उद्धृतमिदम्-" आगमे ह्युक्तं मनसा मनः परिच्छिद्य परेषां संज्ञादीन् जानातीति ।" त० राज० पृ० ५८ । "मणेण माणसं पडिविदइत्ता परेसि सण्णा-सदि- मदि चिता जीविद मरणं लाहालाहं सुहृदुक्खं णयरविणासं देसविणासं जणवयविणासं खेडविणासं, कव्वडविणासं, मडवविणासं, पट्टणविणासं दोणमुहविणासणं अडवुट्टि अणावुट्ठि-सुवुट्टि-दुवुट्ठि-सुभिक्खं दुभिक्खं खेमाखेम-भयरोगकालसंजुत्ते अत्थे विजाणदि । " - घण्टी, प० १२५८ । "मणेण मदिणाणेण । कधं मदिणाणस्स मणववएसो ? कज्जे कारणोवयारादो । मणम्मि भवं लिंग माणसं । अथवा मणो चेव माणसो, पडित्रिदत्ता घेत्तूण पच्छा मणपज्जवणाणेण जाणदि । मदिणाणेण परेसि मणं घेत्तूण चैव मणपज्जवणाणेण मणम्मि ट्ठिदमत्थं जाणदि त्ति भणिदं होदि । एसो नियमो ण बिउलम इस्स, अचितिदाणं पि अद्वाणं विसईकरणादो" - ध० टी० । ३. "व्यक्तमनसां जीवानामर्थ जानाति, नाव्यक्तमनसाम् । व्यक्तः स्फुटीकृतोऽर्थश्चिन्तया सुनिर्वर्तितो यैस्ते जीवा व्यक्तमनसस्तैरर्थं चिन्तितं ऋजुमतिर्जानाति नेतरैः । " -त० रा०,पृ० ५८ । ४. "बट्टमाण भवग्गहणेण विणा दोण्णि, तेण सह तीणि भवग्गहणाणि जाणदिति । -ध० टी० | धवला टीकामें वीरसेन स्वामी उपरोक्त दोनों दृष्टियोंका समन्वय करते हुए लिखते हैं- "व्यक्तं निष्पन्तं संशयविपर्ययानध्यवसायरहितं मनः येषां ते व्यक्तमनसः तेषां व्यक्तमनसां जीवानां परेषामात्मनश्च सम्बन्धि वस्त्वन्तरं जानाति नाव्यक्तमनसां जीवानां सम्बन्धि वस्त्वन्तरम्, तत्र तस्य सामर्थ्याभावात् । अथवा वर्तमानानां जीवानां वर्तमानमनोगतं त्रिकाल सम्बन्धिनमर्थं जानाति, नातीतानागतमनोविषयमिति ।"-ध० टी०, प० १२६६ ।
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पडबंधाहियारो
३१
३. यं तं विपुलमदिणाणं तं छव्विधं-उज्जुगं मणोगदं जाणदि, उज्जुगं वचिगदं जादि, उज्जुगं कायगदं जाणदि, अणुज्जुगं मणोगदं जाणदि, एवं वचिगदं काय ( गदं ) च । एवं याव वत्तमाणाणं पि जीवाणं जाणदि । जहण्णेण जोजण धत्तं, उक्कस्सेण माणुसुत्तरसेलस्स अब्भंतरादो, णो बहिद्धा । जहण्णेण सत्तमवग्गहणाणि, उक्कस्सेण असंखेजाणि भवग्गहणाणि गदिरागर्दि पदुप्पादेदि । एवं मणपज्जवणाणावर ० कम्सस्स परूवणा कदा भवदि ।
विशेषार्थ - यदि वर्तमान भवको ग्रहण करते हैं तो तीन भव होते हैं । यदि वर्तमानको छोड़ दिया जाये, तो दो भव होते हैं । इस कारण दो भव या तीन भवसम्बन्धी कथनमें विरोधका सद्भाव नहीं रहता है । सात-आठ भवकी गति - आगति के विषय में भी यही समाधान है । वर्तमान भवको सम्मिलित करनेपर आठ भव, उसको छोड़नेपर सात भव होते हैं ।
३. जो विपुलमति मन:पर्ययज्ञान है, वह छह प्रकारका है । वह सरल मनोगत पदार्थको जानता है, सरल वचनगत पदार्थको जानता है, सरल कायगत पदार्थको जानता है, कुटिल मनोगत पदार्थको जानता है, कुटिल वचनगत पदार्थको जानता है, कुटिल कायगत पदार्थको जानता है । यह वर्तमान जीव तथा अवर्तमान जीवोंके अथवा व्यक्तमनवाले तथा अव्यक्त मनवाले जीवोंके द्वारा चिन्तित अचिन्तित सुख-दुःख लाभालाभादिको जानता है ।"
इसका क्षेत्र जघन्यसे योजन पृथक्त्व है । यह उत्कृष्टसे मानुषोत्तर पर्वत के अभ्यन्तर जानता है । बाहर नहीं जानता है ।
विशेषार्थ - मन:पर्ययज्ञानका क्षेत्र ४५ लाख योजन वर्तुलाकार न होकर विष्कम्भात्मक है, चौकोर रूप है । अत एव मानुषोत्तर पर्वत के बाहर के कोण में स्थित विषयों को भी विपुलमतिज्ञानवाला जानता है ।
कालकी अपेक्षा यह जघन्यसे सात आठ भव, उत्कृष्टसे असंख्यात भवोंकी गति आगतिका प्ररूपण करता है ।
विशेष - शंका- इस मन:पर्ययज्ञानावरण प्ररूपणा में मन:पर्ययज्ञानका निरूपण क्यों किया गया ? ज्ञानमें कर्मत्वका समन्वय कैसे होगा ?
समाधान- मन:पर्ययज्ञानावरणके द्वारा मन:पर्ययज्ञान आवृत होता है । यहाँ आवरण किये जानेवाले ज्ञानमें आवरण अर्थात् मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्मका उपचार किया गया है।
इस प्रकार मन:पर्ययज्ञानावरण कर्मकी प्ररूपणा की गयी ।
१. “चितियमचितियं वा अद्धवितियमणेयभेयगयं । ओहिं वा विउलमदी लहिऊण विजाणए पच्छा।" - गो०जी०, गा० ४४८ । त०रा०, पृ०५९ । २. " णरलोत्ति य वयणं विवकम्भणियामयं ण वट्टस्स । तम्हा तग्वणपदरं मणपज्जवखेत्तमुद्दिहं ॥" - गो० जी०, गा० ४५५ । ३. " दुगतिगभवा हुं अवरं सतट्टभवा हवंति उवकस्सं । अडणवभवा हु अवरमसंखेज्जं विउलउक्कस्सं ॥" - गो० जी०, गा० ४५६ ।
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महाबंधे
४. यं तं केवलणाणावरणीयं कम्मं तं एयविधं । तस्स परूवणा कादव्वा भवदि । सयं भगवं उप्पण्णणाणदरिसी सदेवासुरमणुसस्स लोगस्स अगदि गदिं चयणोपवादं बंध मोक्खं इद्धिं जुंद्धिं अणुभागं तक्कं कलं मणो-माण ( णु) सिक-भुत कदं पड़िसेविदं आदिकम्मं अरहकम्मं सव्वलोगे सव्वजीवाणं सव्वभावे समं सम्मं जाणदि । एवं केवलणाणावर - णीयस कम्मस्स परूवणा कदा भवदि ।
३२
[ केवलज्ञानावरणप्ररूपणा ]
४. जो केवलज्ञानावरणीय कर्म है, वह एक प्रकारका है । उसकी प्ररूपणा की जाती है । जिनेन्द्र भगवान्को केवलज्ञान तथा केवलदर्शनकी उपलब्धि हो चुकी है। वे स्वयं स्वर्गवासी देव, असुर अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिपी देव, तिर्यंच तथा मनुष्यलोककी गति, आगति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, युति ( जीवादि द्रव्यों का मिलना ), अनुभाग, तर्क, पत्रछेदनादि कला, मनजनित ज्ञान, मानसिक विषय, राज्यादि एवं महाव्रतादिका ' पालन करना, रूप भुक्ति, कृत, प्रतिसेवित ( त्रिकालमें पंचेन्द्रियों के द्वारा सेवित), आदि कर्म अरह् अर्थात् अनादि कर्मको सर्वलोक में, सर्वजीवोंके सर्वभावोंको युगपत् सम्यक् प्रकार से जानते हैं।
विशेषार्थ - केवली भगवान् त्रिकालावच्छिन्न लोक- अलोकसम्बन्धी सम्पूर्ण गुण पर्यायों से समन्वित अनन्त द्रव्योंको जानते हैं । "ऐसा कोई ज्ञेय नहीं हो सकता है जो केवली भगवान् के ज्ञानका विषय न हो । ज्ञानका धर्म ज्ञेयको जानना है और ज्ञेयका धर्म है- ज्ञानका विषय होना । इनमें विषयविषयिभाव सम्बन्ध है । जब मति और श्रुतज्ञानके द्वारा भी यह जीव वर्तमानके सिवाय भूत तथा भविष्यत् कालकी बातोंका परिज्ञान करता है, तब केवली भगवान् के द्वारा अतीत, अनागत, वर्तमान सभी पदार्थोंका ग्रहण करना युक्तियुक्त ही है । प्रतिबन्धक ज्ञानावरण कर्मके क्षय होनेपर आत्मा सकल पदार्थोंका साक्षात्कार कर लेता है । जैसे प्रदीपका प्रकाशन करना स्वभाव है, उसी प्रकार ज्ञानका भी स्वभाव स्व तथा परका प्रकाशन करना है । यदि क्रमपूर्वक केवली भगवान् अनन्तानन्त पदार्थोंको जानते तो सम्पूर्ण पदार्थों का साक्षात्कार न हो पाता । अनन्तकाल व्यतीत होनेपर भी पदार्थों की अनन्त गणना अनन्त ही रहती । आत्माकी असाधारण निर्मलता होनेके कारण एक समयमें ही सकल
१. "असुराश्च भवनवासिनः, देवामुरवचनं देशामर्पकमिति ज्योतिषां व्यन्तराणां तिरश्चां ग्रहणं कर्तव्यम् ।" - ध० टी० । २. "जीवादिदव्वाणं मेलणं जुदी । पत्तच्छेद्यादि कला' णाम । मनोजणिदं गाणं वा मणो वुच्चदे । रज्जमहव्त्रयादिपरिवालणं भुत्ती णाम । पंचहि इंदिएहि तिसुवि कालेसु जं सेविदं तं पडिसेविदं णाम । आद्यकर्म आदिकम्मं णाम, अत्थवं जणपज्जायभावेण सव्वेसि दव्वाणमादि जाणदि त्ति भणिदं होदि । रहः अन्तरम् । अरहः अनन्तरम् । अरहः कर्म अरहस्कर्म तं जानाति । सुद्धदव्वट्टियणयविसएण सव्र्व्वसि दव्वाणमणादित्तं जाणदि त्ति भणिदं होदि ।" ध० टी०, प० १२७२ । ३. असुर व्यन्तरोंके भेदविशेषका ज्ञापक होते हुए भी यहाँ सुरोंसे भिन्न असुर इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इस कारण तिर्यंच भी असुर शब्दके द्वारा गृहीत हुए हैं । ध० टी० । ४. "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ।" - त० सू० ११२९ । ५. " न खलु ज्ञस्वभावस्य कश्चिदगोचरोऽस्ति यन्न क्रमेत, तत्स्वभावान्तरप्रतिषेधात् । ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने । दाऽग्निदहको न स्यादसति प्रतिबन्धने ॥" - अष्टसह० पृ० ४६।५० ।
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पयडिबंधाहियारो ५. दसणावरणीयस्य कम्मस्स णव पगदीओ। वेदणीयस्स कम्मस्स दुवे पगदीओ। मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीसपगदीओ। आयुगस्स कम्मस्स चत्तारि पगदीओ।
पदार्थों का ग्रहण होता है। 'जब ज्ञान एक समयमें सम्पूर्ण जगत्का या विश्वके तत्वोंका बोध कर चुकता है, तब आगे वह कार्यहीन हो जायगा' यह आशंका भी युक्त नहीं है; कारण काल द्रव्य के निमित्नसे तथा अगुल्लघुगुणके कारण समस्त वस्तुओंमें क्षण-क्षणमें परिणमनपरिवर्तन होता है। जो कल भविष्यत् था, वह आज वर्तमान बनकर आगे अतीतका रूप धारण करता है। इस प्रकार परिवर्तनका चक्र सदा चलने के कारण ज्ञेयके परिणमनके अनुसार ज्ञानमें भी परिणमन होता है। जगत्के जितने पदार्थ हैं, उतनी ही केवलज्ञानकी शक्ति या मर्यादा नहीं है । केवलज्ञान अनन्त है । यदि लोक अनन्तगुणित भी होता, तो केवलज्ञानसिन्धुमें वह बिन्दुतुल्य समा जाता। इस केवलज्ञानकी प्राप्ति मुख्यतासे ज्ञानावरणके क्षयसे होती है। किन्तु ज्ञानावरणके साथ दर्शनावरण तथा अन्तरायका भी क्षय होता है । इन तीन घातिया कर्मोके पूर्व मोहका भय होता है । मोहक्षय हुए बिना कैवल्यकी उपलब्धि नहीं होती है । उज्ज्वल तथा उत्कृष्ट ज्ञानोंकी प्राप्तिके लिए मोहका निवारण होना आवश्यक है । अनन्त केवलज्ञानके द्वारा अनन्त जीव तथा अनन्त आकाशादिका ग्रहण होनेपर भी वे पदार्थ सान्त नहीं होते हैं । अनन्त ज्ञान अनन्त पदार्थ या पदार्थोंको अनन्त रूपसे बताता है, इस कारण ज्ञेय और ज्ञानको अनन्तता अबाधित रहती है। कोई-कोई व्यक्ति सोचते हैं, सर्वज्ञका भाव सकल पदार्थोंका अवबोध नहीं है, किन्तु केवल आत्माका ज्ञानप्राप्त व्यक्ति उपचारसे सर्वज्ञ कहलाता है, वास्तवमें सर्वज्ञ कोई नहीं है। _ यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। जब ज्ञान झायोपशमिक अवस्थामें रहता है, तब वह अनेक पदार्थों का साक्षात्कार करता है; जब वह ज्ञान क्षायिक अवस्थाको प्राप्त करता है, तब उस ज्ञानको न्यून बताकर आत्माके ज्ञान रूपमें सीमित सोचना असम्यक् है । क्षायिक अवस्थामें आबाधक कारण दूर होनेपर ज्ञानकी वृद्धि स्वीकार न कर, उसे न्यून मानना अयोग्य है । शंकाकार यह सोचे कि किस कारणसे सुविकसित मति, श्रुत, अवधि तथा मन:
| ज्ञानचतुष्टय क्षीण होकर कैवल्यकालमें आत्माके ज्ञानरूपमें सीमित हो जाते हैं। आत्माका स्वभाव ज्ञान है । प्रतिबन्धक सामग्रीके अभाव होनेपर ऐसी कोई भी सामग्री नहीं है जो आत्माकी सर्वज्ञताको क्षति पहुँचा सके, अतः जिनशासनमें आत्माकी सर्वज्ञताको काल्पनिक नहीं, किन्तु वास्तविक रूपमें मान्यता प्रदान की गयी है।
इस प्रकार केवलज्ञानावरण कर्मको प्ररूपणा हुई।
[दर्शनावरणादिकर्मप्ररूपणा ] ५. दर्शनावरण कर्मकी नव प्रकृतियाँ हैं-चक्षु-अचक्षु-अवधि केवल दर्शनावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला तथा स्त्यानगृद्धि ।
वेदनीय कर्मकी साता तथा असाता-ये दो प्रकृतियाँ हैं ।
मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियाँ हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यक्त्व प्रकृति, सम्यक्त्व-मिथ्यात्व, मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद। .
नरक, मनुष्य, तिर्यंच, देवायु ये आयु कर्मकी चार प्रकृतियाँ हैं।
पययरू
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महाबंधे णामस्स कम्मरस बादालीसं बंध-पगदीओ। यं तं गदिणामं कम्मं तं चदुविधं-णिरयगदि याव देवगदि त्ति । या(य)था पगदिभंगो तथा कादव्यो । गोदस्स कम्मस्स दुवे पगदीओ। अंतराइगस्स कम्मस्स पंच पगदीओ । एवं पगदिसमुक्त्तिणा समत्ता ।
६. जो सो सव्वबंधो णोसव्वबंधो णाम तस्स इमो दुवि०-ओघेण आदेसेण य । ओघे णाणंतराइगस्स पंच पग० किं सव्वबंधो पोसव्वबंधो ? [सव्वबंधो। ] दंसणाव० किं सव्वबंधो णोसव्वबंधो ? सव्वाओ पगदीओ बंधमाणस्स सव्वबंधो। तदणबंधमाणस्स
नाम कर्मकी बयालीस बन्ध प्रकृतियाँ हैं-गति, जाति, शरीर, बन्धन, संघात, संस्थान, अंगोपांग, संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, विहायोगति, बस-स्थावर, बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त, प्रत्येक-साधारण, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग-दुर्भग, सुस्वर-दुस्वर, आदेय-अनादेय, यश कीर्तिअयशःकीर्ति, निर्माण और तीर्थकर ।
इस नामकर्ममें जो गति नामका कर्म है, उसके चार भेद हैं-नरकगति, देवगति मनुष्यगति, तियचगति । इस प्रकार जिस प्रकृति के जितने भेद हैं, उतने भेद समझ लेना चाहिए। अर्थात् षट्खंडागम वर्गणाखंडान्तर्गत प्रकृति अनुयोगद्वार में जिस प्रकार कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंका निरूपण किया गया है,तदनुसार यहाँ भी जानना चाहिए ।
विशेषार्थ-गति के सिवाय नामकर्मकी ये प्रकृतियाँ भी भेदयुक्त हैं। एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय जाति । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मण शरीर । औदारिकादि रूप पञ्च बन्धन तथा पंच संघात । समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, कुब्ज, स्वाति, वामन, हुण्डक-संस्थान । औदारिक-शरीरांगोपांग, वैक्रियिक-शरीरांगोपांग, आहारक-शरीरांगोपांग । वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलित, असम्प्राप्तामृपाटिका-संहनन । शुक्ल, कृष्ण, नील, पीत, लाल वर्ण। सुगन्ध, दुर्गन्ध । खट्टा, मीठा, चिरपिरा, कटु, कषायला रस । ठंडा, गरम, स्निग्ध, रूक्ष, हलका, भारी, नरम, कठोररूप-स्पर्श । नरक-तियच-मनुष्य-देवगति-प्रायोग्यानुपूर्वी । प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति । ये ६५ उत्तर प्रकृतियाँ हैं जो पिण्डरूपसे १४ कही गयी हैं। ६५ उत्तर भेदवाली पिण्ड प्रकृतियोंमें २८ भेदरहित अपिण्ड प्रकृति योंको जोड़नेपर नाम कर्मकी ९३ प्रकृतियाँ होती हैं।
उच्चगोत्र,नीचगोत्रके भेदसे गोत्रकर्म दो प्रकारका है।
दान-लाभ-भोग-उपभोग तथा वीर्यान्तराय ये अन्तरायकी पाँच प्रकृतियाँ हैं। सब प्रकृतियाँ १४८ होती हैं। विशेष—इन कर्म-प्रकृतियोंके विशेष भेद किये जायें, तो अनन्त भेद हो जाते हैं।
__ इस प्रकार प्रकृति-समुत्कीर्तन समाप्त हुआ
[ सर्वबन्धनोसर्वबन्धप्ररूपणा ] ६. जो सर्वबन्ध तथा नोसर्वबन्ध है, उसका ओघ अर्थात् सामान्य और आदेश अर्थात् विशेषसे दो प्रकार निर्देश होता है।
ओघसे ५ ज्ञानावरण तथा ५ अन्तरायकी प्रकृतियोंका क्या सर्वबन्ध है या नोसर्वबन्ध ? [ इनका सर्वबन्ध होता है। ]
विशेषार्थ-ज्ञानावरण अथवा अन्तरायके पांच भेदोंमें-से अन्यतमका बन्ध होनेपर
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पयडिबंधाहियारो
३५
1
णोसव्वधो । एवं मोहणीय णामाणं । वेयणी० - आयु-गोदा० किं सव्वबंधो णोसव्वबंध ? vieosबंध । एवं याव अणाहारगति, णवरि अणुदिसा० याव सव्वदृत्ति दंसणा ० - गोसव्वबंधो । एदेण बीजेण णेदव्वं । एवं उक्करसंबंधो अणुकरसंबंधोपि दव्वं । यो सो जहण्णबंधो अजहण्णबंधो णाम तस्स इमो दु० णिद्देसो | ओघे० आदेसे ० | ओघे० णाणंतराइगस्स पंचविहस्स किं जहण्णबंधो, अजहण्णबंधो ? अजहण्णबंधो। दंसणावरणीय मोहणीय णामाणं वि किं जहण्णबंधो, अजहण्णबंधो ? जहण्णबंधो वा अजहण्णबंधो वा । वेदणी० आयु-गोदा० किं जह० अजह० १ जहण्णबंधो । एवं याव आण (अणा)हारग त्ति दव्वं । यो सो 'सादिय-बंधो अणादिय बंधो ४, तस्स शेष चार भेदोंका नियमसे बन्ध होता है । सर्व भेदोंका बन्ध होने के कारण इनका सर्वबन्ध कहा गया है ।
प्रश्न- दर्शनावरण कर्मका सर्वबन्ध है या नोसर्वबन्ध है ?
उत्तर
- सम्पूर्ण प्रकृतियोंके बन्ध करनेवालेके सर्वबन्ध होता है । सर्व प्रकृतियों में से न्यून प्रकृतियोंके बन्ध करनेवालेके नोसर्वबन्ध है ।
मोहनीय तथा नाम कर्म में दर्शनावरण के समान जानना चाहिए अर्थात् सर्व प्रकृतियों के बन्ध करनेवालेके सर्वबन्ध और कुछ न्यून प्रकृतियों के बन्ध करनेवालेके नोसर्वबन्ध होता है । वेदनीय, गोत्र तथा आयुकर्म में क्या सर्वबन्ध है, अथवा नोसर्वबन्ध है ? नोसर्वबन्ध है । विशेषार्थ - साता, असाता वेदनीय, उच्च, नीच गोत्र इन युगलों में से किसी एकका बन्ध होगा तथा अन्यका अबन्ध होगा । इसी प्रकार आयुचतुष्टय में से अन्यतमका बन्ध होगा, शेषका अबन्ध होगा । इसलिए वेदनीय, गोत्र तथा आयुका नोसर्वबन्ध कहा है ।
आदेश से यह क्रम अनाहारक पर्यन्त जानना चाहिए। विशेषता यह है कि अनुदिशसे सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त देवोंमें दर्शनावरण तथा मोहनीयका नोसर्वबन्ध होता है । इस कथनको आगे भी अन्य मार्गणाओं में सर्व नोसर्वबन्धका बीजभूत समझना चाहिए ।
[ उत्कृष्टबन्ध-अनुत्कृष्टबन्धप्ररूपणा ]
इसी प्रकार उत्कृष्टबन्ध तथा अनुत्कृष्टबन्ध में भी जानना चाहिए |
विशेष - सर्वबन्ध नोसर्वबन्धमें ओघ तथा आदेशसे जैसा वर्णन किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए ।
[ जघन्यबन्ध - अजघन्यबन्धप्ररूपणा ]
जो जघन्यबन्ध तथा अजघन्यबन्ध है, उसका ओघ तथा आदेश से दो प्रकार से निर्देश करते हैं । ५ ज्ञानावरण, ५ अन्तरायका क्या जघन्यबन्ध है या अजघन्यबन्ध है ? अजघन्यबन्ध है । दर्शनावरण, मोहनीय तथा नामकर्मका क्या जघन्यबन्ध है. या अजघन्यबन्ध ? जघन्यबन्ध है तथा अजघन्यबन्ध है । वेदनीय, आयु तथा गोत्रका क्या जघन्यबन्ध है या अजघन्यबन्ध ? जघन्यबन्ध है |
अनाहारक मार्गणापर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए ।
से सगो
१. "सादि अणादी धुव अधुवो य बंधो दु कम्मछक्कस्स । तदियो सादिय सेठी अणादि धुव आऊ ।" - गो० कर्म०, गा० १२२ ।
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महाबंधे इमो दुवि० । ओघे० आदे।
७. ओघे० सादिय-बंधो णाम तत्थ इमं अट्ठपदं एका वा छा वा पगदीओ वोच्छिण्णाओ संतिओ भूयो बज्झदि त्ति । एसो सादियबंधों णाम ।
[सादि-अनादिध्रुव-अध्रुवषन्धप्ररूपणा ] जो सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव बन्ध है, उसका ओघ तथा आदेशसे दो प्रकारका निर्देश है।
७. सादि बन्धका यह अर्थपद है कि एक कर्म अर्थात् आयु कर्मका, छह कर्मोका अर्थात् वेदनीयको छोड़कर शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र तथा अन्तराय रूप छह काँका बन्ध व्युच्छिन्न होने के पश्चात् पुनः बन्ध होना सादिबन्ध है ।
विशेषार्थ-आयुका निरन्तर बन्ध नहीं होता है। आयुका बन्ध होकर रुक जाता है, पुनः बन्ध होता है, अतएव इसको सादिवन्ध कहा है। सदा बन्ध न होनेके कारण अध्रुव भी है। आयुके विपय में गोम्मटसार कर्मकाण्डमें लिखा है कि भुज्यमान आयुके उत्कृष्ट छह मास अवशेप रहनेपर देव तथा नारकी मनुष्यायु वा तिर्यंचायुका बन्ध करते हैं। भोगभूमिया जीव छह मास अवशेप रहनेपर देवायुका ही बन्ध करते हैं। मनुष्य तथा तिर्यच भुज्यमान आयुका तीसरा भाग अवशेष रहनेपर चारों आयुका बंध करते हैं। तेजकायिक तथा वातकायिक जीव एवं सप्तम पृथ्वीके नारकी नियंच आयुको ही बाँधते हैं। एकेन्द्रिय वा विकलेन्द्रिय मनुष्यायु वा तिर्यंचायु ही का बन्ध करते हैं।
एक जीव एक भवमें एक ही आयुका बन्ध करता है । वह भी योग्यकालमें आठ बार ही बाँधता है । वहाँ सर्वत्र तीसरा-तीसरा भाग शेष रहनेपर बाँधता है।
आठ अपकर्ष के कालों में पहली बारके बिना द्वितीयादिक बार में पूर्व में जो आयु बाँधी थी, उसकी स्थिति की वृद्धि, हानि व अवस्थिति होती है। पहली बार आयुकी जो स्थिति बाँधी थी, उसके पश्चात् यदि दूसरी बार, तीसरी बार इत्यादिक बन्ध योग्य काल में पहली स्थितिसे यदि अधिक आयुका बन्ध हुआ है, तो पीछे जो अधिक स्थिति बँधी उसकी प्रधानता जाननी चाहिए। यदि पूर्वबद्ध स्थितिको अपेक्षा न्यून स्थिति बँधी, तो पहली बँधी अधिक स्थितिकी प्रधानता जाननी चाहिए। आयुके बन्धको करते हुए जीवके परिणामोंके कारण आयुका अपवर्तन अर्थात् घटना भी होता है । इसे अपवर्तन घात कहते हैं।
उदय प्राप्त आयुके अपवर्तनको कदलीघात कहते हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि तीसरा भाग अवशेष रहने पर आगामी आयुका बन्ध होगा ही: इस प्रकार का एकान्त नियमः नहीं है। उस कालमें आयुके बन्ध होनेकी योग्यता है। वहाँ आयुका बन्ध होवे तथा न भी होवे । (गो० क. बड़ी टीका पृ० ८३६-८३८ गाथा ६३९-६४३ ) उपशान्त कषाय गुणस्थान में जब कोई जीव पहुँचता है, तब ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र तथा अन्तरायका बन्ध रुक जाता है, वहाँ केवल सातावेदनीयका ही बन्ध होता है । जब वह जीव गिरकर पुनः सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में आता है, तब ज्ञानावरणादिका बन्ध पुनः प्रारम्भ हो जाता है । इस कारण ज्ञानावरणादिका सादिबन्ध कहा गया है ।
१. "सादी अबंधबधे से हि अणारू ढगे अणादी हु । अभवसिद्धम्हि धुवो, भवसिद्धे अद्धवो बंधो ।"
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पडबंधाहियारो
३७
८. एवं मूलपगदि अट्ठपदभंगो कादव्वो । एदेण अट्ठपदेण दुवि० ओघे० आदेसे | ओघे० 'पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छत्त सोलसकसा ०-भयं दुर्गु० -तेजा-कम्म०वण्ण०४ - अगुरु० उप ० - णिमिण० पंचंतराइ० किं सादि० ४ १ सादियबंधो वा० ४ । सादासादं सत्तणोकसाय-चदुआयु-चदुग०-पंचजा०-तिष्णिसरी० छस्संठा०-तिण्णिअंगो०-छस्संघड ० चत्तारि आणुपु० - परघादुस्सास- आदावज्जीवं दोविहायगदि-तसादिदसयुगलं तित्थयरं णीचुच्चागोदाणं किं सादि०४ : सादियअद्ध्रुवबंधो । एवं अचक्खु । भवसिद्धि • धुवरहिदं । एवं याव अणाहारगति दव्वं ।
६. यो सो बंधसामित्तविचयो णाम तस्स इमो णिद्देसो ओघे० आदे० | ओघे० चोस - जीवसमांसा णादव्या भवंति । तं यथा मिच्छादिट्ठि याव अजोगिकेवलिति । एदेसिं चोद्दस - जीवसमासाणं पगदिबंधवोच्छेदो कादव्वो भवदि ।
5. इस प्रकार मूल कर्मप्रकृति के अर्थपदभंग (प्रयोजनभूत पदों के भंग) करना चाहिए। इस अर्थपदसे इस वातको लक्ष्यमें रखते हुए अर्थात् ओघ तथा आदेश-द्वारा दो प्रकार निर्देश करते हैं ।
ओघका अर्थ सामान्य तथा आदेशका अर्थ विशेष है। ओघसे ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्णं आदि ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायके क्या सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव ये चारों बन्ध होते हैं ? सादि,
दि, ध्रुव, अध्रुवबन्ध होते हैं ।
साता, असाता, भय जुगुप्सा बिना ७ नोकषाय, ४ आयु, ४ गति, ५ जाति, ३ शरीर, ६ संस्थान, ३ आंगोपांग, ६ संहनन, ४ आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, २ विहायोगति, त्रसादि इस युगल, तीर्थंकर, नीचगोत्र, उच्चगोत्र इनके क्या सादि आदि चार बन्ध होते हैं ? सादि तथा अध्रुव बन्ध हैं ।
ऐसा अचक्षु दर्शन में जानना चाहिए। भव्यसिद्धिकों में ध्रुव भंग नहीं है। अनाहारकपर्यन्त ऐसा जानना चाहिए।
[ बन्धस्वामित्वविचयप्ररूपणा ]
९. जो बन्धस्वामित्वविचय है उसका ओघ तथा आदेशसे दो प्रकार निर्देश करते हैं। ओघसे - मिध्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली पर्यन्त चौदह जीवसमास - गुणस्थान होते हैं। इन चौदह जीवसमासों - गुणस्थानों में प्रकृतिबन्धकी व्युच्छित्ति कहनी चाहिए।
१. "घादितिमिच्छक सायाभय तेज गुरु-दुग- णिमिण वण्णचओ । सत्तेतालधुवाणं चदुधा सेसाणयं च दुधा ॥” – गो० क०, गा० १२३ - १२४ । २. "एत्तो इमेसि चोद्दसण्हं जोवसमासाणं मग्गणट्टयाए तत्थ इमाणि चोहम चेत्राणाणि णायव्वाणि भवंति । जीवाः समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः । तेपां चतुर्दशानां जीवसमासानां चतुर्दशगुणस्थानानामित्यर्थः । " - ध० टी० भा० १ ० ९१,१३१ ।
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महाबंधे
१०. पंचणाणावरणीय-चदुदंसणावरणीय-जसगित्ति-उच्चागोद-पंच-अंतराइगाणं को बंधको, अबंधो० १ मिच्छादिट्टिप्पहुदि याव सुहुमसंपराइयसुद्धिसंजदा त्ति बंधा। सुहुमसांपराइय-सुद्धिसंज०दव्वाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बधा, अवसेसा
गुणस्थान
बन्ध व्युच्छित्ति प्राप्त प्रकृतियाँ
विवरण
मिथ्यात्व
१६
मिथ्यात्व, हुण्डसंस्थान, नपुंसकवेद, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, आताप, सूक्ष्मत्रय, विकलेन्द्रिय, नरक गति, नरकानुपूर्वी, नरकायु ।
४ अनन्तानुबन्धी, स्त्यानत्रिक, दुर्भगत्रिक, संस्थान ४, संहनन ४, दुर्गमन, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तियं चगति, तिथंचानुपर्वी, उद्योत, तिथंचायु ।
सासादन
मिश्र अविरत
देशविरत प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण
अप्रत्याख्यानावरण ४, वज्रवृषभसंहनन, औदारिकशरीर, औदारिकआंगोपांग, मनुष्य द्विक तथा मनुष्यायु ।
प्रत्याख्यानावरण ४ । अस्थिर, अशुभ, असाता, अयशःकाति, अरति, शोक । देवायु ।
निद्रा-प्रचला ये प्रथम भागमें । छठेमें तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेन्द्रिय, तेजस, कामग, आहारद्विक, समचतुरस्र संस्थान, सुरद्विक, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उछवास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय । चरममें हास्य,रति,भय,जुगुप्सा ।
प्रथम भागमें पुरुषवेद, २रेमें सं० क्रोध, ३रेमें सं० मान, ४ थेमें सं० माया, ५ ३में सं० लोभ ।
५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तराय, यशःको ति, उच्च गोत्र
अनिवृत्तिकरण
सूक्ष्मसाम्पराय उपशांतकषाय क्षीणमोह सयोगकेवलो अयोगकेवली
सातावेदनीय।
गो० क० गा०५४-१०२।
१०.५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, यशस्कीर्ति, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंका कौन बन्धक है, कौन अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतपर्यन्त बन्धक हैं। सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत द्रव्यके चरम समय तक पहुँचकर अन्त में बन्धकी व्युच्छित्ति हो
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पयडिबंधाहियारो अबंधा । थीणगिद्धितिगं अणंताणुबंधि०४-इत्थिवे० -तिरिक्खायु०-तिरिक्खग०-चदुसंठा०-चदुसंघा०-तिरिक्खगदिपा० उज्जो० अप्पसत्थवि० दूभग-दुस्सर-अणादेजणीचागोदा० को बंधो, को अबंधो ? मिच्छादि० सासणसम्मादिठिबंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा। णिद्दापयलाणं को बंधगो, को अबंधो ? मिच्छादि
ठिपहुदि याव अपुवकरणपविठ्ठ-सुद्धिसंजदेसु उवसमा खवा बंधा । अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जदिभागं गंतण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा अवसेसा अबंधा। सादावेद० को बंधो, को अबंधो ? मिच्छादिठिप्पभुदिं (हुडि) याव सयोगकेवली बंधा सजोगकेवलिअद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि एदे बधा, अवसेसा अबधा । असादावेद०-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजसगित्ति को बं को अब ? मिच्छादिठि पभुदि ( हुडि ) याव अपमत्त (पमत्त ) संजदा त्ति बंधा। एदे बंधा अवसेसा अबधा । मिच्छत्त-णपुसंक०वेद-णिरयायु०-णिरयगदि-चदुजादि हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघ०-णिरयगदिपाओग्गाणुपु०-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त - साधारण० को बधो, को अब ? मिच्छादिट्ठी बंधा अवसेसा अबं० । अपञ्चक्खाणावर० ४-मणुसगदि-ओरालियसरी०-ओरालि०-अंगो०-वज्जरिसभसंघ० - मणुसगदिपाओ० को बंधको० अब ? मिच्छादिहिपभुदि याव असंजद० बधा। एदे ब० अवसेसा अब ।
जाती है । इसलिए आदिके १० गुणस्थानवाले जीव बन्धक हैं; शेप अबन्धक हैं।
स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुवन्धी ४, स्त्रीवेद, तिथंचायु, तिथंचगति, ४ संस्थान, ४ संहनन, तियेचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय तथा नीच गोत्रके बन्धक-अबन्धक कौन हैं ? मिथ्यादृष्टिसे सासादन सम्यक्त्वीपर्यन्त बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं।
निद्रा-प्रचलाका कौन बन्धक है, - कौन अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट शुद्धिसंयतोंमें उपशमकों तथा क्षपकोंपर्यन्त बन्धक हैं। अपूर्वकरणके कालमें संख्यातवें भाग बीतनेपर बन्धकी व्युच्छित्ति होती है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं।
सातावेदनीयका कौन बन्धक-अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवलीपर्यन्त बन्धक हैं। सयोगकेवलीके कालके अन्तिम समय व्यतीत होनेपर बन्धकी व्युच्छित्ति होती है। ये बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं। ___असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशस्कीर्ति के कौन बन्धक हैं ? कौन अबन्धक हैं ? मिथ्यादृष्ट्रिसे लेकर प्रमत्तसंयतपर्यन्त बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, ४ जाति, हुण्डकसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिक संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त तथा साधारणका कौन बन्धक, कौन अवन्धक है ? मिथ्यादृष्टि बन्धक है। शेष अबन्धक हैं।
अप्रत्याख्यानावरण ४, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक आंगोपांग, वनवृषभनाराच संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका कौन बन्धक है ? कौन अबन्धक है ? मिथ्याइटिसे लेकर असंयत सम्यक्त्वपर्यन्त बन्धक हैं। शेष अबन्धक हैं।
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महाबंधे पञ्चक्खाणावर०४ को बंधो, को अब ? मिच्छादिद्वि याव संजदासजदा बंधा । एदेव अवसेसा अबंधा। पुरिसवे०कोध० संज० को ब० को अब ? मिच्छादिट्टि याव अणियट्टिउवसमा खवा बंधा। अणियट्टिवादरद्धाए संखेज्जामागं गंतूण वोच्छिज्जदि । एदे बंधा अवसेसा अबंधा। एवं माणमायसंज० । णवरि सेसे सेसे संखेज्जाभागं गंतूण बंधा । एदे 4 अवसेसा अब । एवं लोभसंज० । णवरि अणियट्टिअद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो० । एदे ब० अवसेसा अब । हस्सरदिभयदुगुं० को बंधो ? मिच्छादिट्टि याव अपुवकरणउवसमा खमा ( खवा ) बंधा। अपुरकरणद्धाए चरिमसमयं गंतू० बंधो वो० । एदे च अवसेसा अब । मणुसायु० को बंध० को० [अबंधको] ? मिच्छादि०-सासणसम्मादि०असंजद० बंधा। एदे ब० अवसेसा अबंधा । देवा० मिच्छादि० सासण. असंजदसं० संजदासंजद-पमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद० । अप्पमत्तसंजदद्धाए संखेजदिभागं [गंतूण] बधो० [वोच्छिादि]। एदे बंधा० अवसेसा [ अबंधा] । देवगदि०
प्रत्याख्यानावरण ४ का कौन बन्धक, अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयतपर्यन्त बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं।
पुरुषवेद, संज्वलन क्रोधका कौन बन्धक, अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरणमें उपशमक क्षपक पर्यन्त बन्धक हैं, अनिवृत्तिबादरके कालके संख्यात भाग बीतनेपर व्युच्छित्ति होती है । ये बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं।
मान-माया-संज्वलनमें भी यही बात जाननी चाहिए। विशेष यह है कि शेष शेषके संख्यात भाग बीतनेपर्यन्त बन्ध होता है । ये बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं।
इसी प्रकार संज्वलन लोभमें है। विशेष-अनिवृत्तिकरणके कालके चरम समयपर्यन्त बन्ध होता है । ये बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं।
हास्य, रति, भय, जुगुप्साका कौन बन्धक है ? मिथ्यात्वसे लेकर अपूर्वकरणके उपशमक तथा क्षपकपर्यन्त बन्धक हैं। अपूर्वकरणके चरम समयके बीतनेपर बन्धक होती है । ये बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं ।
मनुष्य आयुका कौन बन्धक है ? कौन अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टि, सासादन तथा असंयतसम्यक्त्वी बन्धक हैं। ये बन्धक है, शेष अबन्धक हैं।
देवायुका कौन बन्धक, अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयतसम्यक्त्वी, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत बन्धक हैं। अप्रमत्तसंयतके कालके संख्यातवें भाग बीतनेपर बन्धकी व्युच्छित्ति होती है । ये बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं।
देवगति, पंचेन्द्रिय, वैक्रियिकशरीर, तैजस, कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आंगोपांग, वर्ण ४,. देवानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, [त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक,] स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माणका कौन बन्धक, अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थानके उपशमक क्षपकपर्यन्त बन्धक हैं। अपूर्वकरणके संख्यातवें भाग बीतनेपर बन्धकी व्युच्छित्ति होती है। ये बन्धक हैं: शेप अबन्धक हैं।
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पयडिबंधाहियारो
४१
•
O
पंचिदि० वेगुव्वि० तेजाकम्म० समचदु० वेउ० अंगो० वण्ण०४ देवाणुपु० - अगुरु ०४ पसत्थवि० थीरा - (थिर - सुभ-सुभग- सुस्सर-आदेज० णिमिणं को बंध० को अब ० ? मिच्छादि० याव अपुत्र० उवस० खवा बंधा० । अपुव्वकरण० संखेजाभागं गंतू० बंधो वोच्छे ० । एदे बंधा अव० [ अधा ] | आहारस० आहारस० अंगोवं० को ब० को अब ० १ अप्पमत्त - अपुव्वकरणद्धाए संखेजाभागं गंतूण बंधो० [वोच्छिजदि] । एदे बंधा अवसेसा [ अबंधा ] । तित्थयरस्स को बं०, को अत्र ० ? असंज० या अपुत्रकर० बंधा० । अपुव्वकरणद्धाए संखेजाभागं गंतू ० । एदे ब० अवसेसा अबंधा० । कदिहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामागोदकम्मं बंधदि ? तत्थ इमेणेहि सोलसकारणेहि जीवा तित्थयरणामागोदं कम्मं बंधदि । दंसणविसुज्झदाए, विणयसंपण्णदाए, सीलवदेसु णिरदिचारदाए, आवासएसु अपरिहीणदाए, खणलवपडिमज्झ ( बुज्झ ) णदाए, लद्धिसंवेग संपण्णदाए, यथा छामे ( थामे ) तथा तवे, साधूणं समाधिसंधारणदार, साधूणं वेजावच्चयोगयुत्तदाए, साधूणं पासुगपरिच्चागदाए, अरहंतभत्तीए, बहुस्सुदभत्तीए, पवयणभत्तीए, पवयणवच्छल्लदाए, पवयणपभावणदाए अभि
आहारक शरीर, आहारक अंगोपांगका कौन बन्धक है ? कौन अबन्धक है ? अप्रमत्त, अपूर्वकरण संख्यातवें भाग व्यतीत होनेपर बन्धकी व्युच्छित्ति होती है। ये बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं |
तीर्थंकर प्रकृतिका कौन बन्धक है ? कौन अबन्धक है ? असंयत सम्यग्दृष्ट अपूर्वकरणपर्यन्त बन्धक हैं। अपूर्वकरणके संख्यात भाग बीतनेपर बन्धकी व्युच्छित्ति होती है । ये बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं ।
शंका- कितने कारणोंसे जीव तीर्थकर नामगोत्र कर्मका बन्ध करता है ?
समाधान- इन सोलह कारणोंसे जीव तीर्थंकर नामगोत्र कर्मका बन्ध करता है । दर्शनविशुद्धता, विनयसम्पन्नता, शीलत्रतेषु निरतिचारता, आवश्यकेषु अपरिहीनता, क्षणलव- प्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता, यथाशक्ति तप, साधुसमाधिसन्धारणता, वैयावृत्त्ययोगयुक्तता, साधु-प्रासुकपरित्यागता, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचन
१. धवला टीका में जो षोडशकारणोंके नाम गिनाये हैं, उनके क्रममें थोड़ा अन्तर है। यहां आठवें नम्बरपर 'साधुसमाधिसंधारणता' के स्थान में 'साधुप्रासुकपरित्यागता' पाठ है । ९ वें नम्बरपर वैयावृत्त्ययोगयुक्तता' के स्थान में 'समाधिसंधारणता' पाठ है । नं० १० में 'साधु प्रासुकपरित्यागता' के स्थान में 'वैयावृत्ययोगयुक्तता' पाठ है । शेष पाठ समान हैं । तत्त्वार्थसूत्र में इस प्रकार पाठभेद है नं० ४ में अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, नं० ५ में संवेग, ६ में शक्तितः त्याग, नं० १० में अर्हद्भक्ति, नं० १४ में आवश्यकापरिहानि, नं० १६ में प्रवचनवत्सलत्व पाठ है । तत्त्वार्थसूत्र तथा भूतबलिस्वामी द्वारा कथित भावनाओंके नामों में भी कहीं-कहीं अन्तर है | तत्त्वार्थसूत्र में 'संवेग', 'साधुसमाथि', 'शक्तितः त्याग', 'मार्गप्रभावना' पाठ है, उसके स्थान में क्रमशः 'लब्धिसंवेगसम्पन्नता', 'साधु-समाधिसंधारणता', 'प्रासुकपरित्यागता', 'प्रवचनप्रभावनता' पाठ है । आचार्य भक्तिका 'महाबन्धमें पाठ नहीं है। एक नवीन भावना क्षणलवप्रतिबोधनता सम्मिलित की गयी है ।
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महाबंधे क्खणं णाणोपयुत्तदाए । इदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवो तित्थयरणामागोदं कम्मं बंधदि । वत्सलता, प्रवचनप्रभावनता, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता, इन सोलह कारणोंसे जीव तीर्थंकर नामगोत्र कमेका बन्ध करता है।
विशेषार्थ-यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि जब अन्य कर्मोंके बन्धके कारण नहीं बताये गये, तब तीर्थकर प्रकृतिके बन्धके कारणोंका सूत्रकारने क्यों पृथक् रूपसे उल्लेख किया है ?
इसके समाधानमें वीरसेनाचार्य धवला टीकामें लिखते हैं कि तीथंकरके बन्धके कारण ज्ञात न होनेसे उनका पृथक् उल्लेख करना उचित है। उसके बन्धका कारण मिथ्यात्व नहीं है, कारण मिथ्यात्वी जीवके तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। सम्यग्दृष्टिके ही तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध होता है। असंयम भी बन्धका कारण नहीं है, क्योंकि संयमी जीव भी उसके बन्धक होते हैं । कषाय भी बन्धका कारण नहीं है, कारण कषायके होते हुए भी इसके बन्धका विच्छेद देखा जाता है अथवा बन्धका आरम्भ भी नहीं होता है। कदाचित् मन्द कषायको बन्धका कारण कहें, तो यह भी नहीं बनता है; कारण तीव्र कषाययुक्त नारकियोंमें भी तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध देखा जाता है। तीव्र कषाय भी उसका कारण नहीं है। क्योंकि मन्द कषायवाले सर्वार्थसिद्धिके देवों और अपूर्वकरणगुणस्थानवालोंमें भी उसका बन्ध होता है। बन्धका कारण कदाचित् सम्यक्त्वको कहें, तो यह भी ठीक नहीं है। सम्यग्दर्शन होते हुए भी बन्धका कहीं-कहीं अभाव देखा जाता है। यदि दर्शनकी निर्मलताको कारण कहें तो दर्शनमोहके क्षय करनेवाले सभी व्यक्तियोंके तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होना चाहिए था, किन्तु ऐसा भी नहीं है। अतः दर्शनकी शुद्धता भी कारण नहीं है। कार्यकारणभावका नियम तो तब बनता है, जब कारणके होनेपर नियमसे कार्य बन जाये। सब क्षायिक सम्यक्त्वी जीव तो तीर्थकरप्रकृतिका बन्ध नहीं करते हैं। ऐसी स्थिति में उत्पन्न होनेवाली शंकाके निराकरणके लिए भूतबली स्वामीने कहा है कि इन सोलह कारणोंसे जीव तीर्थकर नामगोत्रका बन्ध करते हैं।
शंका-नामकर्मके भेद तीर्थंकरको गोत्र संज्ञा क्यों की गयी ?
समाधान-उच्चगोत्रके बन्धके अविनाभावी होनेसे तीर्थंकरप्रकृतिको भी गोत्र कहा है ' ( ?)
तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ मनुष्यगतिमें ही होता है, इस वातका परिज्ञान करानेके लिए सूत्र में 'तत्थ' शब्दका ग्रहण किया है।
शंका-तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ अन्य गतियों में क्यों नहीं होता है ?
समाधान-तीर्थकरप्रकृति में सहकारी कारण केवलज्ञानसे उपलक्षित जीवद्रव्य है। उसके विना बन्धका प्रारम्भ नहीं होता। मनुष्यगतिमें केवलज्ञानसे उपलक्षित जीव पाया जाता है । इससे मनुष्यगतिमें ही वन्धका प्रारम्भ कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्यगतिमें केवलज्ञान उत्पन्न होकर तीर्थकरप्रकृति पूर्ण विकसित हो अपना कार्य कर सकती है; अन्य गतिमें यह बात नहीं है । अतः तीर्थंकरप्रकृतिका अंकुरारोपण मनुष्यगतिमें ही होता है।
१. कथं तित्ययरस्स णामकम्मावयवस्स गोदसण्णा? ण, उच्चगोदबंधाविणाभावित्तणेण तित्थयरस्सवि गोदत्तसिद्धीदो-बंधसामित्तविचय प० २८ ताम्रपत्रीय प्रतिः । २. "अण्णगदीसु किं ण पारंभो होदित्ति वुत्ते ण होदि केवलणाणोवलक्खियजीवव्वसहकारिकारणस्स तित्थयर-णामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्तिविरोहादो।"-ध० टी०प० ५३६ ।
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पय डिबंधाहियारो
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'गोम्मटसार कर्मकाण्डकी संस्कृत टीकामें लिखा है कि तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध मनुष्यगतिमें प्रारम्भ किया जाता है, क्योंकि अन्य गतियोंमें विशिष्ट विचार, क्षयोपशम आदि सामग्रीका अभाव है। इसी कारण मनुष्यगतिका सूचक ‘णरा' यह पद ६३ गाथामें आया है। टीकाकारके ये शब्द महत्त्वपूर्ण हैं-"नरा इति विशेषणं शेषगतिज्ञानमपाकरोति, विशिष्टप्रणिधान-क्षयोपशमादिसामग्रीविशेषाभावात्” (पृ० ७८)।
किन्हीं आचार्योंका मत है कि इस तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें नहीं होता है, क्योंकि उसका काल स्तोक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। उसमें षोडशकारण भावनाएँ नहीं भायी जा सकती। महाबन्धकारका यह अभिमत नहीं है । यह बन्ध प्रत्यक्षकेवली, श्रुतकेवलोके चरणोंके समीप ही होता है, कारण अन्यत्र उस प्रकारको विशिष्ट विशुद्धताका अभाव है।
बन्धसामित्तविचय (मूल पृ० ७५ ) में लिखा है, "पारद्धतित्थयर-बंधादो तदियभवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमणणियमादो” तीर्थकर प्रकृति के बन्धारम्भके भवसे तृतीय भवमें तीर्थकर कर्मके सत्त्वयुक्त जीवोंके मोक्षगमनका नियम है । अतएव तीर्थंकर प्रकृतिका बन्धक तीन भवसे अधिक संसार में नहीं रहता है ।
पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा इस प्रकृतिके बन्धके कारण सोलह कहे गये हैं । द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेसे एक कारण भी इसके बन्धका हेतु है, दो भी कारण होते हैं। अतः सोलह ही होते हैं या नहीं,इस संशयके निवारणके लिए सोलह कारणोंकी गणना सूत्रमें
इन भावनाओंके स्वरूपपर वीरसेनाचार्यने 'बंधसामित्त विचय नामक तृतीय खण्डकी धवलाटीकामें विशद विवेचन किया है । उसका मर्म इस प्रकार है
दर्शनविशुद्धता--यह भावना सोलह कारण भावनाओंमें प्रथम संगृहीत की गयी है। इसका भाव तीन मूढता तथा अष्टमलरहित निर्मल सम्यग्दर्शनका लाभ होना है।
शंका-यदि इस एक ही भावनासे तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध होता है, तो सभी सम्यक्त्वी जीव उसका बन्ध क्यों नहीं करते ?
समाधान-शुद्ध नयसे मात्र तीन मूढ़ता तथा अष्टमलोंसे व्यतिरिक्तपना ही दर्शनविशुद्धता नहीं है, इसके साथ-ही-साथ साधु-प्रासुक-परित्यागता, साधु-समाधि-सन्धारणता, साधुवैयावृत्त्ययुक्तता, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावनता, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता आदिका भी समावेश होना आवश्यक है। इस प्रकार अन्य भावनाओंका भी संग्रह करनेवाली दर्शनविशुद्धता तीर्थकरका बन्ध करती है।
विनयसम्पन्नता भी तीर्थकरकर्मको बाँधती है। विनयके ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रकी अपेक्षा तीन भेद हैं । ज्ञानविनयमें अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता, बहुश्रुतिभक्ति और प्रवचनभक्ति संगृहीत है । दर्शनविनयका अर्थ है:प्रवचनोपदिष्ट सम्पूर्ण तत्त्वोंका श्रद्धान तथा त्रिमूढ़ता और अष्टमलका त्याग करना । इसमें अरहन्त-सिद्धभक्ति, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता तथा प्रवचनप्रभावनताका सद्भाव पाया जाता है। चारित्र विनयमें शीलवतेषु निरतिचारिता,
१. प्रथमोपशमसम्यक्त्वे शेषद्वितीयोपशम-क्षायोपशमिकक्षायिकसम्यक्त्वेषु च असंयताप्रमत्तान्तमनुष्या एवं तीर्थकरबन्धं प्रारभन्ते, तेऽपि प्रत्यक्षकेवलि-श्रुतकेवलिश्रीपादोपान्त एव । अत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वे इति भिन्न विभक्तिकरणं तत्सम्यक्त्वे स्तोकान्तमहतकालत्वात् षोडशभावनासमयभावात् तद्बन्धप्रारम्भो न इति केषांचित् पक्षं ज्ञापयति । 'केवलिद्वयान्ते एवैति नियमः, तदन्यत्र तादृग्विशुद्धिविशेपासंभवात् पृ० ७८ ।
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महाबंधे
आवश्यकेषु अपरिहीनता, यथाशक्ति तप, साधु- प्रासुक - परित्यागता, साधु-समाधि- सन्धारणता, साधुवैयावृत्ययोगयुक्तता, प्रवचनवत्सलता संग्रहीत है। इस प्रकार अनेक भावनाओं से समन्वित एक विनयसम्पन्नता रूप भावना तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध करती है । यह दर्शन तथा ज्ञानकी विनय देव तथा नारकियों में कैसे सम्भव हो सकती हैं ? इससे इसे मनुष्यों में ही कहा है ।
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शंका- जिस प्रकार यहाँ देव नारकियोंके दर्शन और ज्ञान-विनयका अभाव कहा है, उसी प्रकार चारित्र विनयका अभाव क्यों नहीं कहा है ?
समाधान --- ज्ञानदर्शन विनयका विरोधी चारित्र भी नहीं हो सकता । अर्थात् ज्ञानदर्शन विनय के अभाव में चारित्र विनयका भी अभाव होगा। यह बात प्रकट करनेको चारित्रविनयका पृथक उल्लेख नहीं किया है ।
शीलत्रतेषु निरतिचारतासे भी तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध होता है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह से विरति होना व्रत है । व्रतका रक्षण करनेवाला शील कहलाता है। मद्यपान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेदका अपरित्याग अतिचार कहलाता है। इनका अभाव करना शीलत्रतेषु निरतिचारता है । इससे तीर्थंकर कर्मका बन्ध होता है ।
शंका- यहाँ शेष पन्द्रह कारण किस प्रकार सम्भव होंगे ?
समाधान - सम्यग्दर्शन, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता, साधुसमाधिसन्धारणता, वैयावृत्त्ययोगयुक्तता, साधुप्रासुकपरित्यागता, अरहन्त बहुश्रुत प्रवचनभक्ति, प्रवचनप्रभावनता के बिना शीलत्रतेषु अनविचारता सम्भव नहीं है । असंख्यात गुणश्रेणियुक्त कर्मनिर्जरा में जो हेतु है, उसे व्रत कहते हैं । सम्यक्त्वके बिना केवल हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म तथा परिग्रहके त्यागमात्र से ही वह गुणश्रेणी निर्जरा नहीं हो सकती, कारण दोनोंके द्वारा होनेवाले कार्यका एकके द्वारा सम्पन्न होनेका विरोध है । पटद्रव्य नवपदार्थके समूह रूप लोकको विपय करनेवाली अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता के बिना शीलत्रतोंमें कारणभूत सम्यक्त्वकी अनुपपत्ति है । इस प्रकार उसमें सम्यग्दर्शनके समान सम्यग्ज्ञानका भी सद्भाव पाया जाता है । यथाशक्ति तप, आवश्यकापरिहीनता तथा प्रवचनवत्सलत्वरूप चारिविनयके बिना यह शीलत्रतेषु निरतिचारिता नहीं बन सकती है। इस प्रकार व्यापक अर्थयुक्त यह भावना तीर्थंकरनामकर्मके बन्धका कारण है ।
आवश्यकेषु अपरिहीनता - समता, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा व्युत्सर्गके भेद से आवश्यक छह प्रकार कहा गया है । शत्रु-मित्र, मणि-पाषाण, सुवर्ण- मृत्तिकामें राग-द्वेषका अभाव समता है । अतीत अनागत तथा वर्तमान कालसम्बन्धी पंचपरमेष्ठियोंका भेद न करके 'णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं' इत्यादि द्रव्यस्तुतिका कारण नमस्कार स्तुति कहलाता है | वृषभादि चौबीस तीर्थंकर, भरतादि क्षेत्रोंके केवली, आचार्य, चैत्यालयादिकका पृथक्-पृथक् रूपसे नमस्कार करना अथवा गुणोंका अनुस्मरण करना वन्दना है। पंच महाव्रतों तथा ८४ लाख उत्तरगुणों में लगे हुए कलंकोंका प्रक्षालन करना प्रतिक्रमण है । महात्रतोंके
१. "हिंसा लियचोज्ज - बंभ-परिग्गहेहिंतो विरदी वदं णाम । वदपरिरवखणं सीलं णाम । सुरावाण-मांसभक्खण कोह्-माण-माया-लोह-हस्स र इ- सोग-भय- दुर्गुछित्यि- पुरिस णउंसयवेदापरिच्चागो अदिचारों । एबेसि विणासो णिरदिचारी संपुण्णदा, तस्स भावो णिरदिचारी " - बन्धसामित्तविचय, पृ० ३० ।
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पयडिबंधाहियारो
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विनाशके कारण अथवा उनमें मलिनता लगानेवाले दोषोंका जिस प्रकार अभाव होगा, उस प्रकार मैं करूँगा। इस प्रकार चित्तसे आलोचना करके ८४ लाख व्रतोंकी शुद्धिका प्रतिग्रह करना प्रत्याख्यान है। शरीर, आहारादिकसे मन वचनकी प्रवृत्तिको अलग करके ध्येयमें रोकनेको व्युत्सर्ग कहते हैं। इन छह आवश्यकोंको अपरिहीनता- अखण्डताको आवश्यकापरिहीनता कहते हैं। इसके द्वारा तीर्थकरधर्मका बन्ध होता है।
यहाँ शेष कारणोंका अभाव नहीं होता है। दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, व्रतशीलनिरतिचारता, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता, यथाशक्ति तप, साधु-समाधिसन्धारण, वैयावृत्त्ययोगयुक्तता, प्रासुकपरित्यागता, अरहन्त-बहुश्रुत-प्रवचनभक्ति, प्रवचनप्रभावना, प्रवचनवत्सलता, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तताके बिना छह आवश्यकोंकी निरतिचारिता नहीं बन सकती है। अतः आवश्यकेषु अपरिहीनता तीर्थकरनामकर्मका चतुर्थ कारण है।
क्षण -लव-प्रतिबोधनता-क्षणलव' शब्द कालविशेषका द्योतक है। उस कालविशेषमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत तथा शीलरूप गुणोंका उज्ज्वल करना अर्थात् कलंकका प्रक्षालन करना अथवा त्रतादिकी प्रदीप्ति अर्थात् वृद्धि करना प्रतिबोध है। उसका भाव प्रतिबोधनता है। क्षणलवोंकी प्रतिबोधनताको क्षणलवप्रतिबोधनता कहते हैं। यह अकेली भावना भी तीथकरनामकर्मका वन्ध करती है। यहाँ भी पूर्वकी भाँति शेप कारणका अन्तर्भाव रहता है।
लब्धिसंवेगसम्पन्नता-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें जीवके समागमका नाम लब्धि है। लब्धिके लिए जो संवेग है-वह लब्धिसंवेग है। उसकी सम्पन्नताको लब्धिसंवेगसम्पन्नता कहते हैं। शेष कारणोंके अभाव में इसका सद्भाव नहीं बनता है, कारण उनके अभावका और लब्धिसंवेग-सम्पन्नताके सद्भावका विरोध है।
यथाशक्ति तप-बल-वीर्यको प्राकृत में 'थाम' कहते हैं। अनशनादि बाह्य, विनयादिअंतरंग द्वादश प्रकारके तप हैं। शक्तिके अनुसार तप करनेसे तीर्थकरकर्मका बन्ध होता है। यह भावना ज्ञान, दर्शनके बलसे सम्पन्न धीर पुरुषके होती है तथा दर्शनविशुद्धतादिके अभावमें यह नहीं पायी जा सकती है। इससे अकेली इस भावनाको तीर्थकरनामकर्मका कारण कहा है।
साधुप्रासुक-परित्यागता-जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति, क्षायिक सम्यक्त्वकी साधना करता है उसे साधु कहते हैं। प्रासुकका एक अर्थ है 'वह वस्तु, जिससे जीव निकल गये हों', दूसरा अर्थ है निरवद्य-निर्दोष वस्तु । साधुओंको ज्ञान, दर्शन, चारित्रका परित्याग अर्थात् दान प्रासुकपरित्यागता है। ज्ञानदर्शनचरित्रका परित्यागरूप दान गृहस्थोंमें सम्भव नहीं हो सकता, कारण वहाँ चारित्रका अभाव है। रत्नत्रयका उपदेश भी गृहस्थोंमें नहीं बन सकता है। कारण उनमें दृष्टिवादादि ऊपरके सूत्रों के उपदेशका अधिकार नहीं है । अतः यह साध-प्रासकपरित्यागतारूप कारण महर्षियोंके होता है।
यहाँ भी शेष कारणोंका अभाव नहीं है । अरहन्तादिककी भक्ति, नवपदार्थोंका श्रद्धान, शीलवतोंमें निरतिचारिताके अभाव में ज्ञान, चारित्रका परित्याग अर्थात् दान असम्भव है,
१. "आवलि असंखसमया संखेज्जावलिसमहमस्सासो । सत्तस्सासा थोवो सत्तस्थोवो लवो भणियो॥" -गो० जी०। २. "खणलवा णाम कालविसेमा । सम्मई सणणाणवदसीलगुणाणमुज्जालणं कलंकपक्खालणं मंधुक्खगं वा पडिवुज्झणं णाम । तस्म भावो पडिबुज्झणदा। खणलवाणं पडिवुज्झणदा खणलवपडिवुज्झणदा ॥" -घाटी०प० ५५४ । ३. "संवेगः परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चितः।" -पश्चा०।
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महाबंधे यस्स इणं कम्मस्स उदयेण सदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स अच्चणिज्जा पूजणिज्जा वंदणिजा णमंसणिज्जा धम्मतित्थयरा जिणा केवली ( केवलिणो ) भवंति । एवं ओघभंगो पंचिंदियतस०२ भवसि० ।
कारण इसमें विरोध आता है। अतः केवल इस भावनासे भी तीर्थकर कर्मका बन्ध होता है।
साधुसमाधिसन्धारणता-ज्ञान, दर्शन, चारित्रमें सम्यक् प्रकारसे अवस्थान होना समाधि है। भले प्रकार धारण करनेको सन्धारण कहते हैं। साधुओंकी समाधिका भले प्रकार धारण करना साधुसमाधिसन्धारण है। किसी कारणसे प्राप्त होनेवाली समाधिको देखकर सम्यक्त्वी प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावना, विनयसम्पन्नता, शीलवतातिचारवर्जित अरहन्तादिकमें भक्तिवश जो धारण करता है, वह समाधिसन्धारण है। यहाँ भी शेष कारणोंका अभाव नहीं है, क्योंकि इसका सद्भाव उन कारणों के अभावमें नहीं बन सकता है।
वैयावृत्त्ययोगयुक्तता-जिस कारणसे जीव सम्यक्त्व, ज्ञान, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनवत्सलतादिके द्वारा वैयावृत्त्य में लगता है, उसे वैयावृत्त्ययोगयुक्तता कहते हैं। इस प्रकार अकेली इस भावनासे भी तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होता है । यहाँ शेष कारणोंका यथासम्भव अन्तर्भाव जानना चाहिए।
__ अरहन्त-भक्ति-घातिया कर्मोंके नाश करनेवाले, केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोके देखनेवाले अरहन्त हैं। उनकी भक्तिसे तीर्थकरनामकर्मका बन्ध होता है। यह भावना दर्शनविशुद्धतादिके अभावमें नहीं पायी जाती है, कारण इसमें विरोध आयेगा।
बहुश्रुतभक्ति-द्वादशांगके पारगामीको बहुश्रुत कहते हैं। उनमें भक्तिका अर्थ हैउनके द्वारा व्याख्यान किये गये आगमका अनुगमन करना अथवा अनुष्ठानका प्रयत्न करना बहुश्रुत भक्ति है । दर्शनविशुद्धतादिके बिना यह सम्भव नहीं है।
प्रवचनभक्ति-सिद्धान्त अर्थात् बारह अंगोंको प्रवचन कहते हैं। 'प्रकृष्टस्य वचनं प्रवचनम्' श्रेष्ठ आत्माके वचनोंको प्रवचन कहा है। उनके प्रति भक्तिको प्रवचनभक्ति कहते हैं। इसमें भी शेष कारणोंका अन्तर्भाव रहता है।
प्रवचनवत्सलता-महाव्रती, देशसंयमी तथा असंयत सम्यग्दृष्टि में प्रेम रखना प्रवचनवत्सलता है । इससे ही तीर्थकरनामकर्मका बन्ध कैसे होता है-यह शंका नहीं करनी चाहिए, कारण महाव्रतादि आगमिक विषयोंमें गाढ़ानुरागका दर्शनविशुद्धतादिसे अविनाभाव है।
प्रवचनप्रभावनता-प्रवचन अर्थात् आगमको प्रभावना करनेका भाव प्रवचनप्रभावनता है । उत्कृष्ट प्रवचनप्रभावनाका दर्शनविशुद्धताके साथ अविनाभाव है।
अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता-अभीक्ष्ण अर्थात् 'बहुबार' भावश्रुत अथवा द्रव्यश्रुतमें उपयोगको लगाना अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता है। इससे तीर्थकरनामकर्मका बन्ध होता है। दर्शनविशुद्धतादिके बिना इसकी अनुपपत्ति है।।
इन सोलह कारणोंसे तीर्थकरनामकर्मका बन्ध होता है । अथवा सम्यग्दर्शनके होनेपर शेष कारणोंमें-से एक-दो आदिके संयोगसे भी बन्ध होता है। __इस कर्मके उदयसे सुर, असुर तथा मनुष्यलोकके द्वारा अर्चनीय, पूजनीय, वन्दनीय तथा-नमस्करणीय धर्म तीर्थके कर्ता जिन केवली होते हैं।
इस प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्तक तथा भव्य सिद्धिकोंमें ओघवत् भंग जानना चाहिए।
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पयडिबंधाहियारो ११. आदेसेण णिरएसु पंचणाणा०-छदंसणा-सादासादं बारसकसा० सत्तणोक० मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालियतेजाक०-समचदु०-ओरालिय० अंगोवंगवजरिस०वण्ण०४ मणुसगदिपा०-अगुरुगलहु० ४ पसत्थवि० तम०४ थिराथिर-सुभासभ-सुभगसुस्सर-आदेज्ज-जसगित्ति-अजसगित्ति-णिमिणं उच्चागोदं पंचअंत० को बं०१ सव्वे बंधा, अबंधा णत्थि । थीणगिद्धिआदि-पणुवीसं ओघं । मिच्छत्त-णपुंसकवे०-हुंडसंठाणं असंपत्तसे० को बं० १ मिच्छादि० बंधा । एदे बंधा अवसेसा अबं० । मणुसायु ओघं । तित्थयरं को बं० ? असंजदस० । एदे [बंधा] अवसे० अबंधा । एवं पढम-विदिय-तदियासु । चउत्थि-पंचमि-छट्ठीसु एवं चेव, णवरि तित्थगरं णत्थि । सत्तमाए छट्ठिभंगो, णवरि मणुसायु णत्थि । मणुसग०-मणुसग०पा०-उच्चा० को बं० १ सम्मामिच्छा०असंज० । एदे बं० । अवसे० [अबंधा] । तिरिक्खायु० को बं० ? मिच्छादिट्ठी बंधा । एदे [बंधा] अवसे० अबंधा।
११. आदेशसे, नारकियां में-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता असाता वेदनीय, अनन्तानुबन्धी ४ को छोड़कर शेष १२ कषाय, (स्त्रीवेद, नपुंसकवेद बिना ) ७ नोकषाय, मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक तैजस-कार्माण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक अंगोपांग , वर्ण ४, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, वज्रवृषभसंहनन, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयश कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायका कौन बन्धक है ? सर्व बन्धक हैं। अबन्धक नहीं हैं। स्त्यानगृद्धि आदि २५ प्रकृतियोंका
ओघवत् जानना चाहिए अर्थात् सासादन गुणस्थान पर्यन्त बन्धक हैं। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डक संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहननका कौन बन्धक है ? मिथ्यादृष्टि बन्धक है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं। मनुष्यायुके बन्धकका ओघवत् जानना चाहिए, अर्थात् अविरत गुणस्थान पर्यन्त बन्धक हैं। तीर्थकरप्रकृतिका कौन बन्धक है ? असंयत सम्यग्दृष्टि बन्धक है । ये बन्धक हैं:शेष अबन्धक हैं। प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय पृथ्वी पर्यन्त ऐसा ही जानना चाहिए । चौथी, पाँचवी तथा छठी पृथ्वियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेष, यहाँ तीर्थंकर प्रकृति नहीं है। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध तीसरी पृथ्वी पर्यन्त होता है।
__ सातवीं पृथ्वीमें-छठी पृथ्वीके समान भंग है। विशेष, यहाँ मनुष्यायु नहीं है। मनुष्यगति, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी तथा उच्चगोत्रका कौन बन्धक है ? सम्यगमिथ्यात्वी तथा असंयतसम्यग्दृष्टि जीव बन्धक हैं । ये बन्धक हैं। शेष अबन्धक हैं । तिर्यञ्चायुका कौन बन्धक है ? मिथ्यादृष्टि बन्धक है । ये बन्धक हैं। शेष अबन्धक हैं।
१. ."विदियगुणे अणथोणति दुभगतिसंठाण संहदिचउवकं । दुग्गमणित्थी-णीचं तिरियदुगुज्जोव तिरियाऊ ॥"-गो० क०, गा० ९६ । २. "मिस्साविरदे उच्च मणुवदुगं सत्तमे हवे बंधो ॥"
-गो० क०,१०७ ।
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महा
१२. तिरिक्खेसु-पंचणाणावरणं छदंसणा ० सादासादं अटुक० सत्तणोक० देवग दि० पंचिंदि० वेउब्विय- तेजा क० समचदु० वेगुव्वि० अंगो० - वण्ण०४ - देवग दिपा ०. अगुरुग ०४ - पसत्थवि० - तसं ०४ - थिराथिर-सुभासुभ-सुभग- सुस्सर-आदेज्ज-जस गित्ति अजसगित्ति-णिमि० उच्चागो० पंचअंतराइ० को बं० १ मिच्छादिट्ठि याव संजदासंजदा ि सव्वे बंधा अबंधा णत्थि । थीण गिद्धितियं अनंताणुबंधि० ४ - इत्थि वे० - तिरिक्खायुम सायु - तिरिक्खगदि- मणुसग दि-ओरालिय० चदुसंठा० ओरालिय० अंगो०- पंच संघड ०दोआणुपुव्वि० उज्जोवं अप्पसत्थवि० दूर्भाग- दुस्सर-अणादे० णीचा०को ब ० १ मिच्छादिट्टि - सासण० । एदे ब०, अवसेसा अब ० | मिच्छत्तदंडओ ओघो । अपच्चक्खा ०४ को ब • १ मिच्छादि० याव असंजदसम्मादिट्ठि त्ति । एदे ब ं, अवसेसा [अबंधा] | देवायु०
"
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विशेषार्थ - सातवीं पृथ्वीवाला मरकर नियमसे तिर्यञ्च होता है । इस कारण वहाँ मनुष्यायुका बन्ध नहीं बताया है' । मरण मिथ्यात्वगुणस्थानमें ही होता है । तिर्यञ्चायुका बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थानमें ही होता है । मनुष्यद्विक तथा उच्चगोत्रका बन्ध मिश्र तथा अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में ही होता है, नीचे नहीं होता है ।
१२. तिर्यञ्चोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता, असाता, प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन रूप ८ कषाय, स्त्रीवेद नपुंसकवेद बिना सात नोकषाय, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, तैजस, कार्माण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४ ( त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक), स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंका कौन बन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर देशसंयमी पर्यन्त सर्वबन्धक हैं । अबन्धक नहीं हैं ।
स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४, स्त्रीवेद, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, तिर्यगति, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, ४ संस्थान, औदारिक अङ्गोपाङ्ग, ५ संहनन, दो आनुपूर्वी ( तिर्यञ्च, मनुष्यानुपूर्वी ), उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय तथा नीचगोत्रका कौन बन्धक है ? मिध्यादृष्टि तथा सासादन सम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं । शेष अन्धक हैं । मिथ्यात्व दण्डकमें ओघवत् जानना चाहिए ।
विशेष - मिथ्यात्व, हुण्डक संस्थानादि सोलह प्रकृतियाँ मिथ्यात्व दण्डकमें सम्मिलित हैं । उनके बन्धक मिथ्यादृष्टि होते हैं । वे बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं।
अप्रत्याख्यानावरण ४ का कौन बन्धक है ? मिध्यादृष्टिसे लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि पर्यन्त बन्धक हैं | ये बन्धक हैं। शेष अबन्धक हैं । देवायुका कौन बन्धक है ? मिध्यादृष्टि,
१. "छट्टो त्तिय मणुत्राऊ चरिमे मिच्छेव तिरियाऊ ||" - गो० क० गा० १०६ । २. वज्रवृषभसंहनत, औदारिकद्विक, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु इन छह प्रकृतियोंकी "उवरि छण्हं च छिदो सासणसम्मे हवे णियमा ” - ( गो० क०, १०८ गा० ) के अनुसार सासादन में बंधव्युच्छित्ति होती हैं, अतः असंप्राप्तास्पाटिकासंहननके बिना शेष ५ संहनन कहे गये हैं ।
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पडबंधाहियारो
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को बंध० १ मिच्छादि० साससम्मा० असंजद ० संजदासंजदा त्ति बंधा । एदे बं० अवसेसा अबंधा एवं पंचिंदिय- तिरिक्ख ०३ । पंचिंदिय-तिरिक्ख-अपज्जत-पंच णाणा० व दंस० सादासा० मिच्छ०- सोलसक० णवणोक० - तिरिक्खमणुसायुतिरिक्खमणुसगदि-पंचिंदि ० ( पंचजा० ) - ओरालि० तेजाकम्म० छस्संठाणं ओरालियसरीर - अंगोवं ० छस्संघड ० - वण्ण ०४ - दो आणुपु० -अगुरुगल हुग ०४ - आदावुज्जो०दोविहा० - तसादिदसयुगलं णिमिणं णीचुच्चागो०- पंचतरा० को बं० १ सवे बंधा, अधात्थि । एवं सव्व - अपज्जत्ताणं सव्व - एइंदियाणं सव्चविगलिंदि० । "" [ अत्र ताड़पत्रं त्रुटितम् । ]
सासादन सम्यक्त्वी, असंयत सम्यक्त्वी तथा देश संयमी बन्धक हैं । ये बन्धक हैं। शेष अबन्धक हैं ।
पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तक, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिमतीमें तिर्यञ्चों के समान भंग जानना चाहिए ।
पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकोंमें- ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, साता, असाता, मिथ्यात्व, १६ कषाय, ६ नोकषाय, तिर्यवायु, मनुष्यायु, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पचेन्द्रिय( जाति पंच जाति) औदारिक- तैजस-कार्माण शरीर, ६ संस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग, ६ संहनन, वर्ण ४, मनुष्य तिर्यञ्चानुपूर्वी, अगुरुलघु ४ (अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास), आताप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसादि दस युगल ( त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति ), निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र, तथा ५ अन्तरायका कौन बन्धक हैं ? सर्व बन्धक हैं; अबन्धक नहीं हैं ।
सम्पूर्ण लब्ध्यपर्याप्तकों, सम्पूर्ण एकेन्द्रियों, सर्व विकलेन्द्रियोंमें इसी प्रकार जानना
चाहिए |
विशेष - लब्ध्यपर्याप्तक' तियंचोंमें नरकायु, देवायु तथा वैक्रियिक पटकका अभाव रहने से इनकी गणना नहीं की गयी है। इनके मिथ्यात्व गुणस्थान ही पाया जाता है ।
[ ताड़पत्र नष्ट हो जानेसे इस प्रकरणका आगामी विषय नष्ट हो गया है। ग्रन्थके प्रकरसे ज्ञात होता है कि आचार्य महाराजने मनुष्य गति आदि मार्गणाओंकी अपेक्षा 'बंध सामित्त-विचय' प्ररूपणाका वर्णन दिया होगा । सम्बन्ध मिलानेकी दृष्टिसे श्री गोम्मटसार कर्मकाण्डके आश्रयसे कुछ प्रकाश डाला जाता है ]
मनुष्यगति - यहाँ मिथ्यात्वादि चौदह गुणस्थान हैं । बन्ध योग्य १२० प्रकृतियाँ हैं । यहाँका वर्णन ओघवत् जानना चाहिए । विशेष यह है कि मिध्यात्वं गुणस्थानमें तीर्थंकर, आहारकद्विकका बन्ध न होनेसे शेष ११७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें मिथ्यात्वादि १६ प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे बन्ध १०१ का होता है । मिश्र गुणस्थान में ६९
बन्ध होता है । यहाँ सासादन गुणस्थान में बन्ध-व्युच्छिन्न होनेवाली अनन्तानुबन्धी आदि २५ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होगा। इसके सिवाय मनुष्यगति द्विक, मनुष्यायु, वज्रवृषभनाराच संहनन, औदारिक शरीर, औदारिकशरीराङ्गोपाङ्ग इन छह प्रकृतियोंकी भी सासादन गुणस्थान में बन्धव्युच्छित्ति होती है । साधारणतया इनकी अविरत में बन्धव्युच्छित्ति होती थी ।
१. सुरणिरयाउ अपुण्णे वेगुव्वियछक्कमवि णत्थि || गो० क०, गा० १०९ ।
७
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महाधंधे
मिश्र गुणस्थानमें आयुका बन्ध न होनेसे देवायुका अबन्ध हो गया। इस प्रकार ३२ प्रकृतियों के घटानेसे मिश्र गुणस्थानमें ६९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। अविरत सम्यक्त्वीके . देवायु तथा तीर्थकरका बन्ध प्रारम्भ हो जानेसे ७१ का बन्ध होता है। अप्रत्याख्यानावरण ४ का देशविरतमें बन्ध न होनेसे वहाँ ६७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। प्रमत्तगुणस्थानमें ६३ प्रकृतियोंका बन्ध है, कारण, यहाँ प्रत्याख्यानावरण ४ का बन्ध नहीं है। अप्रमत्तसंयतके अस्थिर, असाता, अशुभ, अरति, शोक, अंयश-कीर्ति इन छहका बन्ध नहीं होगा, किन्तु यहाँ आहारकद्विकका बन्ध होनेसे,५६ का बन्ध होता है। अपूर्वकरणमें ५८ का बन्ध है, कारण, यहाँ देवायुका बन्ध नहीं होता, देवायुकी बन्धव्युच्छित्ति अप्रमत्त गुणस्थानमें हो जाती है । अनिवृत्तिकरणमें बन्धं योग्य २२ हैं, कारण, अपूर्व करण, गुणस्थानमें निद्रा, प्रचला, तीर्थकर, आहारकद्विक आदि कुल ३६ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे २२ प्रकृति ही बन्धके लिए शेष रहती हैं। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें १७ का बन्ध होता है, कारण, अनिवृत्तिकरणमें पुरुषवेद तथा ४ संज्वलन कषायोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है। उपशान्तकषायमें केवल एक सातावेदनोयका ही बन्ध होता है। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तराय, यशाकीर्ति तथा उच्चगोत्रकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है। क्षीण. कषाय तथा सयोगीजिनके एक सातावेदनीयका ही बन्ध होता है। अयोगकेवलीके बन्ध नहीं है, कारण वहाँ बन्धके हेतुओंका अभाव हो चुका है।
सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्तक, मनुष्यनीमें मनुष्यगति के समान भंग है।
लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यमै - तीर्थकर, आहारकद्विक, देवायु, नरकायु तथा वैक्रियिकषट्क इन ११ प्रकृतियोंको बन्धके अयोग्य कहा है। अतः उसके १०६ प्रकृतिका बन्ध होगा। इसके केवल मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।
निर्वृत्यपर्याप्तक मनुष्यमें - चार आयु, नरकद्विक तथा आहारकद्विक इन आठ प्रकृतियोंको बन्धके अयोग्य कहा है,अतः उसके १२०-८ = ११२ बन्ध योग्य हैं । यहाँ मिथ्यात्व, सासादन, असंयतप्रमत्त तथा सयोगकेवली गुणस्थान होते हैं।
देवगति - यहाँ सूक्ष्मत्रय, विकलत्रय, सुरचतुष्क, नरकद्विक, नरकायु, देवायु, आहारकद्विक, इन सोलह प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे बन्धयोग्य १२०-१६=१०४ कही हैं। देवगतिमें मिथ्यात्वादि चार गुणस्थान होते हैं। भवनत्रिक तथा कल्पवासी स्त्रियों में तीर्थकरका अभाव होता है "भवणतिए णस्थि तिस्थयरं", "कप्पिस्थीसु ण तित्थं"। उनके १०३ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं। सौधर्म, ईशान स्वर्गवालोंके तीर्थकरका बन्ध होता है। इससे १०४ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य कही हैं। सनत्कुमारादि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त एकेन्द्रिय स्थावर तथा आतापका बन्ध न होनेसे १०४-३=१०१ बन्धयोग्य हैं। आनत, प्राणत, आरण, अच्युत तथा नव प्रैवेयकोंमें तिथंच गति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचायु, उद्योत इन शतारचतुष्क प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे १०१-४=९७ प्रकृतियोंको बन्धयोग्य कहा है। नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानों में सम्यक्त्वी जीव ही उत्पन्न होते हैं, अतः उनके अविरत सम्यक्त्वीके बन्धयोग्य ७२ प्रकृतियाँ कही गयी हैं।
निवृत्यपर्याप्तक भवनत्रिक तथा कल्पवासिनियोंमें तिथंचायु तथा मनुष्यायुका बन्ध न होनेसे १०३-२=१०१ बन्ध योग्य हैं। यहाँ मिध्यात्व तथा सासादन गुणस्थान होते
१. कपित्थीसु तित्थं सदरसहम्सारगो त्ति तिरियदुगं ।
निरियाऊ ऊन्जोवो अस्थि तदो पत्थि सदरचऊ ।। गो० क०,११२ ।
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पडबंधाहियारो
५१
हैं । सम्यक्त्वी जीवकी उत्पत्ति भवनत्रिक तथा देवांगनाओंमें नहीं होती इससे यहाँ पूर्वोक्त दो गुणस्थान होते हैं । सौधर्मेन्द्रकी इन्द्राणीकी पर्याय में भी सम्यक्त्वीका उत्पाद नहीं होता । जन्म धारणके पश्चात् पर्याप्त अवस्थामें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका निषेध नहीं है । सौधर्म ईशान स्वर्ग में निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होनेसे वहाँ बन्धयोग्य १०१+ १ = १०२ कही गयी हैं ।
सनत्कुमारादि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त निर्वृत्यपर्याप्त अवस्थामें मनुष्यायु तथा तिर्यंचायुका बन्ध न होनेसे ९९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । उनके पर्याप्त अवस्थामें १०१ का बन्ध कहा गया है । उसमें से उक्त दो प्रकृतियाँ यहाँ घट जाती हैं ।
आनतादि स्वर्गों तथा नव ग्रैवेयकों में पर्याप्त अवस्थामें ६७ का बन्ध होता था उसमें से मनुष्यायुको घटाने से ९६ का बन्ध निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में कहा गया है ।
नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानोंमें पूर्वोक्त ७२ प्रकृतियोंमें से मनुष्यायुको बन्धके अयोग्य होनेसे घटानेपर निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्थामें ७१ का बन्ध कहा गया है ।
सौधर्मादि नव ग्रैवेयक पर्यन्त निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्थामें मिध्यात्व, सासादन तथा असंयतमै तीन गुणस्थान होते हैं। आगे 'सम्यक्त्वी जीवका ही उत्पाद होनेसे चौथा गुणस्थान कहा है।
नरकगति - यहाँ मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्धव्युच्छित्तिवाली सोलह प्रकृतियों में से मिध्यात्व, हुण्डक संस्थान, नपुंसक वेद तथा असम्प्राप्तासृपाटिकासंहननको छोड़कर शेष बारह प्रकृतियोंको बन्धके अयोग्य कहा है। इन बारह प्रकृतियोंके सिवाय देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, देवायु तथा आहारकद्विक इन सात प्रकृतियोंका भी बन्ध नहीं होनेसे १२+७ = १६ प्रकृतियोंको १२० में घटानेसे १०१ का बन्ध कहा गया है । यहाँ प्रथमसे चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थान कहे गये हैं ।
चौथे, पाँचवें, छठे तथा सातवें नरकों में तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता है । चौथी, पाँचवीं तथा छठी पृथ्वीमें १०१ - १ = १०० प्रकृति बन्ध योग्य कही हैं। सातवीं पृथ्वी में मनुष्यायुका बन्ध नहीं होता है । वहाँ से निकलकर जीव पशु पर्यायकोही प्राप्त करता है, अतः सातवीं पृथ्वी में १०० - १ = ९९ प्रकृतियोंको बन्ध योग्य कहा है ।
पहली पृथ्वी में निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में मनुष्यायु तथा तियंचायुका अभाव होने से १०१ -२=६६ को बन्ध योग्य कहा है । यहाँ मिथ्यात्वादि चार गुणस्थान होते हैं ।
दूसरे नरकसे छठे नरक पर्यन्त अपर्याप्तावस्था में केवल मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । वहाँ तीर्थंकर, मनुष्यायु तथा तिर्यंचायु इन तीन प्रकृतियोंका बंन्ध न होनेसे १०१ - ३ =६८ को बन्ध योग्य कहा है ।
सातवें नरकमें अपर्याप्त अवस्थामें मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । वहाँ अपर्याप्त अवस्था में मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी तथा उच्च गोत्रका बन्ध न होनेसे ६८- ३=६५ प्रकृतियोंको बन्ध योग्य कहा है ।
तिर्यंचगति – तिर्यंचों के सामान्य तिर्यंच, पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, पर्याप्ततिर्यंच तथा योनिमत् तिर्यंच इस प्रकार जो चार भेद कहे गये हैं, उनके पाँच गुणस्थान होते हैं । तिर्यंचों में तीर्थंकर तथा आहारकद्विक इन प्रकृतियोंके बन्धका अभाव रहने से १२० - ३ = ११७ का बन्ध होता है । मनुष्यगति के समान तिर्यों में भी वज्रवृषभनाराचसंहनन, औदारिकद्विक, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी तथा मनुष्यायुकी बन्धव्युच्छित्ति अविरत के बदले में सासादन गुणस्थान में होती है।
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महाबंधे
निर्वृत्यपर्याप्तक तिर्यश्वोंमें चार आयु तथा नरकद्विकका बन्धाभाव होनेसे बन्धयोग्य ११७-६=१११ प्रकृतियाँ हैं । इनके मिथ्यात्व, सासादन तथा असंयत ये तीन गुणस्थान होते हैं ।
५२
लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यों में नरकायु, देवायु तथा वैक्रियिक षटकका बन्ध न होनेसे ११७-८=१०९ का बन्ध होता है । यहाँ मिथ्यात्व गुणस्थानका सद्भाव कहा गया है।
इन्द्रिय मार्गणा - पर्याप्तक एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रियोंमें तीर्थंकर आहारकद्विक, देवायु, नरकायु तथा वैक्रियिकषटक इन एकादश प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे १२० - ११ =१०९ प्रकृतियोंका बन्ध कहा गया है । इनके प्रथम और द्वितीयगुणस्थान होते हैं ।
पचेन्द्रिय पर्याप्तकों में चौदह गुणस्थान कहे गये हैं ।
पन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तकों में आहारकद्विक, नरकद्विक तथा आयुचतुष्टय इस प्रकार आठ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होनेसे १२० - ८ = ११२ का बन्ध कहा है । इनके १, २, ४, ६ तथा तेरहवें गुणस्थान कहे हैं। आहारकमिश्रकाययोगावस्थामें जीव निर्वृत्यपर्याप्तक होता है । उस समय प्रमत्तसंयतावस्था पायी जाती है । केवली भगवान् के समुद्घातकाल में औदारिक मिश्रकाय के समय निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था पायी जाती है ।
लब्ध्यपर्याप्तक पञ्चेन्द्रियों में तीर्थंकर, आहारकद्विक, देवायु, नरकायु, वैक्रियिकषटक इन ११ प्रकृतियोंको छोड़कर १२० - ११ = १०९ का बन्ध बताया गया है । गुणस्थान प्रथम ही होता है ।
कायमार्गणा - पृथ्वी काय, जलकाय, वनस्पतिकायवाले जीवोंमें मिध्यात्व, सासादन गुणस्थान होते हैं । इनकी १०९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है ।
अग्निकायिकों, वायुकायिकों में मनुष्यद्विक, उच्चगोत्र तथा मनुष्यायुका बन्ध न होने से १०९-४= १०५ का बन्ध है । गुणस्थान मिथ्यात्व हो होता है । गोम्मटसार कर्मकाण्ड में लिखा है - "ण हि सासणो, श्रपुष्णे- साहारणसुभगे य ते उदुगे । " ॥ ११५ ॥
लब्ध्यपर्याप्तकों, साधारण वनस्पतिकायिकों, सम्पूर्ण सूक्ष्मस्थावर जीवों में तथा तेजकायिक वायुकायिकों में सासादन गुणस्थान नहीं होता है। नारकी जीवों में भी अपर्याप्तावस्था में सासादनका अभाव है ।
योगमार्गणा - असत्य मन तथा असत्यवचनयोग, उभय मन तथा वचन योगों में मिध्यात्वसे आदि क्षीण कषाय पर्यन्त द्वादश गुणस्थान पाये जाते हैं ।
सत्य मन, सत्य वचन तथा अनुभय मन तथा अनुभय वचनमें सयोगी जिन पर्यन्त त्रयोदश गुणस्थान कहे गये हैं ।
औदारिक काययोगमें त्रयोदश गुणस्थान कहे गये हैं । मनुष्यगतिके समान वर्णन जानना चाहिए । औदारिकमिश्र काययोगमें आहारक द्विक, नरकद्विक, नरकायु और देवायु इन छह प्रकृतियों के बिना १२० - ६ = ११४ का बन्ध होता है । यहाँ मिथ्यात्व, सासादन, असंयत तथा सयोगी जिन ये गुणस्थान पाये जाते हैं ।
वैक्रियिक काययोगमें सौधर्म - ईशान स्वर्ग के समान १०४ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । वैक्रियिक मिश्र काययोग में मनुष्यायु तथा तिर्यंचायुका बन्ध न होनेसे १०४ - २ = १०२ प्रकृ तियोंका बन्ध होता है । यहाँ मिध्यात्व, सासादन तथा असंयत गुणस्थान होते हैं ।
आहारक काययोगमें छठा गुणस्थान होता है । यहाँ ६३ प्रकृतियों का बन्ध होता है । आहारक मिश्रयोग में देवायुका बन्ध नहीं होनेसे ६३ - १ = ६२ का बन्ध होता है ।
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पयडिबंधाहियारो
५३
. कार्मण काययोगमें प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ तथा त्रयोदशम गुणस्थान पाये जाते हैं। यहाँ औदारिकमिश्रकाययोग सम्बन्धी ११४ प्रकृतियोंमें-से मनुष्यायु तथा तियंचायुको घटानेपर ११२ का बन्ध होता है ।
वेदमार्गणा - तीनों वेदोंमें प्रथमसे नवम गुणस्थान पर्यन्त गुणस्थान होते हैं । यहाँ तीनों वेदोंमें १२० प्रकृतियाँ बन्ध योग्य कही गयी हैं।
स्त्रीवेदीके निवृत्यपर्याप्तक अवस्थामें प्रथम तथा द्वितीय गुणस्थान कहे गये हैं । यहाँ चार आयु, तीर्थंकर, आहारकद्विक, वैक्रियिकषट्क इन १३ प्रकृतियोंको छोड़कर १२० - १३ = १०७ का बन्ध होता है।
नपुंसकवेदी निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्थामें मिथ्यात्व, सासादन तथा असंयतगुणस्थान कहे गये हैं । यहाँ चार आयु, आहारकद्विक, वैक्रियिकषट्क इन द्वादश प्रकृतियोंके विना १०८ का बन्ध होता है । तीथकर प्रकृतिका बन्धक जब नरकमें जाता है, तब उसके अपर्याप्तक दशामें तीर्थकरका बन्ध होनेसे यहाँ १०८ का बन्ध कहा है। ऐसा स्त्रीवेदीमें नहीं होता है। सम्यक्त्वी जीव प्रथम नरक तो जाता है और वहाँ नपुंसकवेदी होता है किन्तु वह स्त्रीवेदी नहीं होता है।
पुरुषवेदीके १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है। निवृत्यपर्याप्तक अवस्था में उसके आहारकद्विक, नरकद्विक, तथा चार आयुको छोड़कर १२०-८११२ का बन्ध होता है ।
कषायमार्गणा-यहाँ १ से १० पर्यन्त गुणस्थान कहे गये है । यहाँ बन्ध १२० प्रकृतियों का होता है।
शानमार्गणा-कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधि ज्ञानोंमें तीर्थकर तथा आहारकद्विकको छोड़कर १२० - ३ - ११७ का बन्ध होता है। यहाँ मिथ्यात्व तथा सासादन गुणस्थान कहे गये हैं । सुमति, सुश्रुत तथा सुअवधिज्ञानोंमें चौथेसे बारहवें पर्यन्त गुणस्थान होते हैं । यहाँ बन्धयोग्य ७९ प्रकृतियाँ कही गयी हैं।
____ मनःपर्यय ज्ञानमें प्रमत्तसंयतसे क्षीणकषायपर्यन्त गुणस्थान हैं। यहाँ ६५ प्रकृतियाँ कही गयी हैं।
मनःपर्यय ज्ञानमें प्रमत्तसंयतसे क्षीणकषाय पर्यन्त गुणस्थान हैं । यहाँ ६५ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। यहाँ आहारकद्विकका भी बन्ध होता है । ' मनःपर्ययज्ञानोके आहारकद्विकके उदयका विरोध है। केवलज्ञानमें सयोगकेवली, अयोगकेवली गुणस्थान पाये जाते हैं । सयोगकेवलीके केवल सातावेदनीयका बन्ध होता है । अयोगी जिनके बन्धका अभाव है। ___संयममार्गणा-असंयम मार्गणामें आदिके चार गुणस्थान हैं। यहाँ संयम अवस्थामें बँधनेवाली आहारकद्विकका बन्ध न होनेसे बन्ध योग्य १२० - २ -- ११८ प्रकृतियाँ कही गयी हैं।
देशसंयमीके पाँचवाँ गुणस्थान होता है। सामायिक तथा छेदोपस्थापना सयममें ६.७, ८, ९ पर्यन्त चार गुणस्थान होते हैं । यहाँ ६५ प्रकृति बन्ध योग्य है।
परिहार विशुद्धि संयममें छठवें, सातवें गुणस्थान होते हैं। यहाँ भी ६५ प्रकृतिका बन्ध होता है । इस संयमीके आहारकद्विकका बन्ध तो होता है; किन्तु उनका उदय नहीं होता है।
यथाख्यात संयम- यह ११वें से १४वें पर्यन्त होता है । उपशान्त कपायसे सयोगी जिन पर्यन्त केवल सातावेदनीय का बन्ध होता है । चौदहवें गुणस्थानमें बन्धाभाव है,क्योंकि वहाँ योगका अभाव हो जाता है।
दर्शनमार्गणा - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शनमें १ से १२ पर्यन्त गुणस्थान होते हैं । यहाँ १२० प्रकृतिका बन्ध होता है।
१. अत्र आहारकद्वयोदय एव विरुध्द्यते, नाप्रमत्तापूर्वकरयोस्तबन्धः ।
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महाबंधे
अवधिदर्शनमें ४थे से १२वें पर्यन्त गुणस्थान कहे गये हैं। यहाँ अवधिज्ञानवत् ७६ का बन्ध जानना चाहिए।
__ केवलदर्शन १३ तथा १४ ये दो गुणस्थान होते हैं। बन्धको अपेक्षा सयोगी जिनके सातावेदनीयका ही बन्ध होता है ।
लेश्यामार्गणा - कृष्ण, नील, तथा कापोत इट तीन लेश्याओंमें आदिके चार गुणस्थान होते हैं । अतः यहाँ आहारकद्विकके बिना १२० - २ - ११८ प्रकृतियोंका बन्ध कहा है।
पीत लेश्यामें १ से लेकर ७वें पर्यन्त गुणस्थान हैं। यहाँ सूक्ष्म,अपर्याप्त,साधारण, विकलत्रय, नरकायु तथा नरकद्विक इन ९ प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे बन्ध योग्य १२० - ९% १११ कही गयी हैं।
पद्म लेश्यामें पूर्ववत् ७ गुणस्थान होते हैं। यहाँ एकेन्द्रिय, स्थावर तथा आतापका बन्ध न होनेसे १११ - ३ = १०८ बन्ध योग्य कही हैं।
शुक्ललेश्या - यहाँ सयोगी जिन पर्यन्त त्रयोदश गुणस्थान होते हैं । यहाँ पालेश्या. सम्बन्धी १०८ प्रकृतियों में से तियचगति, तियचगत्यानुपूर्वी, तिथंचायु तथा उद्योत इन शतारचतुष्कका अभाव होनेसे १८८ - ४ = १०४ का बन्ध होता है।
भव्यमार्गणा - भव्योंके चौदह गुणस्थान होते हैं। इनके १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है।
अभव्य जीवोंके तीर्थंकर तथा आहारकद्विकको छोड़ ११७ का बन्ध होता है । इनके मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है।
सम्यक्त्वमागणा- प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें मिथ्यात्व गुणस्थानसम्बन्धी १६ तथा सासादन गुणस्थान सम्बन्धी २५ प्रकृतियोंका अभाव होने के साथ देवायु तथा मनुष्यायुका अभाव होता है, अतः १६+२५+२= ४३ प्रकृतियोंको घटानेसे यहाँ १२०-४३ = ७७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। यहाँ चौथेसे सातवें पर्यन्त चार गुणस्थान कहे गये हैं। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें चौथेसे ग्यारहवें पर्यन्त सात गुणस्थान कहे गये हैं। सातवें गुणस्थानसे ग्यारहवें पर्यन्त चढ़कर जब वह जीव नीचे उतरकर चौथे गुणस्थानमें आता है, तब उसके प्रथमोपशम सम्यक्त्वके समान ७७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। यहाँ भी मनुष्यायु तथा देवायुका अभाव कहा है । "सव्वुवसम्मे परसुरआऊणि णस्थि णियमेण" (गो० कं० १२०)
'गोम्मटसार 'कर्मकाण्डकी संस्कृत टोकामें लिखा है = अत्र प्रथमद्वितीयोपशमसम्यक्त्वयोरायुरबन्धात् आरोहकापूर्वकरणप्रथमसमये 'मरणोन' इति विशेषोऽनर्थकः ? इति न वाच्यम्, प्रारबद्धदेवायुष्कस्यापि सातिशयप्रमत्तस्य श्रेण्यारोहणसंभवात् (११६ पृष्ठ) यहाँ यह प्रश्न किया है, प्रथमोपशम तथा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वोंमें आयुबन्धका अभाव कहा है, तब श्रेणीका आरोहण करनेवाले अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथम समयमें 'मरणोन' मरणरहित ऐसा विशेषण निरर्थक रहा ? इसका समाधान यह है कि पहले देवायुका बन्ध करनेवाले सातिशय अप्रमत्तके श्रेणीका आरोहण सम्भव है । पूर्व में आयुबन्ध करनेके अन्तमुहूत पर्यन्त सम्यक्त्वमें मरण नहीं होता है । इस प्रकार प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें तथा श्रेणी चढ़ते अपूर्वकरणके प्रथम भागके अन्तर्मुहूर्त में मरण नहीं होता है; अन्यत्र उपशम श्रेणीमें मरण होता है । ( गो० क०,संस्कृत टी०, पृ० १२२)
क्षयोपशम अथवा वेदक सम्यक्त्व चौथेसे सातवें पर्यन्त कहा है। वहाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्वका ७७ प्रकृतियोंमें मनुष्यायु तथा देवायुको जोड़नेसे ७९ का बन्ध कहा गया है।
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पडबंधाहियारो
[ कालपरूवणा ]
1
.१३. 'जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० दे० । तित्थ० जह० चदुरासीदिवाससहस्साणि, उक्क० तिष्णि साग० सादिरे० । पढमाए याव छट्ठत्ति पढमदंडबंधकालो जह० दसवास सहसाणि सागरोपम - तिण्णि-सत्त- दस- सत्ता रस- सागरोप० सादिरे ० । उक्क० अष्पष्पणो हिदी कादव्वो ( दव्वा ) | साद[द] डगे तिरिक्खगदितिगं पवि जह० एयस० उक० अंतो० | थीण गिडिओ णिरयोघो । णवरि अपणो हिदी भा(भ) णिदव्वा । एवं मिच्छत्त - दंडओ | पुरिसवेददंडओ अप्पप्पणो हिदी० दे० | दो आयु० ओघं । तित्थयर० पढमाए जह० चदुरासीदि वस्स- सहस्साणि, उक्क० सागरो० देसू० । बिदियाए जह० सागरो० सादिरे० । उक्क० तिष्णि सागरो ० देसू० | तदियाए जह० तिष्णि साग० सादिरे० । उक्क० तिष्णि साग० सादिरे० । सत्तमाए रइ ओघो । णवरि दंसणतियं मिच्छत्तं अर्णताणुबंधि०४ तिरिक्खपगदितियं च जह० अंतो० | मणुस ० मणुसाणुपुव्वि ० उच्चागो० जह० अंतो० । तित्थयर० णत्थि ।
५५
क्षायिक सम्यक्त्व में चौथेसे चौदहवें पर्यन्त गुणस्थान होते हैं । यहाँ भी ७९ का बन्ध होता है।
संज्ञी मार्गणा - संज्ञी जीवके १ से १२ पर्यन्त गुणस्थान कहे गये हैं । यहाँ १२० का बन्ध होता है ।
असंज्ञीके प्रथम तथा द्वितीय गुणस्थान होते हैं । यहाँ तीर्थंकर तथा आहारकद्विकके विना १२० - ३ = ११७ का बन्ध कहा गया है ।
आहार मार्गणा - यहाँ १ से १३ गुणस्थान होते हैं । १२० प्रकृतिका बन्ध होता है । अनाहारकों के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, तेरहवें गुणस्थान कहे गये हैं । यहाँ ४ आयु, आहारकयुगल, नरकद्विकके बिना १२० - ८ - ११२ का बन्ध कहा है ।
कालप्ररूपणा
[ ताड़पत्र नं० २८ नष्ट हो जाने के कारण इस प्ररूपणाका प्रारम्भिक अंश भी विनष्ट हो गया। प्रकरणको देखते हुए ज्ञात होता है कि यहाँ आदेशकी अपेक्षा नरकगतिका वर्णन चल रहा है और ओघका वर्णन नष्ट हो गया है ]
विशेष - यहाँ एक जीवकी अपेक्षा वर्णन किया गया है ।
१३. नरकगतिमें जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट से देशोन तेतीस सागरोपम है। एक जीवकी अपेक्षा तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य बन्धकाल ८४ हजार वर्ष, तथा उत्कृष्ट साधिक तीन सागर प्रमाण है । प्रथम नरकसे छठे नरक पर्यन्त प्रथम दण्डकका बन्धकाल जघन्य से दशहजार वर्ष, एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दस सागर, सत्रह सागर से कुछ अधिक है तथा उत्कृष्ट अपने-अपने नरककी स्थिति प्रमाण जानना चाहिए। अर्थात् क्रमशः एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दस सागर, सत्रह सागर तथा बाईस सागर प्रमाण है । साता दण्डकमें तिर्यंचगतित्रिकमें प्रविष्ट जीवका बन्धकाल जघन्यसे एक समय उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । स्त्यानगृद्धि दण्डकका बन्धकाल नरक गतिकी ओघ रचनाके समान है। विशेष यह है कि यहाँ अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए ।
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महाबंधे १४. तिरिक्खेसु पंचणाणा० छदसण. मिच्छ० अट्ठक० भयदुगुंछ० तेजाक० वण्ण०४ अगुरु० उप० णिमिणं पंचंत० बंध० जह० खुद्धाभव०, उक्क० अणंतकालं असंखे० [पोग्गलपरियटुं० ] । एवं थीणगिद्धितिगं अणंताणु ० आदि० (१) अट्ठकसाय ओरालिय०, णवरि जह० एगस० । सादासा०-छण्णोकसा०-दोगदि-चदुजादि-पंचसंठाणं ओरालिय. अंगो० छस्संघड ०-दोआणुपु०-आदावुज्जोव० अप्पसत्थवि० थावरादि०४ थिरादि दो यु. भग-दुश्सर-अणादेज्ज-जस० अजस० जह० एगस०, उक्क० अंतो०।
विशेष - ओघ रचनावाला ताड़पत्रका अंश नष्ट हो गया, अतः ओघ रचना अज्ञात है।
मिथ्यात्व दण्डकमें इसी प्रकार जानना चाहिए । पुरुषवेद दण्डकमें अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण किन्तु कुछ कम बन्धकाल है
दो आयु ( मनुष्य तिर्यंचायु ) का बन्धकाल ओषके समान है। तीर्थकर प्रकृतिका बन्धकाल प्रथम पृथ्वीमें जघन्यसे चौरासी हजार वर्ष है, उत्कृष्ट से देशोन एक सागर है।
विशेषार्थ - इस कथनसे विदित होता है कि तीर्थकर प्रकृतिका बन्धक नरकमें कमसे कुल ८४ हजार वर्षकी आयुको प्राप्त करेगा । उदाहरणार्थ- श्रेणिक महाराजके जीवने नरकमें जाकर ८४ हजार वर्ष की आयु प्राप्त की है।।
दूसरी पृथ्वीमें जघन्य बन्धकाल साधिक एक सागर, उत्कृष्ट किंचित् ऊन तीन सागर है। तीसरी पृथ्वीमें जघन्य साधिक तीन सागर, उत्कृष्ट साधिक तीन सागर बन्धकाल है ।
विशेषार्थ- तीसरी पृथ्वीमें सात सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति पायी जाती है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वहाँ उत्पन्न होनेवाला जीव किंचित् ऊन सात सागर पर्यन्त सम्यक्त्वी रहनेसे उतने काल पर्यन्त तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करता है; किन्तु इस सम्बन्धमें यह आगम बताता है कि उस प्रकृतिका उत्कृष्ट बन्धकाल साधिक तीन सागर है। इससे अधिक बन्धकालकी कल्पना करना आगम बाधित होगा।
सातवीं पृथ्वीमें-नारकियोंके ओघवत् जानना चाहिए । विशेष यह है कि दर्शनावरण ३, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४, तिथंचगतित्रिकका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उच्चगोत्रका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। यहाँ तीर्थकर प्रकृति नहीं है। [चौथी, पाँचवीं तथा छठी पृथ्वीमें भी तीर्थंकर प्रकृति नहीं है।
१४. तिल्चोंमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसकार्माण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तरायोंका जघन्यसे बन्धकाल भद्रभव ग्रहण, उत्कृष्ट से अनन्तकाल असंख्यात पुद्गल परावतेन है। स्त्यानगृद्धि त्रिक, अनन्तानुबन्धी आदि आठ कषाय तथा औदारिक शरीर में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ जघन्य बन्धकाल एक समय है । साता-असातावेदनीय, ६ नोकषाय,२ गति, ४ जाति, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, २ आनुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावरादि ४, स्थिरादि दो युगल, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यश-कीर्ति, अयशः
१. “तिरिक्खगदीए तिरिक्खेमु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुतं उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियटुं"-षट्खं०, का० ४८। २. "सासणसम्मादिट्टी केवचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ।"-पटूखं०, का०५, ७, ८।
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बंधा हियारो
पुरिसवे ० -देवग० - वेउच्चि समच० वेउन्वि० अंगो० देवाणुपु० पसत्थवि० सुभग० सुस्सर० आदेज्ज० उच्चागो० जह० एस० । उक्क० तिष्णि पलिदो० । चदुआयु० तिरिक्खगदितिगं ओघं । पंचिंदिय० परघा० उस्सासं तस०४ जह० एग० । उक्कस्सेण तिष्णि पलिदो० सादिरे० ।
१५. पंचिंदि० तिरिक्ख० ३ ओघं । पढमदंडओ जह० खुद्दा० । पज्जतजोणिणीसु [ जहणेण ] अंतो० । उक्क० तिष्णि पलिदो० पुव्त्रको डिपुध० । एवं थीण गिद्धितिगं अट्ठकसा० । णवरि जह० एस० । साददंडओ तिरिक्खोघं । णवरि तिरिक्खग
५७
कीर्तिका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, देवानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट तीन पल्य है । चार आयु और तिर्यंचगतित्रिकका ओघ के समान जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छवास, त्रस ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्य प्रमाण है ।
१५. पंचेन्द्रिय-तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंचपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतीमें - ओघके समान जानना चाहिए । प्रथम दण्डकमें जघन्य बन्धकाल क्षुद्रभव ग्रहण प्रमाण है । तिर्यंचपर्याप्तक तथा योनिमतियों में ( जघन्य ) अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट' पूर्वकोटि पृथक्त्वाधिक तीन पल्य प्रमाण बन्धकाल है । विशेषार्थ - - एक देव, नारकी, मनुष्य अथवा विवक्षित पंचेन्द्रियं तिर्यंचसे विभिन्न अन्य तिर्यंच मरकर विनित पंचेन्द्रिय तिर्यंच हुआ। वहाँ संज्ञी स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदोंमें क्रमसे आठ-आठ पूर्वकोटि काल व्यतीत करके तथा असंज्ञी स्त्री, पुरुष, नपुंसकमें पूर्ववत् आठ-आठ पूर्व कोटि प्रमाण काल-क्षेप करके पश्चात् लव्यपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यचों में उत्पन्न हुआ । वहाँ अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः पंचेन्द्रिय तिर्यच असंज्ञी पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर उनमें के स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदी जीवों में पुनः आठ-आठ पूर्वकोटि प्रमाण काल व्यतीत करके पश्चात् संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तक स्त्री और नपुंसक वेदियोंमें आठ-आठ पूर्व कोटियाँ तथा पुरुष वेदियों में सात पूर्वकोटियाँ भ्रमण करके पश्चात् देवकुरु, वा उत्तरकुरुमें, तिचोंमें, पूर्व बद्धायुके वश पुरुष या स्त्री तिच हुआ तथा तीन पल्योपम काल व्यतीत करके मरा और देव हुआ । इस प्रकार पूर्वकोटि पृथक्त्व वर्ष अधिक तीन पल्य कहे हैं । (ध०टी० का ० पृ० ३६७, ३६७)
२
इसी प्रकार स्त्यानगृ द्धित्रिक तथा आठ कषायका भी जानना चाहिए । विशेष यह है कि यहाँ जघन्य एक समय है । साता दण्डकमें तिर्यंचोंके ओघवत् जानना चाहिए।
१. “पंचिदिय-तिरिक्ख- पंचिदियतिरिक्खपज्जत - पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु मिच्छादिट्ठी केव चिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्त उक्कस्सेण तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणभहियाणि । "-पट्खं०, का० ५७-५६ । २. यहाँ बारह भावोंमें से ११ भवोंमें पूर्व कोटिपृथक्त्ववर्ष अर्थात् आठ-आठ पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण परिभ्रमणका काल और अन्तके बारहवें भाव में सात पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण परिभ्रमण करनेका काल मिलकर ९५ पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण होता है । इस कालको 'पूर्वकोटिपृथक्त्व ' शब्दसे ग्रहण किया है ।
८
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महाबंधे
दितिगं ओरालियं च पविट्ठ । पुरिसवेददंडओ तिरिक्खोघं । णवरि जोणिणीसु देसू० । चदु आयु० ओघं । पंचिंदि० दंडओ तिरिक्खोघं ।
१६. पंचिंदिय-तिरि०-अप० पंचणाणा०-णवदं० मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगुं० ओरालिय० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं पंचंत० जह० खुद्धा० । उक्क० अंतो० । दो आयु ओघं । सेसाणं जह० एगस० । उक० अंतो० । एवं सव्व-अपज्जत्ताणं तसाणं थावराणं च ।
१७. मणुस०३-पंचणा० णवदंस० सोलसक० भय दुगुं० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं पंच-(पंचंत०) जह० एग० । [ उकस्सेण] तिणि पलिदो० पुव्वकोडिपुधः । एवं मिच्छ० । णवरि जह० खुद्धा० । पज्जत्त(०)मणुसिणि अंतो० । सादावे. चदुआयु ओघं । असाद०-छण्णोक०-तिण्णिगदि-चदु जाति(दि)-ओरालिय०पंचसंठा०-ओरालिय-अंगोल्छस्संघ०-तिण्णिआणु०-आदावुज्जो० अप्पस०-थावरादि०४तिर्यंचगतित्रिक तथा औदारिक शरीर में विशेष जानना चाहिए । पुरुषवेद दण्डकका तिर्यञ्चोंके
ओघवत है। इतना विशेष है कि योनिमती तिर्यञ्चों में कुछ कम जानना चाहिए। चार आयुका बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय दण्डकमें तिर्यञ्चोंके ओघवत् है ।
१६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च-लब्ध्यपर्याप्तकोंमें--५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस-कार्मण' शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा पञ्च अन्तरायोंका बन्धकाल जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है।
मनुष्य,तियचायुका बन्धकाल ओघवत् है। शेषका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इस प्रकार संपूर्ण अपर्याप्तक त्रसों तथा स्थावरोंमें जानना चाहिए।
१७. मनुष्य सामान्य, मनुष्य पर्याप्त तथा मनुष्यनियोंमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण शरीर, वणे ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल एक समय, (उत्कृष्ट) पूर्वकोटि पृथक्त्वाधिक तीन पल्य प्रमाण है। इसी प्रकार मिथ्यात्वका भी बन्धकाल है । इतना विशेष है कि मनुष्य सामान्य में जघन्य बन्धकाल क्षुद्रभव ग्रहण प्रमाण है। पर्याप्त मनुष्य तथा मनुष्यनीमें जघन्य बन्धकाल अन्तमुहूर्त प्रमाण है । सातावेदनीय, चार आयुका बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए । असातावेदनीय, ६ नोकषाय, तीन गति, चार जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावरादि ४,
१. "पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्से ण अंतोमुहुत्तं ।" - षट्खं०,का० १५, ६७ ।
२. "मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि ।"-पखं०, का०, ६८-७०।
यहाँ यह विशेष है कि मनुष्य मिथ्यात्वीके ४७ पूर्व कोटि अधिक तीन पल्य है, पर्याप्त मिथ्यात्वी मनुष्यके २३ पूर्वकोटियाँ अधिक है । मनुष्यनी मिथ्यादृष्टिके सात पूर्वकोटि अधिक हैं। यथा-"मणुसमिच्छादिठिस्स चे य सत्तेतालपुत्रकोडीओ अहिया होंति, पज्जत्तमिच्छादिट्ठीणं तेवीसपुचकोडीयो, मणुसिणि मिच्छादिट्ठीसु सत्त पुन्वकोडीओ अहियाओ।"-ध० टी०,का०,पृ० ३७३ ।
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पयडिबंधाहियारो थिरादिदोयु० दूभग-दुस्स०-अणादे०-जस०-अज्जस०-णीचागो. जहण्णे० एग० । उक्क० अंतो० । पुरिस० देवग०४ समच० पसत्थ० सुभग० सुस्सर० आदेज्ज. उच्चागो० जह• एगस० । उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरे० । मणसिणीसु देसू० । पंचिंदिय० परघादु० तस०४ तिरिक्खोघं । आहार०२ जह० एग० । उक० अंतो० । तित्थ० जह० एग० । उक्क० पुवकोडिदेसू०।।
१८. देवेसु-पंचणा० छदंसणा०बारसक०भय दुगुं० ओरालिय०तेजाक०वण्ण०४ अगु०४ बादर-पज्जत्त-पतेय. णिमि० पंचंत० जह. दसवस्ससहस्सा० । उक० तेतीसं सा० । थीणगिद्धितिग० मिच्छ० अणंताणबं०४ जह० एग० । [णवरि] मिच्छ० अंतो० । उक्क० एकत्तीसं सा० । सादासा. छण्णोक० तिरिक्ख० एइंदि०
स्थिरादि दो युगल, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यश कीर्ति, अयशकीर्ति तथा नीचगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, देवगति ४, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय तथा उच्चगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्य प्रमाण है। विशेष यह है कि मनुष्यनी में देशोन तीन पल्य है। पंचेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास, त्रस ४ का बन्धकाल तिर्यञ्चोंके ओघवत् है। आहारकद्विकका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। तीर्थंकरका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है।
१८. देवोमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस, कार्मण) शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण तथा पञ्च अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट तेतीस सागर प्रमाण है।
विशेषार्थ - देवोंकी जघन्य तथा उत्कृष्ट आयुकी अपेक्षा यह वर्णन हुआ है।
स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य बन्धकाल एक समय है। (इतना विशेष है कि) मिथ्यात्वका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है, किन्तु सबका उत्कृष्ट बन्धकाल ३१ सागर प्रमाण है।
विशेष- कोई मिथ्यात्वी द्रव्यलिंगी मरकर ३१ सागरकी आयुवाले ग्रैवेयक वासी देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ उसने जीवन-भर मिथ्यात्वादिका बन्ध किया। इस अपेक्षा ३१
१. "असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुरा, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि ।"-षट्खं०,का०,७९-८१ ।
"मणुस-मणुसपजत्तएसु सादिरेयाणि तिण्णि पलिदोवमाणि अण्णत्थ देसूणाणि ।'"-ध० टी०,का०, पृ० ३७७ ।
पूर्वकोटि आयु के त्रिभागमें मनुष्यायुको बांधनेवाले मनुष्यने अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्व प्राप्त किया तथा सम्यक्त्वसहित भोगभूमिमें तीन पल्य बिताये और मरकर देव हआ। इस प्रकार साधिक तीन पल्य है। कुछ कम तीन पल्य प्रमाणकाल मनुष्यनियोंमें है। कोई मिथ्यात्वी मनुष्य भोगभूमिमें तीन पल्यको स्थितिवाला मनुष्य हआ। ९ माह गर्भ में बिताये, पश्चात् ४९ दिनमें सम्यक्त्व लाभ किया और सम्यक्त्वयुक्त शेष तीन पल्य पूर्ण कर मरा और देव हुआ। इस प्रकार ९ माह ४९ दिन कम तीन पल्य प्रमाणकाल हुआ। ध० टी०,का०,पृ० ३७८ ।
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महाबंधे पंचसं० पंचसंघ० तिरिक्खगदिपाओ० आदावुज्जो०-अप्पसत्थवि० [थावर-]थिरादिदोयुग० दुभगदुस्सर०-अणादे०-जस०-अजस० णीचा० जह० एग० । उक० अंतो०। पुरिस० मणुस० पंचिंदि० समच० ओरालिय० अंगो० वज्जरिस० मणुसाणु० पसस्थवि० तस० सुभग० सुस्सर० आदेज्ज उच्चागो. जह० एगस । उक्क० तेत्तीसं सा० । दो आयु ओघो (ओघ)। तित्थय० जह० वेसाग० सादि० । उक्त ० तेत्तीसं सा०। एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो द्विदिकालो णेदव्यो याव सव्वट्ठा त्ति । णवरि भवणवा०-वाण-वेत०-जोदिसि० तित्थय० णत्थि । सणकुमारादि पंचिंदियसंयुतं कादव्वं । एवं एइंदिय थावरि(२) णत्थि । आणदादि० तिरिक्खायु-तिरिक्खगदि०३ णस्थि । मणुसगदि धुवं कादव्वं । सागर प्रमाण बन्धकाल कहा है।'
साता-असाता वेदनीय, ६ नोकपाय, तिथंचगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्च संस्थान, पञ्च संहनन, तियंचगत्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, स्थिरादि दो युगल, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति, अयश-कीर्ति, नीचगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्च गोत्र का जघन्य बन्धकाल एक समय है, उत्कृष्ट ३३ सागर है ।
विशेषार्थ- यह उत्कृष्ट बन्धकालका कथन सर्वार्थसिद्धिके देवोंकी अपेक्षा है।
दो आयुका बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए । तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य बन्धकाल साधिक दो सागर है, उत्कृष्ट ३३ सागर है ।
विशेषार्थ- देवगतिकी अपेक्षा तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कल्पवासी देवोंमें होता है। सौधर्मद्विकमें आयु साधिक द्विसागरोपम है और सर्वार्थसिद्धि में ३३ सागरोपम है । इस अपेक्षा यहाँ वर्णन किया गया है।
इस प्रकार सब देवोंमें अपनी-अपनी स्थिति-प्रमाण बन्धका काल सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जानना चाहिए। इतना विशेप है कि भवनवासी, व्यन्तर तथा ज्योतिषी देवोंमें तीर्थंकर प्रकृति नहीं है । सनत्कुमारादि देवोंमें पंचेन्द्रियका संयोग करना चाहिए। वहाँ एकेन्द्रिय तथा स्थावर नहीं हैं।
विशेष - सौधर्मद्विकके आगे केवल पंचेन्द्रिय जातिका बन्ध होता है, एकेन्द्रिय, स्थावर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता है।
आनतादि स्वर्गामें - तिर्यंचगतित्रिक अर्थात् तिल्चायु, तिरांचगति, तिर्यश्चानुपूर्वी तथा उद्योतका बन्ध नहीं है । यहाँ मनुष्यगतिका ध्रुव रूपसे भंग करना चाहिए, । ( कारण, यहाँ मनुष्यगति का ही बन्ध होता है)।
विशेष - शतारचतुष्टय नामसे ख्यात तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी तथा उद्योतका बन्ध शतार-सहस्रारसे ऊपर नहीं होता है।
१. 'देवगदीए देवेसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णे अंतोमुहुत्तं, उक्कस्से ण एक्कत्तीस सायरोपमाणि ।"-पट्ख०,का०,८७-८६ ।
२. "कप्पित्थीसु ण तित्थं...''-गो० क०,गा० ११२ । षट्० टी०भा० १,पृ० ६१, १३१ ।
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पयडिबंधाहियारो १६. एइंदिएसु-पंचणा ० णवदंसणा ० मिच्छ ० सोलस ० भयदुगु० ओरालिय० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं पंचंतरा० जह० खुद्धा० । उक्क ० अणंतकालम० । बादरे० अंगुल० असं० । सुहुमे असंखेज्जा लोगा। बादर-एइंदिय-पज्जत्ता० जह० अंतो० । उक्क० संखेज्जवस्ससहस्सा० । सुहुम-एइंदि० पज्जत्त जहण्णु० अंतो० । तिरिक्खगदितियं जह० एय० । उक० असंखेज्जा लोगा। एवं सुहुम बादरे अंगुलस्स असंखे०। पज्जत्ते संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । सुहुम-पज्ज० जह० एग० उक्क० अंतो। सेसाणं सादादीणं जह० एय० । उक्क ० अंतो० । दो आयु० ओघं । एवं सब्ब-एइदियाणं णेदव्वं । विगलिंदिया०-पंचणा०णवदंसणा०मिच्छत्त०सोलसक०भयदुगु ओरालियतेजाक०-वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं पंचंतरा० जह० खुद्धाभ० पज्जते० अंतो०, उक्क० संखेजाणि वस्ससहस्साणि । दो आयु ओघ । सेसाणं सा [दा] दीणं जह० एयस० । उक्क० अंतो० ।
१६. एकेन्द्रियोंमें -५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस- कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, पाँच अन्तरायका बन्ध. काल क्षुद्रभव प्रमाण जघन्यसे है तथा उत्कृष्ट अनन्तकाल असंख्यात पुद्गल परावर्तन जानना चाहिए । बादर एकेन्द्रियमें उत्कृष्ट बन्धकाल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है तथा सूक्ष्ममें असंख्यात लोक प्रमाण है।
विशेष - यहाँ 'अंगुलका असंख्यातवाँ भाग' यह क्षेत्रकी मर्यादाका द्योतक शब्द, काल के लिए प्रयुक्त हुआ है । इसका तात्पर्य यह है कि आकाशके उक्त प्रमाण क्षेत्रमें जितने प्रदेश आवें, उतनी संख्या-प्रमाण समय-समूहात्मक रूपकालको ग्रहण करना चाहिए ।
'बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्तकमें जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट बन्धकाल संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है । सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-पर्याप्तकमें जघन्य बन्धकाल तथा उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । तिर्यचगतित्रिकका बन्धकाल जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से असंख्यात लोक प्रमाण है । इस प्रकार सूक्ष्मोंमें जानना चाहिए । बादर एकेन्द्रियों में अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाणकाल है । किन्तु इनके पर्याप्तकों में संख्यात हजार वर्ष प्रमाण बन्धकाल है। सूक्ष्मपर्याप्तकोंमें जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्महत है। शेष साता आदि प्रकतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। मनुष्य तथा तिर्यंचायुका बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए। इस प्रकार सम्पूर्ण एकेन्द्रियोंमें जानना चाहिए। विकलेन्द्रियोंमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस-कार्मण' शरीर, वर्ण४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल क्षुद्रभव प्रमाण है । किन्तु पर्याप्तकोंमें अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य बन्धकाल है । उत्कृष्ट बन्धकाल संख्यात
१. "इंदियाणुवादेण एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणंतकालमनखेज्जपोग्गलपरियढें ।'-पटखं०, का०,१०७-१०६ । २. "बादरेंदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि ।" -षट्खं०,का०, ११३-११५ । ३. "सुहुमेंदियपज्जत्ता "एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं,"-षट्ख०,का०,१२२-१०४ ।
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महा
२०. पंचिंदि० तस०२ - पंचणा०-णवदंस० - मिच्छत्त० - सोलसक० भयदुगु ० तेजाक० वण्ण ०४-अगु० - उप० णिमिणं पंचंतरा० जह० खुद्धा० पज्जत े ० अंतो० । उक्क० सागरोपमसह ० पुन्त्रकोडिपुध० । पज्जत े सागरोपम-सद-पुध० | तसेसुबेसाग० सहस्साणि पुव्त्रको डिपुध०, पज्जत बेसागरोपमसहस्वाणि । सादावे० चदुआ ओघं । असादा० छण्णोक० णिरयग० चदुजा० - आहारदुगं पंचसंठाणंपंच संघ० - णिरयाणु० - आदावुज्जो०- अप्पस० थावर ०४ थिरादिदो युग ० दूभग० दुस्सर० अणादेज्ज० जस० अज्ज० जह० एग० । उक्क० अंतो० । पुरिस० ओघं । तिरिक्खगदितिगं ओरालि० ओरालिय० अंगोवं० जह० एय० । उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । मणुसग ० वज्जरि० मणुसाणु ० जह० एग० । उक्क० तेत्तीसं सा० | देवग०४ जह० एय० । उक्क० तिष्णि पलिदो० सादिरे० | पंचिंदि०
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हजार वर्ष प्रमाण है' । मनुष्य तथा तिर्यंच आयुका बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए । शेष सातावेदनीय आदि प्रकृतियों का बन्धकाल जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण है ।
२०. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रस, त्रस -पर्यातकों में - ५ ज्ञानावरण, ६ दशनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल क्षुद्रभव प्रमाण है। विशेष यह है कि पर्याप्तकोंमें जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इनका उत्कृष्टकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सहस्र सागरोपम है । विशेष यह है कि पर्याप्तकों में सागरोपम शतपृथकूत्व प्रमाण है । त्रसोंमें दो हजार पूर्वकोटिपृथकत्वाधिक है । इनके पर्याप्तकों में दो हजार सागरोपम प्रमाण बन्धकाल है । सातावेदनीय तथा आयु ४ का बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए । असातावेदनीय, ६
कषाय, नरकगति, ४ जाति, आहारकद्विक, पंच संस्थान, पंच संहनन, नरकानुपूर्वी, आताप, उद्यत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारण, स्थिरादि दो युगल, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्तिका बन्धकाल जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त है । पुरुषवेदका बन्धकाल ओघकी तरह जानना चाहिए । तिर्यंचगतित्रिक, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांगका जघन्य बन्धकाल एक समय उत्कृष्ट साधिक तेतीस सागर है । मनुष्यगति, वज्रवृषभ संहनन, मनुष्यानुपूर्वीका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट तेतीस सागर है । देवगति चतुष्कका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्योपम है ।
१. " बीइंदिया- तीइंदिया- चउरिंदिया बीइंदिय-ती इंदिय तउरिदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं, अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि । " - पटखं०, का०, १२८-१३० ।
२. "पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्तएसु मिच्छादिट्टी के वचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतमुत्तं, उक्कण सागरोवमसहस्साणि, सागरोत्रमसदपुधत्तं ।" - पट्खं०, का०, १३४-१३६ ।
३. "तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिट्टी केवचिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जपणेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण वेसागरोवमसहस्साणि पुञ्चकोडिपुबत्तेण भहियाणि वेसागरोवमसहस्साणि ।" - षट्खं०, का०, १५२ - १५७ /
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पयडिबंधाहियारो परघादुस्सास तस०४ जह० एग० । उक्क० पंचासीदि सागरोवमसद० । समचदु. पसत्थवि० सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-उच्चागो० जह० एग० । उक० मेछावट्ठि-साग० सादि० तिण्णि-पलिदो० देसू० । तित्थय० जह० अंतो० उक्क० तेत्तीसं सादि. सादिरेयाणि । पंचकायाणं-पंचणा०णवदंस०मिच्छत्त०सोलसक० भयदुगुं० ओरालिय-तेजाकम्म० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतरा० जह० खुद्दा० । उक्क० असंखेजा लोगा अणंतकालं असंखेजा पो०, अड्डादिज पोग्गल० । बादरेसु कम्महिदि अंगुलस्स असंखे० कम्मट्ठिदि० । बादरे पज्जत्ते जह• अंतो०, उक्क० संखेआणि वस्ससह । सुहुमे [ पञ्जत ] सुहुमएइंदियभंगो । सेसाणं सादादीणं जह०
पंचेन्द्रिय, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्यातक, प्रत्येकका जघन्य बन्धकाल एक समय है। उत्कृष्टसे १८५ सागरोपम प्रमाण बन्धकाल है। समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट, बन्धकाल कुछ कम तीन पल्योपम अधिक दो छयासठ सागरोपम जानना चाहिए। तीर्थकरका जघन्य बन्धकाल अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है। पंच कायोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा पाँच अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल' क्षुद्रभव है, उत्कृष्ट असंख्यात लोक, अनन्तकाल, असंख्यात पुद्गलपरावर्तन, अढ़ाई पुद्गल परावर्तन है। बादरकायमें कर्म स्थिति अंगुलके असंख्यातवें भाग कर्मस्थिति है। बादर पर्याप्तकोंमें जघन्य बन्धकाल अन्तमुहूर्त तथा उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है।
विशेषार्थ-यहाँ 'कर्मस्थिति' शब्दसे केवल दर्शनमोहनीयकी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम उत्कृष्ट स्थितिका ग्रहण हुआ है। दर्शनमोहनीय कर्मकी स्थितिको प्रधानता देनेका कारण यह है कि उसमें सर्व कर्मोंकी स्थिति संगृहीत है । (ध० टी०,का०,पृ० ४०५)
सूक्ष्म (पर्याप्तकोंमें ) सूक्ष्म एकेन्द्रियके समान भंग है। शेष साता आदि प्रकृतियोंका
१. "असंजदसम्मादिट्री केवचिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ।” -षट् खं०, का०,१३-१५ ।
२. "पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया केवचिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा।'-पट् खं०,का० १३६-१४१ । ३. "बादरपुढवि. काइया बादरआउकाइया बादरतेउकाइया बादरवाउकाइया बादरवणफ्फदिकाइयपत्तेयसरीरा केवचिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण कम्मट्टिदी।"-षट् खं,काल० १४२-४४ । "बादरपुढविकाइया बादरआउकाइया बादरतेउकाइया बादरवाउकाइया बादरवणफ्फदिकाइया-पत्तेयसरीरपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमहत्त, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि ।"-षट खं०,काल०१४५-४७।
शुद्ध पृथ्वीकायिक पर्याप्तकोंकी आयु-स्थिति १२ हजार वर्ष है, खरपृथ्वीकायिक पर्याप्तकोंकी २२ हजार है। जलकायिक पर्याप्तकोंकी ७ हजार वर्ष है, तेजकायिक पर्याप्तकोंकी तीन दिवस, वायकायिक पर्याप्तकोंकी ३ हजार वर्ष, वनस्पतिकायिक पर्याप्तक जीवोंकी स्थितिका प्रमाण दस हजार वर्ष है । इन आयुको स्थितियोंमें संख्यात हजार बार उत्पन्न होनेपर संख्यात सहस्रवर्ष हो जाते हैं ।-ध०टी०का०पृ०४०४
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महाबंधे एग० । उक्क० अंतो० । दो आयु ओघं । णवरि तेज० वाउका० मणुसगदि०४ वजरि० [ वजं ] तिरिक्खगदितिगं धुवभंगो।
२१. पंचमण. पंचवचि०-सव्वपगदीणं बंधे (बंध )कालो जह० एग० । उक्क० अंतो० । एवं वेउविका० आहारका० । का [य] जोगि०-पंचणा० णवदंसणमिच्छत्त०सोलसक०भयदु० ओरालिय-तेजाकं० वण्ण०४ अगुरु० उप० णिमि० पंचंतरा० जह० एग। उक्क० अणंतकालं असंखे०पोग्गलपरियÉ । तिरिक्खगदितिगं
ओघं। सेसाणं सादादीणं जह० एग०। उक्क. अंतो० । ओरालियकायजोगीसुपंचणा०णवदंसण मिच्छत्त०सोलसक० भयदुगुं० ओरालिय - तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचतरा० जह० एग०। उक्क० बावीस-बस्स-सहस्साणि देसू० । तिरिक्खगदि-तिगं जह० एग० उक० तिण्णि-वस्स-सहस्साणि देसू० । सेसाणं सादादीणं जह० एग० । उक्क० अंतो० । ओरालियमिस्स०-पंचणा०णवदंसण मिच्छत्त सोलसक०भयदुगुं० ओरालिय-तेजाक० वण्ण० ४ अगु० उप० णिमिणं पंचतरा जह०
जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यायु तथा तिर्यस्नायुका ओघवत् जानना चाहिए। इतना विशेष है कि तेजकाय और वायुकायमें, मनुष्यगति, मनुष्यायु, मनुष्यानुपूर्वी तथा उच्चगोत्र रूप चतुष्क तथा वज्रषभनाराच संहननको (छोड़कर ) तिर्यश्चगति त्रिकका ध्रुवभंग है।
२१. पाँच मनोयोग, पाँच वचनयोगमें-सर्व प्रकृतियोंका बन्धकाल जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है । ऐसा ही वैक्रियिक काययोग तथा आहारक काययोगमें है। काययोगमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजसकार्मणः शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कष्ट अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरावर्तन है। तिर्यञ्चगतित्रिकका ओघवत है। शेष सातादि प्रकृतियोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है । औदारिक काययोगियोंमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजसकार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम २२ हजार वर्ष है।
विशेषार्थ-एक तिर्यञ्च, मनुष्य या देव २२ हजार वर्षकी आयुवाले एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ और जघन्य अन्तमुहूर्त के पश्चात् उसने पर्याप्तियोंको पूर्ण किया। इससे अपर्याप्त दशामें औदारिकमिश्रके कालको घटाकर औदारिक काययोगका काल कुछ कम २२ हजार वर्ष रहा। अथवा देवका यहाँ एकेन्द्रियों में उत्पाद नहीं कहना चाहिए, कारण, उसके जघन्य अपर्याप्त काल नहीं होगा। (ध० टी०,का०,पृ० ४११)
तिर्यश्चगति-त्रिकका बन्धकाल जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से तीन हजार वर्षसे कुछ कम है । शेष साता आदि प्रकृतियोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से अन्तमुहूर्त बन्धकाल है।
औदारिकमिश्रकाययोगमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस-कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायका जघन्य बन्धकाल तीन समय कम क्षुद्रभव प्रमाण है, उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
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पयडिबंधाहियारो खुद्धा. तिसमऊ. उक्क० अंतो०। दो आयु ओघं । देवगदि०४ तित्थय० जहण्णु० अंतो० । सेसाणं सादासादादीणं जह० एय० उक० अंतो०। वेउव्वियमिस्स०पंचणा०णवदंस०मिच्छत्त०सोलसक०भयदुगुं०ओरालियतेजाक० वण्ण०४ अगु०४ बादर-पजत्त-पत्तेय-णिमि०-तित्थय०पंचंत० जहण्णु० अंतो० । सेसाणं सादादीणं जह० एग. उक्क० अंतो। आहारमिस्स०-पंचणा०छदंसण-चदुसंजल-पुरिस०. भयदु० देवगदि० पंचिं० वेउब्धिय-तेजाक० समचदु० वेउव्यिय-अंगो० वण्ण०४ देवाणु० अगु०४ पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्स०-आदेज-णिमिणं तित्थयं० ( य० ) उच्चागो० पंचंत० जहण्णु० अंतो० । णवरि तित्थय० जह० एग० उक्क० अंतो० ।
विशेषार्थ-एकेन्द्रिय जीव अधोलोकके अन्तमें तीन मोड़े करके क्षुद्रभव-प्रमाण आयुवाला सूक्ष्म वायुकायिक जीव हुआ। वहाँ ३ समय कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक लब्ध्यपर्याप्तक हो जीवित रहकर मरा। पुनः विग्रह करके कार्मण काययोगी हुआ। इस प्रकार तीन समय कम भुद्रभवग्रहण प्रमाण काल सिद्ध हुआ । उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण इस प्रकार जानना चाहिए कि कोई जीव लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर संख्यात भवग्रहण प्रमाण उनमें परावर्तन करके पुनः पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर औदारिककाययोगी बन गया। इन सब संख्यातभवोंका काल मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त के अन्तर्गत ही रहता है। (ध० टी० का० पृ० ४१६)
दो आयुमें ओघवत् जानना चाहिए। देवगति ४ और तीर्थंकरका जघन्य तथा उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। शेष साता आदि प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय तथा उत्कृष्ट बन्धकाल उत्कृष्ट अन्तमुहत प्रमाण है। वैक्रियिकमिश्र काययोगमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस-कार्मण' शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, बादर , पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थकर तथा पाँच अन्तरायका जघन्य तथा उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ-एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिमप्रैवेयकमें दो विग्रह करके उत्पन्न हो सर्वलघु अन्तर्मुहूते में पर्याप्तक हुआ अथवा एक भावलिंगी मुनि दो विग्रह करके सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न हुआ और सर्वलघु अन्तमुहूर्तमें पर्याप्त हुआ। इस प्रकार वैक्रियिकमिश्र काययोगमें जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्ट बन्धकाल भी अन्तमुहूर्त प्रमाण इस प्रकार है कि कोई मिथ्यात्वी जीव सातवें नरकमें उत्पन्न हुआ और सबसे बड़े अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालके अनन्तर पर्याप्त हुआ। इसी प्रकार एक नरक-बद्धायुष्क जीव सम्यक्त्वी हो दर्शनमोहका क्षपण करके मरण कर सबसे बड़े अन्तर्मुहूर्त कालमें पर्याप्तियोंकी पूर्णताको करता है। यहाँ दोनोंमें जघन्य कालसे दोनोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। (ध० टी०,का०, पृ० ४२८-४२६)
शेष साता आदि प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूत है ।
आहारकमिश्र काययोगमें - '५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस- कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य तथा उत्कृष्ट
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महाबंधे
सेसाणं सादादीणं जह० एग० उक्क० अंतो० । कम्मइगका०-देवगदि०४ तित्थय० जह० एग०, उक्क० बेसम० । सेसाणं सव्वपगदीणं जह० एग० उक्क० तिण्णिसम ।
२२. इत्थिवेद०-पंचणा०णवदंस मिच्छत्तं० सोलसक० भयदुगु तेनाक० (तेजाक०) वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतरा० जह० एग०, उक्क० पलिदोपमसदपुधत्तं । णवरि मिच्छ० जह० अंतो० । सादासादा० छण्णंक० (छण्णोक०) दोगदि-चदुजादि-आहारदुगं पंचसंठाण-पंचसंघ दो-आणु० आदा-वुओ०अप्पसत्थ० थावर०४ थिरादिदोयुग० दुभग-दुस्सर-अणादेज० जस० अअस० णीचागो० जह० एग०, उक० अंतो० । पुरिस० मणुसगदि० पंचिंदि० समचदु० ओरालिय० अंगो० बजरिस० मणुसाणु-पसत्थ० तस-सुभग-सुस्सर-आदेज० उच्चा०
बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेष यह है कि तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य बन्धकाल एक समय', उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूत है। शेष सातादि प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। कार्मण'काययोगमें - देवगति ४, तीर्थकरका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट दो समय प्रमाण बन्धकाल है । शेप सर्व प्रकृतियोंका जघन्य एक समय उत्कृष्ट तीन समय है।
विशेषार्थ - सासादन या असंयतसम्यक्त्वी कार्मणकाययोगियोंका सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेका अभाव है । वृद्धि और हानिके क्रमसे विद्यमान लोकान्तमें भी इनकी उत्पत्ति नहीं होती । इससे उत्कृष्ट दो समय कहा है। .
तीन समय प्रमाण बन्धकाल इस प्रकार है-एक सूक्ष्म एकेन्द्रियजीव अधस्तन सूक्ष्म वायुकायिकोंमें तीन विग्रहवाले मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त हुआ। पुनः अन्तर्मुहूर्तसे छिन्नायुष्क होकर उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लगाकर तीन विग्रहामें तीन समय तक कामणकाययोगी रहकर तथा चौथे समयमें औदारिकमिश्र काययोगी हो गया। तीन विग्रह करनेकी दशा इस प्रकार है। ब्रह्मलोकवर्ती प्रदेशपर वाम दिशासम्बन्धी लोकके पर्यन्त भागसे तिरछे दक्षिणकी ओर तीन राजू प्रमाण जा, पुनः १०३ राजू नीचेकी ओर इषुगतिसे जाकर, पश्चात् सामनेकी ओर चार राजू प्रमाण जाकर कोणयुक्त दिशामें स्थित लोकके अन्तवर्ती सूक्ष्मवायुकायिकोंमें उत्पन्न होनेवालेके ३ विग्रह होते हैं। (ध० टी०,का० ४३४-४३५)
२२. स्त्रीवेदमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट पल्योपम शतपृथक्त्व है। विशेष यह है कि मिथ्यात्वका बन्धकाल जघन्यसे अन्तमुहूर्त है। साता असाता वेदनीय, ६ नोकपाय, दो गति, ४ जाति, आहारकद्विक, पंच संस्थान, ५ संहनन, दो आनुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर४, स्थिरादि दोयगल.दर्भग.दस्वर.अनादेय.यशःकीर्ति अयशःकीर्ति.नीचगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त है । पुरुष वेद, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक अंगोपांग, वनवृषभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, सुभग,
१. "आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त ।"-षट खं०, काल०,२१३-१६ ।
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पयडिबंधाहियारो जह० एग० । उक्क० पणवण्णं पलिदोवमं देसू० । चदुआयु ओघं । देवगदि०४ जह० एग० । उक्क० तिणिपलिदोप० देसू० । ओरालिय० परघादुस्सास० बादर-पजत्तपत्तेय० जह० एग० । उक्क० पणवण्णं पलिदो० सादिरे० । तित्थय० जह० एग । उक्क० पुवकोडिदेसू० । पुरिसवे०-पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदुगु तेजाकम्म० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतरा० जह० अंतो० । उक्क० सागरोपमसदपुध० । पुरिसवेद ओघं। मणुसगदिपंचगं जह० एग० । उक० तेत्तीसं सा० । देवगदि०४ जह० एग० । उक० तिण्णि पलिदोप० सादिरे | पंचिंदिय-परघादुस्सा० तस०४ जह० एग०। उक्क० तेवढिसागरोवमसदं०(द०)। समचदु०पसत्थवि०सुभग-सुस्सर० आदेज० उच्चा० जह० एग० । उक्क० बेछावद्विसाग० सादि० तिण्णि
सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट देशोन ५५ पल्योपम प्रमाण है।
विशेषार्थ - एक जीव ५५ पल्य स्थितिवाली देवी रूपसे उत्पन्न हुआ। उसने छह पर्याप्ति पूर्ण की, अन्तर्मुहूर्त विश्राम किया, पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त किया । पश्चात् जीवन पूर्ण करके मरण किया । अतः उसके तीन अन्तर्मुहूर्त कम ५५ पल्योपम प्रमाणकाल सम्यक्त्वयुक्त स्त्री-वेदका है, उसमें पुरुषवेदादिका बन्ध करनेके कारण उनका बन्धकाल देशोन ५५ पल्योपम कहा है ।
चार आयुका ओघवत् जानना चाहिए । देवगति चतुष्कका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम तीन पल्योपम बन्धकाल है। औदारिक शरीर, परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येकका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक ५५ पल्योपम बन्धकाल है। तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है। पुरुषवेद में-५ ज्ञानावरण, : दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मणं शरीर, वर्ण४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायका बन्धकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट से सागरोपम शतपृथक्त्व है । पुरुषवेदका बन्धकाल ओघवत् है।
विशेष - इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि स्त्री और नपुंसकवेदी जीवोंमें बहुत बार भ्रमण करता हुआ कोई एक जीव पुरुषवेदी हुआ, सागरोपम शत पृथक्त्वकाल पर्यन्त भ्रमण करके अविवक्षित वेदको प्राप्त हो गया । (ध० टी०,का० पृ० ४४१) ।
मनुष्यगतिपंचक अर्थात् मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, वनवृषभनाराच संहनन, औदारिक शरीर, औदारिक आंगोपांगका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट ३३ सागर प्रमाण है। देवगति ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्योपम है । पंचेन्द्रिय, परघात, उच्छवास, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट १६३ सागरोपम है । समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट बन्धकाल कुछ कम तीन पल्याधिक छयासठ सागरोपम जानना चाहिए।
१. "इत्थिवेदेसु असंजदसम्मादिट्टी केवचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहत्त उक्कस्सेण पणवणपलिदोवमाणि देसूणाणि । सासणसम्मादिट्टी ओघं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ।" षट् खं०,का०,५,७, २३०, २३४ ।
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महाबंध
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पलिदो ० देसू० । सादादि ज० [एग० उक० अंतो०] । आयुगचदुक्ख (कं) इत्थभंगो | तित्थयरं ओघं । णपुंसक० - पंचणा० णवदंसण० मिच्छत्त० सोलसक० भयदुगु • ओरालिय० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतरा० जह० एग०, मिच्छतं खुद्रा० । उक्क० अनंतकालं असंखे० । पुरिस० मणुस० समचदु० वज्जरिसभसंघ ० मसाणु० पसत्थ० सुभग- सुस्सर-आदेज० जह० एग० । उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० / तिरिक्खगदितिगं ओघं० । देवगदि ०४ जह० एग० उक्क० पुव्वकोडिदेसू० । पंचिंदिय० ओरालिय अंगो० परघादुस्सा० -तस०४ जह० एग० । उक्क० तेत्तीसं सा० सादिरे० । सादादीणं जह० एग० । उक्क० अंतो० । तित्थय० जह० एग० । उक्क० तिष्णि सागरो० सादिरे० । अवगद० - पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० पु० जस० उच्चागो० पंचत० जह० एग० । उक्क० अंतो० । सादावे० ओघं । सुहुम संप० - पंचणा०
सातादिकका जघन्यसे [ एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ] आयुचतुष्कका स्त्रीवेद के समान भंग है। तीर्थंकरका ओघवत् है । नपुंसक वेदमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक- तैजस- कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा पाँच अन्तरायोंका बकाल जघन्यसे एक समय है, किन्तु मिध्यात्वका क्षुद्रभव प्रमाण है । इनका उत्कृष्ट बन्धकाल असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रपभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेयका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट बन्धकाल कुछ कम तैंतीस सागर प्रमाण है ।
विशेषार्थ - मोहनीयको २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई जीव मरण कर सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न हुआ। छह पर्याप्तियोंको पूर्ण कर तथा विश्राम ले, विशुद्ध होकर, सम्यक्त्व को प्राप्त किया, एवं आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त कर आगामी भवी आयु किया । अन्तर्मुहूर्त विश्राम करके मरण किया। उसके छह अन्तर्मुहूर्त कम ३३ सागरप्रमाण बन्धकाल होगा । ( ० टी०, काल०, ४४३ ) तिर्यंचगतित्रिकका ओघ के समान भंग है । देवगति ४ का जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट बन्धकाल कुछ कम पूर्व कोटि है। पंचेन्द्रिय, औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, त्रस ४ का जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट साधिक तेंतीस सागर है । साता आदिक प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । तीर्थ कर प्रकृतिका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन सागर है । अपगत वेद में-५ ज्ञानावरण, पंच निद्राओंका अभाव होनेसे शेष चार दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है । सातावेदनीयका ओघवत् है । सूक्ष्मसाम्पराय संयम में-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त बन्धकाल है ।
विशेषार्थ - उपशम श्रेणीकी अपेक्षा यह बन्धका काल कहा गया है । क्षपककी अपेक्षा
१. नवसयवेदेसु मिच्छादिट्टी केवचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्त, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियहं ।"-पट खं०, का०,२४०-४२ ।
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पबंधायारो
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चदुदंस० सादा० जस० उच्चा० पंचत० जह० एग० । उक्क० अंतो० । कोधादि०४पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० पंचंत० जहण्णु० अंतो० । सेसाणं जह० एग० । उक्क० अंतो० । णवरि माणे तिष्णि संज० । मायाए दोणि संज० । लोभे० - पंचणा० चदुदंस० लोभसंज० पंचंतरा० जहण्णु० - अंतो० | सेसाणं जह० एग० । उक्क० अंतो० । अकसाई० - सादावे० ओघं । एवं यथाखादं । एवं चेव केवलणा० केवलदं० । णवरि जह० अंतो० ।
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२३. मदि० - सुद० - पंचणा० णवदंस० मिच्छत्तं सोलस० भयदु० तेजाक० वष्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० तिष्णि भंगो ओघं । तिरिक्खगदि-तिगं ओघं । मणुसग० मणुसाणुपु० जह० एग० । उक्क० एकतीसं ० सादिरे० | देवगदिवेव्वियस० समचदु० वेउव्वि० अंगो० देवगदिपाओ० पसत्थ० सुभग-सुस्सर
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जघन्य और उत्कृष्ट दोनों अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हैं ' ।
क्रोधादि चतुष्क में - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, ५ अन्तरायका बन्धकाल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। शेपका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त बन्धकाल है । विशेष यह है कि मानकपाय में तीन संज्वलन, माया कषाय में दो संज्वलनका बन्ध है । लोभकषायमें - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, संज्वलन लोभ, ५ अन्तरायका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। शेष प्रकृतियों का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त बन्धकाल है । अकषायियोंमें-- सातावेदनीयका ओघवत् बन्धकाल है। इसी प्रकार यथाख्यात संयममें जानना चाहिए। केवलज्ञान, केवलदर्शन में भी ऐसा ही जानना चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
२३. मत्यज्ञान, श्रुताज्ञानमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायके तीन भंग ओघवत् जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - अभव्यसिद्धिक जीवकी अपेक्षा अनादि अपर्यवसित काल है । भव्यसिद्धिकके मिध्यात्वका अनादि सपर्यवसित काल है। तीसरा भंग सादि सान्तका है । इसी तीसरे भंगमें जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन अर्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण बन्धकाल है । ( ध० टी०, काल०, ३२४-३२५ )
तिर्यंचगति- त्रिकका ओघके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वीका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक ३१ सागर प्रमाण बन्धकाल है । देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग,
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१. " चउन्हं उवसमा केवचिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त चदुहं खवगा एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त ।" - षटू खं०, काल०, २२-२८ ।
२. "एगजीवं पडुच्च अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवसिदो । जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिद्देसो जहणेण अंतोमुहुत्त उवकस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं ।" - षट् खं०, काल०, ३१०-३१३ ।
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महाबंधे आदेज० उच्चा० जह० एग० । उक्क० तिग्णि पलिदो० देसू० । पंचिंदि० ओरालि. अंगो० परघादु० सा० (दुस्सा०) तस०४ जह० एग० । उक्क० तेत्तीसं सा० सादिरे । ओरालियस्स० जह० एग०। उक्क० अणंतकालं असंखे० । आयु ओघं । सेसं जह० एग० । उ० अंतो० । एवं मिच्छादिट्टि० अब्भवसिद्धि० एवं चेव । णवरि धुवियाणं अणादियो अपज्जवसिदो। विभंगे०-पंचणा० णवदंस० मिच्छत् सोलसक० भयदुगुं० तिरिक्खगदि० पंचिंदि० ओरालिय-तेजाकम्म० ओरालिय० अंगो० वण्ण०४ तिरिक्खगदि-पाओ० अगु०४, तस०४ णिमिणं णीचा० पंचंत० जह० एग०, मिच्छत्तं० अंतो० । उक्क० तेत्तीसं सा० देसू०। मणुसग० मणुसाणु० जह० एग० । उक० एकत्तीसं देसू०। आयु ओघं । सेसाणं जह० एग० । उक. अंतो० । आभि. सुद० ओधिणा०-पंचणा० छदंस० चदुसंज. पुरिस० भयदु० पंचिंदिय० तेजाक० समचदु० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्स० आदे० णिमि० सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट देशोन तीन पल्य प्रमाण है। पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक अंगोपांग, परयात, उच्छ्वास तथा त्रस ४ का जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है । औदारिक शरीरका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरावर्तन है । आयुका ओघवत् है । शेषका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि में भी जानना चाहिए । अभव्यसिद्धिकों में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष यह है, कि अभव्योंमें ध्रव प्रकृतियोंका बन्धकाल अनादि अपर्यवसित अर्थात् अनन्त काल है। विभंगावधिमें५ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर,औदारिक अंगोपांग, वर्ण ४, तिय चगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, त्रस ४, निर्माण, नीचगोत्र और ५ अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल एक समय है, किन्तु मिथ्यात्वका जघन्य अन्तमुहूर्त तथा उत्कृष्ट वन्धकाल देशोन ३३ सागर है ।
विशेषार्थ - एक मिथ्यात्वी सातवीं पृथ्वी में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्तमें पर्याप्तियोंको पूर्ण कर विभंगज्ञानी हुआ। आयुके ३३ सागर पूर्ण कर मरण करके निकला, तब उसका विभंग ज्ञान नष्ट हो गया, कारण अपर्याप्त कालमें विभंग ज्ञानका विरोध है। इस प्रकार उत्कृष्ट बन्धकाल देशोन ३३ सागर प्रमाण है । (ध० टी०, काल,पृ० ४५०)
मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वीका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोन इकतीस सागर बन्धकाल है।
विशेषाथे - एक द्रव्यलिंगी साधु मरण कर ग्रैवेयकमें उत्पन्न हुआ। ३१ सागरकी आयु प्राप्त की । यहाँ अंतर्मुहूर्त में पर्याप्त हो विभंगावधिको प्राप्त करके शेष ३१ सागर प्रमाण काल व्यतीत करके मरा । उसके अंतर्मुहूर्त कम ३१ सागर प्रमाण मनुष्य द्विकका बंधकाल होगा। .
आयुका ओघके समान बंधकाल है। शेषका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त बंधकाल है।
आभिनिबोधिक श्रुतज्ञान, अवधिज्ञानमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस. कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र तथा ५
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पयडिबंधाहियारो उचा० पंचंत० जह• अंतो०, उक० छावट्टि. सागरोप० सादिरे । सादासा० हस्सरदि० अरदि० सो० आहारदुर्ग थिरादितिणियु० जह० एग० उक० अंतो० । अप्पच्चक्खाणावर०४ तित्थयरं जह० अंतो० । उक० तेत्तीसं सा० सादि० । अपचक्खाणा० (पचक्खाणा० ) ४ जह० अंतो० । उक्क० बादालीसं सा० सादि० । अथवा तेत्तीसं सा० सादिरे० परिजदि । दो-आयु ओघं । मणुसगदि-पंचगंजह ० अंतो० । उक्क० तेत्तीसं सा० । देवगदि०४ जह० एग० । उक० तिण्णि-पलिदो० सादि० । एवं ओधिदं० । एवं चेव सम्मादिहि । णवरि सादं ओघं । मणपज्जव०-पंचणा० छदसण० चदुसंज. पुरिस० भयदु० देवगदि० पंचिंदि० वेउ० तेजाक० समचदु० वेउचि० अंगोवं० वण्ण०४ देवगदि-पाओ० अगु०४ पसत्थ० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदेज. णिमि० तित्थयरं उच्चा० पंचंत० जह० एग० । उक्क० पुवकोडिदेसू० । सादासा० चदुणो० आहारदुगं० थिरादि-तिण्णि-युग जह० एग० । उक्क० अंतो० । देवायु ओघं ।
२४. एवं संजदासामाइ० छेदो० । णवरि संजदे सादं ओघं। परिहार-संजदा
अन्तरायका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक ६६ सागर प्रमाण है। साता. असाता वेदनीय, हास्य-रति, अरति-शोक, आहारकद्विक और स्थिरादि तीन युगलका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्महत बन्धकाल है। अप्रत्याख्यानावरण ४, तीर्थकरका जघन्य अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है। प्रत्याख्यानावरण ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक ४२ सागर प्रमाण है। अथवा कुछ अधिक तेतीस सागर बन्धकाल जानना चाहिए । दो आयुका ओघके समान है। मनुष्यगति-पंचकका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूते, उत्कृष्ट ३३ सागर है । देवगति ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्य बन्धकाल है । अवधिदर्शनमें इसी प्रकार जानना चाहिए। सम्यग्दृष्टियोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेष यह है कि साता वेदनीयका ओघके समान भंग जानना चाहिए। मनःपर्ययज्ञानमें -
ज्ञानावरण,६ दशनावरण,४संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक-तैजस- कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्तविहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और ५ अन्तरायका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि बन्ध
विशेषार्थ - एक कोटि पूर्वकी आयुवाले किसी मनुष्यने गर्भकालसे लेकर आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल व्यतीत करके सकल संयमी बन मनःपर्ययज्ञानको उत्पन्न किया। जीवन भर मनःपर्ययसंयुक्त रहा, किन्तु मरणके अन्तर्मुहूर्त रहनेपर नीचेके गुणस्थानमें आकर मरण किया, इस प्रकार देशोनपूर्व कोटि काल है।
साता-असाता वेदनीय, ४ नोकषाय, आहारकद्विक, स्थिरादि तीन युगलका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त बन्धकाल है । देवायुका ओघके समान है ।
२४. इस प्रकार संयत तथा सामायिक छेदोपस्थापना संयतमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि संयम मार्गणामें साता वेदनीयका ओघवत् जानना चाहिए।
परिहारविशुद्धिसंयतों तथा संयतासंयतोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए।
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महाबंधे संजदाणं एवं चेव । णवरि धुविगाणं जह० अंतो०, असंजदे धुविगाणं मदिभंगो। पुरिस० पंचिंदि० समचदु० ओरालिय० अंगो० परघादुस्सा० पसत्थ. तस०४ सुभग-सुस्सर-आदे० उच्चा० जह० एग० । उक० तेत्तीसं सादिरे । तिरिक्खगदितिगं मणुसग० बजरिस० मणुसाणु० देवगदि०४ आयु. तित्थयरं च ओघं । सेसाणं जह० एग० । उक० अंतो०। चक्खु-दस० तम-पज्जत्तभंगो । णवरि सादा० जह० एग: । उक० अंतो० । अचक्खुद ओघ । णवरि साद चक्खुद भंगो०।
२५. किण्ण० णील० काउ०--पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु०
परिहार विशुद्धि संयमके विषयमें 'खुदाबंध' में लिखा है संजमाणुवादेण संजदा परिहारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उपक- . स्सेण पुवकोडिदेसूणा ( १४७, १४८, १४६ सूत्र )।
संयम मार्गणाके अनुसार संयत, परिहार शुद्धि संयत तथा संयतासंयत कितने कालतक रहते हैं ? कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त अन्तर है। उत्कृष्ट से कुछ कम पूर्व कोटि है । धवला टीकामें लिखा है- "गर्भसे लेकर आठ वर्षोंसे संयमको प्राप्त कर और कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक संयमका पालन कर व मरकर देवोंमें उत्पन्न हुए मनुष्यके कुछ कम पूर्वकोटि मात्र संयमकाल पाया जाता है। इसी प्रकार . परिहारशुद्धिसंयतका .भी उत्कृष्ट काल कहना चाहिए। विशेष इतना है कि सर्वसुखी होकर तीस वर्षोंको बिताकर पश्चात् वर्ष पृथक्त्वसे तीर्थ करके पादमूलमें प्रत्याख्यान नामक पूर्वको पढ़कर पुनः तत्पश्चात् परिहारशुद्धि संयमको प्राप्त कर और कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष तक रहकर देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके उपयुक्त काल प्रमाण कहना चाहिए । इस प्रकार अड़तीस वर्षों से कम पूर्व कोटि वर्षे प्रमाण परिहार शुद्धि संयमका काल कहा गया है। कोई आचार्य सोलह वर्षोंसे और कोई बाईस वर्षोंसे कम पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण कहते हैं। इसी प्रकार संयतासंयतका भी उत्कृष्ट काल जानना चाहिए। विशेष यह है कि अन्तर्मुहू ते पृथक्त्वसे कम पूर्व कोटि वर्ष संयमासंयमका काल होता है । (क्षुद्रक बन्ध २, ७ पुस्तक,पृ० १६७) ।
खुद्दाबन्धका कथन - सामान्यतया संयम, परिहारविशुद्धि संयम, संयमासंयम, सामान्यकी अपेक्षा कहा गया है। महाबन्धका प्रतिपादन संयम, परिहारविशुद्धि संयम, संयमामंयममें बँधनेवाली कर्मप्रकृतियोंकी अपेक्षा किया गया है।
विशेष, ध्रुव प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है, किन्तु असंयतोंमें ध्रुव प्रकृतियोंका बन्धकाल मत्यज्ञानके समान है । पुरुषवेद, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, ज्कृष्ट साधिक ३३ सागर है। तिर्यञ्चगति-त्रिक, मनुष्यगति, वज्रवृषभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी, देवगति, ४ आयु तथा तीर्थंकरका ओघके समान काल है। शेषका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। चक्षुदर्शनमें त्रस पर्याप्तकोंका भंग जानना चाहिए । विशेष यह है कि सातावेदनीयका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बन्धकाल है । अचक्षुदर्शनमें ओघवत् है। यहाँ यह विशेष है कि साता वेदनीयका चक्षुदर्शन के समान भंग है।
२५. कृष्ण-नील-कापोत लेश्यामें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस-कार्मण, वर्ण ४ अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंका
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पयडिबंधाहियारो तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० जह० अंतो०, उक्क ० तेत्तीसं सत्तारससत्तसा० सादिरे । सादासा० छण्णोक० दोगदि० चदुजादि० वेउवि० पंचसं० वेउवि० अंगो० पंचसंघ० दो-आणु० आदाउज्जो० अपसत्थ० थावरादि०४ थिरादि-दोणियुग० दूभग-दुस्सर-अणादेज्ज ० जह० एग । उक्क • अंतो० । पुरिस० गणुस० समचदु० वज्जरिस० मणुसाण० पसत्थवि० सुभगं० सुस्स० आदेज्ज ० उच्चा० जह० एग० । उक्क ० तेत्तीसं सत्तार [स] सत्त-साग० देसू० । चदुआयु० जहण्ण० अंतो० । तिरिक्खगदि-पंचिंदि० ओरालि० ओरालि. [ अंगो० ] तिरिक्खाणुपु० परघादु० तस०४ गीचा० जह० एग० । उक्क० तेत्तीसं-सत्तारस-सत्तसागरो० सादिरे० । णवरि
जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट बन्धकाल ३३ सागर है, १७ सागर है, सात सागर प्रमाण है।
विशेषार्थ - नीललेश्याधारी कोई जीव कृष्णलेश्यायुक्त हो, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण विश्राम कर मरण करके सातवीं पृथ्वीमें ३३ सागरप्रमाण कृष्णलेश्यास हित रहा। मरण कर अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त भावनावश वही लेश्या रही। इस कारण दो अन्तर्मुहूर्तोसे अधिक ३३ सागरोपम कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट काल रहा । मिथ्यात्वादिका बन्धकाल भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इसी प्रकार पाँचवीं पृथ्वी में उत्पत्तिकी अपेक्षा नीललेश्यामें साधिक १७ सागर तथा तीसरे नरककी अपेक्षा कापोत लेश्यामें साधिक सात सागर प्रमाण बन्धकाल कहा है। (ध० टी०,काल०,४५७-४५८)
साता-असाता वेदनीय, ६ नोकपाय, दो गति, ४ जाति, वैक्रियिक शरीर, ५ संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, ५ संहनन, दो आनुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावरा. दिचतुष्क, स्थिरादि दो युगल, दुर्भग, दुस्वर, अनादेयका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वनवृषभनाराचसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका बन्धकाल जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से देशोन ३३ सागर, १७ सागर तथा ७ सागर है।
विशेषार्थ - कोई २८ मोहनीयकी सत्तायुक्त मिथ्यात्वी जीव तीसरी, पाँचवीं तथा सातवीं पृथ्वीमें उत्पन्न हुआ। वहाँ पर्याप्ति पूर्ण करके दूसरे अन्तर्मुहूर्त में विश्राम लिया। तथा तीसरेमें विशुद्ध होकर चौथे अन्तर्मुहूर्त में वेदक सम्यक्त्व धारण किया और तीसरी तथा पाँचवीं पृथ्वीमें सात तथा १७ सागर प्रमाण क्रमशः पुरुषवेदादिका बन्ध किया, पश्चात् मरण किया । अतः सात तथा सत्रह सागर में मिथ्यात्व दशाके तीन अन्तर्मुहूर्त कम होते हैं। सातवीं पृथ्वीमें ६ अन्तर्मुहूर्त कम होते हैं। कारण वहाँ से मिथ्यात्वके बिना निर्गमन नहीं होता है । मरणके एक अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हुआ। दूसरे अन्तर्मुहूर्त में आयुबन्ध किया, तीसरेमें विश्राम किया, बाद में निर्गमन किया। इस प्रकार पूर्वके तीन और पश्चात्के तीन इस प्रकार ६ अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर प्रमाण बन्धकाल है । ( ध० टी०, काल०,३५९, ३६२)
__ चार आयुका जघन्य तथा उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । तियचगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, औदारिक [ अंगोपांग ], तिर्यंचानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, त्रस ४
तथा नीच गोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है, १७ सागर तथा ७ सागर Jain Education Interna Real
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महाबंधे तिरिक्खगदि-तिगं णील० काउ० साद० भंगो । किण्ण० णील. तित्थय० जहण्णु० अंतो० | काउ० जह० अंतो०। उक्क० तिणि साग० सादिरे० । तेउ०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० पुरिसवे० भयदुगु० मणुसगदि० पंचिंदि० तेजाक० समचदु० ओरालि० अंगो० वञ्जरिस० वण्ण०४ मणुसाणु० अगु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सरादेज० णिमि० तित्थयं० उच्चा० पंचंतरा० जह० अंतो० । थीणगिद्धितिगं० अणंताणुवं०४ एय० । उक्क० बेसागरोप० सादिरे । णवरि केसिंच० जह० एगस० । तिणि आयु० देवगदि०४ जहण्णु० अंतो० । ओरालिय० जह० दसवस्ससहस्साणि देसू० अथवा पलिदोपमं सादि० । उक० बेसागरोप० सादिरे । सेसाणं जह० एग०, उक्क० अंतो० । पम्माए-पंचणा० णवदं० मिच्छत्तं सोलसक० पुरिस० भयदुगुं० मणुसग० पंचिंदि० तेजाकम्म० समचदु० वञ्जरिस० वण्ण०४ मणुसाणु० अगुरु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदे० णिमि० उच्चागो० तित्थय० पंचंतरा० जह० अंतो० । थीणगिद्धि० अणंताणु०४ एएस० । उक्क० अट्ठारस० सादि० । बन्धकाल है। विशेष यह है कि तिर्यंचगतित्रिकका नील तथा कापोत लेश्यामें साता वेदनीयकी भाँति बन्धकाल समझना चाहिए । कृष्ण-नील लेश्यामें तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है । कापोत लेश्यामें जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट साधिक तीन सागर है । तेजोलेश्यामें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, पुरुष वेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस, कार्मण , समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभनाराचसंहनन, वर्ण ४, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु४, प्रशस्त विहायोगति, प्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य एक समय, तथा पूर्वोक्त ज्ञानावरणादि सबका उत्कृष्ट बन्धकाल साधिक दो सागर है। विशेष यह है कि किन्हीं आचार्योंके मतसे उपरोक्त जघन्य रूपसे अन्तमुहूते बन्धकालवाली ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय प्रमाण है।
विशेषार्थ - एक मिथ्यात्वी कापोतलेश्याके कालक्षयसे तेजोलेश्यावाला हो गया। उसमें अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रहकर मरा । सौधर्म कल्पमें पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक दो सागर प्रमाण जीवित रहकर च्युत हुआ। उसकी तेजोलेश्या नष्ट हो गयी। इस प्रकार पूर्वके अन्तर्मुहूर्तसे अधिक सौधर्म कल्पकी स्थिति प्रमाण कापोतलेश्या रही। इस दृष्टिको लक्ष्य में रखकर मिथ्यात्वादिका उत्कृष्ट बन्धकाल कहा गया है । (ध० टी०, काल०, पृ० ४६३)
तीन आयु, देवगति ४ का जघन्य तथा उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त प्रमाण बन्धकाल है। औदारिक शरीरका जघन्य बन्धकाल कुछ कम १० हजार वर्ष अथवा साधिक पल्य है । उत्कृष्ट बन्धकाल साधिक दो सागर है। शेषका जघन्य बन्धकाल एक समय तथा उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तमुहूर्त है। पद्मलेश्यामें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस-कार्मण झरीर, समचतुरस्रसंस्थान वज्रवृषभसंहनन, वणे ४, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र, तीर्थकर और ५ अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल अन्तर्महर्त है । स्त्यानगृद्वित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य एक समय, तथा पूर्वोक्त ज्ञानावरणादि
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पयडिबंधाहियारो णवरि केसिंच एगस० । ओरालिय० ओरालिय० अंगो० जहण्णे० बेसाग० सादिरे। उक्क० अट्ठारस० सादिरे० । सेसं तेउभंगो। णवरि एइंदि० आदाव-थावरं णत्थि । सुकाए - पंचणा०छदसण०(णा०)वारसक०पुरिसवे० भयदु तेजाकम्म०समचदु०वण्ण०४ अगु० पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदेज० णिमिणं तित्थयर० उच्चा० पंचंतरा० जह० एग० । धुविगाणं अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादिरे । थीणगिद्धितिगं अणंताणु०४ जह० एग०, मिच्छ० अंतो० । उक ० एकत्तीसं सादि० । दो आयु० सादादीणं च ओघं । मणुसग० ओरालिय० ओरालिय० अंगो० मणुसाणुपु० जह० अट्ठारस० सादिरे० उक्क तेत्तीसं० । वारिसभ० जह० एग० । उक्क० तेत्तीसं० । सेसाणं
सबका उत्कृष्ट साधिक १८ सागर है। विशेष, उपरोक्त ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका जघन्यकाल किन्हीं आचार्यों के मतमें अन्तर्मुहूर्तकी जगह एक समय प्रमाण है।
विशेषार्थ - वर्धमान तेजोलेश्यावाला कोई एक मिथ्यात्वी जीव अपने कालके क्षीण होनेपर पद्मलेश्यावाला हो गया। उसमें अन्तर्मुहूर्त रहकर मराऔर शतार-सहस्रारस्वर्गवासी देवोंमें जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक १८ सागर जीवित रहकर च्युत हुआ, तब पद्मलेश्या नष्ट हो गयी। उसकी अपेक्षा इस लेश्यामें ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट बन्धकाल कहा है।
औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांगका जघन्य साधिक दो सागर, उत्कृष्ट साधिक १८ सागर बन्धकाल है । शेष प्रकृतियोंका बन्धकाल तेजोलेश्याके समान जानना चाहिए । विशेष यह है कि पद्मलेश्यामें एकेन्द्रिय, आताप और स्थावरका बन्ध नहीं है।
शुक्ललेश्यामें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, तैजस कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु, प्रशस्तविहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल एक समय है । किन्तु ध्रुव प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। इन सबका उत्कृष्ट बन्धकाल साधिक ३३ सागर है।
विशेषार्थ - एक मनुष्य शुक्ललेश्यासहित अन्तर्मुहूर्त रहकर मरा और सर्वार्थसिद्धिमें ३३ सागर पर्यन्त शुक्ललेश्यायुक्त रहा । पश्चात् मरण किया। इस प्रकार शुक्ललेश्याका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर प्रमाण रहा । (ध० टी०काल०,३४७, ४७३)
स्त्यानगृद्धित्रिक तथा अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य बन्धकाल एक समय, मिथ्यात्वका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, तथा इनका उत्कृष्ट बन्धकाल साधिक ३१ सागर है ।
विशेषार्थ - एक द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि साधु मरणके समीपमें अन्तमुहूर्त पर्यन्त शुक्ललेश्या धारण कर मरा और द्रव्यसंयमके प्रभावसे उपरिम |वेयकमें शुक्ललेश्यायुक्त ३१ सागरकी आयुवाला अहमिन्द्र हुआ और अपनी स्थिति पूर्ण होनेपर उसी क्षण शुक्ललेश्यारहित होकर च्युत हुआ। उसके प्रथम अन्तर्मुहूर्त अधिक ३१ सागर प्रमाण बन्धकाल होगा। (ध० टी०,काल०,पृ० ४७२)
दो आयु तथा साता आदिक प्रकृतियोंका बन्धकाल ओघके समान है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, मनुष्यानुपूर्वीका जघन्य बन्धकाल साधिक १८ सागर तथा उत्कृष्ट ३३ सागर है।
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महाबंधे जह० एग०, उक्क० अंतो० । भवसिद्धिया ओघं । णवरि अणादिओ अपज्जवमिदो णथि।
२६. खइगं-आभिणिभंगो। णवरि धुविगाणं जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादिरे० । मणुसगदि-पंचगं जह० चदुरासीदि-वस्स-सहस्साणि, उक्क ० तेत्तीसं सा० । सादावे० दो आयु० देवगदि०४ ओघं । वेदगसं०-धुविगाणं जह० अंतो०, उक्क० बावहिसागरो० । मणुसगदिपंचग जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० । देवगदि०४ जह० अंतो०, उक्क० तिण्णि-पलिदोप० देसू० । सेसं ओधिभंगो । उवसम०-पंचणा० छदंस० बारसक० पुरिस० भयदुगुं० मणुसगदिपंचगं पंचिदिय० तेजाकम्म० समचदु० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदेज्ज णिमिणं तित्थयरं उच्चागो० पंचंत० जहण्णु० अंतो० । सेसाणं पगदी० जह० एग०, उक्क० अंतो० ।
वनवृषभसंहननका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट ३३ सागर बन्धकाल है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। भव्यसिद्धिकोंमें - ओघके समान है । विशेष, यहाँ अनादि अनन्त रूप भंग नहीं है ।
• २६. क्षायिकसम्यक्त्वमें - आभिनिबोधिक ज्ञानके समान भंग है। विशेष ध्रुव प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है। मनुष्यगति ५ का जघन्य बन्धकाल ८४ हजार वर्ष और उत्कृष्ट ३३ सागर है। सातावेदनीय, २ आयु, देवगति ४ का ओघके समान है। वेदकसम्यक्त्वमें ध्रुव प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट ६६ सागर है।।
विशेष - वेदकसम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर प्रमाण है । इससे ध्रुव प्रकृतियोंका बन्धकाल भी उतना ही कहा है।
मनुष्यगति ५ का जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ३३ सागर है। देवगति ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम तीन पल्य है। शेष प्रकृतियोंका अवधिज्ञानके समान बन्धकाल है। उपशमसम्यक्त्वमें - ५ ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिकके बिना ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति ५, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस-कार्माण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर,
निमोण, तीर्थकर तथा उच्चगोत्र एवं ५ अन्तरायोंका जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है।
१. "असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति ? एगजोवं पडुच्च जहण्णण अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि ।....."खइयसम्मादिट्टीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ।"-षट् खं०,काल०,१४, १५, ३१७।।
२. "उवसमसम्मादिट्टीसु असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदा केवचिरं कालादो होंति ? एकजीवं पडुच्च जहण्णेण अंन्तोमुहत्तं, उक्कस्सेण अनोमुहत्तं। पमत्तसजदप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थात्ति केवचिरं कालादो होति ? एकजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।” -पद खं०, काल, ३१९-२४।
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पडबंधाहियारो
सासणे - पंचणा ०णवदंसण ० ( णा० ) सोलसक० भयदु० तिष्णिगदि० पंचिंदि० चदुसरी ० समचदु ० दो -अंगो० वण्ण०४ तिणि आणुपुव्वि० अगु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभगसुस्सर-आदे० णिमिणं णीचुच्चागो० पंचंतरा० जह० एग०, उक्क० छावलियाओ । तिण्णि - आयु० ओघं । सेसाणं जह० एग०, उक्क० अंतो० । सम्मामि० - सादासादा० चदुणोक० थिरादि- तिष्णि युग० जह० एग०, उक्क० अंतो० | सेसाणं जहण्णु० अंतो० ।
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२७. सणि० - धुविगाणं जह० खुद्दाभ०, उक० सागरोपमसदपु० । सेसं पंचिंदिय
विशेषार्थ - असंयत सम्यक्त्वी अथवा देशसंयमीकी अपेक्षा उपशमसम्यक्त्वका जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है । प्रमत्तसंयत से लेकर उपशान्तकपाय वीतरागछद्मस्थ पर्यन्त एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । (ध० टी०, काल० ४८२-४८४ )
सासादन सम्यक्त्व में - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, गति (नरकगतिरहित ), पंचेन्द्रिय जाति ४ शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो अंगोपांग, वर्ण ४, तीन आनुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, नीच उच्च-गोत्र तथा ५ अन्तरायोंका 'जघन्य बन्धकाल एक समय और उत्कृष्ट ६ आवली प्रमाण है।
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विशेषार्थ- कोई उपशमसम्यक्त्वी उपशमसम्यक्त्वका एक समय शेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ, उसकी अपेक्षा सासादनका जघन्य काल एक समय प्रमाण है । कोई उपशमसम्यक्त्वी उपशमसम्यक्त्वका छह आवली प्रमाणकाल शेष रहनेपर सासादनमें आ गया। वहाँ छह आवली प्रमाण काल व्यतीत कर मिथ्यात्व में पहुँचा । इस प्रकार जघन्य बन्धकाल एक समय और उत्कृष्ट छह आवली कहा है ।
तीन आयुका ओघ के समान काल है। विशेष यहाँ नरकायुका बन्ध नहीं होता है ।
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शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक मिध्यादृष्टिमें - साता, असातावेदनीय, ४ नोकषाय, स्थिरादि तीन युगलका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त बन्धक है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य तथा उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ।
विशेषार्थ- कोई मिथ्यात्वी विशुद्ध परिणामयुक्त हो मिश्र गुणस्थान में सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त रहकर चतुर्थ गुणस्थान में चला गया, अथवा कोई वेदकसम्यक्त्वी संक्लेशवश मिश्र गुणस्थानी हुआ, वहाँ सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत कर पुनः संक्लेशवश मिध्यात्वी हुआ । इसी प्रकार कोई मिथ्यात्वी विशुद्ध परिणाम-युक्त हो उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त -प्रमाण मिश्र गुणस्थानी रहा, बाद में मिथ्यात्वी हो गया अथवा कोई वेदकसम्यक्त्वी संक्लेशवश मिश्र गुणस्थान में उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त -प्रमाण काल व्यतीत करके पुनः अविरतसम्यक्त्वी हो गया । इनकी अपेक्षा मिश्र गुणस्थानका जघन्य, उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है ।
संज्ञीमें -२ ध्रुव प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल क्षुद्रभवग्रहण- प्रमाण है, उत्कृष्ट शत
१. “एकजीमं पडुच्च जहण्णंण एगसमओ उक्कस्सेण छआवलियाओ ।" - षट् खं०, काल०, ७, ८ । २. "एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण सागरोवमसदबुधत्त ।" -षट खं०, काल०,
३३०-३२ ।
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महाबंधे
पज्जत्तभंगो । णवरि सादि ओधिभंगो। असण्णीसु-पंचणा० णवदं० मिच्छ० सोलसक० भयदुगु० तेजाकम्म० वण्ण०४ अगुरु० णिमिणं पंचतरा० जह० खुद्दा० । उक्क० अणंतकालं, असंखे० । चदु-आयु० तिरिक्खगदि-तिगं ओरालि० ओघं० । सेसाणं जह. एग०, उक्क० अंतो।
२८. आहारगे०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलक० भवदु० तिरिक्खगदिओरालिय० तेजाक० वण्ण०४ तिरिक्खगदिपाओ० अगुरु० उप० णिमिणं णीचा० पंचंत० जह० एग० । मिच्छत्तस्स खुद्दाभ० तिसमऊ । उक्क० अंगुलस्स [असंखेजदिभागो] असंखेज्जाओ ओस[प्पिणि-उस्सप्पिणीओ] । तित्थय० जह. एग०, उक्क. तेत्तीसं सादि० । सेसा ओघं० । अणाहार० कम्मइग-भंगो । एवं कालं समत्त ।
पृथक्त्व सागर है। शेष प्रकृतियोंका पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके समान भंग है। विशेष यह है कि साता वेदनीयमें अवधिज्ञानके समान भंग' जानना चाहिए। असंज्ञीमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, निर्माण, तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल क्षुद्रभवग्रहण, उत्कृष्टः अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरावर्तन है। चार आयु, तिथंचगति-त्रिक, औदारिक शरीरका बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ।
२८. आहारकोंमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तिथंचगति, . औदारिक-तैजस- कार्मण शरीर, वर्ण ४, तिथंचगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, नीचगोत्र, ५ अन्तरायोंका बन्धकाल जघन्य एक समय है। मिथ्यात्वका तीन समय कम क्षदभवग्रहण प्रमाण है। इनका उत्कष्ट काल अंगलका [ असंख्यातवाँ भाग] असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है। तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है । शेष प्रकृतियोंका ओघवत् जानना चाहिए। अनाहारकोंमें - कार्मण काययोगके समान जानना चाहिए।
इस प्रकार (एक जीवको अपेक्षा) बन्धकालका वर्णन समाप्त हुआ।
१. "एगजीवं पडुच्च जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्रं।" -षट् खं०काल०,३३५-३६।।
२. "आहाराणुवादेण - एगजोवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्त, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि उस्सप्पिणी ।" -षट् खं०,का०,३३८-३६ ।
___ ३. “अणाहारेसु....."कम्मइयकायजोगिभंगो।" -षट. खं०,का०,३४१ ।
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पयडिबंधाहियारो
[अंतराणुगमपरूवणा] २६. अंतराणुग० दुवि० ओघे० आदे० । ओघे-पंचणा०-छदंसणा०-सादासा०चदुसंज०-पुरिस० हस्स-रदि-अरदि- सोग -भय-दुगुं० - पंचिदि० -तेजाकम्म० -समचदु०
[अन्तरानुगम] २९. अन्तरानुगममें यहाँ ( एक जीवको अपेक्षा ) ओघ और आदेशसे दो प्रकारका निर्देश करते हैं।
विशेषार्थ - छक्खंडागम सुत्तके खुद्दाबन्ध ( क्षुद्रकबन्ध ) नामक दूसरे खण्डमें निम्नलिखित एकादश अनुयोगद्वार कहे हैं : “एकजीवेण सामित्तं, एकजीवेण कालो, एगजीवेण अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचओ, दवपरूवणाणुगमो, खेत्ताणुगमो, फोसणाणुगमो, णाणाजीवेहि कालो, णाणाजोवेहि अंतरं, भागाभागाणुगमो, अप्पाबहुगाणुगमो चेदि' २ ( पृष्ठ २५) - एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नानाजीवों की अपेक्षा भंगविचय, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, नानाजीवोंकी अपेक्षा काल, नानाजीवोंकी अपेक्षा अन्तर, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्व ।
महाबन्धके पयडिबन्धाहियारमें उक्त अनुयोगद्वारोंके सिवाय सण्णियास परूवणा ( सन्निकर्ष प्ररूपणा ) तथा भावानुगमका भी निरूपण किया गया है ।
शंका - काल प्ररूपणाके पश्चात् अन्तर प्ररूपणाका कथन क्यों किया गया ?
समाधान – 'कालपरूवणाए विणा अन्तर-परूवणाणुववत्तीदो' - कालकी प्ररूपणाके बिना अन्तर प्ररूपणाकी उपपत्ति नहीं बैठती। इस काल प्ररूपणाके पश्चात् अन्तर प्ररूपणा हो कहा जाना चाहिए, कारण एक जीवसे सम्बन्ध रखनेवाला अन्य अनुयोगद्वार नहीं है । वीरसेन स्वामीने कहा है "पुणो अंतरमेव वत्तव्वं, एगजीव संबंधिणो अण्णस्स अणिओगदारस्साभावा" (धवलाटीका क्षुद्रकबन्ध पृष्ठ २६ )।
___ 'अन्तर'शब्दके अनेक अर्थ हैं-उनमें-से यहाँ छिद्र, मध्य अथवा विरह रूप अर्थ लेना चाहिए। आचार्य अकलंकदेवने लिखा है “अन्तरशब्दस्यानेकार्थवृत्तेश्छिद्र-मध्य-विरहेष्वन्यतमग्रहणं" (रा० वा०,पृ. ३०)
ओघसे - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता-असाता वेदनीय, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस, कार्मण , समचतुरस्र
१. बहुष्वर्थेषु दृष्टः प्रयोगः, क्वचिच्छिद्रे वर्तते, 'सान्तरं काष्ठं सच्छिद्रमिति' । क्वचिदन्यत्वे 'द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्त' इति, क्वचिन्मध्ये हिमवत्सागरान्तर इति । क्वचित्सामीप्ये "स्फटिकस्य शुक्लरक्ताद्यन्तरस्थस्य तद्वर्णतेति शकलरक्तसमीपस्थस्येति गम्यते । क्वचिद्विशेषे" ।
वारि-वारिज-लोहानां काष्ठपाषाणवाससाम् ।
नारी-पुरुष-तोयानामन्तरं महदन्तरम् ।। इति महान विशेष इत्यर्थः । क्वचिदबहियोगे "ग्रामस्यान्तरे कूपाः, इति; क्वचिदुपसंव्याने 'अन्तरे शाटका' इति. क्वचिद्विरहेऽनभिप्रेतश्रोतजनान्तरे मन्त्रं मन्त्रयते, तद्विरहे मन्त्रयते इत्यर्थः । तत्रह छिद्र-मध्य-विरहेष्वन्यतमो वेदितव्यः" त. रा०प०३० । अन्तरमुच्छेदो विरहो परिणामंतरगमणं णत्थित्तगमणं अण्णभावव्ववहाणमिदि एयट्ठो । एदस्स अंतरस्स अणुगमो अंतराणुगमो ॥ ( खुद्दाबन्ध,पृ० ३, मूत्र १ टोका )
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महा बंधे
वण्ण०४ अगु०४ पसत्थ० -तस०४ थिरादि-दोणि-यु० सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिणंतित्थयरं - पंचंतरा० बंधंतरं केवचिरं कालादो होदि ९ जह० एग०, उक्क० अंतो० । णवरि णिद्दा- पचला जहणु० अंतो० | थीणगिद्वितिगं मिच्छत्तं अनंताणु०४ जह० अंतो० ० । उक० बेछावसिा० देसू० । अट्ठक० जह० अंतो०, उक० पुव्वकोडिदेसू० ।
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संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति त्रस ४, स्थिरादि २ युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर और ५ अन्तराय के बन्धका अन्तर कितने कालपर्यन्त होता है ? जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है । विशेष यह है कि निद्रा और प्रचलाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चारका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम दो छयासठ सागर है ।
विशेषार्थ – कोई एक तिर्यंच या मनुष्य चौदह सागर स्थितिवाले लान्तव, कापिष्ठ देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ एक सागरोपम काल बिताकर द्वितीय सागरोपमके आरम्भ में सम्यक्त्व प्राप्त हुआ, तथा तेरह सागर काल सम्यक्त्व सहित व्यतीत कर मरा और मनुष्य हुआ। वहाँ संयम अथवा संयमासंयमका पालन कर इस मनुष्यभव सम्बन्धी आयुसे कम बाईस सागरवाले आरण, अच्युत कल्पमें उत्पन्न हुआ। वहाँ से मरकर पुनः मनुष्य हुआ । संयमको पालन कर उपरिम ग्रैवेयकमें उत्पन्न हुआ और मनुष्य आयुसे न्यूनत सागर की आयु प्राप्त की ।
वहाँ अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागर कालके चरम समय में मिश्र गुणस्थानवाला हुआ । अन्तर्मुहूर्त विश्राम कर पुनः सम्यक्त्वी हुआ । विश्राम ले, चयकर मनुष्य हुआ । संयम या संयमासंयमको पालन कर इसे मनुष्य भवकी आयुसे न्यून बीस सागरकी आयुवाले आनत-प्राणन देवों में उत्पन्न होकर पुनः यथाक्रमसे मनुष्यायुसे कम बाईस तथा चौबीस सागर के देवों में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागर कालके अन्तिम समय में मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागर अर्थात् एक सौ बत्तीस सागर काल प्रमाण अन्तर हुआ । यह क्रम अव्युत्पन्न लोगों को समझानेको कहा है। परमार्थदृष्टिसे किसी भी तरह छयासठ सागरका काल पूर्ण किया जा सकता है । ( ध० टी० अन्तरा० पृ० ६-७ )
प्रत्याख्यानावरण तथा अप्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायका जघन्य बन्धान्तर अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम एक कोटि पूर्व है ।
विशेषार्थ – कोई जीव मोहनीयको अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तायुक्त एक कोटि पूर्व प्रमाण- आयुवाला मनुष्य उत्पन्न हुआ । गर्भसे आठ वर्ष पूर्ण होनेपर वेदकसम्यक्त्वी हो उसने सकलसंयमको प्राप्त किया। एक कोटि पूर्वके अन्त में उसने मिथ्यात्वी होकर मरण किया । इस प्रकार सकलसंयमकी अपेक्षा देशोन एक कोटि पूर्वकाल कषायाष्टकका अन्तर कहलाया ।
१. एसो उत्पत्तिकमो अउप्पण्ण उप्पायणङ्कं उत्तो । परमत्थदो पुण जेण केण वि पयारेण छावट्टी पूरे दव्त्रा । ( ध० टी०, अं०, पृ०७ )
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पडबंधाहियारो
इत्थवेदा० जह० एग०, उक० बेछावट्ठि साग० सादिरे० । णपुंसक० पंचसंठा० पंच संघ० अप्पसत्थ० दूभग दुस्सर - अणादेज- णीचागो० जह० एग०, उक ० बेछा
सा० सादि० तिणि पलिदो० देसू० । णिरय- मणुस देवायु० जह० अंतो०, उक्क० अनंतकालं असंखेज्जा० । तिरिक्खायु० जह० अंतो, उक्क० सागरोवमसदपु० । निरयगादि- देवदि० वेउच्चि० वेउब्वि० अंगो० दोआणुपु० जह० एग०, उक्क ० अनंतकालं असं० । तिरिक्खगदि० तिरिक्खगदिपाओ० उजोव० जह० एग०, उक्क०
सागरोपम - सद० । मनुसगदि - मणुसाणु ० उच्चा० जह० एग० उक्क० असंखेजा लोगा । चदुजादि - आदाव थावरादि०४ जह० एग०, उक्क० पंचासीदिसागरोपमसदं । ओरालिय० ओरालिय० अंगो० वज्जरिसभ० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरे० | [ आहार० ] आहार० अंगो० जह० अंतो०, उक्क० अद्धपोग्गल० देसू० ।
८१
स्त्रीवेदका अन्तर जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट कुछ अधिक एक सौ बत्तीस सागर है । नपुंसक वेद, ५ संस्थान, ५ संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्रका जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट किंचित् न्यून तीन पल्य अधिक एक सौ बत्तीस सागर प्रमाण है। नरक मनुष्य- देवायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरावर्तन है । तिर्यंचायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट शतसागरपृथकत्व है। नरकगति, देवगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, नरक - देवानुपूर्वीका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अनन्तकाल - असंख्यात पुद्गलपरावर्तन है । तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, उद्योतका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट एक सौ त्रेसठ सागरपृथक्त्व है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट असंख्यात लोक प्रमाण है । ४ जाति, आताप, स्थावरादि ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट एक सौ पच्चासी सागर प्रमाण है । औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभ संहननका जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट कुछ अधिक तीन पल्य है । [ आहारक शरीर ] आहारक अंगोपांगका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम अर्थपुद्गलपरावर्तन अन्तर है ।
विशेषार्थ - एक अनादि मिध्यादृष्टिजीवने अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण रूप तीन करण करके उपशमसम्यक्त्व तथा अप्रमत्त गुणस्थानको एक साथ प्राप्त होकर अनन्त संसारका छेद करके अर्ध पुद् गल परिवर्तन मात्र किया। इस अप्रमत्त गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रहकर प्रमत्त हुआ और अन्तरको प्राप्त होकर मिथ्यात्व के साथ अर्धपुद्गलपरावर्तन काल व्यतीत कर अन्तिम भवमें सम्यक्त्व अथवा देशसंयमको प्राप्त कर दर्शन मोहनीय ३ और अनन्तानुवन्धी ४ अर्थात् ७ प्रकृतियोंका क्षय करके अप्रमत्तसंयत हो गया । इस प्रकार अप्रमत्तसंयतका अनन्तर काल उपलब्ध हुआ । पुनः प्रमत्त, अप्रमत्त गुणस्थान में हजारों बार परावर्तन करके अप्रमत्तसंयत हुआ । पुनः अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली अयोगकेवली होकर निर्वाणको प्राप्त हुआ । इस प्रकार इस अन्तर्मुहूतों से कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है । यही अन्तर आहारक-द्विकके बन्ध के विषय में होगा । कारण, आहारकद्विकका बन्ध अप्रमत्तसंयत में होता है । ( ध० टी० अन्तरा० पृ० १७ )
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महाबंधे ३०. आदेसे०-णेरइएसु पंचणा०-छदंसणा०-बारसक०-भय दुगुं०-पंचिं०-ओरालिय-तेजाकम्म०-ओरालिय०-अंगो०-वण्ण०४अगु०४तस०४णिमिण-तित्थय० - पंचंत०णथि अंत० । थीणगिद्धि ०३ मिच्छ• अणंताणुबं०४ जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । सादासा० पुरिस० चदुणो० समचदु० वज०रिसभसं०, पसत्थवि० थिरादि-दोण्णि-युग०-सुभग-सुस्सर-आदे०जह० एग०, उक्क० अंतो० । इथिवे.. नपुंसय०-दोगदि० पंचसंठा० पंचसं० दो आयु० (आणुपु०) अप्पसत्थवि० उज्जोवं भग-दुस्सर अणादेज्ज०-णीचुच्चागो० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । दो
३०. आदेशसे - नारकियोंमें - पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पंचेंद्रिय जाति, औदारिक-तैजस-कार्मण शरीर, औदारिकशरीर अंगोपांग, वर्ण चार, अगुरुलघु चार, त्रस चार, निर्माण, तीर्थकर और पाँच अन्तरायोंके बन्धका अन्तर नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य अन्तर, अन्त मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम तेतीस सागर है।
विशेषार्थ - यहाँ नरकगतिके आश्रयसे बध्यमान प्रकृतियोंके अन्तरका कथन किया गया है । क्षुद्रक बन्धमें इस प्रकार विशेष कथनकी विवक्षाके स्थानमें सामान्य रूपसे प्रतिपादन किया गया है। जैसे नरकगतिमें नारकी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है, इस प्रश्नके उत्तर में आचार्य जघन्यसे अन्तमुहूर्त तथा उत्कृष्टसे अनन्तकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन कहते हैं । भूतबलि स्वामी रचित सूत्र इस प्रकार है, "एग जीवेण अन्तराणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए रइयाणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥१॥ जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥२॥ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥३॥ इन पूर्वोक्त सूत्रोंपर धवलाटीकामें प्रकाश डालते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं-नरकसे निकलकर गर्भोपक्रान्तिक तिथंच जीवोंमें अथवा मनुष्यों में उत्पन्न हो, सबसे कम आयुके भीतर नरकायुको बाँध मरण कर पुनः नरकोंमें उत्पन्न हुए नारकी जीवके नरकगतिसे अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तर पाया जाता है । उत्कृष्ट अन्तरके सम्बन्धमें इस प्रकार स्पष्ट किया है-नारकी जीवके नरकसे निकलकर अविवक्षित गतियोंमें आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण पुद्गल परिवर्तन परिभ्रमण करके पश्चात् पुनः नरकोंमें उत्पन्न होनेपर सूत्रोक्त अन्तरका प्रमाण पाया जाता है।
महाबन्धमें नारकियोंमें ज्ञानावरणादिके अन्तरका अभाव कहा है। स्त्यानगृद्धि, आदिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूत तथा उत्कृष्ट अन्तर देशोन तेतीस सागर कहा है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है : मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई मनुष्य या तिथंच नीचे सातवीं पृथ्वीके नारकियोंमें पैदा हुआ । छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर अल्प आयुके शेष रहनेपर मिथ्यात्वको पुनः प्राप्त हुआ,(४) पुनः तियच आयुको बाँधकर (५) विश्राम लेकर (६) निकला । इसप्रकार छह अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर प्रमाणकाल मिथ्यात्वके अन्तरका है। यही अन्तर स्त्यानगृद्धित्रिक और अनन्तानुबन्धी चारका भी होगा।
साता-असाता वेदनीय, पुरुषवेद, चार नोकषाय, समचतुरस्र संस्थान, वनवृषभसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेयका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूत है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो गति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आयु (आनुपूर्वी), अप्रशस्त विहायोगति, उद्योत, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, नीच, उच्च गोत्र का जघन्य
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पयडिबंधाहियारो
८३
आयु० जह० अंतो०, उक० छम्मासं देखणा । एवं पढमादि याव छट्टित्ति । धुविगाणं तित्थय० णत्थि अंत | साददंड० ओघं । णवरि मणुस ० मणुसग० पाओ० - उच्चागोदं पवि० | सेसे णिरयोघं । णवरि अप्पष्पणो ट्ठोदी भाणिदव्वा । सत्तमाए पुढवीए रिओघं । वरि दोगदि-दो आणुपु०-दोगोदं० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं ० देसूणा । अडक० -भय-दु० -तेजा-कम्म० वण्ण०४ अगु० थीण गिद्धि ३ मिच्छ० - अनंताणु०४ जह० एवं इत्थि० । णवरि जह० एग० ।
३१. तिरिक्खेसु - पंचणा० छदंस० उप० णिमिणं पंचंरा० णत्थि अंत० । अंतो०, उक्क०तिष्णि पलिदोव० देसू०
|
एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम तेतीस सागर है । विशेष- यहाँ 'दो आयु' के स्थान में दो आनुपूर्वी पाठ उपयुक्त लगता है, कारण दो आयुका अन्तर आगे कहा गया है । दो आयुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम छह माह अन्तर है ।
विशेषार्थ - नारकियों में भुज्यमान आयुके अधिक से अधिक छह माह और कमसे कम अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर आगामी बध्यमान मनुष्य तिर्यंच आयुका बन्ध होता है । किसी जीवने छह महीने जीवन शेष रहनेपर प्रथम अन्तर्मुहूर्त में नरकगति में परभवकी आयुका बन्ध किया और पश्चात् मरणसमय में पुनः बन्ध किया । इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर होगा |
इस प्रकार प्रथमसे छठी पृथिवी पर्यन्त जानना चाहिए । यहाँ ध्रुव प्रकृतियों तथा तीर्थंकरका अन्तर नहीं है ।
विशेषार्थ - तीर्थंकर प्रकृतिवाला जीव मिध्यात्वसहित मरण कर मेघा नामकी तीसरी पृथ्वी से नीचे नहीं जाता। इससे उसके बन्धका अन्तर तीसरी पृथ्वी तक जानना चाहिए, मीचेही पृथिवियों में नहीं जानना चाहिए ।
सातादण्डकका ओघके समान अर्थात् जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र में प्रविष्ट के विशेष जानना चाहिए ।
१
'शेष प्रकृतियों में नारकियोंके ओघके समान है। विशेष यह है कि यहाँ प्रत्येक नरक में अपनी-अपनी स्थिति के समान अन्तर जानना चाहिए। सातवीं पृथ्वीमें सामान्य नरकके समान अन्तर है । इतना विशेष है कि दो गति, दो आनुपूर्वी, दो गोत्रका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम तेतीस सागर अन्तर है ।
३१. तिर्यंचोंमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ८ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तरायोंका बन्धका अन्तर नहीं है । क्योंकि इनका निरन्तर बन्ध होता है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम तीन पल्य है। इसी प्रकार स्त्रीवेदका अन्तर समझना चाहिए । विशेष यह है कि यहाँ जघन्य एक समय ( और उत्कृष्ट कुछ कम तीन पल्य ) है ।
१. "पढमादि जाव सत्तमीए पुढत्रीए णेरइएसुमिच्छादिट्टि - असंजदसम्मादिठ्ठोणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण सागरोवमं, तिण्णि, सत्त, दस, सत्तारस, बावीस, तेतीसं सागरोवमाणि देसूणाणि " -- षट्खं०, अन्तरा० २८-३० ।
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C
महाबंधे सादासाद-पंचणोक० पंचिं० समचदु० परघादुस्सा -पसत्थवि० तस०४ थिरादिदोण्णि-युग सुभग-सुस्सर-आदेज्जा. जह० एग०, उक्क. अंतो० । अपचक्खाणाव०४-णपुंस०तिरिक्खगदि-चदुजादि-ओरालिय० पंचसंठा०-ओरालि०-अंगोवं०छसंघ०-तिरिक्खाणु०-आदा०-उज्जोव अप्पसत्थवि०-थावरादि०४-दूभग दुस्सर-अणादे - ज्ज०-णीचा०जह० एग० । अपञ्चक्खाणा०४ जह० अंतो०, उक्क ० पुवकोडिदेसू० । तिण्णि आयु० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडितिभागं दे० । तिरिक्खायु० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडि०सादिरे । वेउ व्वियछक्क० जह० एग०, उक्क० अणंतकालंअसंखे० । मणुसग०-मणसाण० उच्चा०ओघं ।
३२. पंचिदिय-तिरिक्ख तिग० धुविगाणं णत्थि अंत० । थीणगिद्धि०३ मिच्छ.
विशेषार्थ - एक मनुष्य या तियच, अट्ठाईस मोहनीयकी प्रकृतियोंकी सत्तावाला तीन पल्यकी आयुवाले मुर्गा, बन्दर आदिमें उत्पन्न हुआ। दो माह गर्भ में रहकर बाहर निकला। यहाँ आचार्य-परम्परागत दक्षिण-प्रतिपत्तिके अनुसार ऐसा उपदेश है कि तियचोंमें उत्पन्न हुआ जीव दो माह और मुहूर्तपृथक्त्वके ऊपर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। उत्तर-प्रतिपत्तिके अनुसार तियचोंमें उत्पन्न हुआ जीव तीन पक्ष,तीन दिन और अन्तर्मुहूर्तके ऊपर सम्यक्त्वको प्राप्त होता है। पश्चात् आयुके अन्त में मिथ्यात्वको प्राप्त कर मरण किया। इस प्रकार आदिके मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो मासोंसे और आयुके अन्त में उपलब्ध दो अन्तर्मुहूतोंसे न्यून तीन पल्योपम काल मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर है । (ध० टी०,अन्तरा० पृ० ३२)
साता-असाता वेदनीय, ५ नोकषाय, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेयका अन्तर जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। अप्रत्याख्यानावरण ४, नपुंसकवेद, तियचगति, चार जाति, औदारिक शरीर, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, तियचानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावरादिचतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका अन्तर जघन्य एक समय है किन्तु अप्रत्याख्यानावरण ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम एक कोटिपूर्व है।
विशेषार्थ-कोई मिथ्यात्वी जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्मुर्छन पर्याप्तक एक कोटिपूर्वकी आयुवाले तियच में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर विश्राम ले, विशुद्ध हो, वेदक सम्यक्त्व तथा संयमासंयमको प्राप्त किया। मरणसमय देशसंयमसे च्युत हो गया। इस प्रकार उसके एक कोटि पूर्व में कुछ कम कालपर्यन्त अप्रत्याख्यानावरण ४ का अन्तर होगा।
तीन आयुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर एक कोटि पूर्वके तीन भागों मेंसे कुछ कम एक भाग प्रमाण है। तियचायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ अधिक एक कोटिपूर्व अन्तर है। वैक्रियिकषट्कका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अनन्तकाल, असंख्यात पुदगलपरिवर्तन है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका ओघके समान अन्तर जानना चाहिए।
३२. पंचेन्द्रिय-तिर्यंच, पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिमतीमें-ध्रुव प्रकृतियोंका अन्तर नहीं है,क्योंकि इनका निरन्तर बन्ध होता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व,
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पयडिबंधाहियारो अणंताणु०४ जह० अंतो०, इथिवेद० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदोव०देसू० । सादासादं० पंचणोक० देवगदि०४ पंचिंदि० समचदु० परघादुस्सा०-पसत्थवि०तसचदुरं थिरादिदोण्णि-युग०-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज उच्चा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अपचक्खाणा०४ जह० अंतो०, उक्क० पुषकोडिदेसू० । गपुंसय तिगदि-चदुजादि. ओरालिय०-पंचसंठा०-ओरालियअंगो०-छस्संघ० तिणि आणपु०-अप्पसत्थ० आदाउज्जो०-थावरादि०४ दूभग-दुस्सर-अणादे०-णीचागो० जह० एग०, उक्क० पुवकोडिदे० । आयु-चत्तारि तिरिक्खोघं । पंचिंदिय-तिरिक्ख-अपज्ज०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलस० भयदु० ओरालिय-तेजाकम्म० वण्ण०४ अगु० उपघा० णिमिणं पंचंत० णस्थि अंत० । सादासाद० सत्तणोक० दोगदि-पंचजादि-छस्संठाण०ओरालिय० अंगो छस्संघ० -दोआण० परघादुस्सा० आदा-वुज्जो०-दोविहा०-तसादिदसयुगल-णीचुच्चा०गोदाणं जह० एग०, उक्क० अंतो० । दोआयु० जहण्णु० अंतो० । एवं सव्व-अपज्जत्ताणं तसाणं थावराणं च ।
अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा स्त्रीवेदका जघन्य एक समय तथा इन सबका उत्कृष्ट कुछ कम ३ पल्य अन्तर है। . विशेषार्थ - मोहनीय कर्मकी २८ प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाले तिर्यंच अथवा मनुष्य तीन पल्योपमको आयुवाले पंचेन्द्रिय तिर्यचत्रिक कुक्कुट, मर्कट आदि में उत्पन्न हुए वा दो माह गर्भमें रहकर निकले। महत प्रथक्त्वसे विशद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुए और आयुके अन्त में आगामी आयुको बाँधकर मिथ्यात्वसहित मरण किया । पुनः इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्तोसे तथा मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो मासोंसे न्यून तीन पल्योपम काल तीनों प्रकारके तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। यही अन्तर मिथ्यात्व आदिका भी है।
साता-असाता वेदनीय, ५ नोकषाय, देवगति ४, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, और उच्चगोत्रका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। अप्रत्याख्यानावरण ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्व कोटि अन्तर है।
नपुंसकवेद, देवगतिके बिना ३ गति, ४ जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, ३ आनुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, आताप, उद्योत, स्थावरादि ४, दुभंग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि है । चार आयुका तियचोंके ओघ समान है।
पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तकमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस-कार्माण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पंच अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। साता-असाता वेदनीय, ७नोकषाय. २ गति ( मनुष्यतिर्यंचगति ), ५ जाति, ६ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि-दस-युगल, नीच उच्च गोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्महूर्त अन्तर है। दो आयुका जघन्य तथा उत्कृष्ट अन्तर्महूर्त है ।
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८६
महाबंधे
३३. मणुस०३-पंचणा०छदंसण चदुसंज०भयदुगुंतेजाकम्म०वण्ण०४ अगुरु० उप० णिमिण० तित्थय० पंचंत० जहण्णु० अंतो० । थीणगिद्धितिग-दंडओ इत्थिदंडओ साददंडओ णपुंसदंडओ आयुदंडओ पंचिंदिय-तिरिक्ख-पज्जत्तभंगो। णवरि मणुसा० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडिसादि०। आहारदुगं जह० अंतो०, उक० पुचकोडिपुध०।
सभी अपर्याप्तक त्रस-स्थावरोंका इसी प्रकार अन्तर समझना चाहिए।
विशेषार्थ-सामान्य कथनकी अपेक्षा तिर्यंचोंका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कटसे सागरोपम-शत-पृथक्त्व कहा है। खहाबंधकी टीकामें लिखा है तिरिक्खस्स तिरिक्खे हितो णिग्गयस्स सेसागदीसु सागरोवमसद पुधत्तादो उवरि अवट्ठाणाभावादो (पृ० १८२)-तिर्यंच जीवके तिर्यंचोंमें-से निकल कर शेष गतियों में सागरोपमशत पृथक्त्व कालसे ऊपर ठहरनेका अभाव है।।
____३३. मनुष्य-सामान्य, मनुष्यपर्याप्तक, मनुष्यिनीमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजस-कार्मण वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थकर और ५ अंतरायोंका जघन्य, उत्कृष्ट अन्तर अंतर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धित्रिक-दंडक, स्त्रीदंडक, सातादंडक, नपुंसकदंडक, आयुदंडकमें पंचेन्द्रिय-तियञ्च-पर्याप्तकके समान अंतर है । विशेष मनुष्यायुका जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक पूर्वकोटि है।।
आहारकद्विकका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व है ।'
विशेषार्थ-२८ मोहनीयकी प्रकृतियोंको सत्तावाला अन्य गतियोंसे आकर कोई जीव मनुष्य हुआ । गर्भको आदि लेकर ८ वर्षका हुआ । सम्यक्त्व एवं अप्रमत्त गुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ। (१) पुनः प्रमत्तयंयत हो अंतरको प्राप्त हुआ और ४८ पूर्वकोटियाँ परिभ्रमण कर अंतिम पूर्वकोटिमें देवायुको बाँधता हुआ अप्रमत्तसंयत हो गया । (२) इस प्रकार अंतर प्राप्त हुआ । तत्पश्चात् प्रमत्तसंयत होकर (३) मरा और देव हुआ। ऐसे तीन अंतर्मुहूर्तासे अधिक आठ वर्षोंसे कम ४८ पूर्वकोटियाँ उत्कृष्ट अंतर होता है । (ध० टी०,अंत० पृ० ५२)
आहारकद्विकके बंधक अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती होते हैं । इस कारण यह वर्णन-क्रम उसमें भी सुघटित है।
'खुदावंध मनुष्यों तथा पंचेन्द्रिय-तियचोंको जघन्य अंतर क्षुद्रभवग्रहण काल तथा उत्कृष्ट अंतर असंख्यातपुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनंतकाल कहा है। सूत्रों के शब्द इस प्रकार हैं - "पंचिंदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खपजत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोगिणी पंचिंदियतिरिक्खअपजता मणुसगदीए मणुस्सा मणुसपजता मणुसिणी मणुसअपजत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण खुद्दाभवगहणं। उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा" (सूत्र ८, ६, १० पृष्ठ १८६, १६०)।
१. संजदासंजदप्पहडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पुनकोडिपुधत्तं । सूत्र ६७, ६८, ६९, अंत०, पृ० ५२ । उत्कर्षेण पूर्वकोटिपृथक्त्वानि । स० सि०, १, ८ ।
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पयडिबंधाहियारो ३४. देवेसु-पंचणा० छदंसणा० बारसक० भयदुगु ओरालिय-तेजाक० वण्ण४ अगु०४ बादर-पज्जत्त-पत्तेय०णिमिणं तित्थय०पंचंतरा०णस्थि अंत० थीणगिद्वितिगं मिच्छत्त' अणंताणु०४ जह० अंतो० । इत्थि० णबुंसक० पंचसंठा० जह० एग०, उक० अट्ठारस-सा० सादिरेगाणि। एइंदिय-आदाव-थाव० जह० एग०, उक्क० बेसाग० सादिरे! एवं सव्वदेवेसु अप्पप्पणो द्विदिअंतरं कादव्वं । एइंदिएसु पंचणा० णवदंस० मिच्छत्तं सोलस० भय दुगु ओरालियतेजाक० वण्ण०४ जह० एग०, उक० अंतो० । दोआयु० णिरयभंगो० । तिरिक्खगदि--तिरिक्ख० उज्जो० जह० एग०, उक्क० अट्ठारससा०सादिरेगाणि । एइंदिय-आदाव-थाव. जह० एग०, उक्क० बे साग० सादिरे० । एवं सचदेवेसु अप्पप्पणोडिदि अंतरं कादव्यं ।
___३४. देवोंमें -५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजस-कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थकर और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधी४ का जघन्य अंतर्मुहूर्त है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद तथा पाँच संस्थानका जघन्य अंतर एक समय, उत्कृष्ट साधिक १८ सागर है । एकेन्द्रिय, आताप और स्थावरका जघन्य एक समय अंतर है, उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागर है। इसी प्रकार सम्पूर्ण देवोंमें अपनी-अपनी स्थितिका अंतर लगाना चाहिए।
विशेषार्थ-सौधर्म-ईशान स्वर्ग पर्यन्त एकेन्द्रिय, आताप तथा स्थावर प्रकृतियोंका बन्ध होता है। इनके बन्धका अन्तर देवगतिकी अपेक्षा साधिक दो सागर उक्त स्वर्गयुगलकी अपेक्षा है।
___दो आयुका नरकगति के समान अन्तर है, जो जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम ६ माह है। तिर्यंचगति, तिल्चगत्यानुपूर्वी, उद्योतका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक १८ सागर है।
विशेष-शतार-सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, तथा उद्योतका बन्ध होता है। इन स्वर्ग-युगलमें आयु साधिक १८ सागर प्रमाण कही है। इस दृष्टिसे यहाँ बन्धका अन्तर कहा है।
खुद्दाबन्धमें देवगति सामान्यको लक्ष्य कर यह कथन किया गया है - देवोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहूत है "जहण्णण अंतोमुहुत्तं" सूत्र १२ । इस पर धवला टीकामें यह स्पष्टीकरण किया गया है, 'देवगतिसे आकर गर्भोपक्रान्तिक पर्याप्त तियचों व मनुष्यों में उत्पन्न होकर पर्याप्तियाँ पूर्ण कर देवायु बाँध पुनः देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके देवगतिसे अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तर पाया जाता है। (क्षु० २,७ पृ० १६०) इस कथनसे यह स्पष्ट होता है कि कोई-कोई जीव अल्पायु युक्त मनुष्य होनेसे गर्भावस्थामें ही मरण कर मंदकषायवश देवगतिको प्राप्त करते हैं।
देवोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल असंख्यात, पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा, "कारण धवला टीकामें लिखा है, देवगतिसे चयकर शेष तीन गतियों में अधिकसे अधिक आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गलपरिवर्तन
* एतचिह्नान्तर्गतः पाठोऽधिकः प्रतिभाति ।
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महाघे
परिभ्रमण कर पुनः देवगतिमें आगमन करनेमें कोई विरोध नहीं आता" ( पृ० १९१ ) । भवनत्रिक तथा सौधर्य ईशान स्वर्गो में पूर्वोक्त अन्तर है । सनत्कुमारादिमें इस प्रकार अन्तर कहा है: 'सणक्कुमार- माहिंदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण मुहुत्तपुधत्तं । उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्ज पोग्गल परिय” । इस सूत्र की व्याख्या करते हुए धवला टीकाकार कहते है; "तिर्यंचया मनुष्यायुको बाँधनेवाले सनत्कुमार माहेन्द्र देवोंके तिर्यंच व मनुष्य मत सम्बन्धी जघन्य स्थितिका प्रमाण मुहूर्त-पृथक्त्व पाया जाता है । इसी मुहूर्त-पृथक्त्व प्रमाण जघन्य तिर्यंच व मनुष्यायुको बाँधकर तिर्यंचों वा मनुष्यों में उत्पन्न होकर परिणामोंके निमित्तसे पुनः सनत्कुमार- माहेन्द्र देवोंकी आयु बाँधकर सनत्कुमार- माहेन्द्र देवों में उत्पन्न हुए traint मुहूर्त पृथक्त्वप्रमाण जघन्य अन्तर होता है, ऐसा सूत्र द्वारा बतलाया गया है ।
आगेका सूत्र इस प्रकार है : 'बम्ह-बम्हुत्तर-लांत व का विट्ठ-कष्पवासिय देवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण दिवसपुधत्तं ।' सूत्र १८, १६
शंका - दिवस पृथक्त्वकी आयुमें तो तिर्यंच व मनुष्य गर्भसे भी नहीं निकल पाते और इसलिए उनमें अणुत्रत व महाव्रत भी नहीं हो सकते। ऐसी अवस्था में वे दिवस पृथक्त्वमात्रकी आयु के पश्चात् पुनः देवोंमें कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ।
समाधान - परिणामोंके निमित्तसे दिवस- पृथक्त्वमात्र जीवित रहनेवाले तिर्यंच व मनुष्य पर्याप्त जीवोंके देवोंमें उत्पन्न होने में कोई विरोध नही आता ।
शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार स्वर्गवासी देवोंका देवगति से जघन्य अन्तर " जहणेण पक्खपुधत्तं" - पक्षपृथक्त्व कहा है। आनतादिका जघन्य अन्तरंवाला सूत्र इस प्रकार है"आणद-पाणद आरण-अच्चुकप्पवासिय देवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण मासपुधन्तं" - सूत्र २४-२५ । इसपर भाष्यकार महत्त्वपूर्ण शंका उत्पन्न कर समाधान भी करते हैं।
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शंका- जब आनत आदि चार कल्पवासी देव मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, तब मनुष्य होकर भी वे गर्भसे आठ वर्ष व्यतीत हो जानेपर अणुव्रत व महाव्रतोंको ग्रहण करते हैं । अणुव्रतों व महाव्रतोंको ग्रहण न करनेवाले मनुष्योंकी आनतादि देवोंमें उत्पत्ति ही नहीं होती; क्योंकि वैसा उपदेश नहीं पाया जाता । अतएव आनत आदि चार देवोंका मास पृथक्त्व अन्तर कहना युक्त नहीं है । उनका अन्तर वर्ष पृथक्त्व होना चाहिये ?
समाधान - शंकाका समाधान इस प्रकार है - अणुव्रत व महाव्रतोंसे संयुक्त ही तिर्यंच व मनुष्य (तिरिक्ख मणुस्सा ) आनत - प्रानत देवोंमें उत्पन्न हों, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर तो तिर्यंच असंयत- सम्यग्दृष्टि जीवोंका जो छह राजू स्पर्शन बतलानेवाला सूत्र है, उससे विरोध उत्पन्न हो जायेगा। (देखो, षटूखंडागम, जीवट्ठाण, स्पर्शानुगम सूत्र: २८ पुस्तक ४, पृ० २०७ )
आनत-प्राणत कल्पवासी असंयतसम्यग्दृष्टिदेव जब मनुष्यायुकी जघन्य स्थिति बाँध हैं, तब वे वर्ष पृथक्त्वसे कमकी आयु-स्थिति नहीं बाँधते है, क्योंकि महाबन्ध में जघन्यस्थितिबन्धके कालविभाग में सम्यग्दृष्टि जीवोंकी आयुस्थितिका प्रमाण वर्ष पृथक्त्वमात्र प्ररूपित किया गया है । सोधम्मीसाणे श्रायु० जह० ट्ठिदि० अंतो०, अंतोमु० श्राबा० | सणक्कुमारमाहिंदे मुहुत्त-पुधत्तं बम्ह-बम्हुत्तर-लांतव-काविट्ठ० दिवसपुधत्तं । सुक्क-महासुक्क-सदार सहस्सारः कप० पक्खपुधत्तं, प्राणद- पाणदं आरणच्चुद० मासपुधत्तं, उवरि सत्त्राणं वासपुधत्तं । सव्वत्थ अंतो० भाबा० ॥ आभिणि० सुद ओधिखवगपगदीणं ओघं । मणुसायु० जह० ट्ठिदि० वासपुध०, अंतो०, श्राबा० । महाबन्ध ताम्रपत्रप्रति, स्थिति बन्धाधिकार, पृ० ७२ ८० । अतः
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बंधाया
३५. एइंदिए - पंचणा० णवदंस० मिच्छत्तं० सोलस० भयदुगुं० ओरालियतेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं पंचंत० णत्थि अंत० । सादासाद - सत्तणोक० तिरिक्खगदि - पंचजादि० छस्संठा० ओरालिय० अंगोवं०- छस्संघ० तिरिक्खाणु ० परधादुस्सासं आदावुजो० दोविहाय० तसादि दसयुगलं णीचा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । तिरिक्खायु० जह० अंतो०, उक्क० बावीसवस्ससहस्साणि सादिरे० । मणुसायु० जह० अंतो०, उक्क० सत्तवस्ससहस्साणि सादि० । मणुसगदि मणुसाणु ० उच्चागो० जह० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । बादरेसु अंगुलस्स असंखे० । बादरपज्जते ० संखेज्जाणि वस्ससहस्त्राणि । हुमे अंसंखेज्जा लोगा । सुहुम पत्ते जह० एग०,
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आनत-प्राणत कल्पवासी ( आणद- पाणद-मिच्छा इट्ठिस्स) मिथ्यादृष्टि देवके मासपृथक्त्वमात्र मनुष्यायु बाँधकर फिर मनुष्यों में उत्पन्न हो मास पृथक्त्व जीवित रहकर पुनः अन्तर्मुहूर्त मात्र आयुवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचसम्मूर्छन पर्याप्त जीवों में उत्पन्न होकर संयमासंयम ग्रहण कर के आनतादि कल्पों की आयु बाँधकर वहाँ उत्पन्न हुए जीवके सूत्रोक्त मास-पृथक्त्व प्रमाण जघन्य अन्तर होता है, ऐसा कहना चाहिए ।
I
नवप्रैवेयक विमानवासियों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर " उक्करसेण अनंतकालमसंखेज्ज पोग्गल परिय ||२६|| " अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन रूप है । अनुदिशादि अपराजित पर्यन्त विमानवासियों का जघन्य अन्तर 'जहग्णेव वासपुधत्तं ॥ ३१ ॥ कहा है । "उक्कस्सेण वे सागरोवमाणि सादिरेयाणि” ॥ ३२ ॥ उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो हजार सागरोपम है । इस विषय में धवलाटीका में इस प्रकार खुलासा किया गया है - अनुदिशादि देव के पूर्व कोटि की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर एक पूर्व कोटि तक जीकर सौधर्म - ईशान स्वर्गको जाकर वहाँ अढ़ाई सागरोपमकाल व्यतीत कर पुनः पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर संयमको ग्रहण कर अपने-अपने विमानमें उत्पन्न होनेपर उनका अन्तरकाल साविक दो सागरोपम प्रमाण प्राप्त होता है । (पृष्ठ १६७ )
सर्वार्थसिद्धि से चयकर एक ही भवमें मुक्ति होती है, अतः वहाँ अन्तरका अभाव सूचक यह सूत्र कहा है - " सव्वट्टसिद्धि-विमाणवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्थि अन्तरं निरंतरं " ||३४|| खु०, पृ० १९७॥
३५. एकेन्द्रियोंमें – ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक- तैजस- कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायों का अन्तर नहीं है । साता असातावेदनीय, ७ नोकपाय, तिर्यंचगति, पंच जाति, ६ संस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग, ६ संहनन, तिर्यंचानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसादि दसयुगल और नीचगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। तिर्यंचायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट २२ हजार वर्ष कुछ अधिक अन्तर है | मनुष्यायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ अधिक ७ हजार वर्ष है। मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात लोक है । बादरों में अंगुलका असंख्यातवाँ भाग अन्तर है । बादर पर्याप्तक में संख्यात हजार वर्ष है । सूक्ष्म में असंख्यात • लोक है । सूक्ष्मपर्याप्तक में जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है ।
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महाबंधे
उक्क० अंतो० । एवं पुढ० आउ० वणप्फदिका०-बादरवणप्फदि-पत्तेय-णियोदाणं च अप्पप्पणो-योगेहि० । णवरि मणुसगदितिगं सादभंगो। तिरिक्खायु० जह० अंतो०, उक्क० बावीसं वस्ससहस्साणि, सत्त वस्ससहस्साणि, दस वस्ससहस्साणि सादि० । णियोदाणं अंतो० । मणुसायु० जह० अंतो०, उक्क० सत्त वस्ससहस्साणि, बे वस्ससहस्साणि तिणि वस्ससहस्साणि सादि० । णियोदाणं जहण्णु० अंतो० । तेउ० वाउ० एइंदियभंगो। णवरि मणुसगदिचदुक्कं वजं । तिरिक्खगदितिगं धुवभंगो कादम्वो। तिरिक्खायुगं जह० अंतो०, उक्क० तिण्णि रादिंदियाणि, तिण्णि वस्ससह
पृथ्वीकाय, अकाय, वनस्पतिकाय, बादर वनस्पति, प्रत्येक तथा निगोद जीवोंका अपने-अपने योग्य अन्तर जानना चाहिए। इतना विशेष है कि मनुष्यगति-त्रिकमें साताके समान भंग जानना चाहिए । तिगंचायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट साधिक बाईस हजार वर्ष, साधिक सात हजारवर्ष, साधिक दस हजार वर्ष तथा निगोदियोंमें अन्तर्मुहूते अन्तर है।
विशेष—खर पृथ्वीकायिकोंमें बाईस हजार, अप्कायिकोंमें सात हजार, वनस्पतिकायिकोंमें दस हजार और निगोदिया जीवोंकी अन्त मुहूर्त आयुको लक्ष्य में रखकर तिर्यंचायुका अन्तर कहा गया है।
मनुष्यायुका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक सात हजार वर्प, साधिक दो हजार वर्ष और साधिक तीन हजार वर्प है। निगोदियोंका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। तेजकाय, वायुकायमें एकेन्द्रियके समान अन्तर जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ मनुष्यगतिचतुष्कको नहीं ग्रहण करना चाहिए। यहाँ तिर्यंचगति त्रिकका ध्रुव भंग जानना चाहिए। तिर्यंचायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक तीन रात्रि-दिन और साधिक तीन हजार वर्ष अन्तर है ।
विशेषार्थ-खुद्दाबन्धमें एकेन्द्रियोंका अन्तर 'जहाणेण खुद्दाभवग्गहणं'-जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण काल प्रमाण है । "उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तणन्भहियाणि" ( सूत्र ३७, टीका,पृ० १९८ ) उत्कृष्ट से पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरो. पम एकेन्द्रिय जीवोंका अन्तर है। इसपर धवला टीकामें इस प्रकार प्रकाश डाला गया है : एकेन्द्रिय जीवों में से निकलकर केवल बसकायिक जीवों में ही भ्रमण करनेवाले जीवके पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपममात्र स्थितिसे ऊपर त्रसकायिकोंमें रहनेका अभाव है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस कालके व्यतीत होनेपर जीवको एकेन्द्रिय पर्याय धारण करनी पड़ेगी। एकेन्द्रिय पर्यायसे निकलकर यह जीव पुनः त्रसपर्यायको प्राप्त कर सकता है, किन्तु एकेन्द्रिय पर्यायमें पहुँचनेके पश्चात् त्रसपर्यायको प्राप्त करना शास्त्रकारोंने अत्यन्त कठिन बताया है। यदि जीवका संसार परिभ्रमण निकट आ चुका है, तो वह क्षुद्रभवग्रहण कालके पश्चात् पुनः सपर्यायको प्राप्त कर सकता है। द्वीन्द्रियादिके जघन्य
१. "तत्र पृथ्वीकायिकाः द्विविधाः, शुद्धपृथ्वीकायिकाः खरपृथ्वीकायिकाश्चेति । तत्र शुद्धपृथ्वीकायिकानामुत्कृष्टा स्थितिर्वादशवर्षसहस्राणि । खरपृथ्वीकायिकानां द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि । वनस्पतिकायिकानां दशवर्षसहस्राणि । अप्कायिकानां सप्तसहस्राणि, वायुकायिकानां त्रीणि वर्षसहस्राणि । तेजःकायिकानां त्रीणि रात्रिंदिवानि ।" - त०रा०,पृ० १४६ ।
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पडबंधाहियारो
स्वाणि सादरेयाणि । विगलिंदियेसु एइंदियभंगो | णवरि मणु देतिगं सादभंगो । तिरिक्खायु० जह० अंतो०, उक्क० बारसवस्ससहस्त्राणि ( बारसवस्साणि) एगूणवण्णं रादिदियाणि छम्मासाणि सादिरे० । मणुसायु० जह० अंतो०, उक्क० चत्तारि वस्साणि देसू०, सोलस रार्दि० सादिरे०, बे मासाणि देसू० ।
३६. पंचिंदिय-तस-तेसिं चेव पञ्जत्ता० पंचणा० छदंसणा० सादासा० चदुसंज० सत्तणोक० पंचिंदि० तेजाक० समचदु० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थ० तस०४ थिरादिदोणियुग ० - सुभग- सुस्सर-आदेज- णिमिणं तित्थयं० पंचंत० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णवरि णिद्दापचलाणं जहण्णु ० अंतो० | थीणगिद्धि ३ मिच्छ० अणंताणु०४
उत्कृष्ट अन्तरको इन सूत्रों द्वारा कहा गया है - "बीइंदिय-ती इंदिय च उरिदिय-पंचिदियाणं तस्सेव पजत्त श्रपजत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज पोग्गलपरियट्टं ॥ ४४, ४५ ४६ ॥ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंका तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक अन्तर होता है, उत्कृष्टसे अनन्तकाल, असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल तक उक्त द्वीन्द्रियादि जीवोंका अन्तर होता है । इस सम्बन्ध में वीरसेन स्वामीका कथन है कि विवक्षित इन्द्रियोंवाले जीवों में से निकलकर अविवक्षित एकेन्द्रिय आदि जीवोंमें आवलीके असंख्यातवें भाग पुद्गल परिवर्तनरूप भ्रमण करने से कोई विरोध नहीं आता ( खु० नं० पृ० २०१-२०२ ) ।
विकलत्रयमें एकेन्द्रियके समान अन्तर है । यहाँ इतना विशेष है कि मनुष्यगतित्रिकका साताके समान भंग है। तिर्यंचायुका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक बारह वर्ष, साधिक उनचास रात्रि-दिन, साधिक छह मास अन्तर है' । मनुष्यायुका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन चार वर्ष, कुछ अधिक सोलह रात्रि-दिन तथा कुछ कम दो माह अन्तर है ।
३६. पंचेन्द्रिय, सकाय तथा उनके पर्याप्तकों में - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता, असातावेदनीय, ४ संज्वलन, ७ नोकपाय, पंचेन्द्रियजाति, तैजस, कार्मणः, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि २ युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर और पाँच अन्तरायोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । विशेष, निद्रा, प्रचलाका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है, स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानु
१. "द्वीन्द्रियाणामुत्कृष्टा स्थितिर्द्वादशवर्षाः, त्रीन्द्रियाणां एकान्नपञ्चाशद्वात्रिंदिवानि चतुरिन्द्रियाणां षण्मासाः |" - त० रा० पृ० १४६ ।
२. "पंचिदिय पंचिदियपज्जत्तएसु सासणसम्मादिट्टि सम्मामिच्छादिट्टीण मंतरं केव चिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहणेण पलिदोवमस्स असंखेजादिभागो, अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण सागरोत्रमसहस्वाणि पुव कोडिते महियाणि सागरोवमसदपुत्तं । असंजदसम्मादिट्टिप्पहूडि जात्र अपमत्तमंजदाणमंतर केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्व जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण सागरोवमसहस्माणि पुव्वको डिपुधतेव्भहियाणि सागरोवमसदपुधत्त ।" पटखं०, अंतरा, सूत्र ११४- १२१ |
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६२
महाबंधे इत्थिवे. अंतो० । इत्थि० [ जह० ] एगस० उक्क० बे छावद्विसागरो० सादिरे० देसू० । अट्ठक० जह० अंतो०, उक० पुवकोडिदेसू० । णपुंस० पंचसंठा० पंचसंघ० अप्पसत्थ० दूभग-दुस्सर-अणादे० णीचा० जह० एग०, उक्क०ये छावट्ठि० सादिरे०, तिणि पलिदोव० देसू० । तिणि आयु० जह० अंतो०, उक० सागरोपमसदपु० । मणुसायु० जह० अंतो०, उक्क० सागरोपमसहस्साणि० पुवकोडिपुधत्तणवभदियाणि । पज्जत्ते सागरोपमसदपु० । तसेसु-तिण्णि-आयु० जह० अंतो०, उक्क० सागरोपमसदपुध० । मणुसायु० जह० अंतो०, उक्क० बेसागरोवमसह पुव्वकोडिपु० । पजचे बेसागरोपम० देसू० । णिरयगदि चदुजादि-णिरयाणुपुब्धि-आदाव-थावरादि०४ जह० एग० उक्क० पंचासीदि-सागरोपमसदं। तिरिक्खगदि-तिरिक्खग०पाओ० उज्जोव. जह० एग०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं । मणुस० मणुसाणु० उच्चा० देवगदि०४ जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सांग० सादिरे० । ओरालि० ओरालि० अंगो वज्जरिसभसंघ० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरे । आहारदुग० जह• अंतो०, उक० सगहिदी० ।
बन्धी ४ और स्त्रीवेदका जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। विशेप-स्त्रीवेदका [ जघन्य ] एक समय है तथा इन सबका साधिक दो छयासठ सागर में किंचित् न्यून उत्कृष्ट अन्तर है । आठ कपायका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि है। नपुंसकवेद, ५ संस्थान, ५ संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक दो छयासठ सागर कुछ कम तीन पल्य प्रमाण है। तीन आयका जघन्य अन्तर्महत
और उत्कृष्ट सागर शतपृथक्त्व है। मनुष्यायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट सहस्रसागरोपम पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक है। पर्याप्तकोंमें सागर शतपृथक्त्व है। बसोंमें-तीन आयुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट सागरोपम शतपृथक्त्व अन्तर है। मनुष्यायुका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे दो हजार सागरोपम पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक है । पर्याप्तकोंमें दो हजार सागरोपममें कुछ कम अन्तर है।' नरकगति, ४ जाति, नरकानुपूर्वी, आताप, स्थावरादि ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट एकसौ पचासी सागरोपम है। तिर्यंचगति, तियंचानुपूर्वी और उद्योतका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट एकसौ सठ सागरोपम है। मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र, देवगतिचतुष्कका जवन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तेतीस सागर है । औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वनवृषभ संहननका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्य अन्तर हे । आहारकद्विकका जघन्य अन्तमुहूते, उत्कृष्ट अपनी स्थिति प्रमाण अन्तर है।
(१) "तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसुसासणसम्मादिद्वि-सम्मामिच्छादिट्टणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमहत्त, उक्कस्सेण बे सागरोवमसहस्साणि पुनकोडि--पुधत्तेणब्भहियाणि बे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि, असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जोव अप्पमत्त संजदाणमंतरं केवनिरं कालादो होदि ? एग जीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहत्तं, उक्कसण वे सागरोवमसहस्साणि पुत्रकोडिपुवत्तणह्यिाणि, बे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि ।"- पखं०, अंतरा०, सूत्र १३६-१४५।
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३७. पंचमण० पंचवचि०- पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलस० भयदुगुं० चदुआयु० तेजाकम्म० आहारदुग० वण्ण०४ अगु० उपघा० - णिमिणं तित्थय० पंचत० णत्थि अंत० | सेसाणं जह० एग०, उक्क० अंतो० । कायजोगीसु-पंचणा० छदंसणा०
३७. पाँच मनोयोग, पाँच वचनयोग में - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, ४ आयु, तैजस, कार्मण, आहारकद्विक, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थंकर और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है । शेषका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त हैं ।
मनोयोगी,वचनयोगी जीवोंके योगों के अन्तरपर खुद्दाबन्ध में यह कथन पाया जाता है, "जोगाणुवादेण पंचमणजोगि - पंचवचिजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं" - - सूत्र ५९-६० । योगमार्गणा के अनुसार पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? कमसे कम अन्तर्मुहूर्त अन्तर है । महाबन्ध में जो ज्ञानावरणादि अन्तराय पर्यन्त प्रकृतियोंके सिवाय शेष प्रकृतियोंका अन्तर उक्त योगों में " जह० एग० " - जघन्यसे एक समय कहा है। उसका भाव यह है कि उक्त योगों में बँधनेवाली प्रकृतियोंके बन्धका बिरहकाल कमसे कम एक समय जानना चाहिए। क्षुद्रकबन्ध में सामान्य अपेक्षासे योगका अन्तर बताया है । एक योगसे अन्य योगको प्राप्त करने के पश्चात् पुनः पूर्वयोगको प्राप्त करने में मध्यवर्ती काल कमसे कम अन्तर्मुहूर्त होगा । धवलाटीका में यह शंकासमाधान आया है ।
शंका- इन पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवोंका एक योगसे दूसरेमें जाकर पुनः उसी योग में लौटनेपर एक समय प्रमाण अन्तर क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान - नहीं पाया जाता; क्योंकि जब एक मनोयोग या वचनयोगका विघात हो जाता है या विवक्षित योगवाले जीवका मरण हो जाता है, तब केवल एक समय के अन्तर से पुनः अनन्तर समय में उसी मनयोग या वचनयोगकी प्राप्ति नहीं हो सकती ।
उक्त योगोंका उत्कृष्ट अन्तरका काल असंख्यातपुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल है । सूत्रकार भूतबलि स्वामी कहते हैं - " उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज-पोग्गल-परियट्ट” ( ६१ सूत्र ) । इसका स्पष्टीकरण धवला टीकामें इस प्रकार किया गया है - मनयोगसे वचन योग में जाकर वहाँ अधिक काल तक रहकर पुनः काययोगमें जाकर और वहाँ भी सबसे अधिक काल व्यतीत करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पुद्गल परिवर्तन परिभ्रमण कर पुनः मनयोग में आये हुए जीवके उक्त प्रमाण अन्तर पाया जाता है। शेष चार मनयोगी पाँच वचनयोगी जीवोंका भी इसी प्रकार अन्तर प्ररूपित करना चाहिए, क्योंकि इस अपेक्षासे उनमें कोई विशेषता नहीं है । ( पृ० २०६ खु० बं० )
इस प्रकरण में खुदाधका यह कथन ध्यान देने योग्य है - "कायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एगसमत्रो, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त" सूत्र ६२, ६३, ६४ । काययोगी
१. “जोगाणुवादेण—– पंचमणजोगि -- पंचवचिजोगीसु, कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु मिच्छादिट्टि • असजद सम्मादिट्टि -संजदासंजद - प्रमत्त- अप्पमत्तसंजद- सजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? गाणेगजीवं पच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं । सामणसम्मादिट्टि सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं । चदुण्मुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुन्च णत्थि अंतरं निरंतरं । चदुन्हं खवगाणमोघं ।" - पटखं०, अंतरा०, सूत्र १५३, १५६- १५६ 1
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महाबंधे सादासाद० चदुसंज० णवणोक० तिण्णिग०-पंचजादि-चदुसरी०-छसंठा०-दो अंगो०छसंघ० वण्ण०४ तिण्णि-आणु ० अगु०४ आदावुज्जो०-दोविहा० तसादि-दस-युगलणिमिणं तित्थय० णीचा. पंचत० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त० बारसक० दोआयु० आहारदु० णथि अंत० । तिरिक्खायु० जह० अंतो०, उक्क० बावीसवस्ससहस्साणि सादिरे..। मणुसा० ओघं० । मणुसगदितिगं ओघ । ओरालिय०पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदुगुं० दो आयु. आहारदुगं० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं तित्थय० पंचंत० णत्थि अंत०। दो आयु० जह० अंतो०, उक्क ० सत्तवस्ससहस्सा० सादि० । सेसाणं जह० एग०, उक्क० अंतो० । ओरालिमि०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलक० भयदुगुं० देवगदि०४ ओरालिय-तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० तित्थ० पंचंत० णत्थि अंत० । दो आयु० जहण्णु० अंतो० । सेसाणं जह० एग०, उक्क० अंतो०। वेउव्यियकायजो०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोल० भयदुगुं० ओरालिय० तेजा० वण्ण०४ अगुरु०४ बादर-पज्जत्त-पत्तेयणिमि० तित्थय. पंचंत० णथि अंत० । सेसाणं जह० एग०, उक्क० अंतो० । एवं
जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? कमसे कम एक समय, उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। इसपर वीरसेन स्वामीने इस प्रकार प्रकाश डाला है- काययोगसे मनयोग और वचनयोगमें क्रमशः जाकर और उन दोनों ही योगोंमें उनके सर्वोत्कृष्ट काल तक रहकर पुनः काययोगमें आये हुए जीवके अन्तमुहूर्त प्रमाण काययोगका अन्तर प्राप्त होता है।" जघन्य अन्तरके विषयमें धवलाटीकामें लिखा है, "काययोगसे मनयोगमें या वचनयोगमें जाकर एक समय रहकर दूसरे समयमें मरण करने या योगके व्याघातित होनेपर पुनः काययोगको प्राप्त हुए जीवके एक समयका जघन्य अन्तर पाया जाता है।
___ काययोगियोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता-असाता, ४ संज्वलन, ६ नोकषाय, ३ गति, ५ जाति, ४ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, वर्ण ४, ३ आनुपूर्वी, अगुरुलघु ४, आताप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसादि १० युगल, निर्माण, तीर्थकर, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, १२ कषाय, देव - नरकायु और आहारद्विकका अन्तर नहीं है। तिर्यंचायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट साधिक बाईस हजार वर्ष है । मनुष्यायुका ओघके समान है। मनुष्यगतित्रिकका भी ओघके समान है।
औदारिक काययोगमें--५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, देव-नरकायु, आहार द्विक, तैजस, कार्मण , वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थकर और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है । दो आयुका जघन्य अन्तमुहूते, उत्कृष्ट साधिक सात हजार वर्ष है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है ।
औदारिकमिश्र काययोगमें - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति चार, औदारिक, तैजस, कार्मण , वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थकर और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। दो आयु अर्थात् मनुष्य-तियोचायुको जघन्य
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चैव वेउव्वियमि० । णवरि दो आयु ० णत्थि । आहार० आहार मिस्स ० - पंचणा० छदसणा० चदुसंज० पुरिस० भयदुगुं० तेजाक० देवायु० देवगदि० पंचिंदि० वेउब्वि० समचदु० वेउच्चि अंगो० वण्ण०४ देवाणुपु० अगुरु ०४ पसत्थवि० तस०४ सुभगसुस्सर-आदे० - णिमिणं तित्थयर० उच्चा० पंचंत० णत्थि अंत० । सादासा० चदुणोक०
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तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । औदारिक तथा औदारिक काययोगी जीवोंका अन्तर खुद्दाबन्धमें "जहणेण एकसमओ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि" (६५, ६६, ६७ सूत्र ) जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है । धवला टीका में कहा है
शंका- औदारिकमिश्र काययोगी तो अपर्याप्त अवस्था में होता है, जब कि जीवके मजयोग और वचनयोग होता ही नहीं है, अतः औदारिक मिश्र काययोगका एक समय अन्तर किस प्रकार हो सकता है ?
समाधान- नहीं, हो सकता है। औदारिक मिश्र काययोगसे एक विग्रह करके कार्माण काययोगमें एक समय रहकर दूसरे समयमें औदारिकमिश्र में आये हुए जीवके औदारिकमिश्र काययोगका एक समय अन्तर प्राप्त हो जाता है । औदारिक काययोगका उत्कृष्ट अन्तर इस प्रकार जानना चाहिए- औदारिक काययोगसे चार मनयोगों व चार वचनयोगों में परिणमित हो मरण कर तेतीस सागरोपम प्रमाण आयु स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर वहाँ अपनी स्थितिप्रमाण रहकर, पुनः दो विग्रह कर मनुष्य में उत्पन्न हो औदारिकमिश्र काययोगसहित दीर्घकाल रहकर पुनः औदारिक काययोग में आये हुए जीव के नौ अन्तर्मुहूर्ती व दो समयोंसे अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण औदारिक काययोगका अन्तर प्राप्त होता है ।
औदारिकमिश्र काययोगका अन्तर अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि से अधिक तेतीस सागरो म होता है, क्योंकि नारकी जीवों में से निकलकर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हो औदारिकमिश्र काययोगको प्रारम्भ कर कमसे कम कालमें पर्याप्तियोंको पूर्ण कर औदारिक काययोग के द्वारा औदारिकमिश्र काययोगका अन्तर कर कुछ कम पूर्व कोटिकाल व्यतीत करके तेतीस सागरकी आयुवाले देवों में उत्पन्न हो पुनः विग्रह करके औदारिकमिश्र काययोगमें जानेवाले जीवके सूत्रोक्त प्रमाण अन्तर पाया जाता है । (धवला टीका, खु०ब०, पृ० २०८ ) वैक्रियिक काययोगमें—५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थ कर और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है । शेषका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अन्तर है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगका समझना चाहिए । विशेष, यहाँ मनुष्य- तिर्यंचायु नहीं है । आहारक और आहारकमिश्रकाययोगमें ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण - शरीर, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर, उच गोत्र और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है । साता-असातावेदनीय, ४ नोकषाय, स्थिरादि
१. आहारक कायजोगि आहारक मिस्स कायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण अंतोमुहुचं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टं देणं ७४, ७५, ७६ सूत्र, खु०ब०, पृ० २१० ।
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महाबंधे थिरादि-तिणि युग० जह० एग०, उक्क० अंतो० । कम्मइ० का०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलस० तिण्णिवे०-भयदु०तिणि ग०-पंचजा०-चदुसरी०. छस्संठा० दोअंगो० छस्संघ-वण्ण०४ तिणि आणु०-अगुरु०४ दोविहा०-तसथावरादिचदुयुगलसुभादि-तिण्णियुग-णिमि०-तित्थय० णीचुच्चा०-पंचंत० णत्थि अंत० । सादासा० चदुणोक० आदावुज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ० जस० अज्जस० जहण्णु० एगस० ।
३८. इत्थिवे०-पंचणा० छदसणा० चदुसंज० भयदुगु. तेजाक० वण्ण०४ अगु० उपघा०-णिमि० तित्थय० पंचंत० णत्थि० अंतः। थीणगिद्धि०३ मिच्छ० अणंताण०४ जह० अंतो०, उक्क ०पणवण्णं पलिदो० देसू० । सादासा० पंचणोक० तीन युगलका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। कार्मण-काययोगियों में-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कपाय, ३ वेद, भय, जुगुप्सा,'३ गति (नरकगति छोड़कर ), ५ जाति, ४ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, वर्ण ४,३ आनुपूर्वी, अगरुलघ ४, दो विहायोगति, सस्थावरादि ४ युगल, शुभादि ३ युगल, निर्माण, तीर्थकर, नीच-उच्च गोत्र और पाँच अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। साता-असाता वेदनीय, ४ नोकषाय, आताप, उद्योत, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यशःकीर्ति, अयशःकीर्तिका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर एक समय है।
विशेषार्थ- कार्मणकाययोगका उत्कृष्ट काल उत्कृष्टसे तीन समय प्रमाण है। तीन समयके बीच में अन्तरका काल एक समयसे अधिक अथवा न्यून न होगा। एक समयं बन्धका होगा, एक समय अबन्धका और एक समय पुनः बन्धका। इस कारण जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर एक समय प्रमाण कहा है।
विशेषार्थ-खुद्दा बन्धमें कार्मण काययोगियोंके विषयमें ये सूत्र हैं -कम्मइयकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उकस्सेण अंगुलस्स असंखेजदिभागो असंखेजासंखेजात्रो अोसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ (७७, ७८, ७६,) कार्मणकाययोगी जीवोंका कितने काल अन्तर होता है ? जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण काल अन्तर है, उत्कृष्टसे अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल होता है। इस संबन्धमें धवलाटीकाकारने इस प्रकार खुलासा किया है - तीन विग्रह करके मदभव धारण करनेवाले जीवों में उत्पन्न हो.पुनः विग्रह करके निकलनेवाले जीवके तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र कार्मण-काययोगका अन्तर प्राप्त होता है।
कार्मण-काययोगसे औदारिक मिश्र अथवा वैक्रियिकमिश्र काययोगमें जाकर असंख्यात-संख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीप्रमाण अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक रहकर पुनः विग्रहगतिको प्राप्त हुए जीवके कार्मण - काययोगका सूत्रोक्त अन्तर काल पाया जाता है । ( खु० भा० २ पृ० २१२-२१३)
३८. स्त्रीवेदमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थंकर और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम ५५ पल्य है।
१. गो० क०,गा० ११६, ११९ ।
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पयडिबंधाहियारो पंचिंदि० समचदु० परघादुस्सा० पसत्थ. तस०४ थिरादितिण्णियु० सुभग-सुस्सरआदे० उच्चा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अट्ठक० जह• अंतो०, उक्क पुन्वकोडिदेसू० । इत्थि० णवंस० तिरिक्खग० एइंदिय० पंचसंठा० पंचसंघ० तिरिक्खाणु० आदावुज्जो० अप्पसत्थवि० थावर-भग-दुस्सर-अणादे णीचा० जह० एग०, उक्क. पणवण्णं पलिदो० देसू० । णिरयायुजह. अंतो० । उक्क० पुबकोडितिभागं देसू० । तिरिक्खायु-मण सायु जह० अंतो० । उक्क० पलिदोपमसदपुध० । देवायु ० जह. अंतो० । उक्क० अट्ठावण्णं पलिदो० पुवकोडिपुध० । दोगदि० तिण्णि ना० वेउधि० वेउधिय० अंगो० दोआणुपु० सुहुम-अपज्जत्त० साधार०जह०एग० उक०
विशेषार्थ-मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक पुरुषवेदी या नपुंसकवेदी जीव ५५ पल्योपमवाली देवीमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर,(१) विश्राम ले
घशाद हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर अन्तरको प्राप्त हुआ। आयुके अन्त में आगामी भवको आयुको बाँधकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और मरण किया। इस प्रकार कुछ कम ५५ पल्योपम स्त्रीवेदी मिथ्या दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर होता है । इसी प्रकार मिथ्यात्वादिका अन्तर जानना चाहिए। (ध० टी०,अन्तरा०पृ०६५)
___ साता-असाता वेदनीय, ५ नोकषाय, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्र संस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिरादि तीन युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। आठ कषायोंका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि अन्तर है।
विशेषार्थ-मोहनीयकी २८ प्रकृतिकी सत्तावाला कोई जीव मरण कर भाव-स्त्रीवेदी किन्तु द्रव्य पुरुष हुआ। एक कोटिपूर्वकी आयु प्राप्त की। गर्भसे लेकर आठ वर्ष बीतनेपर सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके साथ-साथ सकलसंयमको भी प्राप्त किया। पश्चात् संक्लेशवश गिरकर अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरणरूप ८ कपायका बन्ध करके मरण किया। इस प्रकार अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायोंके बन्धकका अन्तर कुछ कम एक कोटिपूर्व कहा है।
स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, निर्गच गति, एकेन्द्रिय जाति, ५ संस्थान, ५ संहनन, तिर्यंचानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीच गोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम ५५ पल्य प्रमाण है । नरकायुका जघन्य अन्तमहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम कोटिपूर्वका त्रिभाग है । तिर्यंचायु, मनुष्यायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पल्यशत पृथक्त्व है।
विशेषार्थ-कोई ८ मोहकी प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव स्त्रीवेदी था। मरणकर देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वी हुआ,(४) पश्चात् मिथ्यात्वी हो गया। तिर्यंच आयु अथवा मनुष्यायुका बन्ध कर मरण किया और पल्यशत पृथक्त्व कालप्रमाण परिभ्रमण कर तिरींचायु या मनुष्यायका बन्ध कर सम्यक्त्वसहित हो मरण किया। इस प्रकार असंयत सम्यकदृष्टि स्त्रीवेदी जीवकी अपेक्षा पल्यशत पृथक्त्व प्रमाण अन्तर होता है। (ध०टी०,अन्तरा० पृ०१६)
देवायुका जघन्य अन्तर्मुहूते, उत्कृष्ट ५८ पल्योपम पूर्वकोटि पृथक्त्व है। दो गति, तीन जाति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, दो आनुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारणका
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महाबंधे पणवण्णं पलिदो० सादिरे । मणुसग० ओरालिय० ओरालिय० अंगो० वारिसभसंघ० मणुसाणु० जह० एग०, उक० तिण्णि पलि० देसू० । आहारदुगं जह० अंतो०, उक्क० पलिदोवमसदपु०। पुरिस०-पंचणा० चदुदंसणा० चदुसंज० पंचंत० णस्थि अंत० । थीणगिद्धि०३ मिच्छ० अणंताणु०४ अट्ठक० । इत्थिवे. ओघ । णिद्धापयला
ओघं । सादासा० सत्तणो० पंचिंदि० तेजाक० समचदु० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थ० तस०४ थिरादिदोणियुग०-सुभग-सुस्सर-आदे० णिमि० तित्थय. उच्चा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णपुंस० पंचसंठा० पंचसंघ० अप्पसत्थ० भग-दुस्सर० अणादे०णीचा. जह० एग०, उक्क. वेछाव ट्ठि-सादि० तिण्णि पलिदो०देसू० । णिरयायु० इत्थिवेदभंगो । दोआयु० जह० अंतो०, उक्क०सागरोपमसदपु० । देवायु० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । णिरयगदि-चदुजादि-णिरयाणुपु०-आदावुज्जो०-थावरादि०४ जह० एगस० उक्क० तेवट्ठिसाग० सदं० । एवं तिरिक्खगदिदुगं । मणुसगदिपंचगं जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादि० । देवगदि०४ जह० एग०, उक० तेत्तीसं सा० सादि० । आहारदुर्ग जह० अंतो०, उक्क० सागरोपमसदपु० । णपुंस०-पंचणा० छदंस० चदुसंज० भयदुगु. तेजाकम्म० वण्ण०४ अगुरु० उप० णिमि० पंचंत० णत्थि अंत० । थीणगिद्धि०३ मिच्छ० अणं
जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ अधिक ५५ पल्य अन्तर है। मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वन-वृषभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी का जघन्य एक समय उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। आहारकद्विकका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पल्यशत पृथक्त्व प्रमाण अन्तर है। . पुरुषवेदमें-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्ज्वलन, ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी ४, ८ कषाय, त्रीवेदका ओघके समान जानना चाहिए । निद्रा, प्रचलाका भी ओघके समान है। साता-असाता वेदनीय, ७ नोकपाय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण ४, अगुहलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्च गोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्त मुहूर्त है । नपुंसकवेद, ५ संस्थान, ५ संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीच गोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर प्रमाण अन्तर है। नरकायुका स्त्रीवेदके समान जानना। मनुष्य, तियंचआयुका जघन्य अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट सागरोपम शत-पृथक्त्व अन्तर है । देवायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक तेतीस सागर है। नरकगति, ४ जाति, नरकानुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावरादि ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट ६३ सागरोपम अन्तर है। तियंचगति, तियंचगत्यानुपूर्वी में इसी प्रकार जानना चाहिए। मनुष्यगतिपंचकका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्य है । देवगति ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तेनीस सागर है। आहारकद्विकका जघन्य अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट सागर शत-पृथक्त्व अन्तर है।
___ नपुंसकवेदमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्माण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तरायोंमें अन्तर नहीं है । स्त्यानगृद्धित्रिक,
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पयडिबंधाहियारो
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ताणु०४ इत्थि णपुंसक० तिरिक्खगदि-पंचसंठा० पंचसंघ० तिरिक्खाणु० उज्जोव ० अप्पसत्थ० दूर्भाग० दुस्सरअणादे० णीचा० जह० अंतो०, एगस० । उक्क० तेत्तीसं० देसू० | सादासादा० पंचणो० पंचिंदि० समचदु० परघादु०-पसत्थ० तस०४ थिरादिदोणि यु० सुभ० - सुस्सर-आदे० जह० एग०, उक्क० अंतोमु० । अट्ठक० दोआयु० वेउन्त्रि ० छक० मणुसगदितिगं आहारदुगं ओघभंगो । तिरिक्खायु० जह० अंतो०, उक० सागरोपमसदपुध० | देवायु० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडितिभागं देसू० । चदुजा० आदाव थावरादि०४ जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० सादिरे० । ओरालिय० ओर। लि० अंगो० वज्ररिसभ० जह० एक०, उक्क० पुव्व कोडिदेसू० । तित्थय० जहण्णु० अंतो० । अवगद० - पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० जसगि० उच्चा० पंचत० जहण्णु ०
मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यंचगति, ५ संस्थान, ५ संहनन, तिर्यंचानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्रका जघन्य अन्तर्मुहूर्त अथवा एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम तेतीस सागर है ।'
विशेषार्थ - मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई जीव मिथ्यात्वयुक्त हो, सातवें नरक में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर ( १ ) विश्राम ले ( २ ) विशुद्ध हो ( ३ ) सम्यक्त्वको प्राप्त किया। आयुके अन्त में मिथ्यात्वको पुनः प्राप्त करके ( ४ ) आयुको बाँध, (५) विश्राम ले ( ६ ) मरा और तिथंच हुआ । इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम तेतीस सागरोपम नपुंसकवेदी मिध्यात्वीका उत्कृष्ट अन्तर रहा । ( पृ० १०७ ) यही अन्तर मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का होगा ।
साता-असातावेदनीय, ५ नोकषाय, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेयका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । ८ कपाय, २ आयु, वैक्रियिक घटक, मनुष्यगतित्रिक, आहारकद्विकका ओघवत् जानना चाहिए । तिर्यंच आयुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट सागर शतपृथक्त्व है । देवायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभाग है । जाति ४, आताप, स्थावरादि ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तेतीस सागर है । औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्र-वृषभसंहननका जघन्य एक समय उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि है | तीर्थंकरका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ - खुद्दाबंध में स्त्रीवेदीका जघन्य अन्तर क्षुद्रभव- ग्रहणकाल “जहण्णेण खुद्दा"भवग्गणं" (सूत्र ८१ ) कहा है । उत्कृष्ट अन्तर "उक्कस्सेण अनंत कालमसंखेज पोग्गल परियहूँ" ( ८२ ) असंख्यात पुद्गलपरावर्तन प्रमाण अनन्तकाल कहा है ।
पुरुषवेदीका जघन्य अन्तर एक समय " जहण्णेण एगसमओ" (८४ ) कहा है । इसका खुलासा वीरसेन स्वामीने इस प्रकार किया है: पुरुषवेदसहित उपशम श्रेणीको चढ़कर अपगतवेदी हो, एक समय तक पुरुषवेदका अन्तर करके दूसरे समय में मरणकर पुरुषवेदी जीवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव पुरुषवेदका अन्तर एक समय मात्र पाया जाता है । ( खु०
१. "उंसगवेदेसु मिच्छादिट्ठोणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोंवमाणि देसूण णि ।" - षट् खं०, अंतरा० २०७-९ ।
एगजीवं पडुच्च जहणणेण
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महाबंधे अंतो० । सादावे० गत्थि अंत० ।
३६. कोध०-पंचणा० सत्तदंसणा० मिच्छ० सोलस० चदुआयु० आहारदुग० पंचंत० णत्थि अंत० । णिहा-पचला. जहण्णु० अंतो० । सेसाणं जह० एग०, उक्क० बं० टीका पृ० २१४ ) इनका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरावर्तन प्रमाण अनन्तकाल है, "उक्कस्सेणः अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियट सूत्र २३)।
नपुंसक वेदोका जघन्य अन्तर "जहण्णण अंतोमुहुत्तं" (८७) अन्तमुहूर्त है।
शंका-नपुंसकवेदी जीवोंका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण क्यों नहीं प्राप्त हो सकता ?
समाधान-क्षुद्रभवग्रहणमात्र आयुवाले अपर्याप्तक जीवोंमें नपुंसकवेदको छोड़कर स्त्री व पुरुषवेद नहीं पाया जाता और पर्याप्तकोंमें अन्त मुहूर्त के सिवाय क्षुद्रभवग्रहण काल नहीं पाया जाता।
नपुंसकवेदीका उत्कृष्ट अन्तर "उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं" (८८) सागेरापमशत पृथक्त्व है। क्योंकि नपुंसकवेदसे निकलकर स्त्री और पुरुष वेदोंमें ही भ्रमण करनेवाले जीवके सागरोपम शत-पृथक्त्वसे ऊपर वहाँ रहना संभव नहीं है । पृ. २१५।।
'अपगत वेद में-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण.४ संज्वलन. यश कीर्ति, उच्चगोत्र, ५.अन्तरायोंका जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। साता वेदनीयका अन्तर नहीं है ।
विशेषार्थ-अपगत वेदीके "उवसमं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं' (९०) उपशमकी अपेक्षा अपगतवेदी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसका स्पष्टीकरण धवलाटीकामें इस प्रकार है, उपशम श्रेणीसे उतरकर सबसे कम अन्तर्मुहूर्तमात्र सवेदी होकर, अपगतवेदित्वका अन्तर कर पुनः उपशमश्रेणीको चढ़कर अपगत वेदभावको प्राप्त होनेवाले जीवके अपगतवेदित्वका अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर पाया जाता है। उपशमकी अपेक्षा अपगतवेदी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर देशोन अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है-"उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियटै देसणं" (९१)। इसका स्पष्टीकरण वीरसेन आचार्यने इस प्रकार किया है : किसी अनादि मिथ्या दृष्टि जीवने तीनों करण करके, अर्धपुद्गल परिवर्तनके आदि समयमें सम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण किया और अन्तर्मुहूर्त रहकर उपशम श्रेणीको चढ़कर अपगतवेदी हो गया। वहाँ से फिर नीचे उतरकर सवेदी हो, अपगत वेदका अन्तर प्रारम्भ किया और उपाधपुद्गल परिवर्तनप्रमाण भ्रमण कर पुनः संसारके अन्तमुहूतमात्र शेष रहनेपर उपशमश्रेणीको चढ़कर अपगतवेदी हो अन्तरको समाप्त किया । पश्चात् फिर नीचे उतरकर क्षपकश्रेणीको चढ़कर अबन्धक भावको प्राप्त किया। ऐसे जीवके अपगतवेदित्वका कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण अन्तर-काल प्राप्त हो जाता है।
३६. क्रोधमें-५ ज्ञानावरण, ७ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, ४ आयु, आहारकद्विक और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। निद्रा, प्रचलाका जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूत है।
विशेषार्थ-निद्रा, प्रचलाका बन्ध अपूर्वकरणके प्रथमभागपर्यन्त होता है। इन प्रकृतियोंका बन्धक जीव उपशमश्रेणीका आरोहण करके, उपशान्तकषाय पर्यन्त चढ़कर तथा
१. “अवगदवेदेसु अणियट्टि-उवसंम-सुहुम-उवसमाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अंतोमुत्तं ।" -षटर्ख०,अंतरा०,२१४-२१७ ।
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पयडिबंधाहियारो अंतो। माणे-तिणि संजलणा०णथि अंत०। मायाए दोण्णि संज० णत्थि अंत० । सेसाणं कोधभंगो। लोभे-पंचणा० सत्तदंसणा० मिच्छ. बारसक० चदुआयु० आहारदु० पंचंत० णत्थि अंत० । सेसाणं जह० एग०, उक्क अंतो० । णवरि णिद्दापचला जहण्णु० अंतो० । अकसाई-साद० णत्थि अंत । केवलणा-यथाक्खाद. केवलदंस० एवं चेव ।
४०. मदि० सुद०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु० तेजाक० वपण०४. अगु० उप० णिमि० पंचंत० णत्थिः अंत० । सादासा० छण्णोकर पंचिंदि० समचदु० परघादुस्सा० पसत्थवि० तस०४ थिरादिदोणियु०-सुभग-सुस्सर-आदेञ्ज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णपुंस० ओरालियस० पंचसंठा० ओरालिय० अंगो० छसंघ० अप्ससस्थ० भग-दुस्सर-अणादे० णीचा. जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिंदोप० दे० । तिणि आयु० जह० अंतो०, उक्क० अणंतकालं असंखे०। तिरिक्खायु० जह० अंवो०, उक्क० सागरोपमसदपुधः । वेउव्वियछक्क० जह० एग०, उक्क०
उतरते हुए अपूर्वकरणके प्रथमभागमें पुनः बन्ध प्रारम्भ कर देता है । इस कारण इनका जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है।
मानमें-३ संज्वलनका अन्तर नहीं है। मायामें-दो संज्वलनका अन्तर नहीं है । शेष प्रकृतियों में क्रोधके समान भंग जानना चाहिए। लोभकषायमें-५ ज्ञानावरण, ७ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १२ कषाय, ४ आयु, आहारकद्विक और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। विशेष-निद्रा, प्रचलाका जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । अकषायीमें-सातावेदनीयका अन्तर नहीं है।
विशेषार्थ-सातावेदनीयका अप्रमत्तसे लेकर सयोगीकेवली पर्यन्त निरन्तर बन्ध होता है । इस कारण उपशान्तकषाय या क्षीणकषायमें साताका अन्तर नहीं बताया है ।
केवलज्ञान, यथाख्यात संयम, केवलदर्शनका अकषायकी तरह वर्णन जानना चाहिए ।
४०. मत्यज्ञान, ताज्ञानमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मण, वण ४, अगुरुलघु, उपघात, निमोण तथा ५ अन्तरायाका अन्तर नहीं है।
विशेषार्थ-ज्ञानावरणादिके अबन्धक उपशान्त कषायादि गुणस्थानमें होंगे। इन कुज्ञानयुगलमें आदिके दो गुणस्थान ही पाये जाते हैं। इससे ज्ञानावरणादिका अन्तर नहीं कहा।
____ साता-असाता वेदनीय, ६ नोकषाय, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि २ युगल, सुभग, सुस्वर, आदेयका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। नपुंसकवेद, औदारिक शरीर, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीच गोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम तीन पल्य है। तीन आयु अथात् देव, नर, नरक आयुका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । तियच आयुका जघन्य अन्तर्मुहूते, उत्कृष्ट सागर शत-पृथक्त्व अन्तर है। वैक्रियिक षटकका जघन्य एक
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महाबंधे
१०२ अणंतकालं असंखे। तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० उज्जोव० जह० एग०, उक्क० एकतीसं सादि० । मणुसगदितिगं ओघ । चदुजादि० आदाव-थावरादि०४ जह० एगस०, उक्क० एकतीसं सादि०। एवं अन्भवसिद्धियमिच्छादिढि०। विभंगेपंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदुगु० णिरय० देवायु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उपधा० णिमि० पंचंत० णत्थि अंत० । दोआयु० देवोओघं । सेसाणं० जह० एग०, उक्क० अंतो। आभि० सुद० ओधि०-पंचणा० छदंस० चदुसंज० सादासा० सत्तणोक० पंचिंदि० तेजाकम्म० समचतु० वण्ण०४ अगुरु०४ पसत्थवि०
समय, उत्कृष्ट अनन्तकाल असंख्यात पुद्गल परावर्तन है। तिर्यंच गति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, उद्योतका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक ३१ सागर है। मनुष्यगतित्रिकमें ओघकी तरह जानना चाहिए । ४ जाति, आताप, स्थावरादि ४ का जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट साधिक ३१ सागर है । अभव्यसिद्वि कमिथ्याइष्टिका भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
विशेषार्थ-मति अज्ञानी, श्रुताज्ञानी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसका स्पष्टीकरण धवला टोकामें इस प्रकार किया गया है : "मति अज्ञान तथा श्रुताज्ञानसे सम्यक्त्व ग्रहण कर मतिज्ञान व श्रुतज्ञानमें आकर कमसे कम कालका अन्तर देकर पुनः मति अज्ञान, श्रुताज्ञान भावमें गये हुए जीवके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तरकाल पाया जाता है।
उक्त अज्ञानी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर “उक्कस्सेण बेछाटि-सागरोपमाणि" (९९) दो. छ्यासठ सागरोपम अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोफ्मकाल है। इसपर वीरसेन स्वामीने इस प्रकार प्रकाश डाला है : किसी कुमति-कुश्रुतज्ञानी जीवके सम्यक्त्वग्रहण करके कुछ कम छ्यासठ सागरोपमकाल प्रमाण सम्यक्ज्ञानोंका अन्तर देकर पुनः सम्यक्त्व-मिथ्यात्वको जाकर मिश्रज्ञानोंका अन्तर देकर पुनः सम्यक्त्वग्रहण करके कुछ कम छयासठ सागरोपमप्रमाण परिभ्रमण कर मिथ्यात्वको जानेसे दो छयासठ सागरोपम प्रमाण मतिश्रुत-अज्ञानोंका अन्तरकाल पाया जाता है।
शंका-दो छयासठ सागरोपमोंमें जो कुछ कम काल बतलाया है उसका क्या हेतु है ?
समाधान-इसका कारण यह है कि उपशम सम्यक्त्व कालसे दो छयासठ सागरोपमोंके भीतर मिथ्यात्वका अधिक काल पाया जाता है (जीवट्ठाण, अंतराणुगम सूत्र,४ की टीका)। सम्यग्मियादृष्टिज्ञानको मतिश्रुत अज्ञान रूप मानकर कितने ही आचार्य उपयुक्त अन्तरप्ररूपणामें सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तर नहीं दिलाते, पर यह बात घटित नहीं होती; क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वभावके अधीन हुआ ज्ञान सम्यग्मिथ्यात्वके समान एक अन्य जातिका बन जाता है। अतः उस ज्ञानको कुमति कुश्रुत रूप मानने में विरोध आता है।
विभंगावधिमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, नरक, देवायु, तेजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, और ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। दो आयुका देवोंके ओघवत् जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय उत्कृष्ट अन्तमुहत है।
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञानमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, साता-असाता वेदनीय, ७ नोकपाय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस-कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान,
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पंयडिबंधाहियारो
१०३ तस०४ थिरादि-दोणियुग सुभग-सुस्सर-आदे० णिमितित्थय० उच्चा०पंचंत० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अट्ठक० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडिदेसू० । दोआयु० देवग०४ जह० अंतो०, उक० तेत्तीसं० सादि० । मणुसगदिपंचगं जह० वासपुध०, उक्क० पुवकोडि० । आहारदुगं जह० अंतो०, उक्क० छावट्ठिसा० सादिरे । एवं ओधिदं० सम्मादिहित्ति ।।
मणपज्जवणा०-पंचणा० छदंस० चदुसंज० पुरिस० भयदु० देवगदि-पंचिंदि० चदुसरीर० समचदु० दोअंगो० वण्ण०४ देवाणुपु० अगुरु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदे०-णिमिण-तित्थय०-उच्चा०-पंचंत० जहण्णु० अंतो० । सादासा०चदुणोक० थिरादितिण्णियु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । देवायु० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडितिभागं देसू० । वर्ण ४, अगुरुलघु४, प्रशस्त विहायोगति, स४, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका बन्धक जीव उपशमश्रेणीका आरोहण कर जब उपशान्तकषाय गुणस्थानमें पहुँचा, तब इन ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका बन्ध रुक गया। बादमें जैसे ही वह जीव नीचे गिरा कि इनका बन्ध पुनः प्रारम्भ हो गया। इस दृष्टिसे इन ज्ञानोंमें बन्धका अन्तर जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त प्रमाण कहा गया है।
आठ कषायोंका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्व कोटि है।
विशेषार्थ-एक मनुष्यने. अविरत दशामें अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरणरूप कषायाष्टकका बन्ध किया। आठ वर्षकी अवस्थाके अनन्तर सम्यक्त्व तथा महाव्रतको एक साथ धारण कर एक पूर्व कोटिसे अवशिष्ट बची आयु प्रमाण महाव्रती रह मरणकालमें असंयमी बन पुनः ८ कषायोंका बन्ध किया। इस प्रकार देशोन पूर्व कोटि अन्तर होता है।
दो आयु, देवगति ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक ३३ सागर है । मनुष्य गसिपंचकका जघन्य वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि है। आहारकद्विकका जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट साधिक ६६ सागर है। अवधिदर्शन तथा सम्यक्त्वमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
मनःपर्ययज्ञानमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, ४ शरीर, समचतुरस्र संस्थान, दो अंगोपांग, वर्ण ४, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और ५ अन्तरायका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-कोई मनःपर्ययज्ञानी उपझमश्रेणी चढ़कर उपशान्तकषाय गुणस्थानमें पहुँचा, तब अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका अबन्ध हो गया। पश्चात् वह सूक्ष्मसाम्परायादि गुणस्थानों में उतरा, तो पुन: उन प्रकृतियोंका बन्ध प्रारम्भ हो गया । इस प्रकार यहाँ अन्तर जघन्य, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त प्रमाण कहा है।
साता-असातावेदनीय, ४ नोकषाय, स्थिरादि ३ युगलका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । देवायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभाग अन्तर है।
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१०४
महाबंधे ४१. एवं संजद० । एवं चेव सामाइ० छेदो० परिहार० संजदासंजदा० । णवरि धुविगाणं णत्थि अंत० । सुहुमसंप० सव्यपगदीणं णत्थि अंत० । असंजदे धुविगाणं णत्थि अंत० । थीण०३ मिच्छ० अर्णताणु०४ इत्थि० णपुंस० तिरिक्खगदि-पंचसंठा० पंचसंघ० तिरिक्खाणु० अप्पसत्थ० उजो० भग-दुस्स०-अणादे० णीचागो० जह० एग० उक्क० तेत्तीसं० देसू० णवरि थीणगिद्धि०३ मिच्छ० अणंताणु०४ जह० अंतो० । चदुआयु० वेउब्धियछक्क० मणुसगदितिगं च ओघं । एइंदिय-दंडओ तित्थयरं च णपुंसकवेदभंगो । चक्खुदंस० तसपञ्जत्तभंगो । अबक्खुदं० ओघं। .
विशेषार्थ-कोई एक कोटिपूर्वकी आयुवाला जीव मनःपर्ययज्ञानी हुआ। आयुका त्रिभाग शेष रहनेपर देवायुका प्रथम अन्त मुहूर्त में बन्ध किया। इसके अनन्तर मरणकाल आनेपर पुनः आयुका बन्ध किया। इस प्रकार कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभाग देवायुका अन्तर होगा।
विशेषार्थ-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञानवालोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। क्योंकि मति, श्रुत, और अवधिज्ञानी देव या नारकी जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त कर मति-अज्ञान, श्रुताज्ञान, व विभंगज्ञानके द्वारा अन्तर करके पुनः मतिज्ञान, श्रुतज्ञान व अवधिज्ञानमें आनेपर उक्त ज्ञानोंका अन्तमुहतेप्रमाण जघन्य अन्तर प्राप्त होता है।
इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानीका भी जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। यहाँ विशेषता है कि मनःपर्ययज्ञानी संयत जीव मनःपर्ययज्ञानको नष्ट करके अन्तर्महतं काल तक उस ज्ञानके बिना रहकर फिर उसी मनःपर्ययज्ञानमें लाया जाना चाहिए। (धवलाटीका,खु० बं०, पृ० २२०)
४१. संयममें भी इसी प्रकार है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि तथा संयतासंयतोंमें भी इस प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ ध्रुव प्रकृतियोंमें अन्तर नहीं है। सूक्ष्मसाम्परायमें-सर्व प्रकृतियोंका अन्तर नहीं है। असंयतमें-ध्रुव प्रकृतियोंका अन्तर नहीं है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, तियंचगति, ५ संस्थान, ५ संहनन, तियचानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, उद्योत, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीच गोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम ३३ सागर है।
विशेषार्थ-कोई मनुष्य या तिथंच मोहनीयको २८ प्रकृतियोंको सत्तावाला मरणकर सातवीं पृथ्वी में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर,(१) विश्राम ले,(२) विशुद्ध हो,वेदकसम्यक्त्वी हआ (३) उस समय मिथ्यात्वादि प्रकृतियोंका बन्ध रुका। इस प्रकारकी अवस्था आयके अल्पकाल अवशेष रहने तक रही। पश्चात् वह जीव मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हआ (४) इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ। पुनः तियाँच आयुका बन्ध कर (५) विश्राम ले
निकला। इस प्रकार ६ अन्तमहूर्त कम ३३ सागर प्रमाण मिथ्यात्वादिका बन्ध नहीं होनेसे उतना अन्तर रहा । (ध० टी० अन्तरा० पृ० १३४)
विशेष यह है कि स्त्यानगृद्धि ३, मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। चार आयु वैक्रियिक षटक, मनुष्यगतित्रिकका ओघवत् जानना चाहिए। एकेन्द्रिय दण्डक तथा तीर्थकरका नपुंसकवेदके समान भंग जानना चाहिए। चश्मदर्शनमेंत्रस पर्याप्तकोंका भंग जानना चाहिए । अचक्षुदशेनमें-ओघवत् अन्तर जानना चाहिए।
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पयडिबंधाहियारो
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४२. किण्णाए-पंचणा. छदंसणा० बारसक० भयदु० तेजाकम्म० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० तित्थ०-पंचंत० दो-आयु० णत्थि अंत० । थीणगिद्धि०३ मिच्छ० अणंताणु०४ जह० अंतो० । इत्थि० णपुंसक० दोगदि० पंचसंठा० पंचसंघ० दोआणु० उज्जो० अप्पसत्थ० भग-दुस्स० अणादे० णीचुचागो० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० दे। दोआयुगस्स णिरयभंगो। वेउव्विय० वेउव्विय अंगो० जह० एग०, उक्क० बावीसं सा० (१) । सेसाणं जह० एग०, उक्क अंतो०।।
४३. एवं णील-काऊणं' । णवरि मणुसगदितिगं सादभंगो । वेउवि० वेउवि०अंगो० जह० एग०, उक० सत्तारस-सत्तसागरो० ।
___ खुद्दाबन्धमें चक्षुदर्शनी जीवोंका जघन्य अन्तर "जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं" ( सूत्र ११६) क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण है। इसपर धवलाटीकाकार इस प्रकार प्रकाश डालते हैं जो चक्षुदर्शनी जीव क्षुद्रभवग्रहण मात्र आयुःस्थिति वाले किसी भी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, व त्रीन्द्रिय लन्ध्यपर्याप्तकोंमें अचक्षुदर्शनी होकर उत्पन्न होता है और क्षुद्रभवग्रहण मात्र काल चक्षुदर्शनका अन्तर कर पुनः चतुरिन्द्रियादिक जीवोंमें चक्षुदर्शनी होकर उत्पन्न होता है, उस जीवके चक्षुदर्शनका क्षुद्रभवग्रहण मात्र अन्तरकाल पाया जाता है।
चक्षुदर्शनीका उत्कृष्ट अन्तर "उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियदृ" ( १२० सूत्र ) असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल है। - अचक्षुदर्शनी जीवोंके विषयमें ‘णत्थि अंतरं णिरंतरं' (सूत्र १२२ ) अन्तर नहीं है, वे निरन्तर होते हैं। अचक्षुदर्शनीका अन्तर केवलदर्शनी होनेपर हो सकता है, किन्तु केवलदर्शनी होनेपर अचक्षुदर्शनकी उत्पत्तिका अभाव है। क्षायिक दर्शनके होनेपर क्षायोपशमिक दर्शनका अभाव हो जाता है।
४२. कृष्णलेश्यामें-५ ज्ञान्यवरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थकर, ५ अन्तराय तथा २ आयुका अन्तर नहीं है।
स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धो ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त है [ उत्कृष्ट कुछ कम ३३ सागर अन्तर है ] । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, २ गति, ५ संस्थान, ५ संहनन, २ आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्र, उच्चगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम ३३ सागर है। दो आयुका नरकगतिके समान भंग जानना चाहिए । वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक अंगोपांगका जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट २२ सागर जानना चाहिए। शेषका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्महत है।
४३. इसी प्रकार नील तथा कापोत लेश्यामें जानना चाहिए। विशेष, मनुष्यगतित्रिकमें सातावेदनीयके समान भंग जानना चाहिए। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांगका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट सत्रह सागर तथा सात सागर अन्तर है।'
१. लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णोललेस्सिय-काउलेस्सियाणमन्तरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ तेउलेस्सियं-पम्मलेस्सिय-सूक्कलेस्सियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुतं उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्ट।। --खुद्दाबंध, सूत्र १२५-१३० ।
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महाबंध
४४. ते उ०- पंचणा० छदंसणा० बारसक० भयदु० ओरालिय० आहारतेजाकम्म० आहार० - अंगो० वण्ण ०४ अगु०४ बादर-पजत्त- पत्तेय- णिमि० - तित्थय० - पंचंत ० णत्थि अंत० | थीणगिद्धि०३ मिच्छ० अणंताणु०४ जह० अंतो० । इत्थि० णपुंस० तिरिक्खगदि० एइंदि० पंचसंठाण० पंचसंघ० तिरिक्खाणु० आदावुञ्जो० अप्पसत्थ० दुर्भाग- दुस्सर अणादे० णीचा० जह० एग०, उक० बेसाग० सादि० । सादासादपंचणोक० मणुस० पंचिंदि० समचदु० ओरालिय० अंगो० वज्ररिस० मणुसाणु० पसत्थ० तस० थिरादिदोणियु० - सुभग-सुस्सर-आदेज्ज० उच्चा० जह० एग०, उक्क० अंतो । तिरिक्ख- मणुसा० देवोघं । देवायुगं णत्थि अंतरं । देवगदि०४ जह० दसवस्ससह ० अथवा पलिदो०- सादि० । उक्क० बेसागरो० सादि० ।
४५. पम्माए - पंचणा० छदंसणा बारसक० भयदु० पंचिंदिय० चदुसरी०ओरालियअंगो० आहारस० अंगो० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमिणं तित्थय० पंचत ० णत्थि अंत० । सेसं ते उभंगो। णवरि सगहिदी भाणिदव्वा । एइंदिय-आदाव थावरं
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०
विशेषार्थ - कृष्णलेश्या के समान नील तथा कापोतलेश्यायुक्त दो जीवोंने वैक्रियिक शरीर तथा वैक्रियिक अंगोपांगका बन्ध करके मरण किया और क्रमशः पाँचवें तथा तीसरे नरक में जन्म धारण किया । वहाँ सत्रह सागर तथा सात सागरपर्यन्त उक्त दोनों प्रकृतियोंका बन्ध नहीं हो सका । पश्चात् मरण कर वे मनुष्य हुए, जहाँ उन प्रकृतियोंका पुनः बन्ध हो सका। इस प्रकार सत्रह तथा सात सागर प्रमाण अन्तर सिद्ध हुआ ।
४४. तेजोलेश्या में - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, आहारक, तैजस, कार्मण शरीर, आहारक अंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थंकर तथा ५ अन्तरायोंका अन्तर नहीं है । स्त्यानगृद्धि त्रिक, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त [ और उत्कृष्ट साधिक दो सागर ] है |
विशेषार्थ - तेजोलेश्यावाले किसी मिथ्यात्वी जीवने सौधर्मद्विकमें उत्पन्न हो साधिक दो सागर प्रमाण स्थिति प्राप्त की । वहाँ छहों पर्याप्त पूर्ण कर विश्राम ले, विशुद्ध हो, सम्यको ग्रहण कर आयुके अन्त में मिथ्यात्वी हो मरण किया। उसकी अपेक्षा यहाँ मिथ्यात्व आदिका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागरोपम कहा है।
स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, ५ संस्थान, ५ संहनन, तिर्यचानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय तथा नीचगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक दो सागर है । साता असाता वेदनीय, ५ नोकषाय, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । तिर्यंचायु-मनुष्यायुका देवोंके ओघ समान है। देवायुका अन्तर नहीं है । देवगति ४ का जघन्य दस हजार वर्ष अथवा साधिक पल्यप्रमाण है । उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागर हैं ।
४५. पद्मलेश्यामें-५ ज्ञानावरण ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, चार शरीर, औदारिक अंगोपांग, आहारकशरीर, अंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, ४, निर्माण, तीर्थंकर तथा ५ अन्तरायोंके बन्धकोंका अन्तर नहीं है । शेषका तेजोलेश्या
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पयडिबंधाहियारो
१०७ णस्थि । देवगदि०४ जह० बेसाग० सादि०, उक्क० अट्ठारस० सादिरे०।।
४६. सुक्काए-पंचणा० छदंसणा० सादासाद० चदुसंज० सत्तणोक० पंचिं-- दि० तेजाकम्म० समचदु. वज्जरिस० वण्ण०४ अगुरु०४ पसस्थवि. तस०४ थिरादिदोणियु०-सुभग-सुस्स०-आदे० णिमि० तित्थय० उच्चा०-पंचंत० जह० एगस०, उक्क० अंतो० । णवरि णिदा-पचला ओघं। थीणगिद्धि०३ मिच्छ. अणंताणु०४ जह० अंतो० । इथि० णपुंस० पंचसंठा० पंचसंघ० अप्पसत्थ० दूभा-दुस्सर-अणादे० णीचा० जह• एगस०, उक्क० एक्कात्तीसं देसू० । अट्ठक० देवायु० मणुसग० ओरालिय० ओरालियअंगो० मणुसाणु० णत्थि अंतरं० । मणुसायु० देवोघं । देवगदि०४ जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । आहारदुगं जहण्णु० अंतो० । भवसिद्धिया ओघं। के समान भंग जानना चाहिए। विशेष यह है कि अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण अन्तर ग्रहण करना चाहिए । यहाँ एकेन्द्रिय, आताप तथा स्थावरका अन्तर नहीं है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रिय, आताप तथा स्थावरका बन्ध सौधमेद्रिक पर्यन्त होता है। वहाँ पीतलेश्या पायी जाती है । पद्मलेश्यामें इनका बन्ध नहीं है, अतः अन्तर नहीं कहा है।
देवगति ४ का जघन्य अन्तर साधिक दो सागर तथा उत्कृष्ट साधिक १८ सागर है।
विशेषार्थ-पद्मलेश्यावाले देवोंकी जघन्य स्थिति साधिक दोसागर है और उत्कृष्ट साधिक १८ सागर है । इनके देवगतिचतुष्कका बन्ध नहीं होगा। इस अपेक्षा परोक्त अन्तर कहा है।
४६. शुक्ललेश्यामें--५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता-असातावेदनीय, ४ संज्वलन, ७ नोकषाय, पंचेन्द्रियजाति, तैजस- कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वनवृषभ-संहनन, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र तथा पंच अन्तरायोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । विशेष-निद्रा-प्रचलाका ओघवत् जघन्य, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अन्तर है। स्त्यानगृद्धि त्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य अन्तमहते है । [उत्कृष्ट कुछ कम इकतीस सागर है।]
विशेषार्थ-शुक्ललेश्यावाला द्रव्यलिंगी जीव ३१ सागरोंकी स्थिति वाले अन्तिम प्रैवे. यकमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर, विश्राम ले, विशुद्ध हो, सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। आयुके अन्त में पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त कर मरण किया। इस प्रकार देशोन ३१ सागर प्रमाण मिथ्यात्वीका उत्कृष्ट अन्तर हुआ। इस अपेक्षा मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी आदिका अन्तर उतना ही कहा गया है।
स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, ५ संस्थान, ५ संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम ३१ सागर है । आठ कषाय, देवायु, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, मनुष्यानुपूर्वीका अन्तर नहीं है। मनुव्यायुका देवोंके ओघ समान है । देवगति ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है । आहारकद्विकका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । भव्य सिद्धि कोंमें-ओघवत् जानना चाहिए ।
१. भवियाणुवादेण भवसिद्धिय-अभवसिद्धियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ --खुद्दाबंध सूत्र,१६१-१३२ ,पृ. २३०
कुदो ? भवियाणमभवियाणं च अण्णोण्णसरूवेण परिणामाभावादो । -खुद्दाबंध टीका पृ० २३० ।
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महाबंध
४७. खड्ग सम्मादिट्टि धुविगाणं अट्ठकसायाणं च अधिभंगो | मणुसायु देवोघं । देवायु० जह० अंतो०', उक्क० पुव्त्रकोडितिभागं देसू० | मणुसगदिपंचगं णत्थि अंत | देवदि०४ आहारदुगं जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । सादादीणं ओधिभंगो ।
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४८. वेदगे विगाणं तित्थयरस्स च णत्थि अंत० । अट्ठक० दोआयु० मणुसगदिपंचगं अधिभंगो | देवगदि ०४ जह० पलिदोप० सादि०, उक्क० तेत्तीसं सा० । आहारदुगं जह० अंतो०, उक्क० छावद्विसागरो० देखणा, अथवा तेत्तीसं सादिरे० । साणं जह० एग०, उक्क० अंतो० ।
४६. उवसम० - पंचणा० चदुदंस० सादासाद० चदुसंज० सत्तणोक० पंचिंदि० तेजाक० समचदु० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थवि० तस०४ थिरादिदोण्णियु०
४७. क्षायिकसम्यक्त्वमें ध्रुव प्रकृति तथा आठ कपायोंका अवधिज्ञानके समान भंग जानना चाहिए। मनुष्यायुका देवोंके ओघ समान है । देवायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्व कोटिका त्रिभाग है ।
विशेषार्थ -- कोई क्षायिकसम्यक्त्वी जीव एक कोटिपूर्वकी आयुवाला मनुष्य उत्पन्न हुआ। आयुका त्रिभाग शेष रहनेपर उसने आगामी देवायुका बन्ध किया और आयुके पूर्ण होनेके पूर्व पुनः उसी आयुका बन्ध किया । इस प्रकार कुछ कम एक कोटि पूर्वका विभाग देवायुका अन्तर रहा ।
मनुष्यगतिपंचक में अन्तर नहीं है । देवगति ४, आहारकद्विकका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक ३३ सागर है । सातादि प्रकृतियोंका अवधिज्ञान के समान भंग जानना चाहिए । ४८. वेदकसम्यक्त्व में ध्रुव प्रकृतियों तथा तीर्थंकर प्रकृतिका अन्तर नहीं है । आठ कषाय, ( अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४, दो आयु, मनुष्यगतिपंचकका अवधिज्ञानके समान भंग जानना चाहिए। देवगति ४ का जघन्य साधिक पल्य है तथा उत्कृष्ट १३ सागर है।
विशेषार्थ - किसी वेदकसम्यक्त्वी मनुष्यने सुरचतुष्कका बन्ध करनेके अनन्तर मरण करके सौधर्मद्विक या सर्वार्थसिद्धि में जन्म धारण किया । वहाँ सौधर्मद्विककी जघन्य आयु साधक पयप्रमाण वेदकसम्यक्त्वी रहा और सुरचतुष्कका बन्ध नहीं हुआ । मरणके बाद पुनः मनुष्य हो उनका बन्ध प्रारम्भ कर दिया। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें तेतीस सागरप्रमाण वेदकसम्यक्त्वयुक्त रहकर सुरचतुष्कका बन्ध नहीं किया। मरण करके मनुष्य हो सुरचतुष्कका बन्ध पुनः प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार पूर्वोक्त वन्धका अन्तर जानना चाहिए |
आहारकद्विकका जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट कुछ कम ६६ सागर है । अथवा साधिक तेतीस सागर है । शेष प्रकृतियों का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है ।
४२. उपशमसम्यक्त्व में - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, साता-असाता वेदनीय, ४ संज्वलन, ७ नोकषाय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस- कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४,
१. खइयम्माट्टणमंतरं केत्रचिरं कालादो होदि ? णत्थि अन्तरं निरंतरं । - खु०बंध २, पृ० २३२ । २. सौधर्मेशानयोः सागरोपमेऽधिके अपरा पत्योपममधिकम् । - त० सूत्र, अ० ४
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पय डिबंधाहियारो
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सुभ० सुस्स० आदे० णिमि० तित्थ० उच्चा० पंचत० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णिद्दा प० अट्ठक० देवगदि०४ आहारदुगः जहण्णु० अंतो० |
मणुसगदिपंचगं
णत्थि अंतरं ।
५०. सासगे - पंचणा० णवदंस० सोलसक० भयदुगुं० तिण्णिआयु० पंचिंदि० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमि० पंचंत० णत्थि अंत ० | सेसाणं जह० एग०, उक० अंतो० ।
५१. सम्मामि० - दो वेदणी० चदुणो० थिरादितिष्णियु० जह० एग० उक० अंतो० | सेसाणं णत्थि अंतरं ।
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५२. सण - पंचिंदियपज्जत्तभंगो । असण-धुविगाणं
णत्थि अंत० ।
प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र तथा पंच अन्तरायोंका जवन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ - किसी उपशमसम्यक्त्वी जीवने उपशमश्रेणीका आरोहण कर जब उपशान्तकषाय गुणस्थान प्राप्त किया, तब ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंके बन्धकी व्युच्छित्ति हो गयी, पुनः नीचे गिरनेपर उन प्रकृतियोंका बन्ध प्रारम्भ हो गया। इस दृष्टिसे यहाँ अन्तर कहा है ।
निद्रा प्रचला, आठ कपाय, देवगति ४, आहारकद्विकका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ - निद्रादिका वन्धक कोई उपशमसम्यक्त्वी उपशम श्रेणी में चढ़ा । वह जब अपूर्वकरण अन्तिम भाग तथा आगे के गुणस्थानों में चढ़ा, तब निद्रादिका बन्ध होना रुक गया । पश्चात् नीचे उतरनेपर पुनः बन्ध आरम्भ हो गया। इसका अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होगा ।
मनुष्यगतिपंचकका अन्तर नहीं है ।
५०. सासादनसम्यक्त्व में - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, नरकको छोड़ तीन आयु, पंचेन्द्रिय, तैजस- कार्मण वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४, निर्माण ५, अन्तरायोंका अन्तर नहीं है । शेष प्रकृतियोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है ।
५१. सम्यक्त्वमिथ्यात्वी में दो वेदनीय, ४ नोकपाय, स्थिरादि तीन युगलका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त हैं। शेष प्रकृतियों में अन्तर नहीं है ।
५२. संज्ञीमें—पंचेन्द्रियपर्याप्तकका भंग जानना चाहिए । असंज्ञीमें ध्रुव प्रकृतियोंका
१. सम्मत्ताणुवा देण सम्माइट्टि वेदकसम्म इट्टि उवसमसम्माइट्टि सम्मामिच्छा इट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ।। १३३॥ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्से अद्धपोग्गलपरियहं देणं ।। १३४- १३५। । - खुदाबंध २, पुस्तक ७, पृ० २३१ ।
२. सणियाणुवादे सण्णीणमंतरं 'केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियहं ।
३. असण्णीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कर से सागरोवमसदपुधत्तं ॥ खुदाबंध सूत्र, १४२-१४७ ।
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महाबंधे चदुआयु० वेउव्वियछक्क० मणुसगदितिगं च तिरिक्खोघं । सेसाणं जह० एग० स०, उक्क० अंतो०।
५३. आहारगे-पंचणा० छदसणा० सादासाद० चदुसंज० सत्तणोक० पंचिंदि० तेजाक० समचतु० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थवि० तस०४ थिरादि दोण्णियुग० सुभगसुस्स० आदे० णिमि० तित्थय०-पंचत० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णवरि गिद्दापचलाणं जहण्णु० अंतो० । तिण्णि आयु० आहारदुगं जह० अंतो०, उक्क० अंगुलस्स असंखे । एवं चेव वेउव्वियछक्क-मणुसगदितिगं च । णवरि जह० एग० । ओरालिय० ओरालि०-अंगो० वज्जरिस० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादि० । सेसाणं ओघं । अणाहार० कम्मइगभंगो।
एवं अंतरं समत्तं ।
अन्तर नहीं है । चार आयु, वैक्रियिकषट्क, मनुष्यगतित्रिकका तियचोंके ओघ समान जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूत अन्तर है।
५३. आहारकमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता-असातावेदनीय, संज्वलन ४, ७ नोकपाय, पंचेन्द्रियजाति, तैजस- कार्मण-शरीर, समचतुर संस्थान, वर्ण ४, अगुमलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, बस ४, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर तथा पंच अन्तरायोंका जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। विशेप, निद्रा-प्रचलाका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । ३ आयु, आहारकद्विकका जघन्य अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट अंगुलके असंख्यातवें भाग है। इसी प्रकार वैक्रियिकपटक, मनुष्यगतित्रिकका जानना चाहिए। विशेष, इनका जघन्य एक समय प्रमाण है। औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभसंहननका अन्तर जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्य है। शेष प्रकृतियांका ओघवत् है। अनाहारकोंमें- कार्मण काययोगके समान जानना चाहिए ।
इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा अन्तर समाप्त हुआ।
१. कम्मइयकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ||७७।। जहण्णेण खुद्दाभवग्गणं तिसमऊणं ॥७८॥ उपकस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ ।।७९।। -खुद्दाबंध खंड २, पु० ७, पृ० २१२।
२. “आहाराणुवादेण सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण अंगलस्म असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जासखेज्जाओ ओस प्पिणि-उस्स प्पिणीओ। असंजदसम्मादिट्रिप्पहाडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतर केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ ओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ ॥"- पु. ५, पृ. १७३-७५, सूत्र ३८४-६०
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[ सणिणयासपरूवणा] ५४. सण्णियासो दुविधो सस्थाणसण्णियासो चेव परस्थाणसणियासो चेव । सत्थाणसणियासे पगदं । दुविधो णिद्देसो ओघे० आदेसे० ।
५५. ओघे०-आभिणिबोधिय-णाणावरणीयं बंधंतो चदुण्णं णाणावरणीयाणं णियमा बंधगो । एवं एकमेक्कस्स बंधगो। णिहाणि बंधतो अट्ठदंसणा० णियमा बंधः । एवं थीणगिद्धितियस्स । णि बंधं० थीणगिद्धितियं सिया बंधगो. सिया अबंधगो, पंचदंसणा० णियमा बंधगो। एवं पचला० । चक्खुदंसणा० बंध० पंच
[ सन्निकर्षप्ररूपणा] ५४. सन्निकर्प दो प्रकारका है, एक स्वस्थान सन्निकर्ष और दूसरा परस्थान सन्निकर्ष है । यहाँ स्वस्थान सन्निकर्प प्रकृत है। उसका ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारसे निर्देश करते हैं।
विशेषार्थ-स्वस्थान सन्निकर्षमें एक साथ बँधनेवाली एकजातीय प्रकृतियोंका ग्रहण किया गया है। परस्थान सन्निकर्ष में एक साथ बँधनेवाली सजातीय एवं विजातीय प्रकृतियोंका ग्रहण किया गया है।
५५. ओघसे-आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका बन्ध करनेवाला शेष श्रुतादि ज्ञानावरणचतुष्टयको नियमसे बाँधता है। इसी प्रकार एक प्रकृतिका बन्ध करनेवाला ज्ञानावरणकी शेष प्रकृतियोंका बन्धक है।
विशेषार्थ-ज्ञानावरणकी मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञानावरणरूप किसी भी प्रकृतिका बन्ध होनेपर शेष चार प्रकृतियोंका भी नियमसे बन्ध होगा। ऐसा नहीं है कि अवधिज्ञानावरणका तो बन्ध होता रहे और मनःपर्ययज्ञानावरणादिका बन्ध न हो। पाँचों ज्ञानावरणके भेदोका सदा एक साथ बन्ध होता रहता है ।
निद्रानिद्राका बन्ध करनेवाला ८ दर्शनावरणका नियमसे बन्धक है। इसी प्रकार स्त्यानगृद्धित्रिकमें भी समझना चाहिए। निद्राका बन्धक स्त्यानगृद्धि त्रिकका बन्धक है भी
और नहीं भी है। किन्तु वह दर्शनावरणपंचक अर्थात् चक्ष-अचश्न-अवधि केवलदर्शनावरण तथा प्रचलाका नियमसे बन्धक है।
विशेषार्थ-स्त्यानगृद्धित्रिकका बन्ध सासादन गुणस्थान तक होता है और निद्रा प्रकृतिका अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथमभागपर्यन्त बन्ध होता है, अतः निद्राका बन्ध होनेपर स्त्यानगृद्धित्रिकका बन्ध होना अनिवार्य नहीं है । हो भी सकता है, नहीं भी होवे ।
निद्राके समान प्रचलाका भी वर्णन जानना चाहिए । चक्षुदर्शनावरणका बन्धक जीव निद्रादिक पाँच दर्शनावरणका कथंचित् बन्धक है कथंचित् अबन्धक है, किन्तु अचक्षु-अवधिकेवलदर्शनावरणका नियमसे बन्धक है। इसी प्रकार अचक्षु-अवधि-केवलदर्शनावरणमें जानना चाहिए।
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११२
महाबंधे
दंसणा ० सिया बंधगो सिया अबंधगो, तिष्णि दंसणा० पियमा बंधगो । एवं तिष्णि दंसणा | सादं बंधतो असादस्त अ० | असादं बंध साद० अ० ।
०
५६. मिच्छत्तं बंधतो सोलसक० - भयदुगुं० णियमा बंधगो । इत्थवेदं सिया बंधगो, सिया अबंधगो । पुरिसवेदं सिया अबंधगो [बंधगो], सिया अबंधगो । पुंस० सिया बंध० सिया अबंध० । तिष्णि वेदाणं एकतरं बंधगो, ण चेव अबंध० । इस्सरदि सिया बंध० सिया अबंध० । अरदि-सोगा० सिया बंध० सिया अबंध० | दोष्णं युगलाणं एकतरं बंधगो ण चैव अबंध० ।
५७. अनंताणुबंधिकोधं बंधतो मिच्छत्तं सिया बंध० सिया अनं०, पण्णारसक ०भयदुर्गु० णियमा बंधगो । इत्थवेदं सिया बं०, पुरिस० सिया बं०, णपुंस० सिया बं० । तिष्णि वेदाणं एकतरं बंधओ ण चैव अबंध० । अरदिसोगं सिया बंध० । दोष्णं युगला० एकतरं बंध०, तिणि कसायाणं ।
हस्सरदि सिया बं० । ण चैव अबं० । एवं
विशेषार्थ-चक्षुदर्शनावरणका बन्ध सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानपर्यन्त होता है और पंच निद्राओंका अपूर्वकरणपर्यन्त होता है, इस कारण चक्षुदर्शनावरण के बन्धकके निद्रादिका बन्ध विकल्प रूपसे कहा है ।
साताका बन्ध करनेवाला असाताका अबन्धक है । असाताका बन्धक साताका अन्धक है I
विशेषार्थ- - साता और असाता परस्पर प्रतिपक्षी प्रकृतियाँ हैं । अतः एकके बन्ध होते समय दूसरीका अबन्ध होगा ।
५६. मिध्यात्वका बन्ध करनेवाला - सोलह कषाय, भय, जुगुप्साका नियमसे बन्धक है | स्त्रीवेदका स्यात् ( कथंचित् ) बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । पुरुषवेदका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। नपुंसकवेदका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । तीन वेदोंमें से अन्यतमका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । हास्य, रतिका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है | अरति शोकका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । दोनों युगलों में से अन्यतरका बन्धक है, अबन्धक नहीं है ।
५७. अनन्तानुबन्धी क्रोधका बन्ध करनेवाला मिध्यात्वका स्यात् बन्धक है, स्यात् अन्ध है । किन्तु शेष १५ कषाय, भय, जुगुप्साका नियमसे बन्धक है ।
विशेषार्थ - अनन्तानुबन्धीका सासादनपर्यन्त बन्ध होता है, किन्तु मिथ्यात्वका प्रथम गुणस्थान पर्यन्त । अतः अनन्तानुबन्धीके बन्धकके साथ मिध्यात्वका बन्ध हो भी और न भी हो ।
स्त्रोवेदका स्यात् बन्धक है, पुरुषवेदका स्यात् बन्धक है, नपुंसक वेदका स्यात् बन्धक है, तीनों वेदों में से किसी एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । हास्य रतिका स्यात् बन्धक है, अरति शोकका स्यात् बन्धक है । दो युगलों में से किसी एक युगलका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान, माया तथा लोभके बन्धक में जानना चाहिए ।
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पयडिबंधाहियारो
११३ ५८. अपञ्चक्खाणं कोधं बंधतो मिच्छत्त० अणंताणु०४ सिया बंधगो। सिया अबंध० । एक्कारसक०-भयदुगु० णियमा बंध० । इत्थिवे. सिया बंध० । पुरिसबं० [वे०] सिया बंध० । णपुंस० सिया बंध० । तिण्णि वेदाणं एक्कतरं बंधगो। ण चेव अबंध० । हस्सरदि सिया बंध० । अरदिसो० सिया बं० । दोण्णि युग० एकतरं बंधगो ण चेव अबंध० । एवं तिण्णि कसायाणं ।
५६. पच्चक्खाणावर० कोधं बंधतो मिच्छ० अट्ठकसा० सिया बं० सिया अबं० । सत्तक०-भयदु० णियमा बंधगो। इथि० सिया बं० । पुरिस० सिया बं० । णपुंस० सिया बं० । तिणि वेदाणं एक्कतरं बं०, ण चेव बंध० [ अबंधगो] । हस्सरदि सिया बंध० । अरदिसोगाणं सिया बंधगो । दोणं युगलाणं एकतरं बंध०, ण चेव अबंध० । एवं तिणि कसायाणं ।
६०. कोधसंज. बंध० मिच्छ० बारसक० भयदुगुं० सिया बंध० तिणि संज०
५८. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका बन्ध करनेवाला मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ का स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है।
विशेषार्थ-अप्रत्याख्यानावरणका बन्ध चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त होता है और मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी ४ का क्रमशः मिथ्यात्व, सासादन गुणस्थान तक बन्ध होता है; इस कारण अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धके साथ मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकी अनिवार्यता नहीं है।
अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा अप्रत्याख्यानावरण क्रोधको छोड़कर शेष ग्यारह कषाय, भय, जुगुप्साका नियमसे बन्धक है । स्त्रीवेदका स्यात् बन्धक है। पुरुषवेदका स्यात् बन्धक है। नपुंसकवेदका स्यात् बन्धक है। तीनों वेदोंमें-से अन्यतरका है; अबन्धक नहीं है। हास्य, रतिका स्यात् बन्धक है । अरति, शोकका स्यात् बन्धक है। दो युगलोंमें-से अन्यतरका बन्धक है, अबन्धक नहीं है।
विशेषार्थ-हास्य-शोक, रति-अरति ये परस्पर विरोधी प्रकृतियाँ हैं । अतः जब हास्यरतिका बन्ध होगा, तब शोक-अरतिका बन्ध नहीं होगा। ___अप्रत्याख्यानाधरण मान, माया, लोभमें अप्रत्याख्यानावरण क्रोध के समान जानना चाहिए।
५१. प्रत्याख्यानावरण क्रोधका बन्ध करनेवाला-मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानावरणरूप कषायाष्टकका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। शेष प्रत्याख्यानावरण ३ तथा संज्वलन ४ इस प्रकार ७ कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक है । स्त्रीवेदका स्यात् बन्धक है । पुरुषवेद का स्यात् बन्धक है । नपुंसकवेदका स्यात् बन्धक है। तीन वेदों मेंसे किसी एकका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । हास्य-रतिका स्यात् बन्धक है। अरति-शोकका स्यात् बन्धक है । दो युगलोंमें-से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण मान, माया तथा लोभका भी वर्णन जानना चाहिए ।
६०. संज्वलन क्रोधका बन्ध करनेवाला-मिथ्यात्व, १२ कषाय, भय, जुगुप्साका स्यात्
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१९४
महाबंध
1
णियमा बंध० । इत्थि० सिया बं० । पुरिस० सिया बं० । णपुंस० सिया बं० । तिण्णि वेदाणं एकदरं बंध० । अथवा तिष्णं पि अ० । हस्सरदि सिया बं० । अरदिसोग० सिया चं० | दोष्णं युग०. एकतरं बं० अथवा दोष्णं वि अनं ० । एवं तिष्णं संजलणाणं ।
वरिमाणं बं० मायालो० णियमा बंध० । तेरसक० भयदुगुं० सिया बं० । मायं बंधं० लोभं णियमा बंध० । चोद्दसक० भयदु० सिया बं० । लोभसंज० बंधं० पण्णारसक० भयदु० सिया [ बंधगो ] |
६१. इत्थिवेदं बंधतो मिच्छत्तं सिया [ बं०] । सोलसक० भयदु० णियमा बं० । हस्सरदि सिया० । अरदिसोग० सिया० । दोष्णं युगलाणं एकतरं बंध० णव (१) चेव अ० ।
६२. पुरिसवेदं बंधतो मिच्छत्तं बारसक० भयदु० सिया बं० हस्सरदि सिया बं० अरदिसोग० सिया बं० | दोष्णं युगलाणं एकतरं बं० । अथवा दोष्णं पि अबं० । चदुसंज० णियमा बं० ।
बन्धक है, किन्तु शेप मान, माया, लोभरूप संज्वलनका नियमसे बन्धक है । स्त्रीवेदका स्यात् बन्धक है । पुरुषवेदका स्यात् बन्धक है । नपुंसकवेदका स्यात् बन्धक है। तीनों वेदों में से किसी एकका बन्धक है, अथवा तीनोंका भी अबन्धक है।
विशेषार्थ-वेदका बन्ध अनिवृत्तिकरण के प्रथम भाग पर्यन्त है, किन्तु संज्वलन क्रोधका बन्ध अनिवृत्तिकरण के अवेदभाग तक होता है। अतः संज्वलन क्रोध के बन्धकको वेदत्रयका बन्धक भी कहा है ।
हास्य रतिका स्यात् बन्धक है। अरति शोकका स्यात् बन्धक है। दो युगलों में से किसी एक युगलका बन्धक है अथवा दोनों युगलोंका ही अबन्धक है ।
विशेषार्थ-अरति शोकका प्रमत्त गुणस्थानपर्यन्त तथा हास्य रतिका अपूर्वकरण पर्यन्त बन्ध है । अतः संज्वलन क्रोधके बन्धकमें इनके बन्धका स्यात् सद्भाव है, स्यात् नहीं भी है । संज्वलन मान, माया, लोभ में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि संज्जन मानको बाँधनेवाला संज्वलन माया और लोभका नियमसे बन्धक है । तेरह कषाय अर्थात् संज्वलन मान-माया-लोभरहित शेष कषाय, भय तथा जुगुप्साका स्यात् बन्धक है । संज्वलन मायाको बाँधनेवाला संज्वलन लोभको नियमसे बाँधता है । शेष १४ कषाय तथा भय, जुगुप्साका स्यात् बन्धक है। संज्वलन लोभको बाँधनेवाला - १५ कषाय, भय, जुगुप्साका स्यात् बन्धक है ।
६१. स्त्रीवेदको बाँधनेवाला मिध्यात्वका स्यात् बन्धक है, १६ कपाय, भय, जुगुप्साका नियमसे बन्धक है । हास्य रतिका स्यात् बन्धक है। अरति शोकका स्यात् बन्धक है। दोनों युगलों में से एकका बन्धक है? अबन्धक नहीं है ।
विशेषार्थ - स्त्रीवेदकी बन्धव्युच्छित्ति सासादन गुणस्थानके अन्त में होती है, अतः ardhara मिथ्यात्वका बन्ध विकल्प रूपसे कहा है।
६२. पुरुषवेदको बाँधनेवाला - मिध्यात्व, संज्वलन ४ को छोड़कर शेष १२ कषाय, भय, जुगुप्साका स्यात् बन्धक है ।
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११५
पयडिबंधाहियारो ६३. णपुंसं बंधं० मिच्छत्त० सोलसक० भयदुगु० णियमा बं० । हस्सरदि सिया० [ बं० ] अरदिसोग० सिया बं० । दोण्णं युगलाणं एकतरं बं०, ण चेव अबं० ।
६४. हस्सं बंधं० मिच्छत्त० बारसक० सिया बं० । चदुसंज० रदि-भय-दुगुं णियमा ०। इत्थि० पुरिस० णपुंस० सिया बं० । तिणि वेदाणं एक० [बंधगो ] ण चेव अबं० । एवं रदि।।
६५. अरदिं बंध० मिच्छ० वारसक. सिया [बं०] । चदुसंज. सोगभयदुगु० णियमा बं० । इत्थि. पुरिस० णपुंस० सिया० । तिण्णं वेदाणं एकद० बंध०, ण चेव अबंध० । एवं सोगं।
६६. भयं बंधतो मिच्छत्त-बारसक० सिया० [ बंधगो]। चदुसंजल० दुगु० णियमा पं० । इथि० पुरिस० णपुंस० सिया० । तिण्णं वेदाणं एकद० [बंधगो]
विशेषार्थ-पुरुषवेदके बन्धकके संज्वलन ४ का अनिवृत्तिकरण गुणस्थान पर्यन्त नियमसे बन्ध होता है। अतः यहाँ संज्वलनचतुष्टयको छोड़कर बारह कषायोंका विकल्प रूपसे बन्ध कहा है।
हास्य-रतिका स्यात् बन्धक है। अरति-शोकका स्यात् बन्धक है। दोनों युगलों में से किसी एक युगलका बन्धक है अथवा दोनोंकाहीअबन्धक है। चार संज्वलनका नियमसे बन्धक है।
६३. नपुंसकवेदको बाँधनेवाला-मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्साका नियमसे बन्धक है। हास्य-रतिका स्यात् बन्धक है। अरति-शोकका स्यात् बन्धक है । दोनों युगलों में-से अन्यतरका बन्धक है ; अबन्धक नहीं है।।
विशेषार्थ-नपुंसकवेद तथा स्त्रीवेदके बन्धकोंके १६ कषायोंका नियमसे बन्ध कहा . है, किन्तु पुरुषवेदके बन्धकोंके संज्वलनको छोड़कर शेष १२ कपायोंका स्यात् बन्ध कहा है। इसका कारण यह है कि नपुंसकवेद तथा स्त्रीवेदके बन्धक क्रमशः मिथ्यात्व, सासादन तक होते हैं, वहाँ १६ कषायोंका बन्ध होता है। पुरुषवेदका वन्ध अनिवृत्तिकरणगुणस्थान पर्यन्त होता है. इस कारण पुरुषवेदके बन्धकों के १२ कषायोंके कथंचित् बन्धका वर्णन किया गया है, किन्तु संज्वलन ४ का नियमसे बन्ध कहा है।
६४. हास्यका बन्ध करनेवाला-मिथ्यात्व तथा १२ कपायका स्यात् बन्धक है ।
विशेषार्थ-हास्यका बन्ध अपूर्वकरणगणस्थानपर्यन्त होता है, किन्तु मिथ्यात्व एवं १२ कषायोंका उसके नीचे पर्यन्त बन्ध होता है। इस कारण हास्य के बन्धकके मिथ्यात्वादिका बन्ध विकल्प रूपसे बताया है।
चार संज्वलन, रति, भय, जुगुप्साका नियमसे बन्धक है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेदका स्यात् बन्धक है। तीनों वेदों में से एकका बन्धक है, अबन्धक नहीं है। इसी प्रकार रति प्रकृति में जानना चाहिए ।
६५. अरतिका बन्ध करनेवाला-मिथ्यात्व, १२ कपायका स्यात् बन्धक है । ४ संज्वलन, शोक, भय,जुगुप्साका नियमसे बन्धक है। स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेदका स्यात् बन्धक है। तीनों वेदों में से एक वेदका बन्धक है , अबन्धक नहीं है । इसी प्रकार शोकमें जानना चाहिए।
६६. भयका बन्ध करनेवाला-मिथ्यात्व, १२ कपायका स्यात् बन्धक है । ४ संज्वलन तथा जुगुप्साका नियमसे बन्धक है । स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेदका स्यात् बन्धक है । तीनों वेदोंमें-से
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११६
महाबंधे
ण चैव अ० | हरसरदी सिया [ बं० ], अरदिसोग० सिया [ बं० ] | दोष्णं युग० एकद० ण चेव अ० । एवं दुगु० ।
६७. णिरयायुगं बंधतो तिरिक्खायुगं मणुसायुगं देवायुगं अगंधगो | एवमण्णमण्णस्स अबंधगो ।
६८. णिरयगतिं [ दिं ] बंधंतो पंचिंदि० वेउब्विय-तेजाक० हुंडठाणं वेउब्वि० अंगो० वण्ण०४ णिरयाणुपु० अगु०४ अपस० तस०४ अथिरादिछ० णिमिण० णियमा बं० । एवं णिरयाणुपुव्त्रि ० ।
६६. तिरिक्खगतिं बंधतो ओरालिय-तेजाक० वण्ण०४ तिरक्खाणु० अगु० उप० णिमिण० णियमा बंध० । एइंदियजादि सिया० । एवं बेइं० तेइं० चदु० पंचिंदि० सिया [ बंधगो ] | पंचणं जादीणं एक्कदरं बधगो, ण चेव अबंधगो । एवं छठा ० एकतरं बंधगो | ण चेव अबंधगो । ओरालि० अंगो० परचादुस्सा० आदावुञ्जो० सिया बं० सिया अब ० । छस्संघ० सिया० । दो विहाय० सिया० । दो सरं सिया बंधगो, किसी एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । हास्य, रतिका स्यात् बन्धक है। अरति, शोकका स्यात् बन्धक है। दोनों युगलों में से एक युगलका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । जुगुप्साका बन्ध करनेवाले इसी प्रकार जानना चाहिए।
६७. नरकाका बन्ध करनेवाला - तिर्यंचायु, मनुष्यायु तथा देवायुका अबन्धक है । इसी प्रकार किसी अन्य आयुका बन्ध करनेवाला शेषका अबन्धक है। जैसे तिर्यंचायुका बन्धक शेष तीन आयुओंका अबन्धक होगा । कारण एक समय में बध्यमान एक ही आयु होगी।
६८. नरकगतिका बन्ध करनेवाला - पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, तैजस, कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, नरकानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, अप्रशस्त विहायोगति, स ४, अस्थिरादिषटक, निर्माणका नियमसे बन्धक है ।
विशेषार्थ - नरकगति में संहननका अभाव होने से उसका बन्ध नहीं बताया है। कारण संहनन अस्थिबन्धन विशेषरूप है, वैक्रियिक शरीर में अस्थिका अभाव है ।
कानुपूर्वीका बन्ध करनेवाले के- नरकगति के समान जानना चाहिए ।
६६. सियंचगतिका बन्ध करनेवाला - औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर, वर्ण ४, तिर्यंचानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। एकेन्द्रिय जातिका स्यात् बन्धक है । इसी प्रकार दो, तीन, चार, पंचेन्द्रिय जातिका स्यात् बन्धक है। पंचजातियोंमें-से एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । इसी प्रकार छह संस्थानों में से किसी एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, आता, उद्योतका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । ६ संहननोंका स्यात् बन्धक है ।
विशेषार्थ - तियंचगति के बन्धकके ६ संहननका बन्ध अनिवार्य नहीं है; कारण एकेन्द्रियों में संहनन नहीं होता है । अस्थिबन्धन विशेषको संहनन कहते हैं । एकेन्द्रियोंके अस्थियाँ नहीं पायी जाती हैं। उनके द्वारा गृहीत आहारका मांस रुधिरादिरूप परिणमन नहीं होता है । इस कारण उनके संहननका अभाव कहा है ।
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पडबंधाहियारो
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सिया अगो । अथवा छष्णं दोष्णं दोष्णं पि अबं० । तस० सिया० । थावरं सिया० | दोष्णं पगदी० एकतरं बं०, ण चेव अबं० | एवं अट्ठयुगलाणं । एवं तिरिक्खाणु ० ।
७०. मणुसगदिं बं० पंचिंदि० ओरालिय- तेजाक० ओरालि० अंगो० वण्ण०४ मणुसाणु० अगु० उप० तस बादर-पत्रो० णिमि० णियमा [ बंधगो ] । छस्संठा० संघ ० पज्जत्ता० अपज० श्रीरादि- पंच-युग० सिया बं०, सिया अचं० । एदेसिं एकतरं बं०, ण चैव अबं० । परधादुस्सा० तित्थय० सिया बं०, सिया अनं० । दो विहा० दो सर० सिया बंध०, सिया अ० । अथवा दोणं दोष्णं पि अनं० । एवं मणुसाणु० । ७१. देवगदिं बंधतो पंचिदि० वेउव्विय-तेजाक० समचदु० वेउव्वि० अंगो० वण्ण०४ देवाणु० अगु०४ पसत्थ तस०४ सुभग-सुस्सर-आदे० णिमि० णियमा बं० । आहारदुग - तित्थय० सिया० [ बं० सिया ] अबं० । थिरादेतिणि यु० सिया बं०, सिया अबंध । तिण्णि युगलाणं एकतरं बंध०, ण चेत्र अबं० । एवं देवाणुपु० ।
दो विहायोगतिका स्यात् बन्धक है। दो स्वरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । अथवा ६ संहनन, दो विहायोगति, तथा दो स्वरोंका भी अबन्धक है ।
विशेषार्थ -- एकेन्द्रियों में संहननके समान विहायोगति तथा स्वरका अभाव है। इस कारण ६, २, २ का अबन्धक भी कहा है ।
सका स्यात् बन्धक है । स्थावरका स्यात् बन्धक है । दोनोंमें से किसी एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति और स्थिर इनके आठ युगलों का इसी प्रकार वर्णन समझना चाहिए अर्थात् प्रत्येक युगल में से अन्यतरका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । तिर्यचानुपूर्वीका बन्ध करनेवाले के तिर्यंचगति के समान भंग है ।
७०. मनुष्यगतिका बन्ध करनेवाला - पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक-तैजस- कार्माण शरीर, औदारिक अंगोपांग, वर्ण ४, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्धक है । ६ संस्थान, ६ संहनन, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिरादि पंचयुगलका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। इनमें से किसी एकका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । परघात, उच्छ्वास, तीर्थंकरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । दो विहायोगति, २ स्वरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक हैं । अथवा दो विहायोगति, दो स्वरका भी अबन्धक है | मनुष्यानुपूर्वी में मनुष्यगति के समान जानना चाहिए।
७९. देवगतिका बन्ध करनेवाला - पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस- कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्तविहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है । आहारद्विक, तीर्थंकरका [ स्यात् बन्धक ] स्यात् अबन्धक है। स्थिरादि तीन युगलका स्यात् बन्धक स्यात् अबन्धक है। तीन युगलों में से किसी एक युगलका बन्धक है, अबन्धक नहीं है।
देवानुपूर्वी में देवगति के समान जानना चाहिए ।
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महाबंधे ७२. एइंदियं बंधंतो तिरक्खग० ओरालिय-तेजाक. हुंड० वण्ण०४ तिरिक्खाणु० अगु०उप० थावर-भग-अणा० णिमि० णियमा० । पर० उस्सा० आदावुजो. सिया बं०, सिया अबं० । बादरसुहुम० सिया [बं०] । दोण्णं. एकदरं बं०, ण चेव अबं०। एवं पज्जत्तापञ्जत्त-पत्तेय-साधारण-थिराथिर-सुभासुभ-जस-अज. सिया एकतरं बं०, ण चेव अ० । एवं थावरं ।
७३. बीइंदि० बंध० तिरिक्खग० ओरालि. तेजाकम्म. हुंडसं० ओरालि. अंगो० असंपत्त. वण्ण०४ तिरिक्खाणुपु० अगु० उप० तस० बादरपत्ते. दूभगअणा० णिमि० णियमा० [बंधगो] । परघादुस्सा० उजोक. अप्पसत्थ०. दुस्स० सिया [ब ] सिया अब । पजत्ता अपज. सिया [4] सिया [अब०] । दोणं युगजो० (१) एक्क० ब०, ण चेव अब । एवं थिरादि-तिण्णियुगलाणं एकतरं २०, ण चेव अबं० एवं तीइंदि० चतुरिंदि० ।
७४. पंचिंदिय-जादिणामं बधंतो णिरयगदि सिया 40, सिया अब । एवं तिरिक्ख-मणस-देवगदि० । चदुणं गदीणं एक्कदरं० २०, णव चेव अब । एवं दो सरीरं० छस्संठा० दो-अंगो० चदुआणु० पजत्तापजत्त० थिरादि पंचयुगलाणं । आहारदुगं परघादुस्सा० उजओ० तित्थय० सिया , सिया अ०। तेजाक. वण्ण०४
__७२. एकेन्द्रिय जातिका बन्ध करनेवाला-तिर्यंचगति, औदारिक-तैजस कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, वर्ण ४, तिथंचानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, दुभंग, अनादेय और निर्माणका नियमसे बन्धक है । परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योतका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। बादर, सूक्ष्मका स्यात् बन्धक है। दोमें-से एकका बन्धक है, अबन्धक नहीं है। इसी प्रकार पर्याप्त-अपर्याप्त, प्रत्येक साधारण, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यश कीर्ति-अयश कीर्तिमें-से एकतरका स्यात् बन्धक है; अबन्धक नहीं है। स्थावर के विषयमें किन्द्रियके समान जानना चाहिए।
- ७३. दो इन्द्रियका बन्ध करनेवाला-तियंचगति, औदारिक-तैजस-कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, औदारिक अंगोपांग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, वर्ण ४,तिर्यंचानुपूर्वी, अगुरुलघ. उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, दर्भग, अनादेय तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति तथा दुस्वरका स्यात् बन्धक, स्यात् अबन्धक है। पर्याप्त-अपर्याप्तक स्यात् बन्धक, स्यात् अबन्धक है। दोनोंमें-से एकका बन्धक है, अबन्धक नहीं है। स्थिरादि तीन युगल में से एकतरका बन्धक है; अबन्धक महीं है । त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रियका बम्ध करनेवालेके इसी प्रकार जानना चाहिए।
७४. पंचेन्द्रिय जाति नामकर्मका बन्ध करनेवाला-नरकगतिका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। इसी प्रकार तिर्यंच-मनुष्य-देवगतिमें जानना चाहिए अर्थात् स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। चारों गतियों में से एकका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । दो शरीर ( औदारिक, वैक्रियिक ), छह संस्थान, दो अंगोपांग, ४ आनुपूर्वी, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिरादि पंच युगलमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए । आहारकद्विक, परघात, उच्छ्वास, उद्योत तथा
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पयडिबंधाहियारो
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अगु० उप० तस चादर-पत्ते० णिमि० णियमा [ वधगो ] । छस्संघ० दोविहा० दोस० सिया बधगो । छण्णं दोण्णं दोष्णं पि एकदरं ब०, अथवा छण्णं दोष्णं दोष्णं पि अब ० | ७५. ओरालि यसरीरं बंधं० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं णियमा बंध० । तिरिक्खमणुसगदि सिया [बं०] । दोष्णं एक्कदरं बंधगो, ण चेव अबं० । एवं भंगो पंचजादि - छठाणं दो आणु० तस्थावरादि-गव-युगलाणं । ओरालि० अंगो० परघादु० आदावुजो तित्थय० सिया बं०, सिया अबं० । छस्संघ० दोविहा० दो सरं सिया बंध०, सिया अनं० । अथवा [छण्णं] दोष्णं दोष्णं पि अबंध० ।
७६. वेगुव्वियस० बंधतो पंचिंदि० तेजाक० वेगुव्विय० अंगो० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमिणं णियमा बं०, णिरयगादि- देवगदी० सिया बंध० | दोष्णं एकदरं ब०, ण' चैव अध० । एवं समचदु • हुंडसंठा० दोष्णं आणुपु० दो विहाय ०
०
तीर्थंकर प्रकृतिका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । तैजस, कार्मण, वर्णं ४, अगुरुलघु, उपघात, त्रस बादर, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्धक है । ६ संहनन, दो विहायोग तथा दो स्वरका स्यात् बन्धक है । इन, ६, २, २ में से एकतरका बन्धक है, अथवा ६, २, २ का भी अबन्ध है ।
७५. औदारिक शरीरका बन्ध करनेवाला - तैजस, कार्मण वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणका नियम से बन्धक है । तिर्यंचगति, मनुष्यगतिका स्यात् बन्धक है । दोनों में से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है ।
विशेषार्थ – देवगति, नरकगतिका सन्निकर्ष वैक्रियिक शरीर के साथ है औदारिकके साथ नहीं है, इससे यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया गया है।
पाँच जाति, ६ संस्थान, दो आनुपूर्वी, त्रस-स्थावरादि ९ युगल में भी तिर्यंच मनुष्यगतिके समान जानना चाहिए ।
औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत और तीर्थंकरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है ।
विशेषार्थ - औदारिक शरीरको धारण करनेवाले एकेन्द्रियके औदारिक अंगोपांग नहीं पाया जाता है। इस कारण औदारिक अंगोपांगका बन्ध यहाँ विकल्प रूपसे कहा गया है । छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । अथवा [६] २, २ का भी अबन्धक है ।
७६. वैक्रियिक शरीरका बन्ध करनेवाला - पंचेन्द्रिय जाति, तैजस- कार्मण शरीर, वैयिक अंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४ और निर्माणका नियम से बन्धक है ।
विशेषार्थ - वैक्रियिक शरीर के साथ वैक्रियिक अंगोपांगका नियमसे बन्ध होता है । इस कारण यहाँ औदारिक शरीर और औदारिक अंगोपांग के समान विकल्प नहीं है ।
नरकगति, देवगतिका स्यात् बन्धक है। दो में से एकका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । समचतुरस्र संस्थान, तथा हुंडक संस्थानमें इसी प्रकार जानना चाहिए अर्थात् इनमें अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं ।
विशेषार्थ - वैक्रियिक शरीरधारी देवोंमें समचतुरस्र संस्थान होता है और नारकियों में हुंडक संस्थान पाया जाता है । अन्य संस्थानोंका वैक्रियिक शरीर के साथ सन्निकर्ष नहीं है ।
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महाबंधे थिरादि-छयुग० सिया एदेसिं एक्करं वध० ण चेव अब। आहारदुगं सिया [ब ] तित्थयरं सिया [4] एवं वेगुब्विय अंगो० ।
___७७. आहारसरीरं वध'तो देवगदिपंचिदियजादि-तिण्णं सरीरं० समचदु० दो अंगोवण्ण०४ देवाणु० अगुरु० पसत्थ. तस०४ थिरादिछ. णिमि० णियमा बं । तित्थयरं सिया [२०] एवं आहारंगोव० ।
७८. तेजासरी० ब० चदुगदि० सिया ब। चदुण्णं गदीर्ण एक्कदरं ब०, ण चेव अब । पंचजादि-दोसरी० छसंठा० चदुआणु० तस-थावरादि-णवयुगलं गदिभंगो। आहारदुर्ग पर० उस्सा० आदावुजोव-तित्थय० सिया बंदो अंगो० छसंघ० दो विहाय-दोस [र]. सिया ब. सिया अब । दोणं छण्णं दोण्णं दोण्णं पि एक्कदरं बं० । अथवा दोण्णं छण्णं दोण्णं दोण्णं पि अबंधगो । एवं कम्मइय० ।
७६. वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० समचदु ० बंधतो तिरिक्ख-मणुस-देवगदि
दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थिरादि छह युगलमें-से अन्यतरका स्यात् बन्धक है, अबन्धक नहीं है।
विशेषार्थ-वैक्रियिक शरीर के साथ संहननका बन्ध नहीं होता है,कारण देव-नारकियोंके संहनन नहीं पाया जाता है।
आहारकद्विकका स्यात् बन्धक है। तीर्थकरका स्यात् बन्धक है। वैक्रियिक अंगोपांगका बन्ध करनेवालेके वैक्रियिक शरीरके बन्धकके समान जानना चाहिए।
७७. आहारक शरीरका बन्ध करनेवाला - देवगति, पंचेन्द्रियजाति तथा तैजस-कार्मण वैक्रियिक इन शरीरत्रयका नियमसे बन्धक है।
विशेषार्थ-औदारिक शरीरको बन्धव्युच्छित्ति चतुर्थगुणस्थानमें हो जाती है, इस कारण सप्तम गुणस्थानमें बँधनेवाले आहारक शरीरके साथ औदारिक शरीरका सन्निकर्ष नहीं कहा है।
समचतुरस्त्र संस्थान, आहारक-वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु, प्रशस्तविहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि छह तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। तीर्थंकरका स्यात् बन्धक है। आहारक अंगोपांगका बन्धक करनेवालेके भी आहारक शरीरके समान भंग है।
७८. तैजस शरीरका बन्ध करनेवाला-४ गतिका स्यात् बन्धक है। चारों गतियों में से किसी एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । ५ जाति, दो शरीर, छह संस्थान, ४ आनुपूर्वी, त्रस-स्थावरादि नव युगलोंका गतिके समान भंग है. अर्थात् अन्यतरका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । आहारकद्विक, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत तथा तीर्थकर प्रकृतिका स्यात् बन्धक है। दो अंगोपांग, ६ संहनन, दो विहायोगति, तथा २ स्वरका स्यात् बन्धक है अर्थात् कथंचित् बन्धक, कथंचित् अबन्धक है। इन २, ६, २, २ में-से अन्यतरका बन्ध करनेवाला है। अथवा २.६.२.२ का भी अबन्धक है। कार्मण शरीरका बन्ध करनेवालेके तैजस शरीरके समान जाना चाहिए।
७९. वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणमें इसी प्रकार है। समचतुरस्र संस्थानका
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पयडिबंधाहियारो
१२१ सिया बध० । तिण्णं गदीणं एक्कदरंब, ण चेव अ । दोसरी दोअंगो० तिण्णिआणु० दो-विहा०-थिरादि छयुगलं गदिभंगो। पंचिंदि० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमि० णियमा । आहारदुगं तित्थयरं उज्जो सिया बछस्संघ० सिया ब० सिया अबौं । छण्णं संघ० एकदरं बौं । अथवा छण्णं पि अबंधगो । एवं पसत्थवि० सुभग-सुस्स० आदे० ।
८०. णग्गोह-सरीरं (संठाणं) बंधतो तिरिक्ख-मणुसगदि सिया [बंधगो] सिया अब ० । दोण्णं गदीणं एकदरं बंध० । ण चेव अब । एवं गदिभंगो छस्संघ० दो आणु० दो विहा० थिरादिछयुगलं । पंचिं० तिण्णि-स० ओरालि० अंगो० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमिणं णियमा । उज्जो सिया [4] । एवं सादि० खुज्ज० वामणसं० ।
८१. हुंडसंठा० बंधतो तिण्णं गदिणामाणं सिया [बंधगो] । एक्कदरं च । ण चेव अब । एवं पंचजा० दो-सरीर-तिण्णि-आणु० तसादिणवयुग तेजाक० चण्ण ०४
बन्ध करनेवाला तिथंचगति, मनुष्यगति, देवगतिका स्यात् बन्धक है। तीन गतियों में से एकका बन्धक है। अबन्धक नहीं है।
विशेषार्थ-नारकियों में समचतुरस्र संस्थान नहीं पाया जाता है, इस कारण यहाँ नरकगतिका उल्लेख नहीं किया गया है।
दो शरीर, दो अंगोपांग, तीन आनुपूर्वी, दो विहायोगति तथा स्थिरादि छह युगलका गतिके समान भंग जानना चाहिए । अर्थात् एकतरका वन्धक है; अबंधक नहीं है । पंचेन्द्रिय जाति, तैजस-कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४ तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है । आहारकद्विक तीर्थकर तथा उद्योतका स्यात् बन्धक है। छह संहननका स्यात् बन्धक, स्यात् अबन्धक है । छ इमें से किसी एकका बन्धक है अथवा छहोंका अबन्धक भी है।
विशेषार्थ-संहननका बन्ध तो चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त होता है और समचतुरन संस्थानका बन्ध अपूर्वकरण तक होता है। अतः यहाँ ६ संहननका अबन्धक भी कहा है।
प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर तथा आदेयका भी इसी प्रकार समझना चाहिए।
८०. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानका बन्ध करनेवाला - ति यंचगति, मनुष्यगतिका स्यात् बन्धक है. स्यात अवन्धक है । दो गतियों में-से अन्यतरका बन्धक है। अवन्धक नहीं है।
विशेषार्थ-देवगतिमें समचतुरस्रसंस्थान होता है और नरकगतिमें हुंडकसंस्थान . पाया जाता है । इस कारण यहाँ उक्त दोनों गतिगेका वर्णन नहीं किया गया है।
छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थिरादि छह युगलमें गनिके समान पूर्वोक्त भंग है । पंचेन्द्रिय जाति, ३ शरीर, औदारिक अंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४ तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। उद्योतका स्यात् बन्धक है। स्वातिसंस्थान, कुलजकसंस्थान, वामनसंस्थानके बन्ध करनेवाले में इसी प्रकार जानना चाहिए ।
८१. हुंडकसंथानका बन्ध करनेवाला - नरक-मनुष्य तिर्यंच गतियोंका स्यात् [ बन्धक है। ] अन्यतरका बन्धक है । अबन्धक नहीं है।
विशेष-हुंडकसंस्थान देवगति में न होनेसे यहाँ उसका वर्णन नहीं किया गया है।
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महाबंधे अगु० उप० णिमि० णियमा । दो-अंगोछस्संघ० दो-विहा० दो-सरं सिया । दोण्णं छण्णं दोण्णं दोण्णं एक्कदरं बध० । अथवा दोण्णं छण्णं दोण्णं दोण्णं पि अ० । परघादुस्सा० आदावुज्जो सिया बसिया अब । एवं हुंडभंगो दूभग-अणादेज्ज ।
ओरालिय० अंगोवंगं बंधतो दो-गदि सिया बसिया अब। दोणं गदीणं एक्कदरं [बधगो] । ण चेव अ ० । एवं चदुजादि० छस्संठा० छस्संघ० दो आणु० पज्जत्तापज्जत्त० थिरादिपंचयुगलाणं । ओरालिय-तेजाक० वण्ण०४ अगुरु० उप० तस-बादरपत्तेय० णिमि० णियमा । परघादुस्सा० उज्जो० तित्थयरं सिया बं । दो विहा० दो सरं सिया बं । दोण्णं दोण्णं एक्कद० । अथवा दोण्णं दोण्णं पि अब ।
८२. वज्जरिसभं बंधतो दो-गदि सिया ब०, सिया अब । दोणं गदीणं एकदरं ब० । ण चेव अब । एवं छस्संठा० दो आणु० दो-विहा० थिरादिछयुगलाणं । पंचिंदि० तिण्णि-सरी० ओरालि० अंगो० वण्ण०४ अगु०४, तस०४ णिमि. णियमा बौं । उज्जोव तित्थ० सिया [बंधगो] । एवं चदु-संघ० । णवरि तित्थयवर्ज।
५ जाति, २ शरीर, ३ आनुपूर्वी ( देवानुपूर्वी बिना ) सादि नव युगल में इसी प्रकार वर्णन है । तैजस-कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। दो अंगोपांग, छह संहनन, दो विहायोगति तथा २ स्वरका स्यात् बन्धक है । इन २, ६,२, २ में से किसी एकका बन्धक है । अथवा २, ६, २, २ का भी अबन्धक है । परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योतका स्यात् बन्धक, स्यात् अबन्धक है।
दुभेग तथा अनादेयके बन्ध करनेवालेमें हुडक संस्थानके समान भंग है ।
औदारिक अंगोपांगका बन्ध करनेवाला-दो गति ( मनुष्य-तिर्यंचगति ) का स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। दोमें-से एकका बन्धक है ; अबन्धक नहीं है । चार जाति, ६-संस्थान, ६ संहनन, २ आनुपूर्वी, पर्याप्तक, अपर्याप्तक, स्थिरादि पंचयुगलमें इसी प्रकार जानना चाहिए।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियके अंगोपांगका अभाव होनेसे यहाँ एकेन्द्रिय जातिको छोड़कर चार जातियोंका कथन किया गया है।
- औदारिक तैजस-कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है । परघात, उच्छ्वास, उद्योत, तीर्थकरका स्यात् बन्धक है । दो विहायोगति, २ स्वरका स्यात् बन्धक है। दो दो में से किसी एकका बन्धक है अथवा दो दोका भी अबन्धक है।
८२. वनवृपभसंहननका बन्ध करनेवाला-तियं चगति, मनुष्यगतिका स्यात् बन्धक है; स्यात् अबन्धक है । दो गतियोंमें-से अन्यतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है। इस प्रकार छह संस्थान, दो आनुपर्वी, दो विहायोगति, स्थिरादि छह युगल में जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय जाति, तीन शरीर, औदारिक अंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४ तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है; उद्योत, तीर्थंकरका स्यात् बन्धक है ।
आदि तथा अन्तके संहननको छोड़कर शेष ४ संहननके बन्ध करनेवालेमें यहाँ यही
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पयडिबंधाहियारो असंपत्तं बधतो दो-गदि सिया बध० । दोणं गदीणं एकादरं ब। ण चेव अब एवं चदुजादि-कस्संठा० दो-आणु० पजत्तापज० थिरादिपंचयुगलाणं । तिण्णिसरी० ओरालि० अंगो. वण्ण४ अगु० उप० तस-बादर-पत्ते० णिमि० णियमा बौं । परघादुस्सास० उजो० सिया [बंधगो०] । दो विहा० दो सरी० ( सर ) सिया [२०] । दोण्णं दोण्णं एकदरं बध० । अथवा दोणं दोण्णं पि अब ।
८३. परघादं बधंतो चदुगदि सिया ब सिया अब । चदुण्णं गदीणं एकदरं ब०, ण चेव अब । एस भंगो पंच-जादि-दो-सरीरं छसंठा० चदु-आणु० तसथावरादि-णवयुगलाणं पज्जत्तापञ्जत्तवज्जं । तेजाक. वण्ण०४ अगु० उप० उस्सासपज. णिमिणं णियमा बधगो। आहारदुर्ग आदा-बुज्जो० तित्थय सिया ब० सिया अब। दो अंगो० छस्संघ० दो विहा० दो सर० सिया बसिया अब । दोणं छण्णं दोण्णं दोण्णं एक्कदरं व अथवा दोणं छण्णं दोण्णं दोण्णं पि अब । एवं भंगो उस्सास पज्जत्त० थिर(१)सुभ(१)णामाणं च ।
क्रम है । विशेष यह है कि यहाँ तीर्थंकर प्रकृतिको छोड़ देना चाहिए।
विशेषार्थ-यहाँ तीर्थंकर प्रकृतिका सन्निकर्ष न बतानेसे ज्ञात होता है कि संहनन चतुष्टयके साथ तीर्थकरका बन्ध नहीं होता। वज्रवृषभ संहननके साथ तीर्थकरका बन्ध हो सकता है। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध सम्यक्त्वीमें होता है। अतः मिथ्यात्व-सासादनमें बँधनेवाले असम्प्राप्तासुपाटिका संहनन तथा वज्रवृषभको छोड़,शेष ४ संहननका अभाव होगा।
असम्प्राप्तामृपाटिकासंहननका बन्ध करनेवाला-दो गति (मनुष्य-तिर्यंचगति ) का स्यात् बन्धक है। दो गतियोंमें-से अन्यतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है। ४ जाति, ६ संस्थान,२ आनुपूर्वी, पर्याप्तक-अपर्याप्तक, स्थिरादि पंचयुगलोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
औदारिक-तैजस-कार्मण शरीर, औदारिक अंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। परघात, उच्छ्वास तथा उद्योतका स्यात् बन्धक है। दो विहायोगति, दो स्वरका स्यात् बन्धक है। दो-दोमें-से अन्यतरका बन्धक है अथवा दो-दोका भी अबन्धक है।।
८३. परवातका बन्ध करनेवाला-४ गतिका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । इन चारोंमें-से अन्यतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है । ५ जाति, औदारिक वैक्रियिक शरीर, ६ संस्थान. ४ आनुपूर्वी, पर्याप्तक-अर्याप्तक रहित बस-स्थावरादि ९ युगलमें भी इसी प्रकार है। अर्थात् इनमें से एकतरका बन्धक है; अन्यका बन्धक नहीं है। तैजस कार्मण , वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, उच्छ्वास, पर्याप्त तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। आहारकद्विक, आताप, उद्योत, तीथंकरका स्यात् बन्धक है , स्यात् अबन्धक है। दो अंगोपांग, ६ संहनन, दो विहायोगति तथा २ स्वरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। इन २, ६, २, २ में-से किसी एकका बन्धक है । अथवा २, ६, २, २ का भी अबन्धक है ।
उच्छ्वास, पर्याप्तक, नामकर्ममें इसी प्रकार भंग जानना चाहिए।
विशेषार्थ-स्थिर तथा शुभका वर्णन आगे किया गया है, इससे मूल पाठमें 'थिर-सुभ'का उल्लेख अधिक पाठ प्रतीत होता है ।
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महाबंधे ८४. आदावं बंध० तिरिक्खग० एइंदि० तिण्णि सरी. हुंडसंठा० वण्ण०४ तिरिक्खाणु० अगु०४ थावर-बादर-पज्जत्त-पत्तेय-भ० अणा० णिमि० णियमा ब। थिरादि-तिष्णि युग० सिया ब । तिण्णि युगलाणं एकदरं ब, ण चेव अब ।
८५. उजो बंधंतो तिरिक्खगदि० तिण्णं सरी० वण्ण०४ तिरिक्खाणु० अगु०४ बादर-पज्जत्त-पत्तेय-णिमि० णियमा बधगो। पंच-जादि-छस्संठा० तसथाव० थिराथिर सुभासुभ-सुभगभग-आदेज्जअणादेज्ज-जस०-अजस० सिया बं० । एदेसिं एकतरं बं० । ण चेव अबं० । ओरालिय० अंगो० सिया बं० । सिया अबं० | छस्संघ० दो विहा० दो सरीर (सरं ) सिया बं० । छण्णं दोण्णं दोण्णं एकदरं बं० । अथवा दोण्णं(१)छण्णं दोण्णं दोणं पि अबंध० ।
८६. अप्पसत्थ-विहाय० बंधतो तिण्णि गदि सिया बं०, तिण्णं गदीणं एक्कदरं वं०, ण चेव अबं० । एवं भंगो चदुजादि० दो सरी० छस्संठा० दो अंगो० णिरय
४. आतापका बन्ध करनेवाला-तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय, तीन शरीर, हुंडक-संस्थान, वर्ण ४, तिर्यंचगत्यानुपूर्वो, अगुरुलघु ४, स्थावर, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है । स्थिरादि तीन युगलका स्यात् बन्धक है । तीन युगलोंमें• से अन्यतरका बन्धक है । अबन्धक नहीं है ।
विशेषार्थ-आताप प्रकृतिका उदय सूर्यके विमानमें स्थित बादर पृथ्वीकायिक जीवोंके पाया जाता है। इससे यहाँ एकेन्द्रियका ही बन्ध कहा है । संहननके बन्धके अभावका कारण भी यही है, क्योंकि स्थावरोंमें संहनन नहीं होता है।
८५. उद्योतका बन्ध करनेवाला-तिर्यंचगति, ३ शरीर, वर्ण ४, तिथंचानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्तक', प्रत्येक तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है । ५ जाति, ६ संस्थान, त्रसस्थावर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, आदेय, अनादेय, यशःकोर्ति, अयशःकीर्तिका स्यात् बन्धक है। इनमें से एकतरका बन्धक है । अबन्धक नहीं है ।
विशेषार्थ-उद्योत प्रकृति एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त पायी जाती है, इस कारण इसके बंधककी पंच जातियाँ कही हैं।
औदारिक अंगोपांगका स्यात् बन्धक है । स्यात् अबन्धक है। छह संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका स्यात बन्धक है । इन ६.२.२ में-से एकतरका बन्धक है. अथवा ६.
६, २, २ में से एकतरका बन्धक है. अथवा ६, २, २ का भी अबन्धक है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियकी अपेक्षा उद्योतके बन्धककों अंगोपांग, संहनन, विहायोगति तथा स्वरका अवन्धक भी कहा गया है। यहाँ यह विशेष बात ज्ञातव्य है कि शरीरका पूर्व में कथन हो चुका है, अतः यहाँ 'दो शरीर' के स्थान में 'दो सर' पाठ सम्यक् प्रतीत होता है।
८६. अप्रशस्त विहायोगतिका बन्ध करनेवाला-नरक-तिर्यंच-मनुष्यगतिका स्यात् बन्धक है । तीन गतियों में से एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है।
विशेषार्थ-देवोंमें अप्रशस्तविहायोगतिका अभाव है। अतः यहाँ उसका उल्लेख नहीं है। ४ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, नरक-तियच-मनुष्यानुपूर्वी, स्थिर,
१ "मूलुण्हपहा अग्गी आदावो होदि उण्हसहियपहा। आइच्चे तेरिच्छे उण्हूणपहा हु उज्जोवो ॥" -गो० क०,गा० ३३।
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पयडिबंधाहियारो
१२५ तिरिक्ख-मणुसाणुपु० थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-भग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज-अणादे० जस० अज्जसः। तेजाक. वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमि० णियमा बं० । छस्संघ-सिया बं । छण्णं एक्कदरं बधगो। अथवा छण्णं पि अब । उज्जोव० सिया ब० सिया अब । एवं दुस्सर० ।
___८७. तसं बंधतो चदुगदि सिया ब०। चदुणं एकदरं । ण चेव अब । एवं भंगो चदुजादि-दोसरी० छस्संठा० दो अंगो० चदु-आणुपु० पज्जत्तापज्ज० थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-भग-आदेज्ज-अणादेज्ज-जस०-अज्जस० । आहारदुगं परघादु० उज्जोवं तित्थय० सिया ब०, सिया अब । तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० बादरपत्ते-णिमि० णियमा बं० । छस्संघ० दो विहा० दो सरं सिया बं० । छण्णं दोण्णं दोण्णं पि एक्कदरं बं० । अथवा छण्णं दोण्णं दोण्ण' पि अबं० ।
८८. बादरणामं बंध तो चद्गदि सिया बं०, सिया अबं०। चदुण्णं गदीणं एक्कदरं बं० । ण चेव अपं० । एवं गदिभंगो पंचजादि-दो सरी० छस्संठा० चदुआणुपु० तसादिणवयु० | आहारदु० परघादुस्सा० आदावज्जो० तित्थय० सिया बं० सिया अबं० । दोणं अंगो० छस्संघ० दो विहा० दो सरं सिया बं० । दोण्णं छण्णं दोणं
अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्तिमें पूर्ववत् है अर्थात् स्यात् बन्धक है, एकतरके बन्धक हैं; अबन्धक नहीं हैं । तैजसकार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४ तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है, ६ संहननका स्यात् बन्धक है, ६ में से किसी एकका बन्धक है अथवा ६ का भी अबन्धक है।
विशेष—यहाँ नरकगति तथा एकेन्द्रियकी अपेक्षा संहननका अबन्धकं भी कहा गया है।
उद्योतका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । दुस्वरमें ऐसा ही वर्णन जानना चाहिए ।
८७. त्रसका बन्ध करनेवाला-चार गतिका स्यात् बन्धक है, ४ में-से अन्यतरका बन्धक है. अबन्धक नहीं है । ४ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ४ आनुपूर्वी, पर्याप्तक, अपर्याप्तक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, आदेय, अनादेय, यशाकीर्ति, अयश कीर्तिमें इसी प्रकार भंग जानना चाहिए। आहारकद्विक, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, तीर्थकर प्रकृतिका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। तैजस-कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, बादर, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्धक है। ६ संहनन, दो विहायोगति, २ स्वरका स्यात् बन्धक है । इन ६, २,२ में-से एकतरका बन्धक है अथवा ६, २, २ का भी अबन्धक है।
८८. बादर नामकर्मका बन्ध करनेवाला-४ गतिका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । चार गतियों में से एकतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है । ५ जाति, दो शरीर, ६ संस्थान, ४ आनुपूर्वी, त्रसादि नवयुगलमें गतिके समान भंग जानना चाहिए । आहारकद्विक, परघात, उच्छवास, आताप, उद्योत. तथा तीथकरका स्यात बन्धक है, स्यात अबन्धक है। दो अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका स्यात् बन्धक है। २, ६, २, २ में से किसी एकका बन्धक
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१२६
महाबंध
दोणं पि एकदरं बं० । अथवा दोष्णं छष्णं दोष्णं दोष्णं पि अबं० । सेसं नियमा aat | एवं पत्तेसरी० ।
८६. सुमं बंधतो तिरिक्खगदि- एइंदियजादि- तिष्णि सरी० - हुंडसं० वष्ण०४ तिरिकखाणु ० अगु० उप० थावर -दूर्भाग- अणादेज्ज-अज्जस - णिमिणं णियमा बं० । पज्जत्तापज्जत्त- पत्तेय० साधारण-थिराथिर - सुभासुभ० सिया बं० । एदेसिं एकदरं बं०। ण चैव अब० । परघादुस्सा० सिया बं० सिया अबं० । एवं साधारणं० । अपज्जत्तं बं० दो दि सिया [ ० ] | दोष्णं एकदरं बं० । ण चेव अबं० । तिण्णि सरीर-हुंड संठा० वण्ण०४ अगु० उप० अथिर असुभ - दूभग अणादेज्ज० अजस० णिमिणं णियमा बं० । ओरालि० अंगो असंपत्तसेव० सिया बं० । पंचजादि-दो आणु० तस्थावरादि- तिण्णि युग० सिया बं० । एदेसिं एकदरं बं० ण चेव अबं० ।
I
I
६०. अथिरं बंधतो चदुगदि- सिया बं० । [चउण्णं गदीणं] एकदरं [वधगो] । ण चेव अ० । एवं पंचजादि दो सरीर० छस्संठा० चत्तारि आणुपुव्वि० तस थावरादियुग । तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं णियमा ब ० | दो अंगो० संघ० दो विहा० दो सरं सिया बं० । दोष्णं छष्णं दोष्णं दोष्णं वि एकदरं बं० ।
है अथवा २, ६, २, २ का भी अबन्धक है, शेष प्रकृतियोंका भी नियम से बन्धक है । प्रत्येक शरीर के बन्ध करनेवालेमें - इस प्रकार जानना चाहिए।
८९. सूक्ष्मका बन्ध करनेवाला - तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक-तैजस- कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, वर्ण ४, तिर्यंचानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है ।
विशेष – सूक्ष्म नामक कर्मका सन्निकर्ष एकेन्द्रिय जीवके साथ ही पाया जाता है, अतएव यहाँ एकेन्द्रिय जातिका ही ग्रहण किया गया है ।
पर्याप्तक, अपर्याप्तक, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभका स्यात् बन्धक है । इनमें से एकतरका बन्धक है : अवन्धक नहीं है । परघात, उच्छ्वासका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है ।
साधारण बन्ध करनेवाले में इसी प्रकार जानना चाहिए ।
अपर्याप्तकका बन्ध करनेवाला- दो गति ( तिर्यंच तथा मनुष्यगति ) का स्यात् बन्धक है । दो में से एकतरका बन्धक है; अवन्धक नहीं है ।
औदारिक- तैजस- कार्मण शरीर, हुंडकसंस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है । औदारिक अंगोपांग, सम्प्राप्तापादिका संहननका स्यात् बन्धक है । ५ जाति, २ आनुपूर्वी, त्रस स्थावरादि तीन युगलका स्यात् बन्धक हैं। इनमें से एकतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है ।
९०. अस्थिरका बन्ध करनेवाला - ४ गतिका स्यात् बन्धक है। चार गतियोंमें से एकतरका बन्धक है; अवन्धक नहीं है। इसी प्रकार ५ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, ४ आनुपूर्वी, बस-स्थावरादि ८ युगलों में जानना चाहिए। तैजस- कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणका नियमसे बन्धक हैं । दो अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका स्यात्
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पयडिबंधाहियारो
१२७ अथवा दोण्णं छण्णं दोण्णं दोण्णं पि अबंधगो । परघादुस्सा. आदावज्जो० तित्थयरं सिया.[बं०], सिया अबंध० । एवं असुभ-अज्जसगित्ति ।
६१. थिरं बंधतो तिण्णि-गदि सिया बं० । तिण्णं गदीणं एक दरं बं०, ण चेव अबं० । एवं पंच-जादि दो सरीरं-छस्संठा- तिण्णि-आणु० तसथावरादि-दोणि युगलं सुभादि-चदुयुगलं सिया बं० । एदेसि एकदरं बंधगो । ण चेव अबंध। आहारदुगं आदावुज्जोव० तित्थयरं सिया बं०, सिया अ० । दो-अंगो० छस्संघ० दोवि० दो सरं सिया बं० । दोण्णं छण्णं दोण्णं दोण्णं पि एक्कदरं बं० । अथवा दोण्णं छण्णं दोण्णं दोग्णं पि अबंध० । तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ पज्जत्त-णिमि० णियमा बंधगो। एवं सुभ-जसगित्ति । णवरि जसगित्तीए सुहुम-साधारणं वज्जं ।
६२. तित्थयरं बंधंतो दो-गदि सिया बंध० । दोण्णं गदीणं एक्कदरं बं० । ण चेव अबं० । एवं दो-सरीरं० दो अंगोवं० दो आणु० थिरादि-तिणि यु० एक्कदरं बंधगो। ण चेव अबंध० । पंचि तेजाक० समचदु० वण्ण०४ अगु० ४ पसत्थ० तस०४ सुभगसुस्स०-आदे० णिमिणं णियमा बं० । आहारदुगं वज्जरिसभसंघ० सिया [बंधगो] । बन्धक है । २, ६, २, २ में से एकतरका बन्धक है अथवा २, ६, २, २ का भी अबन्धक है । परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत तथा तीर्थंकर प्रकृतिका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है।
अशुभ तथा अयश कीर्ति के बन्ध करनेवालेमें इसी प्रकार जानना चाहिए।
९१. स्थिरका बन्ध करनेवाला-३ गति ( नरकको छोड़कर ) का स्यात् बन्धक है । ३ गतिमें से एकतरका बन्धक है ; अबन्धक नहीं है। ५ जाति, औदारिक, वैक्रियिक शरीर, ६ संस्थान, ३ आनुपूर्वी, त्रस-स्थावरादि दो युगल, शुभादिक चार युगलका स्यात् बन्धक है। इनमें से एकतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है । आहारकद्विक, आताप, उद्योत तथा तीर्थकर प्रकृतिका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। दो अंगोपांग, छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वरका स्यात् बन्धक है । इन २, ६, २,२ में-से एकतरका बन्धक है । अथवा २, ६,२,२ का भी अबन्धक है । तैजस-कार्मण, वर्ण४, अगुरुलघु ४, पर्याप्तक तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है।
शुभ तथा यश कीर्तिके बन्ध करनेवाले में इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेष यह है कि यशाकीर्तिके बन्धकके सूक्ष्म तथा साधारण प्रकृतिको छोड़ देना चाहिए . अर्थात् इनका वन्ध इसके नहीं होगा।
९२. तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला-मनुष्य, देवगतिका स्यात् बन्धक है। दो गतियों में से किसी एकका बन्धक है । अबन्धक नहीं है।
विशेष-तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध सम्यक्त्वीके ही होता है। अतः मिथ्यात्व में बँधनेवाली नरकगति तथा सासादनमें बँधनेवाली तिर्यंचगतिका बन्ध इसके नहीं होगा।
दो शरीर, २ अंगोपांग, २ आनुपूर्वी. स्थिरादि तीन युगलमें से एकतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है । पंचेन्द्रिय जाति, तैजस-कार्मणं शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, बस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। आहारकद्विक, वनवृषभसंहननका स्यान् बन्धक है।
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१२८
महाबंधे
६३. उच्चा गोद तो णीचागोदस्स अबंधगो । णीचागोदं बंधतो उच्चागोदस्स
अधगो ।
६४. दाणंतराइगं बंधतो चदुष्णं अंतराइगाणं णियमा बंधगो । एवमण्णमण्णस्स
बंधगो ।
६५. एवं ओघभंगो मणुस ०३ पंचिंदि० तस तेसिं चैव पज्जत्ता पंचमण० पंचवचि० काजोगि ओरालिय० इत्थि - पुरिस-णपुंस० कोधादि०४ चक्खुदं० अचक्खुदं० भवसिद्धि० सण्णि आहारगित्ति, णवरि मणुस ० ३ ओरालिका० इत्थि० तित्यरं बांधतो देवगदि०४ णियमा बधगो ।
६६. आदेसेण णेरइ० एइंदिय-विगलिंदिय-संजुत्त- आहारदुगं वेगुन्नियछक्क रिय- देवायुगं च अपज्जत्तगं च वज्जं सेसं वेदव्वं । एवं सव्व णेरइएसु । णवरि उत्थी याव सत्तमा त्ति तित्थयरं वज्जं । सत्तमाए मणुसायुगं णत्थि ।
६७. तिरिक्खेसु - आहारदुगं तित्थयरं वज्ज, सेसं ओघं । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३ | पंचिंदिय-तिरिक्ख - अपज्जत्तगेसु वेगुव्वियछकं च णिरयदेवायुगं वज्ज
९३. उच्चगोत्रका बन्ध करनेवाला - नीच गोत्रका अबन्धक है । नीच गोत्रका बन्ध करनेवाला उच्चगोत्रका अबन्धक है ।
विशेष – दोनों गोत्र परस्पर प्रतिपक्षी हैं। अत: एक जीवके एक साथ दोनोंका बन्ध नहीं होता है । इस कारण नीचके बन्धकके उच्च अबन्ध होगा अथवा उच्च के बन्धकके नीचका अबन्ध होगा ।
९४. दानान्तरायका बन्ध करनेवाला - लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्यान्तरायका नियमसे बन्धक है । एकका बन्ध करते समय अन्य चतुष्कका नियमसे बन्ध होता है । अर्थात् दानान्तराय के बन्ध होनेपर अन्य लाभान्तरायादिका नियमसे बन्ध होता है ।
९५. मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय, त्रस तथा पंचेन्द्रियपर्याप्त, सपर्याप्त, ५ मनयोगी, ५ वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुसंक वेद, क्रोधादि ४ कषाय, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, भव्यसिद्धिक, संज्ञी, आहारक पर्यन्त इसी प्रकार अर्थात् ओघवत् जानना चाहिए ।
विशेष यह है कि मनुष्यत्रिक, औदारिक काययोग तथा स्त्रीवेद में तीर्थंकरका बन्ध करनेवाला देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक, वैकियिक अंगोपांगका नियमसे बन्धक है ।
९६. आदेश से - नारकियों में एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय संयुक्त प्रकृति, आहारकद्विक, वैक्रियिकपटक, नरकायु-देवायु तथा अपर्याप्तकको छोड़कर शेष प्रकृतियोंको जानना चाहिए । इसी प्रकार सम्पूर्ण नारकियों में जानना चाहिए। विशेष, चौथीसे सातवीं पृथ्वी पर्यन्त तीर्थंकरका बन्ध छोड़ देना चाहिए। सातवीं पृथ्वी में मनुष्यायुका बन्ध नहीं है ।
९७. तिर्यंचगति में - आहारकद्विक तथा तीर्थंकरका बन्ध नहीं होता है । शेषका ओघवत् वर्णन है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यंच, पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यंच में इस
१. "म्मे तित्थं बंधदि वंसा मेघाण पुष्णगो चेव । छट्टोनिय मणुवाऊ ।" गो० क०गा० १०६ ।
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पय डिबंधाहियारो
१२९ सेसं तं चेव । एवं मणुस-अपज्जत्त-सव्वएइंदि० सम्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-तस-अपज्जतसव्वपंचकायाणं । णवरि तेउ० वाउ० मणुसगदिचदुकं णत्थि ।
१८. देवेसु णिरयभंगो । णवरि एइंदिय-तिगं जाणिदव्वं । एवं भवणवासिय याव सोधम्मीसाण त्ति । णवरि भवणादि याव जोइसिया नि तित्थयरं णस्थि । सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति णिरयोघं । आणद याव णवगेवेज्जा त्ति एवं चेव । णवरि तिरिक्खायुगं तिरिक्खग० तिरिक्खाणु० उज्जोवं णत्थि । अणुदिस याव सबट्ठा ति मिच्छत्तपगदीओ णस्थि । सेसं भाणिदव्यं ।
६६. ओरालि०मिस्से-णिरयगदितिगं देवायुगं आहारदुर्ग णत्थि। सेसं ओघभंगो। वेगुम्वियका० देवगदिभंगो। एवं वेगुव्वियमि० । णवरि आयुगं णस्थि । आहार० आहारमि० असंजद-पगदीओ आहारदुगं णस्थि । कम्मइगका० प्रकार जानना चाहिए।'
पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें-वैक्रियिकपटक, नरकायु, देवायुको छोड़कर शेष प्रकृतियोंका ओघवत् सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तक, सर्व एकेन्द्रिय, सर्व विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-त्रस-अपर्याप्तक तथा सम्पूर्ण पंच कार्योंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि तेजकाय, वायुकायमें मनुष्यगतिचतुष्क नहीं है। ____९८. देवगतिमें नरकगतिका भंग है । विशेप, देवोंमें एकेन्द्रिय स्थावर आतापका बन्ध होता है । यह बात भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म, ईशान स्वर्गपर्यन्त है। विशेष भवनत्रिकमें तीर्थकर नहीं होते हैं।
विशेषार्थ-देवोंका एकेन्द्रियोंमें भी जन्म होता है, किन्तु नारकी जीव मरण कर नियमसे संज्ञी, पर्याप्तक कर्मभूमिज मनुष्य या निर्यच होते हैं। इससे देवगति में विशेषता कही है। सानत्कुमारसे सहस्रार स्वर्गपर्यन्त नरकगनिके ओघ समान भंग हैं | आनतसे प्रैवेयकपर्यन्त इसी प्रकार हैं। विशेष-तिर्यंचायु, नियंचगति, नियंचानुपूर्वी तथा उद्योतका बन्ध नहीं होता है।
विशेष-आननादि स्वर्गवासी देवोंका तिथंच रूपसे उत्पाद नहीं होने के कारण नियंचायु आदि शतार चतुष्कका बन्ध नहीं कहा गया है।
अनुदिशसे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृतियाँ नहीं हैं, [ कारण वहाँ सभी सम्यक्त्वी ही होते हैं । ] अतः शेष प्रकृतियों को कहना चाहिए।
९९. औदारिकमिश्रकाययोगमें-नरकगतित्रिक, देवायु, आहारकद्विक नहीं है। शेष ११४ वन्ध योग्य प्रकृतियोंका ओघवत् वर्णन जानना चाहिए।
वक्रियिक काययोगमें-देवगतिके समान जानना चाहिए। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, यहाँ आयुके बन्धका अभाव है।
आहारक-आहारकमिश्रयोगमें-असंयतसम्बन्धी प्रकृतियाँ तथा आहारकद्विकके बन्धका अभाव है। आहारककाययोगमें ६३ और आहारकमिश्र काययोगमें ६२ बन्धयोग्य प्रकृतियाँ हैं।
१. "ओराले वा मिस्से । णहि सुरणिरयायुहारणिरयदुगं ।''-गो० कगा० ११६ ।
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महाबंधे
आयुचदुकणिरयंगादेदुगं आहारदुगं च णत्थि । सेसं ओघभँगो ।
१००. अवगदवेदे याओ पगदी [ओ] बज्झति ताओ पगदीओ जाणिदूण भाणिदव्वाओ । मदि० सुद० विभंग० अब्भव० मिच्छादि० असण्णि० तिरिक्खोघो । आभिणि० सुद० ओधि० ओघभंगो। णवरि मिच्छत्त सासण-पगदीओ णत्थि । एवं अधिदं० सम्मा० खइय० । एवं चैव मणपजव-संजद० सामाइ० छेदो० परिहार० । वर असं दपगदीओ णत्थि । अकसा० केवलणा० यथाखाद० केवलदंस० सण्णियासो णत्थि । सुमसं० पंचणा० चदुदंस० पंचंतराइगाण मण्णमण्णस्स बंधदि ।
१३०
१०१. संजदासंजदा संजदभंगो। णवरि आहारदुगं णत्थि । पच्चक्खाणा०४ अत्थि । असंजदेसु ओघभंगो । णवरि आहारदुगं णत्थि ।
विशेषार्थ - आहारकद्विकका बन्ध अप्रमत्त दशा में होता है और यह योग प्रमत्तसंयत स्थान होता है। अतः आहारकद्विकके बन्धका यहाँ अभाव कहा गया है।
कार्मणाकाययोगमें- आयु ४ तथा नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वीका अभाव है । शेषका ओघवत् भंग जानना चाहिए ।
१००. अपगत वेद में – जिन प्रकृतियोंका बन्ध होता है, उनको जानकर वर्णन करना
चाहिए ।
विशेष-४ संज्वलन, ५ ज्ञानावरण, ५ अन्तराय, ४ दर्शनावरण, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र तथा सातावेदनीय इन २१ प्रकृतियोंका यहाँ बन्ध होता है ।
मृत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंगावधि, अभव्यसिद्धिक, मिध्यादृष्टि, असंज्ञीका तिर्यंचोंके ओघवत् है । आभिनिबोधिक, श्रुत तथा अवधिज्ञानमें ओघवत् भंग है । विशेष - यहाँ मिथ्यात्वसम्बन्धी १६ और सासादनसम्बन्धी २५ प्रकृतियोंका अभाव है ।
इसी प्रकार अवधिदर्शन, सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्वमें जानना चाहिए । मन:पर्ययज्ञान, संयत, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, यहाँ असंयमगुणस्थानवाली प्रकृतियाँ नहीं हैं ।
अकषाय, केवलज्ञान, यथाख्यातसंयम, केवल दर्शनमें सन्निकर्ष नहीं है ।
विशेष + इन मार्गणाओंमें एक सातावेदनीयका ही बन्ध होता है । इस कारण यहाँ सन्निकर्षका वर्णन नहीं किया गया है। एक प्रकृति में सन्निकर्ष नहीं हो सकता है । किसका किसके साथ सन्निकर्ष कहा जायेगा ? अतः सन्निकर्ष नहीं बताया है ।
सूक्ष्मसाम्परायमें-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण ( निद्रापंचकरहित ) तथा ५ अन्तरायोंका एकके रहते हुए शेष अन्यका बन्ध होता है ।
विशेष - यद्यपि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में सातावेदनीय, उच्चगोत्र तथा यशः कीर्तिका भी बन्ध होता है, किन्तु ये वेदनीय, गोत्र तथा नामकर्मकी अकेली ही प्रकृतियाँ हैं; इस कारण स्वस्थानसन्निकर्षकी दृष्टिसे इनका ग्रहण नहीं किया गया है।
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पयडिबंधाहियारो
१३१ १०२. एवं तिण्णि लेस्सा० । णवरि किण्ण-णील. तित्थयरं बंधं० देवगदि०४ णियमा बंधगो। काऊए सिया देवगदि सिया मणुसगदि । तेऊए सोधम्मभंगो । णवरि देवायु देवगदि०४ आहारदुगं अस्थि । एवं पम्माए । णवरि एई दियतिगं णस्थि । सुक्काए णिरयगदितिगं तिरिक्खगदिसंयुतं च णत्थि । सेसं ओघभंगो।
१०३. वेदगे० आभिणि भंगो । एवं उवसम० । णवरि आयु णस्थि । सासणे मिच्छत्तसंयुतं तित्थयरं आहारदुगं च णस्थि । सेसं ओघभंगो। सम्मामि० उवसमसम्मा० भंगो । णवरि आहारदुगं तित्थयरं च णत्थि । १०४. अणाहारा० कम्मइगभंगो ।
एवं सत्थाणसण्णियासो समत्तो ।
१०१. संयतासंयतों में-संयतोंका भंग जानना चाहिए। विशेष, यहाँ आहारकद्विक नहीं है। इनमें प्रत्याख्यानावरण ४ का बन्ध पाया जाता है। असंयतोंमें-ओघवत् भंग है। विशेष आहारकद्विक नहीं है।
१०१, कृष्ण, नील तथा कापोत लेश्यामें-इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष-कृष्णनील लेश्यामें-तीर्थकरका बन्ध करनेवाला नियमसे देवगति ४ का बन्धक है। कापोत लेश्यामेंस्यात् देवगति, स्यात् मनुष्यगतिका बन्ध होता है। तेजोलेश्यामें-सौधर्म स्वर्गके समान भंग है। विशेष, देवायु, देवगति ४ तथा आहारद्विकका बन्ध है। पद्मलेश्यामें-इसी प्रकार है । विशेष, यहाँ एकेन्द्रिय, स्थावर, आतापका बन्ध नहीं है। शुक्ललेश्यामें-नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु तथा तिथंचगति संयुक्तका बन्ध नहीं है। शेष प्रकृतियोंका ओघवत् भंग है।
१०३. वेदक सम्यक्त्वमें-आभिनिबोधिक ज्ञानके समान भंग है। उपशमसम्यक्त्वमें-इसी प्रकार है । विशेष, यहाँ आयुका बन्ध नहीं होता है ।
सासादन सम्यक्त्वमें-मिथ्यात्वसम्बन्धी प्रकृतियाँ तीर्थकर, तथा आहारकद्विकका बन्ध नहीं है। शेष प्रकृतियोंका ओघवत् भंग है । सम्यक्त्वमिथ्यात्वमें उपशमसम्यक्त्वीका भंग जानना चाहिए। विशेष, यहाँ आहारकद्विक तथा तीर्थकरका बन्ध नहीं है । १०४. अनाहारकमें- कार्मण काययोगीके समान भंग है।
इस प्रकार स्वस्थानसन्निकर्ष पूर्ण हुआ।
१. “सम्मेव तित्थबंधो आहारदुर्ग पमादरहिदेसु ।" -गो० क०, गा० ९२ । २. "अयदोत्ति छलेस्साओ सुह-तियलेस्सा हु देसविरदतिये । तत्तो सुक्का लेस्सा, अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥" -गो० जी०, गा०५३१ । ३. "मिच्छस्संतिमणवयं वारं णहि तेउ पम्मेसु" -गो० क०,गा० १२० । “सुक्के सदरच उक्कं वामंतिमबारसं च णव अत्थि।" -गो० क०,गा० १२ । ४. "णवरि य सव्वुवसम्मे णरसुरआऊणि णस्थि णियमेण ।" -गो० क०,गा० १२० । ५. 'कम्मेव अणाहारे ।"-गोकगा० १२१ ।
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महाबंधे
१३२
[परत्थाणसणिणयास-परूवणा] १०५. परत्थाणसग्णियासे पगदं दुविधो ओघे० आदे । ओघे आभिणिवोधियणा० बंधंतो चदुणाणा० चदुदंसणा० पंचंत० णियमा [बंधगो] | पंचदंस० मिच्छत्तसोलसक० भयदुगुं० चदुआयु० आहारदु० तेजाक. वण्ण०४ अगु०४ आदावुज्जो० णिमिणं तित्थयरं सिया बं०, सिया अबं० । सादं सिया बं०, सिया अबं० । असादं सिया बं०, सिया अबं० । दोण्णं पगदीणं एकदरं बंधगो। ण चेव अबं० । इथि० सिया बं०, पुरिस० सिया [बं० ], णपुंस० सिया० । तिण्णं वेदाणं एकदरं बं० । अथवा तिण्णंपि अबंधगो। वेदभंगो हस्सरदि-अरदि-सोग-दोयुगला० चदुगदि. पंचजादि-दोसरीर-छस्संठा० दोअंगो० छस्संघ० चदुआणु० दो विहा० तस-थावरादिणवयुगलाणं । जस० अजस० दोगोदं सादभंगो। यथा आभिणिबोधियणा० तथा
[परस्थान सन्निकर्ष ] ___ १०५. यहाँ परस्थान सन्निकर्ष प्रकृत है । उसका ओघ तथा आदेशसे दो प्रकार निर्देश करते हैं । यहाँ सजातीय तथा विजातीय एक साथमें बंधनेवाली प्रकृतियोंकी प्ररूपणा की गयी है।
ओघसे-आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका बन्ध करनेवाला-श्रतादि ज्ञानावरण ४, दर्शनावरण ४ तथा अन्तराय ५ का नियमसे बन्धक है।
विशेषार्थ-यशःकीर्ति उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध न होने के कारण यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया गया है।
निद्रादि पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, ४ आयु, आहारकद्विक, तैजस-कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आताप, उद्योत, निर्माण तथा तीर्थंकरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। साताका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । असाताका स्यात् बन्धक हैं, स्यात् अबन्धक है । दोनों में-से अन्यतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है ।
विशेषार्थ-दोनोंका अबन्धक अयोगकेवली गुणस्थानवर्ती होगा, वहाँ मतिज्ञानावरण ही नहीं है । अतः दोनोंके अबन्धकका अभाव कहा है।
___ स्त्रीवेदका स्यात् बन्धक है । पुरुषवेदका स्यात् बन्धक है । नपुंसक वेदका स्यात् बन्धक है । तीनों में से एकतरका बन्धक है अथवा तीनोंका भी अबन्धक है।
विशेषार्थ-वेदका बन्ध नवमे गुणस्थान पर्यन्त होता है और मतिज्ञानावरणका सूक्ष्मसाम्पराय तक बन्ध होता है। अतः मतिज्ञानावरणके बन्धकके वेदका बन्ध हो तथा न भी हो। इससे यहाँ तीनोंका अबन्धक भी कहा है।
___ हास्य-रति, अरति-शोक ये दो युगल, ४ गति, ५ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, ४ आनुपूर्ती, २ विहायोगति, स-स्थावरादि ९ युगलका• वेद के समान भंग है। अर्थात इनमें से एकतरके बन्धक हैं अथवा सबके भी अबन्धक हैं। यशःकीर्ति. अयश-कीर्ति. दो गोत्रका सातावेदनीयके समान भंग है अर्थात् अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है ।
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१३३
पयडिबंधाहियारो चदुणाणा० चदुदंस० पंचंतरा० ।
१०६. णिहाणिदं बंधंतो पंचणा० अट्ठदंसणा० सोलसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० णियमा बं० । सादं सिया [बं० ], असादं सिया [पं० ] । दोण्णं एकदरं बं०, ण चेव अबं० । एवं वेदणीयभंगो तिणि वे० हस्सरदि-अरदिसो० चदुगदि० पंच [जादि ] दोसरीर-छस्संठा चदुआणु० तसथावरादिणवयुगलं दोगोदाणं । मिच्छत्त-चदुआयुगं परघादुस्सा० आदावुञ्जो० सिया [बं० ], सिया अबं० । दो-अंगो० छस्संघ० दो विहा० दोसरं सिया पं० । दोण्णं छण्णं दोण्णं दोणं पि एकदरं बं० । अथवा दोण्णं छण्णं दोण्णं दोण्णं पि अबं० । एवं पचलापचलाथीणगिद्धि-अणंताणुबंधि०४ ।
१०७. णिदं बंधतो पंचणा० पंचदंसणा० चदुसंज० भयदु० तेजाक. वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० णियमा ५० | थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त-बारस० चदुआयु. आहारदुगं पर० उस्सा० आदावुजो० तित्थ० सिया० [बं० ] सिया अबं० । सादं सिया २०, असादं सिया [बंधगो] । दोण्णं पगदीणं एकदरं बं० । ण चेव अबं० । एवं तिणि वे० हस्सरदिदोयु० चदुग० पंचजा० दोसरी० छस्संठा० चदुआणु० तसथावरादिणवयुगलं दोगोदाणं च । दोअंगो०छस्संघदोविहा० दोसरं सिया [बं० ] श्रुनादि ४ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तरायका आभिनियोधिक ज्ञानावरणके समान भंग जानना चाहिए।
१८६. निद्रा-निद्राका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ८ दर्शनावरण, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है । साताका स्यात् बन्धक है। असानाका स्यात बन्धक है। दोमें-से अन्यतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है। तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, ४ गति, ५ जाति, औदारिक, क्रियिक शरीर, ६ संस्थान, ४ आनुपूर्वी. तस-स्थावरादि ६ युगल तथा दो गोत्र में वेदनीयके समान भंग है अर्थात् एकतरके बन्धक हैं ; अबन्धक नहीं है । मिथ्यात्व, ४ आयु, परघात, उच्छवास, आताप, उद्योतका स्यात् बन्धक है , स्यात् अवन्धक है। २ अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका स्यात् बन्धक है। इन २, ६, २, २ में-से अन्यतरका वन्धक है अथवा २, ६,२,२ का भी अवन्धक है। प्रचला-प्रचला, त्यानगृति तथा अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकका निद्रानिद्राके समान भंग है।
१०७. निद्राका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावर ण, ५ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तेजस- कार्मण शरीर, वण ४, अगुम्लत्रु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, १२ कपाय (४ संज्वलनको छोड़कर ), ४ आयु, आहारकद्विक, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत तथा तीर्थकरका स्यात् बन्धक है। सातावेदनीयका स्यात् बन्धक है , असाता वेदनीयका स्यात् बन्धक ह। दानांम-से अन्यतरका वन्धक है ; अबन्धक नहीं है। तीन वेद, हास्य, रति, अर ति, शोक, ४ गति, ५ जाति,
औदारिक वे क्रियिक शरीर, ६ संस्थान, .४ आनुपूर्वी, स-स्थावरादि : युगल तथा २ गोत्रका इसी प्रकार जानना चाहिए। २ अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका स्यात् बन्धक
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महाबंधे दोणं छण्णं दोण्णं दोणं एकदरं बं० । अथवा दोण्णं छण्णं दोण्णं दोणं पि अबंधगो । एवं पचला।
१०८. सादं बंधंतो पंचणा० णवदंस० मिच्छत्तं सोलसक० भयद्गु० तिण्णिआयु० आहारदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ आदावुज्जो० णिमिणं तित्थय० पंचंत. सिया ५० सिया अबं० । तिण्णि वे० हस्सादि-दोयुग० तिण्णिगदि-पंचजादि-दोसरीरछस्संठा० दो अंगो० छस्संघ० तिण्णि आणु० दो विहा० तसादिदसयुग० दोगो० सिया बं० सिया अबं० । एदेसिं एकदरं बं०, अथवा एदेसिं अबंधगो । असादं बंधंतो-पंचणा० छदंसणा० चदुसंज० भयदुगु०-तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० णियमा बं० । थीणगिद्धि०४ (३) मिच्छ. बारसक० तिण्णिआयु परघादुस्सा. आदावुज्जो० तित्थय० सिया बं० सिया अबं० । तिण्णं वेदाणं सिया बं०। तिण्णं वेदाणं एकदरं बं० । ण चेव अवं० । हस्सरदि सिया बं० । अरदिसोग सिया बं० । दोण्णं युगलाणं एकदरं बंधगो। ण चेव अपं० । एवं चदुगदि-पंचजादि-दोसरी०
है। इन २, ६, २, २ में-से अन्यतरका बन्धक है अथवा २, [8] २,२ का भी अबन्धक है। प्रचलाका बन्ध करनेवालेके निद्राके समान भंग है।
१०८. साताका बन्ध करनेवाला -५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, नरकायुको छोड़कर ३ आयु, आहारकद्विक, तैजस, कार्मणशरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आताप, उद्योत, निर्माण, तीर्थकर तथा ५ अन्तरायोका स्यात बन्धक है. स्यात अबन्धक है।
विशेष-साताका बन्धक सयोगी जिन पर्यन्त पाया जाता है, किन्तु ज्ञानावरणादिका बन्ध सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त होता है अतः साताके बन्धकके ज्ञानावरणादिका बन्ध हो, तथा न भी हो।
तीन वेद, हास्यादि दो युगल, ३ गति, ५ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन,३ आनुपूर्वी. २ विहायोगति. त्रसादि दस यगल तथा दो गोत्रका स्यात बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । इनमें से किसी एकका बन्धक है अथवा इनका भी अबन्धक है।
असाताका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण (स्त्यानगृद्धित्रिक बिना), ४ संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजस कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, १२ कषाय, ३ आयु, परघात, उच्छ्वास, अ
न, आताप, उद्योत. तीर्थकरका स्यात बन्धक है, स्यात अबन्धक है। तीन वेदोंका स्यात् बन्धक है तथा इनमें से किसी एकका बन्धक है अबन्धक नहीं है।
विशेष-असाता प्रमत्तसंयत पर्यन्त बँधता है तथा वेदका अनिवृत्तिकरणपर्यन्त बन्ध होता है। अतः असाताके बन्धकको वेदोंका अबन्धक नहीं कहा है, कारण यहाँ वेदका बन्ध सदा होगा।
हास्य, रतिका स्यात् बन्धक है। अरति, शोकका स्यात् बन्धक है। दो युगलों मेंसे अन्यतर युगलका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। ४ गति, ५ जाति, २ शरीर,
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पयडिबंधाहियारो
१३५ छस्संठा० चदुआणु० तसादिणवयुग० दोगोदं च । दो अंगो० छस्संघ० दो विहा० दो सरी० ( सरं ) सिया बं० सिया अबं० । दोण्णं छष्णं दोण्णं दोणं पि एकदरं बं० । अथवा एदेसिं चेव अबं० । एवं अरदिसोग-अथिर-असुभ-अज्जसगित्तीणं ।
१०६. मिच्छत्तं बंधंतो-पंचणा० णवदंस० सोलसक० भयद्गुं० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० णियमा बंध० । सादं सिया बं० असादं सिया बं० । दोण्णं पगदीणं एक्कदरं बं० । ण चेव अबं० । एवं तिण्णं वेदाणं हस्सरदि० अरदिसो० दोयुग० चदुग० पंचजादि-दोसरी०-छस्संठा० चदुआणु० तसथावरादि-णवयुगल-दोगोदाणं च । चदुआयु० परघा०-उस्सा० आदावुज्जो० सिया बं० । दोण्णं अंगो० छस्संघ० दो विहा० दो सर०सिया बं०, सिया अबं० । दोण्णं छण्णं दोणं दोणं पि एक्कदरं बं०, अथवा दोण्णं दोणं पि अबंधगो ।
११०. अपचक्खाण० कोधं बं०-पंचणा० छदंसणा० एकारसक०-भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि०पंचंत० णियमा बं० । सेसं मिच्छत्तभंगो ।
६ संस्थान, ४ आनुपूर्वी, सादि ६ युगल तथा २ गोत्रका भी इसी प्रकार वर्णन जानना चाहिए। दो अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, दो स्वरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। इन २, ६, २, २ में से एकतरका बन्धक है अथवा इनका भी अबन्धक है ।
'अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्तिका इसी प्रकार जानना चाहिए।
विशेष-असाताके समान अरति शोकादिकी बन्धव्युच्छित्ति प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें होती है । इस कारण असाताके बन्ध करनेवालेके समान इनका भी वर्णन कहा है।
१०६. मिथ्यात्वका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण-शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायका नियमसे वन्धक है। सातावेदनीयका स्यात् बन्धक है। असाताका स्यात् बन्धक है। दोनोंमें-से अन्यतरका बन्धक है अबन्धक नहीं है।
३ वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, ४ गति, ५ जाति, दो शरीर, ६ संस्थान, ४ आनुपूर्वी, बस-स्थावरादि ९ युगल तथा दो गोत्रका इसी प्रकार जानना चाहिए अर्थात् इनमें-से एकतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। चार •आयु, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योतका स्यात् बन्धक है। दो अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति तथा २ स्वरका स्यात् वन्धक है, स्यात अबन्धक है। इन २, ६, २,२ में से एकतरका बन्धक है अथवा २, ६, २, २ का भी अबन्धक है।
विशेष-एकेन्द्रियके अंगोपांग, संहनन, विहायोगति तथा स्वरका अभाव है। इससे एकेन्द्रियको अपेक्षा इन प्रकृतियोंक। अबन्धक कहा है।
११०. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ११ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस-कार्मण , वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात; निर्माण तथा ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है। शेष प्रकृतियोंका मिथ्यात्वके बन्धकके समान भंग जानना
१. "छट्टे अथिरं असुहं असादमजसं च अरदि सोगं च ।"-गो क०,गा०६८ |
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महाबंधे णवरि थीणगिद्धितिगं भिच्छत्तं अणंताणुबं०४ चदुआयु० पर-उस्सा. आदावुज्जो० तित्थय० सिया बं० सिया अबं० । एवं तिण्णं कसाया० । पच्चक्खाणावरणी० कोध बं०-पंचणा० छदंस० सत्तक० भयदु० तेजाक. वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० णियमा बंधगो। थीण गिद्धि०३ मिच्छत्तं अट्ठकसा० पर० उस्सा० चदु आयु० आदावुज्जो० तित्थय सिया बं०, सिया अबं० । सेसं मिच्छत्तभंगो। एवं तिण्णं कसायाणं। कोधसंज० बंधंतो-पंचणा० चदुदंस० तिणं संज० पंचंतरी० णियमा [बंधगो]। पंचदंस० मिच्छत्तं बारसक० भयदु० चदुआयु० आहारदुगं तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ आदावुज्जो० णिमि० तित्थय० सिया बं० सिया अबं० । दोवेदणी० सिया बं० । दोण्णं एकद० [बंधगो]। ण चेव अबं० । एवं जस० अज्जस० दोगोदाणं । इत्थिवे. सिया०, पुरिस० सिया० णपुंस० सिया बं० । तिण्णं वेदाणं एक्कदरं बंधगो] । अथवा तिण्णंपि अबं० । एवं हस्सरदि-अरदिसोग-दोयुगला० चदुग०
चाहिए। विशेष, स्त्यानगृद्धि ३, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४, आयु ४, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, तीर्थकरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। अप्रत्याख्यानावरण मान, माया, लोभका अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके समान वर्णन जानना चाहिए ।
प्रत्याख्यानावरण क्रोधका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ७ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैस-कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, ८ कषाय ( अनन्तानुबन्धी ४, अप्रत्याख्यानावरण ४), परघात, उच्छ्वास, ४ आयु, आताप, उद्योत, तीर्थकरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । शेष प्रकृतियों के विषयमें मिथ्यात्वके बन्धकके समान वर्णन जानना चाहिए। प्रत्याख्यानावरण मान, माया तथा लोभका बन्ध करनेवालेके प्रत्याख्यानावरण क्रोधके समान जानना चाहिए।
___ संज्वलन क्रोधका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ३ संज्वलन, ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है। ५ दर्शनावरण ( निद्रापंचक ), मिथ्यात्व, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, ४ आयु, आहारकद्विक, तैजस, कार्मणा, वणे ४, अगुरुलघु ४, आताप, उद्योत, निर्माण, तीर्थकरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। दो वेदनीयका स्यात् बन्धक है। दोमें-से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। यश कीर्ति, अयशःकीर्ति तथा २ गोत्रोंका इसी प्रकार जानना चाहिए । अर्थात् इनमें से अन्यतरके बन्धक है'; अबन्धक नहीं हैं।
विशेष-संज्वलन क्रोधका अनिवृत्तिकरण गुणस्थान पर्यन्त बन्ध पाया जाता है तथा यश-कीर्ति, उच्चगोत्रका सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त बन्ध होता है। इस कारण यहाँ इनका अबन्धक नहीं कहा गया है। ___स्त्रीवेदका स्यात् बन्धक है । पुरुषवेदका स्यात् बन्धक है । नपुंसकवेदका स्यात् बन्धक है। तीनमें-से एकतरका बन्धक है। तीनोंका भी अबन्धक है।
विशेष-वेदका ‘बन्ध वें गुणस्थानके प्रथम भाग पर्यन्त होता है तथा संज्वलन क्रोधका बन्ध ९वें गुणस्थानके दूसरे भाग पर्यन्त होता है । इस कारण यहाँ वेदोंका अबन्धक भी कहा है।
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पयडिबंधाहियारो
१३७ पंचजादि-दो-सरी०-छस्संठा० दोअंगो० छस्संघ० चदुआणु० दो विहा० तसादिणवयुगलाणं । एवं माणसंज० । णवरि दोसंज० णियमा बं० । एवं चेव मायासंज० । णवरि लोभसंज० णियमा बंध० । लोभसंजलणं बंधंतो-पंचणा० चदुदंस० पंचंत० णियमा ६० । मिच्छत्तं पण्णारसकसा० सिया बं० । सेसं कोधसंजलण० भंगो ।
१११. इत्थिवेदं बंधतो पंचणा० णवदंसणा० सोलसक० भयदुगुं० पंचिं० तेजाक. वण्ण०४ अगुरु०४ तस०४ णिमि० पंचंत० णियमा बंध० । सादासादं सिया बं० । दोण्णं वेदणीयाणं एक्कदरं बं० । ण चेव अयं । एवं हस्सरदि-अरदिसोगाणं दोयुग. तिण्णि-गदि-दो-सरीर-छस्संठाणं दोअंगो० तिण्णिआणु० दोविहा० थिरादिछयुग० दोगोदाणं । मिच्छत्तं तिण्णि आयु० उज्जोव० सिया बं०, सिया अबं० । छस्संघ० सिया बं० । छण्णं एक्कदरं बं० । अथवा छण्णंपि अवं० ।
११२. पुरिसवेदं बंधंतो पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० पंचंत० णियमा बं० । पंचदंस० मिच्छत्तं बारसक० भय दुगु० तिण्णि आयु. पंचिदि-आहारदु० तेजाक०
हास्य-रति, अरति-शोक इन युगलों, ४ गति, ५ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, ४ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, सादि नवयुगलका इसी प्रकार है अर्थात् एकतरका बन्धक है तथा अबन्धक भी है।
संज्वलन मानका बन्ध करनेवालेके संज्वलन क्रोधके समान भंग है। विशेष, संज्वलन माया तथा लोभका नियमसे बन्धक है । संज्वलन मायाका बन्ध करनेवालेके इसी प्रकार भंग है । विशेष, संज्वलन लोभका नियमसे बन्धक है। संज्वलन लोभका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानाव 1.४ दर्शनावरण.५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है। मिथ्यात्व. १५ कषायोंका स्यात् बन्धक है । शेष प्रकृतियोंका संज्वलन क्रोधके समान भंग है।
१११. स्त्रीवेदका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय, तैजस, कार्मणशरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है। साता. असाताका स्यात बन्धक है। दोमें-से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। हास्य, रति, अरति, शोक, नरकगतिको छोड़कर शेष ३ गति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ३ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, स्थिरादि ६ युगल, २ गोत्रोंमें एकतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । मिथ्यात्व, मनुष्य-तिर्यंच-देवायु, उद्योतका स्यात् बन्धक है,स्यात् अबन्धक है । ६ संहननका स्यात् बन्धक है। इनमें से अन्यतमका बन्धक है अथवा ६ का भी अबन्धक है।
११२. पुरुषवेदका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, 2 दर्शनावरण, ४ संज्वलन तथा ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है।
विशेष-पुरुषवेदका बन्ध नवमे गुणस्थानके प्रथम भाग पर्यन्त होता है और ज्ञानावरणादिका इसके आगे तक बन्ध होता है,अतः पुरुषवेदके बन्धकको ज्ञानावरणादिका नियमसे बन्धक कहा है।
५ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, नरकायु बिना ३ आयु, पंचेन्द्रिय,
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महाघे
वण्ण०४ अगु०४ उज्जोव-तस०४ णिमि० तित्थय० सिया बं० । सिया अनं० । सादं सिया बं० । असादं सिया बंध० । दोष्णं वेदणी० एक्कदरं नं० । ण चैव अबं० । एवं जस० अज्जस दोगोदाणं । हस्सरदि सिया० । अरदिसो० सिया बं० दोणं युगलाणं एकद० । अथवा दोण्णं पि अवं० । एवं तिण्णिगदि- दोसरीर बस्संठाणं दोअंगो० छस्संघ० तिष्णि आणु० दोविहा० थिरादिपंचयु ० ।
०
११३. पुंस० बंधतो पंचणाणा गवदंस० मिच्छत्त- सोलस० भयदुगु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत णियमा बं० । सादं सिया० ब । असादं सिया | दोणं एकदरं वं० । ण चेव० [ अबंधगो ] | एवं हस्सरदि० अरदिसोगाणं दोयु० तिष्णिगदि - पंचजादि- दोसरी० बसठाण० तिणि आणु० तसथावरोदिनवयुगलाणं दोगोदाणं । तिणिआणु० [ आयु० ] परघादुस्सा० आदावुज्जो० सिया बं० सिया अबं० । दोअंगो० छस्संघ० दोविहा० दोसर० सिया बं० सिया अबं० । दोणं छष्णं दोष्णं दोष्णं पि एकदरं बं० । अथवा एदेसिं अनं० ।
आहारकद्विक, तैजस· कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, उद्योत, त्रस ४, निर्माण तथा तीर्थंकर का स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । साताका स्यात् बन्धक है । असाताका स्यात् बन्धक है । दोनोंमें-से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । यशःकीर्ति, अयशकीर्ति तथा दो गोत्रोंका वेदनीयके समान भंग है । हास्य, रतिका स्यात् बन्धक है। अरति शोकका स्यात् बन्धक है । दो युगलों में से अन्यतरका बन्धक है, अथवा दोनों युगलोंका भी अबन्धक है । नरकगतिको छोड़ शेष ३ गति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, ३ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, स्थिरादि पंच युगलका इसी प्रकार है अर्थात् इनमें से एकतरका बन्धक है अथवा सबका भी अबन्धक है ।
११३. नपुंसकवेदका बन्ध करनेवाला - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस-कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तरायोका नियमसे बन्धक है ।
विशेष—नपुंसकवेदका बन्ध मिथ्यात्व गुणस्थान में होता है, इस कारण यहाँ मिथ्याका भी नियम से बन्ध कहा है 1
साताका स्यात् वन्धक है; असाताका स्यात् बन्धक है। दोनोंमें से अन्यतरको बन्धक है, अवन्धक नहीं है । हास्यरति, अरतिशोक ये दो युगल, देवगतिको छोड़कर ३ गति, ५ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, ३ आनुपूर्वी, त्रस स्थावरादि ९ युगल, दो गोत्रोंका इसी प्रकार भंग है । देवायुको छोड़कर शेष ३ आयु, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योतका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । दो अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अन्धक है । २, ६, २, २ में से अन्यतर बन्धक है अथवा २, ६, २, २ का अवन्धक है ।
विशेष—यहाँ तीन आनुपूर्वीका पहले कथन आ चुका है, अतः पुनः आगत 'तिणि आणु०' के स्थान में तीन आयुका द्योतक 'तिष्णि आयु' पाठ उपयुक्त जँचता है ।
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पय डिबंधाहियारो
१३६ ११४. हस्सं बंधं० पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० रदिभयदु० पंचंत० णियमा [बंधगो] । पंचदंस० मिच्छत्त-बारसक० तिण्णिआयु. आहारदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० ४ आदावुज्जो० [णिमि० ] तित्थय० सिया बं०, सिया अबंधगो। सादं सिया बं०, असादं सिया बं० । दोण्णं एकदरं० । ण चेव अबं० । एवं तिण्णि वेद० जस० अजस० दोगोदाणं । तिण्णिगदि सिया०, सिया अबं० । तिण्णं एक्कदरं बं० अथवा अबं० । एवं गदिभंगो पंचजादि-दोसरी०-छस्संठा० दोअंगो० छस्संघ० तिण्णि आणु० दो विहा० तसादिणवयुग० । एवं रदीए०।।
११५. भयं बंधंतो पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० दुगुं० पंचंत० णियमा बं० । पंचदं० मिच्छत्त-बारसक० चदुआयु. आहारदुगं तेजाकम्म० वण्ण०४ अगु०४
आदावजो०. णिमि० तित्थय० सिया बं० सिया अबं० । सादं सिया० । असाद सिया० । दोणं एकदरं बंधगो, ण चेव अबं० । एवं तिण्णिवे०-जस-अज०-दोगोदं० । चदुगदि सिया बं० । चदुण्णं गदीणं एक० । अथवा चदुण्णपि अबंध० । एवं गदिभंगो
११४. हास्यका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, रति, भय, जुगुप्सा, ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है । ५ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १२ कषाय, नरकायुको छोड़कर तीन आयु, आहारकद्विक, तैजस कार्मण, वर्ण ४, आताप, उद्योत [ निर्माण ] तथा तीर्थकरका स्यात बन्धक है, स्यात अबन्धक है। साता वेदनीयका स्यात बन्धक है, असाता वेदनीयका स्यात् बन्धक है, दो में-से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। ३ वेद, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति और दो गोत्रोंमें वेदनीयके समान भंग है । ३ गति (नरक बिना) का स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। तीनमें-से अन्यतमका बन्धक है अथवा तीनोंका भी अबन्धक है।
विशेष-अपूर्वकरणके अन्तिम भाग तक हास्यका बन्ध होता है, किन्तु गतिका बन्ध अपूर्वकरणके छठवें भाग पर्यन्त होता है । इस कारण हास्यके बन्धकको गतित्रयका अबन्धक भी कहा है।
५ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, ३ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, त्रसादि ९ युगलका गति के समान भंग है अर्थात् एकतरके बन्धक हैं अथवा सबके भी अबन्धक है।
रतिका बन्ध करनेवालेके हास्यके समान भंग है ।
११५. भयका बन्ध करनेवालेके-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, जुगुप्सा, ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है । ५ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १२ कपाय, ४ आयु, आहारकद्विक, तैजस-कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आताप, उद्योत, निर्माण तथा तीर्थकरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । साताका स्यात् बन्धक है, असाताका स्यात् बन्धक है । दोनों मेंसे अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । ३ वेद, यशःकीर्ति, अयश-कीर्ति तथा दो गोत्रोंका वेदनीयके समान जानना चाहिए । चार गतिका स्यात् बन्धक है। चार में से एकतरका बन्धक है अथवा चारोंका भी अबन्धक है।
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१४०
महाबंधे पंचजादि-दोसरीर छस्संठा दोअंगो-छस्संघ० चदुआणु० दोविहा० तसादिणवयुगलं । एवं दुगुच्छाए ।
११६. णिरयायुं बंधतो पंचणा० णवदंस० असादावे० मिच्छ० सोलसक० णपुंसक० अरदिसोगभयदु० णिरयगदि-पंचिं० वेगुब्धिय० तेजाकम्म० हुंडसंठा० वेगुवि० अंगो० वण्ण०४ णिरयाणु० अगुरु०४ अप्पसत्थ० तस०४ अथिरादिछक्कं णिमिणं णीचागोदं पंचंत० णियमा बं० ।
११७. तिरिक्खायुं बंधतो पंचणा० णवदंस० सोलसक० भय दुगु० तिरिक्खगदि-तिष्णिसरी०-वण्ण०४ तिरिक्खाणु० अगु० उप० णिमिण. णीचागो० पंचंत० णियमा बंध। सादं सिया बं०, असादं सिया बंध० । दोण्णं एक्कदरं बं० । ण चेव अबं० । एस भंगो तिण्णिवेद-हस्सादिदोयुग० पंचजा० छस्संठा० तस-थावरादिणवयुगलाणं० । मिच्छत्तं ओरालि० अंगो० परघाउस्सा आदावजो० सिया बं० । छस्संघ० दोविहा० दोसरं सिया बंध० । एदेसिं एकदर० बं० अथवा अबं० ।
११८. मणुसायुगं बंधतो पंचणा० छदंसणा० बारसक० भय-दुगुंछा०-मणुसग०
विशेष-गतिका बन्ध अपूर्वकरणके छठे भाग पर्यन्त होता है तथा भयका अपूर्वकरणके अन्तिम भाग तक बन्ध होता है। इस कारण भयके बन्धकको गति चतुष्टयका अबन्धक भी कहा है।
____ ५ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, ४ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, त्रसादि ९ युगलका गति के समान भंग जानना चाहिए । जुगुप्साका बन्ध करनेवालेके भय के समान भंग जानना चाहिए।
११६. नरकायुका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, १६ कषाय, नपुंसकवेद, अर ति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक-तैजस-कार्मण शरीर, हुंडकसंस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, नरकानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, अप्रशस्त विहायोगति, स ४, अस्थिरादिषट्क, निर्माण, नीचगोत्र, तथा ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है।
११७. तिर्यंचायुका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, तियचगति, ३ शरीर ( औदारिक-तैजस- कार्मण ), वर्ण ४, तिथंचानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, नीचगोत्र और ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है। साता वेदनीयका स्यात् बन्धक है , असाताका स्यात् बन्धक है । दोमें-से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। तीन वेद, हास्यादि दो युगल, ५ जाति, ६ संस्थान, बस-स्थावरादि ६ युगल में वेदनीय के समान जानना चाहिए । अर्थात् एकतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। मिथ्यात्व, औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योतका स्यात् बन्धक है । ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका स्यात् बन्धक है । इनमें से एकतरका बन्धक है अथवा किसीका भी वन्धक नहीं है।
११८. मनुष्यायुका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कपाय, भय,
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१४१
पय डिबंधाहियारो पंचिंदि० तिष्णिसरी० ओरालि. अंगो० वण्ण०४ मणुसाणु० अगु० उपघा० तसबादर-पत्तेय-णिमिण-पंचंत० णियमा बंध० । थोणगिद्धितिग-मिच्छत्तं अणंताणुबंधि०४ परघाउस्सा० तित्थय० सिया बंध०, सिया अबं० । सादं सिया० । असादं सिया० । दोण्णं एकद० बं० । ण चेव अवं० । एवं तिणिवे. हस्सादि-दो युग० छस्संठा० छस्संघ० पजत्तापज. थिरादि-पंचयुग दोगोदाणं० । दोविहाय दोसरं सिया० । दोण्णं दोण्णं एकदरं बंध० । अथवा दोण्णं दोण्णंपि अबं० ।
११६. देवायुगं बंधंतो० पंचणा० छदंसणा० सादावे० चदुसंज. हस्सरदिभयदुगु० देवगदि० पंचिंदि० तिण्णिसरीर०-समचदु० वेउन्वि० अंगो० वण्ण०४ देवाणु० अगु०४ पसत्थवि० तस०४ थिरादिछक्कं णिमि० उच्चागो० पंचंत० णियमा बं० । थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त-बारसक० आहारदु० तित्थय० सिया० । इत्थि० सिया० । पुरिस• सिया० । दोण्णं वेदाणं एक्कदरं० । ण चेव अबं० ।
१२०. गिरयगदिं बंधतो णिरयायभंगो। णवरि णिरयायुं सिया बंधदि । एवं
जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक-तैजस-कार्मण शरीर, औदारिक अंगोपांग, वर्ण ४, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, निर्माण तथा ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है। स्त्यानगृद्धि त्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी , परघात, उच्छ्वास, तीथकरका स्यात बन्धक है. स्यात अबन्धक है। सातावेदनीयका स्यात् बन्धक है, असाताका स्यात् बन्धक है । दोनोंमें-से अन्यतरका बन्धक है ; अबन्धक नहीं है । ३ वेद, हास्यादि दा युगल, ६ संस्थान, ६ संहनन, पर्याप्तक, अपर्याप्तक, स्थिरादि पाँच युगल तथा २ गोत्रांका इसी प्रकार वर्णन है । अर्थात् एकतर के बन्धक हैं ; अबन्धक नहीं है। दो विहायोगति, दो स्वरका स्यात् बन्धक है। दोनोंमें से अन्यतरका बन्धक है अथवा २, २ का भी अबन्धक है।
११९. देवायुका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता, ४ संज्वलन, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, ३ शरीर (वैक्रियिक-तैजस-कार्मण ), समचतुरस्र-संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्तविहायोगति, त्रस ४, स्थिरादिषटक, निर्माण, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, बारह कपाय, आहारकद्विक, तीर्थकरका स्यात् बन्धक है। स्त्रीवेदका स्यात् बन्धक है, पुरुषवेदका स्यात् बन्धक है। दो वेदों में-से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है।
१२०. नरकगतिका बन्ध करनेवालेके नरकायुके समान भंग जानना चाहिए। विशेष, नरकायुका स्यात् वन्ध करता है।
विशेष-नरकायुके बन्धकके नियमसे नरकगतिका बन्ध होता है, किन्तु नरकगति के बन्धकके नरकायुके बन्धका ऐसा कोई नियम नहीं है । नरकायुका बन्ध हो अथवा बन्ध न भी हो। गति बन्ध तो सदा होता रहता है, किन्तु आयुका बन्ध तो सदा नहीं होता है।
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महाधे
रियाणुपु० । तिरिक्खगदि तिरिक्खायुभंगो । णवरि तिरिक्खायुं सिया० । एवं तिरिक्खाणु ० | मणुसगदि मणुसायुभंगो । णवरि मणुसायुं सिया बं० । एवं मणुसाणुपु० । देवदिं बंधतो पंचणाणा० चदुदंस० चदुसंज० भयदु० उच्चा० पंचंत० णियमा बं० । सादं सिया० । असादं सिया० । दोष्णं वेदणी० एकदरं० । ण चैव अबं० । एवं इस्सर दि-अरदिसोगाणं दोष्णं युगलाणं । देवायु सिया०, सिया अबं० । हेट्ठा उवरि देवायुम गो० । णामं सत्थाण० भंगो । एवं देवाणु० ।
१२१. एइंदियं बंधतो पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० नपुंस० भयदुगुं० णीचा० पंचत० णियमा बं० । सादासादं चदुणोकसाय० तिरिक्खगदिभंगो० । तिरिक्खायुं० सिया । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं आदाव थावराणं । विगलिंदियसुहुम-अपज० साधारणा हेठा उवरि एइंदियभंगो। णामं ( णामाणं ) अष्पष्पणो
नुपूर्वीका बन्ध करनेवाले के नरकगति के समान भंग जानना चाहिए । तिर्यंचगतिका बन्ध करनेवालेके तिर्यंचायुके समान भंग जानना चाहिए । विशेष, तिर्यंचायुका स्यात् बन्धक है । तिर्यंचानुपूर्वी में भी इसी प्रकार जानना चाहिए ।
विशेष – तिर्यंचायुके बन्धकके नियमसे तिर्यंचगतिका बन्ध होता है, किन्तु तिर्यंचगति बन्धक तिचायुके बँधनेका कोई निश्चित नियम नहीं है। ऐसा ही मनुष्यगति में भी है।
मनुष्यगतिका बन्ध करनेवालेके मनुष्यायुके समान भंग है । विशेष, मनुष्यायुका स्यात् बन्धक है । मनुष्यानुपूर्वी में भी इसी प्रकार है ।
देवगतिका बन्ध करनेवाला - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है । साताका स्यात् बन्धक है. असाताका स्यात् बन्धक है । दो वेदनीय में से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । हास्य- रति, अरति शोक इन दो युगलों में से अन्यतर युगलका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । देवायुका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । अधस्तन उपरितन बँधनेवाली प्रकृतियों में देवायुका भंग जानना चाहिए । नामकर्मकी प्रकृतियों में स्वस्थान सन्निकर्ष के समान भंग है विशेषार्थ - देवायुके बन्धकके तो देवगतिके बन्ध-सन्निकर्षका नियम है; किन्तु देवगतिके बन्धकके साथ देवायुके बन्धका ऐसा नियम नहीं है । दूसरी बात यह है कि देवायुका बन्ध अप्रमत्त संयत पर्यन्त है; जब कि देवगतिका अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त बन्ध होता है । इस कारण देवगतिके बन्धकके देवायुका अबन्ध भी कहा है ।
1
देवानुपूर्वी में देवगति के समान भंग जानना चाहिए ।
१२१. एकेन्द्रियका बन्ध करनेवाला - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र, ५ अन्तरायका नियम से बन्धक है । साता, असाता, ४ नोकषायमें तियंचगतिके समान भंग है । तिर्यंचायुका स्यात् बन्धक है। नाम कर्म की प्रकृति के बन्धके विषय में स्वस्थान सन्निकर्षके समान भंग जानना चाहिए। आताप तथा स्थावरके बन्धकके इसी प्रकार भंग है। विकलेन्द्रिय, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारणमें-अधस्तन,
و
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पयडिबंधाहियारो
१४३ सत्थाणभंगो कादव्यो । पंबिंदियं बंधंतो पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० भयदु० पंचंत० णियमा वं० । पंचदंस० मिच्छत्त-बारसक० चदुआयु० सिया बं० । सिया अबं० । दोवेद० सत्तणोक० दोगोदा० सिया बं०, सिया अबं० । एदेसिं एक्कदरं बं०, ण चेव अबं० । णामाणं सत्थाण भंगो ।
१२२. ओरालियं बं० पंचणा० छदंस. बारसक० भयदु० पंचतरा० णियमा बं० । दोवेदणी०-तिणि वे. हस्सरदि-दोयुग० दोगोदाणं सिया बं० सिया अबं० । एदेसिं एकदरं० । ण चेव० । थीणगिद्धिति० मिच्छ० अणंताणुबं०४ दो आयु० सिया० । णामाणं सत्थाणभंगो ।
१२३. वेगुब्बिय बंधंतो हेट्ठा उवरि देवगदिभंगो । णवरि तिणि वेदं दोगोदं सिया०, सिया अबं० । एदेसि०एक्कदरं । ण चेव अब । णिस्य-देवायु० सिया० ।
उपरितन बँधनेवाली प्रकृतियोंका एकेन्द्रियके समान भंग है। विशेष, नामकर्मकी प्रकृतियों के विषयमें स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग जानना चाहिए।
_पंचेन्द्रियका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय, जुगुप्सा, ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है । ५ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १२ कषाय, ४ आयुका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है।
विशेष-पंचेन्द्रिय जातिका बन्ध आठवें गुणस्थान तक होता है तथा निद्रादि दर्शनावरण ५ आदिका उसके नीचे तक होता है । इस कारण यहाँ स्यात् अबन्धक कहा है।
दो वेदनीय, सात नोकषाय, तथा २ गोत्रका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। इनमें से एकतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। नामकर्मकी प्रकृतियों के बन्धके विषयमें स्वस्थान सन्निकर्षके समान जानना चाहिए।
१२२. औदारिक शरीरका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण (स्त्यानगृद्धित्रिक रहित ) १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है।
विशेष-औदारिक शरीरका बन्ध असंयत गुणस्थान पर्यन्त है । इससे उसके बन्धकके ६ दर्शनावरण, १२ कषायादिका नियमसे बन्ध कहा गया है।
दो वेदनीय, ३ वेद, हास्य-रति, अरति-शोक दो युगल, २ गोत्रका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । इनमें एकतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४, दो आयु ( मनुष्य-तियचायु) का स्यात् बन्धक है। नाम कर्मकी प्रकृतियोंके बन्धके विषयमें स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग जानना चाहिए ।
१२३. वैक्रियिक शरीरका बन्ध करनेवालेके उपरितन तथा अधस्तन बँधनेवाली प्रकृतियोंमें देवगतिके समान भंग है। विशेष, ३ वेद, २ गोत्रका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। इनमें से एकतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है।'
विशेषार्थ-देवगतिमें पुरुषवेद, स्त्रीवेद, एवं उच्चगोत्रका ही सद्भाव है, किन्तु यहाँ वैक्रियिकशरीरके बन्धकोंके वेदत्रय, तथा गोत्रद्वयका वर्णन किया है, कारण वैक्रियिकशरीरके साथ देवगति या नरकगतिका बन्ध होता है। इसी दृष्टिसे नपुंसकवेद, और नीचगोत्रका भी बन्ध कहा है।
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१४४
महाबंधे णामं ( णामाणं ) सत्थाणभंगो । एवं वेगुब्धिय० अंगो० ।
१२४. आहारसरीरं बंधंतो पंचणा० छदंस० सादावे० चदुसंज. पुरिसवे. हस्सरदिअरदि (१) भयदु० उच्चा० पंचंत० णियमा बं० । देवायु० सिया बं० । णामाणं सत्थाणभंगो। एवं आहारस० अंगो० । पंचिंदिय. जादिभंगो तेजाक. समचदु० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ थिगदि पंचण्णं गदीणं । हेट्ठा उवरि० । णामाणं अप्पप्पणो सत्थाणभंगो । णवरि समचदु० पसत्थवि० थिरादिपंचण्णं पगदीणं णिरयायुगं णस्थि ।
१२५. णग्गोदं बंधतो पंचणा० णवदंस. सोलसक० भयदु० पंचंतरा० णियमा बं० । दोवेदणीय० सत्तणोक० दोगोदं सिया पं० । एदेसिं एकदरं बं०, ण चेव अबं० । मिच्छत्त-तिरिक्खमणुसायुगं सिया बं० । णामं ( णामाणं) सत्थाणभंगो। एसभंगो सादियसंठा० कुज्जसं० वामणसं० चदुसंघडणाणं ।
नरकायु-देवायुका स्यात् बन्धक है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका स्वस्थानसन्निकर्षवत् भंग है।
वैक्रियिक अंगोपांगमें वैक्रियिक शरीरवत् भंग जानना चाहिए।
१२४. आहार कशरीरका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, साता वेदनीय, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायका नियमसे वन्धक है। देवायुका स्यात् बन्धक है । नामकर्मकी प्रकृतियों के विषय में स्वस्थान सन्निकर्षमें वर्णित भंग है।
विशेष-आहारकशरीरका बन्ध अप्रमत्त दशामें होता है। अरति प्रकृतिकी बन्धव्यच्छित्ति प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें होती है, अत: आहारक शरीरके बन्धके साथ अरतिका सन्निकर्ष नहीं होगा। इस कारण मूल पाठमें 'अरदि' अयुक्त प्रतीत होती है।
आहारकशरीर-अंगोपांगके बन्ध करनेवालेके आहारक शरीरवत् भंग है।
तैजस-कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४, स्थिरादि ५ प्रकृतियों के बन्धकोंका उपरितन अधस्तन प्रकृतियों के विषयमें पंचेन्द्रिय जाति के समान भंग है । नामकर्मको प्रकृतियोंका स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग जानना चाहिए। विशेष, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, स्थिरादि ५ प्रकृतियोंके बन्धकोंके नरकायुका बन्ध नहीं है ।
१२५. न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है। २ वेदनीय, ७ नोकषाय, दो गोत्रका स्यात् बन्धक है। इनमें-से अन्यतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है। मिथ्यात्व, तिर्यंचायु, मनुष्यायुका स्यात् बन्धक है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग है।
स्वातिसंस्थान, कुजक संस्थान, वामनसंस्थान, वज्रवृषभनाराच तथा असम्प्राप्तासृपाटिका संहननको छोड़कर शेष ४ संहननके बन्धकके इसी प्रकार भंग जानना चाहिए।
विशेष-संस्थान ४ और संहनन ४ सासादन गुणस्थान पर्यन्त बँधते हैं। अतः इनका समान रूपसे वर्णन किया है।
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पयडिबंधाहियारो हुंडसंठाणं बं० पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त-सोलसक० भयदु० पंचंत. णियमा० । दोवेद० सत्तणोक० दोगोद० सिया० । सिया अबं० । एदेसिं एकदरं० ण चेव अबं०। तिण्णि आयु सिया० । णामाणं सत्थाणं भंगो । एवं [ असंपत्त० ] दूभग० अणादे० । ओरालि० अंगो० बजरिसह० ओरालियसरीरभंगो। णामाणं सत्थाणभंगो ।
१२६. उज्जोवं बंधंतो हेठा उवरि तिरिक्खगदिभंगो। णामाणं सत्थाणभंगो। अप्पसत्थविहाय० बंधंतो हेहा उवरि जग्गोधभंगो। णवरि णिरयायु० सिया बं० । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं दुस्सरं । जसंगितिं बंधतो पंचणा० चदुदंस० पंचंत० णियमा बं०। पंचदंसणा० मिच्छत्तं० सोलसक० भय-दुगुच्छा०-तिण्णिआयु० सिया बं० । सिया अबं० । सादं सिया बं०, सिया अबं० । असादं सिया बं० [सिया अबं०]
हुण्डक संस्थानका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा तथा ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है। दो वेदनीय, ७ नोकषाय, दो गोत्रका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । इनमें से एकतरका बन्धक है । अबन्धक नहीं है । नरक-मनुष्य तिर्यंचायुका स्यात् बन्धक है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका स्वस्थान सन्निकर्षके समान भंग है।
[असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन ] दुर्भग, अनादेयके बन्ध करनेवालोंके हुंडक संस्थानवत् भंग जानना चाहिए । औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभनाराच संहननके बन्ध करनेवाले
औदारिक शरीर के समान भंग है। नामकर्मको प्रकृतियोंका स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग जानना चाहिए।
१२६. उद्योतका बन्ध करनेवाले के-उपरितन अधस्तन प्रकृतियोंका तियं चगतिके समान भंग है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग जानना चाहिए । अप्रशस्त विहायोगति के बन्ध करनेवालेके उपरितन अधस्तन बँधनेवाली प्रकृतियोंका न्यग्रोधपरि. मण्डलसंस्थानके समान भंग जानना चाहिए। विशेष, नरकायुका स्यात् बन्धक है। नामकर्मकी प्रकृतियों में स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग जानना चाहिए ।
विशेषार्थ-अप्रशस्त विहायोगति तथा न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानका बन्ध सासादन गुणस्थान पर्यन्त होता है। इस कारण न्यग्रोधसंस्थानके समान अप्रशस्तविहायोगतिका वर्णन बताया है। इतना विशेष है कि नारकियोंमें न्यग्रोधसंस्थान नहीं है, किन्तु वहाँ दुर्गमनका सदभाव पाया जाता है। इस कारण दर्गमनके बन्धकके नरकायका भी बन्धकहा है।
दुस्वर प्रकृतिका बन्ध करनेवालेके इसी प्रकार भंग है। यशःकीर्तिका बन्ध करनेवाला ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है।
विशेषार्थ-यद्यपि कषायोंका उदय सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान पर्यन्त होता है, किन्तु उनका बन्ध अनिवृत्तिकरण पर्यन्त होता है । अतः सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त बँधनेवाले यशःकीर्ति के बन्धकके कषायोंके बन्धका नियम नहीं है। इससे यहाँ ज्ञानावरणादिके साथ कषायोंका वर्णन नहीं हुआ है।
दर्शनावरण ५ ( निद्रापंचक ), मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, नरकको छोड़ तीन आयुका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। साताका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है ।
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महाबंधे
१४६ दोण्णं एक्कदरं० । ण चेव अबं० । एवं दोगोद। तिण्णि वेदाणं सिया बं० । तिण्णं वेदाणं एकदरं बं० । अथवा अबं० । एवं चदुणोक० । णामाणं सत्थाणभंगो । तित्थयरं बंधतो पंचणा० चदुदंस० चदुसंज. पुरिस० भयदु० उच्चा० पंचंत० णियमा बौं । णिद्दा-पचला-अट्ठक० दो आयु सिया ब० सिया अबं० । सादं सिया
०, असादं सिया । दोण्णं एक्कदरं ब० । ण चेव अब । एवं चदणोक० । णामाणं सत्थाणभंगो।
१२७. उच्चागोदं बंधतो पंचणा० चदुदंस० पंचंत० णियमा बौं । पंचदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु० दोआयु० पंचिंदि० तिण्णिसरी०-आहार. अंगो० वण्ण० ४ [ अगु०४ ] तस०४ णिमिणं तित्थयरं सिया २० सिया अब । दो वेदणी० जस० अजस० सिया बौं । एदेसिं एकदरं बं० । ण चेव अब । तिण्णि वेदं सिया 4. सिया अब । तिण्णं वेदाणं एक्कदरं । अथवा अबौं । एस भंगो चदणोक० दोगदि० दोसरीरं छस्संठा० दो अंगो० छस्संघ० दो आणु० दो विहा० थिरादिपंचयुगलाणं । णीचागोदं बंधंतो थीणगिद्धिभंगो। देवायु-देवगदिदुगं उच्चागोदं वज्ज।
असाताका स्यात् बन्धक है [ स्यात् अबन्धक है ], दोमें-से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। दो गोत्रका वेदनीयके समान भंग है। तीन वेदका स्यात् बन्धक है । इनमें से अन्यतमका बन्धक है . अथवा तीनोंका भी अबन्धक है। हास्य, रति, अरति, शोकका भी इसी प्रकार जानना चाहिए । नामकर्मकी प्रकृतियोंका स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग है।
तीर्थकरका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है। निद्रा, प्रचला, अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण रूप कषायाष्टक, देव-मनुष्यायुका स्यात् बन्धक है , स्यात् अबन्धक है। सातावेदनीयका स्यात् बन्धक है, असाताका स्यात् बन्धक है। दोमें-से अन्यतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है। हास्यादि ४ नोकषायोंका वेदनीयके समान भंग है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका स्वस्थान सन्निकर्षवत् भंग है।
१२७. उच्चगोत्रका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है । ५ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, दो आयु ( मनुष्यदेवायु), पंचेन्द्रिय जाति, तीन शरीर, आहारक अंगोपांग, वर्ण ४, [ अगुरुलघु ४ ], त्रस ४, निर्माण, तीर्थकरका स्यात बन्धक, स्यात अबन्धक है। दो वेदनीय, यश-कीर्ति, अयशःकीर्तिका स्यात् बन्धक है । इनमें से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। तीन वेदका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । तीन वेदोंमें-से अन्यतमका बन्धक है अथवा तीनोंका अबन्धक है । हास्यादि ४ नोकषाय, २ गति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, २ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, स्थिरादि पांच युगलोंका इसी प्रकार भंग है।
नीचगोत्रका बन्ध करनेवालेके स्त्यानगृद्धिवत् भंग है। विशेष, यहाँ देवायु, देवगतित्रिक तथा उच्चगोत्रको छोड़ देना चाहिए।
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पयडिबंधाहियारो
१४७ १२८. एवं ओघभंगो मणुस०३ पंचिंदिय तस०२ पंचमण० पंचवचि० काजोगि-ओरालियकाजो० लोभ० चक्खु० अचक्खु० सुक्क० भवसि० सण्णि-आहारगत्ति । ओरालियमिस्स० सादं बंधंतो पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त-सोलसक० भयदु० दो आयु० देवगदि-चदुसरीर०-दो अंगो० वण्ण०४ देवाणु० अगुरु०४ आदावुज्जोव० णिमिणं तित्थय. पंचंत० सिया ५०, सिया अबं०। सेसाणं वेदादीणं सव्वाणं सिया बं० । एदाणं एक्कदरं बं० । अथवा अबं० । एवं कम्म०-अणाहारगेसु । ‘णवरि आयुवज्ज० इत्थिवेद० । आभिणिबोधि० बंधंतो चदुणाणा० चदुदंस० चदुसंज. पंचंत० णियमा बं० । सेसाणं ओघभंगो । एवं पुरि० णपुंस० कोध-माणमाया० । णवरि माणे तिणि संजल० । मायाए दो संज० । सेसाणं ओघो। अवगदवेदे ओघं ।
१२८. आदेशसे- मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य तथा मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्तक, त्रस, वस-पर्याप्तक, ५ मनोयोग, ५ वचनयोग, काययोग, औदारिककाययोग, लोभकषाय, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, संज्ञी, आहारक तक ओघवत् जानना चाहिए।
औदारिकमिश्रकाययोगमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, साताका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यतिर्यंचायु, देवगति, औदारिक-वैक्रियिक, तैजस-कार्मण शरीर, २ अंगोपांग, वर्ण ४, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, आताप, उद्योत, निर्माण, तीर्थकर तथा ५ अन्तरायका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है।
विशेष-साताका सयोगीजिन पर्यन्त बन्ध है। ज्ञानावरणादिकां सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त बन्ध है । इस कारण साताके बन्धकके ज्ञानावरणादिके बन्धका विकल्प रूपसे वर्णन किया गया है।
वेदादि शेष सर्व प्रकृतियोंका स्यात् बन्धक है। इनमें से एकतरका बन्धक है अथवा सबका अबन्धक है।
कार्माण काययोग तथा अनाहारकोंमें औदारिकमिश्रकाययोगके समान जानना चाहिए। विशेष - यहाँ आयुको छोड़ देना चाहिए । स्त्री वेदमें इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष. आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका बन्ध करनेवाला-४ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन तथा ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है। शेष प्रकृतियोंका ओघके समान भंग जानना चाहिए।
पुरुषवेद, नपुंसक वेद, क्रोध, मान, माया कषायोंमें इसी प्रकार भंग जानना चाहिए। विशेष, मानमें, तीन संज्वलन और मायामें दो संज्वलन हैं। शेषका ओ जानना चाहिए।
अपगत वेदमें-ओघके समान भंग जानना चाहिए।
१. “ओराले वा मिस्से ण हि सुरणिरयायुहारणिरयदुर्ग ॥"-गो० क०,गा० ११६ । २. "कम्मे उरालमिस्सं वा गाउदुगंपि णव छिदी अयदे ।"-गो० क०, गा० ११९ ।
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महाबंधे १२६. आभिणि० सुद० ओधिणा० मणपज्ज. संजद० समाइ० छेदो० परिहार० सुहुम० संजदासंजद० ओघिदं० सम्मादि० खइग० वेदग० उवसम० ओघभंगो । णवरि मिच्छत्त-असंजदपगदीओ वजं । ओरालिय० ओरालियामिस्स० इत्थिदे० किण्णणीलासु तित्थयरं देवगदिसंयुतं कादव्वं । पम्मसुक्क-लेस्सा० इथिवेदं बंधतो ओरालियसरीरं धुवं बंधदि । सेसं णिरयादि याव असणित्ति ओघेण अप्पप्पणो सामित्तेण च साधूण माणिदव्वं ।
एवं परत्थाणसण्णियासो समत्तो ।
१२९. आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञान, संयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, संयतासंयत, अवधिदर्शन, सम्यक्त्वी, क्षायिक सम्यक्त्व, · वेदक सम्यक्त्व, उपशम सम्यक्त्वमें ओघवत् भंग जानना चाहिए। विशेष, यहाँ मिथ्यात्व तथा असंयत सम्बन्धी प्रकृतियोंको छोड़ देना चाहिए। औदारिक, औदारिकमिश्र, स्त्रीवेद, कृष्ण और नील लेश्याओंमें-तीर्थकरका बन्ध देवगति संयुक्त करना चाहिए।
. पद्म, शुक्ल लेश्यामें-स्त्रीवेदका बन्ध करनेवाला औदारिक शरीरका नियमसे बन्ध करता है। नरक गतिसे लेकर असंज्ञी पर्यन्त ओघसे अपने-अपने स्वामित्वको जानकर शेष प्रकृतियोंका कथन करना चाहिए।
इस प्रकार परस्थानसन्निकर्ष समाप्त हुआ।
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[ भंगविचया गुगम-परुवा ]
१३०. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो दुविधो णिसो ओघेण आदेसेण य | ओघे० पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु० तेजाकम्म० आहारदुगं वण्ण०४ अगुरु ०४ आदावुज्जो० णिमिणं तित्थयरं पंचंत० अस्थिबंधा अगा च | सादं अस्थिबंधगा य अबंधगा य । असादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य । दोष्णं पदी अस्थिबंधगाय अबंधगा य । एवं वेदणीयभंगो सत्तणोक चदुग० पंचजादिदोसरीर- छस्संठा' दोअंगो० छस्संघ० चदुआणु ० दोविहाय ० तसादिदसयुगलं दोगोदाणं । दो अंगो० छस्संघ - दोविहा० दोसर ० अस्थि बंधगा य अबंध० । अथवा दोष्णं छष्णं दोष्णं दोणं पि अस्थिबंधगा य अबंधगा य। गिरय- मणुस देवायूर्ण सिया सव्वे अबंधगा, सिया अबंधगा य बंधगे (गो) य, सिया अबंधगा य बंधगा य। तिरिक्खायु अस्थि गाय अबंधगा य । चदुष्णं आयुगाणं अत्थि बंधगा य अबंधगा य ।
१३१. एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालियकायजोगि भवसिद्धि० आहारगत्ति० ।
[ भंगविचयानुगम ]
१३०. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमका ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारका निर्देश है।
विशेषार्थ - भंगविचयका अर्थ है अस्ति नास्ति रूप भंगों का विचार । यहाँ कर्मप्रकृतियोंके सद्भाव, असद्भावका विचार किया गया है ।'
ओघसे - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्माण, आहारकद्विक, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आताप, उद्योत, निर्माण, तीर्थंकर और ५ अन्तरायके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं ।
साताके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं । असाताके अनेक बन्धक और अबन्धक हैं। दोनों प्रकृतियोंके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं । ७ नोकषाय ( भय जुगुप्साको छोड़कर ), ४ गति, ५ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, ४ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, त्रसादि १० युगल, २ गोत्रमें वेदनीयके समान भंग है । २ अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरके नाना जीवोंकी अपेक्षा अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं । अथवा २, ६, २, २ के अनेक बन्धक हैं, अनेक अबन्धक हैं। नरक, मनुष्य, देवायुके किसी अपेक्षा सब अबन्धक हैं, स्यात् अनेक अबन्धक, एक बन्धक है । स्यात् अनेक अबन्धक तथा अनेक बन्धक हैं । तिर्यंचायुके अनेक बन्धक और अनेक अन्धक हैं। चारों आयुके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं ।
१३१. काययोगी, औदारिक काययोगी, भव्यसिद्धिक, आहारकमार्गणा में इसी प्रकार १. विचयो विचारणा । केसि ? अस्थि णत्थि त्ति भंगाणं । की टीका ।
- खुदाबंध, पृ० २३७, सूत्र १
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१५०
महाबंधे णवरि भवसिद्धिय-सादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य । असादं अत्थि बंधगा य अबंधगा य । दोण्णं वेदणी० सिया सव्वे सिं० बंधगा य । सिया बंधगा य अबंधगा य । सिया बंधगा य अबंधगा य । सेसाणं सादं अत्थि बंधगा य अबंधगा य । असादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य । दोण्णं वेदणीयाणं सव्वे बंधगा; अबंधगा णस्थि (?)
१३२. आदेसेण णेर० पंचणा० छदसणा० बारसक० भयदुगुं० पंचिदि० ओरालिय० तेजाकम्म० ओरालि. अंगो० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमि० पंचंत. सव्वे बंधगा। अबंधगा णत्थि । थीणगिद्धि०३ मिच्छ० अणंताणुबंधि०४ उज्जोवं तित्थय० अस्थि बंधगा य अबंधगा य । सादस्स अस्थि बंधगा य अबंधगा य । असादस्स अत्थि बंधगा य अबंधगा य । दोण्णं वेदणीयाणं सव्वे बंधगा अबंधगा णत्थि । एवं वेदणीयभंगो सत्तणोक० दोगदि-छस्संठा० छस्संघ० दोआणु० दोविहा० थिरादिछयुग० दोगोदाणं । दो-आयुगाणं सिया सव्वे अबंधगा। सिया अबंधगा य बंधगो य । सिया अबंधगा य बंधगो य । एवं सव्व-णिरयाणं सणक्कुमारादि उवरिमदेवाणं ।
ओघके समान भंग समझना चाहिए । विशेष, भव्य सिद्धिकमें-साताके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं। असाताके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं। दोनों वेदनीयोंके कदाचित् सर्व बन्धक हैं । कदाचित् अनेक बन्धक हैं । स्यात् अनेक अबन्धक हैं , स्यात् अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं। शेषमें साताके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं। असाताके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं । दोनों वेदनीयोंके सब बन्धक हैं । अबन्धक नहीं हैं । (?)
विशेषार्थ-अयोगी जिनके बन्धके कारण योगका अभाव हो जानेसे बन्धका अभाव है । अतः यहाँ साता असाटाके अबन्धक नहीं है यह कथन विचारणीय है ।
१३२. आदेशकी अपेक्षा-नारकियोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक-तैजस-कार्मण शरीर, औदारिक अंगोपांग, वणे ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४, निर्माण और ५ अन्तरायके सब बन्धक हैं; अबन्धक नहीं हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, ४ अनन्तानुबन्धी, उद्योत और तीर्थकरके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं। साताके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं। असाताके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं । दोनों वेदनीयोंके सब बन्धक हैं ; अबन्धक नहीं हैं।
विशेष-नरकगतिमें आदिके ४ गुणस्थान होनेसे दोनों वेदनीयके अबन्धक नहीं पाये जाते हैं।
७ नोकषाय, २ गति, ६ संस्थान, ६ संहनन २ आनुपू:, २ विहायोगति, स्थिरादि ६ युगल तथा २ गोत्रोंमें वेदनीयका भंग जानना चाहिए। २ आयु ( मनुष्य तिर्यंचायु) के स्यात् (कदाचित् ) सब अबन्धक हैं। कदाचित् अनेक अबन्धक और एक जीव बन्धक है। स्यात् अनेक अबन्धक और अनेक बन्धक हैं। इसी तरह सम्पूर्ण नरकोंमें जानना चाहिए। सनत्कुमारादि ऊपरके देवोंमें भी इसी प्रकार समझना चाहिए ।
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पयडिबंधाहियारो
१५१ १३३. तिरिक्खेसु णिरयभंगो। णवरि चदुआयु-दोअंगो० छस्संघ० दोविहा० दोसर० ओघं । एवं पंचिंदिय-तिरिक्ख०३ । णवरि चदुण्हं आउगाणं सिया सव्वे अबंधगा । सिया अबंधगा य, बंधगो य । सिया अबंधगा य ।
१३४. पंचिंदिय-तिरिक्ख-अपज्जत्तेसु-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु० ओरालियतेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत. सव्वे बंधगा, अबंधगा णत्थि । ओरालिय० अंगो० परघादुस्सा० आदाउज्जो० अत्थि बंधगा य, अबंधगा य । छस्संघ० दोविहा० दोसर० ओघभंगो । सेसं णिरयभंगो ।
१३५. एवं सव्व-अपज्जताणं, सब-एइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं च । णवरि एइंदिय-पंचकायाणं आयूण दूण ( साधेदूण ) भाणिदव्वं ।
१३६. मणुस०३ ओघ । णवरि सादं अस्थि बंधगा य अबंधगाय । असादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य । दोण्णं वेदणीयाणं सिया सव्वे बंधगा। सिया बंधगा य, अबंधगो य । सिया बंधगो य अबंधगा य । चदुग्णं आयुगाणं सिया सव्वे अबंधगा। सिया अबंधगा य, बंधगो य। सिया अबंधगा य बंधगा य । एवं पंचिंदि० तस०२
१३३. तिर्यंचोंमें-नरकके भंग समान समझना चाहिए। विशेष ४ आयु, २ अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका ओघके समान समझना चाहिए |
पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक-तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतीमें भी इसी प्रकार समझना चाहिए । विशेषता यह है कि ४ आयुके स्यात् सब अबन्धक हैं। स्यात् अनेक अबन्धक हैं,एक जीव बन्धक है । स्यात् अनेक अबन्धक हैं ।
१३४. पंचेन्द्रिय तियंच-लब्ध्यपर्याप्तकोंमें-ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण
और ५ अन्तरायके सब बन्धक है; अबन्धक नहीं हैं। औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योतके अनेक बन्धक हैं और अनेक अबन्धक हैं । ६ संहनन, २ विहायो. गति, २ स्वरका ओघके समान भंग समझना चाहिए। शेषका नरकवत् भंग समझना चाहिए।
__ १३५. इस तरह सम्पूर्ण लब्ध्यपर्याप्तक, सम्पूर्ण एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचकायोंके भंग समझना चाहिए । विशेष, एकेन्द्रिय और पंचकायोंमें आयुको जानकर कहना चाहिए, अर्थात् इनमें मनुष्य और तिर्यच आयुका हो बन्ध होता है ।।
१३६. मनुष्यत्रिक अर्थात् सामान्यमनुष्य, पर्याप्तमनुष्य और मनुष्यनीमें-ओघके समान है । विशेष, साताके अनेक बन्धक हैं, अनेक अबन्धक हैं । असाताके अनेक बन्धक हैं, अनेक अबन्धक हैं । दोनों वेदनीयोंके स्यात् सर्व बन्धक हैं । स्यात् अनेक बन्धक हैं और एक अबन्धक हैं। स्यात् एक जीव बन्धक और अनेक जीव अबन्धक हैं। चारों आयुके स्यात् सर्व अबन्धक है । स्यात् अनेक अबन्धक हैं तथा एक जीव बन्धक है । स्यात् अनेक अबन्धक और अनेक बन्धक हैं।
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महाबंधे
१५२ तिण्णिमण तिण्णिवचि० संजद-सुक्कलेस्सियाणं । णवरि योगलेस्सासु दोणं वेदणीयाणं सव्वे बंधगा । अबंधगा णत्थि ।
१३७. मणुस-अपज्जत्ते-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु० ओरालिय-तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० सिया बंधगो य, सिया बंधगा य । अबंधगा णत्थि । सादं सिया अबंधगो। सिया बंधगो। सिया अबंधगा। सिया बंधगा। सिया अबंधगो य, बंधगो य । सिया अबंधगो य बंधगा य । सिया अबंधगा य, बंधगो य । सिया अबंधगा य बंधगा य । असादं सिया बंधगो । सिया अबंधगो। सिया बंधगा। सिया अबंधगा। सिया बंधगो य अबंधगो य । सिया बंधगो य अबंधगा य। सिया बंधगा य, अबंधगो य । सिया बंधगो (गा) य अबंधगा य । दोण्णं वेदणीयाणं सिया बंधगो। सिया बंधगा य। अबंधगा णत्थि। सादभंगो इत्थि० पुरिस० हस्सरदि-दोआयु० मणुसगदि-चदुजादि-पंचसंठा० ओरालियअंगो० छस्संघ० मणुसाणु० परघादुस्सा० आदावुज्जो० दोविहा० तस०४ थिरादिलक
~~~ विशेष'-शंका-भंगविचयमें नानाजीवोंकी प्रधानतासे कथन करनेपर एक जीवकी अपेक्षा भंग कैसे बन सकते हैं ?
समाधान-एक जीवके बिना नानाजीव नहीं बन सकते हैं । इससे भंगविचयमें नाना जीवोंकी प्रधानता रहनेपर भी एक जीवकी अपेक्षा भी भंग बन जाते हैं।
इसी तरह पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रस, त्रस-पर्याप्तक, ३ मनोयोग, ३ वचनयोग, संयत और ३३ला लेश्यावालोंके भी जानना चाहिए। विशेषता यह है कि योग और लेश्यामेंदोनों वेदनीयके सर्व बन्धक है; अबन्धक नहीं है।
१३७. मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकोंमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस, कर्मण शरीर, ४ वर्ण, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, और ५ अन्तरायका स्यात एक बन्धक है स्यात् अनेक बन्धक हैं ; अबन्धक नहीं हैं। साताका स्यात् एक अबन्धक है , स्यात् एक जीव बन्धक है ; स्यात् अनेक अवन्धक हैं। स्यात् अनेक बन्धक हैं । स्यात् एक अबन्ध क, एक बन्धक है । स्यात् एक अबन्धक, अनेक बन्धक हैं । स्यात् अनेक अबन्धक, एक बन्धक है । स्यात् अनेक अबन्धक, अनेक बन्धक हैं। असाताके-स्यात् एक बन्धक है , स्यात् एक अबन्धक है। स्यात् अनेक बन्धक हैं, स्यात् अनेक अबन्धक हैं। स्यात् एक बन्धक तथा एक अबन्धक है । स्यात् एक वन्धक, अनेक अबन्धक है। स्यात् अनेक बन्धक, एक अवन्धक है : स्यात् अनेक बन्धक ,अनेक अबन्धक हैं। दोनों वेदनीयोंका स्यात् एक बन्धक है , स्यात् अनेक बन्धक हैं; अबन्धक नहीं हैं। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, दो आयु, मनुष्य गति, ४ जाति, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, २ विहायोगति, ४ त्रस, स्थिरादिषट्क,
१. “णाणा जीवप्पणाए कधमे कभंगुप्पत्ती ? " एग जीवेण विणा णाणाजीवाणुप्पत्तीदो।" -जयध०, पृ० ३२१ ।
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पयडिबंधाहियारो
१५३ दुस्सर उच्चागोदाणि । असादभंगो णवंसकवे० अरदिसो० तिरिक्खगदि० एइंदिय० हुंडसंठाण-तिरिक्खाणुपु० थावरादि०४ अथिरादिपंच-णीचागोदाणं । तिण्णिवेद-हस्सादिदोयुग दोगदि० पंचजादि-छस्संठा० दोआणुपुग्वि-तसथावरादिणवयुगला. दोगोदाणं सिया बंधगो। सिया बंधगा। अबंधगा णस्थि । दोआयु-छस्संघ० दोविहा० दोसर० सादभंगो कादव्यो पत्तेगेण साधारणेण वि । एवं मणुस-अप्पज्जत्तभंगो वेउब्धियमिस्स० आहारकाय० आहारमिस्स० सासण० सम्मामिच्छ० । णवरि अप्पप्पणो धुविगाओ णादव्याओ भवंति। वेउब्धियमिस्स मिच्छत्त असादभंगो। तित्थयरं सादभंगो। आहार० आहारमिस्स तित्थयरं सादभंगो। सासणे तिरिक्खगदि-संयुता असादभंगो । सेसाणं सादभंगो । सम्मामि० मणुसगदि-संयुताओ असादभंगो। सेसाणं सादभंगो ।
१३८. देवेसु-भवणवासिय याव ईसाणत्ति णिरयभंगो । णवरि ओरालि० अंगो० आदावुजोवं अत्थि बंधगा य अबंधगा य । छरसंघड० दो विहाय दोसर० ओषभंगो । दोमण० दोवचि० पंचणा० छदंस० चदुसंज० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० सिया सव्वे बंधगा। सिया बंधगा य अबंधगो य । सिया बंधगा य, अवंधगा य । थीणगिद्धितिय मिच्छत्त. बारसक० आहारदु० परघाउस्सा
प्रस
दुस्वर, उच्चगोत्रका साताके समान भंग जानना चाहिए । नपुंसकवेद अरति, शोक, तिर्यचगति, एकेन्द्रिय, हुंडक संस्थान, तिथंचानुपूर्वी, ४ स्थावरादि, अस्थिरादि पंचक, नीच गोत्रका असाता. के समान भंग है।३ वेद, हास्यादि दो यगल.२ गति.५ जाति.६ संस्थान.२ आनुप स्थावरादि नवयुगल और २ गोत्रके स्यात् एक बन्धक है । स्यात् अनेक बन्धक हैं; अबन्धक नहीं है । २ आयु, ६ संहनन, २ विहायोगति और २ स्वरके प्रत्येकसे और सामान्यसे साताके समान भंग करना चाहिए।
वैक्रियिकमिश्र, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग, सासादनसम्यक्त्व, तथा सम्यक्त्वमिथ्यात्वगुणस्थानमें लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यकी तरह भंग है। विशेष, यहाँ अपनी-अपनी मार्गणामें सम्भवनीय ध्रव प्रकृतियोंको जानना चाहिए। वैक्रियिक मिश्रमें -मिथ्यात्वका असाताके समान भंग होता है। तीर्थकरका साताके समान भंग होता है। आहारक, आहारकमिश्रमें-तीर्थकरका साताके समान भंग है। सासादनमें-तिर्यंचगति मिलाकर असाताके समान भंग है । शेषमें साताके समान भंग है। सम्यक्त्वमिथ्यात्वमें-मनुष्यगति मिलाकर असाताके समान भंग जानना चाहिए। शेषमें साताके समान भंग है।
१३८. देवों में-भवनवासियोंसे ईशान स्वर्ग पर्यन्त नरकगति के समान भंग है। विशेष यह है कि औदारिक अंगोपांग, आतप, उद्योतके अनेक बन्धक तथा अनेक अबन्धक हैं। छह संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरके ओघके समान भंग हैं।
दो मन-दो वचनयोगमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संचलन, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, ४ वर्ण, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तरायके स्यात् सब बन्धक हैं । स्यात् अनेक बन्धक, एक अबन्धक है । स्यात् अनेक बन्धक हैं, अनेक अबन्धक हैं । स्त्यान२०
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१५४
महाबंधे सादावुजोव-तित्थयरं अस्थि बंधगा अबंधगा य । सादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य । असादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य । दोणं वेदणीयाणं सव्वे बंधगा । अबंधगा णत्थि । इत्थि० पुरिस० णपुंस० अस्थि बंधगा य अबंधगा य । तिण्णं वेदाणं सिया सव्वे बंधगा। सिया बंधगा य अबंधगो य । सिया बंधगा य अबंधगा य । एवं तिण्णं-वेदाणं भंगो णिरयगदि-तिरिक्खगदि-मणुसगदि-देवगदिपंचजादि-दोसरी०-छस्संठा० चदु-आणुपु० तस-थावरादि-णवयुगलं दोगोदाणं । सेसाणं अत्थि बंधगा य अबंधगा य । एवं आभिणि० सुद० ओधि० मणपज्जव० चक्खुदं० अचखुदं० ओधिदं० त्ति ।
१३६. ओरालियमिस्स-पंचणा० णवदंसणा० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु. तिण्णिसरी०-वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० सिया सव्वे बंधगा । मिया बंधगा य अबंधगो य । सिया बंधगा य अबंधगा य । सादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य । असादं अत्थि बंधगा य अबंधगा य । दोण्णं वेदणीयाणं सव्वे बंधगा । अबंधगा णस्थि । इत्थि० पुरिस० णपुंस० अस्थि बंधगा य अबंधगा य । तिण्णि-वेदाणं सिया सव्वे बंधगा। सिया बंधगा य अबंधगो य । सिया बंधगा य अबंधगा य । एवं वेदाणं भंगो [हस्सादि] दोयुगल-तिण्णिगदि-पंचजादि छस्संठा० । दोआयु ओघं । देवगदि०४
गृद्भित्रिक, मिथ्यात्व, १२ कषाय, आहारकद्विक, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत तथा तीर्थकर प्रकृति के अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं। साताके अनेक बन्धक, अनेक अबन्धक हैं। असाताके अनेक बन्धकं अनेक अबन्धक हैं। दोनों वेदनीयके सर्व बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं । स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके अनेक बन्धक, अनेक अबन्धक हैं। तीनों वेदोंके स्यात् सर्व बन्धक हैं । स्यात् अनेक बन्धक हैं और एक अबन्धक हैं । स्यात् अनेक बन्धक हैं
और अनेक अबन्धक हैं । नरकगति, तियचगति, मनुष्यगति, देवगति, ५ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, ४ आनुपूर्वी, त्रस-स्थावरादि : युगल, २ गोत्रों के तीनों वेदोंके समान भंग हैं। शेष प्रकृतियोंके अनेक बन्धक, अनेक अबन्धक हैं।
आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, और अवधिदर्शन, तथा संज्ञी मार्गणामें इसी प्रकार जानना चाहिए।
१३६. औदारिक मिश्रकाययोगमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, ३ शरीर, ४ वर्ण, अगुरुलधु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तरायके स्यात् सब बन्धक हैं । स्यात् अनेक बन्धक और एक अबन्धक हैं। स्यात् अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं। साताके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं। असाताके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं । दोनों वेदनीयके सब बन्धक हैं। अबन्धक नहीं है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेदके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं। तीनों वेदोंके स्यात् सब बन्धक हैं । स्यात् अनेक बन्धक और एक अबन्धक है । स्यात् अनेक बन्धक हैं और अनेक अबन्धक हैं । हास्य-रति, अरति-शोक ये दो युगल, ३ गति, ५ जाति, ६ संस्थानमें वेदके समान भंग है। दो आयु
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पयडिबंधाहियारो तित्थय० सिया सव्ये अबंधगा। सिया अबंधगा य बंधगो य । सिया अबंधगा य बंधगा य । छस्संघ० दोविहा० दोसर० ओघभंगो ।
१४०. एवं कम्मइगे । णवरि आयुगं णस्थि ।
१४१. इथि० पुरिस० णस० कोधादि०४ सामाइ० छेदो० धुवपगदीओ मोत्तूण सेसाणं दोण्णं मणभंगो।।
१४२. अवगद-पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० जसगित्ति उच्चा० पंचंत सिया सव्वे अबंधगा। सिया अबंधगा य बंधगो य । सिया अबंधगा य बंधगो (गा) य। सादं अत्थि बंधगा य अबंधगा य ।
१४३. अकसा०-सादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य। एवं केवलिणा. केवलिदं० ।
१४४. मदि-सुद० विभंग० असंज० किण्ण-णील-काउ०-अब्भव० मिच्छादि० असणित्ति तिरिक्खभंगो । णवरि किंचि विसेसो जाणिदवाओ। परिहार-संजदासंजदेसु अप्पप्पणो पगदीओ णिरयभंगो।
( मनुष्य तिथंचायु ) का ओघके समान भंग है। देवगतिचतुष्क और तीर्थंकरके स्यात् सर्व अबन्धक हैं। स्यात अनेक अबन्धक तथा एक वन्धक है। स्यात् अनेक अबन्धक है और अनेक बन्धक हैं। ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरमें ओघवत् भंग जानना चाहिए।
१४०. इसी प्रकार कार्मणकाययोगमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ आयुका बन्ध नहीं है।
१४१. स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, क्रोधादि ४, सामायिक, छेदोपस्थापनासंयममें ध्रुवप्रकृतियोंको छोड़कर शेष प्रकृतियोंका दो मनोयोगके समान भंग जानना चाहिए।
१४२. अपगतवेदमें-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और ५ अन्तरायोंके स्यात् सर्व अबन्धक हैं। स्यत् अनेक अबन्धक और एकजीव बन्धक है । स्यात् अनेक अबन्धक हैं, और एक जीव बन्धक हैं (?) विशेषार्थ-यहाँ अनेक अबन्धक तथा एक जीव बन्धक है;यह कथन हो चुका है,अतः पुनः आगत इस पाठमें यह संशोधन सम्यक् प्रतीत होता है कि अनेक बन्धक हैं और अनेक अबन्धक हैं।
साताके नाना जीव बन्धक हैं और अनेक अबन्धक हैं।
१४३. अकषायियोंमें-साताके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं। केवलज्ञान और केवलदर्शनमें-इसी प्रकार जानना चाहिए।
१४४. मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंगावधि, असंयत, कृष्ण, नील, कापोतलेश्या, अभव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि तथा असंज्ञी जीवोंमें तिथंचोंके समान भंग जानना चाहिए । और इनकी जो कुछ विशेषता है वह भी जाननी चाहिए। परिहारविशुद्धि संयम और संयतासंयतोंमेंअपनी-अपनी प्रकृतियोंका नरकवत् भंग जानना चाहिए।
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महाबंधे १४५. सुहुमसं० पंचणा० चदुदंस० साद० जस० उच्चागो० पंचंत० सिया बंधगो । सिया बंधगा य । अबंधगा णस्थि । यथाक्खादे-सादं सिया सव्वे बंधगा। सिया बंधगा य अबंधगो य । सिया बंधगा य अबंधगा य। तेउ० सोधम्मभंगो। पम्म० सणकुमारभंगो। णवरि किंचि विसेसो णादव्यो। सम्मादि० खहगसं० अप्पप्पणो पगदीओ ओघेण सावे(धे)दव्या । वेदगस० परिहारभंगो । णवरि असंजदसंजदासंजद-पगदीओ णादयो। उवसमस्स-पंचणा० छदंसणा० बारसक० पुरिस० भयदु० पंचिदि० तेजाक० समचदु० वज्जरिस० वण्ण०४ अगु०४ पसस्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदेज-णिमिणं तित्थय० उच्चा०-पंचंत०-अट्ठभंगो । सादासादादीणं परियत्तीणं सवाणं पत्तेगेण साधारणेण वि अट्ठभंगो। णवरि वेदणीयाणं साधारणेण सिया बंधगो य । सिया बंधगा। अबंधगा णत्थि ।
१४५. सूक्ष्मसाम्परायमें-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, सातावेदनीय, यश कीर्ति, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायोंका स्यात् एक जीव बन्धक है । स्यात् अनेक जीव बन्धक हैं । अबन्धक नहीं हैं। यथाख्यात में-सातावेदनीयके स्यात् सर्व बन्धक हैं। स्यात् अनेक बन्धक तथा एक अबन्धक हैं । स्यात् अनेक बन्धक हैं और स्यात् अनेक अबन्धक हैं। तेजोलेश्यामें-सौधर्म स्वर्गके समान भंग जानना चाहिए। पद्मलेश्यामें-सनत्कुमारबत् भंग जानना चाहिए । इनका किंचित् विशेष भी जान लेना चाहिए।
विशेष-इस लेश्यामें एकेन्द्रिय, आताप, तथा स्थावरका बन्धनहीं होता।
सम्यकदृष्टि, क्षायिकसम्यकदृष्टिमें-अपनी-अपनी प्रकृतियोंको ओघके समान जानना चाहिए।
वेदकसम्यक्त्वमें-परिहारविशुद्धिके समान भंग जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ असंयत और संयतासंयतकी प्रकृतियोंको भी जानना चाहिए।
___ उपशम सम्यक्त्वमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रियजाति, तैजस, कार्माण, समचतुरस्रसंस्थान, वनवृषभसंहनन, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र, और ५ अन्तरायोंके आठ भंग जानना चाहिए । साता असातादिक सम्पूर्ण परिवर्तमान प्रकृतियों के अलग-अलग और सम्मिलित रूपमें आठ भंग होते हैं। विशेष यह है कि वेदनीययुगलके सामान्यसे स्यात् एक बन्धक है । स्यात् अनेक बन्धक हैं । अबन्धक नहीं हैं।
१. "णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण, आदेसेण य । तत्थ ओघेण पेजं दोसो च णियमा अस्थि । सुगममेदं । एवं जाव अणाहारए त्ति वत्तव्वं । णवरि मणुसअपज्जत्तएसु णाणेगजीवं पेज्जदोसे अस्सिऊण अभंगा । तं जहा-सिया पेज्ज। सिया णोपेज्जं । सिया पेज्जाणि । सिया णोपेज्जाणि । सिया पेज्जं च णोपेज्जं च । सिया पेज्जं च णोपेउजाणि च । सिया पेज्जाणि च णोपेज्जं च । सिया पेज्जाणि च णोपेज्जाणि च ।"-जयध,पृ०३६०-३६१ ।
यहाँ आठ भंग इस प्रकार होंगे-१ एक बन्धक, २ एक अबन्धक, ३ अनेक बन्धक, ४ अनेक अबन्धक, ५ एक बन्धक एक अबन्धक, ६ अनेक बन्धक अनेक अबन्धक, ७ एक बन्धक अनेक अबन्धक, ८ अनेक बन्धक एक अबन्धक ।
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पडबंधाहियारो
१५७
१४६. अणाहारमेसु - पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु० ओरालि० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ आदावुज्जो० णिमि० तित्थय० पंचत० अस्थि बंधगा य अधाय । सादं अत्थि बंधगा य अबंधगा य । असादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य । दोणं वेदणीयाणं अत्थि बंधगा य अबंधगा य । एवं सेसाणं पगदीणं एदेण बीजेण साधेदुण भाणिदव्वं ।
एवं णाणाजीवेहि भंगविचयं समत्तं
विशेषार्थ - वेदनीयके अबन्धक अयोगकेवली गुणस्थानमें पाये जाते हैं और उपशम संम्यक्त्व ११वें गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है इस कारण उपशमसम्यक्त्व में साता असाता युगल के अबन्धकोंका अभाव कहा है।
१४६. अनाहारकोंमें– ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आतप, उद्योत, निर्माण, तीर्थंकर ५ अन्तरायोंके अनेक बन्धक हैं और अनेक अबन्धक हैं ।
विशेष – सयोगकेवली और अयोगकेवली गुणस्थानों में भी अनाहारक जीव होते हैं उन गुणस्थानों की अपेक्षा ज्ञानावरणादिके अवन्धक कहे गये हैं ।
सातावेदनीयके भी अनेक बन्धक तथा अनेक अबन्धक हैं । असातावेदनीयके भी अनेक बन्धक हैं तथा अनेक अबन्धक हैं। दोनों वेदनीयके भी अनेक बन्धक तथा अनेक अबन्धक हैं । इसी बीज से अर्थात् इस दृष्टिसे शेष प्रकृतियोंके भी भंग जानना चाहिए ।
T
इस प्रकार नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ ।
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[ भागाभागाणुगम पावणा ] १४७. भागाभागाणुग० दु०, ओ० आ० । त ओघे० पंचणा० णवदंसणा० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु० तेजाकम्म० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचतराइगाणं बंधगा सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? अणंता भागा। अबंधगा सयजीवाणं केव० ? अणंतभा० । सादबंधगा सयजी० केव० ? संखेज्ज० भागो० । अबंध० सव्व० संखेज्जा भागा। असाद [बंधगा] सबजी० केव० ? संखेज्जा० भागा। अबंधगा सव्व० केव० ? संखेज्ज० [भा] गो० ( ? ) दोण्णं वेदणीयाणं बंध० सव्वजी० केव० ? अणंता भागा। अबंध० सव्व० केव० ? अणंतभागो । एवं सादभंगो इथि० पुरिस० हस्सरदि-चदुजाति-पंचसंठा० तस०४ थिरादिपंचगं उच्चागोदं च । असादभंगो णपुंस० अरदिसोगएइंदि०-हुंडसंठा० थावरादिचदु०४ अथिरादिपंचगं णीचागोदाणं च । सत्तणोक०
[ भागाभागानुगम प्ररूपणा ] १४७. भागाभागानुगमका ओघ और आदेशसे दो प्रकारका निर्देश करते हैं।
विशेषार्थ-भागाभागानुगमके शब्दार्थपर धवलाटीकामें इस प्रकार प्रकाश डाला गया है - "अनन्तवाँ भाग, असंख्यातवाँ भाग और संख्यातवाँ भाग इनकी भाग संज्ञा है । अनन्त बहुभाग, असंख्यात बहुभाग, संख्यात बहुभाग इनकी अभाग संज्ञा है। 'भाग और अभाग' इस प्रकार द्वन्द्व समास होकर भागाभाग पद निष्पन्न हुआ। उन भागाभागोंका जो ज्ञान है, वह भागाभागानुगम है।'
ओघसे-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धक सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। साता वेदनीयके बन्धक सब जीवों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके संख्यात बहुभाग हैं। असाताके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। दोनों वेदनीयके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं ?
स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, ४ जाति, ५ संस्थान, बस ४, स्थिरादि ५ तथा उच्चगोत्रका साताके समान भंग है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, एकेन्द्रिय जाति, हुंडक संस्थान, स्थावरादि ४, अस्थिरादि ५, नीचगोत्रका असाताके समान भंग है । सात नोकपाय, ५ जाति,
१. अणंतभाग-असंखेज्जदिभाग-संखेज्जदिभागाणं भागसण्णा, अणंताभागा, असंखेज्जाभागा, संखेज्जाभागा एदेसिमभागसण्णा। भागो च अभागो च भागाभागा, तेसिमणुगमो भागाभागाणगमो ॥ --खु००, टीका,पृ० ४९५॥
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पयडिबंधाहियारो
१५६ सव्वजादि छस्संठा० तसथावरादि-णवयुग० दोगोदाणं एदेसिं साधारणेण बंध० सव्व० केव० ? अणंता भागा। अबंधगा सव्व० केव० ? अणंतभागो । णिरयमणुसदेवायुगाणं बंधना सब केव० भागो ? अणं० भागो। अबंधगा सबजी० केव०.? अणंतभागो ( ? ) । तिरिक्खायुबंध. सधजीवाणं केव० ? संखेज्जभागो । अबंधगा सबजी० केव० ? संखेज्जा भागा। चदु-आयु-बंधगा० सव्वजीवाणं केवडियो केव० ? संखेजदिभागो। अबंधगा सव्व० केव० १ संखेजा भागा। णिरयगदिदेवगदिबंध० सव्वजीवाण० केव०? अणंतभागो। अबंधगा सव्व० केव०? अणंता भागा। तिरिक्खगदिबंध० सव्व० केव० ? संखेजा भागा । अबंध० सव्व० केव० ? संखेजदिभागो। मणुसगदिवंध० सयजी० केव० ? संखेजदिभागो। अबंध० सब० केव०१ संखेजा भागा। चदुण्णं गदीणं बंध० सव्व० केव० ? अर्णता भागा। अबंध० सव्व० केव० ? अणंतभागो । एवं चदुण्णं आणुपुत्रीणं । ओरालिय० बंधगा सव्व० केव० ? अणंता भागा । अबंधगा सव्व० केव० ? अणंतो भागो। वेउव्विय-आहारसरी० बंधगा सव्व० केव० ? अणंतभागो । अबंध० सव्व. केव० ? अणंता भागा। तिण्णिसरीरार्ण बंध० सव्व० केव० १ अर्णता भागा। अबंध० सव्व० केव० १ अणंतभागो। ओरालियाअं० बंध० सव्व० केव० ? संखेज्ज०। अबंध. सव्व. केव० १ संखेज्ज । ६ संस्थान, त्रस-स्थावरादि ९ युगल, तथा दो गोत्र इनके सामान्यसे बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । नरकायु, मनुष्यायु तथा देवायुके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अवन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहु भाग हैं। तिर्यंचायुके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । चार आयुके बन्धक सब जीवोंके कितने भाग हैं । संख्यातवें भाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। नरकगति-देवगति के बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग है । तियचगतिके बन्धक सवं जीवोंके कितने भाग है ? संख्यात बहभाग है। अबन्धक सवं जीवों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। मनुष्यगतिके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। चारों गतिके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। इसी प्रकार चारों आनुपूर्वीका जानना चाहिए । औदारिक शरीरके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। वैक्रियिक आहारक शरीरके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। तीन शरीरके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । औदारिक अंगोपांगके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं।
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महाबंधे
वेउब्धिय-आहारसरी० अंगो० बंध० सन्त्र. केव० ? अगंतभागो। अबंध. सव्व० केवडि० १ अणंता भागा। तिण्णि अंगो० बंध० सव्वजीवा० केव० ? संखेज्जदिभागो । अबंध० सव्व० केव० १ संखेज्जा भा० । छस्संघ० परघादुस्सा० आदावुज्जो. दोविहा० दोसर० बंध० सव्व० केव० ? संखेज्जदिभागो। अबंध० सव्व० केव० ? संखेज्जा भागा। छस्संघ० दोविहा० दोसर० साधारणेण वि सादभंगो । तित्थयरं बंध० सव्व० केव० १ अणंतभागो । अबंधगा सव्व० केव० ? अणंता भागा।
१४८. आदेसेण णेरइगेसु० पंचणा० छदसणा० पारसक० भयदु० पंचिंदि०तिण्णिसरी०-ओरालि० अंगो० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमि० पंचंत० बंध० सव्व० केव० १ अणंतभागो। अबंधगा णत्थि । सादबंध० सव्व० केव० ? अणंतभागो। सव्वणेरइगाणं केव० १ संखेज्जदिभागो । अबंध० सव्व० केव० १ अणंतभागा (१) सव्वणेरडगाणं केव० १ संज्जा भागा। असाद० सव्व० केव० ? अणं० भागो । सव्व
विशेषार्थ-शंका - जब औदारिक शरीरके बन्धक सम्पूर्ण जीवोंके अनन्त बहुभाग हैं, तब औदारिक अंगोपांगके बन्धक सम्पूर्ण जीवोंके संख्यातवें भाग क्यों हैं ? समाधान -
औदारिक शरीरके बन्धक अधिक हैं, तथा औदारिक अंगोपांगके बन्धक कम हैं । अंगोपांगका बन्ध केवल त्रसोंके साथ पाया जाता है तथा औदारिक शरीरका बन्ध बस-स्थावर दोनों के साथ पाया जाता है।
वैक्रियिक-आहारक शरीरांगोपांगके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तव भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। तीनों अंगोपांगके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। छह संहनन परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, २ विहायोगति तथा २ स्वरके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। सामान्यसे छह संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? तथा अबन्धक कितने भाग हैं ? इनका सातावेदनीयके समान भंग जानना चाहिए । अर्थात् बन्धक संख्यातवें भाग हैं और अबन्धक संख्यात बहुभाग है। तीर्थकर प्रकृति के बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं।
१४८. आदेशसे-नरकगतिमें-५ ज्ञानावरण, ६ दशनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक-तैजस-कार्मण शरीर, औदारिक अंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४, निर्माण, ५ अन्तरायके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक नहीं हैं।
साताके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त वें भाग हैं । सम्पूर्ण नारकियोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं ( ?) सम्पूर्ण नारकियों के कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं।
विशेष-असाताके बन्धक सर्व जीवोंके अनन्तवें भाग कहे गये हैं, तब साताके अबन्धक भी सर्व जीवोंके अनन्तवें भाग होना चाहिए।अतः साताके अबन्धकोंमें अनन्तवें भाग पाठ उचित प्रतीत होता है।
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पयडिबंधाहियारो
१६१ णेरडगाणं केव० ? संखेज्जा भागा। अबंधगा सव्वजी० केवडि० ? अणंतभागो। सत्रणेरडगाणं केवडि० ? संखेज्जदिभागो । दोण्णं वेदणीयाणं बंध० केव० ? अणंतभा०। अबंधगा णस्थि । सादभंगो इत्थि० पुरिस० हस्स-रदि-मणुसगदि-पंचसंठा० पंचसंघ० मणुसाणु० उज्जोव० पसत्थ० थिरादिछक्कं उच्चागोदं च । असादभंगो णपुंस० अरदिसोग० तिरिक्खग० हुंडसं. असंपत्तसेव० तिरिक्खाणु० अप्पस० अथिरादिछक्कं णीचागोदं च । सत्तणोक० दोगदि० छस्संठा० छस्संघ० दोआणु० दोविहा० थिरादिलकयुगलं दोगो० बंध० सव्व० के० ? अणंतभागो। अबंधगा णत्थि । थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त० अणंताणुबं०४ बंधगा सव्व० केव० १ अणंतभागो । सव्वणेरइगा० केव० ? असंखेजा भागा । अबंध० सवजी० केव० ? अणंतभागो। सव्वणेरइगा० केवडि० ? असंखेजदिभा० । तिरिक्खायुबंधगा सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? अणंतभा० । सव्वणेरइ० केव० १ संखेजदिभा० । अबंध० सव्व० केव० १ अणंतभा० । सव्वणेरइगाणं केवडिओ० ? संखेजा भागा । मणुसायु-तित्थय० बंध० सव्व० केवडि० ? अणंतभा० । सव्वणेरइगा० केव० ? असंखेजदिभागो । अबंध. सव्व० केव० ? अणंतभा० । सव्व
असाताके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्वनारकियों के कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभोग है। अबन्धक सर्व जीवों के कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्वनारकियोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं।
विशेषार्थ-असाताके बन्धक भी सर्व जीवोंके अनन्तवें भाग हैं तथा अबन्धक भी अनन्तवें भाग हैं। इसका कारण नारकी जीवोंकी संख्या है, वह इतनी है कि बन्धक भी बृहत् जीवराशिके अनन्तवें भाग होते हैं तथा अबन्धक भी इतने ही होते हैं।
दोनों वेदनीयोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक नहीं हैं। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, ५ संस्थान, ५ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, स्थिरादि षट्क तथा उच्चगोत्र में साताके समान भंग जानना चाहिए । नपुंसकवेद, अरति, शोक, तियचगति, हुण्डकसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तियचानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिरादि षट्क, तथा नीचगोत्रका असाताके समान भंग जानना चाहिए। सात नोकषाय, दो गति, ६ संस्थान, ६ संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थिरादि छह युगल तथा दो गोत्रोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं अबन्धक नहीं हैं।
स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्वनारकियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्वनारकियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। तिर्यंचायुके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व नारकियोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व नारकियोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। मनुष्यायु, तीर्थकर प्रकृति के बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व नारकियोंके कितने
भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। Jain Education internation?
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महाबंधे णेरडगाणं केव० ? असंखेजा भागा। दोणं आयुगाणं बंध. केव० १ अणंतभा० । सव्वणेरइगाणं केव० ? संखेजदिभागो। अबंधगा सव्व० केव० १ अणंतभा० । सव्वणेरइगाणं केव० ? संखेज्जा भागा । एवं पढमाए पुढवीए । विदियादि याव छहित्ति णिरयोघो । णवरि आयु मणुसायुभंगो। एवं सत्तमाए । णवरि तिरिक्खगदि-तिरि. क्खाणु० णीचागोदं थीणगिद्धितिगभंगो । मणुसगदि-मणुसाणु०-उच्चागोदं मणुसायुमंगो। दोगदि-दोआणुपुषि-दोगोदा० बंधगा सव्व० केव० ? अणंतभागो। अबंधगा णस्थि ।
१४६. तिरिक्खेसु-पंचणा० छदंसणा. अट्ठक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० बंधगा सव्वजीवाणं केवडियो ? अणंताभागा । अबंधगा पत्थि । थीणगिद्धितिगं मिच्छत्त० अट्ठक० बंध. सव्व० केव० ? अणंतभागा । सव्वतिरिक्खाणं केवडि० ? अणंतभागा। अबंधगा सव्वजी० केवडि• ? अणंतभागो । सव्यतिरिक्खाणं केवडि० १ अणंतभागो। सादबंध० सव्व० केवडि० ? संखेज्जदिभागो ।
सर्व नारकियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं।
दो आयु ( मनुष्य-तिर्यंचायु) के बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व नारकियोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व नारकियोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं।
इस प्रकार पहली पृथ्वीमें जानना चाहिए। दूसरी पृथ्वीसे छठी पृथ्वी पर्यन्त नारकियों के सामान्यवत् जानना चाहिए। विशेष, आयुके विषयमें मनुष्यायुके समान भंग हैं। अर्थात् बन्धक सर्व जीवोंके अनन्तवें भाग हैं। सर्व नारकियोंके असंख्यातवें भाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके अनन्तवें भाग हैं। सर्व नारकियोंके असंख्यात बहुभाग हैं । सातवीं पृथ्वी में इसी प्रकार है। विशेष, तिथंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, नीच गोत्रके विषयमें स्त्यानगृद्धित्रिकवत् भंग है।
विशेषार्थ-बन्धक सर्व जीवोंके अनन्तवें भाग हैं। सर्व नारकियोंके असंख्यात बहुभाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके अनन्तवें भाग हैं तथा सर्व नारकियोंके असंख्यातवें भाग हैं। - मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, उच्चगोत्रका मनुष्यायुके समान भंग है। मनुष्य-तियंचगति, २ आनुपूर्वी तथा दो गोत्रके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक नहीं हैं।
१४९. तिथंचगति में-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, (स्त्यानगृद्धित्रिक बिना) प्रत्याख्यानावरण ४ तथा संज्वलन चार रूप कषायाष्टक, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्माण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं ; अबन्धक नहीं हैं । स्त्यानगृद्धि ३, मिथ्यात्व, ८ कषाय (अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण ) के बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहु भाग हैं । सर्व तियंचोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं ? सर्व तियचोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। साता वेदनीयके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। सर्व तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें
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१६३ सव्यतिरिक्खाणं केवडि० ? संखेज्जदि० । अबंधगा सब० केव० ? संखेज्जा भागा । सम्वतिरिक्खाणं केवडिओ भागो ? संखेजा भागा । असादबं० सव्व० केव० ? संखेजा भागा । सव्यतिरिक्खाणं केव० ? संखेन्जा भागा। अबंधगा सव्व० केव० ? संखेजदिभागो। सव्यतिरिक्खाणं केव० ? संखेजदिभा० । दोण्णं वेदणीयाणं बंध० सव्व० केव० ? अणंता भागा । अबंधगा णस्थि । सादभंगो इत्थि० पुरिस० हस्सरदि-चदुजादिपंचस्संठा० छस्संघ० पर०उस्सा० आदावुजो० तस०४ थिरादिपंच-उच्चागोदं च । असादभंगो णपुंस० अरदिसो० एइंदि० हुंडसं० थावरादि०४ अथिरादिपंच-णीचागोदं च । सत्तणोक० पंचजादि छस्संठा० तसथावरादि-णवयुगल-दोगोदाणं बंध० सव्व० केव० ? अणंता भागा । अबंधगा णस्थि । चदुआयु-चदुगदि-दोसरी० दोअंगोल्छस्संघ० चदुआणु० दोविहा० दोसर० ओघं । णवरि गदि-सरी० आणुपु० सव्वे बंधा। अबंधगा णत्थि । पंचिंदिय-तिरिक्खेसु-पंचणा० छइंस० अट्ठक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप. णिमि० पंचंत० बंध० सव्व० केव० ? अणंतभागो। अबंधगा णत्थि । थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त-अट्ठकसा० बंध० सव्व० केव० ? अणंतभागो । सव्वपंचिंदियतिरिक्खाणं केवडि०? असंखेजाभा०। अबंध० सव्व० केव० ? अणंतभागो। सव्वपंचिंदियतिरिक्खाणं केवडि० ? असंखेजदिभागो । सादावेद० बंध० सव्व० केव० ? भाग हैं ? अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। सर्व तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। असाता वेदनीयके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग है ? संख्यात बहभाग हैं। सर्व तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहभाग है। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। सर्व तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। दोनों वेदनीयोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । अबन्धक नहीं हैं।
स्त्रीवेद, पुरुपवेद, हास्य, रति, ४ जाति, ५ संस्थान, ६ संहनन, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योन, त्रस ४, स्थिरादि ५ तथा उच्चगोत्रका साता वेदनीयके समान भंग है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डकसंस्थान, स्थावरादि ४, अस्थिरादि ५ तथा नीच गोत्रका असाता वेदनीयके समान भंग है । ७ नोकषाय, ५ जाति, ६ संस्थान, त्रस-स्थावरादि ९ युगल, दो गोत्रके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक नहीं हैं।
चार आयु, ४ गति, औदारिक, वैक्रियिक शरीर, दो अंगोपांग, ६ संहनन, ४ आनुपूर्वी, दो विहायोगति, दो स्वरका ओघवत् भंग है । विशेष; गति, शरीर तथा आनुपूर्वी के सब बन्धक हैं । अबन्धक नहीं हैं।
___ पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ८ कषाय, भय-जुगुप्सा, तै जसकार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं ; अबन्धक नहीं हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, ८ कपायके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व पंचेन्द्रिय तियचोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग है।
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महाबंधे
अनंतभागो। सव्वपंचिंदियतिरिक्खाणं केव० ? संखेजदिभागो । अबंधगा सव्व० केव० ? अनंतभागो । सव्वपंचिदिय - तिरिक्खाणं केत्र डि० ? संखेजा भागो (गा) | असादं बंध० केव० ? अनंतभा० । सव्वपंचिंदियतिरिक्खाणं केवडिया भागा ? संखेजा भागा । अबंध० सव्वजी० के० ? अनंतभा० । सव्वपंचिदियतिरिक्खाणं केवडि० ? संखेज दि भागो । दोवेदणीयं बं० सव्व० केवडि० ? अनंता (त) भागो । अबंधगा णत्थि । सादभंगो इत्थि० पुरिस० हस्सरदि-चदुजादि-पंचसंठा० छस्संघ० पर० उस्सा०आदावुञ्जो० तस०४, थिरादिपंच - उच्चा गोदं च । असादभंगो णपुंस० अरदिसोगं० एइंदि० हुंडसं० थावरादि०४ अथिरादिपंचणीचागोदं च । सत्तणोक० पंचजादिछस्संठा० तस्थावरादिणवयुगल० दोगोदाणं बंध० सव्वजी० के० ? अनंतभागो । अधगा णत्थि । तिण्णि आयुबंधगा सव्व० केव० ? अनंतभागो । सव्वपंचिंदियतिरिक्खा० के० ? असंखेज दिमा० । अबंधगा सव्त्र० केव० ? अनंतभागो । सव्वपंचिदिय-तिरिक्खाणं केव० ? असंखेजा भागा । तिरिक्खायुबंध० सव्व० केव० ? अनंतभागो । सव्वपंचिदियतिरिक्खाणं केवडि० ? संखेजदिभागो । अबंध० सव्व० केवडि० ? अनंतभागो । सव्वपंचिदिय-तिरिक्खाणं केवडि० ? संखेजा भागा ।
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अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। सातावेदनीयके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त भाग हैं । सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । अबन्धक सर्व जीवों के कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं |
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असाताके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त भाग हैं । सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। दो वेदनीयके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं। अनन्तवें भाग हैं; अबन्धक नहीं हैं ।
स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य- रति, ४ जाति, ५ संस्थान, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत्, स ४, स्थिरादि ५ तथा उच्चगोत्रका साता वेदनीयके समान भंग है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डकसंस्थान, स्थावरादि ४, अस्थिरादि ५, नीचगोत्रका असाता के समान भंग है । ७ नोकषाय, ५ जाति, ६ संस्थान, त्रस स्थावरादि ९ युगल तथा २ गोत्र के बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं; अबन्धक नहीं हैं ।
मनुष्य-देव-नरकायुके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवों के कितने भाग हैं ? अनन्त भाग हैं । सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । तिर्यचायुके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं ।
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पयडिबंधाहियारो
१६५
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चदुष्णं आयुगा० बं० सव्व० केव० ? अनंतभागो । सच्चपंचिंदियतिरिक्खाणं केत्र० ? संभागो । अबंधगा सव्व० केव० ? अनंतभागो। सव्वपंचिंदिय-तिरिक्खाणं केव० ? संखेजा भागा। णिरयग दिदेवग दिबंध ० सव्व० केव० ? अनंतभागो । सव्वपंचिंदियतिरिक्खाणं केव० ? असंखेजदिभागो । अबंधगा सव्वजी० के० ? अनंतभागो । सव्वपंचिंदिय-तिरिक्खाणं केव० ? असंखेजा भागा। तिरिक्खगदि० असादभंगो । मणुसग दि० सादभंगो । चदुष्णं गदीणं बंधगा सव्व० केवडि० ? अनंतभागो । अबंधगा णत्थि । ओरालियस ० बंधगा सव्वजी ० केवडि० ? अनंतभागो । सन्त्रपंचिंदिय-तिरिक्खाणं केवडि० ? असंखेजा भागा। अबंधगा सव्वजीव० केव० ? अनंतभागो | सव्वपंचिंदियतिरिक्खाणं केवडि० ? असंखेजदिभागो । वेगुव्वियस० देवदिभंगो | दोणं सरीराणं बंधगा सव्व० के० ? अनंतभागा ( गो ) । अबंधगा णत्थि । ओरालियअंगो० सादभंगो । वेगुव्वियअंगो० देवगदिभंगो । दोष्णं अंगो० सादभंगो । छस्संघ० दोविहाय दोसर० पत्तेगेण साधारणेण सादभंगो ।
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१५०. एवं पंचिदिय-तिरिक्ख-पञ्जत-पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु । णवरि णिरय
चार आयुके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं। अनन्तवें भाग हैं । सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवे भाग हैं । सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । नरकगति, देवगतिके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । अबन्धक सर्व जीवों के कितने भाग हैं ? अनन्तवों भाग हैं । सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । तिर्यंचगतिका असाताके समान भंग है । मनुष्य गतिका साताके समान भंग है। चार गतियोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त वें भाग हैं; अबन्धक नहीं हैं । औदारिक शरीरके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं | सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवे भाग हैं । सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । वैक्रियिक शरीरका देवगतिके समान भंग है । औदारिक-वैक्रियिक शरीरोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं ( ? )
अबन्धक
विशेष – यहाँ बन्धक सर्व जीवोंके अनन्तवें भाग होना उचित जँचता है । पंचेन्द्रिय तिर्यच राशि ही जब सम्पूर्ण जीव राशिके अनन्त बहुभाग प्रमाण नहीं है, तब शरीरद्वयके बन्धक अनन्त बहुभाग कैसे होंगे ? अतः अनन्तवें भाग पाठ उचित प्रतीत होता है ।
औदारिक- शरीर अंगोपांगके विषय में साता के समान भंग है । वैक्रियिक अंगोपांगका देवगति के समान भंग हैं । औदारिक-वैक्रियिक अंगोपांगों का साताके समान भंग है। छह संहनन, २ विहायोगति तथा स्वरयुगलका प्रत्येक तथा सामान्य रूप से साता के समान भंग है।
१५०. पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-योनिमतियों में, इसी प्रकार है। विशेष,
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महाबंधे
१६६ मणुसायुबंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो । सयपंचिंदिय-तिरिक्ख-पजत्तजोणिणीणं केवडि० ? असंखेज्जदिभागो। अबंधगा सबजी० केव० ? अणंतभागो। सयपंचिंदियतिरिक्खपजत्तजोणिणीणं केव० ? असंखेजदि० (2)। तिरिक्खदेवाणं सादभंगो। चदुण्णपि आयुगाणं सादभंगो। णिरयगदि असादभंगो । ति दिण्णं सादभंगो। चदुण्णं गदीणं बंधगा सब० केव० ? अणंतभा० । अबंधगा णस्थि । एवं आणुपुब्बी०। चदुजादि सादभंगो। पंचिंदियजादीणं असादभंगो। पंचण्णं जादीणं बंधगा सव्व० केव० ? अणंतभागो। अबंधगा णस्थि । वेगुब्बिय० वेगुब्बियअंगो० सादभंगो । दोण्णंपि असादभंगो। छस्संघ० आदावुजो० सादभंगो। परघादुस्सा. अप्पसत्थ० तस०४ अथिरादिछक्क-णीचागोदं च असादभंगो। तप्पडिपक्खाणं सादभंगो । दोविहा० दोसर० असादभंगो । तसादिणवयुगलं दोगोदं च वेदणीयभंगो । पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तेसु-पंचणा० णवदंसणा० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु० तिण्णिसरी० वण्ण०४ अगुरु० उप० णिमि० पंचंत० बंधगा सव्व० केव० ! अणंतभा० । अबंधगा पत्थि । सेसाणं णिरयोघं । णवरि चदुजादि-ओरालि. अंगो० छस्संघ० परघादुस्सा० यहाँ नरकायु-मनुष्यायुके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सम्पूर्ण पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तक-योनिमतियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिथंच पंचेन्द्रिय तियंचयोनिमतियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं।
विशेष-यहाँ असंख्यात बहुभाग पाठ उपयुक्त प्रतीत होता है ।
तियच-देवायुका साताके समान भंग जानना चाहिए। चारों आयुका साताके समान भंग जानना चाहिए। नरकगतिका असाताके समान भंगहै। शेष तीन गतियोंका साताके समान भंग है। चारों गतियोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक नहीं हैं। आनुपूर्वीका इसी प्रकार भंग जानना चाहिए। ४ जातियोंका साताके समान भंग है। पंचेन्द्रिय जातिका असाताके समान भंग है । पाँच जातियों के बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अबन्धक नहीं हैं। वैक्रियिक शरीर तथा वैक्रियिक अंगोपांगका साताके समान भंग है। दोनोंका सामान्यसे असाताके समान भंग है। ६ संहनन, आतप, उद्योतका सातावत् भंग है। परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, अस्थिरादि ६ तथा नीच-गोत्रका असाताके समान भंग है। इनको प्रतिपक्षी प्रकृतियोंका जैसे प्रशस्तविहायोगति, स्थावरादि ४, स्थिरादि ६, उच्चगोत्रका साताके समान भंग है। दो विहायोगति, दो स्वरका असाताके समान भंग है । सादि ९ युगल तथा २ गोत्रका वेदनीयके समान भंग है।
__ पंचेन्द्रिय-तियंच-लब्ध्यपर्याप्तकोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण,मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय-जुगुप्सा, औदारिक-तैजस-कार्माण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं; अबन्धक नहीं हैं। शेष प्रकृतियोंका नारकियोंके ओघवत् जानना चाहिए। विशेष, ४ जाति, औदारिक-अंगोपांग,
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पय डिबंधाहियारो
१६७ आदावुजो० दोविहा० तस०४ थिरादि-छक-दुस्सर-उच्चागोदं० सादभंगो। एइंदियजादिहुंडसंठा० थावरादि०४ अथिरादिपंचगं णीचागोदं च असादभंगो। पंचजादि-बंधगा सव्वजी० केव० १ अणंतभा० । अबंधगा णस्थि । एवं तसथावरादिणवयुगलं दोगोदाणं । छस्संघ० दोविहा० दोसर० साधारणेण वि सादभंगो। एवं मणुस-अपजत्त-सव्यविगलिंदियपंचिंदिय-तस-अपजत्त-सव्यपुढवि-आउ० तेउ. वाउ० बादरवणप्फदिपत्तेयः । णवरि तेउ० वाउ० मणुसगदिचदुक्कं णत्थि ।
१५१. मणुसेसु-पंचिंदिय-तिरिक्खभंगो। णवरि धुविगाण अबंध० अस्थि । दोवेदणीयाणं बंधगा सव्वजीव. केव० ? अणंतभागो। सव्वमणुसाणं केव० ? असंखेजा भागा। अबंधगा सव्व० केव ! अणंतभागो। सव्वमणुयाणं केव० ? असंखेअदिभागो। सादभंगो इथि० पुरिस० हस्सरदि-तिरिक्खायु-मणुसगदिचदुजादि-पंचसंठा० ओरालि. अंगो० छस्संघ मणुसाणु० परघादुस्सा. आदावुजोव० दोविहा० तस०४ थिरादिछ०-दुस्सर उच्वागोदं च । असादभंगो णपुंस० अरदिसोग० तिरिक्खगदि-एइंदि० हुंडसंठा० तिरिक्खाणु० थावरादि०४ अथिरादिपंच णीचागोदं च । तिण्णिवेद-हस्सरदिदोयुग० पंचजादिछस्संठा० तसथावरा
६ संहनन, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि ६, दुस्वर तथा उच्चगोत्रका साताके समान भंग है। एकेन्द्रिय जाति, हुण्डक संस्थान, स्थावरादि ४, अस्थिरादि ५ तथा नीच गोत्रका असाताके समान भंग है। ५ जातिके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं; अबन्धक नहीं हैं। त्रस, स्थावरादि ९ युगल तथा दो गोत्रोंमें इसी प्रकार भंग जानना चाहिए। छह संहनन, दो विहायोगति, २ स्वरका प्रत्येक तथा सामान्य रूपसे साताके समान भंग है ।
मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तक, सर्व विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-त्रस-अपर्याप्तक, सम्पूर्ण पृथ्वी, अप, तेज, वायु, बादर वनस्पति, प्रत्येकमें-इसी प्रकार अर्थात् पंचेन्द्रिय तियच लब्ध्यपर्याप्तकके समान जानना चाहिए । विशेष, तेजकाय, वायुकायमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुप्यायु तथा उच्चगोत्र नहीं हैं ।
१५१. मनुष्योंमें-पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका भंग है । विशेष, यहाँ ध्रुव प्रकृतियोंके अबन्धक भी पाये जाते हैं। दो वेदनीयोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सम्पूर्ण मनुष्योंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्वा जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व मनुष्योंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं।
स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, तिथंचायु, मनुष्यगति, ४ जाति, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि-षटक, दुस्वर तथा उच्चगोत्रका साताके समान भंग है । नपुंसकवेद, अरतिशोक, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डकसंस्थान, तिर्यंचानुपूर्वी, स्थावरादि ४, अस्थिरादि ५ वथा नीचगोत्रका असाताके समान भंग है। तीन वेद, हास्यरति, अरतिशोक, पंच जाति,
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• १६८
महाबंधे दिणवयुग०-दोगोदाणं च वेदणीयभंगो । तिण्णिायु-आहारदु० वेउब्धियछक्कं तित्थय० सव्वजी. केव० ? अणंतभागो। मणुसाणं केव० ? असंखेजदिभागो। अबंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सव्वमणुसाणं केवडि० ? असंखेजा भागा। ओरा. लिस० पत्तेयेण धुविगाणं भंगो। चदुगदि-दोसरी० चदुआणु० वेदणीयभंगो। दोअंगो० छस्संघ० दोविहा० दोसर० साधारणाणं सादभंगो ।
१५२. मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु - एसेव भंगो। णवरि ये असंखेजा भागा ते संखेजा कादया। सादभंगो इथि० पुरिस० हस्सरदि-तिण्णिगदि-चदुजादि-दोसरीरपंचसंठा० दोअंगो० तिण्णिआणु० आदावुजो० पसत्थ० थावरादि०४ थिरादिछक्क उच्चागोदं च । असादभंगो णपुंस० अरदिसोग० णिरयगदि० पंचिंदि० वेगुन्वि० हुंडसं० वेगुधि० अंगो० णिरयाणु० पर० उस्सा० अप्पसत्थ० तस०४ अथिरादिछक्क० णीचागोदं च। सत्तणोक० चदुगदि-पंचजादि तिण्णिसरीर छस्संठा० तिण्णि अंगो० चदुआणु० दोविहा. तसथावरादि-दसयुगलं दोगोदाणं वेदणीयभंगो। चदुआयु० छस्संघ० पत्तेगेण साधारणेण वि सादभंगो।
१५३. देवेसु णिरयोघं । णवरि विसेसो । सादभंगो इत्थि० पुरिस० हस्सरदि
६ संस्थान, बस-स्थावरादि ९ युगल तथा २ गोत्रोंका वेदनीयके समान भंग है । ३ आयु, आहारकद्विक, वैक्रियिकषटक तथा तीर्थकर प्रकृति के बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त भाग हैं । सर्व मनुष्योंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं ? अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व मनुष्यों के कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं।
औदारिक शरीरका प्रत्येकसे ध्रुवप्रकृतिसदृश भंग है। चार गति, २ शरीर, ४ आनुपूर्वोका वेदनीयके समान भंग है । दो अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका साधारणसे साताके समान भंग है।
१५२. मनुष्य-पर्याप्तक मनुष्य नियों में मनुष्यके समान भंग है । विशेष, पूर्वमें जो असंख्यात बहुभाग कहे गये हैं, उनके स्थानमें 'संख्यात बहुभाग' कर लेना चाहिए। स्त्रीवेद, पुरुपवेद, हास्य, रति, मनुष्य-तियच-देवगति, ४ जाति, दो शरीर, ५ संस्थान, दो अंगोपांग, नरकानुपूर्वीके बिना शेष तीन आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, स्थावरादि ४, स्थिरादि ६ तथा उच्चगोत्रका साताके समान भंग है। नपुंसकवेद, अरति-शोक, नरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, हुण्डकसंस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, नरकानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस ४, अस्थिरादिषट्क तथा नीच गोत्रका असाताके समान भंग है । ७ नोकषाय, ४ गति, ५ जाति, ३ शरीर, ६ संस्थान, ३ अंगोपांग, ४ आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस-स्थावरादि १० युगल और दो गोत्रोंका वेदनीयके समान भंग है। चार आयु, ६ संहननका प्रत्येक तथा सामान्यसे साताके समान भंग है।
१५३. देवगतिमें - नरकगति के ओघवत् जानना चाहिए। विशेष - स्त्रीवेद, पुरुषवेद,
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पयडिबंधाहियारो
१६९
तिरक्खायु- मणुसग दि-पंविदियजादि - पंचसंठा० ओरालि० - अंगो० छस्संघ० मणुसाणु० आदावुज्जो ० दोविहा० तस-थिरादिछक - दुस्सर - उच्चागोदं च । असादभंगो णपुंस० अरदिसोगो तिरक्खग०-एइंदि० - हुंडठा० तिरिक्खाणु ० थावर- अथिरादिपंच-णीचागोदं च । वेदणीय भंगो सत्तणोक० दोगदि दोजादि ० छस्संठा० दोआणु० तसथाव०थिरादिपंच- युगला० दोगोदाणं च । छस्संघ० दोविहा० दोसरं० साधारणेण वि सादभंगो । एवं भवग - वा०-वें० जोदिसि० । णवरि तित्थय० णत्थि । जोदिसिय-तिरिक्खायु
सायुभंगो | सोधम्मीसाण जोदिसियभंगो, णवरि तित्थयरं अस्थि । सणक्कुमार या सहस्सार ति बिदिय पुढविगो | आणद याव णवके (गे) वजात्ति धुविगाणं बंधा सव्वजी० के० ? अनंतभागा (गो) । अबंधगा णत्थि । थीणगिद्धि३ मिच्छत्त० अनंताणु ०४ तित्थयरं बंधा० सव्व० केव० ? अनंतभागो । सव्वदेवाणं hao ? संखेज्जदिभागो । अबंधा सव्वजी० के० ? अनंतभागो । सव्वदेवाणं केव० ? संभागो (गा) | सादभंगो इत्थि० णपुंस० हस्सरदि-पंचसंठा० पंच संघ० अप्प - सत्थवि० थिर- सुभग (सुभ) दूभगदुस्सर - अणादेज्ज - जसगित्ति णीचागोदं च । असादहास्य, रति, तिर्यंचायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, स्थिरादि ६, दुस्वर तथा उच्चगोत्रका साताके समान भंग है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डकसंस्थान, तिर्यचानुपूर्वी, स्थावर, अस्थिरादि ५ तथा नीच गोत्रका असाता के समान जानना चाहिए । ७ नोकषाय, २ गति, २ जाति, ६ संस्थान, २ आनुपूर्वी, त्रस स्थावर, स्थिरादि ५ युगल तथा २ गोत्रका वेदनीयके समान भंग है । ६ संहनन, २ बिहायोगति, २ स्वरका साधारणसे भी साताके समान भंग है । भवनवासी, व्यन्तर तथा ज्योतिषी देवों में इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेष, यहाँ तीर्थंकर प्रकृति नहीं है। ज्योतिषी देवों में तिर्यंचायुका मनुष्यायुके समान भंग है । सौधर्म और ईशान में - ज्योतिषियोंके समान भंग है । विशेप, यहाँ तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होता है । सानत्कुमारसे सहस्रार स्वर्गपर्यन्त - दूसरे नरक के समान भंग है। आनतप्राणतसे नत्र ग्रैवेयक पर्यन्त-ध्रुव प्रकृतियों के बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अन्त बहुभाग हैं ( ? ), अबन्धक नहीं हैं ।
विशेषार्थ - खुदाबन्धमें देवोंकी संख्या सर्व जीवोंके अनन्तवें भाग कही है - देवग दीप देवा सव्यजीव्वाणं केवडियो भागो ? अनंतभागो ( भागाभा० ८ ६ ) । अतः यहाँ अनन्त बहुभाग के स्थान में अनन्त भाग पाठ उचित प्रतीत होता है।
स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी ४ तथा तीर्थंकरके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त भाग हैं । सर्व देवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व देवोंके कितने भाग हैं ? संख्या
भाग हैं ( ? ) ।
विशेष – यहाँ 'संख्यात बहुभाग' पाठ उचित प्रतीत होता है ।
स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, हास्य, रति, ५ संस्थान, ५ संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थिर,
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महाबंधे
भंगो पुरिस० अरदिसोग० चमचद् [ समचदु० ] बजरिसभ० पसत्थ० अथिर-असुभसुभग-सुस्सर-आदेज० अजस० उच्चागोदाणं च । दोण्णं वेदणीयाणं बंधगा सब० केव०? अणंतभागो । अबंधगा पत्थि । एवं सेसं ( साणं) परियत्तमाणयाणं । आयु जोदिसियभंगो । अणुदिस याव सव्वट्ठत्ति अणाद (आणद) भंगो। वरि सव्वट्ठ आयु माणुसिभंगो।
१५४. एइंदिएम-पंचणा० णवदंसणा० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु० ओरालि. तेजाक० वण्ण४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० बंध० सव्वजी० केव० ? अणंता भागो (भागा) । अबंधगा णत्थि । सेसं तिरिक्खोघं.। बादरएइंदियपज्जत्तापज्जत्तेसु-दुविगाणं बं० सव्व० केव० ? असंखेजदिभामो । अबंधगा णस्थि । सादबंध० सव्व० केव० ? असंखे ज-दिभागो। सव्ववादर-एइंदिय-पञ्जत्तापजत्ताणं केव० ? संखेज्जदिभागो । अबंधगा सव्व० केव० ? असंखेज्जदिभागो। सव्ववादर-एइंदिय-पज्जत्तापज्जत्ताणं केव. ? संखेज्जा भाग । एवं असादं पडिलोमेण भाणिदव्वं । दोण्णं वेदणीयाणं बंध० सव्व०
सुभग', ( शुभ )दुभंग, दुस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति, नीच गोत्रका साताके समान भंग है । पुरुषवेद, अरति, शोक, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशःकीर्ति तथा उच्चगोत्रका असाताके समान भंग हैं। दोनों वेदनीयक बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक नहीं हैं। इस प्रकार परिवर्तमान शेष प्रकृतियोंमें जानना चाहिए। आयुओंमें ज्योतिषी देवोंका भंग है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त आनतके समान भंग जानना चाहिए। विशेष, सर्वार्थसिद्धिमें आयुका भंग मनुष्यनीके समान हैं। . १५४. एकेन्द्रियों में,-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय-जुगुप्सा, औदारिक-तैजस- कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायके बन्धक सर्व जीवों के कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं (?); अवन्धक नहीं हैं।
विशेष-यहाँ 'अनन्तवें भाग' के स्थानमें 'अनन्त बहुभाग' पाठ अँचता है क्योंकि एकेन्द्रिय सर्व जीवों के अनन्त बहुभाग हैं ।
शेष प्रकृतियोंका तिर्यंचोंके ओघवत् वर्णन जानना चाहिए ।
वादर, एकेन्द्रिय पर्याप्त तथा अपर्याप्तोंमें-ध्रुव प्रकृतियों के [ बन्धक ] सर्व जीवोंके कितने भाग है ? असंख्यातवें भाग हैं ; अबन्धक नहीं हैं। साता वेदनीयके बन्धक सर्वे जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। सर्व बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्तकों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात भाग हैं । सर्व बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्त जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। असाताके विपयमें इसी प्रकार प्रतिलोमक्रमसे जानना चाहिए। दोनों वेदनीयोंके बन्धक सर्व
१ यहाँ 'शुभ' पाट उचित प्रतीत होता है । सुभगको पुनः गणना आगे की गयी है।
२ इंदियाणवादेण एइंदिया सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? अणंता भागा। -खु० ब०,भागाभा०, ११, १२, पृ. ४६६
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पयडिबंधाहियारो
१७१ केव० ? असंखेन्जदिभागो । अबंधगा णस्थि । सादभंगो इत्थि० पुरि० हस्सरदि-तिरिक्खायु-मणु सगदि-चदुजादि-पंचसंठा० ओरालि० अंगो० छस्संघ० मणुसाणु० परषादुस्सा० आदावुज्जो० दोविहा० तस०४ थिरादिलकं दुस्सर-उच्चागोदं च। असादभंगो णपुंस० अरदिसोग-तिरिक्रुग०-एइंदियजा-इंडसं०-तिरिक्खाणु० थावरादि०४ अथिरादिपंच-णीचागोदं च । मणुसायु-बंधगा सव्व० केव० ? अणंतभागो । सव्वबादरएइंदिय-पज्जत्ताअपज्जत्ताणं केव० ? अणंतभागो । अबंधगा सव्व० केव० ? असंखेज्जदिभाग्थे। सव्ववादर-एइंदिय-पज्जत्ताअपज्जात्ताणं केव० ? अणंतभागा । दोआयु० छस्संघ० दोविहा० दोसर० साधारणेण सादभंगो। सेसाणं परियत्ताणं युगलाणं वेदणीयभंगो।
१५५. सुहमे०-धुविगाणं बंधगाण-सव्व० केव० ? असंखेज्जा भागा० । अबंधगा णस्थि । सादाबंध० सव्व० केव० १ संखेज्जदिभागो। सव्वसुहुमे-इंदियाणं केव० ? संखेजदिभागो। अबंधगा सव्व० केव० ? संखेज्जा भा० । सव्वसुहुमाणं केव० ? संखेजा भा० । असादं पडिलोमे० भाणिदव्यं । दोवेदणीयाणं बंध० सव्व० केव ? असंखेज्जा भागा। अबंधगा णत्थि । एवं सव्वाओ परियत्तीओ वेदणीयभंगो । छण्णं जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं ; अबन्धक नहीं हैं। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, तियचायु, मनुष्यगति, ४ जाति, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि ६, दुस्वर, उच्चगोत्रका साताके समान भंग जानना चाहिए। नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डकसंस्थान, तिथंचानुपूर्वी, स्थावरादि ४, अस्थिरादि ५, नीचगोत्रका असाताके समान भंग है । मनुष्यायुके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्तकोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। सर्व बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। दो आयु, छह संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरके सामान्यसे साताके समान भंग है ? शेष परिवर्तमान युगलरूप प्रकृतियोंका वेदनीय के समान भंग जानना चाहिए।
१५५. सूक्ष्म-एकेन्द्रियमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं। असंख्यात बहुभाग हैं; अबन्धक नहीं हैं । साता वेदनीयके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। सर्व सूक्ष्मएकेन्द्रियजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। सर्व सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । असाता वेदनीयका प्रतिलोम क्रमसे भंग है।
__ विशेषार्थ-असाताके बन्धक सर्व जीवोंके संख्यात बहुभाग हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके संख्यात बहुभाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके संख्यातवें भाग हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके संख्यातवें भाग हैं।
दो वेदनीयके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक नहीं हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण परिवर्तमान प्रकृतियों में वेदनीयके समान भंग जानना चाहिए ।
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महाबंधे
१७२ दोण्णं दोण्णं पि पत्तगेण साधारणेण वि सादभंगो। तिरिक्खायु-सादभंगो। मणुसायुबंधगा सब० केव० ? अणंतभागो । सव्यसुहमएइंदिया० केव० ? अणंतभागो । अबंध० सव्वजी० केव० ? असंखेज्जा भा० । सव्वसुहुमेइंदि० केव० १ अणंता भागा। दोआयु० तिरिक्खायुभंगो । सुहुमएइंदिय-पञ्जत्तेसु-धुविगाणं बंधगा सब० केव० ? संखेज्जाभा० । अबंधा णस्थि । सादासादं पत्तेगेण सुहुमोघं । साधारणेण दोवेदणीया० बंध० सब० केव० ? संखेज्जा भागा । अबंधगा णत्थि । एदेण कमेण णेदव्वं ।
१५६. सुहुमअपजता० धुविगाणं बंध. सव्व० केवडि० ? संखेज्जदिभागो। अबंधगा णत्थि । सादबंधगा सव्वजी० केव० ? संखेज्जदिभागो । सव्वसुहुमएइंदियअ पज्जत्ताणं केव० ? संखेजदिभागो। अबंधगा सब० केव०१ संखेजदिभागो। सव्वसुहुमएइंदियअपज्जत्ताणं केव० ? संखेज्जभा० । असादं बंधगा सब० केव० ? संखेज्जदिभागो । सव्यसुहुमअपज्जत्ताणं केव० ? संखेज्जा भागा । अबंधगा सव्व० केव० ? संखेज्जदिभा०। सव्यसुहुमअपज्जत्ताणं केव० १ संखेज्जदिभा० । दोण्णं वेदणीयाणं बंधगा सव्व० केव०? संखेज्जदिभागो । अबंधगा णस्थि । एवं सव्याओ णादव्याओ । णवरि तिरिक्खायुछह संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका प्रत्येक तथा सामान्य रूपसे साताके समान भंग है। तिर्यंचायुका साताके समान भंग है। मनुष्यायुके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। सर्ग सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । ( ? )
मनुष्य-तियचायुके बन्धकोंका तिर्यंचायुके समान अर्थात् साताके समान भंग है।
सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-पर्याप्तकोंमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातबहु भाग हैं; अंबन्धक नहीं हैं। साता असाता वेदनीयके पृथक्-पृथक् रूपसे सूक्ष्म जीवोंके ओघवत् भंग हैं। सामान्यसे दो वेदनीयके बन्धक सर्बजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक नहीं हैं । शेष प्रकृतियोंमें यही क्रम जानना चाहिए।
१५६. सूक्ष्म अपर्याप्तकोंमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं ; अबन्धक नहीं हैं। सातावेदनीयके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। सर्वसूक्ष्म-एकेन्द्रिय-अपर्याप्तकोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं ? सासूक्ष्म-एकेन्द्रिय-अपर्याप्तकों के कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं।
___असाताके बन्धक सर्वजीवों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। सर्व सूक्ष्मअपर्याप्सकोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। सर्गसूक्ष्म अपर्याप्तकोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। दोनों वेदनीयोंके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं ; अबन्धक नहीं हैं। इस प्रकार सब
१. सुहमेइंदियपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? संखेज्जा भागा || -खु० ब०,सू०१७,१८ । २. सुहमेइंदिय-अपज्जत्ता सव्वजीणाणं केवडिओ भागो ? संखेज्जदिभागो। १६,२० ।
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पयडिबंधाहियारो
१७३
सादभंग । मायुबंध० सव्व० केव० ? अनंता (त) भागो। सव्वसुहुमअपज्जत्ता केव ०१ अणंतभागो | अबंध० सव्व० के० १ संखेज्जदिभागो । सव्वमुहुम- अपज्जत्ता० केव० ? अता भागा । दोअयु-तिरिक्खायुभंगो । एवं वणप्फति (दि) णियोदाणं ।
१५७ पंचिंदिया मणुसोधं । पंचिंदियपज्जत्तेसु - पंचिदिय-तिरिक्खपजत्तभंगो । वरि धुविगाणं मणुसोघं । साधारणेण दोवेदणीयबंधा सव्व० केव० ? अनंतभागो । सव्त्रपंचिदियपञ्जत्त० केव० ? असंखेजा भागा । अबंधा सव्व० के० १ अनंतभागो । सव्यपंचिंदिय-पज्जत्ता० के० ? असंखेज्जदिभागो । एवं सादभंगो इत्थि० पुरिस० इस्सर दि-तिरिक्खायु-देवायु-तिष्णिगदि-चदुजादि-ओरालि० पंचसंठा० ओरालि० अंगो० छरसंघ तिणिआणु० पत्थवि० थावरादि४ थिरादिछक्क उच्चागोदं च । असादभंगो पुंस० अरदिसोग० णिरंयगदि- पंचजा०-वेउब्वि० हुंडसंठा०-वेउच्चि० अंगो० णिरयाणु० पर० उस्सा० अप्पसत्थवि० तस०४ अथिरादिछकं णीचागोदं । णिरयमणुसायुआहारदुग० तित्थयरं बंधा सव्व० केव० ? अनंता भागा। सव्वपंचिदि
प्रकृतियोंके विषय में भी जानना चाहिए। विशेष, तिर्यंचायुका साताके समान भंग है । मनुष्यायुके बंधक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? ? अनंतवें भाग हैं। सर्वसूक्ष्म अपर्याप्तकों के कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। सर्वसूक्ष्म अपर्याप्तकोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। मनुष्य तिर्यंचायुका तिचायुके समान भंग हैं ।' वनस्पति कायिकों तथा निगोदों में- इसी प्रकार जानना चाहिए ।
१५७. पंचेन्द्रियोंका - मनुष्यों के ओघवत् भंग हैं। पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में पंचेन्द्रिय तिर्यंचपर्याप्तकों के समान भंग है । विशेष, ध्रुव प्रकृतियोंमें मनुष्योंके ओघवत् जानना चाहिए । सामान्यसे दो वेदनीयके बंधक सर्वजीवांके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्वपंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्वजी के कितने भाग हैं ? अनन्त भाग हैं । सर्वपंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, तियंचायु, देवायु, तिर्यंच - मनुष्य - देवगति, ४ जाति, औदारिक शरीर, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, ३ आनुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, स्थावरादि ४, स्थिरादि ६ और उच्चगोत्र में साताके समान भंग है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, पंचजाति, वैक्रियिक शरीर, हुंडक संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, नरकानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस ४, अस्थिरादि ६, नीचगोत्र में असाताके समान भंग है । नरक - मनुष्यायु, आहारकद्विक तथा तीर्थंकर के बन्धक सर्व जीवों के कितने भाग हैं । अनन्त बहुभाग हैं (?) ।
१. वणपदिकाइया निगोदजीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अनंता भागा ॥ - खु० बं०, २५, २६ । २. पंचिदिय-तिरिक्खा पंचिदिय-तिरिक्खपज्जत्ता पंचिदिय-तिरिक्ख-जोणिणी पंचिदिय-तिरिक्खअपज्जत्ता मणुस दीए मणुसा, मणुस पज्जत्ता, मणुसिणी मणुस-अपज्जत्ता, सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अनंतभागो ॥ - खु० बं०, ६, ७, पृ. ४६७
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महाबंधे यपज्जत्त० केव० ? असंखेजदिभागो । अबंधगा सव्व० केव० ? अणंतभा० । सव्वपंचिंदियपञ्जत्ता० केत्र ? असंखेजा भागा । साधारणेण सव्व-परियत्तीणं वेदणीयभंगो । णवरि चदुआयु-छस्संघ० सादभंगो । अंगो० विहाय० सरणामाणं सादभंगो । आदावुजो० सादभंगो।
१५८. तस० पंचिंदियभंगो। तसपञ्जत्तेसु-धुविगाणं थीणगिद्धि-दण्डओ दोवेदणी० सत्तणोक० चदुआ० पंचिंदिय-पजतभंगो। सादभंगो तिण्णिगदि-चदुजादिवेगुब्धियस०-पंचसंठा० दोअंगो० छस्संघ० तिण्णि-आणु ० पर०-उस्सा० आदावुजोवदोविहाय० तस४ थिरादिलक० दुस्सर-उच्चागोदाणं च । असादभंगो तिरिक्खगदिएइंदियजा० ओरालि० हुंडसं० तिरिक्वाणु० थावरादि०४ अथिरादिपंच-णीचागोदाणं च । साधारणेण दोवेदणीयभंगो। णवरि अंगो० संघड विहाय० सरणामाणं सादभंगो। आहारदुगं तित्थयरं बंधगा सव्व० केव० ? अणंतभागो। सव्वतस०-पजत्ता० केव० ? असंखेजदिभा० । अबंधगा सव्व० केव० ? अणंतभागो। सब्बतसपञ्जता. केव० ? असंखेजभा० ।
१५६. पंचमण० तिण्णि-वचि०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु०
विशेष-यहाँ तीर्थंकर आदिके बन्धक सर्व जीवोंके 'अनन्तवें भाग' पाठ सम्यक् प्रतीत होता है।
सम्पूर्ण पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । अवन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं। अनन्तवें भाग हैं। सर्वपंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। सामान्यसे सम्पूर्ण परिवर्तमान प्रकृतियोंका वेदनीयके समान भंग है। विशेष-४ आयु, ६ संहननका साताके समान भंग है। अंगोपांग, विहायोगति तथा स्वरनामकी प्रकृतियोंका साताके समान भंग है । आतप, उद्योतका साताके समान भंग है ।
१५८. त्रसोंमें-पंचेन्द्रिय के समान भंग हैं। वस-पर्याप्तकोंमें-ध्रुव प्रकृतिका स्त्यानगृद्धि, दण्डक, दो वेदनीय, ७ नोकषाय, ४ आयुका पंचेन्द्रिय-पर्याप्तकों के समान भंग है। तीन गति, ४ जाति, वैक्रियिक शरीर, ५ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, ३ आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादिषट्क, दुस्वर तथा उच्चगोत्रका सातावेदनीयके समान भंग है । तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, हुंडकसंस्थान, तिर्यंचानुपूर्वी, स्थावरादि ४, अस्थिरा दि ५ तथा नीचगोत्रका असाताके समान भंग जानना चाहिए । सामान्यसे दोनों वेदनीयके समान भंग है। विशेष, अंगोपांग, संहनन, विहायोगति तथा स्वर नामकी प्रकृतियोंका साताके समान भंग है। आहारकद्विक, तीर्थकरके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सम्पूर्ण वस-पर्याप्तकोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सम्पूर्ण त्रस-पर्याप्तकोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं।
१५२. पाँच मनोयोग, ३ वचनयोगमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६
१. जोगाणवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-वेउब्वियकायजोगि-वेउत्रियमिस्सकायजोगि-आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंतो भागो ॥-खु० बं,३५,३६ ।
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पडबंधाहियारो
१७५
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1
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तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ णिमि० पंचत० बंध० सव्व ० के ० १ अनंतभा० । पंचमण० तिण्णिवचि० के० ? असंखेजा भागा। अबंध० सव्व० केव० ? अनंतभागो० । पंचमण० तिष्णिवचि० केव ? असंखेज दि० । दोवेदणीय-सत्तणोक० मसोघं । वरि वेदणीयअबंधगा णत्थि । तिणिआयुबंधगा सव्व० केव० ? अनंतभागो | सव्वपंचमण० तिष्णिवचि० के० । असंखेजदि० । अबंधगा सक० केव ० अनंतभागो । सव्वपंचमण० तिण्णिवचि० केव० ? असंखेजा भागा। तिरिक्खायु सादभंगो | चदुआयु ० साधारणेण सादभंगो । णिरयगदिबंधगा सव्य० haso ? अनंतभागो । सव्वपंचमण० तिष्णिवचि० के० ? असंखेज० । अबंधगा सव्व० केव० ? अनंतभागो । सव्वपंचमण० तिण्णिवचि० के ० ? असंखेजा भागा । तिरिक्खगदि असादभंगो । मणुसदेवगदि सादभंगो । चदुष्णं गदीणं बंध० सव्व० केव० ? अनंतभागो । सव्वपंचमण० तिष्णिवचि० केव० ? असंखेजा भा० । अबंधगा सव्व ० के ० ? अनंतभागो । सव्वपंचमण० तिणिवचि० के० ? असंखेजदिभागो । णिरयगदिभंगो तिणिजादि - आहारदुगं णिरयाणुपु० सुहुमअप० साधारण • तित्थयरं च । तिरिकखगदिभंगो एइंदि० ओरालि० हुंडसंठा० तिरिक्खाणु० थावर-अथिरादिपंचणीचागोदाणं च । देवगदिभंगो पंचिंदिय० वेगुव्विय० पंचसंठाणं ओरालियअंगो० कषाय, भय जुगुप्सा, तैजस- कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। पाँच मनोयोगियों और तीन वचनयोगियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्वजीवों के कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । दो वेदनीय, ७ नोकषाय ( भय-जुगुप्साको छोड़कर ) का मनुष्योंके ओघवत् जानना चाहिए । विशेप, यहाँ वेदनीयके अबन्धक नहीं हैं । नरकं मनुष्य देवायुके बन्धक सर्वजीवों के कितने भाग हैं ? अनन्त भाग हैं। सम्पूर्ण पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं ? सर्व पंच मनोयोगी और तीन वचनयोगियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। तिर्यचायुका सात के समान भंग जानना चाहिए। चार आयुका सामान्यसे साताके समान भंग है । नरकगति के बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व पंच मनोयोगी और तीन वचनयोगियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व पंच मनोयोगी और वीन वचनयोगियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । तिर्यंचगतिका असाता के समान भंग हैं। मनुष्यगति, देवगतिका साताके समान भंग है । चारों गतिके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्वच मनोयोगी और तीन वचनयोगियोंके कितने भाग हैं? असंख्यात बहुभाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व पंचमनोयोगी और ३ वचनयोगियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। तीन जाति, आहारकद्विक, नरकानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारण, तीर्थंकरका नरकगतिके समान भंग हैं। एकेन्द्रिय, औदारिक शरीर, हुण्डकसंस्थान, तिर्यचानुपूर्वी, स्थावर, अस्थिरादि ५ तथा नीचगोत्रका तिर्यंचगति के समान भंग हैं | पंचेन्द्रिय
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१७६
महाबंधे वेगुन्धि० अंगो० छस्संघ. दोआणु० आदाउजो० दोविहाय-तस-थिरादिछक-दुस्सरउच्चागोदं च । बादरपजत्तपत्तेयसरीरं बंधगा सव्व० केव० ? अणंतभागो। सव्व-पंचमणतिण्णिवचि० केव० १ असंखेजा भागा । अबंधगा सव्व० केव० ? अणंतभागो । सबपंचमण-तिण्णिवचि० केव० ? असंखेजदिभागो । साधारणेण पंचजादि-दोसरीर-छसंठा० चदुआणु० तस-थावरादि-णवयुगल-दोगोदाणं च गदीणं भंगो। दोअंगो० छसंघदोविहाय दोसर० साधारणेण सादभंगो।
१६०. वचिजोगि-असञ्चमोसवचिजोगीणं तसपजत्तभंगो। णवरि साधारणेण वि वेदणीयभंगो । अबंधगा णत्थि । कायजोगि ओघं। किंचि विसेसो । वेदणीयाणं बंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो (गा) । अबंधगा णस्थि । ओरालियकायजोगिधुविगाणं बंधगा सव्वजी० के० ? संखेजा भागा । सव्वजी० ओरालि. ? अणंतभागा। अबंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सबजी० ओरालि० केव० ? अणंतभागो । वेदणीयं एइंदियभंगो। इथि० पुरिस० पत्तेगेण सादभंगो। णबुंस० असादभंभो । तिणि वेदाणं बंधगा सव्वजी० केव० ? संखेजदि(जा)भागा । सबजी० ओरालि जाति, वैक्रियिक शरीर, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, वैक्रियिक अंगोपांग, ६ संहनन, २ आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, त्रस, स्थिरादिपटक, दुस्वर तथा उच्चगोत्रका देवगतिके समान भंग है । बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीरके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व पंच मनोयोगी और ३ वचनयोगियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व पंचमनोयोगी, तीन वचनयोगियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। सामान्यसे ५ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, ४ आनुपूर्वी, त्रस-स्थावरादि ६ युगल, और दो गोत्रोंका गति के समान भंग है। दो अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका सामान्यसे साताके समान भंग है।
१६०. वचनयोगियोंमें - असत्यमृपावचनयोगियोंमें - त्रस पर्याप्तकों के समान भंग है । विशेष, साधारणसे भी वेदनीयके समान भंग हैं , अवन्धक नहीं हैं। काययोगियोंमें -
ओघवत् जानना चाहिए। कुछ विशेषता है । वेदनीयोंके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं ; अबन्धक नहीं हैं।
विशेषार्थ-'अनन्त बहुभाग' पाठ उचित प्रतीत होता है क्योंकि कामयोगी सर्वजीवोंके अनन्त बहुभाग कहे गये हैं।
___औदारिक काययोगियोंमें ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सर्व जीवों के कितने भाग हैं) संख्यात बहुभाग हैं। सर्व औदारिक काययोगियोंके कितने भाग हैं। अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व औदारिक काययोगियों के कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। वेदनीयका एकेन्द्रिय के समान भंग जानना चाहिए। प्रत्येकसे स्त्रीवेद, पुरुषवेदका साताके समान भंग है। नपुंसकवेदका असाताके समान भंग है। तीनों वेदोंके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । सर्व
१. कायजोगी सब्वजीवाणं केवडिओभागो ? अणंता भागा ।। -खु० बं०, भागाभा०,३०,३८ । २. ओरालियकायजोगी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? संखेज्जा भागा । ३९,४०।
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पय डिबंधाहियारो
१७७ सरीरं० केव० ? अणंतभागा। अबंधगा सबजी० केव० ? अणंतभागो। सव्व० ओरालि. केव० ? अणंतभागो । एवं सव्वाणं पत्तेगेण तिरिक्खोघं भाणिदण साधारणेण वेदभंगो कादव्यो।
१६१. ओरालियमिस्सं-धुविगाणं बंधगा सव्वजी० केव० ? संखेजदिमागो । सव्वओरालियमिस्स केव० ? अणंतभागा। अबंधगा सबजी. केव० ? अणंतभागो। सव्वओरालिमिस्स केव० ? अणंतभागा ( अणंतभागो) । वेदणीयं पचेगेण साधारणेण वि सुहम-अपज्जत्तभंगो। इत्थि. पुरिस० पत्तेगेण सादभंगो। णवंस० असादभंगो । साधारणेण धुविगाणं भंगो कादव्यो । देवगदि०४ तित्थयरं बंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सव ओरालियमिस्साणं केव० ? अणंतभागो । अबंधा सव्वजी० केव० ? संखेजदिभागो। सव्वओरालियमिस्साणं केव० ? अणंतभागो ( गा ) । एवं पत्तेगेण साधारणेण वि वेदभंगो । दोआयुछस्संघ-दोविहा० पत्तेगेण साधारणेण वि सादभंगो । णवरि मणुसायु सुहुम-अपज्जत्तभंगो। वेउवि० वेउब्बियमि० देवोघं । आहार०
औदारिक काययोगियों के कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । अबन्धक सर्वाजीवोंके कितने भाग हैं । अनन्त- भाग हैं। सन औदारिक काययोगियोंके कितने भाग हैं ? अनन्तों भाग हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण प्रकृतियों का प्रत्येकसे तिय चोंके ओघवत् कहकर वेदके समान सामान्यसे भंग करना चाहिए।
१६१. औदारिकमिश्र काययोगियोंमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातों भाग हैं (?) सर्मा औदारिकमिश्र काययोगियोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक सनजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त- भाग हैं। सर्मा औदारिकमिश्र काययोगियोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग (?) हैं।
विशेष-यहाँ 'अनन्तों भाग' पाठ प्रतीत होता है।
प्रत्येक तथा सामान्यसे वेदनीयका सूक्ष्म-अपर्याप्तकोंके समान भंग है । स्त्रीवेद, पुरुषवेदका प्रत्येकसे साताके समान भंग है। नपुंसकवेदका असाताके समान भंग है। सामान्यसे वेदोंका ध्रव प्रकृतियों के समान भंग है। देवगति ४ तथा तीर्थकरके बन्धक साजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त- भाग हैं। सन औदारिकमिश्र काययोगियोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अबन्धक सौजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातन भाग हैं। सम्पूर्ण . औदारिकमिश्र काययोगियोंके कितने भाग हैं ? अनन्तभाग हैं (?)।
विशेष-यहाँ 'अनन्तबहुभाग' पाठ उपयुक्त प्रतीत होता है । कारण देवगति ४, तीर्थकरके अवन्धक जीव बन्धकोंकी अपेक्षा अधिक होंगे । इनके बन्धक जीव जब कि औदारिकमिश्र काययोगियों के अनन्तठों भाग हैं, तब अबन्धकोंको गणना इनसे अधिक अवश्य होनी चाहिए।
इस प्रकार प्रत्येक तथा सामान्यसे वेदोंके समान भंग जानना चाहिए । दो आयु, ६ संहनन, दो विहायोगतिका प्रत्येक तथा साधारणसे भी सातावेदनीयके समान भंग है। विशेप, मनुष्यायुका सूक्ष्म अपर्याप्तकों के समान भंग है।
१. ओरालियमिस्सकाययोगी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? संखेज दिभागो ।। -४१, ४२ खु० बं० ।
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१७८
महाबंधे आहारमि० सव्वट्ठभंगो । णवरि असंजदपगदीओ णस्थि ।
१६२. कम्मइ०-धुविगाणं बंधगा सबजी. केव० ? असंखेजदिभागो । सव्वकम्मइ० केव० १ अणंतभागा । अबंधगा सबजी० केव० ? अणंतभागी । सव्वकम्मइ० केव० ? अणंतभागो। सादबंधगा सव्वजी० केव० ? असंखेजदिभागो । सव्यकम्मइ० केव० ? संखेजदिभागो । अबंधगा सव्वजी० केव० ? असंखेजदिभागो । सव्वकम्मइ० केव० ? संखेजदिभागो ( संखेन्जा भागा)। असादं पडिलोमेण भाणिदव्वं । दोण्णं वेदणीयाणं बंधगा सव्वजी० केव० ? असंखेजा भागो ( असंखेजदिभागो ) । अबंधगा णत्थि । इत्थि. पुरिस० सादभंगो पत्तेगेण । णबुंस० असादभंगो। साधारणेण धुविगाणं भंगो। .देवगदि०४ तित्थय० बंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सवकम्मइ० केव० ? अणंतभागो। अबंधगा सव्वजी० केव० ? असंखेजदिभागो । सव्वकम्मइ० केव० ? अणंतभागा । साधारणेण धुविगाणं भंगो कादव्यो । ओरालिय
वैक्रियिक-वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें-देवोंके ओघवत् है। आहारक, आहारकमिश्रकाययोगमें-सर्वार्थसिद्धिके समान भंग जानना चाहिए । विशेष, यहाँ असंयत अवस्थावाली प्रकृतियाँ नहीं हैं।
१६२. कार्मण काययोगियों में-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सन जीवों के कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं।' सम्पूर्ण कार्मण काययोगियोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवे भाग हैं। सो कार्माण काययोगियोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । साता वेदनीयके बन्धक सौजीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवे भाग हैं । सर्वा' कार्मण काययोगियोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । सर्वाकार्माण काययोगियोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं (?) ___विशेष-यहाँ अबन्धक सर्व कार्मण काययोगियोंकी संख्या 'संख्यात बहुभाग' उचित प्रतीत होती है।
असाता वेदनीयका सातासे विपरीत क्रम जानना चाहिए। दोनों वेदनीयोंके बन्धक सौजीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । अबन्धक नहीं हैं।
विशेष-यहाँ कार्मण काययोगमें दोनों वेदनीयके बन्धक सम्पूर्ण जीवोंके 'असंख्यातवें 'भाग' उपयुक्त प्रतीत होते हैं । क्योंकि इस योगवालोंकी संख्या सर्वाजीव राशिकी असंख्यातवें भाग कही गयी है।
स्त्रीवेद, पुरुषवेदमें प्रत्येकसे साताके समान भंग है। नपुंसकवेदमें असाताका भंग है। सामान्यसे वेदोंका ध्रुव प्रकृतियोंके समान भंग जानना चाहिए। देवगति ४, तीर्थकरके बन्धक सजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व कार्मण काययोगियोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अबन्धक सर्वजीवों के कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। सर्ग कार्मण काययोगियोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । सामान्यसे ध्रुव प्रकृतियोंके
१. कम्मइयकायजोगी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो। -खु० बं०भा० ४३,४४।
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पयडिबंधाहियारो
१७९ अंगो० छसंघ० दोविहा० दोसर० पचेगेण साधारणेण वि सादभंगो। सेसाणं परियत्तियाणं वेदभंगो।
१६३. इथिवेदेसु-पंचणा० चदुदंसणा० चदुसंज. पंचंत० बधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो । अबंधगा णस्थि । पंचदंस० मिच्छत्त-बारसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० बंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सव्व-इत्थिवेद० केव० ? असंखेजदि (जा) भागा। अबंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो । सव्वइस्थिवेद. केव० ? असंखेजदिभागो। दोवेदणी० तिण्णिवेद-जस-अजस० दोगोदाणं पत्तेगेण साधारणेण वि पंचिंदिय-तिरिक्खिणीभंगो । आयुगाणं जोणिणीभंगो। हस्सरदितिणिगदि-चदुजादि-वेगुम्विय० पंचसंठा० दोअंगो० छसंघ० तिण्णि-आणु० आदाउजो० दोविहा. तस-सुहुम-अपजत्त-साधारण-थिरादि-पंच-दुस्सर-उच्चागोदं च पत्तेगेण सादभंगो । अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-एइंदिय-ओरालिय-हुंडसंठा०-तिरिक्खाणु० परघादुस्सा० थावर वादर-पज्जत्त-पत्तेय-सरीर-अथिरादि०४ णीचागोदं च असादभंगो । एवं पत्तेगेण साधारणेण पंचिंदियभंगो । आहारदुगं तित्थयरं च पंचिंदियभंगो । तिण्णिअंगो० छसंघ० दोविहा० सुस्सर-दुस्सर-साधारणेण सादभंगो । एवं पुरिसवेदस्स वि। भंग है । औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वरके बन्धकोंका प्रत्येक तथा सामान्यसे साता वेदनीयके समान भंग जानना चाहिए । शेष परिवर्तमान प्रकृतियोंका वेदके समान भंग है।
१६३. स्त्रीवेद में-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, ५ अंतरायके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं'; अबन्धक नहीं हैं। ५ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस-कार्मण. शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं? अनन्तवें भाग हैं ? सर्वस्वीवेदियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्वस्त्रीवेदियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । दो वेदनीय, ३ वेद, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति तथा २ गोत्रके प्रत्येक तथा सामान्यसे पंचेन्द्रिय तियचिनीके समान भंग है। आयुओंमें योनिमतीके समान भंग है । हास्य, रति, तीन गति, चार जाति, वैक्रियिक शरीर, ५ संस्थान, दो अंगोपांग, ६ संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारण, स्थिरादि पाँच, दुस्वर तथा उच्चगोत्रका प्रत्येकसे साताके समान भंग है। अरंति, शोक, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, हुंडक संस्थान, तिय चानुपूर्वी, परघात उच्छ्वास, स्थावर, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक, शरीर, अस्थिरादि ४ तथा नीच गोत्रके बन्धकके असाता वेदनीयके समान भंग है। प्रत्येक तथा सामान्यसे पंचेन्द्रियके. समान भंग है। आहारकद्विक तथा तीर्थकरका पंचेन्द्रियके समान भंग है। तीन अंगोपांग, ६ संहनन, दो विहायोगति, सुस्वर, दुस्वरका सामान्यसे साताके समान भंग है।
पुरुषवेदमें-स्त्रीवेदके समान भंग है ।
१. वेदाणुवादेण इत्थिवेदा पुरिसवेदा अवगदवेदा सव्वजीवाणं केवडिओभागो ? अणंतो भागो-।-खु० बं०भा० सू०४५,४६ ।
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१८०
महाबंधे
१६४. णqसगवेदस्स-पंचणा० चदुदंसणा० चदुसंज. पंचंत० बंधगा सव्व० केव० ? अणंतभागा । अबंधगा णस्थि । पंचदंस० मिच्छत्त० बारसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० बंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागा । सव्वणqसगवेदाणं केव० ? अणंतभागा । अबंधगा सबजी केव० ? अणंतभागो। सव्वणqसग० केव० ? अणंतभागो। दो-वेयणी० तिण्णिवेद० जस० अजस० दोगोदं च पत्त गेण साधारणेण च तिरिक्खोघं । हस्सरदि-अरदिसोगाणं पतंगेण तिरिक्खोघं । साधारणेण थीणगिद्धिभंगो। आयुचत्तारि वि तिरिक्खोघं । एवं णाम-पगडीणं परियत्तमाणीणं पत्तेगेण तिरिक्खोघं । साधारणेण थीणगिद्धिभंगो। णवरि अंगोव० संघड० विहाय० सरणामाणं सादभंगो।।
१६५. अवगदवेदेसु-पंचणा० चदुदंसणा० सादावे० चदुसंज. जसगि० उच्चागो० पंचंत० बंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सव्वअवगदवे. केव० ? अणंतभागो। अबंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सव्व-अवगदवे. केव० ? अणंतभागा।
१६६. कोधे-पंचणा० चदुदंसणा० चदुसंज० पंचंत० बंधगा सव्वजी० केव० ? चदुभागो देसूणो । अबंधगा णत्थि । पंचदंस० मिच्छ० वारसक० भय दुगुं० तेजाक.
१६४. नपुंसकवेदमें-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, ५ अन्तरायके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । अबन्धक नहीं हैं । ५ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस-कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । सम्पूर्ण नपुंसकवेदियोंके कितने भाग हैं । अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व नपुंसकवेदियोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। दो वेदनीय, तीन वेद, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, २ गोत्रका प्रत्येक तथा सामान्यसे तियं चोंके ओघवत् जानना चाहिए । हास्यरति, अरति-शोकमें प्रत्येकसे तिर्यंचोंके ओघवत् भंग है । सामान्यसे स्त्यानगृद्धिके समान भंग है । चार आयुका तिर्यंचोंके ओघ-समान भंग है । परिवर्तमान नामकर्मकी प्रकृतियोंका प्रत्येकसे तिर्यंचोंके ओघवत् भंग है। सामान्यसे स्त्यानगृद्धिके समान भंग है। विशेष, अंगोपांग, संहनन, विहायोगति तथा स्वरका सातावेदनीयके समान भंग है।
१६५. अपगतवेदमें-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, सातावेदनीय, ४ संज्वलन, यश कीर्ति, उचगोत्र, ५ अन्तरायके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व अपगतवेदियों के कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं ।सर्व अपगतवेदियोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं।
१६६. क्रोधकषायमें-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, ५ अन्तराय के बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? कुछ कम चार भाग हैं। अबन्धक नहीं हैं। ५ दर्शनावरण,
१. णसयवेदा सम्बजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंता भागा । ४७,४८ खु० बं० । २. कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई सव्व जीवाणं केवडिओ भागो? चदुब्भागो देसूणा । -सू० ४९.५० ।
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पयडिबंधाहियारो
१८१ वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० बंधगा सव्वजी० केव० १ चदुभागो देसूणो । सव्यकोघेसु केव० ? अणंतभागा। अबंधगा सबजी० केव० ? अणंतभागो। सव्वकोधेसु केव० ? अणंतभागो। सादबंधगा सव्व जी० केव० ? संखेजदिभागो। सत्रकोधेसु केव० ? संखेचदिभागो । अबंधगा सव्वजी० केव० ? संखेजदिभागो। सव्वकोधेसु केव० ? संखेजा भागा । असादबंधगा सव्वजी० केव० ? संखेजदिभागो। सव्वकोधेसु केव० ? संखेजा भागा । अबंधगा सयजी० केव० ? संखेजदिभागो। सव्यकोधेसु केव० ? संखेञ्जदिभागो । दोण्णं वेदणीयाणं बंधगा सव्वजी० केव० ? चदुभागो देसूणो । अबंधगा णत्थि । एवं जस० अजस० दोगोदं च । इथि० पुरिस० पत्त गेण सादभंगो । णवंस. असादभंगो । साधारणेण तिणिवेदाणं बंधगा सव्वजी० केव० ? चदुभागा देसूणा । सव्वकोधेसु केव० ? अणंतभागा। अबंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सव्वकोधेसु केव०? अणंतभागो । एवं हस्सरदि-दोयुगलं पंचजादि-छस्संठा-तसथावरादि-अट्ठयुगल०। तिण्णिआयु-बंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो । सव्वकोधेसु केव० ? अणंतभागो। अबंधगा सव्वजी० केव० ? चदुभागो देसूणो । सव्वकोधेसु केव० ? अणंतभागो (गा)। एवं दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०-दोआणु० । तित्थय-तिरिक्खाउ० सादभंगो । चदुण्णं
मिथ्यात्व, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस कार्मण , वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? कुछ कम चार भाग हैं । सर्वक्रोधियोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं ? सर्वक्रोधियों के कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सातावेदनीयक बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं? संख्यातवें भाग हैं। सर्व क्रोधियोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। सर्वक्रोधियोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। असातावेदनीयके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग है। सर्व क्रोधियों के कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्वजीवों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । सर्वक्रोधियों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। दोनों वेदनीयोंके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? कुछ कम चार भाग हैं ; अबन्धक नहीं हैं। यशःकीर्ति, अयशकीर्ति, दो गोत्रोंका इसी प्रकार भंग है । स्त्रीवेद, पुरुषवेदके प्रत्येककी अपेक्षा साताके समान भंग जानना चाहिए । नपुंसकवेदका असाताके समान भंग है। सामान्यसे तीन वेदोंके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? कुछ कम चार भाग हैं। सर्वक्रोधियों के कितने भाग हैं। ? अनन्त बहुभाग हैं । अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्वक्रोधियोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग है। हास्य-रति, अरति-शोकमें ५ जाति, ६ संस्थान, बस-स्थावरादि आठ युगलमें वेदोंके समान भंग है। तीन आयुके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तव भाग हैं । सर्वक्रोधियों के कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? कुछ कम चार भाग हैं । सम्पूर्ण क्रोधियोंके कितने भाग हैं ? अनन्त भाग हैं। विशेषयहाँ अनन्त बहुभाग पाठ उचित प्रतीत होता है। दो गति, २ शरीर, दो अंगोपांग, दो आनुपूर्वी में इसी प्रकार जानना चाहिए। तीर्थकर तथा तिथंचायुका साताके समान भंग हैं। चारों
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महाबंधे
१८२ आयुगाणं तिरिक्खायुभंगो। तिरिक्खगदि-तिरिक्खगदिपाओ० असादभंगो । मणुसगदि-ओरालि० अंगो छससंघड० मणुसाणु० परघादुस्सा० आदाउज्जो० दोविहा० दोसर० पत्तेगेण वि साधारणेण वि सादभंगो। चद्गदि-चदुआणु० साधारणेण वेदभंगो। ओरालिय० बंधगा सव्वजी० केव० ? चदुभागो देसूणो। सव्वकोधेसु केव० ? अणंता भागा। अबंधगा सव्वजी० केव०१ अणंतभागो। सव्वकोधेसु केव० ? अणंतभागो। तिण्णिसरीराणं साधारणेण वेदभंगो । एवं माणमायावि । लोमेसुपंचणा० चदुदंसणा० पंचंतरा० बंधगा० सबजी० केव० ? चदुभागो सादिरेयो। अबंधगा णस्थि । पंचदंस० मिच्छ. सोलसक० भय दु. तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिभि० बंधगा सबजी० केव० ? चदुभागो सादिरेयो। सव्वलोभाणं केव० ? अणंता भागा। अबंधगा सबजी. केव० ? अणंतभागो । सव्वलोभाणं केव० १ अणंतभागो। सादासादं पत्तेगेण कोधभंगो। साधारणेण दोण्णं वेदणीयाणं बंधगा सव्वजी० केव० ? चदुभागो सादिरेयो । अबंधा (धगा) णस्थि । अथवा सादबंधगा सबजी० केव० ? संखेजदिभागो । सव्वलोभे केवडिओ भागो ? संखेजदिभागो। अबंधगा सव्वजी० केव० ? चदुभागो 'सादिरेयो। सव्वलोभे केव० ? संखेजदिभागो आयुओंका तिर्यंचायुके समान भंग है । तियचगति, तिथंचानुपूर्वीका असाताके समान भंग है । मनुष्यगति, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, दो स्वरका प्रत्येक तथा सामान्यसे साताके समान भंग है। चार गति, चार आनुपूर्वीका सामान्यसे वेदके समान भंग है । औदारिक शरीरके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? कुछ कम चार भाग हैं। सम्पूर्ण क्रोधियोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सम्पूर्ण क्रोधियोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। तीनों शरीरका साधारणसे वेद के समान भंग है ? मान तथा मायाकषायमें - क्रोधके समान भंग है। लोभकपायमें -५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तरायके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? साधिक चार' भाग हैं; अबन्धक नहीं हैं। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय-जुगुप्सा, तैजस-कार्मण , वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? साधिक चार भाग हैं । सम्पूर्ण लोभियोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्वलोभियोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। साता-असाताका प्रत्येकसे क्रोधके समान भंग है। सामान्यसे दोनों वेदनीयोंके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? साधिक चार भाग हैं ; अवन्धक नहीं हैं। अथवा साताके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। सर्वलोभियोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अवन्धक सर्वजीवोंके. कितने भाग हैं ? साधिक चार भाग हैं। सर्वलोभियोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं ( ? )।
विशेष - यहाँ अबन्धक सर्वलोभियोंकी संख्या में 'संख्यात बहुभाग' उपयुक्त प्रतीत होती है।
१. लोभकसाई सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? चदुःभागो सादिरेगो । -खु० बं०,५१,५२ ।
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पयडिबंधाहियारो
१८३ (जाभागा ) । असादबंधगा सव्वजी. केव० ? संखेजदिभागो। सबलोभे केव. ? संखेजा भागा। अबंधगा सव्वजी० केव० ? संखेजदिभागो। सव्वलोमे केव० ? संखेजदिभागो । एवं जस० अजस० दोगोदं च। तिण्णिवे० [हस्सादि] दोयुगल. चदुआयु० चदुगदि-पंचजादि-सयसरीर-छस्संठा तिण्णिअंगो० छस्संघ० चदुआणु० परघादुस्सा० आदाउजो० दोविहाय तसथावरादिणवयुगलाणं कोधभंगो । णवरि यं हि चदुभागे देसूणे तं हि चदुभागो सादिरेयो कादव्वो। एवं णाणत्तं कोधाद्० । अकसाईकेवलि(ल)णा० केवलदंसणा० सादावे. अवगदवेदभंगो।
१६७. मदि० सुद०-धुविगाणं मिच्छत्तं वज एइंदियभंगो । मिच्छत्त' सेसाणं च तिरिक्खोघं।
१६८. विभंगे-धुविगाणं बंधगा सबजी० केव.? अणंतभागो। अबंधगा णत्थि । मिच्छत्त-परघादुस्सास-बादरपज्जत्त-पत्तयाणं बंधगा सव्वजी० केव० १ अणंतभागो । सबविभंगा केव०? असंखेज्जा भागा। अबंधगा सव्वजी० केव०? अणंतभागो। सव्यविभंगे केव० ? असंखेजदिभागो। दोवेदणीय-तिण्णिवेदणीय (वेद) सव्ययुगलाणं
असाताके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। सर्वलोभियोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । सर्वलोभियोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। यशःकीर्ति, अयश-कीर्ति तथा दो गोत्रोंमें इसी प्रकार भंग हैं। तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, चार आयु, चार गति, ५ जाति, सर्व शरीर, ६ संस्थान, तीन अंगोपांग, ६ संहनन, ४ आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, स-स्थावरादि । युगलका क्रोधके समान भंग जानना चाहिए । विशेष, जहाँ पर देशोन चार भाग हो, वहाँ इसमें साधिक चार भाग कर लेना चाहिए । यही क्रोधसे यहाँ विशेषता है। अकषायो, केवलज्ञानी, केवलदर्शनीमें साता वेदनीयका अपगतवेदके समान भंग है ।
१६७. मत्यज्ञान, श्रुताज्ञानमें-मिथ्यात्वको छोड़कर शेषध्रुव प्रकृतियोंका एकेन्द्रियके समान भंग हैं । मिथ्यात्व तथा शेष प्रकृतियोंका तियचोंके ओघवत् भंग हैं।
१६८. विभंगज्ञानमें ध्रुव प्रकृतियों के बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं ; अबन्धक नहीं हैं। मिथ्यात्व, परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्वविभंग ज्ञानियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व विभंगज्ञानियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। दो वेदनीय, तीन वेदनीय ( वेद) तथा सम्पूर्ण युगल प्रकृतियों के प्रत्येक तथा सामान्यसे देवगतिके ओघवत् जानना चाहिए ।
१. अकसाई सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंतो भागो ॥ ५३,४४ - खु० बं० । २. णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी-सुदअण्णाणी सव्वजीवाणं केवडिओभागो? अणंता भागा ।। ५५ बं०। ३. विभंगणाणो-आभिणिबोहियणाणी-सुदणाणी-ओहिणाणी-मणपज्जवणाणी केवलणाणी मधजीवाणं केवडिओ भागो अणंतभागो ॥ सू०५७,५८ खु० बं० ।
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१८४
महाबंधे पत्तेगेण साधारणेण वि देवोघं । तिण्णिायु-दोगदि-तिण्णिजादि-वेगुब्धियअंगोवंगदोआणुपुवि० सुहुम-अपजत्त-साधारण. मणजोगीणं णिरयगदिभंगो। तिरिक्खगदिएहंदिय-हुंडसंठाण-तिरिक्खाणुपुब्धि थावर-अथिरादिपंच-णीचागोदाणं च असादभंगो । पंचिंदियजादि-ओरालिय० अंगो० छस्संघ० मणुसगदि० मणुसगदि पाओग्गाणुपु० आदाउजो० दोविहाय दोसर० पत्तगेण साधारणेण वि सादभंगो । ओरालियसरीरस्स बादरभंगो । केण कारणेण देवगदि-बंधगाणं असंखेजदिभागो ? असंखेजवासायुगेर विभंगणाणिवा(रा)सिस्स असंखेजदिभागो विभंगे वट्टदि । तदो असंखेजवासायुगादो देवा असंखेजगुणा त्ति ।
१६६. आभि० सुद० ओधिणा०-पंचणा० छदंस० बारसक० पुरिस० भयदु० पंचिंदि० तेजाक० समचदु० बजरिस० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभगसुस्सर-आदेज-णिमिण-उच्चागोद पंचंतराइगाणं बंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सव्वबंधगा आभि० सुद०-ओधि० केव० ? असंखेजा भागा। अबंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सव्वआभिणि-सुद०-ओधिणा० केव० ? असंखेजदिभागो। दोवेदणीयं हस्सरदि-दोयुगलं थिरादि तिण्णियुगलं मणजोगिभंगो। दोआयु गदिचदुकं?
विशेष - यहाँ तीन वेदनीयके स्थानमें 'तीन वेद' पाठ संगत प्रतीत होता है।
। ३ आयु, २ गति, तीन जाति, वैक्रियिक अंगोपांग, दो आनुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, • साधारणका मनोयोगियोंके नरकगतिके समान भंग है। तियंचगति, एकेन्द्रिय जाति, हुंडकसंस्थान, तिर्यंचानुपूर्वी, स्थावर, अस्थिरादि पंचक तथा नीच गोत्रका असाताके समान भंग है। पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, दो विहायोगति तथा दो स्वरका प्रत्येक तथा सामान्यसे भी साताके समान भंग है। औदारिक शरीरका बादरभंग है।
शंका - औदारिक शरीरका बादर भंग किस कारणसे देवगतिके बन्धकोंके असंख्यातवें भाग है ?
समाधान - असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें विभंगज्ञानियोंकी राशिका असंख्यातवाँ भाग विभंग ज्ञानमें रहता है, इस कारण असंख्यात वर्षको आयुवालोंसे देव असंख्यातगुणे हैं।
१६९ आभिनिबोधिक - श्रुत - अवधिज्ञानमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस-कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वनवृषभसंहनन, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सम्पूर्ण आभिनिबोधिक-श्रुत-अवधिज्ञानियों के कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सम्पूर्ण आभिनिबोधिक-श्रुतअवधिज्ञानियोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। दो वेदनीय हास्य-रति, अरति-शोक, स्थिरादि तीन युगलोंका मनोयोगियोंके समान भंग है। दो आयु, ४ गति,
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पडबंधाहियारो
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आहारदुगं तित्थयरं विभंगणाणं च देवगदिभंगो । मणुसगदि-पंचगं धुविगाणं भंगों । पत्तेगेण साधारणेण त्रिगदिधुविगाणं भंगो । एवं दोसरीर दोअंगो० दोआणु० । एवं ओधिदं० । मणपत्र ०- मणुसिभंगो। णवरि वेदणीयस्स अबंधगा णत्थि । एवं संजदेवि । वेदणीयस्स अबंधगा अत्थि । सामाइ० छेदो०- पंचणा० चदुदंस० लोभसंजलण - उच्चा गोद - पंचंतराइगाणं केवडिओ भागो ? अनंतभागों । अबंधगा णत्थि । से मणपजभंगो। परिहार० - आहारका जोगिभंगो । सुहुमसंप० - पंचणा० चदुदं० साद० जस० उच्चागो० पंचत० बंधगा सव्वजी० के० ? अनंतभागो । अबंधगा णत्थि । यथाक्खाद ० - सादेबंधगा सव्वजी० के० ? अनंतभागो । सव्वयथाक्खाद० केव ? संखेज्जा भागा । अबंधगा सव्वजी० के० ? अनंतभागो । सव्वयथाक्खाद० केव० ?
आहारकद्विक, तीर्थंकरके विभंगज्ञानियों में देवगति के समान भंग हैं। मनुष्यगति ५ के ध्रुव प्रकृतियोंके समान भंग है । प्रत्येक तथा साधारण से गतिका धुत्र प्रकृतियोंके समान भंग है ! दो शरीर, दो अंगोपांग, दो आनुपूर्वीका भी इसी प्रकार जानना चाहिए । अवधिदर्शन में उपरोक्त ज्ञानत्रयके समान है ।
मन:पर्ययज्ञान में - मनुष्यनियोंके समान भंग है । विशेष, यहाँ वेदनीयके अबन्धक नहीं हैं। संयतोंमें इसी प्रकार है । विशेष, यहाँ भी वेदनीयके अबन्धक भी हैं ।
सामायिक-छेदोपस्थापना संयम में - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, लोभ-संज्वलन, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अन्धक नहीं हैं। शेष प्रकृतियोंका मन:पर्ययज्ञानके समान भंग हैं ।
परिहारविशुद्धिसंयम में - आहारककाययोगीके समान भंग हैं ।
सूक्ष्म-साम्पराय-संयममें - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अबन्धक नहीं हैं।
यथाख्यात संयममें - साता वेदनीयके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व यथाख्यात् संयमियोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व यथाख्यात संयमियोंके कितने भाग हैं? संख्यात बहुभाग हैं ( ? )
विशेष - यहाँ सर्व यथाख्यात संयमियों में अबन्धकों की गणना संख्यातवें भाग सम्यकू प्रतीत होती है ।
१. दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी - ओहिदंसणी केवलदंसणी सम्वजीवार्ण केवडिओ भागो ? अनंतभागो । अचक्खुदंसणी सम्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अनंता भागा ।। - ६३-६६ खु०ब०सू० । २. संजमाणुवादेण संजदा सामाइय-छेदोवट्टावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा सुहुमसांपरायइयसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अनंतभागो । असंजदा सव्वarvihar भागो ? अनंता भागा ।। - ५९-६२ ० बं०, सू५, पृ. ५१२-१३ ।
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२४
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१८६
महाबंध
संखेज्जा भागा (संखेजदिभागो) । संजदासंजदस्स अणुत्तरभंगो। णवरि देवायुतित्थयरं च ओधिमंगो | असंजदा तिरिक्खोघं । तित्थयरं मूलोघं । चक्खुदंस० तसपजत्तभंगो । अचक्खुर्द • काजोगिभंगो ।
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१७०. किण्णाए - पंचणा० छदंसणा० बारसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिः पंचतराइगाणं बंधगा सव्वजी० के० १ तिभागो सादिरेयो । अबंधगा णत्थि | थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त० अणंताणु०४ बंधगा सव्वजी० केव० १ तिभागा सादिरेया । सव्व किण्णाए के ० १ अनंता भागा । अबंधगा सव्वजी० के० ? अतभागो । सव्वकिरणाए केव० ? अनंतभागो । एवं लोभभंगो पत्तेगेण साधारणेण वि । वरि दुषगदीणं बंधगा सव्वजी० के० ? तिभागो सादिरेयो । अबंधा (धगा) णत्थि । एवं परियतमाणीणं सव्वाणं । आयुगाणं अंगोवंग-संघडण - विहायगदिसरवजाणं पि । एदासिं पत्तेगेण साधारणेण वि सांदभंगो । एवं गीलकाऊणं । णवरि तिभागो देसूणो | तेऊए - पंचणा० छदंसणा ० चदुसंज० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ बादर (?) णिमि० पंचत• बंधगा सव्वजी० के० अभागो । अबंधगा
संयम संयम में- अनुत्तरवासी देवोंके समान भंग जानना चाहिए। विशेष, देवायु और तीर्थंकर प्रकृतिका अवधिज्ञानके समान भंग है। असंयतों में तिर्यंचोंके ओघवत् जानना चाहिए। तीर्थंकरका मूलके ओघवत् भंग जानना चाहिए ।
चक्षुदर्शनमें - त्रस - पर्याप्तकका भंग है। अचभ्रुदर्शन में काययोगियोंके समान भंग है ।
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१७०. कृष्णलेश्या में' - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसकार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? साधिक तीन भाग प्रमाण हैं; अबन्धक नहीं हैं। स्त्यानगृद्धि त्रिक, मिध्यात्व अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं? साधिक त्रिभाग हैं । सर्व कृष्णलेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व कृष्णलेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । साता - असाताका प्रत्येक तथा सामान्यसे लोभकषाय के समान भंग जानना चाहिए। विशेष, साता - असातारूप दो प्रकृतियों के बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? साधिक त्रिभाग हैं; अबन्धक नहीं हैं । इस प्रकार परिवर्तमान सर्व प्रकृतियोंमें जानना चाहिए, किन्तु आयु, अंगोपांग, संहनन तथा विहायोगति तथा स्वरको छोड़ देना चाहिए। इनका प्रत्येक तथा सामान्यसे सातावेदनीयके समान भंग है । नील तथा कापोतलेश्यामें ऐसा ही जानना चाहिए । विशेष, यहाँ देशोन त्रिभाग जानना चाहिए ।
२३६. तेजोलेश्या में – ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजस-कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्त ( प्रत्येक ) निर्माण, ५ अन्तरायके
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१. लेस्साणुवादेण किहलेस्सिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? तिभागो सादिरेगो । २. नीललेस्सिया काउलेसिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? तिभागो देसूणो ।। ३. तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सुक्कले स्सिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अनंतभागो । खु० बं० सू० ६७-१२ ।
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पबंधायारो
१८७
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fe | दो आहारदुगं० तित्थयरं च ओधिभंगो । बारसकसायाणं थीण गिद्धिभंगो । देवदिचदुक्कं सादभंगो। सेसाणं देवोघं । पम्माए- पंचणाणावरणीय छदंसणा० चदुसंजलण० भयदु० पंचिंदि० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमि० पंचत० बंधगा सव्वजी० के० १ अनंतभागो । अबंधगा णत्थि । थीणगिद्वितयं मिच्छत्तं बारसक० सव्वजी० के० ? अनंतभागो । सव्वम्माए केव० ? असंखेज्जा भागा । अबंधगा सव्वजी० के० ? अनंतभागो । सव्वपम्माए केव० ? असंखेजदिभागो । दोवेदणी • हस्तादिदो युगलाणं थिरादितिष्णियुगलाणं तेउभंगो । इत्थ० णवुंस० बंधगा सव्वजी० के० ? अनंतभागो । सव्वम्माए केव० ? असंखेजदिभागो । अबंधगा सव्वजी० के० ? अनंतभागो । सव्वषम्माए केव० ? असंखेजा भागा। पुरिस० बंधगा सव्वजी० के० ? अनंतभागो । सव्वपम्माए केव० ? असंखेजा भागा | अबंधगा सव्वजी० के० ? अनंतभागो । सव्वपम्माए केव० ? असंखेज्जदिभागो । तिण्णिवेदाणं सव्व० केव० ? अनंतभागो । अबंधगा णत्थि । एवं णवुंसगभंगो तिष्णि आयु- दोगदिओरालि० - पंचसंठा०-ओरालि० अंगो० छस्संघ० - दोआणु० उज्जोव० अप्पसत्थ० दूर्भागदुस्सर-अणादे० णीचागो० । पुरिस० वेदभंगो देवगदि० वेगुव्वियस० समचदु०
बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं, अवन्धक नहीं हैं। दो आयु, आहाकद्विक, तीर्थंकरका अवधिज्ञानके समान भंग है। बारह कपायोंका स्त्यानगृद्धि के समान भंग जानना चाहिए | देवगतिचतुष्कका साता वेदनीयके समान भंग है । शेष प्रकृतियोंका देवों के ओघवत् है ।
पद्मलेश्या में - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय-जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस-कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४, निर्माण, ५ अन्तराय के बन्धक सर्वजीवों के कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं, अबन्धक नहीं हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व १२ कषाय के बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्वपद्मलेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अबन्धक सर्वपद्मलेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। दो वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिरादि तीन युगलों का तेजोलेश्या के समान भंग है । स्त्रीवेद, नपुंसक वेदके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्वपद्मलेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त भाग हैं । अबन्धक सर्वपद्मलेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । पुरुषवेदके बन्धक सर्वजीवों के कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्वपद्मलेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं ! अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक सर्वपद्मलेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । तीन वेदोंके बन्धक सर्वजीवोंकितने भाग हैं ? अनन्त भाग हैं; अवन्धक नहीं हैं। तीन आयु, २ गति, औदारिक शरीर, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, २ आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीच गोत्रका नपुंसक वेदके समान भंग है। देवगति, वैक्रियिक शरीर,
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१८८
महाबंधे वेउवि० अंगो० देवाणुपु० पसत्थ० सुभग-सुस्सर-आदेज-उच्चागोदं च । आहारदुर्ग तित्थयरं देवायुभंगो । साधारणेण वि तिण्णिवेदाणं भंगो तिणिगदि-दोसरीर-छस्संठा• दोअंगो० तिण्णिआणु ० दोविहाय० थिरादिछयुगलं दोगोदं च । तिण्णिआयु-छस्संघ साधारणेण वि इत्थिभंगो । सुक्काए-पंचणा० छदसणा० बारसक० भयदु० पंचिंदि० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमि० पंचंत. बंधगा सयजी० केव० ? अणंतभागो । सव्वसुक्काए केव० ? असंखेजा भागा। अबंधगा सबजी० केव० ? अणंतभागो। सव्वसुकाए केव० ? असंखेजदिभागो। थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त अणंताणुबंधि०४ तित्थयरं बंधगा केव० ? अणंताभागो ( अणंतभागो) । सव्वसुक्काए केव० ? संखेजदिभागा (गो)। अबंधगा सबजी० केव० ? अणंतभागो। सव्वसुक्काए केव० ? संखेजा भागा । दोवेदणी० हस्सादिदोयुगलं-थिरादितिण्णियुगलं च मणजोगिभंगो। इत्थि० णस० पंचसंठा० पंचसंघ० अप्पसत्थ० दृभग-दुस्सर अणादेज णीचागोदं च थीणगिद्धिभंगो। पुरिस० पसत्थवि० सुभग सुस्सर-आदेज-उच्चागोदं असादभंगो। दोआयुदोगदि-आहारदु० ओधिभंगो । मणुसगदि०४ बंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सव्वसुक्काए केव० ? असंखेजा भागा। अबंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सव्वसुक्काए केव० ? असंखेजदिभागो। एवं पत्तेगेण साधारणेण वि तिण्णिवेद-दोगदिसमचतुरस्रसंस्थान, वैिियक अंगोपांग, देवानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्रका पुरुष वेदके समान भंग है। आहारकद्विक, तीर्थकरका देवायुके समान भंग है । तीन गति, दो शरीर, ६ संस्थान, दो अंगोपांग, तीन आनुपूर्वी, २ विहायोगति, स्थिरादि छह युगल, दो गोत्रका सामान्यसे वेदत्रयके समान भंग जानना चाहिए। तीन आयु, छह संहननका सामान्यसे स्त्रीवेदके समान भंग है।
शुक्ल लेश्यामें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कपाय, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय, तैजस-कार्मणा, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४, निर्माण, ५ अन्तरायोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व शुक्ललेझ्यावालोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व शुक्ल लेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ तथा तीर्थकरके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व शुक्ल लेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व शुक्ल लेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। दो वेदनीय, हास्य-रति, अरति-शोक, स्थिरादि तीन युगलका मनोयोगियों के समान भंग जानना चाहिए। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, ५ संस्थान, ५ संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीच गोत्रका स्त्यानगृद्धिके समान भंग है । पुरुष वेद, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय तथा उच्चगोत्रका असाताके समान भंग है । दो आयु, दो गति, आहारकद्विकका अवधिज्ञानके समान भंग है । मनुष्य नति ४ के बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व शुक्ल लेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व शुक्ल लेश्यावालोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं।
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पयडिबंधाहियारो
१८६ तिण्णिसरीरछस्संठाणदोअंगो छस्संघ दोआणुपु० दोविहाय० सुभगादि-तिण्णि-युगलदोगोदं आभिणि भंगो। अट्ठपदं तेउ-लेस्सिग-तिरिक्ख-मणुसा० णqसगवेदंण बंधंति। पम्माए० सुक्कले० इत्थि-णवुसकवेदं ण बंधंति । भवसिद्धिया ओघभंगो।
१७१. अब्भवसि०-तिण्णिआयु० वेउब्बियछक्क० बंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो । सव्व-अभवसिद्धिया केव० ? अणंतभागो। अबंधगा सव्वजी०. केव० १ अणंतभागो । सबअब्भवसिद्धिया केव० १ अणंतभागो (गा)। तिरिक्खायु सादभंगो। आयुचत्तारि तिरिक्खायुभंगो । धुवबंधगा सबजी० केव० ? अणंतभागो। अबंधगा णस्थि । सेसाणं पगदीणं पत्तेगेण साधारणेम वि पंचिंदियतिरिक्खभंगो ।
१७२. सम्मादिहि-खइगसम्मादिट्ठीसु-पंचणा० छदसणा० बारसक० पुरिस० भयदु० पंचिंदि० तेजाक० समचदु० बजरिसह० वण्ण०४ अगु०४ पसस्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदेज-णिमिण-तित्थयर-उच्चागोद-पंचंतराइगाणं बंधगा सव्वजी० केव०?
तीन वेद, २ गति, ३ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, २ आनुपूर्वी, दो विहायोगति, सुभगादि तीन युगल, दो गोत्रका सामान्य तथा पृथकसे आभिनिबोधिक ज्ञानके समान भंग है। अथे पद यह है कि तेजोलेश्यावाले तिथंच तथा मनुष्य नपुंसकवेदका बन्ध नहीं करते है। पद्म तथा शुक्ल लेश्यामें स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेदका बन्ध नहीं करते हैं।'
भव्यसिद्धिकोंमें ओघवत् भंग है।
१७१. अभव्यसिद्धिकोंमें-३ आयु, वैक्रियिकषटकके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व अभव्यसिद्धिकोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व अभव्यसिद्धिकोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं (?)।
विशेष-यहाँ अबन्धक अभव्योंके 'अनन्त बहुभाग' होना उचित प्रतीत होता है।
तिर्यंचायुका साता वेदनीयके समान भंग है। ४ आयुका तियचायुके समान भंग जानना चाहिए । ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं; अबन्धक नहीं हैं। शेष प्रकृतियोंका प्रत्येक तथा सामान्यसे पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान भंग हैं।
विशेषार्थ-भूतबलि स्वामीने भव्यजीवोंको सम्पूर्ण जीवराशिके अनन्त बहुभाग प्रमाण बताया है तथा अभव्य जीवोंके सम्पूर्ण जीवराशिके अनन्तवें भाग कहा है। इससे अभव्य जीवोंकी न्यूनता स्पष्ट प्रमाणित होती है।
१७२. सम्यग्दृष्टि-क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, पुरुषवेद, भय-जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस- कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान, वनवृषभसंहनन, वर्ण ४, अगुल्लघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर,
१. भवियाणुवादेण भवसिद्धिया सन्चजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंताभागा। २. अभवसिद्धिया सबजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंतभागो॥ -खु० बं०,७३-७६ ।
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महाबंध
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अनंतभागो । सव्वसम्पादिट्ठि - खड्ग सम्मादिट्ठि केव० ? अनंतभागो । अबंधगा सव्वजी ० केव० ? अनंतभागो । सव्वसम्मादिट्टि - खइगसम्मादिट्ठि केव० ९ अनंतभागो (गा) | एवं सव्त्रपगदीणं पत्तेगेण साधारणेण वि एस भंगो कादव्त्रो । वेदगसम्मादिट्ठि-धुविगाणं बंधगा सव्वजी० के० १ अनंतभागो । अबंधगा णत्थि । सेसाणं पत्तेगेण - ओधिभंगो । साधारण धुवगाणं भंगो कादव्वो । उवसम ० - ओधिभंगो । गवरि विसेसो जाणिदव्वा । सासणसम्मा०-धुविगाणं बंधगा सव्वजी० के० ? अनंतभागो । अबंधगा णत्थि । तिष्णि आयु० देवगदि०४ पत्तेगेण मुक्काए भंगो । सेसाणं पत्तेगेण अधिभंगो । साधारणेण देवोघं । सम्मामिच्छा० - धुविगाणं बंधगा सव्वजी० के० ? अनंतभागो । अबंधगा
त्थि । दोवेदणीयं हस्सादिदोयुगलं थिरादितिष्णियुगलं देवभंगो । मणुसगदिपंचगं देवदि०४ सुकाए मंगो । पत्तेगेण साधारणेण वेदणीयभंगो । मिच्छादिट्ठि मदिभंगो ।
उच्चगोत्र, ५ अन्तरायके बन्धक सर्वजीवों के कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्वसम्यग्दृष्टिक्षायिक सम्यग्दृष्टियोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अबन्धक सर्व सम्यग्दृष्टि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त भाग हैं (?) ।
विशेष – अबन्धक सर्व सम्यग्दृष्टि क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके 'अनन्त बहुभाग' पाठ उचित प्रतीत होता है ।
सामान्य तथा प्रत्येकसे सर्व प्रकृतियोंका इसी प्रकार भंग है ।
वेदकसम्यक्त्वमें - ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त वें भाग हैं; अबन्धक नहीं हैं। शेष प्रकृतियोंका प्रत्येकसे अवधिज्ञानके समान भंग है । सामान्यसे ध्रुव प्रकृतियोंका भंग जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - सब सम्यक्त्वियोंकी संख्या समस्त जीवोंके अनन्तवें भाग कही गयी है । उपशमसम्यक्त्वीमें'–अवधिज्ञानके समान भंग है । इसमें जो विशेषता है, वह
जान लेनी चाहिए |
विशेष - जैसे मनुष्यायु तथा देवायुका बन्ध उपशमसम्यक्त्वमें नहीं होता है । तिर्यवायु तथा नरकाका बन्ध तो सम्यक्त्वी मात्रके नहीं होगा, कारण नरकायुकी बन्ध-व्युच्छित्ति मिथ्यात्व में और तिर्यंचायुकी सासादनमें हो जाती है ।
सासादनसम्यक्त्वमें ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं; अबन्धक नहीं हैं। नरकायुको छोड़कर शेष ३ आयु, देवगति ४ का पृथक रूपसे शुक्ललेश्याके समान भंग है । शेष प्रकृतियोंका प्रत्येकसे अवधिज्ञानवत् भंग है । सामान्य
देवोंके ओघवत् है ।
सम्यक्त्वमिथ्यात्वी में - ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं ; अबन्धक नहीं हैं । दो वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिरादि तीन युगलका देवके समान भंग है । मनुष्यगतिपंचक, देवगति ४ का शुक्ललेश्या के समान भंग है ।
१. सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठी खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइद्वी उवसमसम्माइट्ठी सासण-सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अणतो भागो । - - वही, ७७-७८, पृ. ५१६
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पयडिबंधाहियारो
१६१ णवरि मिच्छत्त-अबंधगा णत्थि । सण्णिमणजोगिभंगो। असण्णिधुविगाणं बंधगा सव्वजी० केव०? अणंता भागा । अबंधगा णत्थि । सेसाणं पगदीणं तिरिक्खोघं ।।
१७३. आहारगे-पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत० बंधगा सव्वजी० केव० ? असंखेजा भागा। सव्वआहारगेसु केत्र ? अणंता भागा। अबंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो। सव्वआहारगेसु केव० ? अणंतभागो । साद-बंधगा सव्वजी० केव० ? संखेजदिभागो। सव्व-आहारगेसु केव० ? संखेजदिभागो । अबंधगा सव्वजी० केव० १ संखेजा भागा। सव्वआहारगेसु केव०? संखेजा भागा। एवं असादं पडिलोमं भाणिदव्यं । दोवेदणीयबंधगा सव्वजी० केव० ? असंखेजा भागा। अबंधगा णत्थि। इत्थि० पुरिस० सादभंगो। णवूस० असादभंगो । तिण्णि वेदाणं बंधगा सबजी० केव० ? असंखेजा भागा । उवरि प्रत्येक तथा सामान्यसे वेदनीयके समान भंग है। मिथ्यादृष्टिमें'-मत्यज्ञानके समान भंग है। विशेष, यहाँ मिथ्यात्वके अबन्धक नहीं हैं।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वी जीवोंकी संख्या सम्पूर्ण जीवराशिके अनन्त बहुभाग कही गयीहै।
संज्ञीमें-मनोयोगीके समान भंग है। असंज्ञोमें-ध्रुव प्रकृतियों के बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । अबन्धक नहीं हैं। शेष प्रकृतियोंका तियंचोंके ओघवत् भंग हैं।
विशेषार्थ-सभी जीवराशि सम्पूर्ण जीवोंके अनन्तवें भाग है तथा असंज्ञी जीव सम्पूर्ण जीवराशिके अनन्तबहुभाग हैं।
१७३. आहारकमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय-जुगुप्सातैजस-कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलधु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। सर्व आहारकोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग । हैं। अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं? सर्व आहारकोंके कितने भाग हैं । अनन्तवें भाग हैं। साताके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। सर्व आहारकोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । सर्व आहारकोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । असाताके विषयमें प्रतिलोम क्रम है।।
विशेषार्थ-असाताके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। सर्व आहारकोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। सर्व आहारकोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं।
दो वेदनीयके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं; अबन्धक नहीं हैं । स्त्री, पुरुषवेदमें साता वेदनीयके समान भंग है। नपुंसकवेद में असाता वेदनीयके समान भंग है। तीन वेदोंके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं।
१. मिच्छाइट्टी सवजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंता भागा ॥ - ७६, ८०, खु० बं० भा०। २. सण्णियाणुवादेण सण्णी सम्वजीवाणं केवडिओ भागो? अणंतभागो॥-८१, ८२। असण्णी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अर्णता भागा १ -८३, ८४ खु० बं० । ३. आहाराणुवादेण आहारा सबजीवाणं केवडिओ भागो? असंखेज्जा भागा। -८५-८६।
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महाबंधे णाणावरणीयभंगो। तिण्णि-आयु-वेउबियछक्कं आहारदुगं तित्थयरं बंधगा सबजी० केव० ? अणंतभागो । सन-आहार० केव० ? अणंतभागो । अबंधगा सव्वजी० केव०? असंखेजा भागा । सव्व० आहार० केव० ? अणंतभागो (गा) । एवं हस्सादीणं पत्तेगेण साधारणेण वेदभंगो कादन्यो। सव्व आयु० अंगोवंगं संघडणं आहार-गदि-सरं मोत्तूण । एदाणं पि सादभंगो पत्तेगेण साधारणेण वि । अणाहारगेसु-पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतराइगाणं.बंधगा सव्वजी० केव० १ असंखेजदिभागो। सव्व-अणाहारका० केव० ? अणंतभागा। अबंधगा सबजी० केव० १ अणंतभागो। सव्वअणाहार० केव० ? अणंतभागो । सादबंधगा सबजी० केव० १ असंखेजदिमागो। सव्वअणाहारगाणं केव० ? संखेजदिभागो। अबंधगा सव्वजी० केव० ? असंखेजदिभागो। सव्वअणाहारगेसु केव०१ संखेजा आगे ज्ञानावरणके समान भंग है। तीन आयु, वैक्रियिकषटक, आहारकद्विक, तीर्थकरके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व आहारकोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । अबन्धक सवजीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । सर्व आहारकोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं (?)
विशेष—यहाँ अबन्धकोंका सर्व आहारकोंके 'अनन्त बहुभाग' पाठ उपयुक्त प्रतीत होता है।
हास्यादि प्रकृतियोंका प्रत्येक तथा साधारणसे वेदके समान भंग है । सर्व आयु, अंगोपांग, संहनन, आहारकद्विक, विहायोगति तथा स्वरके विषयमें वेदका पूर्वोक्त वर्णन नहीं लगाना चाहिए । इनका प्रत्येक तथा सामान्यसे साताके समान भंग है।
अनाहारकोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस कार्मणा, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। सर्व अनाहारकोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व अनाहारकोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । साताके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । सर्व अनाहारकोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। सर्व अनाहारकोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । असाताका प्रतिलोम क्रम जानना चाहिए।
विशेषार्थ-असाताके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। सर्व अनाहारकोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं । अबन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । सर्व अनाहारकोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं।
१. अणाहारा सव्वजीवाणं केवडिओ, भागो ? असंखेज्जदिभागो। -८७,८८-खु०० भागाभा०।
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पयडिबंधाहियारो
१९३ भागा । असाद-पडिलोमं भाणिदव्वं । दोणं बंधगाणं णाणावरणीयभंगो। देवगदि०४ तित्थयराणं आहारभंगो । सेसाणि कम्माणि पत्तेगेण साधारणेण य कम्मइगभंगो ।
एवं भागाभागं समनं ।
असाता-साताके बंधकोंका ज्ञानावरणके समान भंग है। देवगति ४, तीर्थंकरका आहारके समान भंग है। शेष प्रकृतियोंका प्रत्येक तथा साधारणसे कार्मण काययोगीके समान भंग है।
इस प्रकार भागाभाग-प्ररूपणा समाप्त हई।
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[ परिमाणाणुगम-परूवणा] १७४. परिमाणाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेणपंचणाणावरण-णवदंसणावरण-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुर्गच्छा-तेजाकम्मइग-वण्ण०४ अगु०४ आदा-उज्जोव-णिमिण-पंचंतराइगाणं बंधगा अबंधगा केवडिया ? अणंता । सादबंधगाबंधगा केव० ? अणंता। असादबंधा(धगा) अबंधगा केव० ? अणंता । दोण्णं वेदणीयाणं बंधा(धगा) अबंधगा अणंता । एवं सत्तणोक० पंचजादि-छसंठाणं छस्संघ दोविहाय० तसथावरादि-दसयुगलं दोगोदं च । तिण्णि-आयु-वेउब्धियछक्कतित्थयरं बंधगा केव० ? असंखेजा । अबंधगा केत्तिया ? अणंता । तिरिक्खायु-दोगदि
[परिमाणानुगम] १७४. परिमाणानुगमका ओघ और आदेशसे दो प्रकार वर्णन करते हैं।
विविध मार्गणाओंमें स्थित जीवोंके किस प्रकृतिके बन्धकोंकी कितनी संख्या है, इस बातका ज्ञान परिमाणानुगम प्ररूपणा-द्वारा होता है । 'खुद्दाबन्धकी धवलाटीकामें वीरसेना. चायने लिखा है-“एदाओ मग्गणाओ सव्वकालमत्थि, एदाओ च सव्वकालं णस्थित्ति णाणाजीवभंगविचयाणुगमेण जाणाविय संपहि मग्गणासु हिदवाणं पमाणपस्वट्ठदव्याणिओगद्दारमागदं (पृ० २४४)" ये मार्गणाएँ सर्वकाल हैं, ये मागेणाएँ सर्वकाल नहीं हैं- इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयाणुगमसे कह कर अब उन मार्गणाओंमें स्थित जीवोंके प्रमाणके निरूपणार्थ द्रव्यानुयोग-द्वार प्राप्त होता है।
शंका-क्षेत्रानुगम-प्ररूपणाके पूर्व परिमाणानुगम-प्ररूपणाका कथन क्यों किया गया ?
समाधान—“दव्वपमाणे अणवगदे खेत्तादिअणियोगद्दाराणमधिगमोवाओ णस्थित्ति दवाणिओगद्दारस्स पुवणिदेसो कदो।' ( खु० बं०,टीका पृ० २७ ) द्रव्य प्रमाणके जाने बिना क्षेत्रादि अनुयोग द्वारोंके जाननेका उपाय नहीं है। इससे द्रव्यानुयोगद्वारका पहले कथन किया है,क्षेत्रादिका कथन बादमें किया गया है ।
ओघसे-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, तैजस-कार्मण शरीर, वणे ४, अगुरुलघु ४, आतप, उद्योन, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंके बन्धक और अबन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं । साता वेदनीयके बन्धक और अबन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं । असाताके बन्धक-अबन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं। दोनों वेदनीयोंके बन्धकअबन्धक अनन्त हैं । ७ नोकषाय ( भय-जुगुप्साको छोड़कर ), ५ जाति, ६ संस्थान, ६ संहनन, दो विहायोगति, बस स्थावरादिदस युगल और दो गोत्रके बन्धकों-अबन्धकोंका भी इसी प्रकार समझना चाहिए।
नरक-देव-मनुष्यायु, वैक्रियिकषट्क तथा तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक कितने हैं ? असं
१. 'ओघेण मिच्छाइट्टो दव्वपमाणेण केवडिया ? अणंता ॥"-पटाखं०,८०० सू० २।
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ओरालिय० ओरालि० अंगो० दोआणुपुव्वीणं बंधगा अबंधगा केत्तिया ? अनंता । चदुआयु-चदुगदि- दोसरीर दोअंगो० चदुआणुपुच्चीणं बंधगा अबंधगा केत्तिया ? अनंता । आहार दुस्स बंधगा केत्तिया ? संखेज्जा । अबंधगा केत्तिया ? अनंता ।
१७५. आदेसेण - णिरयेसु -धुविगाणं बंधगा के त्तिया ? असंखेजा । अबंधगा णत्थि । थीणगिद्भितिग-मिच्छत्त-अनंताणुबंधि०४ तिरिक्खायु-उजोव - तित्थयराणं ( 2 ) बंधगा अबंधगा असंखेजा । सादासादबंधगा असंखेजा । दोष्णं वेदणीयाणं बंधगा केत्तिया ? असंखेजा । अबंधगा णत्थि । मणुसायुबंधगा केत्तिया ? संखेजा । अबंधगा केत्तिया ? असंखेजा । सेसाणं परियत्तमाणियाणं वेदणीयभंगो कादव्वो । एवं सवर गाणं ।
१७६. तिरिक्खेसु-धुविगाणं बंधगा केत्तिया ? अनंता । अबंधगा णत्थि । थो गिद्धि तिग-मिच्छत्त- अडकसाय - ओरालिय सरीराणं बंधगा केत्तिया ? अनंता । अबंधगा असंखेजा । सादासादबंधगा - अबंधगा केत्तिया ? अनंता । दोष्णं वेदणीयाणं
ख्यात हैं । अबम्धक कितने हैं ? अनन्त हैं । तिर्यंचायु, दो गति ( तिर्यंच - मनुष्यगति), औदाfre शरीर, औदारिक अंगोपांग, २ आनुपूर्वी ( तिर्यंच - मनुष्यानुपूर्वी ) के बन्धक - अबन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं । चार आयु, ४ गति, दो शरीर ( औदारिक, वैक्रियिक), दो अंगोपांग ( औदारिक- वैकियिक अंगोपांग ), ४ आनुपूर्वीके बन्धक - अबन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं । आहारकद्विकके बन्धक कितने हैं ? संख्यात हैं । अबन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं ।
विशेष - ' आहारकद्विकके बन्धक अप्रमत्त संयत होते हैं। उनकी संख्या संख्यात है ।
१७५. आदेश से - नरकगति में, ध्रुव प्रकृतियों के बन्धक कितने हैं ? असंख्यात हैं । अबन्धक नहीं है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी ४, तिर्यंचायु, उद्योत तथा तीर्थकरके बन्धक अबन्धक कितने हैं ? असंख्यात हैं । साता असाताके वन्धक असंख्यात हैं । दोनों वेदनीयके बन्धक कितने हैं ? असंख्यात हैं । अबन्धक नहीं हैं । मनुष्यायुके बन्धक कितने हैं ? संख्यात हैं । अबन्धक कितने हैं ? असंख्यात हैं। शेष परिवर्तमान प्रकृतियों में वेदनीयके समान भंग जानना चाहिए। सम्पूर्ण नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए ।
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१७६. तिर्यंचगति में प्रकृतियोंके बन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं । अबन्धक नहीं हैं । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी४, अप्रत्याख्यानावरण ४, तथा औदारिक शरीर बन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं । अवन्धक असंख्यात हैं । साता-असाताके बन्धक
१. "अप्पमत्त - संजदा दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा ॥ " • घट्खं०, ० द० सू० ८ । २. "घादितिमिच्छकसाया भयतेज गुरुदुगणिमिणवण्णचओ । सत्तेतालबुवाणं चदुधा सेसाणयं च दुधा ॥ " -गो० क०,गा० १२४ । ३. "णिरयगईए णेरइएंसु मिच्छाइट्टी दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा ।”— पटखं०, ८० सू० १५ । ४. दव्वषमाणानुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइया दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा खु००, टीका, पृ० २४४, सूत्र १, २ । ५. तिरिक्खगदीए तिरिक्खा दव्वपमाणेण केवडिया ? अनंता
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• खु० बं० सू० १४, १५ ।
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महाबंधे
बंधगा केत्तिया ? अणंता। अबंधगा णत्थि । तिण्णि-आयु० वेउब्धियछक्कं बंधगा केत्तिया ? असंखेजा । अबंधगा अणंता । एवं वेदणीय-भंगो सव्वाणं परियत्तमाणियाणं । णवरि चदुआयु-दो अंगो० छस्संघ ० परघादुस्सा० दोविहा० दोसर० बंधगा अबंधगा केत्तिया ? अणंता। एवं पंचिंदिय-तिरिक्ख०३ । णवरि असंखेज कादव्वं ।
१७७. पंचिंदिय-तिरिक्ख-अपजत्तेसु-धुविगाणं बंधगा असंखेजा। अबंधगा णत्थि । सेसाणं पंचिंदिय-तिरिक्खभंगो। एवं सव्वविगलिंदिय-सव्वपुढवि० आउ० तेउ० वाउ० बादरवणप्फदिपत्तेय । एइंदिय-वणप्फदि-णियोदाणं एवं चेव । णवरि अणंतं कादव्यं । णवरि मणुसायुबंधगा अबंधगा असंखेजा।
१७८. मणुसेसु-पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु० तेजाक० अबन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं। दोनों वेदनीयके बन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं ; अबन्धक नहीं हैं। तीन आयु ( तियचायुको छोड़कर ), वैक्रियिकपटक ( देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग ) के बन्धक कितने हैं ? असंख्यात हैं ; अबन्धक अनन्त हैं।
विशेष-आयुत्रिकमें यदि तिर्यंचायु सम्मिलित की जाती, तो बन्धक असंख्यात न होकर अनन्त हो जाते, अतः आयुत्रिकको नियंचायु विरहित समझना चाहिए।
इस प्रकार सर्व परिवर्तमान प्रकृतियोंमें वेदनीयके समान भंग समझना चाहिए। विशेष यह है कि चार आयु, दो अंगोपांग, ६ संहनन, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगति, दो स्वरके बन्धक-अबन्धक कितने हैं ? अनन्त हैं।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यंच तथा पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यंचमें इसी प्रकार समझना चाहिए । इतना विशेष है कि यहाँ अनन्तके स्थानमें 'असंख्यात' को ग्रहण करना चाहिए।
१७७. पंचेन्द्रिय-तियंच-लब्ध्यपर्याप्तकोंमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक असंख्यात हैं अबन्धक नहीं हैं। शेष प्रकृतियोंमें पंचेन्द्रिय-तियंचोंके समान भंग समझना चाहिए । सम्पूर्ण विकलेन्द्रिय, सम्पूर्ण पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकमें ऐसा ही जानना चाहिए । एकेन्द्रिय, वनस्पति निगोदमें भी इसी प्रकार है । विशेष यह है कि असंख्यातके स्थानमें यहाँ 'अनन्त' कहना चाहिए। विशेष, मनुष्यायुके बन्धक, अबन्धक असंख्यात हैं।
विशेष-यह कथन सामान्यकी अपेक्षा है। तेजकाय, वायुकायमें मनुष्यायुके बन्धाभावका विशेष नियम यहाँ भी लागू रहेगा।
१७८. मनुष्योंमें -५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, भय
१. पंचिदियतिरिक्ख - पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त - पंचिंदियतिरिक्खजोणणी - पंचिदियतिरिक्ख - अपज्जत्ता दव्वपेमाणेण केवडिया? असंखेज्जा - खु० बंसू०१८, १६ । २. "मणुसगईए मणुस्सेसु मिच्छादिट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा।" - पट्खं०, द० सू० ४० । "मणुसिणीसु मिच्छादिट्ठी दव्वपमाणे
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पयडिबंधाहियारो
१९७ वण्ण०४अगु० उप० णिमि० पंचंतरा० बंधगा असंखेजा। अबंधगा संखेजा सादासाद. बंधगा अबंधगा असंखेजा । दोणं पगदीणं बंधगा असंखेजा । अबंधगा संखेजा। एवं परियत्तमाणियाणं सव्वाणं । णवरि दोआयु वेउब्वियछक्क० । आहारंदुग-तित्थयराणं बंधगा संखेजा । अबंधगा असंखेजा। साधारणेण वेदणीयभंगो। छसंघ. दोविहा० दोसराणं बंधगा अबंधगा पत्तेगेण साधारणेण वि असंखेजा। परघादुस्सास-आदाउजोवाणं बंधगा अबंधगा असंखेजा। मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वे मंगा संखेजा।
१७६. देवेसु णिरयोघं । णवरि भवणवासि यात्र सोधम्मीसाणा त्ति । एइंदि०
जुगुप्सा, तैजस- कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंके बन्धक असंख्यात, अबन्धक संख्यात हैं । साता-असाताके बन्धक, अबन्धक असंख्यात हैं।' दोनों प्रकृतियों के बन्धक असंख्यात हैं, अबन्धक संख्यात हैं। सम्पूर्ण परिवर्तमान प्रकृतियों में इसी प्रकार है। दो आयु तथा वैक्रियिकषटकके विषयमें विशेष है। आहारकद्विक तथा तीर्थकर प्रकृतिके बन्धक संख्यात हैं , अबन्धक असंख्यात हैं। सामान्यकी अपेक्षा वेदनीयके समान भंग है । ६ संहनन, दो विहायोगति, २ स्वरोंके बन्धक,अबन्धक प्रत्येक तथा सामान्यसे असंख्यात हैं । परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योतके वन्धक, अबन्धक असंख्यात हैं।
मनुष्यपर्याप्तक, मनुष्यनियों में सम्पूर्ण भंग संख्यात हैं।
विशेषार्थ खुद्दाबन्धमें मनुष्य पर्याप्त तथा मनुष्यनीके प्रमाणपर इस प्रकार प्रकाश डाला गया है-मणुस्सपजत्ता मणुसिणीओ दव्वपमाणेण केवडिया ? कोडाकोडाकोडोए उवरि कोडाकोडा-कोडाकोडीए हेढदो छण्हं वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं हेतृदो" (सूत्र २८, २६ )मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियाँ द्रव्यप्रमाणसे कितनी हैं ? कोड़ा-कोड़ाकोड़ीसे ऊपर और कोड़ाकोड़ा-कोड़ाकोड़ीके नीचे छह वर्गों के ऊपर व सात वर्गों के नीचे अर्थात् छठे और सातवें वर्गके बीचकी संख्या प्रमाण मनुष्य पर्याप्त व मनुष्यनियाँ हैं।
'धवलाटीकामें लिखा है यद्यपि इस प्रकार सूत्र में सामान्य रूपसे ही कहा है, तथापि आचार्य परम्परागत अविरुद्ध गुरूपदेशसे पंचम वर्गके घन प्रमाण मनुष्य-पर्याप्त राशि है। इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए। उसका प्रमाण इस प्रकार है-७९२२८१६२५१४२६४३३७५६३५४ ३९५०३३६ । यह उनतीस अंक प्रमाण मनुष्य पर्याप्तकोंकी संख्या कही गयी है। (खुळं बं० टीका, पृ. २५८ ।
विशेष-यहाँ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका वर्णन नहीं हुआ है, अतः प्रतीत होता है कि उस विषयमें पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तक तिय चोंके समान भंग होंगे।
१७९. देवगतिमें-नारकियोंके ओघवत् जानना चाहिए। भवनवासियोंसे लेकर
केवडिया ? कोडाकोडोए हेढदो छण्हं वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं हेह्रदो। मणुसिणीसु सासणसम्माइट्ठिपहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा।" - षट्खं०,द० सू० ४८-४९ । १. मणुसगदीए मणुस्सा म णुसअपज्जत्ता दन्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा । खु० बं०,सूत्र २२, २३ । २. "भवणवासियदेवेसु मिच्छाइट्टो दव्वपमाणेग केवडिया ? असंखेज्जा।" - षट्खं द. सू० ५७ , पृ. २७०.
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महाबंधे पंचिंदि० ओरालि० अंगोछस्संघ० आदा-उजोव-दोविहाय० तसथावर-दोसराणं बंधगा अबंधगा असंखेजा । सेसाणं णिरयभंगो। सव्वट्ठ सव्वभंगा संखेजा।
१८०. पंचिंदि०-तस०२-पंचणा० छदसणा० अट्ठकसाय० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतराइगाणं बंधगा केत्तिया ? असंखेजा । अबंधगा केत्तिया ? संखेजा । थीणगिद्वितिय-मिच्छत्त-अट्ठकसायाणं बंधगा अबंधगा केत्तिया ? असंखेजा। एवं परघादुस्सास-आदाउजोव-तित्थयराणं । सादासाद-बंधगा अबंधगा केतिया ? असंखेजा। दोण्णं वेदणीयाणं बंधगा केत्तिया? असंखेजा । अबंधगा संखेजा । एवं सेसाणं पगदीणं पत्तेगेण साधारणेण वि वेदणीयभंगो। णवरि चदुआयु दो अंगो० छस्संघ दोविहाय० दोसराणं पत्तेगेण साधारणेण वि बंधगा अबंधगा केत्तिया ? असंखेजा । आहारदुगं मणुसोपं । सौधर्म ईशान स्वर्ग तक विशेष जानना चाहिए। एकेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर तथा दो स्वरके बन्धक अबन्धक असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंमें नारकियोंके समान भंग है। सर्वार्थसिद्धिमें सम्पूर्ण भंग संख्यात है।
विशेषार्थ 'धवलाटीकामें मनुष्यनियोंसे तिगुनी संख्या सर्वार्थसिद्धिके देवोंकी कही गयी है । 'जीवट्ठाण'सूत्रमें यह संख्या संख्यात कही है। 'खुद्दाबन्धकी मुद्रित प्रतिके हिन्दी अनुवाद ( पृ० २६७) में यह संख्या 'असंखेज्जा' कही है। प्रतीत होता है कि 'संखेज्जा' पाठ सम्यक् होगा। महाबन्धमें संख्या 'संख्यात' कही है।
१०. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्तक, त्रस, त्रसपर्याप्तकोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ८ कषाय अर्थात् प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण', वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायों के बन्धक कितने हैं ? असंख्यात हैं। अबन्धक कितने हैं ? संख्यात हैं । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, आठ कषायके बन्धक-अबन्धक कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत तथा तीर्थकर में भी हैं। साता-असाताके बन्धक अबन्धक कितने हैं ? असंख्यात हैं। दोनों वेदनीयके बन्धक कितने
१. “सम्वट्ट सिद्धिविमाणवासियदेवा दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा।"-षटखं०,द० सू०७३। २. देवगदीए देवादवपमाणेण केवडिया? असंखेज्जा। भवणवासियदेवा दवंपमाणेण केवडिया? असंखेज्जा । वाणवेंतरदेवा दवपमाणेण केवडिया? असंखेज्जा। जोदिसिया देवा देवगदिभंगो। सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवा दव्वपमाणेण केवडिया? असंखेज्जा । सणकुमार जाव सदर-सहस्सारकप्पवासियदेवा सत्तमपुढवीभंगो । आणद जाव अबराइदविमाणवासियदेवा दव्वपमाणेण केवडिया? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। सम्वसिद्धिविमाणवासियदेवा दव्वपमाणेण केवडिया? असंखेज्जा । -खद्दाबन्ध। सम्बदसिद्धिविमाणवासियदेवा दन्वपमाणेण केवडिया? संखेज्जा। मणसिणिरासीदो तिउणमेत्ता हवंति ॥ - जीवट्ठाण, ताम्रपत्रप्रति पृ० २८६। ३. "पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्तएसु मिच्छादिट्टी दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा।"-पट्खं०,द० सू०८०। "तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा।" -पट्खं०,
द० सू०६८ , पु. ३, पृ. ३६०
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पयडिबंधाहियारो -
१९९ १८१. एवं पंचमण. पंचवचि० चक्खुदंस० सणित्ति । णवरि दोवेढणीएसु अबंधगा णस्थि । काजोगीसु-पंचणा० छदंसणा० अट्ठकसा० भयदु० तेजाक० वग०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतराइगाणं बंधगा अणंता, अबंधगा संखेजा। थीणगिद्धितियमिच्छत्त-अढकसाय-ओरालियसरीराणं बंधगा अणंता, अबंधगा असंखेजा। सादासादबंधगा अबंधगा अणंता। दोणं वेदणीयाणं बंधगा अणंता। अबंधगा णत्थि। तिण्णिआयुवेगुम्वियछक्क-आहारदुग-तित्थयरं च ओघं । सेसाणं पत्तेगेण बंधगा अबंधगा अणंता । साधारणेण बंधगा अणंता । अबंधगा संखेजा। चदुआयु-दोअंगोवंग-छस्संघ० परघाहैं १ बन्धक असंख्यात हैं, अबन्धक संख्यात हैं।
विशेष-अयोगकेवली गुणस्थानमें वेदनीययुगलके अबन्धकको अपेक्षा 'संख्यात' प्रमाण कहा है।
शेष प्रकृतियोंका प्रत्येक तथा सामान्यसे वेदनीयके समान पूर्ववत् भंग जानना चाहिए।
विशेष, ४ आयु, दो अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरके प्रत्येक तथा साधारणसे बन्धक,अबन्धक कितने हैं ? असंख्यात हैं । आहारकद्विकके मनुष्योंके ओघवत् हैं अर्थात् बन्धक संख्यात, अबन्धक असंख्यात हैं।
१८१. पाँच मन, ५ वचनयोग, चक्षुदर्शन और संज्ञीमें इसी प्रकार है। विशेष, यहाँ दो वेदनीयों में अबन्धक नहीं होते हैं।
विशेष-वेदनीय युगलके अबन्धक अयोगकेवली होते हैं, वहाँ इन मार्गणाओंका अभाव है।
काययोगियोंमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ८ कषाय (प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन) भय, जगप्सा, तैजस-कार्मणः, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंके बन्धक अनन्त हैं, अबन्धक संख्यात हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, ८ कपाय ( अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानावरण ) तथा औदारिक शरीरके बन्धक अनन्त हैं , अबन्धक असंख्यात हैं। साता-असाताके बन्धक और अबन्धक अनन्त हैं। दोनों वेदनीयोंके बन्धक अनन्त हैं। अबन्धक नहीं हैं।
विशेष-साता और असाता प्रतिपक्षी प्रकृतियाँ हैं। अतः एकके बन्धमें दूसरीका अबन्ध होगा इससे पृथक्-पृथक्के अबन्धक भी अनन्त बताये गये हैं। उभयके यहाँ अबन्धक नहीं होते हैं।
तीन आयु, वैक्रियिकषटक, आहारकद्विक तथा तीर्थंकरके बन्धक अबन्धक ओघवत् जानने चाहिए। अर्थात् बन्धक असंख्यात हैं, आहारकद्विकके वन्धक संख्यात हैं; किन्तु अबन्धक अनन्त हैं। शेष प्रकृतियोंके प्रत्येकसे बन्धक,अबन्धक अनन्त हैं। सामान्यसे बन्धक
१. कायजोगि-ओरालियकायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगि-कम्मइकायजोगी दव्वपमाणेण केवडिया? अणंता ।। - खु० बं०० ६०-६१। २. इदियाणुवादेण एइंदिया बादरा सुहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता दन्वपमाणेण केवडिया ? अणंता। वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-पंचिदिय। तस्सेव पज्जता अपज्जत्ता दश्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा ॥-खुद्दाबन्ध,दव्वपमाणाणुगम ।वही, पृ. २६७-६६
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२००
महाबंधे दुस्मास आदाउजोव-दोविहा० दोसराणं बंधगा अबंधगा अणंता । एवं ओरालियकायजोगि-अवखुदंसणी-आहारगत्ति । ओरालियमिस्सका०-पंचणा० णवदंस० मिच्छत्तसोलसक० भयदु० ओरालिय० तेजाक० वण्ण०४ तित्थयराणं ( ? ) [ पंचंतराइगाणं] बंधगा अणंता । अबंधगा संखेजा। णवरि मिच्छत्त-अबंधगा असंखेजा। देवगदि०४ तित्थय० बंधगा संखेजा। अबंधगा अणंता। सेसं ओरालिय-काजोगिभंगो। एवं कम्मइगे । णवरि थीणगिद्धि३ मिच्छत्त-अणंताणु०४ अबंधगा असंखेजा। वेउब्वियकाजोगि-वेउब्बियमिस्स० देवोघं । णवरि वेउब्बियमिस्स. तित्थय० बंधगा संखेजा, अबंधगा असंखेजा। आहार. आहारमिस्स० मणुसभंगो। एवं मणपजव० संजद
अनन्त हैं, अबन्धक संख्यात हैं । चार आयु, दो अंगोपांग, छह संहनन, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, दो स्वरके बन्धक,अबन्धक अनन्त हैं।
औदारिक काययोगी, अचक्षुदर्शनी तथा आहारक पर्यन्त इसी प्रकार है।
औदारिकमिश्र काययोगियोंमें - ५ ज्ञानावरण, १ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस कार्मण शरीर, वर्ण ४ [तथा पंच अन्तराय ] के बन्धक अनन्त, अबन्धक संख्यात हैं।
__विशेष-यहाँ मूलमें आगत 'तित्थयराणं' पाठ के स्थानमें '५अन्तराय' का पाठ उपयुक्त प्रतीत होता है। कारण इसके बाद ही देवगति ४ के साथ तीर्थकर प्रकृतिका पृथक् रूपसे वर्णन किया गया है । वहाँ तीर्थकरके बन्धक संख्यात कहे हैं।
इतना विशेष है कि मिथ्यात्वके अवन्धक असंख्यात हैं। देवगति ४ ( देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग ) तथा तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक संख्यात हैं, अबन्धक 'अनन्त हैं। शेष प्रकृतियोंका औदारिक काययोगीके समान भंग है।
कार्मण काययोगियोंमें इसी प्रकार है । इतना विशेष है कि स्त्यानगृद्धि ३, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक असंख्यात हैं।
वैक्रियिक काययोगी तथा वैक्रियिकमिश्र काययोगियोंमें-देवोंके ओघवत् भंग जानना चाहिए। विशेप, वैक्रियिकमिश्र काययोगियोंमें तीर्थकरके बन्धक संख्यात, अबन्धक असंख्यात हैं।
'आहारक, आहारकमिश्र काययोगमें-मनुष्यके समान भंग जानना चाहिए।
विशेषाथे-आहारक काययोगी ५४ कहे गये हैं। आहारक मिश्रकाययोगी संख्यात कहे गये हैं । 'धवलाटीकामें लिखा है : “आइरिय-परंपरागद-उबदेसेण पुण सत्तावीसा जीवा होति"-आचार्य परम्परासे प्राप्त उपदेश सत्ताईस जीव होते हैं ।। (खु० बं०,पृ० २८१)
१. "ओरालियमिस्सकायजोगी असंजदसम्माइट्री-सजोगिकेवली दवपमाणेण केवडिया? संखेज्जा।" -पट्खं०, द० सू०-११२-१४। २. "आहारकायजोगीसु पमत्त संजदा दव्वपमाणेण केवडिया? चदुवण्णं । आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा दवपमाणेण केवडिया? संखेज्जा ।"-पटखं०, द० सू० ११६-२०। ३. “आहारकायजोगीस पमत्तसंजदा दवपमाणेण केवडिया? चदुवणं । आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा ।"षट्खं०, द० सू० ११९-२० ।
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पडबंधाहियारो
सामाइय० छेदो० परिहार • सुहुमसंप० यथाक्खाद० ।
१८२ इत्थवेदेसु - पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० पंचंतराव बंधगा असंखेजा । अबंधगा णत्थि । सेसं पंचिंदियमंगो । णवरि दोवेदणीय-जस अजस० दोगोदाणं बंधा असंखेजा । अबंधगा णत्थि । तित्थयरकम्मस्स बंधगा संखेज्जा, अबंधगा असंखेजा । एवं पुरिसवेदे । णवरि तित्थयरस्स बंधगा अबंधगा असंखेजा । णवुंस०पंचणा० चदुदंस० [ चदुसंज० ] पंचं तराइगाणं० अनंता । अबंधगा णत्थि । सेसं काजोगिभंगो । वरि जस - अजस० दोगोदाणं अबंधगा णत्थि । एवं कोधादि०४ | raft अपणो विगाणं णादन्याओ ।
१८३. मदि० सुद० - धुविगाणं बंधगा अनंता । अबंधगा णत्थि । मिच्छत्तस्स बंधगा अनंता । अबंधगा असंखेजा । सेसं तिरिक्खोघं । एवं अब्भ० सिद्धि० मिच्छादि० असणित्ति । णवरि मिच्छत्तस्स अबंधगा णत्थि । अवगदवेदेसु-पंचणा०
'मन:पर्ययज्ञान, संयत, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यातसंयत में इसी प्रकार जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - संयत सामायिक छेदोपस्थापन-शुद्धिसंयत कोटि पृथक्त्व प्रमाण हैं। परि हारविशुद्धिसंयत सहस्रपृथक्त्व है। सूक्ष्मसाम्पराय शुद्धिसंयत शतपृथक्त्व हैं । यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत शतसहस्र पृथक्त्व प्रमाण है ।
२०१
१८२. स्त्रीवेद में - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन और ५ अन्तरायके बन्धक असंख्यात हैं, अबन्धक नहीं हैं। शेष प्रकृतियोंका पंचेन्द्रिय के समान वर्णन है। विशेष, दो वेदनीय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, दो गोत्रोंके बन्धक असंख्यात हैं; अबन्धक नहीं हैं । तीर्थंकर कर्मके बन्धक संख्यात हैं, अबन्धक असंख्यात हैं । पुरुषवेद में इसी प्रकार है । विशेप, तीर्थंकर के बन्धक,अबन्धक असंख्यात हैं । नपुंसक वेद में - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण] [४ संज्वलन] ५ अन्तराय के बन्धक अनन्त हैं; अबन्धक नहीं हैं। शेष प्रकृतियों में काययोगी के समान भंग है । विशेष यह है कि यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति तथा दो गोत्रोंके अबन्धक नहीं हैं। क्रोधादि ४ में इसी प्रकार है । विशेष, अपनी ध्रुव प्रकृतियोंकी विशेषताको यहाँ जान लेना चाहिए ।
१८३. मत्यज्ञान, श्रुताज्ञानमें- ध्रुवप्रकृतियों के बन्धक अनन्त हैं; अवन्धक नहीं हैं । मिथ्यात्व के बन्धक अनन्त हैं, अबन्धक असंख्यात हैं ।
विशेष - अवन्धक सासादन सम्यक्त्वी जीवोंकी अपेक्षा यह गणना की गयी हैं। शेप प्रकृतियोंका तिचांके ओघवत् भंग जानना चाहिए । अभव्यसिद्धिक, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी में इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, यहाँ
१. मणपज्जवणाणी दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा । केवलणाणी दव्वपमाणेण केवडिया ? अनंता ॥ - खु०चं० । २. संजमाणुवादेग संजदा सामाइयच्छेदोवट्टावण सुद्धि-संजदा दव्व माण केवडिया ? कोडिधत्तं । परिहारसुद्धिसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया ? सहस्सपुधत्तं । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा पण केवडिया ? सदधतं । जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया ? सदसहसपुधत्तं । संजदासंदा माग केवडिया ? पलिदोवमस्स अमंग्वेज्जदिभागो || - खु० नं०सू० १२८-१३७ ।
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२०२
महा बंधे
चदुदंस०
चदुसंज०
अधगा
साद० जस० उच्चागोद० पंचंतराइगाणं बंधगा संखेजा, अनंता । अकसाइ - सादबंधगा संखेजा, अबंधगा अनंता [ एवं ] केवलणा • केवलदंस० विभंग० पंचिंदिय-तिरिक्ख-भंगो | णवरि किंचि विसेसो जाणिदव्वो । आभिणि० सुद० अधि० - पंचणा० छदंस० अट्ठकसाय पुरिस० भयदु० पचिदि० तेजाक० समचदु० वण्ण०४ अगुरु ०४ पसत्थ० तस०४ सुभग० सुस्सरआदेज० णिमि० उच्चा० पंचत० बंधगा० केत्तिया ? असंखेजा । अबंधगा संखेजा । सादासादबंधगा अबंधगा असंखेज्जा । दोष्णं वेदणीयाणं बंधगा असंखेजा, अबंधगा णत्थि । चदुणोकसायाणं बंधगा अबंधगा असंखेजा । दोण्णं युगलाणं बंधगा असंखेजा । अबंधगा संखेज्जा । एवं दोग दि- दोसरीर दोअंगोवंग- दोआणुपुब्वि० थिरादितिष्णियुगलाणं । मणुसायु - आहारदुगं बंधगा संखेजा, अबंधगा असंखेजा । अपच्चक्खाणावरण ०४ देवायु ० वज्ञरिसभ० तित्थयराणं बंधगा अबंधगा असंखेज्जा । एवं अधिदं० उवसम० । वरि उवसम तित्थयराणं बंधगा संखेजा, अबंधगा असंखेज्जा ।
मिथ्यात्व के अबन्धक नहीं हैं । अपगतवेद में - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायोंके बन्धक संख्यात हैं । अबन्धक अनन्त हैं । अकषाय जीवों में - साताके बन्धक संख्यात हैं, अबन्धक अनन्त हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन में इसी प्रकार है । विभंगावधि में - पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका भंग है । इसमें जो किंचित् विशेषता है, उसे जान लेना चाहिए।
आभिनिबोधिक, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान में - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ८ कपाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस - कार्मण, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंके बन्धक कितने हैं ? असंख्यात हैं । अबन्धक संख्यात हैं। साता तथा असाताके बन्धक,अबन्धक असंख्यात हैं। दोनों वेदनीयों के बन्धक असंख्यात हैं, अबन्धक नहीं हैं । चार नोकषायों ( हास्य- रति, अरति शोक ) के बन्धक, अबन्धक असंख्यात हैं । इन दोनों युगलों के बन्धक असंख्यात हैं, अबन्धक संख्यात हैं । इस प्रकार दो गति, २ शरीर, २ अंगोपांग, २ आनुपूर्वी तथा स्थिरादि तीन युगलों में जानना चाहिए। मनुष्यायु तथा आहारकद्विकके बन्धक संख्यात, अबन्धक असंख्यात हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४, देवायु, वज्रवृपभ संहनन तथा तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धक, अबन्धक असंख्यात हैं । अवधिदर्शन और उपशम सम्यक्त्व में इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, उपशम सम्यक्त्व में तीर्थंकर के बन्धक संख्यात, अबन्धक असंख्यात हैं ।
विशेषार्थ - कुछ आचार्योंका मत है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्वका काल अन होने से उसमें तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता है, किन्तु द्वितीयोपशम में तीर्थंकर प्रकृति के बन्धके त्रिषयमें मतभेद नहीं है ।
१. "पढमुवसमये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि । तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते ॥" - गो० क० गा० ९३ । - प्रथमोपशमसम्यक्त्वे शेष द्वितीयोपशम- क्षायोपशमिक क्षायिक सम्यक्त्वेषु च असंयताद्यमन्तान्तमनुष्या एवं तीर्थंकरबंधं प्रारम्भन्ते तेऽपि प्रत्यक्ष केवलिश्रुतकेवलिश्रीपादोपान्त एवं । अत्र प्रथमोपाग
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पयडिबंधाहियारो १८४. संजदासंजद-तित्थयराणंबंधगा संखजा, अबंधगा असंखेजा। सेसंबंधा० आयु दो ५० असंखेजा (?)। असंजदेसु-धुविगाणं बंधगा अणंता, अबंधगा णत्थि । थीणगिद्वितियं मिच्छत्तं अणंताणुवं०४ ओरालियसरीरं बंधगा अणंता । अबंधगा संखेजा। तित्थयरं बंधगा असंखेज्जा, अबंधगा अणंता । सेसं तिरिक्खोघं । एवं किण्ण-णीलकाऊणं । णवरि किण्ण. णील तित्थयराणं बंधगा संखेज्जा, अबंधगा अणंता। तेऊएमणुसायु-आहारदुगं बंधगा संखेजा, अबंधगा असंखेजा। पच्चक्खाणावरणीय०४ अबंधगा संखेजा । सेसाणं असंखेजा । एवं पम्माए । णवरि किंचि विसेसो जाणिदव्यो। सुकाए -मणजोगिभंगो । णवरि दोआयु-आहारदुगं बंधगा संखेजा, अबंधगा असंखेजा।
१८५. भवसिद्धिया०-काजोगिभंगो। णवरि वेदणीयस्स अबंधगा संखेजा।
बन्धसामित्तविचयखण्ड में लिखा है कि तीर्थंकर प्रकृति के बन्धके भवको मिलाकर तीसरे भव में तीर्थंकर प्रकृतिकी सत्तावाला जीव मोक्ष जाता है, ऐसा नियम है । अर्थात् इससे अधिक वह संसार में भवधारण नहीं करता है। १८४. संयतासंयतोंमें--तीर्थकर प्रकृति के बन्धक संख्यात हैं, अबन्धक असंख्यात हैं।
विशेष-सेसं बंधा० आयु दो० प० असंखेज्जा'-इस पंक्तिका स्पष्ट भाव समझमें नहीं आया, अतः नहीं लिखा ।
असंयतों में-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक अनन्त हैं , अबन्धक नहीं हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४, औदारिक शरीरके बन्धक अनन्त हैं, अवन्धक संख्यात हैं। तीर्थकरके बन्धक असंख्यात हैं, अवन्धक अनन्त हैं। शेप प्रकृतियों में तियचोंके ओघवत जानना चाहिए। कृष्ण, नील, कापोत लेश्यामें इसी प्रकार है। विशेप, कृष्ण, नील लेश्यामें तीर्थकरके बन्धक संख्यात तथा अबन्धक अनन्त हैं । तेजोलेश्यामें - 'मनुष्यायु, आहारकद्विकके बन्धक संख्यात, अबन्धक असंख्यात हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक संख्यात हैं। शेष प्रकृतियों के बन्धक,अबन्धक असंख्यात हैं। पद्मलेश्यामें - इसी प्रकार है। इसमें जो कुछ विशेषता है उसे जान लेना चाहिए ।
विशेष-इस लेश्यामें तेजोलेश्याकी अपेक्षा एकेन्द्रिय, स्थावर तथा आतपका बन्ध नहीं होता है।
शुक्ललेश्यामें - मनोयोगीके समान भंग है। विशेष, दो आयु, आहारकद्विकके बन्धक संख्यात, अबन्धक असंख्यात हैं।
१८५. भव्यसिद्धिकों में - काययोगीके समान भंग है। विशेष, यहाँ वेदनीयके अबन्धक संख्यात हैं।
विशेष-भव्य जीवों में अयोगकेवली गुणस्थान भी पाया जाता है, इस अपेक्षा वेदनीयके अबन्धक यहाँ कहे गये हैं। सम्यक्त्वे इति भिन्नविभक्तिकरणं तत्सम्यक्त्वे स्तोकान्तमहर्तकालत्वात् पोडशभावना-समृद्धयभावात् तद्बन्ध प्रारम्भो न इति केषांचित् पक्षं ज्ञापयति ।। -संस्कृतटीका.पृ०७८। पारद्धतित्ययबंधभवादो तदियभवे । तित्थयर संतकम्मिय जीवाणं मोकावगमण नियमादो ॥ -बंधसामित्तविचय,ताम्रपत्र प्रति पृ० ७५ ।
१. मिच्छस्मंतिमणवयं वारं णहि तेउपम्मेसु ।" -गो० क०, गा० १२०।
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महाबंधे
२०४ सम्मादिष्टि धुविगाणं बंधगा असंखेजा, अबंधगा अणंता । सेसाणं धुविगाणं भंगो । पत्तेगेण साधारणेण वि मणुसायुआहारदुगं बंधगा संखेज्जा । एवं खइगसम्मादिट्ठीणं । णवरि देवायुबंधगा संखेजा, अबंधगा अणंता । वेदग०-धुविगाणं बंधगा असंखेजा।
. विशेषार्थ-भव्य सिद्धिक जीव द्रव्य प्रमाणसे कितने हैं ? इसके उत्तर में 'खुद्दाबन्ध सूत्र में आचार्य कहते हैं "अणंता” (१५६) । अभव्यसिद्धिक जीव भी 'अणंता' अनंत कहे गये हैं। 'धवलाटीकामें यह शंका-समाधान दिया गया है:
शंका- व्ययके न होनेसे व्युच्छित्तिको प्राप्त न होनेवाली अभव्यराशिके 'अनन्त' यह ..संज्ञा कैसे सम्भव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अनन्तरूपके केवलज्ञानके ही विषयमें अवस्थित संख्याके उपचारसे अनन्तपना मानने में कोई विरोध नहीं आता।
यद्यपि अभव्य जीवराशि भव्य राशिके समान अनन्त कही गयी है, किन्तु उनमें बहुत अन्तर है । गोम्मटसार'जीवकाण्डमें लिखा है :
अवरो जुत्ताणतो अभव्वरासिस्स होदि परिमाणं ।
तेण विहीणो सम्वो संसारी भवरासिस्स ॥५६०॥ __ अभव्यराशिका परिमाण जघन्य मुक्तानन्त है। उससे रहित संसारी जीवोंकी संख्या प्रमाण भव्य जीवराशि कही है।
अभव्यराशिको अनन्तगुणा किया जाये, तो सिद्ध राशिके अनन्तवें भाग प्रमाण संख्या आती है । उतना समय प्रबद्धका प्रमाण कहा गया है। कहा भी है :
'सिद्धाणंतिमभागं अभवसिद्धादर्णतगुणमेव ।
समयपबद्धं बंधदि जोगविसादो दु विसरित्थं ॥ गो० क०,४॥ 'धवला टीकामें लिखा है- "सिद्धि-पुरक्कदा भविया णाम' सिद्धि पुरस्कृत जीवोंको भव्य कहते हैं। 'तव्विदीया अभविया णाम' - इसके विपरीत जीवोंको अभव्य कहते हैं। "सिद्धा पुण न भविया, ण च अभविया तन्विवरीद-सरूवत्तादो” (खु० बं०,पृ० २४२ ) सिद्ध जीव न तो भव्य हैं और न अभव्य हैं, क्योंकि उनका स्वरूप भव्य तथा अभव्यसे विपरीत है । भव्योंकी राशि अक्षय अनन्त कही गयी है। भूतबलि स्वामी कहते हैं : "अणंताणंता हि ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण" ( खु० बंसू० १५७ ) भव्य सिद्धिक जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी प्रमाणकालसे अपहृत नहीं होते।
सम्यग्दृष्टियोंमें - ध्रुवप्रकृतियोंके बन्धक असंख्यात हैं। अबन्धक अनन्त हैं । शेष प्रकृतियोंका ध्रुव प्रकृतिवत् भंग है । प्रत्येक तथा सामान्यसे मनुष्यायु तथा आहारकद्विकके बन्धक संख्यात हैं।
क्षायिक सम्यक्त्वियोंमें - इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, देवायुके बन्धक संख्यात, अबन्धक अनन्त हैं। वेदकसम्यक्त्वमें - ध्रुव प्रकृतियों के बन्धक असंख्यात हैं,
२. सिद्धराश्यनन्तकभागं, अभव्यसिद्धेभ्योऽनन्तगुणं तु पुनः योगवशाद् विसदृशं समयप्रबद्धं बध्नाति । समय समय प्रबध्यते इति समयप्रबद्धः ।
णय जे भग्वाभन्दा मत्तिसूहातीदणंतसंसारा। ते जीवा णायचा णेव य भव्वा अभव्वा य ।। -गो० जी०,५५६।।
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पय डिबंधाहियारो
२०५ अबंधगा णस्थि । सेसं पत्तेगेण ओधिभंगो। साधारणे अबंधगा णत्थि | आयुवजरिसहाणं ओधिभंगो। सासणे-मणुसायुबंधगा संखेजा । सेसभंगा असंखेज्जा । सम्मामिच्छे-सव्वभंगा असंखेज्जा । अणाहारगेसु-पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त-सोलसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगुरु०४ आदाउज्जो णिमि० पंचंतराइगाणं बंधगा अबंधगा अणंता । सादासादबंधगा अबंधगा अणंता । एवं सेसाणं पि । णवरि देवगदिपंचगं बंधगा संखेज्जा, अबंधगा अणंता।
एवं परिमाणं समत्तं
अबन्धक नहीं हैं । शेष प्रकृतियोंका प्रत्येक रूपसे अवधिज्ञानके समान भंग है। सामान्यसे अबन्धक नहीं है । आयु तथा वनवृषभसंहननका अवधिज्ञानके समान भंग जानना चाहिए। सासादनमें-मनुष्यायुके बन्धक संख्यात है। शेष प्रकृतियोंके भंग असंख्यात हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें - सर्व भंग असंख्यात जानना चाहिए। अनाहारकोंमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस-कार्मण , वर्ण ४. अगुरुलघु ४, आतप, उद्योत, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंके बन्धक अबन्धक अनन्त हैं । साता-असानाके बन्धकअबन्धक अनन्त हैं। इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंमें भी जानना चाहिए । विशेष यह है कि देवगति ५ के बन्धक संख्यात हैं, अबन्धक अनन्त हैं।
इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ।
१. आहाराणुवादेण आहारा अणाहारा दवपमाणेण केवडिया ? अणंता। अणंताणताहि ओसप्पिणि उस्तप्पिणीहिन अवहिरति कालेण ।
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[ खेत्ताणुगम-परूवणा ]
१८६. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त - सोलसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचतरागाणं बंधा ( बंधगा ) केवडिखचे ? सव्वलोगे । अबंधगा केवडिखे ते ? लोगस्स
[ क्षेत्रानुगम ]
क्षेत्रानुगम ओघ तथा आदेशसे दो प्रकार से निर्देश करते हैं ।
विशेषार्थ - जीवादि द्रव्योंका वर्तमान आवासस्थल क्षेत्र हैं । यह नामक्षेत्र, स्थापनाक्षेत्र, द्रव्यक्षेत्र तथा भावक्षेत्र के भेदसे चार प्रकारका है। यहाँ द्रव्यक्षेत्र से प्रयोजन है । इसके भेद तद्द्व्यतिरिक्त नोआगमका दूसरा भेद जो नोकर्मद्रव्य है, वह औपचारिक तथा पार मार्थिक भेदयुक्त है । धान्यादिक्षेत्र औपचारिक क्षेत्र हैं, आकाशद्रव्य पारमार्थिक नोकर्म तद्व्यतिरिक्त तो आगन क्रय-क्षेत्र है । वीरसेन स्वामीने धवलाटीका ( जीवद्वाण भाग ३ पृ० ७ ) में कहा है, "तत्थ श्रवयारियं णोकम्मदव्वखेत्तं लोगपसिद्धं सालिखेत्तं वीहिखेत्तमेवमादि । पारमत्थियं णोकम्मदव्वखेत्तं श्रागासदव्वं पदेसु खेतेसु केणं खेत्तेण पयदं णोश्रागमदो दव्वखेत्तेण पयदं । "
जिस प्रकार से द्रव्य अवस्थित है, उस प्रकार से उनको जानना अनुगम कहलाता है । क्षेत्र के अनुगमको क्षेत्रानुगम कहते हैं, "जधा दव्वाणि टिउदाणि तधावबोधो अणुगमो । खेत्तस्स श्रणुगमो खेत्ताणुगमो ।” निर्देशका अर्थ है प्रतिपादन करना अथवा कथन करना, "णिसो पशुपायणं कहणमिदि एयट्ठी " ( पृ०६ ) । जीवादि द्रव्य आकाशके जितने भागमें पाये जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । उसके सिवाय अवशिष्ट आकाशको अलोकाकाश कहते हैं । इस क्षेत्रानुगमका लोकाकाशसे सम्बन्ध है । अलोकाकाशमें आकाशके सिवाय अन्य द्रव्योंका अभाव होने से प्रस्तुत प्ररूपणा में उससे प्रयोजन नहीं है । ' पंचास्तिकाय में कुन्दकुन्द स्वामीने इस अलोकाकाशको "अंतर्वादिरित्तं" अन्तरहित ( अनन्त ) कहा है । लोकाकाश तीन सौ तेंतालीस घन राजू प्रमाण कहा गया है ।
ओघसे - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसकार्मण', वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंके बन्धक जीव कितने क्षेत्र में हैं ? सर्वलोक में ।
विशेषार्थ - लोक शब्दका अर्थ है "लोक्यते उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादि द्रव्याणि स लोकः तद्विपरीतो लोकः ।" देशके भेदसे क्षेत्रके तीन भेद कहे हैं । वीरसेन स्वामीने लिखा है - "मंदर चूलियादो उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो मंदर परिच्छिष्णो लोगो त्ति" ( जी० खे०, पृ० ६ ) - मंदराचल अर्थात् सुमेरु पर्वतकी चूलिकासे ऊपर ऊर्ध्वलोक हैं । मन्दरगिरिके मूलसे नीचेका क्षेत्र अधोलोक है । मन्दराचल से परिच्छिन्न मध्यलोक है । इस लोक-विभाजन में सुमेरु गिरिकी प्रधानताको लक्ष्य में रखकर आचार्य अकलंकदेव उसे लोकका मानदण्ड कहते हैं, “मेरुरयं त्रयाणां लोकानां मानदण्डः ( त० रा० ) 'खुदा
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पयडिबंधाहियारो
२०७
बन्ध'सूत्र की टीकामें लोकको पंचविध कहा है - "एत्थ लोगो पंचविहो उड्ढलोगो अधोलोगो तिरियलोगो मणुसलोगो सामण्ण लोगो चेदि । एदेसिं पंचण्ह पि लोगाणं लोगग्गहणण गहणं कादव्वं" (पृ. ३०१) - यहाँ लोक ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तियंगलोक, मनुष्यलोक, सामान्य लोक इस प्रकार पंचभेदसहित है। लोकके ग्रहण करनेसे पाँचों लोकोंका ग्रहण करना चाहिए। मनुष्य लोकका तिर्यगलोकमें अन्तर्भाव होनेसे लोकत्रयकी मान्यताका सर्वत्र प्रचार है । धवलाटीकाकारने पंचविध लोकोंको लक्ष्य में रखकर तत्त्व प्रतिपादन किया हैं। तीनसौ तेतालीस घनराजू प्रमाण सामान्य लोक है । एकसौ छयानबे घनराजू प्रमाण अधोलोक है, एकसौ सैतालीस घनराजु प्रमाण ऊर्ध्वलोक है। एक लाख योजन ऊँचा, पूर्व पश्चिममें एक राजू चौड़ा तथा उत्तर दक्षिणमें सात राजू लम्बा तिर्यग्लोक है । पैंतालीस लाख योजन लम्बे तथा चौड़े और एक लाख योजन ऊँचे क्षेत्रको मनुष्यलोक कहा गया है।
इस पंच विधलोकमें जीवका संचार होता है। खुद्दाबन्ध क्षेत्रानुगम प्ररूपणामें स्वस्थान, समुद्घात तथा उपपादकी अपेक्षा क्षेत्रका कथन किया है । धवलाटीकामें यह महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी कथन किया गया है। स्वस्थान पद स्वस्थान-वस्थान तथा विहारवत्स्वस्थानके भेदसे दो प्रकार है। अपने-अपने उत्पन्न होने के ग्रामादिकोंकी सीमाके भीतर परिभ्रमण करनेको स्वस्थान-स्वस्थान कहते हैं । इससे बाह्य प्रदेश में घूमने को विहारवत्स्वस्थान कहते हैं।
नेत्रवेदना, शिरोवेदना आदिके द्वारा जीवोंके प्रदेशोंका उत्कृष्टतः शरीरसे तिगुने प्रमाण विसर्पणको वेदना समुद्भात कहते हैं। क्रोध, भय आदिके द्वारा जीवके प्रदेशोंका शरीरसे तिगुने प्रमाण (शरीर-तिगुण) प्रसर्पणको कषाय समुद्भात कहा है। वैक्रियिक शरीरके उदयवाले देव और नारकी जीवोंका अपने स्वाभाविक आकारको छोड़कर अन्य आकारसे रहनेका नाम वैक्रियिक समुद्भात है । अपने वर्तमान शरीरको नहीं छोड़कर ऋजुगति-द्वारा या विग्रहगति-द्वारा आगे जिसमें उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्र तक जाकर शरीरसे तिगुने विस्तारसे अथवा अन्य प्रकारसे (शरीरतिगुण-बाहल्केण अण्णहा वा) अन्तर्मुहूर्त तक रहनेको मारणान्तिक समुद्भात कहा है। मारणान्तिक समुद्धात निश्चयसे आगामी जहाँ उत्पन्न होना है, ऐसे क्षेत्रकी दिशाके अभिमुख होता है। अन्य समुद्धातोंमें दशों दिशाओंमें गमन पाया जाता है। जिसने आगामी भवकी आयु बाँध ली है, ऐसे बद्धायुष्क जीवके ही मारणान्तिक समुद्धात होता है। इस समुद्धात का आयाम अर्थात् विस्तार उत्कृष्टतः अपने उत्पद्यमान क्षेत्रके अन्त तक है, इतर समुद्धातोंमें यह नियम नहीं है ।।
तैजस शरीरके विसर्पण को तैजस समुद्धात कहते हैं। यह निस्सरणात्मक तथा अनिस्सरणात्मक भेदसे दो प्रकारका है। निस्सरणात्मक तैजसके प्रशस्त तैजस, अप्रशस्त तैजस ये दो भेद हैं । अप्रशस्त-निस्सरणात्मक तैजसशरीर समुद्धात बारह योजन लम्बा, नौ योजन विस्तारवाला सूच्यंगुल संख्यातवें भाग मोटाईवाला, जपापुष्पके समान लालवर्णवाला, भूमि
और पर्वतादिके दहन करने में समर्थ, प्रतिपक्षरहित, रोषरूप इन्धनवाला, बायें कन्धेसे उत्पन्न होनेवाला और इच्छित क्षेत्र प्रमाण विसर्पण करनेवाला होता है। जो प्रशस्त निस्सरणात्मक तैजसशरीर समुद्धात है, वह भी विस्तार आदिमें अप्रशस्त तैजसके हो समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि वह हंसके समान धवलवर्णवाला है । सीधे कन्धेसे उत्पन्न होता है। प्राणियोंपर अनुकम्पा के निमित्तसे उत्पन्न होता है । मारी रोग आदिके प्रशमन करने में समर्थ होता है। अप्रशस्त तैजसके विषयों में राजवार्तिक में लिखा है कि वह उग्र चारित्रवाले तथा अत्यन्त क्रुद्ध मुनिके निकलता है ( यतेरुप्रचारित्रस्यातिक्रुद्धस्य ) ।
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महाबंधे
एक हस्तप्रमाण, सवांग सुन्दर, समचतुरस्र संस्थानयुक्त, हंसके समान धवल, रुधिर मांसादि सप्त धातुओंसे रहित, विष, अग्नि एवं शस्त्रादि समस्त बाधाओंसे मुक्त; वज्र, शिला, स्तम्भ, जल, व पर्वनमें-से गमन करने में दक्ष तथा मस्तकसे उत्पन्न हुए शरारसे तीर्थकरके पाद मूल में जानेका नाम आहारक समुद्भात है । 'गोम्मटसार' जीवकाण्ड में आहारक शरीरको असंहणणं' - संहननरहित कहा है, क्योंकि इस देहमें अस्थिबन्धन विशेषका असद्भाव है । जीवकाण्डमें यह भी कहा है कि निजक्षेत्र में केवली श्रुत केवलीका अभाव हो और सुदूर क्षेत्र में केवलिद्वय विद्यमान हों तथा तीर्थकर भगवान् के तपादि कल्याणकत्र य हो तब असंयम परिहार हेत. तज्ञानावरण तथा वीर्यान्तरायक क्षयोपशमकी मंदता होनेपर धर्मव्यानका विराधी श्रुत ( शास्त्र ) के अर्थमें सन्देह उत्पन्न हो, उस सन्देह निवारणार्थ तथा 'जिण-जिणधर-वंदणटुं' जिन तथा जिन-मन्दिरकी वन्दनार्थ आहारक शरीर उत्पन्न होता है।' यह शरीर अव्याघाती होता है। कदाचित् पर्याप्ति पूर्ण होनेपर आयु क्षय होनेसे इस शरीरधारी मुनिका मरण भी होना सम्भव है। आहारक तथा तैजस समुद्धात मनुष्यनीके नहीं होते ( मणुसिणीसु तेजाहारं णत्थि- खु० ब०)
वेदनीय कर्मके निषेकोंकी बहुलता हो तथा आयुकी स्थिति अल्प हो,तब आयु कर्मके समान शेष कर्मोकी स्थिति करनेके लिए दण्ड, कपाट, प्रतर तथा लोकपूरणरूप केवलि समुद्धात होता है।
जिसकी अपने विष्कम्भसे कुछ अधिक तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्व शरीर के बाहल्यरूप अथवा पूर्व शरीरसे तिगुने बाहल्य रूप दण्डाकारसे केवलीके जीव प्रदेशोंका कुछ कम चौदह राजू फैलनेका नाम दण्डसमुद्धात है। दण्डसमुद्धातमें कथित बाहल्य और आयामके द्वारा वात-बलयसे रहित सम्पूर्ण क्षेत्र के व्याप्त करनेका नाम कपाटसमुद्धात है। केवली भगवान के जीव प्रदेशोंका वातवलयसे रुके हुए क्षेत्रको छोड़कर सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त होने का नाम प्रतरसमुद्भात हैं । घनलोक प्रमाण केवली भगवानके जीव प्रदेशोंका सर्वलोकमें व्याप्त करनेको केवलिसमुद्धात कहते हैं।
उपपाद एक प्रकारका है। वह भी उत्पन्न होने के पहले समयमें ही होता है । उपपादमें ऋजुगतिसे उत्पन्न हुए जीवोंका क्षेत्र बहुत नहीं पाया जाता है, क्योंकि इसमें जीवके समस्त प्रदेशोंका संकोच होता है ( संकोचिदासे सजीवपदेसादो )।
इस प्रकार स्वस्थानके दो भेद, समुद्भातके सात भेद तथा एक उपपाद इन दश विशेषणोंसे यथासम्भव विशेषताको प्राप्त क्षेत्रका निरूपण किया गया है।
___ अबन्धक कितने क्षेत्रमें हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें अथवा असंख्यात भागों में वा सर्वलोकमें रहते हैं।
विशेषार्थ-ज्ञानावरणादिके अबन्धक उपशान्त कषायादि गुणस्थानवी जीवोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है। सयोगी जिनके प्रतर-समुद्भातकी अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभाग हैं । क्योंकि यहाँ वातवलयोंमें जीव प्रदेश नहीं पाये जाते । लोकपूरण समुद्रात की
+
-
-
१. आहारस्सुदएण य पमत्तविरदस्स होदि आहारं ।
असंजमपरिहरणटुं संदेहविणासणटुं च ।।२३५।। णियखेत्ते केवलिदुगविरहे णिक्कमणपहदिकल्लाणे। परखेते संवित्ते जिण-जिणधर वंदणटुं च ।।२३६।। -गो० जी०
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पय डिबंधाहियारो
२०६ असंखेज्जदिभागे, असंखेज्जेसु वा भागेसु वा सबलोगे वा । सादासाद-बंधगा अबंधगा केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे। दोणं वेदणीयाणं बंधगा केवडिखेत्ते ? सबलोगे। अबंधगा केवडिखेते ? लोगस्स असंखेज्जदिमागे । एवं सेसाणं पत्तेगेण वेदणीय-भंगो। साधारणेण धुविगाणं भंगो। णवरि तिण्णि-आयु-वेउव्विय छक्क-आहारदुगं तित्थयरं बंधगा केवडिखते ? लोगस्स असंखज्जदिभागे। अबंधगा सबलोगे। चदु-आयु-दोअंगोवंग-छस्संघ दोविहायगदि-दोसराणं बंधगा अबंधगा केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे। एवं परघादुस्साणं । एवं काजोगि-कम्मइग० भवसिद्धिया-अणाहारगाणं । णवरि कम्मइगस्स यं हि केवलिभंगो तं हि लोगस्स असंखेज्जेसु वा भागेसु सबलोगे वा । एवं अपेक्षा सर्वलोक क्षेत्र कहा है।'
साता-असाताके बन्धक अबन्धक जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। दोनों वेदनीयके बन्धक कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्वलोकमें। अबन्धक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं।
विशेष-दोनोंके अबन्धक अयोगी जिन हैं । उनकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग कहा है।
इसी प्रकार शेष प्रकृतियोका पृथक-पृथक् रूपसे वेदनीयके समान भंग जानना चाहिए। सामान्य रूपसे शेष प्रकृतियोंका ध्रुव प्रकृतिवत् भंग जानना चाहिए। विशेष, ३ आयु, वैक्रियिकषट्क, आहार कद्विक तथा तीर्थकर प्रकृतिके बन्धक कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । अबन्धक सर्वलोकमें रहते हैं।
४ आयु, २ अंगापांग, ६ संहनन, २ विहायोगति और २ स्वरोंके बन्धक, अबन्धक कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्वलोकमें रहते हैं। इसी प्रकार परघात तथा उच्छ्वास प्रकृति में भी लगा लेना चाहिए।
__ इसी प्रकार काययोगी, कार्मण काययोगी, भव्यसिद्धिकों तथा अनाहारकोंमें जानना चाहिए। विशेष यह है कि कार्मण काययोगीमें जो केवलीका भंग है, उसमें लोकका असंख्यात बहभाग अथवा सर्वलोकप्रमाण क्षेत्र जानना चाहिए।
विशेषार्थ- कार्मण- काययोग चारों गतिसम्बन्धी विग्रहगति में, प्रतर-लोक-समुद्धात मुक्त केवलीके होता है, "कार्माणकाययोगः स्यात् स चतुर्गतिविग्रहकाले सयोगस्य प्रतरलोकपूरणकाले च भवति" [गो० जी०टी० १० ११२५, गा० ६८४] प्रतर समुद्रातमें लोकका असंख्यात बहुभाग, लोकपूरण समुद्रात में नामानुसार लोकपूर्णता होनेसे सर्वलोक क्षेत्र कहा है।
१. पदरस मुग्धादे लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु अवट्ठाणं होदि । वादवलएसु जीवपदेसाणामभावादो । लोगपूरण समुग्वादे सबलोगे अवठ्ठाणं होदि ।-खु० ३११। २. "कम्मइयकायजोगिसु सजोगिवली केवडिखेते लोगस्स असंखेज्जेम भोगेस. सबलोगे वा।"-पटखं-ख० बं०४०.४२। म भवसिद्धिया अभवसिद्धिया सत्याणेण उयवादेण केवडिखेते? सबलोगे। अणाहाराकेवडिखेत्ते ? सव्वलोए।।
१०७, १०८, १२३, १२४ ।
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२१०
महाबंधे ओरालियसरीर ओरालियमिस्स-अचक्खुदंसण-आहारग त्ति । णवरि केवलिभंगो णस्थि ।
१८७. आदेसेण णेरइएसु-सब्वे भंगा लोगस्स असंखेजदिभागे । एवं सव्वणेरइएसु, सव्वपंचिंदिय-तिरिक्ख-मणुस-अपज्जत्त-सव्वदेव-सव्वविगलिंदिय-तस-अपज्जत्त-बादरपुढवि० आउ० तेउ० बादरवणप्फदि-पत्तेय० पजत्ता-पंचमण. पंचवचि० [ वेउब्बिय ] वेउब्वियमिस्स० आहार० आहारमिस्स० इत्थि० पुरिस० विभंग० आभिणि० सुद० ओधि० मणपज्जव० सामाइय० छेदोव० परिहार० सुहुमसंप० संजदासंज० चक्खुदं० ओधिदसण-तेउलेस्सा-पम्मलेस्सा-वेदगसम्मा० उवसमसम्मा० सासण० सम्मामिच्छाइट्ठि सणि ति। तिरिक्खेसु-धुविगाणं बंधगा केवडिखेचे ? सव्वलोगे। अबंधगा
__ इसी प्रकार औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्र काययोगी, अचक्षुदर्शनी तथा आहारकमें जानना चाहिए । विशेष यह है कि इसमें केवलीका भंग नहीं है।'
विशेषार्थ-औदारिककाययोगी स्वस्थान, वेदनासमुद्रात, कषाय तथा मारणान्तिक समुद्भातकी अपेक्षा सर्वलोकमें रहते हैं। विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा तीन लोकों के असंख्यातये भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते है। वैक्रियिक समुद्भात, तैजससमुद्भात और दण्डसमुद्भातको प्राप्त उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यात गुणे क्षेत्रमें रहते हैं। इतना विशेष है कि तैजससमुद्भातको प्राप्त उक्त जीव मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं। यहाँ कपाट प्रतर तथा लोकपूरण और आहारक समुद्रात पद नहीं हैं। औदारिककाययोगीके उपपाद नहीं है।
१८७. आदेशसे - नारकियों में सर्व भंग लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इसी प्रकार सर्व नारकी जीवों में जानना चाहिए । सर्व पंचेन्द्रिय-तियंच-मनुष्यके अपर्याप्तक, संपूर्ण देव, सर्व विकलेन्द्रिय, त्रस, इनके अपर्याप्त, बादर-पृथ्वी-जल-अग्नि, बादर वनस्पति प्रत्येक, इनके पर्याप्तक, ५ मनयोगी, ५ वचनयोगी, [वैक्रियिक] वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र योगी, स्त्री-पुरुषवेद, विभंगज्ञान सुमति, सुश्रुत, अवधि-मनःपर्ययज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, संयतासंयत, चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, तेज-पद्मलेश्या, वेदकसम्यक्त्वी, उपशमसम्यक्त्वी, सासादन सम्यक्त्वी, मिश्रसम्यक्त्वी तथा संजीपर्यन्त इसी प्रकार है । अर्थात् यहाँ क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है।
१. कायजोगी-ओरालियमिस्सकायजोगी सत्थाणेण समुग्घादेण केवडिखेत्ते ? सव्वलोए । ओरालियकायजोगी सत्थाणेण समुग्घादेण केवडिखेत्ते ? सव्वलोए। उववादं णत्थि । अचक्खुदंसणो असंजदभंगो। असंजदा णवंसयभंगो। णव॒सयवेदा सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? सव्वलोए। आहाराणुवादेण आहारा सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेते सव्वलोगे ।। -खुद्दाबंध,खेत्ताणुगम । २. "आदेसेण गदियाणुवादेण णिरय गदीए णेरइएसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइद्वित्ति केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया।" -ध० टी०,खे० सू० ५, ६, । ३. पंचिदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्खपज्जत्ता-पंचिदियतिरिक्ख-जोणिणी पंचिदियतिरिक्ख-अपज्जत्ता सत्थाणेण समग्यादेण उववादेण केवडिखेते? (६) लोगस्स असंखेज्जदिभागे (७)। मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणसिणी सत्थाणेण उववादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । समग्यादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। असंखेज्जेसु वा भाएसु सव्वलोगे वा । मणुस-अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स
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पयडिबंधाहियारो
२११ गत्थि । सादासादबंधगा अबंधगा केवडिखेत्ते ? सबलोगे। दोण्णं वेदणीयाणं
विशेषार्थ-धवलाटीकामें लिखा है-"णेरइया सव्वपदेहि चदुण्णं लोगाणमसंखेजदिभागे होति माणुसलोगादो असंखेजगुणे" [खु० ब०, पृ० ३०१] नारकी जीव सवपदोंसे ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक, सामान्यलोक रूप चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। इनमें वेदना, कषाय, वैक्रियिक तथा मारणान्तिक समुद्धात होते हैं । तैस, आहारक तथा केवलसमुद्भात नहीं होते, क्योंकि उनका असंयमियोंमें असद्भाव है।
तियचोंमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोकमें । अबन्धक नहीं हैं। साता और असाताके बन्धक,अबन्धक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोकमें ।
असंखेज्जदिभागे। (८-१४)। देवगदीए देवा सत्थाणेण सम ग्यादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। (१५,१६ ) बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिय तस्सेव पज्जत्ता-अपज्जत्त सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे (२४.२५)। तसकाइय-तसकाइयपज्जत्त-अपज्जत्ता पंचिदियपज्जत्त-अपज्जत्ताणं भंगो (५१)। पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । समग्घादेण केवडिखेते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे, असंखेज्जेस वा भागेसू, सव्वलोगे वा । पंचिदिय-अपज्जत्ता सत्थाणेण, समुग्धादेण, उववादेण केवडिखेते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे (२६.३१)। बादरपुढविकाइयवादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवणप्फदिकाइय-पत्तेयसरीरा, तस्सेव अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। समग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे (३४-३७)। जोगाणुवादेण पंचमणजोगि पंचवचिजोगी सत्थाणेण समग्घादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे ( ५२,५३ ) उववादं णस्थि, मणजोग-वचिजोगाणं विवक्खादो - खु० बं०,ध० टी०,पृ० ३४१ । वे उम्विमिस्सकायजोगी सत्थाणेण केवडिखेत ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। समग्घात-उववादा णत्थि (६२, ६३, ६४)। आहारकायजोगी वेउत्रियकायजोगिभंगो। वेउब्वियकापजोगीसत्थाणेण केवडिखेत्तं? लोगस्स असंखेज्जिदिभागे। उववादो णत्थि (६५, ५९-६१) आहारमिस्सकायजोगी वेउब्धियमिस्सभेगो (६६)। वेदाणवादेण इत्यिवेदा पुरिसवेदा सत्थाणेण समुग्घादेण उववावेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । ७०,७१ ) विभंगणाणिमणपज्जवणाणी सत्थाणेण समग्घादेण केवडिखेते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। उपवादं णत्थि ( ८२,८३) एदेसि दोण्हं णाणायामपज्जत्तकाले संभवाभावादो। आभिणिबोहियसुद-ओघिणाणी सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। (८४, ८५) सामाइयच्छेदोवट्रावण-सुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा सुहमसांपराइय सुद्धिसंजदा संजदासजदा मणपज्जवणाणिभंगो ( ९२)। दसणाणुवादेण चक्खुदसणी सत्थाणेण समुग्धादेण केवडिखेते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ( ९४,९५) उववादं सिया अस्थि, सिया णत्थि । द्धि पडुच्च अस्थि, णिव्वत्तिपडुच्च णत्थि। जदि लाद्ध पडुच्च णत्थि केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ( ९६,९७)। ओधिदसणी ओघिणाणिभंगो ।।९९॥ तेउ-पम्मलेस्सिया सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे (१०२, १०३)। वेदगसम्माइट्ठि-उवसमसम्माइट्ठि-सासणसम्माइट्ठी सत्थाणेण समुग्घाणेण उववादेण केवडिखेते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। सम्मामिच्छाइट्ठी सत्थाणेण केवडिखेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे (११२-११५) सणियाणुवादेण सण्णी सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत ? लोगस्स असंखेजदिभागे । ( ११७, ११८) - खुद्दाबन्धसूत्राणि । १. तिरिक्खगदीए तिरिक्खा सत्थाणेण समग्यादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? सबलोए।
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महाबंधे बंधगा सबलोगे । अबंधगा णत्थि । एवं सव्वाणं पगदीणं । णवरि तिण्णि आयु वेउबियछक्कस्स बंधगा केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेजदिभागे। अबंधगा सबलोगे । चदुआयु० दोअंगो० छस्संघ परघादुस्सा० आदाउजो० दोविहा० दोसराणं बंधगा अबंधगा केवडिखेले ? सव्वलोगे। थीणगिद्धितियं मिच्छत्त अट्ठकसा० ओरालि. बंधगा केवडिखेत्ते? सबलोगे। अबंधगा लोगस्स असंखेजदिमागे। एवं मदि० सुद० असंज० तिण्णिलेस्सा-अब्भवसिद्धि० मिच्छादि० असण्णि ति।
१८८. मणुस०३-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु. तेजाक० दोनों वेदनीयोंके बन्धक सर्वलोकमें रहते हैं ; अबन्धक नहीं हैं। इसी प्रकार सर्व प्रकृतियोंमें जानना चाहिए। विशेष यह है कि ३ आयु, वैक्रियिकषटकके बन्धक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ; अबन्धक सर्वलोकमें रहते हैं। ४ आयु, २ अंगोपांग, ६ संहनन, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, २ स्वरके बन्धक, अबन्धक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोक में। स्त्यानगृद्धि ३, मिथ्यात्व, ८ कषाय तथा औदारिक शरीरके बन्धक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोकमें रहते हैं। अबन्धक लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं।
विशेष-इनके अबन्धक देशसंयमी होंगे उनका क्षेत्र यहाँ कहा है।'
विशेषार्थ-तिर्यंचों में स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत् स्वस्थान, वेदना-कषाय-वैक्रियिकमारणान्तिक समुद्धात और उपपाद ये पद होते हैं: शेष नहीं होते हैं । तियचोंका क्षेत्र सर्व. लोक कहा है, इसपर धवलाटीकाकार कहते हैं, सर्वलोकमें तिथंच रहते हैं, क्योंकि वे अनन्त है । अनन्त होनेसे वे लोकमें नहीं समाते ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि लोकाकाशमें अनन्त अवगाहन शक्ति संभव है। विहारवत्स्वस्थान क्षेत्र तीन लोकोंके असंख्यात भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि त्रस पयोप्त तिर्यचोंका लोकके संख्यातवें भागमें विहार पाया जाता है।
वैक्रियिक समुद्धातका क्षेत्र चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि नियंचोंमें विक्रिया करनेवाली राशि पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र घनांगुलोंसे गुणित जगश्रेणी प्रमाण है, 'गुरूवदेसादो' क्योंकि ऐसा गुरुका उपदेश है । (खु० ध० पृ० ३०५)
मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, असंयम, कृष्णादि तीन लेश्या, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि तथा असंज्ञी पर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए।
१८८. मनुष्यत्रिक ( मनुष्यसामान्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनियों) में - ५ ज्ञानावरण,
१. पटखं,खे० सू०८ । २. णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी णqसयवेदभंगो ( सूत्र ८०) णवंसयवेदा सत्थाणेण समग्घादेण उववादेण केवडिखेते? सबलोए (७१, ७२)। असंजदा (९३) । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिया णीललेस्सिया काउलेस्सिया असंजदभंगो ( १०१)। भवियाणुवारेण भवसिद्धिया-अभवसिद्धिया सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? सबलोगे (१०६, १०७)। मिच्छाइट्ठी असंजदभंगो (११६)। असण्णी सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? सबलोगे। -सू० ११६, १२०, खु० ० ', पृ. ३६५।
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पयडिबंधाहियारो
२१३
आहारदुग० वण्ण०४ वगु०४ आदाउजो० णिमिणतित्थयर - पंचंतराइगाणं बंधगा केवडिखेचे ? लोगस्स असंखेजदिभागे । अबंधगा केवलिभंगो कादव्वो । सादबंधगा केवलिभंगो । अबंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागे । असादबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागे । अबंधगा केवलिभंगो । दोष्णं पगदीणं बंधगा. केवलिभंगो। अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो (गे) । इत्थि० पुरिस० णवुंसग-बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागे । अबंधगा केवलिभंगो । एवं सव्वपगदीणं वेदभंगो कादव्वो एवं पंचिंदिय-तस० तेसिं
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९ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १६ कषाय, भयद्विक, तैजस, कार्मण, आहारकद्विक, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आतप, उद्योत, निर्माण, तीर्थंकर तथा पाँच अन्तरायोंके बन्धक कितने क्षेत्र में रहते हैं' ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । अबन्धकों में केवलीके समान भंग जानना चाहिए अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग अथवा सर्वलोक है ।
विशेष - केवलीभंग में लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र दंड तथा कपाटसमुद्घातकी अपेक्षा है । असंख्यात बहुभाग क्षेत्र प्रतरसमुद्धातकी तथा सर्वलोक लोकपूरणसमुद्घातकी अपेक्षा है।
सातावेदनीयके बन्धकोंमें केवलीके समान भंग है। अबन्धकलोकके असंख्यात बें भागमें रहते हैं ।
असाताके बन्धक लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । अबन्धकों में केवलीके समान भंग है। दोनों प्रकृतियों के बन्धकों में केवलोके समान भंग है । अबन्धकों में लोकका असंख्यातवाँ भाग भंग है । स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदके बंधक लोकके असंख्यातवें भाग में पाये जाते हैं । अबंधकोंमें केवलीके समान भंग जानना चाहिए । इस प्रकार सर्व प्रकृतियों में वेदके समान भंग है।
विशेषार्थ - वेदना, कषाय, वैक्रियिक, तैजस, और आहारक समुद्घातको प्राप्त मनुष्य, मनुष्य-पर्याप्त तथा मनुष्यनी चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में रहते हैं। इतना विशेष है कि मनुष्यनियों में तैजस तथा आहारक समुद्धात नहीं होते । मारणान्तिक समुद्धातको प्राप्त उक्त तीन प्रकार के मनुष्य तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक और तिर्यग्लोक के असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि यहाँ मनुष्य अपर्याप्तकों का क्षेत्र प्रधान है । इतना विशेष है कि मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंका मारणांतिक क्षेत्र चार लोकोंके असंख्यातवें भाग तथा मानुष क्षेत्र से असंख्यातगुणा है । इसी प्रकार दण्ड और कपाट क्षेत्रोंका भी प्रमाण कहना चाहिए। इतना विशेष है कि कपाट क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है । प्रतरसमुद्धातकी अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभागों में अवस्थान होता है, क्योंकि "वादवलपसु जीवपदेसाणमभावादो" वातवलयों में जीवप्रदेशोंका अभाव रहता है । लोकपूरण समुद्धातकी अपेक्षा सर्वलोक में अवस्थान होता है, क्योंकि इस अवस्था में जीवप्रदेशोंसे रहित लोकाकाशके प्रदेशोंका अभाव है ( जीवपदेस - विरहिद- लोगागास-पदेसा भावादो ) | ( खुदाबंध, टीक पृ० ३१० ) ।
१. मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मसिणी सत्याणेण उववादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । असंखेज्जेसु वा भाएसु सव्वलोगे वा - सू० ८-१२, ० बं० । २. ६० टी०, क्षे०, पृ० ४८ ।
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महा
चैव पत्ता । एवं चैव अवगदवेद - अकसाइ० केवलणा० संजदा यथाक्खाद० केवलदंसण० सुक्कलेस्सा-सम्मादिट्ठि - खइगसम्मदिट्टि ति ।
१८६. एइंदिय - सव्वसुम० पुढवि० आउ० तेउ० वाउ० वणष्फदिणिगोदतेसिं च सव्वसुम० मणुसा० बंधगा केवडिखेने ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । अबंधगा केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे । सेसाणं सव्वे भंगा सव्वलोगे । बादर-एइंदिय-पजत्ताअपजत्ता - पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु० तिष्णिसरीर-वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचत० बंधगा सव्वलोगे । अबंधा ( धगा ) णत्थि । सादासाद - बंधगा अबंधगा केव० खेत ? सव्वलोगे । दोण्णं पगदीणं बंधगा सव्वलोगे । अबंधगा णत्थि ।
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पंचेन्द्रिय त्रस तथा उन दोनोंके पर्याप्तकों में इसी प्रकार जानना चाहिए। अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, संयम, यथाख्यात, केवलदर्शन, शुक्ललेश्या, सम्यकदृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि पर्यंत इसी प्रकार जानना चाहिए ।
१८६. एकेन्द्रिय, सर्वसूक्ष्म, पृथ्वी, जल, तेज, वायु ( ? ) वनस्पति- निगोद तथा उनके. सर्वसूक्ष्म जीवों में मनुष्यायुके बंधक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। अबंधक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोक में रहते हैं । शेष प्रकृतियोंके संपूर्ण अंगों में सर्वलोक प्रमाण क्षेत्र जानना चाहिए। बादर- एकेन्द्रिय-पर्याप्तक तथा बादर- एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, ३ शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंके बंधकोंका सर्वलोक क्षेत्र है । अबंधक नहीं हैं। साता-असाताके बंधक - अबंधक कितने क्षेत्र में पाये जाते हैं ? सर्वलोकमें। दोनोंके बंधक सर्व
१. पंचिदिय पंचिदियपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे, असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा ( सू० २६ - २९ ) तसकाइय-तसकाइय पज्जत्त-अपज्जत्ता पंचिदिय पज्जत्त अपज्जत्ताणं भंगो ( सू० ५१ ) । अवगदवेदा सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे, असंखेज्जेसु वा भागेसु, सम्बलोगे वा । उववादं णत्थि (सू०७३-७७ ) । अक्साई अवगदवेदभंगो ( ७९ ) । केवलणाणी सत्याणेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा । उववादं णत्थि ( सू० ८६ - ९० ) । संजमाणुवादेण संजदा जहावखादविहार सुद्धिसंजदा अकसाईभंगो । ( ९१ ) केवलदंसणी केवलणाणिभंगो । ( सू० १०० ) । सुक्कलेस्सिणा सत्याणेण उवत्रादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे समुग्वादेण लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा । ( सू० १०४ - १०६ ) सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी खइयसम्मादिट्ठी सत्याणेण उववादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । समुग्वादेण लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु, सव्वलोगे वा ( सू० १०९ - १११ ) । २. "तेजकाय, वायुकाय में मनुष्यायुका बंध नहीं होता ।" - गो० क०, गा० ११४ । ३. इंदियाणुवादेण एइंदिया सुहुमेइंदिया पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्याणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेते ? सव्वलोगे । - खु० बं० सू० १८, १६ । ४. बादरेइंदिया पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्याणेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स संखेज्जदिभागे समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? सव्वलोए । – सू० २२, २३ ।
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पयडिबंधाहियारो
२१५ इत्थि-पुरिस० बंधगा केवडिखेत्ते ? लोगस्स संखेज्जदिभागे। अबंधगा सव्वलोगे । णqस बंधगा केवडिखेत्त ? सव्वलोगे । अबंधगा लोगस्त संखेजदिभागे । तिण्णिवेदाणं बंधगा सबलोगे । अबंधगा णत्थि। एवं इस्थिभंगो चदुजादि-पंचसंठा० ओरालि. अंगो० छस्संघ० आदाउज्जो० दोविहा० तस-बादर-दोसर-सुभग-आदेज-जसगित्ति । णqसगभंगो एइंदि० हुंडसंठा० थावर-भग-अणादेज-अजसगित्ति । हस्सादि४ बंधगा अबंधगा सव्वलोगे । हस्सादिदोयुगलं बंधगा सव्वलोगे, अबंधगा णत्थि । एवं परघादुस्सास-पज्जत्ता-अपजत्त-पत्तेय-साधारण-थिराथिरसुभासुभा ति। तिरिक्खायु-बंधगा केवडिखेत्ते ? लोगस्स खेजदिभागे। अबंधगा सव्वलोगे। मणुसायु-बंधगा केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेजदिभागे। अबंधगा सव्वलोगे। दोआयु तिरिक्खायु-भंगो। तिरिक्खगदितियं बंधगा सव्वलोगे । अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागे । मणुसगदितियं मणुसायुभंगो। दोगदि-दोआणु पुग्वि-दोगोदं बंधगा के० खेत्ते ? सव्वलोगे । अबंधगा णत्थि । सुहुमबंधगा सव्वलोगे। अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागे। एवं पत्तेगेण साधारणेण वि वेदणीयभंगो । एवं बादरवाउ० बादरवाउ० अपजत्ताणं । एवं चेव बादरलोकमें पाये जाते हैं । अबंधक नहीं है। स्त्रीवेद, पुरुषवेदके बंधक कितने क्षेत्रमें है। लोकके संख्यातवें भागमें । अबंधक सर्वलोकमें है। नपुंसकवेदके बंधक कितने क्षेत्रमें है ? सर्वलोकमें। अबंधक लोकके संख्यातवें भागमें पाये जाते हैं । तीनों वेदोंके बंधक सर्वलोकमें पाये जाते हैं। अबंधक नहीं हैं। ४ जाति, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, बादर, दो स्वर, सुभग, आदेय, यश-कीर्ति पर्यन्त स्त्रीवेदके समान भंग जानना चाहिए। एकेन्द्रिय जाति, हुंडक संस्थान, स्थावर, दुर्भग, अनादेय, अयश कीर्ति में नपुंसकवेदका भंग जानना चाहिए । हास्यादि चारके बंधक-अबंधक सर्वलोकमें पाये जाते हैं। हास्यादि दो युगलोंके बंधक सर्वलोक पाये जाते हैं । अबंधक नहीं हैं। इस प्रकार परघात, उच्छ्वास, पर्याप्तक, अपर्याप्तक, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ पर्यन्त जानना चाहिए । तियच आयुके बंधक कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके संख्यातवें भागमें । अबंधक सर्वलोकमें पाये जाते हैं। मनुष्य आयुके बंधक कितने क्षेत्रमें पाये जाते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें ; अबंधक सर्वलोकमें पाये जाते हैं। दो आयुमें तिथंच आयुका भंग जानना चाहिए। तियंचगति त्रिकके बंधक सर्वलोकमें और अबंधक लोकके असंख्यातवें भागमें पाये जाते हैं। मनुष्यगतित्रिकमें मनुष्य आयुके समान भंग जानना चाहिए । २ गति, २ आनुपूर्वी, २ गोत्रके बंधक कितने छोत्रमें हैं ? सर्वलोकमें हैं ; अबंधक नहीं हैं । सूक्ष्मके बंधक सर्वलोकमें और अबंधक लोकके असंख्यातवें भागमें पाये जाते हैं। इस प्रकार प्रत्येक और साधारणसे वेदनीयके समान भंग जानना चाहिए।
_ विशेषार्थ-बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक, अपर्याप्तक जीवोंका क्षेत्र लोकका संख्यात भाग कहा है, उसका स्पष्टीकरण'धवला'टीकामें इस प्रकार किया गया है :
मन्दर पर्वतके मूल भागसे ऊपर शतार-सहस्रार कल्प पर्यन्त पाँच राजू ऊँची समचतुष्कोण लोकवाली वायुसे परिपूर्ण है। उसमें उनचास प्रतर राजुओंका यदि एक जगप्रतर प्राप्त होता है, तो पाँच प्रतर राजुओंका कितना जगत् प्रतर प्राप्त होगा इस प्रकार फलराशिसे
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महाबंधे
पुढवि० आउ० तेउ० बादरवणप्फदि पत्तेयाणं तेसिं चेव अपजत्ता, बादरवणप्फदिणिगोद-पजत्ता-अपजत्ता । णवरि यं हि लोगस्स संखेजदिभागोतं हि लोगस्स असंखेजदिभागों कादव्यो । बादरवाउकाइय-पजत्ते सव्वे भंगा लोगस्स संखेजदिभागे।
एवं खेत्तं समत्तं ।
मुंजित इच्छाराशिको प्रमाणराशिसे अपवर्तित करनेपर दो बटे पाँच भाग कम उनहत्तर रूपोंसे धनलोकके भाजित करनेपर लन्ध एक भाग प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः उसमें संख्यात योजन बाहल्य रूप जगप्रतर प्रमाण लोक पर्यन्त स्थित वात क्षेत्रको, संख्यात योजन बाहल्यरूप जग-प्रतर प्रमाण-ऐसे बादर जीवोंके आधारभूत आट पृथिवी क्षेत्रको और आठ पृथिवियोंके नीचे स्थिति संख्यात योजन बाहल्य रूप जग-प्रतर प्रमाण वातक्षेत्रको लाकर मिला देनेपर लोकके संख्यातवें भाग मात्र अनन्तानन्त बादर एकेन्द्रिय-पर्याप्त व बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंसे परिपूर्ण क्षेत्र होता है। इस कारण ये तीनों ही बादर एकेन्द्रिय स्वस्थानसे तीन लोकोंके संख्यात भागमें एवं मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यात गुणे छोत्रमें रहते हैं, ऐसा कहा है। -खु० बं०, पृ० ३२२, ३२३ ।
'बादर वायुकायिक (पर्याप्तकों) और बादर वायुकायिक अपर्याप्तकोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। बादर पृथ्वीकायिक, बादर अपकायिक, बादर तेजकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, प्रत्येक तथा इनके अपर्याप्तकोंमें एवं बादर वनस्पतिकायिक-निगोदके पर्याप्त-अपर्याप्त भेदोंमें इसी प्रकार जानना जाहिए। इतना विशेष है कि जहाँ लोकका संख्यातवाँ भाग कहा है, वहाँ लोकका असंख्यातवाँ भाग करना चाहिये। 'बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंमें सम्पूर्ण भंग लोकसे संख्यातवें भाग जानना चाहिए।
इस प्रकार क्षेत्र प्ररूपणा समाप्त हुई।
१. बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवणप्फदिकाइय-पत्तेयसरीरा तस्सेव अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। समग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते? सव्वलोगे। २. बादरपुढविकाइया बादराउकाइया बादरतेउकाइया बादरवणप्फदिकाइय-पत्तेयसरीरपज्जत्ता सत्थाणेण समग्घादेण उववादेण केवडिखेते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। बादरवाउकाइया तस्सेत्र अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेत्ते : लोगस्स असंखेज्जदिभागे। समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते? सबलोगेवणप्फदिकाइय-णिगोदजीवा सुहमवणप्फदिकाइय-सुहमणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्त-अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? सम्बलोए । बादर-वणफदिकाइया बादर-णिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्ता अपनत्ता सत्याणेण केवडिखेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते? सब्बलोए।-३४-४६ सूत्र,खु० बं०। ४. बादरवाउपज्जत्ता सत्याणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स संखेज्जदिभागे।
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[ फोसागमपरूवणा ]
१६०. फोसणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओवेग
[ स्पर्शनानुगम ]
१०. ओघ तथा आदेश से स्पर्शानुगमका दो प्रकार निर्देश करते हैं ।
विशेषार्थ - स्पर्शन के छह भेद कहे हैं - णामफोसणं, ठवणफोसणं, दवफोसणं, खेतफोसणं, कालफोसणं, भावफोसणं वेदि छव्विहं फोसणं'- नाम स्पर्शन, स्थापना स्पर्शन, क्षेत्र स्पर्शन, काल स्पर्शन, भाव स्पर्शन ये स्पर्शनके छह प्रकार हैं। इन छह स्पर्शनों में से यहाँ किस स्पर्शनसे प्रयोजन है ?
समाधान - "पदेसु फोसणेसु जीवस्खेसकोसणं पयदं' – इन स्पर्शनोंमें से यहाँ जीव द्रव्य सम्बन्धी क्षेत्र स्पर्शन प्रकृत है। शेष द्रव्योंका आकाशके साथ जो संयोग है वह क्षेत्र स्पर्शन है।
शंका-अमूर्त आकाश के साथ शेष अमूर्त और मूर्त द्रव्योंका स्पर्श कैसे संभव है ?
समाधान - वह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अवगाह्य अवगाहक भावको ही उपचार से स्पर्श संज्ञा प्राप्त है। अथवा सत्व, प्रमेयत्व आदि के द्वारा मूर्त द्रव्यके साथ अमूर्त द्रव्यों की परस्पर समानता होनेसे भी स्पर्शका व्यवहार बन जाता है। (जी० फो० टी० )
पूज्यपाद स्वामीने स्पर्शनको त्रिकाल गोचर कहा है, किन्तु 'धवला टीकाकारने लिखा है - जो भूतकाल में स्पर्श किया गया और वर्तमान में स्पर्श किया जा रहा है, वह स्पर्शन कहलाता है । (अस्पर्शि, स्पृश्यत इति स्पर्शनम् )
सब द्रव्योंको निवासभूमि प्रदान करनेकी क्षमता आकाश द्रव्यमें है । यद्यपि एवंभूतनकी अपेक्षा सर्व द्रव्य स्वप्रतिष्ठ हैं; किन्तु धर्मादिका अधिकरण आकाश है यह कथन व्यव हार नयसे किया गया है। जैसे कहा जाता है "क' भवानास्ते ?" आप कहाँ रहते हैं ? 'आत्मनि' - मैं अपनी आत्मामें रहता हूँ, क्योंकि एक वस्तुकी अन्य वस्तुमें वृत्ति नहीं पायी जाती है। यदि एक वस्तुकी अन्य पदार्थ में वृत्ति हो, तो आकाशमें ज्ञानादिक तथा रूपादिककी वृत्ति हो जाये (स० सि०५८ )
व्यक्ति का नया पक्ष पकड़ता है, वह तत्त्रको नहीं समझ पाता है। पूज्यपाद स्वामी इन सप्त नयोंपर विवेचन करते हुए कहते हैं "एते गुणप्रधानतया परस्परतन्त्राः सम्यग्दर्शनहेतवः स्वतन्त्राश्चासमर्थाः" (स० सि० पृ० ५९ ) ये नय मुख्य तथा गौणरूपता धारण करते हुए सम्यग्दर्शन के हेतु हैं । स्वतन्त्रता धारण करनेपर ये असमर्थ हो जाते हैं । इसीसे सर्व द्रव्योंको अवकाश देनेवाले आकाश द्रव्यके विषयमें कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं : .
१. धर्मादीनां पुनरधिकरणमाकाशमित्युच्यते व्यवहारनयवशात् । एवंभूतनयापेक्षया तु सर्वाणि द्रव्याणि स्वप्रतिष्ठान्येव तथा चोक्तं क्व भवानास्ते ? आत्मनीति धर्मादीनि लोकाकाशान बहिः सन्तीत्येतावदत्राधाराधेयकल्पना साध्यं फलम् । - स० सि० पृ० १२९ अध्याय ५, सूत्र १२ । यथा वा भवानास्ते ? आत्मनीति कुतः ? वस्त्वन्तरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्तिः स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्तिः स्यात् - ( पृ० ५८, स० सि०अ० १ सू० ३३ ) ।
२८
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महाबंधे
२१८ पंचणा० छदंसणा० अट्ठक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतराइगाणं बंधगेहि केवडियं खेत्त फोसिदं ? सव्वलोगो । अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, असंखेज्जा वा भागा वा, सव्वलोगो वा। सादबंधगा अबंधगा कैवडि[यं खेत फोसिदं ? सव्वलोगो। असादबंधगा अबंधगा केवडि खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो।
सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पोग्गलाणं च । जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि आयासं MEDIपंचास्तिकाय ।
जो सर्व जीवोंको, पुद्गल आदि शेष द्रव्योंको स्थान देता है, वह समस्त आकाश इस लोकमें होता है।
इस स्पर्शनानुयोगद्वारको लक्ष्य कर धवलाकार यह शंका-समाधान करते हैं:
शंका-यहाँ स्पर्शनानुयोग द्वार में वर्तमानकाल सम्बन्धी क्षेत्रकी प्ररूपणा भी सूत्रनिबद्ध ही देखी जाती है, इसलिए स्पर्शन अतीत काल विशिष्ट क्षेत्रका प्रतिपादन करनेवाला नहीं है ? किन्तु वर्तमान और अतीतकालसे विशिष्ट क्षेत्रका प्रतिपादन करनेवाला है।
समाधान-यहाँ स्पर्शनानुयोगद्वारमें वर्तमानक्षेत्रकी प्ररूपणा नहीं की जा रही है, किन्तु पहले क्षेत्रानुयोगद्वार में प्ररूपित उस उस वर्तमान क्षेत्रको स्मरण कराकर अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्र के प्रतिपादनार्थ उसका ग्रहण किया गया है। अतएव स्पर्शनानुयोग द्वार अतीतकालसे विशिष्ट क्षेत्रका ही प्रतिपादन करनेवाला है यह सिद्ध हुआ। (जी० फो० टीका पृ० १४६ )
ओघसे-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, प्रत्याख्यानावरणादि ८ कषाय, भयजुगुप्सा, तैजस-कार्माण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तरायके बन्धकोंने कितना क्षेत्र स्पर्शन किया है ? सर्वलोक स्पर्शन किया है। अबन्धकोंने लोकका असंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग वा सर्वलोक स्पर्शन किया है ।।
विशेषार्थ-ज्ञानावरणादिके अबन्धक उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय तथा अयोगकेवलीकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन कहा है। सयोगकेवलीकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग है। प्रतरसमुद्धातगत सयोगकेवलीकी अपेक्षा लोकका असंख्यात बहुभाग तथा लोकपूरण समुद्धातकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्शन है।
साताके बन्धकों-अबन्धकोंने कितना क्षेत्र स्पर्शन किया है ? सर्वलोक । असाताके
१. त्रिकालविषयार्थोपश्लेषणं स्पर्शनं मतम् । क्षेत्रादन्यत्वभाग्वर्तमानार्थश्लेषलक्षणात् ॥४१॥" - त० श्लो०,पृ० १६० । 'एदेसु फोसणेसु जीवखेत्तफोसणेण पयदं । अस्पर्शि स्पृश्यत इति स्पर्शनम् । फोसणस्स अणुगमो फोसणाणुगमो, तेण फोसणाणुगमेण । णिद्देसो कहणं वक्खाणमिदि एयट्ठो। सो दुविहो जहा पयई । ओघेण पिंडेण अभेदेणेत्ति एयट्ठो । आदेसेण भेदेण विसेसेणेत्ति समाणट्ठो।"-ध० टी०,फो०,पृ. १४४, १४५। क्षेत्रं निवासो वर्तमानकालविषयः । तदेव स्पर्शनं त्रिकालगोचरम् स. सि०,५-१० । निर्मातसंख्यस्य निवासविप्रतिपतेः क्षेत्राभिधानम् । अवस्थाविशेषस्य वैचित्र्यात त्रिकालविषयोपश्लेष निश्चयार्थ स्पर्शनम् । अवस्थाविशेषो विचित्रस्त्रयस्र - चतुरानादिस्तस्य त्रिकालविषयमपश्लेषगां स्पर्शनम् । कस्यचित क्षेत्रमेव स्पर्शनं कस्यचित् द्रव्यमेव, कस्यचिद्रज्जव: षडष्टी वेति । एक-सर्वजीवसन्निधो तनिश्च या तदुच्यते-त०रा०पू०२०। २. “पमत्तसंजदप्पहड़ि जाव अजोगिकेवली हि केवडियं खेतं फोसिदं ? होगस्स असंखेज्जदिभागो सजोगिकेपछी हि केडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जा वा भागा, सव्वलोगो वा ।"-षटर्ख०,फो०,सू० १७०, १७२ । “पंदरगदो केवली केवडिखेत्ते ? लोगस्स मसंखेज्जेसु भागेसु । लोगपूरणगदो केवली केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे।"-ध० टी०,फो०,पृ० ५०, ५४ ।
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पडबंधाहियारो
२१६
दोष्णं पगदीणं बंधगा सव्वलोगो, अबंधगा लोगस्स असंखेज दिमागों । श्रीणगिद्धितिय - अनंता ०४ बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा अट्ठचोहसभागा वा केवलिभंगो । मिच्छत्तबंधगा सव्वलोगो, अबंधगा अट्ठबारस- चोहसभागा वा केवलिभंगो वा । अपच्चक्खाणा० ४ बंधगा सव्वलोगो, अबंधगा छचोदसभागा वा केवलिभंगं च । इत्थि० पुरिस०
बन्धकों, अबन्धकोंने कितना क्षेत्र स्पर्शन किया है ? सर्वलोक । दोनों प्रकृतियोंके बन्धकोंने सर्वलोक स्पर्श किया है । अबन्धकोंने लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है ।
विशेष- दोनोंके अबन्धक अयोग केवलियों की अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग है । त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंके सर्वलोक, अबन्धकोंके अष्ट चतुर्दश भाग अर्थात् १४ अथवा केवली भंग है । अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग अथवा सर्वलोक है ।
विशेषार्थ - स्त्यानगृ द्धित्रिक तथा अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयत- सम्यग्दृष्टि जीवोंकी अपेक्षा भाग कहा है । विहारवत्-स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैकिक समुद्घातकी अपेक्षा मिश्र गुणस्थानवर्ती जीवोंने देशोन १४ भाग स्पर्श किया है । विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टियोंने ऊपर ६ राजू तथा नीचे दो, इस प्रकार देशोन १४ भाग स्पर्श किया है। मिश्रगुणस्थानमें मरणका अभाव होनेसे मारणान्तिक समुद्घातका वर्णन नहीं किया गया है । (० टी० पृ० १६६, १६७ ) ।
मिध्यात्व के बन्धकोंने सर्वलोक स्पर्शन किया है। अबन्धकोंमें ४, १४ अथवा केवलीभंग अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग अथवा सर्व लोक है ।'
विशेषार्थ - मिथ्यात्व के अबन्धक सासादन सम्यक्त्वी जीवोंने विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक समुद्धातकी अपेक्षा देशोन भाग स्पर्श किया है। मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा १३ भाग स्पर्श किया है। यह इस प्रकार है कि सुमेरु पर्वत के मूलभागसे लेकर ऊपर ईषत्प्राग्भार पृथ्वी तक सात राजू होते हैं और नीचे छठी पृथ्वी तक ५ राजू होते हैं । इस प्रकार भाग है। सातवीं पृथ्वी में मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही मरण होनेसे छठवी पृथ्वी तकका ही उल्लेख किया गया है । ( ध० टी०, पृ० १६२ )
अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंने सर्वलोक, अबन्धकोंने
भाग वा केवलीभंग प्रमाण
क्षेत्र स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ - अप्रत्याख्यानावरण ४ के अवन्धक देशसंयमी जीवोंने अतीत कालकी अपेक्षा मारणान्तिक समुद्धातकी दृष्टिसे देशोन भाग स्पर्श किया । यहाँ सुमेरुसे नीचे के एक हजार योजनसे और आरण-अच्युत विमानोंके उपरिम भागसे कम करना चाहिए ( पृ० १७० ) पूर्व में वर्तमानकाल विशिष्ट क्षेत्रका प्ररूपण किया जा चुका है, इसलिए यह सूत्र ( ८ ) अतीत काल सम्बन्धी है, यह बात जानी जानी है, किन्तु यह अनागत अर्थात् भविष्यकाल सम्बन्धी नहीं है; क्योंकि उसके साथ व्यवहारका अभाव है । अथवा पीछेके सभी सूत्र अतीत
१. ओघेणमिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेनं फोसिदं ? सन्त्रलोगो | सासणसम्मादिट्टीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ट-बारह वोट्सभागा वा देसूणा । सम्मामिच्छाइट्टि असंजदसम्म इट्टी हि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठचोट्सभागा वा देसूणा - जी २, फो०, सू० २-६ ।
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२२०
महाबंचे
णवुंसग० बंधगा अबंधगा सव्वलोगो । तिष्णं वेदाणं बंधगा सव्वलोगो, अबंधगा केवलिभंगो । वेदाणं भंगो हस्मादिदोयुगलं पंचजादि छस्संठा • तसथावरादिणवयुगलं दोगोदं च । वेदणीयायु (?) आहारदुग-बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, अबंधगा सव्वलोगो । तिरिक्खायुबंधगा अबंधगा सव्वलोगो । मणुसायुबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, अट्ठचोदसभागा वा सव्वलोगो वा । अबंधगा सव्वलोगो । चदुआयुबंधगा अबधगा केव खेत्त फोसिदं ? सव्वलोगो । णिरयदेवगदिबंधगा के० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, छचोदसभागा वा । अबंधगा सव्वलोगो । तिरिक्खमणुसदिबंधा अबंधगा सव्वलोगो । चदुर्गादिबंधगा सव्वलोगो । अबंधगे केवलिभंगो । और शिष्ट क्षेत्रोंकी प्ररूपणा करनेवाले हैं, ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि भूतकाल और भविष्यकालमें स्पर्शनकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। धवलाटीकाके ये शब्द महत्त्वपूर्ण हैं " अधवा अदीदाणागद काल विसिखेत्ताणं परूवणाणि पच्छिमन्त्रसुत्ताणि ति णिच्छु काव्वो उभयत्थ विसेसाभावादो” घ० टी०, पृ० १६८ । इस कथनने सर्वार्थसिद्धि आदिके आर्ष वाक्योंका समर्थन कर दिया है, जिनमें "स्पर्शनं त्रिकालगोचरम् " स्पर्शनको त्रिकाल गोचर कहा गया है ।
स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद के बन्धकों, अबन्धकोंने सर्वलोक स्पर्शनं किया है। तीनों वेदों बन्धोंने सर्वलोक स्पर्श किया है। इनके अबन्धकोंमें केवली के समान भंग है ।
विशेषार्थ - स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेदके अबन्धकोंका प्रत्येक वेदकी अपेक्षा अबन्धकोंके सर्वलोक स्पर्शन कहा है, कारण यहाँ एक वेदका अबन्ध होते हुए अन्य वेदका बन्ध हो जाता है । वेदत्रयके अबन्धक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानसे अयोगकवली पर्यन्त हैं । उनकी अपेक्षा केवली भंग अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग अथवा सर्वलोक स्पर्श कहा है।
हास्य, रति, अरति, शोक, एकेन्द्रियादि पंच जाति, ६ संस्थान, त्रस स्थावरादि नवयुगल तथा २ गोत्रमें वेदके समान भंग है । वेदनीय, आयु, आहारकद्विकके बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग है; अबन्धकोंके सर्वलोक है । तियंचायुके बन्धकों अबन्धकोंके सर्वलोक है। मनुष्यबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग, १४ वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके सर्वलोक है ।
विशेष—यहाँ ऊपरके ६ राजू तथा नीचेके २ राजू इस प्रकार १४ राजू स्पर्शन हैं ।
चार आयु बन्धकों, अबन्धकोंने कितना क्षेत्र स्पर्शन किया है ? सर्वलोक । नरकगति, देवगति के बन्धकोंने कितना क्षेत्र स्पर्शन किया है ? लोकका असंख्यातवाँ भाग वा भाग हैं | अबन्धकोंके सर्वलोक है ।
विशेष - यहाँ सप्तम नरकके स्पर्शनकी अपेक्षा नरकगतिका स्पर्शन ४ है तथा सोलहवें स्वर्गके स्पर्शनकी अपेक्षा देवगतिका स्पर्शन कहा है ।
तिर्यंचगति मनुष्यगति के बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वलोक है । चारों गतियोंके बन्धकोंका
१. ' असं जदसम्माट्ठीहि विहारवादसत्थाण- वेदणकसाय - वेउब्विय मारणंतियसमुग्धादगदेहि अट्ठचोद भागा देणा फोसिदा उवरि छ रज्जू, हेट्ठा दो रज्जू ति ।" ध० टी०, फो०, पृ० १६७ ।
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पयडिबंधाहियारो
... २२१ एवं चदुआणुपुब्बि० । ओरालि० बंधगा सबलोगो। अबंधगा बारहचोइसभागो वा, केवलिभंगं च । वेउब्वियस० बंधगा बारह० । अबंधगा सव्वलोगो । दोणं बंधगा सबलोगो। अबंधगा केवलिभंगो। ओरालिय. अंगो० बंधगा अंबंधगा सव्वलोगो । वेउब्बिय० अंगो० बंधगा बारहभागा वा । अबंधगा सव्वलोगो । दोअंगो० बंधगा अबंधगा सव्वलोगो । छस्संघ० परघादुस्सा. आदाउजो० दोविहा० दोसरबंधगा अवंधगा सव्वलोगो । तित्थय० बंधगा अट्टचोद्दसभागो वा । अबंधगा सव्वलोगो।
__ १६१. आदेसेण-गेरइएसु धुविगाणं बंधगा छचोदसभागो, अबंधगा णत्थि । सर्वलोक है। अबन्धकोंका केवली भंग है। चार आनुपूर्वी में इसी प्रकार जानना चाहिए। औदारिक शरीरके बन्धकोंका सर्वलोक है। अबन्धकोंके १ भाग, वा केवली भंग है। वैक्रियिक शरीर के बन्धकोंका १३ भाग, अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनों शरीरोंके बन्धकोंका सर्वलोक है, अबन्धकोंका केवली भंग है ।
विशेष-औदारिक शरीरका बन्ध चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त, वैक्रियिक शरीरका अपूर्वकरण छठे भाग पर्यन्त बन्ध होता है। दोनोंके अबन्धकोंके अयोगिकेवली पर्यन्त लोकका असंख्यात वाँ भाग है, सयोगी जिनकी अपेक्षा लोकका असंख्यात बहुभाग तथा सर्वलोक भी भंग है।
औदारिक अंगोपांगके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक है। वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंका ३४ है, अबन्धकोंके सर्वलोक है । दोनों अंगोपांगोंके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक है।
विशेष-वैक्रियिक शरीरके बन्धकों तथा औदारिक शरीरके अबन्धकोंका स्पर्शन ११ कहा है, किन्तु उसी प्रकार वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकों तथा औदारिक अंगोपांगके अबन्धकोंका १४ नहीं कहा है। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार औदारिक शरीरका अबन्धक वैक्रियिक शरीरका बन्धक होता है अथवा वैक्रियिक शरीरका अबन्धक औदारिकका बन्धक होता है वैसा नियम औदारिक अंगोपांग और वैक्रियिक अंगोपांगका नहीं है। एकेन्द्रियमें अंगोपांगका अभाव होनेसे शरीरके समान यहाँ व्याप्ति नहीं है। ___छह संहनन, परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, दो स्वरके बन्धकों. अबन्धकोंका सर्वलोक स्पर्शन है। तीथकर प्रकृतिके बन्धकोंका र है। अबन्धकोंका सर्वलोक है।
विशेष-तीर्थकर प्रकृतिके बन्धक अविरतसम्यक्त्वीको अपेक्षा ६ कहा है । विहार'. वत् स्वस्थान, वेदना-कषाय वैक्रियिक-मारणान्तिक समुद्धात गत असंयतसम्यक्त्वी जीवोंमें मेरुके मूलसे ऊपर छह राजू तथा नीचे दो राजू प्रमाण स्पर्शन किया है (ध. टी.,पृ. १६७)।
१६१. आदेशसे-नारकियोंमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंके ४ है; अबन्धक नहीं है।
विशेष-मारणान्तिक समुद्भात तथा उपपाद पदवाले मिध्यादृष्टि नारकियोंने अतीत काल में कर स्पर्श किया है। (पृ० १७५) सातवीं पृथ्वीके नारकीकी मारणान्तिक समुद्धात अथवा उपपादकी अपेक्षा कर्मभूमिया संज्ञी मनुष्य या तियचपर्याप्तपर्याय प्राप्तिकी दृष्टिसे छ राजू
१. असंजदसम्माइट्ठीहि विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउन्वियमारणंतिय समुग्धादगदेहि अट्टचोड्सभागा देसूणा फोसिदा । उवरि छ रज्जू हेट्ठा दोरज्जु त्ति -ध० टी०,पृ०१६७।
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२२२
महाबंधे थीणगिद्धितिय-अणंताणु०४ बंधगा छच्चोदसभागो, अबंधगा खेत्तभंगो। सादासाद - बंधगा-अबंधगा छचोइसभागो । दोण्णं पगदीणं बंधगा छचोदसभागो, अबंधगा णत्थि। एवं सत्तणोक० छस्संठा-छस्संघ० दोविहा० थिरादिछयुगलं । मिच्छत्तबंधगा छच्चोइसभागो, अबंधगा पंचचोद्दसभागो। दोआयु० खेत्तभंगो । अबंधगा बच्चोदसभागा । एवं तित्थयरं । तिरिक्खगदिबंधगा छच्चोइस०, अबंधगा खेत्तभंगो। मणुसगदिबंधगा खेतभंगो । अबंधगा छच्चोइस० । दोण्णं पगदिबंधगा छच्चोदस० । अबंधगा णस्थि । एवं दोआणुपुव्वि दोगोदं च । उज्जोव० बंधगा अबंधगा छच्चोदस० । एवं सव्वणेरइयाणं। स्पर्शन है । ध्रुव प्रकृतियोंका सभी नारकी बन्ध करते हैं, अतः ध्रुव प्रकृति के बन्धकोंका स्पर्श कहा है।
स्त्यानगृद्धित्रिक तथा अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंके 4 भाग हैं, अबन्धकों के क्षेत्रके समान भंग हैं । अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है । साता, असाताके बन्धकों,अबन्धकोंके पर हैं। दोनों प्रकृतियोंके बन्धकोंके छ हैं; अबन्धक नहीं हैं।
विशेष-नरकगतिमें साता अथवा असाताके पृथक्-पृथक रूपसे अबन्धककी अपेक्षा कर भाग कहा है। इसका अर्थ यह है कि साताके अबन्धक,किन्तु असाताके बन्धक अथवा असाताके अबन्धक,किन्तु साताके बन्धक जीवोंका सप्तम पृथ्वीकी अपेक्षा कर भाग है।।
भयद्विक बिना सात नोकषाय, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, स्थिरादि छह युगलमें इसी प्रकार है । मिथ्यात्वके बन्धकोंके व भाग है । अबन्धकोंके १४ भाग है।
विशेष-मिथ्यात्वके अबन्धक सासादन सम्यक्त्वी जीवों की अपेक्षा छठी पृथ्वीको दृष्टिसे मारणान्तिक समुद्रातमें ५४ भाग है । सातवीं पृथ्वीमें मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही मरण करता है, अत: उसकी यहाँ अपेक्षा नहीं की गयी है।
दो आयु (मनुष्य-तिर्यंचायु) के बन्धकोंके क्षेत्रवत् भंग है अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है। अबन्धकोंके 4 भाग है। तीर्थकर प्रकृतिके बन्धकों के लोकका असंख्यातवाँ भाग, अबन्धकोंके कर भाग है।
तिर्यंचगतिके बन्धकों के भाग है। अबन्धकोंके क्षेत्रवत् भंग है। मनुष्यगति के बन्धकोंके क्षेत्रसमान भंग है। अबन्धकोंके व भाग है। दोनों के बन्धकोंके कर भाग है। अबन्धक नहीं है । दो आनुपूर्वी ( मनुष्य-तिर्यंचानुपूर्वी ) तथा २ गोत्रों में भी इसी प्रकार भंग है। उद्योतके बन्धकों,अबन्धकोंका ४ भाग है।
इस प्रकार सर्व नारकियोंमें जानना चाहिए। विशेष, अपना-अपना स्पर्शन निकाल लेना चाहिए।
१. "णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छादिट्ठोहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, छ घोड्सभागा वा देखणा ।"-षट्खं०,फोसू० ११.१२। २. "सम्मामिच्छिादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं क्षेत्तं फोसिदं ? लोगल्स असंखेज्जदि भागो।'-षदखं०, फोसू० १३, १४, १५ । ३. "विदियादि जाव छट्ठीए पुढवीए णेरइएसु मिच्छादिट्ठिसासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तौंफोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। का सिण्णि चत्तारि पंच चोट्सभागा वा देसूणा ।" -घटखं०, फो०,सू० १७.२८ । ४. णेरइएसु सव्वेभंगा लोगस्स असंखेज्जदिभागे-खेत्ताणुगम०,पृ०.१८७।
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पयडिबंधाहियारो
२२३ णवरि अप्पप्पणो फोसणं कादव्वं । सत्तमीए मिच्छ अबंधगा खेत्तभंगो।
१६२. तिरिक्खाणं धुविगाणं बंधगा सबलोगे। अबंधगा णस्थि । [थीणगिद्धितिय] अट्ठकसा० बंधगा सबलोगो, अबंधगा छच्चोइस० । सादासाद-बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। दोण्णं पगदीणं बंधगा सबलोगो। अबंधगा णस्थि । एवं तिण्णिवे० दोयुग० पंचजादिछसंठाणं तसथावरादिणवयुगल-दोगोदं । मिच्छत्त-बंधगा
विशेष छठी पृथ्वीमें देशोन, पाँचवीं पृथ्वीमें देशोन, चौथी में देशोन, तीसरीमें देशोन २१, दूसरीमें देशोन तथा पहली पृथ्वीमें लोकका असंख्यातवाँ भाग मिथ्यात्व,सासादन गुणस्थानमें स्पर्शन कहा है। मिश्र तथा अविरत सम्यग्दृष्टियोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग बताया है । इस स्पर्शनको ध्यानमें रखकर भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के बन्धकोंअनन्धकोंके विषयमें यथायोग्य योजना करनी चाहिए।
सातवीं पृथ्वीमें-मिथ्यात्वके अबन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है । अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वके बन्धकोंका स्पर्शन सातों पृध्वियों में लोकका असंख्यातवाँ भाग भी कहा है । सातवीं पृथ्वीमें भाग देशोन भी स्पर्श है। . १९२. तिथंचोंमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सर्वलोकमें हैं; अबन्धक नहीं हैं। [स्त्यानगृद्धित्रिक ] अनन्तानुबन्धी ४ तथा अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंका सर्वलोक स्पर्शन है । अबन्धकोंकाक भाग है।
विशेषार्थ-कषायाष्टकके अबन्धक देशसंयत तिर्यचोंके मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा अच्युत स्वर्गके स्पर्शनकी दृष्टि से पट भाग कहा है।
स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना समुद्भात, कषाय, मारणान्तिक समुद्धात तथा उपपाद पदोंसे अतीत कालमें तिर्यंच जीवों-द्वारा सर्वलोक स्पृष्ट है। क्योंकि वर्तमान कालके समान अतीत कालमें भी तिथंच जीवोंका सर्वलोक में अवस्थान पाया जाता है। विहारकी अपेक्षा अतीत कालमें तीन लोकोंका असंख्यातवाँ भाग, तियेग्लोकका संख्यातवाँ भाग और मनुष्य क्षेत्रसे असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पष्ट है।
शंका-असंख्यात समुद्रोंके त्रसजीवोंसे रहित होनेपर वहाँ विहार करनेवाले त्रस' जीवोंकी सम्भावना कैसे हो सकती है ?
____ समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पूर्व वैरी देवोंके प्रयोगसे विहार होने में कोई विरोध नहीं है । तत्थ पुव्व-वहरिय-देवाणं पओएण विहारे विरोहाभावादो ( खु० बं०टी० पृ० ३७५)
साता, असाताके बन्धकोंके सर्वलोक है। दोनोंके बन्धकोंके सर्वलोक है ; अबन्धक नहीं है। तीन वेद, हास्य-रति, अरति-शोक, ५ जाति, ६ संस्थान, त्रस स्थावरादि : युगल
१. "सत्तमाए पुढवीए णेरइएसुसासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठोहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो।" -षटखं०,फोसू०२२। २. फोसणाणुगमेण गदियावादेण णिरयगदीए रइएहि सत्थाणेहि केवडियं खेत्त फोसिदं ? लोगस्स असंखेन्जदिभागो। माघादउववादेहि 'लोगस्स असंखेज्जदिभागो छच्चोइसभागा वा देसूणा। पढमाए पुढवीए रइया सत्थाणसमग्याद-- उववादपदेहि "लोगस्स असंखेजदिभागो विदियाए जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया सत्थाणेहि "लोगस्स असंखेज्जदिभागो। समुग्धाद-उववादेहि य केवडि : खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्ज दिभागो। एग वे तिण्णि चत्तारि पंच छ चोद्दसभागा वा देसूणा । -खु० ब०,सू०१-११ । ३ "असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेजदिभागो, छच्चोहसभागा वा देसूणा।" -षट्खं०,फो०,सू० २७, २८ ।
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महाबंधे सव्वलोगो। अबंधगा सत्तचोदसभागो वा । तिण्णि आयुखेत्तभंगो। मणुसायुबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो सव्वलोगो वा। अबंधगा सबलोगो। चदुण्णं आयुबंधगा अबंधगा सव्वलोगो। णिरयगदिदेवगदिबंधगा छच्चोद्दसभागो। अबंधगा सव्वलोगो। तिरिक्ख-मणुसगदिबंधगा अबंधगा सव्वलोगो। चदुण्णं पगदीणं बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा णस्थि । ओरालिय० बंधगा० सव्वलोगो । अबंधगा वारहचोइस० । वेउवि० बंधगा बारह-चोहसभागो वा । अबंधगा सबलोगो। दोण्णं पगदीणं बंधगा सचलोगो। अबंधगा णत्थि । ओरालि० अंगो० बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। वेउवियअंगो. बंधगा बारहचोद्दसभागो। अबंधगा सव्वलोगो। दोण्णं पगदीणं बंधगा अबंधगा सबलोगो ।छस्संघ० दोविहा० दोसर० पत्तेगेण साधारण वि खेत्तमंगो।
तथा दो गोत्रोंमें इसी प्रकार है।' मिध्यात्वके बन्धकोंका सर्वलोक है। अबन्धकोंकार भाग है।'
विशेष-मारणान्तिक समुद्भातकी अपेक्षा मिथ्यात्वके अबन्धक सासादन सम्यक्त्वी जीवोंके १४ भाग स्पर्शन है।
नरक-तियंच-देवायुका क्षेत्रके समान भंग है। मनुष्यायुके बन्धकोंका लोकका असं. ख्यातवाँ भाग, वा सर्वलोक भंग है। अबन्धकोंका सर्वलोक है। चारों आयुके बन्धकोंअबन्धकोंका सर्वलोक है। नरकगति, देवगतिके बन्धकोंका है। अबन्धकोंका सर्वलोक है। तियंचगति मनुष्यगतिके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक है। चारों गतियोंके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धक नहीं हैं। औदारिक शरीरके बन्धकोंका सर्वलोक है, अबन्धकोंका भाग है । वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंका १३ है, अबन्धकोंका सर्वलोक है।
विशेष-वैक्रियिक शरीरके बन्धक तियंचोंका अच्युत स्वर्ग तथा सप्तम नरकके स्पर्शनकी अपेक्षा ११ भाग कहा है।
__ औदारिक-वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंका सर्वलोक है; अबन्धक नहीं है। औदारिक अंगोपांगके बन्धकों-अबन्धकोंका सर्वलोक है । वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंका १३ भाग है। अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनों प्रकृतियोंके बन्धकों-अबन्धकोंका सर्वलोक है।
विशेष-जिस प्रकार वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंका ३३ है, उसी प्रकार वैक्रियिक अंगोपांगका भी वर्णन है, किन्तु औदारिक शरीरके समान औदारिक अंगोपांगका वर्णन नहीं है । कारण, एकेन्द्रियोंमें औदारिक अंगोपांगके अभावमें भी औदारिक शरीर पाया जाता है, किन्तु वैक्रियिक शरीरके साथ वैक्रियिक अंगोपांगका सदा सम्बन्ध पाया जाता है । इस कारण इनका स्पर्शन तुल्य है तथा औदारिक शरीर एवं औदारिक अंगोपांगका स्पर्शन समान नहीं कहा गया है।
छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वरका प्रत्येक तथा सामान्यसे क्षेत्रवत् भंग है
१. तिरिक्खगदीए तिरिक्खा सत्याण-समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? सबलोगो -खु००,सू०१२,१३। २. "तिरिक्खेसु""सासणसम्माविट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेन. दिभागो, सत्तचोद्दसभागो वा देसूणा ।" -षटूखं०,फो०,स० २३, २५ ।
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पंयडिबंधाहियारो
२२५ आणुपुव्वि-गदिभंगो। परघादुस्सा० आदाउजो० बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। पंचिंदिय तिरिक्ख०३-धुविगाणं बंधगा तेरह-चोद्दसभागा वा सबलोगो वा । अबंधगा णस्थि । थीणगिद्धि-तियं अट्ठकसा० बंधगा तेरहचोदस०, सबलोगो वा । अबंधगा छच्चोइसभागो वा । मिच्छ० बंधगा तेरहचोद्दस० सबलोगो वा। अबंधगा सत्तचोदसभागो वा देसूणा। सादबंधगा सत्तचोद्दसभागो वा सबलोगो वा । अबंधगा तेरह
अर्थात् बन्धकों तथा अबन्धकोंका सर्वलोक स्पर्शन है। आनुपूर्वीमें गति के समान भंग है।
विशेष-नरक देवानुपूर्वीके बन्धकोंके पर है । अबन्धकोंके सर्वलोक हैं। परघात, उच्छवास, आतप, उद्योतके बन्धकों-अबन्धकोंका सर्वलोक है।
पंचेन्द्रियतियंच, पंचेन्द्रियतियंच-पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-तिर्यच-योनिमतीमें-ध्रुवप्रकृतियों के बन्धकोंका १३ भाग वा सर्वलोक है। अबन्धक नहीं है।
विशेष-सातवीं पृथ्वीके नारकीने उपपाद द्वारा पंचेन्द्रियतिथंचोंकी भूमि मध्यलोकका स्पर्श किया, पश्चात् तियचरूपसे काल व्यतीत कर लोकाग्रमें जाकर बादर, पृथ्वी, जल, वनस्पतिकायिकोंमें जन्म धारण किया, इस प्रकार १३ राजू हुए। सप्तम नरकके नारकी जीवने जब तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्यायके निमित्त प्रस्थान किया, तब तिर्यंचायुका उदय आ जानेसे वह जीव तियंचसंज्ञाका पात्र हो गया।
स्त्यानगृद्धित्रिक तथा अनन्तानुबन्धी आदि ८ कषायके बन्धकोंके १३ भाग, वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके पर भाग है।'
_ विशेष-यहाँ अबन्धक देशत्रती तियचोंका अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्पादकी अपेक्षा १४ कहा है।
मिथ्यात्वके बन्धकोंका २३ वा सर्वलोक है, अबन्धकोंका देशोन पर है।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वके अबन्धक सासादन गुणस्थानवर्ती तिर्यच च भाग स्पर्श करते हैं। धवलाकार सासादन सम्यक्त्वीका एकेन्द्रियमें उत्पाद न मानकर मारणान्तिक समुद्भात स्वीकार करते हैं। अतः लोकाग्रके एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धातको अपेक्षा भाग कहा है।
शंका-ये सासादन गुणस्थानवर्ती तिर्यंच सुमेरुगिरिके मूलभागसे नीचे मारणान्तिक समुद्भात क्यों नहीं करते ?
समाधान-सभावदो- स्वभावसे वे ऐसा नहीं करते हैं । पर्यायार्थिक नयकी विवक्षासे वे नारकियों में अथवा मेस्तलसे अधोभागवर्ती एकेन्द्रिय जीवोंमें मारणान्तिकसमुदात नहीं करते हैं । (धवलाटीका पृ० २०५) ।
साताके बन्धकोंका च भाग वा सर्वलोक है, अबन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है।
१. "तिरिक्खेसु .."असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, छचोद्दसभागा वा देसूणा ।"-पटखं०,फो०,सू० २७-२८ । २. “सासणसम्मादिट्टीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सत्तचोद्दसभागा वा देसूणा"-पट्खं०,फो०,सू० २४-२५ । ३. मारणंतिय-समुग्पा. दगदेहि सत्त-चोद्दमभागा देसूणा फोसिदा-२०४ ध० टीका,जीव० फो०।
२९
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महाबंधे चोद्दसभागा सव्वलोगो । असादबंधगा तेरहभागो वा, सव्वलोगो। अबंधगा सत्तभागा वा सव्वलोगो वा । दोण्णं बंधगा तेरस० सबलोगो वा । अबंधगा णत्थि । एवं चदुणोक० थिराथिर-सुभासुभ० । इस्थिवे. बंधगा दिवड्डचोद्दसभागा। अबंधगा तेरह. सव्वलोगो वा । पुरिस० बंधगा छच्चोदस० । अबंधगा तेरह० सव्वलोगो वा । णस० बंधगा तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा छच्चोदस०। तिण्णिवेद० बंधगा तेरस० सव्वलोगो वा । अबंधगा पत्थि । चदुण्णं आयु० बंधगा खेत्तभंगो । अबंधगा तेरह. सव्वलोगो का । णिरयगदि-देवगदिबंधगा छच्चोदसभागा। अबंधगा तेरह० सव्वलोगो वा । तिरिक्खगदिबंधगा सत्तचोदसभागो, सव्वलोगो वा अबंधगा बारहचोदस० । मणुसगदि-बंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा तेरहचोदस० सव्वलोगो। चदुण्णं गदीणं बंधगा तेरहचोदस० सव्वलोगो । अबंधगा णत्थि । एवं आणुपुवि० । एइदि० बंधगा सत्तचोदस० सव्वलोगो । अबंधगा बारह । तिण्णिजादीणं बंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा असाताके बन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है, अबन्धकोंका १८ वा सर्वलोक है । दोनोंके बन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है, अबन्धक नहीं हैं । हास्य-रति, अरति-शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभमें इसी प्रकार भंग जानना चाहिए। स्त्रीवेदके बन्धकोंके १३ भाग है। अबन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है।
विशेष-सौधर्मद्विक पर्यन्त देवियोंका उत्पाद होता है,अतः जिस तिर्यंचने मारणान्तिक समुद्भात-द्वारा सौधर्म,ईशानके प्रदेशका स्पर्शन किया, उसकी अपेक्षा हे भाग कहा है।'
पुरुषवेदके बन्धकोंका छ, अबन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है ।
विशेष-तियंचोंका अच्युत स्वर्गपर्यन्त उत्पाद होता है। इस दृष्टिसे पुरुषवेदके बन्धकके ६४ कहा है।
___ नपुंसकवेदके बन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है, अबन्धकोंके - भाग है। तीनों वेदोंके बन्धकोंका १४ वा सर्वलोक है; अबन्धक नहीं हैं। चार आयुके बन्धकोंका क्षेत्र के समान सर्वलोक भंग है। अबन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है । नरकगति, देवगतिके बन्धकोंका कई भाग है, अबन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है। .
विशेष-नरकगति के बन्धक तिर्यचका सप्तमपृथ्वीके स्पर्शनकी अपेक्षा पर है, इसी प्रकार देवगनिके बन्धकके अच्युत स्वर्गकी अपेक्षा भी नई भाग है।
तिर्यचगतिके बन्धकोंक र भाग वा सर्वलोक है, अबन्धकोंके १४ है। .
विशेष-तियचगतिके अबन्धकके अच्युत स्वर्ग तथा सप्तम नरक पर्यन्त, स्पर्शकी अपेक्षा १ भाग है । तियंचगतिके बन्धक पंचेन्द्रिय तिर्यचके मध्यलोकसे लोकान्त के एकेन्द्रियोंके क्षेत्रके स्पर्शनकी अपेक्षा का है।
मनुष्यगति के बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है। अबन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है । चारों गतियोंके बन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है: अबन्धक नहीं हैं। आनुपूर्वी में गति के समान भंग हैं । एकेन्द्रियके बन्धकोंके ६४, सर्वलोक है । अबन्धकोंके १३ भाग है।
१. सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवा सत्थाणसमुग्घादगदं देवगदिभंगो। उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो दिवड्ढचोदसभागा वा देसूणा । -खु० बं०,सू० ३७-३८ ।
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पयडिबंधाहियारो
२२७ तेरह सबलोगो । पंचिंदि० बंधमा नारह० । अबंधमा सत्तचोइस० सबलोगो। पंचजा० तेरह ० सव्वलोमो । अबंधमा थि । ओरालिय० बंधगा सत्तचोदस०, सव्वलोगो । अबंधगा बारह । वेउब्धिय० बंधमा बारह०, अबंधगा सत्तचोदस०, सव्वलोगो । दोण्णं पगदीणं बंधगा तेरह०, सव्वलोगो । अबंधगा पत्थि । समचदु० बंधगा छचोद्द० । अबंधगा तेरह० सबलोगो । चदुष्णं संठाणाणं बंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा तेरह० सबलोगो। हुंडसंठाणस्स तेरह. सबलोगो । अबंधगा छच्चोइसभागो वा। छस्संठाणं बंधगा तेरह. सबलोगो। अबंधगा पत्थि । ओरालिय-अंगो. बंधगा खेत्तभंगो । अबंधगा तेरह० सबलोगो। वेउब्बिय-अंगो० बंधगा बारह । अबंधगा सत्तचोदस०, सव्वलोगो । दोण्णं अंगो० बंधगा बारह । अचंधगा सत्तचो०, सव्व
विशेष-लोकाग्र भागमें विद्यमान एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेकी अपेक्षा छ स्पर्शन है। एकेन्द्रियके अबन्धकोंका स्पर्शन सप्तम पृथ्वी पर्यन्त ६ राजू तथा अच्युत स्वगे पर्यन्त ६ राजू प्रमाण होनेसे १४ कहा है।
दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय जातिके बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है । अबन्धकोंका वा सर्वलोक है।
विशेष-विकलेन्द्रियके अबन्धकोंका लोकाग्रमें स्थित एकेन्द्रियका स्पर्शन तथा अधोलोकमें सप्तम पृथ्वी पर्यन्त स्पर्शनकी अपेक्षा ११ कहा है।
पंचेन्द्रिय जाति के बन्धकोंके १३ है । अबन्धकोंके १४ वा सर्वलोक है । पंच जातियोंके बन्धकोंके १३वा सर्वलोक है ; अबन्धक नहीं हैं । औदारिक शरीरके बन्धकोंके ट है.. वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके १३ है।।
विशेष-लोकाग्रके एकेन्द्रियोंके स्पर्शनकी अपेक्षा बन्धकोंके १४ है । अबन्धकोंके वैक्रियिक शरीरको अपेक्षा ऊपर ६ राजू तथा नीचे ६ राजू इस प्रकार १३ है।
वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंके १३ है । अबन्धकोंके र वा सर्वलोक है । दोनों शरीरोंके बन्धकोंके १ भाग वा सर्वलोक है ; अबन्धक नहीं हैं। समचतुरस्र संस्थानके बन्धकोंके १४ तथा अबन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है ।
विशेष-इस संस्थानके बन्धकोंके अच्युत स्वर्गके स्पर्शनकी अपेक्षा कर है। अबन्धकोंके अधोलोकके ६ तथा ऊर्ध्वके ७ राजू मिलाकर 8 भाग कहा है ।
' चार संस्थान अर्थात् समचतुरस्र तथा हुण्डकको छोड़कर शेषके बन्धकोंका क्षेत्रवत् भंग है , अबन्धकोंका १४ वा सर्वलोक है । हुण्डक संस्थानके बन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके 4 भाग है।. छह संस्थानोंके बन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है, अबन्धक नहीं है। औदारिक अंगोपांगके बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है। अबन्धकोंके १४ वा सर्वलोक है। वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंका १३ है, अबन्धकोंका छ वा सर्वलोक भंग है।
विशेष-इसके बन्धकोंके ऊपर ६ राजू तथा नीचे ६ राजू, इस प्रकार १३ भंग है। यह वैक्रियिक अंगोपांगके अबन्धकोंके लोकानके एकेन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षा १४ कहा है।
दोनों अंगोपांगोंके बन्धकोंका १३ तथा अबन्धकोंका १४ वा सर्वलोक है ।
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महाबंधे लोगो ।छस्संघ० पत्तेगेण साधारणेण वि खेत्तभंगो। अबंधगा सेरह० सव्वलोगो । परघादुस्सा० बंधगा तेरह. सव्वलोगो वा। अबंधगा लोगस्स अंसंखेजदिभागो, सव्वलोगो वा । आदावस्स बंधगा खेत्तभंगो । अबंधगा तेरह० सव्वलोगो। उजोवस्स बंधगा सत्तचोदस० । अबंधगा तेरह. सबलोगो वा। पसत्थवि० बंधगा छच्चोदस० । अबंधगा तेरह० सव्वलो० अप्पसत्थवि० बंधगा छचोद्दस० । अबं० सत्तचोद्द० सबलो० । दोण्णपि बारह ० । अबंधगा सत्तचोदस० सव्वलो० । एवं दूसर० । तसंबंधगा बारह । अबंधगा सत्तचो० सव्वलो। थावरबंधगा सत्तचोदस० सबलोगो । अबंधगा बारहचोद्दस० । दोणंपि बंधगा तेरहचोदस० सव्वलोगो। अबंधगा णस्थि । बादरं बंधगा तेरह० । अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सव्वलोगो वा । सुहुमबंधगा लोगस्स असंखे०, सबलोगो वा । अबंधगा तेरह० चोद्दस० । दोण्णं पगदीणं बंधगा तेरह. सव्वलो० । अबंधगा णत्थि । पज्जत्त-पत्तेग बंधगा तेरह० सव्वलो० । अबंधगा लोगस्स असंखे० सव्वलो० । अपज्जत्त साधारण-बंधगा लोग० असंखे०, सव्वलो० । अवंधगा तेरह० सबलो० । दोण्णं पगदीणं बंधगा तेरह० सव्वलोगो । अबंधगा णत्थि।
___ छह संहननोंका पृथक्-पृथक अथवा समुदाय रूपसे क्षेत्र के समान भंग है । अबन्धकोंका १४ वा सर्वलोक है। परघात, उच्छ्वासके बन्धकोंके १४ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग है अथवा सर्वलोक है। आतपके बन्धकोंके क्षेत्र के समान है। अबन्धकोंके 12 अथवा सर्वलोक भंग है। उद्योतके बन्धकोंका छ, अबन्धकोंका १३ वा सर्वलोक भंग है । प्रशस्त विहायोगतिके बन्धकोंके छ, अबन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है।
विशेष-अच्युत स्वर्गके स्पर्शनकी अपेक्षा ६ कहा है, कारण देवोंके प्रशस्त विहायो. गति पायी जाती है। प्रशस्त विहायोगतिके अबन्धक अर्थात् अप्रशस्तविहायोगतिके बन्धक अथवा दोनोंके अंबन्धकको अपेक्षा अधोलोकके ६ राजू तथा ऊर्ध्वके ७ इस प्रकार १३ है ।
अप्रशस्त विहायोगति के बन्धकोंका है, अबन्धकोंका पई वा सर्वलोक है।
विशेष-सप्तम पृथ्वीके स्पर्शनको अपेक्षा अप्रशस्तविहायोगति के बन्धकोंके ६४ है । विहायोगतिके अबन्धककी अपेक्षा लोकाग्रके तियचोंके स्पर्शनकी दृष्टि से कर भाग है, कारण एकेन्द्रियके साथ विहायोगतिके बन्धका सन्निकर्षपना नहीं पाया जाता है।
दोनों विहायोगति के बन्धकोंके १३, अबन्धकोंके १४ वा सर्वलोक है। दो स्वरोंमें भी इसी प्रकार है । त्रसके बन्धकोंके १४, अबन्धकोंके ३४ वा सर्वलोक है । स्थावरके बन्धकोंके
र वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके १३ है। दोनोंके बन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है । अबन्धक नहीं हैं। बादरके बन्धकोंके १३ है, अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। सूक्ष्म के बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके ३ भाग है। दोनों प्रकृतियोंके बन्धकोंके वा सर्वलोक है; अबन्धक नहीं है। पर्याप्तक तथा प्रत्येकके बन्धकोंका भाग वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । अपर्याप्त, साधारणके बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग, सर्वलोक है । अबन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है । पर्याप्त अपर्याप्त तथा प्रत्येक साधारणके बन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है; अबन्धक नहीं
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पयडिबंधाहियारो सुभग-आदेज-समचदु० भंगो। भग-अणादेजहुँडसंठाणभंगो। दोण्णं पगदीणं बंधगा तेरह० सव्वलो० । अबंधगा णस्थि । जसगित्तिस्स बंधगा सत्तचोदस० । अबंधगा तेरह ० सव्वलोगो । अजस० बंध० तेरह० सव्वलो० । अबंधगा सत्तचोद्दस० । दोण्णं पगदीणं बंधगा तेरह० सव्वलोगो । अबंधगा णत्थि। दो गोदाणं संठाण-भंगो।
१६३. पंचिंदियतिरिक्ख-अपज्जत्ता-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु० तिण्णिसरीर-वण्ण०४ अगु० उप० णिमिण-पंचंतराइगाणं बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो सव्वलोगो वा। अबंधगा णस्थि । दोवेदणी० हस्सादि० दोयुगलथिरादि०४ बंधगा अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो सव्वलोगो वा । दोण्हं पगदीणं बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सबलोगो वा। अबंधगा णस्थि । इथि० पुरिस० बंधगा खेत्तभंगो । अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो सव्वलोगो वा । णवूस० बंधगा पडिलोमं भाणिदव्वं । तिणि वेदाणं बंधगा लोगस्स असंखे०, सबलोगो वा। अबंधगा णस्थि । इत्थिवेदभंगो दोआयु-मणुसगदि-चदुजादि-पंचसंठा० ओरालि.
हैं । सुभग तथा आदेयका समचतुरस्र संस्थानके समान भंग है। दुर्भग, अनादेयका हुण्डकसंस्थानके समान भंग है । सुभग, दुर्भग, आदेय, अनादेयके बन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है; अबन्धक नहीं हैं । यशःकीर्तिके बन्धकोंके ३४ है, अबन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है। अयश:कीर्ति के बन्धकोंके ११, सर्वलोक है । अबन्धकोंके १ है। यश कीर्ति-अयश कीर्तिके बन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है : अबन्धक नहीं हैं।
विशेष-तिर्यचोंमें तीर्थंकरका बन्ध न होनेसे यहाँ उसका वर्णन नहीं किया गया है । दो गोत्रोंके विषयमें संस्थानके समान भंग है ।
१६३. पंचेन्द्रिय-तियंच-लब्ध्यपर्णप्तकोंमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा-औदारिक-तैजस-कार्माण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। अबन्धक नहीं है। दो वेदनीय, हास्यादि दो युगल, स्थिरादि ४ के बन्धकों-अबन्धकोंका लोकके असंख्यातवें भाग वा सर्वलोक है। दोनों प्रकृतियों के बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। अबन्धक नहीं है । स्त्री-पुरुप वेद के बन्धकोंका क्षेत्र-भंग है अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है । अबन्धकोंका लोकके असंख्यातवें भाग वा सर्वलोक भंग है। नपुंसकवेदका प्रतिलोम क्रम है अर्थात् नपुंसकवेदके बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक भंग है। अबधकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग है। तीनों वेदोंके बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है; अबन्धक नहीं है । दो आयु (मनुष्य-तियंचायु), मनुष्यगति, दोइंद्रियादि
पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा।" षट्खंकफोक,सू० ३२, ३३ ।। पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-पंविदियतिरिक्ख जोणिणिपंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगत्स असंखेज्जदिभागो। समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा -खु० बं०, सू० १४-१७ ।
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महाबंधे अंगो० छस्संघ० मणुसाणु० आदाउजो० (१) दोविहा० [तस] सुभग-सुस्सर-आदेज० उच्चागोदं च। णqसगवेद-भंगो तिरिक्खगदि-एइंदियजादि हुंडसंठाण-तिरिक्खाणुपुवि-थावर-पञ्जत्तापज. पनेग-साधारण-भग-दूसर-अणादेज-णीचागोदं च । दोआयु० छस्संघ० दोविहा० दोसर० बंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सबलोगो वा। गदि-जादि-संठाण-आणुपुग्वि-तसथावरादिसत्तयुगलदोगोदाणं बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सव्वलोगो वा। अबंधगा णस्थि । परघादुस्साणं बंधगा अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सव्वलोगो वा । उज्जोवस्स बंधगा सत्तचोद्दसभागो वा । अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो सव्वलोगो वा । एवं बादरजसगित्ति । तप्पडिपक्खं सुहुमं अञ्जसगित्ति ।
१६४. एवं मणुसापंजत्त० सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-तस-अपजत्त-बादरपुढवि० आउ० तेउ० वाउ० बादरवणप्फदि-पत्तेय-पज्जत्ता। णवरि बादरवाउपजत्ते जं हि लोगस्स असंखेजदिभागो तं हि लोगस्स संखेजदिभागो कादव्वो। मणुस०३-पंचणा०
चार जाति, हुण्डक विना ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, (?) २ विहायोगति, [त्रस ] सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्रका स्त्रीवेदके समान भंग है।
विशेष-उद्योतका वर्णन आगे आया है, अतः यहाँ आतापके साथ उद्योतका पाठ अधिक प्रतीत होता है।
तियंचगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डक संस्थान, तिर्यंचानुपूर्वी, स्थावर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्रका नपुंसकवेदके समान भंग है । दो आयु, ६ संहनन, २ विहायोगति, दो स्वरके बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है अर्थात् सर्वलोक है ।
· विशेषार्थ-दो आयु, छह संहनन तथा दोविहायोगतिका पहले वर्णन आ चुका है कि उनमें स्त्रीवेद के समान भंग है । उनका फिरसे उल्लेख होना चिन्तनीय है।
अबन्धकों के लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक भंग है । गति, जाति, संस्थान, आनुपूर्वी, त्रस-स्थावरादि सप्त युगल, २ गोत्रके बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। अबन्धक नहीं हैं। परघात, उच्छ्वासके बन्धकों-अबन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक भंग है। उद्योतके बन्धकोंका छ, अबन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। बादर, यशःकीर्ति इसी प्रकार है । सूक्ष्म और अयशःकीर्तिमें इनका प्रतिपक्षी अर्थात् बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है, अबन्धकोंका
१९४. लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सर्व विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, त्रस-अपर्याप्तक, बादर-पृथ्वी-जल-तेज-वायु-बादरवनस्पति प्रत्येक-पर्याप्तकोंमें इसी प्रकार भंग है। विशेष, बादरवायुकायिक पर्याप्तकोंमें जहाँ लोकका असंख्यातवाँ भाग है, वहाँ लोकका संख्यातवाँ भाग जानना चाहिए।
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पडबंधाहियारो
२३१
०
वदंस • सोलसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतराइगाणं बंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो | मिच्छत्तस्स बंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा । अबंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागो सत्तचोद सभागो वा केवलिभंगो । सादबंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागो केवलिभंगो । अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो सव्वलोगो वा । असाद-बंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा । अबंधगा लोगस्स असंखे० भागो केवलिभंगो, दोष्णं पगदीणं
"मनुष्यत्रिक अर्थात् मनुष्य, मनुष्य-पर्याप्त मनुष्यनी में-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, १६ कषाय, भय-जुगुप्सा, तैजस- कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, ५ अन्तराय बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक स्पर्शन हैं । अबन्धकोंका केवली-भंग है । मिध्यात्व के बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । अबन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा अथवा केवली-भंग है ।
विशेष - मिथ्यात्व के बन्धकोंके मारणान्तिक समुद्रात तथा उपपाद पदकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्शन कहा है । ( ६० टी०, फो० पृ० २१७ )
साताके बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा केवली भंग है । अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । असाताके बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा केवली-भंग है । दोनों प्रकृतियोंके
१. " मणु सगदीए मणुस - मणुसपज्जत्त मणु सिणीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा । सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सत्तचोद्दभागा वा सूणा । सम्मामिच्छादिट्ठिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा वा भागा, सव्वलोगो वा ।"-षट्खं०, फो० सू० ३४-४१ । २. मणुसगदीए मणुसा माणुसपज्जत्ता मणुसिणीओ सत्था
हि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । समुग्धादेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जा वा भागा, सव्वलोगो वा । उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा - खु० बं० सू० १८ - २३ । मणुस-अपज्जत्ताणं पंचिदिय-तिरिक्ख-अपज्जत्ताणभंगो पंचिदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्ख रज्जत्त-पंचिदियतिरिक्ख जोणिणि पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । समुग्धादउववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा-सू० १४-१७। बीइंदिय-तीइं दिय च उरिदिय पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्याणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । समुग्धादउववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा ( ५५-५८ ) । पंचिदिय - अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । समुग्धादेहि उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा । ( ६५ ६९ ) । तसकाइय-तसकाइय पज्जत्ता - अपज्जता पंचिदिय पंचिदियपज्जत अपज्जत्तभंगो ( ९८ ) । बादरपुढवि बादरआउ - बादरते उ- बादरवणफ्कदिकाइयपत्तेयसरी रपज्जत्ता सत्याणेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । समुग्धादउववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सभ्वलोगो वा (७७-८१) । बादरवाउपज्जत्ता सत्थाणेहि केवडियं खेत्त फोसिदं ? लोगस्स संखेज्जदिभागो । समुग्धादं जववादेहि केवडियं खेत्त फोसिदं ? लोगस्स संखेज्जदिभागो (८७ ९०, पृ. ३८२- ४११
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२३२
महाधे
बंगा केवलिभंगो । अबंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागो । इत्थ० पुरिस० बंधगा खेत्तभंगो | अधगा केवलिभंगो | णपुंस० असादभंगो । तिष्णं वेदाणं बंधगा लोगस्स असंखे० भागो सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो । इत्थभंगो चदुआयु- तिण्णिगदिचदुजादि वे उव्वि० - आहार० पंचसंठा० तिणिअंगो० छस्संघ० तिणि आणु० आदाव० दोविहा० तस - सुभग० दोसर ( 3 ) [ सुस्सर] आदे० उच्चागोदं च । णवुंसक वेदभंगो हस्सर दि-अर दिसोग-तिरिक्खगदि- एइंदियजादि-ओरालि० हुडसंठा० तिरिक्खाणु० थावरपज्जत - अपजत्त० पत्तेय साधारण० थिराथिर - सुभासुभ- दूभग दुस्सर - अणादेज-णीचागोदं च । एवं पत्तेगेण साधारणेण वि वेदभंगो। परघादुस्साणं हस्तभंगो | उज्जोवस्स बंधगा सत्तचोराभागो । अबंधगा केवलिभंगो । एवं बादरजसगित्ति । सुहुम बंधगो लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो । अजसगित्तिस्स बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा सत्तचोद सभागो केवलिभंगो । दोष्णं पगदीणं बंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागो सच्चलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो | तित्थयरस्स बंगा खेत्तभंगो | अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो केवलिभंगो |
बन्धकोंका केवली-भंग है । अबन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग है ।
विशेष - दोनोंके अबन्धक अयोगकेवलीकी अपेक्षा असंख्यातवाँ भाग कहा है।
स्त्रीवेद, पुरुषवेदके बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है । अबन्धकोंका केवली भंग है । नपुंसकवेदका असाताके समान भंग है । तीनों वेदों के बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक भंग है। अबन्धकोंका केवली भंग है । चार आयु, तीन गति, ४ जाति, वैक्रियिक, आहारक शरीर, ५ संस्थान, तीन अंगोपांग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर ( ? ) [ सुस्वर ], आदेय तथा उच्चगोत्रका स्त्रीवेद के समान भंग है ।
विशेषार्थ - यहाँ 'दोसर' ( दो स्वर ) के स्थान में सुस्वर पाठ सम्यक् प्रतीत होता है, कारण आगे दुस्वरका उल्लेख किया है । सुस्वर में स्त्रीवेद के समान भंग है। दुस्वर में नपुसंक वेद के समान भंग है ।
हास्य, रति, अरति, शोक, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, हुण्डक संस्थान, तिचानुपूर्वी, स्थावर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्रका नपुंसक वेद के समान भंग है । प्रत्येक तथा सामान्य से भी वेद के समान भंग है ।
पर्घात, उच्छ्वासका हास्य के समान भंग है । अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । अबन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा केवली भंग है। उद्योतके बन्धकों का १४ है । अवन्धकों का केवली भंग है । बादर तथा यशः कीर्ति में इसी प्रकार है । सूक्ष्म के बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक स्पर्शन है। अबन्धकोंका केवली भंग है । अयश:कीर्तिके बन्धकका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका वा केवलीभंग है । बादर, सूक्ष्म तथा यशःकीर्ति अयशःकीर्ति के बन्धकों का लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । अवन्धकोंका केवली भंग हैं । तीर्थंकर के बन्धकोंका क्षेत्रवत् भंग है अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है। अबन्धकों का लोकका असंख्यातवाँ भाग वा केवलीभंग है ।
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पयडिबंधाहियारो
२३३ १६५. देवेसु-धुविगाणं बंधगा अट्ठ-णव-चोदसभागो वा। अबंधगा णत्थि । थीणगिद्धितिय-अगंताणु०४ बंधगा अढणव-चोद्दसभागो वा । अबंधगा अट्ट-चोइसभागो
१६५. देवोंमें-ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकोंके , १४ भाग है । अबन्धक नहीं हैं।
विशेषार्थ-विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घातसे परिणत मिथ्यात्व तथा सासादन गुणस्थानवर्ती देवोंने अतीतमें देशोन भाग स्पर्श किया है। मारणान्तिक समुद्घातगत मिथ्यात्वी तथा सासादन सम्यक्त्वी देवोंने ६४ भाग स्पर्श किया है ('ध० टी०, फो० पृ० २२५)। . खुद्दाबंध' टीकामें देवोंका सामान्य रूपसे स्पर्शन इस प्रकार कहा है। देवोंका वर्तमानकालिक स्पर्शन क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। देवों-द्वारा स्वस्थानकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवाँ भाग तथा अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पष्ट है।
शंका-तिर्यग्लोकका संख्यातवाँ भाग कैसे घटित होता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि चन्द्र, सूर्य, बुध, बृहस्पति,शनि, शुक्र, मंगल, नक्षत्र, तारागण और आठ प्रकार के व्यन्तर विमानोंसे रुद्ध क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण पाये जाते हैं। विहारकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पष्ट है । मेरु मूलसे ऊपर छह राजूमात्र और नीचे दो राजूमात्र क्षेत्रमें देवोंका विहार है, इससे भाग कहा है।
शंका-ये आठ बटे चौदह भाग किससे कम हैं “केण ते ऊणा" ? समाधान-तृतीय पृथ्वीके नीचे एक सहस्र योजनसे कम हैं।
प्रश्न-देवों-द्वारा समुद्रातकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? __ उत्तर-समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह वा नौ बटे चौदह भाग (वई,६४ भाग) स्पृष्ट हैं । लोकका असंख्यातवाँ भाग यह कथन वर्तमान क्षेत्र प्ररूपणाकी अपेक्षासे है। अतीतकालकी अपेक्षा वेदना, कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा भाग स्पष्ट है। क्योंकि विहार करनेवाले देवोंके अपने विहार क्षेत्रके भीतर वेदना, कषाय, और वैक्रियिक समुद्घात रूप पद पाये जाते हैं। मारणान्तिककी अपेक्षा भाग स्पृष्ट है, क्योंकि मेरुमूलसे ऊपर सात और नीचे दो राजू मात्र क्षेत्रके भीतर सर्वत्र अतीत कालमें मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त देव पाये जाते हैं।
प्रश्न-उपपादकी अपेक्षा देवों-द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ?
उत्तर-वर्तमान क्षेत्रकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग तथा अतीत काल सम्बन्धी उपपादकी अपेक्षा देशोन भाग स्पृष्ट है। कारण "आरणच्चुदकप्पोत्ति तिरिक्ख-मणुस. असंजदसम्मादिट्ठीणं संजदासंजदाणं च उववादुवलंभादो"-आरण अच्युत कल्प पर्यन्त तिथंच व मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टियों और संयतासंयतोंका उपपाद पाया जाता है (खु. बं० टीका पृ० ३८२-३८४)
स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंका है, वा ३ भाग है , अबन्धकोंका कई भाग है।
१. “देवगदीए देवेसु मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठोहि केवडिय खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अट्टणवचोद्दसभागा वा देसूणा।"-षट्खं, फो०, सू० ४२, ४३। २. "सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजद सम्मादिट्टीहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अट्ठ चोड्सभागा वा देसूणा ।"-पट्खं०, फो०,सू० ४४, ४५।
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महाघे
वा । एवं णवुंस० तिरिक्खगदि० एइंदि० हुंडसंठा० तिरिक्खाणु० थावर० दूर्भागअणादेज-गीचागोदं च । मिच्छत्तस्स दंधगा अबंधगा अट्ठणव- चोहसभागो वा । एवं उच्चागो० (१) सादासादबंधगा अबंधगा अट्ठणवचोहसभागो वा । दोष्णं पगदीणं बंधा अणव- चोद सभागो वा । अबंधगा णत्थि । एवं हस्सादिदोयुगलं थिरादि- तिण्णियुगलं च । इत्थ० पुरिस० बंधगा अट्ठचोहसभागा । अबंधगा अट्ठणव चोदसभागो वा । तिण्णं वेदाणं अष्टुणव- चोद्दस० । अबंधगा णत्थि । इत्थिभंगो दोआयुमणुसग दि-पंचिंदि० पंचसंठा० ओरालि० अंगो० छस्संघ० मणुसाणु० आदाव० दांविहाय ० तससुभग-आदेज० दोसर० तित्थयर० उच्चागोदं च (?) एवं पत्तेगेण साधारण वि वेदभंग | वरि आयुभंगो छस्संघ० दोविहाय ० दोसर० पत्तेगेण साधारणेण वि । एवं सव्वदेवाणं अष्पष्पणो फोसणं कादव्वं ।
विशेष—यहाँ स्त्यानगृद्धि आदिके अबन्धक सम्यग्मिथ्यात्वी, अविरतसम्यक्त्वी rai विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा ६४ भाग स्पर्शन है । यह विशेष है कि अविरत सम्यक्त्वी देवोंमें मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा भी भाग है ।
नपुंसकवेद, तियंचगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डकसंस्थान, तिर्यंचानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भाग, अनादेय तथा नीचगोत्रका इसी प्रकार हैं। मिध्यात्व के बन्धकों, अबन्धकोंका १४ वा ४ है । इसी प्रकार उच्चगोत्र में भी है । साता तथा असाताके बन्धकों, अबन्धकोंका ४ वा भाग है । साता - असाता इन दोनों प्रकृतियों के बन्धकोंका १४ वा ४ भाग है; अबन्धक नहीं हैं । विशेष - देवोंमें आदिके चार गुणस्थान ही होते हैं, अतः अयोगकेवली में अबन्ध होनेवाले इन साता असाता युग्मका अबन्धक यहाँ नहीं कहा है । असाताका प्रमत्तसंयत तक तथा साताका सयोगी जिन पर्यन्त बन्ध होता है, इसी कारण देवोंमें इनके अबन्धक नहीं हैं । हास्यादि दो युगल तथा स्थिरादि तीन युगल में इसी प्रकार है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद के बन्धकोंके १४ है ं अबन्धकोंके १४ वा १४ है । तीनों वेदोंके बन्धकका १४ वा १४ है; बन्धक नहीं हैं ।
विशेष - जब देवों में वेदोंके अबन्धक नहीं है, तब स्रीवेद, पुरुषवेदके अबन्धकोंका तात्पर्य नपुंसक वेदके बन्धकोंसे है । नपुंसक वेदका बन्ध मिध्यात्वी जीवोंके ही होगा, अतः उनके वा पे कहा है ।
तिर्यंच- मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, आदेय, दो स्वर, तीर्थंकर और उच्चगोत्रका स्त्रीवेदके समान भंग है । अर्थात् बन्धकोंके तथा अबन्धकोंके १ वा १४ है | विशेष – उच्चगोत्रका पहले कथन आया है । यहाँ पुनः उसका वर्णन किया गया है । इनमें से एक पाठ अशुद्ध होना चाहिए। यह विषय चिन्तनीय है ।
इस प्रकार प्रत्येक तथा साधारणसे भी वेदोंके समान भंग जानना चाहिए। विशेष, छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वरका प्रत्येक तथा साधारणसे दो आयु ( तिर्यंच मनुष्यायु) के समान भंग जानना चाहिए।
विशेष - छह संहनन, दो विहायोगति तथा दो स्वरका पहले स्त्रीवेद के समान भंग
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पडबंधाहियारो
बताया है । पश्चात् उनका आयुके समान भंग कहा है । यह विषय चिन्तनीय है । इस प्रकार सर्वदेवों में अपना-अपना स्पर्शन निकाल लेना चाहिए ।
विशेष - भवनत्रिक में मिथ्यात्व तथा सासादन गुणस्थानकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग, वन, १४ वा ४ भाग है।' ये विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय, विक्रिया - पदके द्वारा उपरोक्त लोकका स्पर्शन करते हैं। मेरुतलसे दो राजू नीचे तथा सौधर्मस्वर्ग के विमान-ध्वजदण्ड पर्यन्त ऊपर डेढ़ राजू इस प्रकार स्वयमेव विहार करते हैं। ऊपर के देवों के प्रयोग भाग स्पर्शन है, कारण उपरिम देवोंके द्वारा ले जाये गये वे ४३ राजू तथा स्वनिमित्तसे ३३ जाते हैं । इस प्रकार है। मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा स्पर्शन करते हैं, क्योंकि मेरुमूलसे नीचे दो राजूमात्र मार्ग जाकर स्थित भवनवासी आदि देवोंका घनोद्धि वालय में स्थित जलकायिक जीवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय व भाग स्पर्शन पाया जाता है ( ० बं०, टीका पृ० ३८० ) । सम्यग्मिध्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि देवों में अतीत-अनागत कालकी अपेक्षा वा भाग स्पर्शन है । उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग भवनत्रिकका स्पर्शन है। सौधर्मद्विकके देवोंका विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कपाय, वैक्रियिकपदकी दृष्टि से आदि के दो गुणस्थानों में है । मारणान्तिकपद से परिणत उक्त गुणस्थानों में भाग है । अतीत उपपादकी अपेक्षा है। मिश्र तथा अविरत. गुणस्थान में है । अविरत सम्यक्त्वीके मारणान्तिककी अपेक्षा देशोन तथा अतीत उपपादकी अपेक्षा है । वर्तमानकालकी अपेक्षा उपपाद पद लोकका असंख्यातवाँ भाग कहा है ( खु० बं० ) ।
सनत्कुमारादि पाँच कल्लों में स्वस्थान स्वस्थानपदपरिणत देवोंने अतीतकाल में लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। वर्तमानकालकी अपेक्षा भी लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। बिहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक तथा मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा है । उपपाद परिणत सनत्कुमार, माहेन्द्र कल्पवासी देवोंने देशोन, ब्रह्म ब्रह्मोत्तरबासी देवोंने देशोन डे, लान्तव कापिष्ठवासी देवोंने, शुक्र-महाशुक्रवासी देवोंने शतारसहस्रारवासी देवोंने व भाग स्पर्श किया है। विशेष, मिश्रगुणस्थानवर्ती देवोंके मारणान्तिक तथा उपपाद पद नहीं होते हैं।" आनत, प्राणत, आरण, अच्युतत्रासी देवोंका विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक तथा मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा देशोन भाग स्पर्शन है। मिश्रगुणस्थानमें मारणान्तिक तथा उपपादपद नहीं होते हैं । आनत प्राणत कल्पके
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१. " भवणवासिय वाणवेंतर जोदिसियदेवेसु मिच्छादिट्टि सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अधुट्ठा वा अट्टणवचोद्द सभागा वा देसूणा ।" - षट्खं०, फो० सू० ४६-४७। २. " सम्मामिच्छादिट्टि असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अधुट्ठा वा अट्ठचोद्द्मभागा वा देसूणा ।" - षट्खं०, फो०, सू० ४८-४९ । ३. " सोधम्मीसाणकपवासियदेवेसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्टित्ति देवोघं ।" सू० ५० । ४. " सणक्कुमार पहुडि जाव सदारसहस्सारकप्पवासियदेवेषु मिच्छादिट्ठपहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोद्दसभागा वा देसूणा ।" - सू० ५१-५२ । ५. “आणद जात्रं आरणच्चुद कप्पवासियदेवेसु मिच्छाइट्टि पहूडि जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । छचोट्सभागा वा बेसूणा फोसिदा । णवगेवेज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छादिट्ठिप्प हुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी हि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अणुद्दिस जाव सम्बट्टसिद्धिविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।" - सू० ५३-५६ ।
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महाबंधे १६६. एइंदिएसु-धुविगाणं बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा णत्थि । सादा: सादबंधगा अबंधगासव्वलोगो। दोण्णं पगदीणं बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा णस्थि । एवं सव्वाणं वेदणीयभंगो। णवरि मणुसायुबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सबलोगो वा। अबंधगा सव्वलोगो । तिरिक्खायुबंधगा अबंधगा सव्वलोगो। दोण्णं आयुगाणं बंधगा अबंधगा सबलोगो। एवं छस्संघओरालि० अंगो० परघादुस्सासआदाउओवदोविहाय-दोसर० ।
१६७. एवं सब्बसुहुम-एइंदिय-पुढवि० आउ० तेउ० वाउ० वण'फदि-णिगोद एदेसि० सव्वसुहुमाणं च ।
उपपाद परिणत असंयत सम्यग्दृष्टि देवोंने देशोन प भाग स्पर्श किये हैं। आरण-अच्युतवाले देवोंने उपपादसे कई भाग स्पर्श किया है, कारंण वैरी देवोंके सम्बन्धसे सर्व द्वीपसागरोंमें विद्यमान असंयतसम्यग्दृष्टि तथा संयतासंयत तियचोंका आरण-अच्युतकल्पमें उपपाद पाया जाता है । 'नव |वेयकवासी देवोंका मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पर्यन्त लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है । अनुदिशसे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त असंयत सम्यक्त्वी देवों. के स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कपाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक तथा उपपादरूप परिणमनकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है। सर्वार्थसिद्धि में मारणान्तिक तथा उपपादपदोंको छोड़ शेष पदोंकी अपेक्षा मानुषक्षेत्रका संख्यातवाँ भाग स्पर्शन है (खु. बं०, पृ० ३६२ )।
१६६. एकेन्द्रियों में-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धक नहीं हैं।
विशेषार्थ-स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिक तथा उपपादको अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवोंने अतीत-अनागत कालमें सर्वलोक स्पर्श किया है । 'खुद्दाबंध टीकामें लिखा है वैक्रियिक समुद्घात पदसे लोकका संख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है । इतना विशेष है कि सूक्ष्म जीवोंके वैक्रियिक समुद्घात नहीं होता। "णवरि सुहुमाणं बेउब्वियं णत्थि।" (३६३ पृ०)।
_ साता-असाताके बन्धकों-अबन्धकोंका स्पर्शन सर्व लोक है। दोनों प्रकृतियों के बन्धकोंका सर्वलोक स्पर्शन है ; अबन्धक नहीं है। इस प्रकार सर्व प्रकृतियोंका वेदनीयके समान भंग है । विशेष, मनुष्यायुके बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक स्पर्शन है । अबन्धकोंका सर्वलोक है । तिर्यंचायुके बन्धकों अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनों आयुके बन्धकोंअबन्धकोंका सर्वलोक है। छह संहनन, औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति तथा दो स्वर में इसी प्रकार भंग है।
१६७. सर्वसूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें इसी प्रकार है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद, इनके सर्वसूक्ष्म भेदोंमें भी इसी प्रकार है।
१. "णवगेवज्ज जाव सबट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा सत्थाणस मुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो"- खु० बं०,सू० ४७-४८ । २. “इंदियाणुवादेण एइंदिय बादर-सुहुम-पज्जत्ता. पज्जत्तएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो।"-षट्खं०, फो०, सू० ५७। ३. "बादरपुढविकाइयबादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सबलोगो वा।"-सू० ६७-६८ ।
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पय डिबंधाहियारो
२३७ १६८. बादरेइंदिय-पजत्तापजत्त-धुविगाणं बंधगा सबलोगो । अबंधगा पत्थि । सादासाद-बंधगा अबंधगा सबलोगो। दोण्णं पगदीणं बंधगा सबलोगो । अबंधगा णस्थि। एवं चदुणोकसा० परघादुस्सा. थिराथिरसुभासुभाणं । इथि० पुरिस० बंधगा लोगस्सं असंखेजदिभागो। अबंधगा सबलोगो। णवूस० बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा लोगस्स संखेजदिभागो। एवं इत्थिभंगोतिरिक्खायु-चदुजादि-पंचसंठा० ओरालि. अंगो० छस्संघ० आदा०दोविहाय०तस-सुभग-दोसर-आदेज० । णवंसक-भंगो एइंदिय हुंडसंठा०थावर-भग-अणादेज० । मणुसायु-बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा लोगस्स संखेजदिभागो सव्वलोगो वा। दो-आयु-बंधगा लोगस्स संखेजदिभागो। अबंधगा लोगस्स संखेजदिभागो, सव्वलोगो वा । एवं छस्संघदोविहा० दोसर० । तिरिक्खगदिबंधगा सव्वलोगो । अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो । मणुसगदिबंधगा [लोगस्स] असंखेजदिभागो । अबंधगा सबलोगो। दोण्णं पगदीणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा णस्थि । एवं दो-आणु० दो-गोदाणं । उजोवस्स बंधगा लोगस्स संखेजदिभागो, सत्तचोद्दसभागो वा । अबंधगा सव्वलोगो। एवं बादर-जस० । पञ्जत्ता-अपचन-पत्तेगं
१६८. बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, वादर एकन्द्रिय अपर्याप्तकों में --ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकों. के सर्वलोक है; अबन्धक नहीं हैं। साता-असाताके बन्धकों-अबन्धकोंके सर्व लोक स्पर्शन है। दोनों प्रकृतियों के बन्धकोंके सर्वलोक है । अबन्धक नहीं हैं। हास्यादि चार नोकषाय, परघात, उच्छ्वास, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभमें इसी प्रकार जानना चाहिए। स्त्रीवेद, पुरुषवेदके बन्धकोंके लोकका असंख्यात वाँ भाग, अबन्धकों के सर्वलोक है । नपुंसकवेदके बन्धकोंके सर्वलोक है तथा अबन्धकोंके लोकका संख्यातवाँ भाग है। नियंचायु, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर तथा आदेश में स्त्रीवेदका भंग जानना चाहिए। एकेन्द्रिय, हुण्डकसंस्थान, स्थावर, दुर्भग तथा अनादेयमें नपुंसकवेदका भंग जानना चाहिए । मनुष्यायुके बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है। अबन्धकोंका लोकका संख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। मनुष्य-तियंचायुके बन्धकोंका लोकका संख्यात वाँ भाग है। अबन्धकोंका लोकका संख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। छह संहनन, दो विहायोगति तथा दो स्वर में इसी प्रकार है । नियंचगति के बन्धकों के सर्वलोक है । अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग है। मनुष्यगति के बन्धकों के [ लोकका ] असंख्यातवाँ भाग है , अबन्धकोंके सर्वलोक है। मनुष्यगति तिर्यंचगतिरूप दोनों प्रकृतियोंके बन्धकोंके सर्वलोक है । अबन्धक नहीं है। मनुष्य-तियं चानुपूर्वी तथा दो गोत्रोंमें इसी प्रकार है । उद्योतके बन्धकोंका लोकका संख्यातवाँ भाग वा भाग है। अबन्धकों के सर्वलोक है । बादर तथा
१. बादरेइंदिया पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स संखेज्जदिभागो। समुग्धादउववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो।-(५१-५४ सू०ख० बंध)। २. "बादरवाउपज्जत्तएहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स संवेज्जदिभागो सव्वलोगो वा ।"-पट्खं०, फो०, सू० ६६, ७२ । ३. "मारणंतिय उववादपरिणदेहि सव्वलोगो फोसिदो। एवं बादरतेउकाइयपज्जताणं पि वत्तव्वं । णवरि वेउब्वियस्स तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो वत्तव्यो ।'-ध० टी०, फो०,पृ० २५२ ।
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२३८
महाबंधे साधारणं वेदणीय-भंगो । सुहम अजस० बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा लोगस्स संखेअदिभागो, सत्तचोदसभागो वा। दोण्णं पगदीणं बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा णत्थि । एवं वादर-बाउ० अपज्जत्तात्ति । बादर पुढवि-आउ० तेउ-तेसिं च अपञ्जत्ता बादर-वणप्फदि णिगोद-पज्जत्ता-अपजत्ता बादर-वणफदि० पत्तेय तस्सेव अपञ्जत्त बादरएइंदियभंगो । णवरि यं हि लोगस्स संखेजदिभागो तं हि लोगस्स असंखेजदिभागो कायरो।
१६६. पंचिंदिय-तस-तेसिं पजत्ता-पंचणा० छदंस० अट्ठक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, अट्ठ-तेरहचोद्दसभागो वा सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो। थीणगिद्धि०३ अणंताणु०४ बंधगा अट्ठतेरह०, सबलोगो वा । अबंधगा अट्ठ-चोद्दसभागो केवलिभंगो । [ साद०
यशःकीर्ति में इसी प्रकार जानना चाहिए। पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारणमें वेदनीयके समान भंग है। सूक्ष्म तथा अयशःकीर्तिके बन्धकोंका सर्वलोक है। अवन्धकोंका लोकका संख्यातवाँ भाग वा ४ है। बादर-सूक्ष्म तथा यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति के बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धक नहीं हैं। बादरवायुकायिक, बादरवायुकायिक अपर्याप्तकोंमें इसी प्रकार है । बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक, वादर तेजकायिक, बादर-पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक, बादरअपकायिक अपर्याप्तक, बादर-तेज कायिक-अपर्याप्तक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक, बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक, बादर निगोद पर्याप्तक, बादर-निगोद-अपर्याप्तक, बादर वनस्पति प्रत्येक, बादर वनस्पति प्रत्येक अपर्याप्तमें बादर एकेन्द्रियके समान भंग है। विशेप, जहाँ लोकका संख्यातवाँ भाग है, वहाँ लोकका असंख्यातवाँ भाग करना चाहिए।
विशेषार्थ-स्वस्थान पदों द्वारा लोकके संख्यात भाग स्पर्शके विषयमें खुद्दाबन्ध टीकामें कहा है । वायुकायिक जीवोंसे परिपूर्ण पाँच राजू बाहल्यरूप राजूप्रतर बादर एकेन्द्रिय जीवोंसे परिपूर्ण सात पृथिवियों, उन पृथिवियोंके नीचे स्थित बीस-बीस हजार योजन बाहल्यरूप तीनतीन वातवलय क्षेत्रों तथा लोकान्त में स्थित वायुकायिक क्षेत्रको एकत्रित करनेपर तीनों लोकोंका संख्यातवाँ भाग और मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र विशेष उत्पन्न होता है । इसलिए अतीत व वर्तमान कालों में लोकका संख्यातवाँ भाग प्राप्त होता है । (खु० बं० पृ० ३६३)।
१६६. पंचेन्द्रिय, त्रस, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रस-पर्याप्तकोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, आठ कषाय, भय-जुगुप्सा, तैजस-कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धक लोकके असंख्यातवें भाग, नई, १३ वा सर्वलोकका स्पर्शन करते हैं । अबन्धकोंका केवली-भंग है । स्त्यानगृ द्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंका कई, १३ वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके 4 भाग वा केवलीके समान भंग जानना चाहिए।
१. “पंचिंदिय-पंचिदियपज्जत्तएसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्टचोद्दसभागा देसूणा, सव्वलोगो वा । सासणसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ।"-पट्खं०, फो०,सू०६०-६२ । “तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघ ।" -सू०७२।
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पयडिबंधाहियारो
२३६ बंधगा अट्ठ-तेरह-चोदस० केवलि-भंगो।] अबंधगा अट्ठ-तेरह सव्वलोगो वा । असादबंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा। अबंधगा अट्ठतेरह-चोदस० केवलिभंगो । दोणं बंधगा अट्ठतेरह० चोदसभागो केवलिभंगो । दोण्णं अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो। मिच्छत्तस्स बंधगा अट्ठतेरह०, सव्वलोगो वा। अबंधगा अट्ठतेरह० केवलिभंगो।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव स्वस्थान पदकी अपेक्षा लोकका असं. ख्यातवाँ भाग वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पर्श करते हैं । देवोंके विहारका आश्रय कर कुछ कम कई भाग स्पर्शन है। समुद्घातों की अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग, देशोन, संख्यात बहुभाग अथवा सर्वलोक स्पृष्ट होता है। वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घा तों की अपेक्षा नई भाग स्पर्शन है, क्योंकि विहार करनेवाले देवोंके उक्त समुद्घातोंके विरोधका अभाव है। तैजस और आहारक समुद्घात पदोंसे चार लोकोंका असंख्यातवाँ भाग और मानुष लोकोंका संख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है । दण्ड तथा कपाट समुद्घातोंको प्राप्त जीवों-द्वारा चार लोकों का असंख्यातवाँ भाग और मानुष क्षेत्रसे असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। इतना विशेष है कि कपाट समुद्घातमें तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । प्रतर समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यात बहुभाग क्षेत्र स्पृष्ट है। क्योंकि इस अवस्थामें वातवलयोंको छोड़कर सम्पूर्णलोकमें जीवोंके प्रदेश व्याप्त होते हैं। मारणान्तिक तथा लोक पूरण समुद्धात पदोंसे सर्वलोक
उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग अथवा सर्वलोक स्पृष्ट है । सर्वलोकमें स्थित सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंमें-से पंचेन्द्रिय जीवोंमें आकर उत्पन्न होनेवाले प्रथम समयवर्ती जीवोंके सर्वलोकमें व्याप्त देखे जानेसे उपपादकी अपेक्षा सर्वलोक स्पृष्ट कहा गया है । (खुद्दा बंध,टीका पृ० ३६६-३६६ )।
सप्तम पृथ्वीके नारकी मारणान्तिक कर मध्य लोकको स्पर्श करते हैं । मध्य लोकसे जीव लोकाग्रमें जाकर बादर पृथ्वी कायिकों आदिमें उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार छह और सात राज मिलकर तेरह राजू स्पर्शन कहा है। 'जीवट्ठाणकी धवला टीकामें लिखा है- मारणान्तिक समुद्घात पद परिणत वैक्रियिक काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंने देशोन १४ भाग स्पर्श किये हैं जो मेस्तलसे नीचे छह राजू और ऊपर सात राजू जानना चाहिए।
[साता वेदनीयके बन्धकोंका दह, १३ वा केवली-भंग है । ] अबन्धकोंका, १३ वा सर्वलोक है । असाताके बन्धकोंका १,१३ वा सर्व लोक है। अवन्धकोंका कई, १३ वा केवलीभंग है । दोनोंके बन्धकोंका का, १३ वा केवली-भंग है। दोनोंके अवन्धकों का लोकके असंख्यातवें भाग है।
विशेष-दोनोंके अबन्धक अयोगकेवलीका स्पर्शनं लोकका असंख्यातवाँ भाग कहा है।
मिथ्यात्व के बन्धकों का १४, १४ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका है, ११ वा केवलीभंग
.. १. विवक्षितभवप्रथमसमयपर्यायप्राप्तिः उपपाद:-गो० जी०,१६६ पृ०४४४। २. मारणंतियपरिगदेहि तेरह चोद्दसभागा फोसिदा । हेट्ठा छ, उवरि सत्त रज्जू । -जीव०,फो०, पृ०२६६। ३. पमत्तसंजदप्पहडि जाव अजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो।-स०९।
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महाधे
अपच्चक्खाणा०४ बंधगा अट्ठतेरह ०, सव्वलोगो वा । अबंधगा छचोदसभागो केवलि - भंगो । इत्थ० पुरिस० बंधगा अट्ठ-बारह० । अबंधगा अट्ठतेरह ० के लिभंगो | णवुंस० बंधगा अ-तेरह ० सव्वलोगो वा । अबंधगा अट्ठबारह० केवलि-भंगो । तिणि वेदाणं बंधगा अ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो । इत्थभंगो पंचसंठा ० छस्संघ० सुभग-दोसर - आदे० | णवुंसकभंगो इंडसंठा० दूभग० अणादे० । साधारणेण वेदभंगो ।
वरि संघडण सरणामाणं बंधगा अट्ठ-बारह - चोसभागो वा । अबंधगा अट्ठणव- चोद्दस ० सव्वलोगो वा । हस्सरदि - अरदि-सोग-बंधगा अट्ठ-तेरह ० सव्वलोगो वा । अबंधगा अतेरह० भागो, केवलिभंगो। चदुष्णं बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो । एवं थिराथिरसुभासुभ० । दो आयु तिण्णिजादि । आहारदुगं खेत्तभंगो । अर्थधगा अतेरह ० केवलिभंगो । दो-आयु० मणुसगदि - आदाव - तित्थय० बंधगा अट्ठचोभागो । अबंधगा अड्ड-तेरह ० केवलिभंगो । चदु-आयुबंधगा अट्ठ-चोद्द सभागो ।
२४०
है । अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकका वा सर्वलोक है । अबन्धकका वा केवलीभंग है ।
१४,
विशेष – 'अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक देशसंयमी के अच्युत स्वर्गपर्यन्त मारणातिककी अपेक्षा कहा है । (ध० टी०, फो० पृ० १७० ) वेद, पुरुषवेदके बन्धकका है, अबन्धकका १३ वा केवलीभंग है । विशेष - मेरुतल से ऊपर ६ राजू तथा नीचे २ राजू इस प्रकार पई है। वीं पृथ्वीके नारकी मारणान्तिक कर मध्यलोकका स्पर्श करते हैं। अच्युत स्वर्ग के देवोंने मध्यलोकका स्पर्शन किया, इस प्रकार १३ राजू स्त्री-पुरुषवेद के बन्धकोंके हुए |
नपुंसक वेद के बन्धकोंका वा सर्वलोक है; अबन्धकोंका ११३ वा केवलीभंग है। तीनों वेदोंके बन्धकोंका १३ वा सर्व लोक है; अबन्धकों का केवली-भंग है । ५ संस्थान, ६ संहनन, सुभग, दो स्वर, आदेयका स्त्रीवेद के समान भंग है । हुंडक संस्थान, दुर्भग, अनादेयका नपुंसक वेदके समान भंग है । इनका सामान्यसे वेद के समान भंग है । विशेष, संहनन, स्वर नामक प्रकृतियों के बन्धकका १३ भाग है, अबन्धकोंके, वा सर्वलोक भंग है । विक्रिया द्वारा पहुँचा हुआ देव मारणान्तिक- द्वारा
विशेष - तीसरी पृथ्वी में लोकका स्पर्श करता है, इस प्रकार व भाग होता है ।
हास्य- रति, अरति शोक के बन्धकोंका, पेढे वा सर्वलोक स्पर्श है । अबन्धकका १४, १४ वा केवली भंग है। सामान्यसे हास्यादि ४ के बन्धकका वा सर्वलोक है । अब Faster केवली भंग है। स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ, में इसी प्रकार जानना चाहिए । दो आयु, ३ जाति तथा आहारकद्विकमें क्षेत्र के समान भंग है अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है, अबन्धकोंका १४, १३ वा केवली भ्रंग है । दो आयु, मनुष्यगति, आतप तथा तीर्थंकर का है, अबन्धकोंका, १३ वा केवलीभंग है । चार आयुके बन्धकोंका
१. " संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । छोमभागा वा सूणा " - सू० ७, ८
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पडबंधाहियारो
२४१
अधगा अतेरह सव्वलोगो वा । दोगदि बंधगा छच्चोद्दस० । अबंधगा अट्ठतेरह ० केवलिभंगो । तिरिक्खगदि बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा अट्ठ-बारह ० केवलिभंगो | चदुष्णं गदीणं बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलि - भंगो। एवं आणुपुव्वीणं । एइंदिय० बंधगा अट्ठ-णव- चोदस० सव्वलोगो वा अबंधगा । अट्ठ-बारह ० केवलिभंगो । पंचिदि० बंधगा अट्ठ-वारह० । अधगा अट्ठणवचोदस० केवलिभंगो। पंचणं जादीणं बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा hariगो | ओरालि० बंधगा अट्ठ-तेरह ०, सव्वलोगो वा । अबंधगा बारस० केवलिभंगो । वेउव्विय० बंधगा बारह० । अबंधगा अट्ठतेरह० केवलि-भंगो । दोण्णं बंधगा धुविगाणं भंगो। ओरालि० अंगो० अट्ठबारह चोदस० । अबंधगा अट्ठतेरह ० केवलिभंगो । वेउव्वि० अंगो० बंधगा बारह० । अबंधगा अट्ठतेरह० केवलिभंगो । दोण्णं बंधगाणं अट्ठबारहभागो । अबंधगा अट्ठणव- चोदसभागो केवलिभंगो। परघादुस्सा० बंधगा अट्ठ-तेरह भागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो । उज्जोवस्त्र बंधगा अट्ठतेरह ० । अबंधगा अट्ठतेरहभाग केवलभंग | सत्य - अप्पसत्थविहायगदिबंधगा अडवारहभागो । अबंधगा० अतेरह० केवलिभंगो । दोष्णं बंधगा अबारहभागो । अबंधगा अट्ठ-णव- चोद्दस ० केवलिभंगो | तंसंबंधगा अट्ठबारह० । अबंधगा अड्गुणवचोद्दस ० केवलिभंगो । थावर
।
•
है, अबन्धकोंका १४, बा सर्वलोक है । नरकगति- देवगति के बन्धकोंका है; अबकोंके १४, १३ वा केवली भंग है । तिर्यंचगतिके बन्धकोंका १, ३ वा सर्वलोक है; अबन्धकोंका १४, १३ वा केवली भंग है । चारों गतिके बन्धकोंका १४ वा सर्व लोक है; अबन्धकोंमें केवली-भंग है । आनुपूर्वियों में इसी प्रकार जानना चाहिए ।
एकेन्द्रिय बन्धक, वा सर्वलोक है अबन्धकोंके १४, १३ वा केवली-भंग है | पंचेन्द्रियके बन्धकका १४, १३ है; अबन्धकों का वा केवली भंग है । पंचजातियोंबन्धक वा सर्वलोक है, अबन्धकोंके केवली-भंग है । औदारिक शरीर के बन्धकों१४, १३ वा सर्वलोक है; अबन्धकोंके पे वा केवली भंग है ।
विशेष - औदारिक शरीरके अबन्धकों अर्थात् वैक्रियिक शरीर के बन्धकोंके मेरुतल से ऊपर अच्युत पर्यन्त ६ राजू तथा सप्तम पृथ्वी पर्यन्त ६ राजू, इसी प्रकार के हैं ।
वैक्रियिक शरीर के बन्धकोंके १४, अबन्धकोंके १४, १३ वा केवली भंग है। दोनों के बन्धकोंके १४, १४, लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक स्पर्शन ध्रुत्र प्रकृतियोंके बन्धकोंके समान है; अबन्धकोंके केवली-भंग है । औदारिक अंगोपांगके बन्धकका १४, ३ है । अबन्धकोंका १४, १३ वा केवली भंग है। वैक्रियिक अंगोपांग बन्धकोंका है। अबन्धकोंका १४ वा केवली भंग है । दोनोंके बन्धकोंका १३ है । अबन्धकका १, १ वा केवलीभंग है । परघात, उच्छ्वासके बन्धकोंका १, वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके केवली-भंग जानना चाहिए | उद्योतके बन्धकोंका, १ है; अबन्धकोंका प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति के बन्धकोंका १४, १३ है । haar-भंग है । दोनों के बन्धकका १४, १३ है । अबन्धकोंका,
वा केवली भंग है । अबन्धकोंका १३ व वा केवली भंग है ।
विशेष – एकेन्द्रिय जातिके साथ विहायोगतिका सन्निकर्ष नहीं पाया जाता है, अतः
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महाबंधे
२४२ बंधगा अट्ठ-णव-चोदस० सव्वलोगो वा। अबंधगा अट्ठ-बारह० केवलिभंगो । दोणं बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो। बादर-बंधगा अट्ठ-तेरह० । अबंधगा केवलिभंगो। पजत्तपत्तेय० बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो । सुहुम-अपजत्त-साधारणबंधगा लोगस्स असंखेञ्जदिभागो सव्वलोगो वा । अबधगा अट्ठतेरह० केवलिभंगो। बादर-सुहुम-बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो । जसगित्ति उज्जोव (?) बंधगा, अजस० बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा अट्ठ-तेरह० केवलिभंगो । दोण्णं बंधगा अट्ठ-तेरह० सव्वलोगो वा । अबधगा केवलिभंगो । उच्चागोदं मणुसायुभंगो। णीचागोदं बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा अट्टचोद्दस० केवलिभंगो।।
२००. एवं पंचमण० पंचवचि० । णवरि केवलिभंगो णत्थि । वेदणीयस्स अबंधगा णस्थि । काजोगि-ओघो। णवरि वेदणी० अबंधगा णस्थि ।
विहायोगति द्विकके अबन्धकों के मेरुतलसे ऊपर ६ राजू तथा नीचे २ राजकी अपेक्षा कई तथा मेरुतलसे ऊपर सात राजू तथा नीचे दो राज , इस प्रकार ४ भाग जानना चाहिए।
सके बन्धकोंका, १३ है। अबन्धकोंके दई, ई वा केवली-भंग है । स्थावरके बन्धकोंका है, 8 वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका वई, १४ वा केवली-भंग है। दोनों के बन्धकोंका :, १४ अथवा सर्वलोक हैं ; अबन्धकोंका केवली भंग है। बादरके बन्धकोंका कई वा
है। अबन्धकों के केवली-भंग है। पर्याप्त, प्रत्येकके बन्धकोंका ४, १३ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका केवली-भंग है। सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणके बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है।' अबन्धकोंके वह, १३ वा केवली-भंग है । बादर, सूक्ष्म के बन्धकोंके कई, १ वा सर्वलोक है ; अबन्धकोंके केवली-भंग है । यश कीर्ति, उद्योत (?) के बन्धकों, अयश:कीर्तिके बन्धकोंके कई, १३ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके , १३ वा केवली-भंग है। दोनोंके बन्धकोंके ४, १३ वा सर्वलोक भंग है, अबन्धकोंके केवली-मंग है।
विशेष—यहाँ यशकीर्ति के साथ उद्योतका पाठ अधिक है, कारण परघात, उच्छ्वासके बन्धकों के अनन्तर उद्योतका वर्णन किया जा चुका है।
उच्चगोत्रका मनुष्यायुके समान भंग है अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग, ई वा सर्वलोक है , अबन्धकोंका सर्वलोक है। नीच गोत्रके बन्धकोंका ह, १३ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके कई वा केवली-भंग है।
२८०. पंच मन, पंच वचनयोगियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, यहाँ केवली-भंग नहीं है । वेदनीयके अबंधक नहीं है।
विशेषार्थ-पंच मनोयोगी, पंच वचनयोगियोंमें स्वस्थान पदोंसे वर्तमानकालकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पशन है। विहारवत् स्वस्थानकी अपेक्षा कुछ कम वह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि मनोयोगी और वचनयोगी और जीवोंका विहार आठ राजू बाहल्य युक्त लोक नालीमें पाया जाता है।
१. “पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्तएसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगरस असंखेज्जदिभागो। अडचोद्दसभागा देसूणा, सव्वलोगो वा।"-षट्खं०,फो० सू०६०, ६१ ।
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पयडिबंधाहियारो
२४३ २०१. ओरालियकाजोगीसु-पंचणा० छदंसणा० अट्ठकसा० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतराइगाणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो। सेसाणं तिरिक्खोघो कादव्यो । णवरि अबंधा धुविगाणं भंगो आयु-संघडण-विहायगदिसरं मोत्तण । ।
२०२. ओरालियमिस्स-वेगुब्बियमिस्सआहार० आहारमिस्स खेत्तभंगो। णवरि ओरालियमिस्स-मणुसायुबंधगा लोगस्स असं खेजदिमागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा सबलोगो।
२०३. वेगुम्विय-काजोगीसु-पंचणा० छदंस० बारसक० भयदु० ओरालि. तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ बादर-पज्जत्त० पत्तेय-णिमिण-पंचंतराइगाणं बंधगा अट्ठ
समुद्घातकी अपेक्षा वर्तमानकालकी प्रधानतामें लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है । आहारक और तैजस समुद्घात पदोंकी अपेक्षा चार लोकोंका असंख्यातवाँ भाग और मानुप क्षेत्रका संख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है । वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घात पदोंसे कुछ कम दई भाग स्पृष्ट है, क्योंकि आठ राज आयत लोक नालीमें सर्वत्र अतीत कालकी अपेक्षा वेदना कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घात पाये जाते हैं। मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है । इन योगोंमें उपपाद पद नहीं होता, क्योंकि उपपाद पदमें मन योग व वचनयोगका अभाव है । (खुदाबंध,टीका पृ० ४११-४१३)।
काययोगीमें-ओघके समान है। यहाँ वेदनीयके अबन्धक नहीं हैं।
२०१. औदारिक काययोगियोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, प्रत्याख्यानावरण ४ तथा संज्वलन ४ रूप कपायाष्टक, भय-जुगुप्सा, तेजस-कार्मण, वण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धकोंके सर्वलोक है। अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग है। शेष प्रकृतियोंका तिर्यंचों के ओघवत जानना चाहिए। विशेष, आय. संहनन, विहायोगति तथा स्वरको छोड़कर अबन्धकोंमें ध्रुव प्रकृतियोंका भंग जानना चाहिए।
२०२. औदारिक मिश्र, वैक्रियिक मिश्र, आहारक, आहारकमिश्रमें क्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवाँ भाग जानना चाहिए। विशेष, औदारिक मिश्र काययोगमें-मनुष्यायुके बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक स्पर्शन है ; अबन्धकोंके सर्वलोक है।
२०३. वैक्रियिक काययोगियोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, अप्रत्याख्यानावरणादि १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तेजस- कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्त,
१. कायजोगी-ओरालियमिस्सकायजोगी सत्याण-समुग्घाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं १ सब्बलोगो - (खु०बं० पृ. १५३) । २. "ओरालियकायजोगीसु मिच्छादिट्टी ओघं (सव्व लोगो) । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।-पटूखं०, फो०,सू० ८१-८७ । ३. "वेउब्धियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्टी-सासणसम्मादिदी-असंजदसम्मादिट्टीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो।"-स०९४ । “आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो।"-सू०६५। "ओरालिमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्टी ओघं ।"-सू०८८। “सासणसम्माइट्टि -असंजदसम्माइट्टि-सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो।"-सू० ८९ । ४. "वे उत्रियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्सं असंखेज्जदिभागो। अट्ठतेरहचोद्दसभागा वा देसूणा ।"सू०-९० ।
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२४४
महाबंधे
तेरहभागो। अबंधगा णथि । थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त० अणंताणु०४ बंधगा अट्ठतेरह । अबंधगा अट्ट-चोदसभागो । णवरि मिच्छत्तस्स बंधगा अवारहभागो । सादा
प्रत्येक निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धकोंका ६४, १३ है। अबन्धक नहीं हैं।
विशेषार्थ-काययोगी और औदारिक मिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान, समुद्धात और उपपाद पदोंसे सर्वलोकका स्पर्शन करते हैं। वर्तमान तथा अतीत कालोंमें उन जीवोंके सर्वत्र गमनागमन और अवस्थानमें कोई विरोध नहीं है। औदारिक मिश्रकाय योगमें विहारवत् स्वस्थान, वैक्रियिक समुद्धात, तैजस समुद्वात और आहारक समुद्धात नहीं होते।
औदारिक काययोगी जीव स्वस्थान और समुद्रात की अपेक्षा सर्वलोक स्पर्शन करते हैं। यहाँ उपपाद पद नहीं होता।
वैक्रियिक काययोगी जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करते हैं। अतीत कालेकी अपेक्षा कुछ कम नई भाग स्पर्श करते हैं। समुद्रातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करते हैं। अतीत कालकी अपेक्षा वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्रात पदोंसे उक्त वैक्रियिक काययोगी जीवोंने कहभाग स्पर्श किया है । मारणान्तिक समुद्धांत से कुछ कम १४ भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि मेरु मूलसे ऊपर सात और नीचे छह राजू आयामवाली लोक नालीको पूर्ण कर वैक्रियिक काययोगके साथ अतीत कालमें मारणान्तिक समुद्भातको प्राप्त जीव पाये जाते हैं । इस योगमें उपपाद नहीं है।
बैंक्रियिक मिश्र काययोगी जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करते हैं। इनके विहारवत् स्वस्थान नहीं होता। इस योगमें समुद्धात और उपपाद पद नहीं होते ।
आहारक काययोगी जीव स्वस्थान और समुद्रात पदांसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करते हैं । अतीत कालकी अपेक्षा स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत् स्वस्थान, वेदनासमुद्धात
और कषायसमुद्रात पदोंसे आहारक काययोगी जीवोंने चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और मानुष क्षेत्रके संख्यातवें भागका स्पर्श किया है। मारणान्तिक समुद्भातसे चार लोकोंके असं. ख्यातवें भाग और मानुष क्षेत्रसे असंख्यात क्षेत्रका स्पर्श किया है। यहाँ उपपाद पदका अभाव है।
आहारक मिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करते हैं । उनके विहारवत् स्वस्थान पद नहीं होता है। समुद्भात और उपपाद पद भी नहीं होते हैं । (खुद्दाबंध,टीका,पृष्ठ ४१३-४१९)।
विशेष-मिथ्यादृष्टि वैक्रियिक काययोगियोंने विहार वत् स्वस्थान, वेदना, कषाय तथा वैक्रियिकसमुद्रात पद परिणत जीवोंने ऊपर ६ राजू तथा मेरुतलसे नीचे २ राजू इस प्रकार व भाग स्पर्श किया है। मारणान्तिक समुद्भातकी अपेक्षा ऊपर ७ तथा नीचे ६ राजू , इस प्रकार १४ भाग स्पर्श किया है । ( ध० टी०,फो०,टी०,२६६ )।
स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंका ६४, 3 है, अबन्धकोंका पाई है । विशेष, मिथ्यात्व के बन्धकोंका वई, १४ है।
विशेष-स्त्यानगृद्धित्रिकादिके अबन्धक सम्यग्मिथ्यादृष्टि तथा अविरत सम्यक्त्वी विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक परिणत जीवोंके ४ स्पशेन किया है। मिश्र गुणस्थानमें मारणान्तिक नहीं है । (ध० टी०,फो०, पृ० २६७)।
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पयडिबंधाहियारो
२४५ सादस्स बंधगा अबंधगा अट्ठ-तेरहभागो। दोण्णं बंधगा अट्ठतेरह । अबंधगा णत्थि । एवं हस्सादि-दोयुगलं, थिरादि-तिण्णियुगलं । इथि० पुरिसवेदाणं बंधगा अट्ठबारहभागो । अबंधगा अट्ठतेरहभागो। णqसग-वेदस्स बंधगा अट्ठ-तेरहभागो। अबंधगा अट्ठबारहभागो। तिण्णि वेदाणं अट्ठतेरहभागो। अबंधगा णत्थि । इत्थिभंगो पंचसंठा० ओरालि० अंगोल्छस्संघ सुभग० आदेज०। णqसगवेदभंगो हुंडसंठा० दूभग० अणादे० । साधारणेण वेदभंगो। दोआयु० मणुसग० मणुसाणु० आदावं तित्थयरं उच्चागोदं बंधगा अट्ठ-चोदसभागो । अबंधगा अट्ठतेरहभागो। तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० णीचागोदं बंधगा अट्ट-तेरहभागो। अबंधगा अट्टचोद्दसभागो। दोण्णं बंधगा अढतेरह० भागो। अबंधगा णत्थि । एवं दोण्णं आउ० (णु०) ( ? ) दोगोद० । एइंदि० बंधगा अढणवचोदसभागो । अबंधगा अहवारहभागो। पंचिंदियबंधगा अट्ठबारह० । अबंधगा अढणवचोदसभागो। दोण्णं बंधगा अठ्ठतेरहभागो। अबंधगा णस्थि । एवं तस-थावर । उज्जोव-बंधगा-अबंधगा अटठतेरह-चोदसभागो वा । पसत्थवि० बंधगा अट्ठबारह० । अबंधगा अठ्ठ-तेरभागो अप्पसत्थवि० बंधगा अठ्ठबारहभागो। अबंधगा अठतेरह
___ साता, असानाके बन्धकों, अबन्धकोंके पह, १३ है। दोनोंके बन्धकोंके व है, १३ है; अबन्धक नहीं है । हास्य-रति, अरति-शोक, स्थिरादि तीन युगलमें इसी प्रकार जानना चाहिए। स्त्रीवेद, पुरुषवेद के वन्धकों के २१, ११ है अवन्धकोंके 4, १४ है । नपुंसकवेदके बन्धकोंके ,
है । अबन्धकों के वह, १४ है। तीनों वेदों के बन्धकोंके हैं, १३ हैअबन्धक नहीं हैं । ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, सुभग, आदेय में स्त्रीवेदका भंग है । हुंडक संस्थान, दुर्भग, अनादेयमें नपुंसकवेद के समान भंग है । सामान्यसे वेदके समान भंग है। मनुष्यतिथंचायु, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, आतप, तीर्थंकर तथा उच्चगोत्रके बन्धकोंका है। अबन्धकोंका है, १४ भाग है।
विशेष-वैक्रियिक काययोगी अविरत सम्यक्त्वी विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक तथा मारणान्तिक समुद्भात-द्वारा ऊपर ६ राजू तथा नीचे २ राजू, इस प्रकार कर स्पर्शन करता है। तीर्थकर आदि प्रकृतियोंके अबन्धक मिथ्यात्वी जीवने मेरुतलसे नीचे ६ राजू तथा ऊपर ७ राजू इस प्रकार १३ भाग स्पर्श किया है।
तिर्यंचगति, नियंचानुपूर्वी तथा नीचगोत्रके बन्धकोंके कई, १३ भाग हैं , अबन्धकों के * भाग हैं। दोनों गतियोंके बन्धकों के पह, १३ हैं । अबन्धक नहीं हैं। दोनों आनुपूर्वी तथा दोनों गोत्रोंका इसी प्रकार वर्णन जानना चाहिए। एकेन्द्रियके बन्धकोंके है, अबन्धकोंके कई, ११ है । पंचेन्द्रिय जातिके बन्धकोंके ,१४ है, अबन्धकोंके , ई है। दोनोंके बन्धकोंके , १४ भाग है , अबन्धक नहीं है।
विशेष-क्रियिक काययोगियों के विकलत्रयका बन्ध नहीं होनेसे दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय जातिका वर्णन नहीं किया गया है।
स, स्थावरोंका इसी प्रकार जानना चाहिए। उद्योतके बन्धकों, अबन्धकोंका १४, १३ है। प्रशस्तविहायोगति के बन्धकोंका ८, १३ है , अबन्धकोंके ११, १३ है। अप्रशस्तविहायो
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महाबंधे
२४६ भागो । दोण्णं बंधगा अट्ठबारहभागो। अबंधगा अठचोदसभागो। एवं ओरालियों अंगो० छस्संघ० (?) दोसर ।
२०४. कम्मइगस्स-पंचणा० छदंस बारसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतराइगाणं बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा लोगस्स असं० असंखेजा वा भागा वा सव्वलोगो वा। थीणगिद्धि०३ अणंताणु०४ बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा छच्चोइसभागों, केवलिभंगो । सादासाद-बंधगा अबंधगा सव्वलोगो । दोणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा णत्थि । मिच्छत्तस्स बंधगा सबलोगो । अबंधगा गति के बन्धकोंके 15, १२ है , अबन्धकों के १,१३ है। दोनों बन्धकों के १६, १३ भाग है, अबन्धकों के भाग है। औदारिक अंगोपाग (?), ६ संहनन (?), दोस्वरमें इसी प्रकार जानना चाहिए।
विशेष-औदारिक अंगोपांग तथा ६ संहननका ५ संस्थान, सुभगादिके साथ वर्णन पूर्वमें हो चुका है। यहाँ पुनः उसका वर्णन किस दृष्टिसे किया गया, यह चिन्तनीय है ।
२०४. कार्मण काययोगीमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय-जुगुप्सा, तैजस कार्मण', वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धकोंका सर्वलोक स्पर्शन है । अबन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग वा सर्वलोक है।
विशेष- कार्मण काययोगमें ज्ञानावरणादिके अबन्धक सयोगकेवलीके लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श धवला'टीकामें नहीं कहा है, किन्तु यहाँ ज्ञानावरणादिके अबन्धकोंके लोकका असंख्यात भाग कहा है। प्रतर समुद्धातगत केवलीके कार्मण काययोगमें लोकके असंख्यात बहुभाग स्पर्श कहा है। कारण लोक पर्यन्त स्थित वातवलयोंमें केवली भगवान्के आत्मप्रदेश प्रतर समुद्भातमें प्रवेश नहीं करते थे। लोकपूरण समुद्रातमें सर्वलोक स्पर्श है। कारण चारों ओरसे व्याप्त वातवलयों में भी केवलीके आत्म-प्रदेश प्रविष्ट हो जाते हैं। (ध०टी०,फो० पृ० २७१)।
स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंके सर्वलोक है, अवधकोंके कई वा केवली-भंग है।
विशेष—इस योगमें एक उपपाद पद होता है। यहाँ स्त्यानगृद्धि आदि के अबन्धक असंयतसम्यक्त्वी तिर्यंच मेरुतलसे ऊपर छह राजू जा करके उत्पन्न होते हैं । मेरुतलसे नीचे ५ राजू प्रमाण स्पर्शन क्षेत्र नहीं पाया जाता है, कारण नारकी असंयतसम्यक्त्वी जीवोंका तिर्यंचोंमें उपपाद नहीं होता है। (पृ. २७१ )।
साता-असाता वेदनीय के बन्धकों-अवन्धकोंका सर्वलोक है। दोनोंके बन्धकोंका सर्वलोक है ; अबन्धक नहीं है। मिथ्यात्वके बन्धकोंका सर्वलोक है, अबन्धकोंका
१ "कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघं ( सबलोगो ) । सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा।" पदर-गद-केवलीहि लोगस्स असंखेज्जा भागा फोसिदा । लोग पेरंतट्ठिदवाद बलएसु अपविट्ठजीवपदे सत्तादो। लोगपूरणे सव्वलोगो फोसिदो, वादवलयेसु विपविट्ठजीवपदे सत्तादो। -ध० टी०, फो०, पृ०.२७१, सू० ९६, १०१ । २ एत्थ वि उववादपदमेक्कं चेव । -ध० टी०,फो०,पृ० २७१ ।
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पयडिबंधाहियारो
२४७ एक्कारहभागो, केवलिभंगो। इत्थि० पुरिस० णqस० बंधगा अबंधगा सबलोगो । तिण्णं बंधगा सबलोगो । अबंधगा केवलिभंगो । एवं तिण्णं वेदाणं भंगो चदुणोक० पंचजादि-छस्संठातसथावरादिणवयुगलं दोगोदं च । तिरिक्खगदि-मणुसगदिबंधगा अवंधगा सव्वलोगो । देवगदिबंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा सव्वलोगो । तिण्णं गदीणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा केवलिभंगो । एवं तिण्णि आणु० । ओरालि० बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा लोगस्स असंखेजदि० वा भागा वा सव्वलोगो वा। वेउव्वियबंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा सबलोगो। दोण्णं बंधगा सबलोगो। अबंधगा केवलिभंगो। ओरालि. अंगोवंगस्स बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। वेउब्धिय० अंगो खेत्तभंगो। दो-अंगोवंगाणं बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। एवं छसंघ० परघादुस्सास-आदाउजो० दोविहा० दोसर । तित्थय० बंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा सबलोगो।
२०५. इत्थिवेदे-पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० पंचंतराइगाणं बंधगा अट्ठतेरह० अथवा केवली-भंग है।
विशेष-उपपाद पदमें वर्तमान मिथ्यात्व के अवन्धक सासादन सम्यक्त्वी जीव मेरुके मूल भागसे नीचे पाँच राजू और ऊपर अच्युत कल्प तक छह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करते हैं,इससे भाग प्रमाण स्पर्श किया हुआ क्षेत्र हो जाता है । ( ध० टी०,फो० पृ० २७०)।
. स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेदके बन्धकोंका सर्वलोक स्पर्शन है । तीनों वेदोंके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धकोंका केवली-भंग है। हास्यादि ४ नोकषाय, ५ जाति, ६ संस्थान, त्रसस्थावरादि नवयुगल तथा २गोत्रका वेदत्रयके समान भंग है। तिर्यंचगति मनुष्यगति के बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वलोक स्पर्श है। देवगति के बन्धकोंकाक्षेत्रके समान अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग भंग है. अबन्धकोंका सर्वलोक है। तीन गतिके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धकोंका केवली-भंग है । तीन आनुपूर्वियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए।
विशेष- कार्मण काययोगमें नरकगति तथा नरकगत्यानुपूर्वीका बन्ध न होनेसे यहाँ तीन ही गतियोंका उल्लेख किया है।'
. औदारिक शरीरके बन्धकोंका सर्वलोक है; अबन्धकोंका लोकके असंख्यात बहुभाग वा सर्वलोक है। वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंका क्षेत्र समान भंगहै अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है। अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनों शरीरोंके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धकोंके केवली-भंग है । औदारिक अंगोपांगके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक है । वैक्रियिक अंगोपांगका क्षेत्रके समान भंग है अर्थात् बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग, अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनों अंगोपांगोंके बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वलोक है । छह संहनन, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, दो स्वर में ऐसा ही है। तीर्थकरके ,बन्धकोंका क्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवाँ भंग है । अबन्धकों के सर्वलोक है। ___२०५लीवेदमें-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, ५ अन्तरायके बन्धकोंका
१ "कम्मे उरालमिस्सं वा।" -गो० क०,गा० ११६ । "ओराले वा मिस्से णहि सुरणिरयाउहारणिरयदुगं ।" - गो० क०,गा० ११६ ।
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महाबंधे
सव्वलोगो । अबंधगा णत्थि । थीणगिद्धि०३ अणंताणु०४ बंधगा अट्ठतेरह० सबलोगो वा । अबंधगा अढचोइसभागो। णिद्दापयला [ पच्चक्खाणावरण४ ] भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं बंधगा अलुतेरह. सबलोगो वा । अबंधगा खेत्तभंगो । सादबंधगा अट्ठ-णवचोदस० सव्वलोगो वा । अबंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । असादबंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा अढणवचोदस० सव्वलोगो वा । दोण्णं बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा ! अबंधगा णस्थि । मिच्छत्तस्स बंधगा अट्ठतेरहचोदस० सबलोगो वा । अबंधगा अट्ठणव-चोद्दसभागो। अपच्चक्खाणा०४ बंधगा ४, १३ भाग वा सर्वलोक है । अबन्धक नहीं हैं।'
विशेष-विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्भात परिणत देवों में आठ राजू बाहुल्यवाले राजू प्रतर प्रमाण क्षेत्रमें भ्रमण करनेकी शक्ति होनेसेच स्पर्शन कहा है। मारणान्तिक तथा उपपाद परिणत उक्त जीव सर्वलोकको स्पर्श करते हैं, कारण मारणान्तिक और उपपाद परिणत मिथ्यात्वी स्त्री, पुरुषवेदी जीवोंके अगम्य प्रदेशका अभाव है। ऊपर सात राजू तथा नीचे छह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पशनकी अपेक्षा अतीत-अनागत कालकी दृष्टिसे १३ भाग है। (२७२) स्त्रीवेदमें तैजस तथा आहारक समुद्घात नहीं होते ।२।।
स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंके ६४, १३ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके कल है।
विशेष-स्त्यानगृद्धि ३ तथा अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक सम्यग्मिथ्यात्वी वा अविरत-सम्यक्त्वी जीवोंने अतीत-अनागत कालकी अपेक्षा विहारक्तस्वस्थान, वेदना, कषाय वैक्रियिक, मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा ऊपर छह और नीचे दो इस प्रकार स्पर्शन किया है । मिश्र गुणस्थानमें उपपाद पद तथा मारणान्तिक समुद्धात नहीं होते हैं। स्त्रीवेदी जीवोंमें असंयत सम्यक्त्वीका उपपाद नहीं होता है । ( २७४)
निद्रा-प्रचला, प्रत्याख्यानावरण, भय-जुगुप्सा, तैजस- कार्मण वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणके बन्धकोंका , ३ वा सर्वलोक है, अबन्धकोंका क्षेत्रके समान है अर्थात् लोकके असंख्यातवें भाग हैं । साता वेदनीयके बन्धकोंका , कट वा सर्वलोक है। अब न्धकोंका ६४, १९ वा सर्वलोक है । असाताके बन्धकोंका ६, १३ वा सर्वलोक है; अबन्धकोंका ६, कर वा सर्वलोक है। दोनोंके बन्धकोंका , वा सर्वलोक है. अबन्धक नहीं है । मिथ्यात्वके बन्धकोंका, १ वा सर्वलोक है, अवन्धकोंका द, कर है।
१. "वेदाणुवादेण इत्थिवेदपुरिसवेदएसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेग्जदि. भागो । अट्ठचोहसभागा देसूणा सव्वलोगो वा ।"-षटर्ख०, फो०,सू० १०२, १०३ । २. इत्थिवेदे तदुभयं ( तेजाहारसमुग्घादा) णत्थि -खु० बं०, टी० पृ० ४२१ । ३. "सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्ट चोद्दसभागा वा देसूणा फोसिदा।" -सू० १०६ । ४. इत्थिवेदेसु असंजदसम्मादिट्ठीणं उववादो पत्थि-ध० टी०, पृ० २७४ । ५, "सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठणचोद सभागा देसूणा ।" - खं०, फो०, सू० १०४, १०५। ६. "संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । छचोद्दसभागा देसूणा ।"-सू० १०८ ।
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पडबंधाहियारो
२४६
अट्ठ- तेरह०, सव्वलोगो वा । अबंधगा छच्चोद सभागो । इत्थ० पुरिस० बंधगा अट्ठचोद सभागो । अबंधगा अडतेरह० सव्वलोगो । बुंस० बंधगा अद्भुतेरह ० सव्वलोगो वा | अधगा अट्ठचोद्द सभागो । तिष्णं वेदाणं बंधगा अडतेरह ० सव्वलोगो वा । अधगा णत्थि । हस्सरदि सादभंगो। अरदिसोगं असादभंगो । दोष्णं युगलाणं बंधगा अट्ठ-तेरह भागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा खेत्तभंगो । एवं थिराथिर - सुभासुभ० । णिरयदेवायु- तिण्णिजादि० ( गदि ) आहारदुगं तित्थयरं बंधगा खेत्तभंगो । अबंधगा अ-तेरहभागो सव्वलोगो वा । दोआयु- मणुसगदि मणुसाणुपुव्वि आदाउजवं दोगोदं (2) बंधगा अट्ठ- चोद सभागो । अबंधगा अट्ठतेरहभागो, सव्वलोगो वा । दोगदि-दोआणुपुव्वि-बंधगा बच्चोद सभागो । अबंधगा अट्ठतेरह भागो, सव्वलोगो वा । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु
विशेष - मिध्यात्व के अवन्धक सासादन सम्यक्त्वी जीवोंने बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय तथा वैक्रियिक समुद्रात की अपेक्षा कई भाग स्पर्श किया है, कारण ८ राजू बाहुल्यवाले राजू तर के भीतर देव, स्त्री, सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के गमनागमन के प्रति प्रतिषेधका अभाव है। मारणान्तिक समुद्रात परिणत उक्त जीवने नीचे दो और ऊपर ७ राजू अर्थात् ४ भाग स्पर्श किये हैं । (२७२ )
अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंके ६४, १४ वा सर्वलोक स्पर्श है, अबन्धकोंके १४ है । विशेष-अप्रत्याख्यानावरणके अबन्धक देशत्रती स्त्रीवेदीने मारणान्तिक द्वारा भाग स्पर्श किये, कारण अच्युत कल्पके ऊपर संयतासंयत तिर्यंचोंका उत्पाद नहीं होता है । (२७५) १
स्त्रीवेद-पुरुषवेद के बन्धकोंका १४, अबन्धकोंका १४, १३ वा सर्वलोक है । नपुंसक वेद के बन्धकोंका, वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका ६४ है । तीनों वेदों के बन्धकका वा सर्वलोक है; अन्धक नहीं है । हास्य-रति में साता वेदनीयके समान है अर्थात् ६४, ४ वा सर्वलोक है, अबन्धकोंका, वा सर्वलोक है । अरति शोक में असातावेदनीयके समान भंग है । अर्थात् बन्धकोंके १४, ३ वा सर्वलोक है; अबन्धकोंके ६४, १४ वा सर्वलोक है । हास्य- रति, अरति शोक इन दो युगलोंके बन्धकोंके १४, १४ वा सर्वलोक हैं । अबन्धकोंके क्षेत्र के समान भंग है । अर्थात् लोकके असंख्यातवें भाग है। स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ में इसी प्रकार है। नरका, देवायु, तीन जाति (?) (गति) आहारकद्विक और तीर्थंकर के बन्धकों का क्षेत्र के समान भंग है । विशेष, यहाँ जातिके स्थानमें गतिका पाठ उपयुक्त प्रतीत होता है। जातिका वर्णन आगे किया गया है। अबन्धकोंका १३ वा सर्वलोक हैं । मनुष्यायु, तिर्यंचायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत तथा दो गोत्र ( ? ) के बन्धकोंका है। अबन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है ।
विशेष - गोत्रका कथन आगे आया है। अतः यहाँ 'दोगोद' पाठ अधिक प्रतीत होता है। नरकगति, देवगति, नरकानुपूर्वी, देवानुपूर्वीके बन्धकका १४ है । अबन्धकोंका ६४
१. "पत्तजड जात्र अणियट्टिउवसामग खत्रएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो ।" - सू० ११० ।
३२
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२५०
महाबंधे पुश्विबंधगा अट्ठणवचोदसभागो, सव्वलोगो वा। अबंधगा अट्ठयारहभागो। चदुण्णं गदीणं बंधगा अट्ठतेरहभागो सबलोगो वा । अबंधगा खेत्तभंगो। एवं आणुपुव्वीणं । एइंदियबंधगा अट्ठणवचोदसभागो सव्वलोगो वा । अबंधगा अट्ठबारहभागो। पंचिंदियं बंधगा अवारहभागो । अबंधगा अट्टणवचोदसभागो, सबलोगो वा । पंचण्णं जादीणं बंधगा अढतेरहभागो, सबलोगो वा । अबंधगा खेत्तभंगो। ओरालियसरीरं बंधगा अट्ठणव-चोदसभागो, सबलोगो वा । [अबंधगा ] अट्ठबारहभागो । वेउव्वियं बंधगा बारहभागो। अबंधगा अढणव-चोद्दसभागो सबलोगो वा । दोणं बंधगा अट्ठतेरहभागो सबलोगो वा । अबंधगा खेत्तभंगो। पंचसंठाणं इत्थिभंगो। हुँडसंठाणं णqसगवेदं साधारणेण वि वेदभंगो। णवरि अबंधगाणं खेत्तभंगो । ओरालिय-अंगोवंगबंधगा अट्ठचोदसभागो, अबं० अट्ठतेरहभागो, सव्वलोगो वा । वेउव्वियसरीर-अंगोवंगबंधगा बारहभागो । अबंधगा अट्ठणवचोद्दसभागो, सव्वलोगो वा । दोणं बंधगा अहवारहमागो। अबंधगा अगुणव-चोद सभागो, सव्वलोगो वा । छस्संघडणं बंधगा अट्ठचोदसभागो। अबंधगा अट्ठतेरहभागो सबलोगो वा । एवं साधारणेण वि । परघादुस्सासं बंधगा अट्ठबारहभागो सबलोगो वा। अबंधगा लोगस्स असंखेअदिभागो, सव्वलोगो वा । उच्चागोदं ( ? ) बंधगा अट्ठणवचोद्दसभागो वा । अबंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा। १३ वा सर्वलोक है। तिर्यंचगति, तिथंचानुपूर्वीके बन्धकोंका ६४, १४ वा सर्वलोक है। अबन्धकों का ठ, १३ है । चार गतियोंके वन्धकों का ११, १३ वा सर्वलोक है । अबन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है । चारों आनुपूर्वी में इसी प्रकार जानना चाहिए। एकेन्द्रियके बन्धकोंका ६६ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका, १३ है। पंचेन्द्रियके बन्धकोंका छ, १३ है, अबन्धकोंका र १४ वा सर्वलोक है। पाँचों जातियोंके बन्धकोंका ४, १४ वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके क्षेत्रके समान भंग हैं। औदारिक शरीरके बन्धकोंका ६४, ६ वा सर्वलोक है। [अबन्धकोंका ] ६४, १३ है । वैक्रियिक शरीर के बन्धकोंका १४ है । अबन्धकोंका ६४ ड वा सर्वलोक है । दोनों शरीरोंके बन्धकोंका ६, १३ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है । ५ संस्थानों में स्त्रीवेदके समान भंग है। हुंडक संस्थानका नपुंसकवेदके समान भंग है । ६ संस्थानोंका सामान्यसे वेदके समान भंग है। विशेष, अबन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है। औदारिक अंगोपांगके वन्धकोंका है। अवन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है। वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंका १३ है। अबन्धकोंका वा सर्वलोक है। दोनों अंगोपांगोंके बन्धकोंका वर, १३ है । अबन्धकोंका , पर वा सर्वलोक है। छह संहननके बन्धकोंका है। अबन्धकोंका ६४, १४ वा सर्वलोक है । सामान्यसे भी छह संहननका इसी प्रकार जानना चाहिए । परघात, उच्छ्वास के बन्धकोंका 42, १३ अथवा सर्वलोक है। अबन्धकोंका लोकके असं. ख्यातवें भाग वा सर्वलोक है । उच्चगोत्र के बन्धकोंका ६४, ६ है । अबन्धकोंका, १३ वा सर्वलोक है।
विशेष-यहाँ उच्चगोत्र का पाठ असंगत प्रतीत होता है, कारण इसका कथन आगे किया गया है।
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२५१
पयडिबंधाहियारो पसत्थविहायगदिं बंधगा अडचोद्दसभागो। अबंधगा अट्ठतेरह० सबलोगो वा । अप्पसत्थविहायगदि बंधगा अवारहभागो। अबंधगा अट्ठणवचोद्दसभागो सव्वलोगो वा । दोण्णं बंधगा अवारहभागो। अबंधगा अट्ठणवचोद्दसभागो सबलोगो वा। एवं दोसराणं । तस-बंधगा अट्ठबारहभागो । अबंधगा अट्ठणवचोद्दसभागो, सव्वलोगो वा। थावर-बंधगा अट्ठणव-चोद्दसभागो सबलोगो वा। अबंधगा अट्ठबारहभागो । दोण्णं पगदीणं बंधगा अट्ठतेरहभागो सव्वलोगो वा । अबंधगा खेत्तभंगो। बादर-बंधगा अह-तेरहभागो। अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सबलोगो वा । सुहुम-बंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा अट्ठतेरहभागो। दोण्णं पगदीणं बंधगा अट्टतरहभागो सबलोगो वा । अबंधगा खेत्तभंगो। एवं पज्जत्तापज्जत्तपत्तेयसाधारणं च । सुभग-आदेजाणं बंधगा अट्ठचोद्दसभागो, [ अबंधगा ] अतरहभागो, सबलोगो वा । दूभग-अणादेज्जाणं बंधगा अढतरहभागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा अठ्ठचोदसभागो। दोण्णं पगदीणं बंधगा अट्ठतेरहभागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा खेत्तभंगो । जसगित्तिस्स बंधगा अgणव-चोदसभागो। अबंधगा अट्ठतेरहचोदसभागो, सबलोगो वा । अजसगित्तिस्स बंधगा अट्ठतेरहभागो, सबलोगो वा। अबंधगा अट्ठणवचोद्दसभागो। दोण्णं बंधगा अट्ठतेरहभागो सबलोगो वा। अबंधगा गस्थि । उच्चागोदं बंधगा अट्ठभागो, अबंधगा अढतेरहभागो सव्वलोगोवा । णीचागोदं बंधगा
प्रशस्तविहायोगतिक बन्धकोंकाई है। अवन्धकोंका १, १३ वा सर्वलोक है। अप्रशस्त विहायोगति के बन्धकांका १२ है । अबन्धकोंका नई, १४ वा सर्वलोक है । दोनोंके बन्धकोंका है, है । अबन्धकोंका दई, नवा सर्वलोक है। दो स्वरोंमें विहायोगति के समान है। त्रस प्रकृतिके बन्धकोंका ४, १३ है। अबन्धकोंका दह, वा सर्वलोक है। स्थावरके बन्धकों का १४, ११ वा सर्वलोक है । अबन्धकोंका ४, १२ है। दोनोंके बन्धकोंका
१३ वा सवलोक है। अबन्धकोंका क्षेत्र के समान है। बादरके बन्धकोंका ११ है। अबन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। सूक्ष्म के बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका है, है। दोनांक बन्धकोंका 5, १३ वा सवे. लोक है । अबन्धकोंका क्षेत्र के समान स्पर्शन है । पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारणमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
सुभग, आदेयके बन्धकोंका है। [ अबन्धकोंका ] १, ३३ वा सर्वलोक है । दुर्भग, अनादेयके बन्धकोंका १, १३ वा सर्वलोक है । अवन्धकोंका है। सुभग, दुर्भग, आदेय, अनादेयके वन्धकोंका है, १३ वा सर्वलाक है। अबन्धकोंका क्षेत्रवत् भंग है। यश कीर्तिके बन्धकोंका , दहै। अबन्धकोंका १४, १४ वा सर्वलोक है। अयश कीर्ति के इन्धकोंका दह, ११ वा सर्वलोक है । अबन्धकोंका ४, ६४ है। दोनोंके बन्धकोंका १, १३ वा सर्वलोक है । अबन्धक नहीं है । ।
विशेष-दोनोंके अवन्धक उपशान्त कषायादिमें होते हैं अतएव स्त्रीवेदमें अबन्धकोंका अभाव बताया है।
उच्चगोत्रके बन्धकोंका है। अवन्धकोंका १, १३ वा सर्वलोक है। नीच गोत्र के
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२५२
महाबंघे
अट्ठतेरह भागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा अट्ठभागो । दोष्णं गोदाणं बंधगा अट्ठतेरहभागो सव्वलोगो वा । अबंधगा णत्थि ।
२०६. एवं पुरिसवेदस्स । णवरि तित्थयरं बंधगा अट्ठचोदसभागो । अबंधगा अट्टतेरहभागो, सव्वलोगो वा. ।
1
२०७. बुंगवेद ० - धुविगाणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा णत्थि | थीण गिद्धितियं अनंताणुबंधिचदुक्कं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा छच्चो६सभागो । णिद्दा- पयलापच्चक्खाणाव ०४ भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा खेत्तभंगो | सादासाद-बंधगा अबंधगा सव्वलोगो । दोष्णं बंधगा सव्वलोगो अबंधगा णत्थि । एवं जस-अजस गित्ति- दोगोदाणि (?) मिच्छत्तं बंधगा सव्वलोगो । अबंधा बारह भागो । अपच्चक्खाणावरण- चउक्कं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा बन्धकोंका, वा सर्वलोक है । अबन्धकोंका १४ है । दोनों गोत्रोंके बन्धकोंका वा सर्वलोक है । अबन्धक नहीं है ।
२०६. पुरुषवेद में इसी प्रकार है । विशेष, तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धकोंका है। अबन्धकोंका १४, १३ वा सर्वलोक है ।
२०७. नपुंसक वेद में - ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंका सर्वलोक है; अबन्धक नहीं हैं । स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकों का सर्वलोक है, अबन्धकका १ है ।
विशेष - मारणान्तिक पद परिणत असंयत सम्यक्त्वी नपुंसक वेदीका अच्युत कल्पके स्पर्शनकी अपेक्षा भाग कहा है ( पृ० २७८) ।
निद्रा, प्रचला, प्रत्याख्यानावरण ४, भय-जुगुप्सा, तैजस- कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धकोंका क्षेत्र के समान लोकका असंख्यातवाँ भाग है। साता असाताके बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वलोक स्पर्शन है। दोनोंके बन्धकोंका सर्वलोक है : अबन्धक नहीं है । यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, दोनों गोत्रों में ( ? ) इसी प्रकार जानना चाहिए।
विशेष- दो गोत्रोंका वर्णन आगे आया है। इससे यहाँ उनके उल्लेखका पाठ अधिक प्रतीत होता है ।
मिथ्यात्व के बन्धकोंका सर्वलोक है।
विशेषार्थ -- खुद्दाबन्ध' टीका में लिखा है, नपुंसकवेदी जीवोंने स्वस्थान समुद्घात और उपपाद पदोंसे सर्वलोक स्पर्श किया है। इसका भाव यह है कि स्वस्थान, वेदना कषायमारणान्तिक समुद्घातों और उपपाद पदोंसे अतीत व वर्तमानकालकी अपेक्षा नपुंसकवेदियोने सर्वलोक स्पर्श किया है। तैजस व आहारक समुद्घात नपुंसकवेदियोंके नहीं होते । विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिक समुद्घात पदोंसे वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण क्षेत्र प्ररूपणा के समान है । अतीतकालकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है। इतनी विशेषता है
१. " सम्मामिच्छादिट्ठि - असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अचोट् सभागा वा देसूणा फोसिदा । " पटखं०, फो० सू० १०६ । २. बुंसयवेदा सत्थाण - समुग्धादउववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सम्बलोगो । - खु० बं० सू० १३८, १३९ ।
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पय डिबंधाहियारो
२५३ छच्चोहसभागो । इत्थि० पुरिस० णqसग-वेदाणं बंधगा अबंधगा सव्वलोगो । तिण्णं बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा णस्थि । हस्सादि०४ बंधगा अबंधगा । [एवं] दोणं युगलाणं बंधगा अबंधगा खेत्तभंगो । एवं पंचजादि-छस्संठा तसथावरादि-अट्ठयुगलं दोआयु. आहारदुगं तित्थयरं खेत्तभंगो। अबंधगा सव्वलोगो। तिरिक्खायु-बंधगा अबंधगा सबलोगो। मणुसायुबंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा सव्वलोगो। चदुण्णं आयुगाणं बंधगा अबंधगा सव्वलोगो । एवं छस्संघ० दोविहा० दोसर० । दोगदि० दोआणु० बंधगा छच्चोदसभागो। अबं० सव्वलोगो । दोगदि० दोआणु० बंधगा अबंधगा सबलोगो । चदुगदि-चदुआणु० बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा खेत्तभंगो। ओरालियसरीरस्स बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा बारह० । वेउब्विय० बंधगा बारह । अबंधगा सबलोगो। दोणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा कि वैक्रियिक पदसे तीन लोकोंके संख्यातवें भाग तथा मनुष्य लोक और तिर्यग्लोकसे असं. ख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है क्योंकि विक्रिया करनेवाले वायुकायिक जीवोंके १४ भाग स्पर्शन पाया जाता है ( खु० बं० टी० पृ० ४२२)।
अबन्धकोंका १२ भाग है।
विशेष-मारणान्तिक पद परिणत मिथ्यात्व के अबन्धक सासादन सम्यक्त्वी जीवोंने २३ भाग स्पर्श किया, कारण नारकियों के ५ राजू तथा तिर्यंचोंके ७ राजू इस प्रकार १२ राजू बाहल्यवाला राजू प्रतर प्रमाण स्पर्शन क्षेत्र है ( २७७ )।
अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंका सर्वलोक है : अबन्धकोंका है।
विशेष-मारणान्तिक पद परिणत संयतासंयतोंने ६ स्पर्श किया है, कारण अच्युत कल्पके ऊपर संयतासंयत तियं चोंके गमनका अभाव है (२७८)। ____स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेदके पृथक्-पृथक् रूपसे बन्धकों और अबन्धकोंका सर्वलोक स्पर्शन है। तीनों वेदोंके बन्धकोंका सर्वलोक है ; अबन्धक नहीं है । हास्यादि चारके पृथक्पृथक रूपसे बन्धकों, अबन्धकोंका इसी प्रकार है। दोनों युगलोंके बन्धकों अबन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है । इसी प्रकार पाँच जाति, ६ संस्थान, स-स्थावरादि ८ युगल तथा २ आयुमें जानना चाहिए । आहारकद्विक तथा तीर्थंकरका क्षेत्रवत् भंग है ; अबन्धकोंके सर्वलोक है । तिथंचायुके बन्धको अबन्धकोंका सर्वलोक है। मनुष्यायुके बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग है वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका सर्वलोक है। चारों आयुके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक है। छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वर, इसी प्रकार है । दो गति, दो आनुपूर्वीके बन्धकोंका : भाग है; अबन्धकोंका सर्वलोक है। दो गति, २ आनुपूर्वीके बन्धकों,अब. न्धकोंका सर्वलोक है । चार गति, चार आनुपूर्वीके बन्धकोंका सर्वलोक है; अबन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है। औदारिक शरीरके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धकोंका १३ है। वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंका १३ है । अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनोंके बन्धकोंका सर्वलोक है । अब
१. “सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । बारह चोद्दसभागा वा देसूणा।" :- षट्खं०,फो०, सू० ११२, ११३ । २. “णउसयवेदेसु असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदेहि
केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागा छनोद्दसभागा देसूणा।" -सू० ११५ ।
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महाबंधे
२५४ खेत्तभंगो । ओरालिय-अंगोवंगं बंधगा, अबंधगा सबलोगो। वेउब्धिय-अंगोवंगं, बंधगा बारहभागो, अबंधगा सबलोगो । दोण्णं बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। परघादुस्सासं आदावुज्जोवं बंधगा अबंधगा सव्वलोगो । एवं णीचुचागोदाणं । अवगदवेदे खेतभंगो । एवं अकसाइ० केवलिणा० संज० सामाइ० छेदो० परिहा० सुहुमं प० (सुहुमसंप०) यथाक्खाद० केवलदंसण त्ति । कोधादि०४ ओघभंगो। णवरि धुविगाणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा णस्थि । यं हि अबंधगा अस्थि तं हि लोगस्स असंखेजदिभागो।
न्धकोंका क्षेत्रके समान है। औदारिक अंगोपांगके बन्धकों और अबन्धकोंका सर्वलोक है। वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंका १३ है ; अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनों के बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक है । परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योतके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक है। इसी प्रकार नीच गोत्र, उन गोत्रका है।
अपगत वेद में क्षेत्र के समान भंग है।'
विशेषार्थ-अपगतवेदी जीवोंने स्वस्थान पढ़ोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। दण्ड, कपाट वा मारणान्तिक समुद्घातोंको प्राप्त अपगत वेदियों-द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवाँ भाग, अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीत और वर्तमानकालकी अपेक्षा स्पृष्ट है। विशेप, कपाट समुद्भातगत अपगतवेदियों-द्वारा तिर्यग्लोकका संख्यातवाँ भाग अथवा संख्यातगुणा (तिरियलोगस्स संखेजदिभागो संखेजगुणो वा फोसिदो) क्षेत्र स्पृष्ट है । प्रतर समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यात बहुभाग तथा लोकपूरण समुद्घात अपगत वेदियोंकी अपेक्षा सर्वलोक स्पृष्ट है। इनमें उपपाद पदका अभाव है। (खु० बं०,टीका,पृ० ४२३-४२५)।
अकषाय, केवलज्ञान, संयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यात, केवलदर्शनमें इसी प्रकार है।
विशेषार्थ-पर्यायार्थि कनयका अवलम्बन करनेपर संयत जीव अपायी जीवोंके तुल्य नहीं है। क्योंकि अकषायी जीवोंमें अविद्यमान वैक्रियिक-तैजस और आहारक समुद्घात पद संयतोंमें पाये जाते हैं।
पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर सामायिक-छेदोपस्थापना शुद्धिसंयत जीव मन:पर्ययज्ञानियोंके तुल्य होते हैं क्योंकि मनःपर्ययज्ञानियोंमें तैजस तथा आहारक समुद्घातपदों का अभाव है, किन्तु सूक्ष्मसाम्परायी मनःपर्ययज्ञानियोंके तुल्य नहीं होते। सूक्ष्म साम्पराय संयमियोंमें वैक्रियिक पदका अभाव है। (खु० बं०, टीका,पृ० ४३१-४३२ )। ___क्रोधादि ४ कषायमें-ओघके समान भंग है। विशेष, ध्रुव प्रकृतियों के बन्धको का सर्वलोक है; अबन्धक नहीं हैं । जहाँ अबन्धक है वहाँ लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है।
१. “अपगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलितिः ओघं । सजोगिकेवली ओघं ।"-षट्खं०, फोसू० ११८, ११६ । अवगदवेदा सत्यागेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। समुग्धादगदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। असंखेज्जा वा भागा। सम्वलोगो वा। उववाद णत्थि । अकसाई अवगदवेदभंगो। केवलणाणी अवगदवेदभंगो। संजमाणुवादेण संजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा अकसाइभंगो । सामाइयच्छेदोवद्रावणसुद्धिसंजद-सुहमसांपराइयसंजदाणं मणपज्जवणाणिभंगो। केवलदंसणी केवलणाणिभंगो -खु० बं०,सू० ।
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पयडिबंधाहियारो
२५५ २०८. मदि० सुद०-धुविगाणं बंधगा सबलोगो। अबंधगा णथि । सादासाद-बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। दोण्णं बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा णत्थि । एवं तिण्णिवे. हस्सादि-दोयुगलं पंचजादि-छस्संठा तसथावरादिणवयुगलं दोगोदाणं च । मिच्छत्तं बंधगा सव्वलोगो। अबं० अट्ठबारह० । दो-आयुबंधगा खेत्तभंगो । अबंधगा सव्वलोगो तिरिक्खायुबंधगा अबं० सव्वलोगो । मणुसायु-बंधगा अदुबारह सव्वलोगो। अबंधगा सव्वलोगो । चदुआयुबंध० अबं० सव्वलोगो । एवं छस्संघ दोविहा० दोसर० । णिरयगदि-णिरयाणु० बंधगा छच्चोदस० । अबं० सबलोगो। दोगदि० दोआणु ० बंध० अबं० सबलोगो। देवगदि-देवगदिपाओ० बंधगा पंच-चोद्दस० । अबं० सव्वलोगो । चदुगदि-चदुआणु० बंधगा सबलोगो। अबंधगा णस्थि । ओरालि० बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा एक्कारहभागो । वेउब्धियाणु ० (१) ( वेउब्धिय ) बंधगा एक्कारहभागो । अबंधगा सबलोगो। दोणं बंधगा सबलोगो। अबंधगाणत्थि । ओरालिय०
२०८. मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानीमें-ध्रुव प्रकृति योंके बन्धकोंका सर्वलोक है : अबन्धक नहीं हैं । साता, असाताके' बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनोंके बन्धकोंका सर्वलोक है। अबन्धक नहीं हैं। तीन वेद, हास्यादि दो युगल, ५ जाति, ६ संस्थान, त्रस-स्थावरादि नव युगल तथा २ गोत्रोंमें इसी प्रकार है ! मिथ्यात्व के बन्धकोंका सर्वलोक है; अबन्धकोंका
विशेष-मिथ्यात्वके अबन्धक सासादन सम्यक्त्वी जीवोंकी अपेक्षा विहारवत्. स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक पदोंमें कई भाग है। मारणान्तिककी अपेक्षा १३ भाग है। (पृ० २८२ )।
देव-नरकायुके बन्धकों का क्षेत्रके समान भंग है ; अबन्धकोंका सर्वलोक है । तिर्यंचायुके बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वलोक है। मनुष्यायुके बन्धकोंका दह, १३ वा सर्वलोक है । अबबन्धकोंका सर्वलोक है। चार आयुके बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वलोक है। छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वर में इसी प्रकार है। नरकगति, नरकानपूर्वोके बन्धकोंके है। अबन्धकोंके सर्वलोक है। मनुष्यगति-तियंचगति, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वीके बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वलोक है। '
विशेषार्थ खुद्दाबन्धकी टीकामें लिखा है-स्वस्थान-स्वस्थान वेदना, कषाय, मारणान्तिक समुद्भात तथा उपपाद पदोंसे अतीत व वर्तमानकालकी अपेक्षा मति-श्रुत-अज्ञानी जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है क्योंकि ऐसा स्वभावसे है। विहारवत् स्वस्थानपदसे अतीत व वर्तमानकालकी अपेक्षा यथाक्रमसे भाग व तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिक पदकी अपेक्षा वर्तमानकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है। अतीतकालकी अपेक्षा नई भाग स्पृष्ट है (पृ०४२६)।
देवगति, देवगत्यानुपूर्वीके बन्धकोंका १४, अबन्धकोंके सर्वलोक है । ४ गति, ४ आनुपूर्वीके बन्धकोंका सर्वलोक है ; अबन्धक नहीं हैं।
१. णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी सत्थाण-समुग्घादउववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? सन्वलोगो वा । -खु. बं.०,सू० १४६-१५०
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२५६
महाबंधे अंगोवंगं बंधगा,अबंधगा सबलोगो । गुब्बिय० अंगोवंगं बंधगा [अबंधगा] वेगुब्धिय० भंगो । दोण्णं बंधगा अबं० सव्वलोगो ।
२०६. एवं अन्भवसिद्धि० मिच्छादिविम्हि [वि ] भंगे धुविगाणं बंधगा अट्टतेरहभागो, सबलोगो वा । अबंधगा णस्थि । सादासाद० बंधगा अबंधगा अट्ठतेरहभागो, सबलोगो वा । दोण्णं बंधगा अट्ठतेरहभागो, सबलोगो वा। अबंधगा णत्थिः । एवं चदुणो०४ (?) थिराथिर-सुभासुभाणं । मिच्छत्त-बंधगा अट्ठतेरह. सव्वलोगो वा। अबंधगा अहवारहभागो । इत्थि. पुरिस० बंधगा अट्ठवारह-चोद्दस० । अबं० अट्टतेरह० सव्वलोगो वा । णस० बंधगा अट्टतेरह० सबलो० । अबंधगा अट्ठबारह । तिण्णं वेदाणं बंधगा अट्ठतेरह. सव्वलोगो वा । अबंधगा पत्थि । इत्थिवेदभंगो पंचिंदियजादि पंचसंठा० छरसंघ० तससुभग० आदेज० । णवुसगभंगो एइंदिय-हुंड संठा० थावरभग-अणादेजाणं । णवरि एइंदिय-थावर-बंधगा अढणव० सव्वलोगो वा । अबंधगा अदुवारहभागो । पत्तेगेण साधारणेण वेदभंगो । दोआयु० तिण्णिजादि-बंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा अट्ठतेरह० सबलोगो वा । दोआयु० मणुसगदि० मणुसाणु० आदाव० उच्चा
औदारिक शरीरके बन्धकोंका सर्वलोक है : अबन्धकोंका है। वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंका १३ है; अबन्धकोंका सर्वलोक है।
विशेष-उपपादकी अपेक्षा नीचेके ५ राजू तथा ऊपरके छह राजू इस प्रकार भाग स्पर्शन है । ( २८२ )।
दोनों शरीरके बन्धकोंका सर्वलोक है; अबन्धक नहीं हैं। औदारिक अंगोपांगके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक है। वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकों [ अबन्धकों ] का वैक्रियिक शरीरके समान है अर्थात् बन्धकों का १३, अबन्धकों का सर्वलोक भंग है । दोनों के बन्धको अबन्धकोंका सर्वलोक है।
२०६. अभव्यसिद्धिको में और मिथ्यादृष्टियों में इसी प्रकार है। विभंगज्ञानमें-ध्रुव प्रकृतियों के बन्धको का कह, १३ वा सर्वलोक है । अबन्धक नहीं है।
विशेष-मेस्तलसे ऊपर ६ राजू तथा नीचे २ राजू इस प्रकार है तथा मेरुतलसे ऊपर ७ राजू तथा नीचे ६ राजू इस प्रकार १३ भाग है।
साता-असाताके बन्धको, अवन्धकों का ई, १३ वा सर्वलोक है। दोनों के बन्धकों का वई, १ वा सर्वलोक है; अवन्धक नहीं हैं। हास्य, रति, अरति, शोक ये ४ नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभमें इसी प्रकार है। मिथ्यात्व के बन्धकोंका ४, १३ वा सर्वलोक है; अबबन्धको का 5, १४ है । स्त्रीवेद-पुरुषवेदके बन्धको का ४, १९ हैं; अबन्धको का ६४, वा सर्वलोक है। नपुंसकवेदके बन्धको का कर, १३ वा सर्वलोक है; अबन्धकों का है, १४ है। तीनों वेदों के बन्धकों का 45,१३वासवेलोक है; अबन्धक नहीं है। पंचेन्द्रिय जाति, ५संस्थान, ६ संहनन, त्रस, सुभग, आदेयमें स्त्रीवेद का भंग है। एकेन्द्रिय हुंडक संस्थान, स्थावर, दुर्भग तथा अनादेयमें नपुंसकवेदका भंग है। विशेष, एकेन्द्रिय, स्थावरके बन्धकोंके , हवा सर्वलोक है ; अवन्धकोंके , १३ है । प्रत्येक तथा सामान्यसे वेदके समान भंग है । दो 'आयु, तीन जातिके बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है ; अबन्धकोंका है, वा सर्वलोक है। '
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पडबंधाहियारो
गोदं बंधा अचोद सभागो । अबंधगा अट्ठतेरह ० सव्वलोगो वा । णिश्यगदिबंधगा 'छचोद सभागो । अबंधगा अट्ठतेरह ० सव्वलोगो वा । तिरिक्खगदि० णीच० बंधगा अट्ठतेरह ० सव्वलोगो वा । अबंधगा अडेक्कारस० । णवरि णीचा० अट्टभागो | देवगदिगंधगा पंचचोदस० । अबंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । चदुष्णं गदीणं बंधगा अट्टतेरहभागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा णत्थि । एवं चेव आणुपुब्विणीचुच्चागो० | ओरालियसरीरं बंधा अट्ठतेरह भागो सव्वलोगो वा । अबंधगा एकारहभागो । वे उब्विय-बंधगा एक्कारह० । अबंधगा अट्ठतेरह भागो [सव्वलोगो वा ] । दोण्णं वे० (बं० ) अट्ठतेरह ० सव्वलो० । अबंधगा णत्थि । ओरालि० अंगो० बंधगा अट्ठबारह ० । अबंधगा अट्ठतेरह ० सव्वलो० । वेउब्विय० अंगो० बंधगा एकारह० । अबंधगा अडतेरह ० सव्वलो० । दोणं बंधगा अट्ठारह ० । अबंधगा अट्ठणवचो० सव्वलोगो वा । परघादुस्सा बंधगा अतेरह ० सव्वलोगो वा । अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सव्वलोगो वा । arta-धगा अतेरह भागो, अबंधगा अद्भुतेरहभागो सव्वलोगो वा । एवं जसगित्ति० । पत्थविहायगर्दि बंधगा अट्ठबारहभागो । अबंधगा अट्ठतेरह ० सव्वलो० । अप्पसत्थवि० बंधगा अट्ठबारह ० | अबंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । दोणं बंधगा अट्ठबारह ० । अ० अणवचोहसभागो, सव्वलोगो वा । एवं दोसर ० बादरबंधगा अट्ठतेरह० । अबंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा । तव्विवरीदं सुहुमं । दोष्णं बंध०
1
०
दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, आतप तथा उच्चगोत्र के बन्धकोंके है, अबन्धकोंके सर्वलोक है । नरकगतिके बन्धकोंके है अबन्धकोंके, वा सर्वलोक है । तिर्यंच गति, नीच गोत्रके बन्धकोंके १, १३ वा सर्वलोक है; अबन्धकोंके है । विशेष, नीच गोत्रका है । देवगतिके बन्धकोंके है ; अबन्धकोंके १४, १३ वा सर्वलोक है । चारों गतियोंके बन्धकोंके, १३ वा सर्वलोक है। अबन्धक नहीं हैं। इसी प्रकार आनुपूर्वियों तथा नीच, उच्च गोत्रों में जानना चाहिए ।
औदारिक शरीर बन्धकका वा सर्वलोक है : अबन्धकोंका १४ है । वैकि शरीर बन्धकोंका है: अबन्धकोंके व सर्व लोक है। दोनों के बन्धकोंके व सर्वलोक है, अबन्धक नहीं है । औदारिक अंगोपांग के बन्धकोंका १३ अबन्धकोंके १६, १३ वा सर्वलोक है । वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंका
अबन्धकोंके, वा
व सर्वलोक है। दोनों अंगोपांगों के बन्धकका १३ है अबन्धकोंके, सर्वलोक है । परघात, उच्छ्वास के बन्धकोंका वा सर्वलोक है : अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । उद्योतके बन्धकोंका, १३ है अबन्धकोंके, सर्वलोक है । यशःकीर्ति में इसी प्रकार जानना चाहिए |
वा
२५७
प्रशस्त विहायोगतिके बन्धकोंके ११ है अबन्धकोंके, वा सर्वलोक है । अप्रशस्त विहायोगति के बन्धकोंके, १३ है अबन्धकोंके, १३ वा सर्वलोक है । दोनोंके बन्धक है, अबन्धकोंके, वा सर्वलोक है । इसी प्रकार दो स्वरके विषय में जानना चाहिए। बादरके बन्धकोंके है : अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा
३३
१४,
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२५८
महाबंधे अट्ठतेरह० सबलोगो वा । अबं० णत्थि। पजत्त० पत्तेग बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । अबं० लोगस्स असंखेजदिभागो सबलोगो वा । तविवरीदं अपज. साधारण । दोण्णं बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा। अबंधगा णस्थि । अजस० बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलो० । अबं० अट्ठतेरह० । दोण्णं बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा त्थि।
२१०. आभि० सुद० ओधि०-पंचणा० छदंस० अट्ठकसा० पुरिस० भयदु० पंचिंदि० तेजाक० समचदु० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थ० तस०४ सुभगादितिणि णिमिण-उच्चागोद-पंचंतराइगाणं बंधगा अट्ठचो० । अबं० खेत्तभंगो । सर्वलोक है । सूक्ष्म के विषयमें विपरीत क्रम है अर्थात् बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है: अबन्धकोंका ... वा १३ है। दोनोंके बन्धकोंका -5.१३ वा सर्वलोक है। अबन्धक नहीं हैं। पर्याप्त प्रत्येकके बन्धकोंका 5, १३ वा सर्वलोक है ; अबन्धकोंमें लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । अपर्याप्त तथा साधारणमें इसके विपरीत क्रम है अर्थात् बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके 45, १३ वा सर्वलोक है। दोनों के बन्धकोंका १४ वा सर्वलोक है। अबन्धक नहीं है । अयशःकीर्ति के बन्धकोंका पई, १४ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका, १३ है। दोनों के बन्धकोंका दहे, हे वा सर्व लोक है। अबन्धक नहीं हैं।
विशेषार्थ-खुद्दाबन्धमें विभंगज्ञानीके सम्बन्धमें इस प्रकार लिखा है - विभंगज्ञानी जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। अतीत कालकी अपेक्षा उनने देशोन भाग स्पर्श किया है । स्वस्थान पदोंसे विभंगज्ञानी जीवोंने तीन लोकोंका असं. ख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवाँ भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातवाँ गुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । विहारवत् स्वस्थानकी अपेक्षा देशोन भाग स्पर्श किया है। समुद्घातकी अपेक्षा विभंगज्ञानी जीवोंने लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है । अतीत कालकी अपेक्षा उनने देशोन भाग स्पर्श किया है। विहार करनेवाले विभंगज्ञानियोंने वेदना कषाय और वैक्रियिक समुद्घात पदोंसे देशोन भाग स्पर्श किया है। मारणान्तिक पदका आश्रय कर सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि विभंगज्ञानी तिथंच और मनुष्यों के मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा अतीत कालमें सर्वलोक स्पर्श पाया जाता है। देव तथा नारकियोंके मारणान्तिक समुद्घातका आश्रय कर १३ भाग होते है। इनके उपपाद पदका अभाव है।
२१०. आभिनिबोधिक-श्रुत-अवधिज्ञानियोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ८ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय, तैजस- कर्मण, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त-विहायोगति, त्रस ४, सुभगादि ३, निर्माण, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायके बन्धकोंके कह, अबन्धकोंमें क्षेत्रके समान भंग है । अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है।
विशेष-अतीत कालकी अपेक्षा विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक तथा मारणान्तिक समुद्घातगत सम्यक्त्वी जीवोंने ६ भाग स्पर्शन किया, जो कि मेरुके मूलसे ६ राजू ऊपर तथा नीचे दो राजू प्रमाण है । ( १६७)
१. विभंगणाणी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अटुचोदसभागा देसणा। समुग्धादेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्रचोदृसभागा देसूणा फोसिदा । सबलोगोवा। उववादं णत्थि। - खदा बंध,सू०१५१-१५८ । २. संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। -षट्खं०,फो०,सू०७।
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२५९
पयडिबंधाहियारो सादासाद-बंधगा अबंधगा अट्ठचोदस० । दोण्णं बंधगा अट्ठचोद्दस० । अबं० णत्थि । अप्पचक्खाणा०४ बजरिसह० बंधगा अट्टचो० । अबं० छचोदस० । हस्सरदि-अरदिसोगाणं बंधगा अबंधगा अडचोद्दस० । दोणं युगलाणं बंधगा अट्टचो० । अबं० खेत्तभंगो । एवं थिराथिर-सुभासुभ-जसअजसगित्तीणं। मणुसायुतित्थयरं बंधा अबंधगा अट्ठचोद्दसभागो। देवायु. आहारदुग० बंधगा खेत्तभंगो। अबं० अढचो० । दोणं आयुगाणं बंधा अबंधगा अडचोदस० । मणुसगदि०४ बंधगा अट्ठचोदस० । अबं० छच्चोदस० । देवगदि०४ बंधगा छच्चोइस० । अबं० अट्टचोद्दस० । दोणं बं० अट्ठचोद्दसभागो। अबंधगा खेत्तभंगो। एवं दोसरी० दोअंगो० आणु० । एवं ओधिदं० ।
साता-असाताके बन्धकों, अबन्धकोंका है। दोनोंके बन्धकोंका है ; अबन्धक नहीं हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४. वनवृषभसंहननके बन्धकोंका ; अबन्धकोंका पर है।'
विशेष-मारणान्तिकसमुद्धातगतसंयतासंयतोंने अच्युतकल्प पर्यन्त १४ भाग स्पर्श किया है। . हास्य-रति, अरति-शोकके बन्धकों,अबन्धकोंका है। दोनों युगलोंके बन्धकोंका यह है। अबन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है। इस प्रकार स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यशःकीर्ति-अयशकीर्तिमें भी जानना चाहिए। मनुष्यायु तथा तीर्थकरके बन्धकों, अबन्धकों के 5 है। देवायु तथा आहारकद्विकके बन्धकोंका क्षेत्रवत् भंग है अर्थात् लोकके असंख्यातवें भाग है। अबन्धकोंके ६४ है।
___ दो आयुके बन्धकों, अबन्धकोंका २४ है। मनुष्यगति ४ के बन्धकोंका है। अबन्धकोंका कर है । देवगति ४ के बन्धकोंका कर है ; अबन्धकोंका ६ है ।।
___ विशेष-मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांगके अबन्धक देशवतीकी अपेक्षा कहा है।
मनुष्यगति, देवगति के बन्धकोंका ६ है । अवन्धकोंका क्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवाँ भाग है। दो शरीर, दो अंगोपांग तथा दो आनुपूर्वीमें इसी प्रकार जानना चाहिए।
अवधिदर्शनमें - ऐसा ही जानना चाहिए।
विशेषार्थ-आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी तथा अवधिज्ञानी जीवोंने स्वस्थान. और समुद्घात पदोंसे वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है । अतीत कालकी अपेक्षा देशोन ६ भाग स्पर्श किया है। उक्त तीन ज्ञानवाले जीवोंने स्वस्थान पदोंसे तीन लोकोंका असंख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवाँ भाग तथा अढ़ाई द्वीपसे असंख्यात गुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है । तैजस और आहारक समुद्घात की अपेक्षा क्षेत्रके समान निरूपण है । विहार वत् स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक समुद्घात पदांसे देशोन १४ भाग स्पर्श किया है ।
१. पमत्तसंजदप्पडि जाव अजोगिकेवलीहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। -पटर्ख०,फो० सू०९। २. असंजदसम्माइट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्ठचोद्दसभागा वा देसूणा -सू०५-६।
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२६०
महाबंधे
मणपञ० संजद ० सामा० छेो० परिहार० सुदुमसंप० खेत्तभंगो ।
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२११. संजदासंजद - विगाणं बंधगा छच्चोहस० । अबंधगा णत्थि । सादासाद- बंधा अबंधगा छच्चोद्दस० | दोष्णं पगदीणं बंधगा छच्चोद सभागो । अबंधगा णत्थि । एवं चदुणोक० थिरादि- तिष्णियुगल० । देवायु- तित्थयरं बंधगा खेत्तभंगो । अ० छच्चोद्दसभागो । असंजदेसु-धुविगाणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा णत्थि । श्रीणगिद्धितियं अर्णताणुर्व०४ बंधगा सव्वलो० । अबंधगा अट्ठचोदस० | मिच्छत्तअतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच असंयत सभ्य भाग है ।
उपपाद पदसे लोकका असंख्यातवाँ भाग तथा भाग स्पर्श किया है। आरण, अच्युत आदिके देवों में दृष्टि और संयतासंयत जीवोंका उपपाद क्षेत्र देशोन
शंका- नीचे दो राजू मात्र मार्ग जाकर स्थित अवस्था में आयुके क्षीण होनेपर मनुष्य में उत्पन्न होनेवाले देवीका उपपाद क्षेत्र क्यों नहीं ग्रहण किया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि प्रथम दण्डसे कम उसका भागांमें ही अन्तर्भाव हो जाता है तथा मूल शरीर में जीव प्रदेशों के प्रवेश बिना उस अवस्था में उनके मरणका अभाव भी है। (खु०बंटी पृ० ४२-४३० ) १
मन:पर्ययज्ञानी, संयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय मेंक्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवाँ भाग है ।
विशेष-संयम, सामायिक छेदोपस्थापना तथा सूक्ष्मसाम्परयका वर्णन पहले अपगतवेद के साथ आ चुका है। यहाँ पुनः उनका कथन चिन्तनीय है ।
२११. संयतासंयतों में - ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकोंका है। अवन्धक नहीं है । साताअसाताके बन्धकों,अबन्धकोंका है। दोनों प्रकृतियों के बन्धकों का पैठ है, अबन्धक नहीं है । हास्य- रति, अरति शोक तथा स्थिरादि तीन युगलों में इसी प्रकार जानना चाहिए | देवायु तथा तीर्थंकर प्रकृति के बन्धकों का क्षेत्रके समान है; अवन्धकोंका
है।
विशेषार्थ - संयतासंयत जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है | धवला टीका में लिखा है कि वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण क्षेत्र प्ररूपण के समान है । अतीत कालमें तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यात गुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
शंका- विहारवत् स्वस्थान पदकी अपेक्षा उपर्युक्त स्पर्शनका प्रमाण भले ही ठीक हो, क्योंकि वैरी देवोंके सम्बन्धसे अतीत कालमें सर्वद्वीप, समुद्रों में संयतासंयत जीवोंकी सम्भावना है, किन्तु स्वस्थान पदकी अपेक्षा उक्त स्पर्शन नहीं बनता । कारण स्वस्थान में स्थित संयतासंयत जीवोंका सर्वद्वीप समुद्रों में अभाव है।
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यद्यपि सर्वत्र संयतासंयत जीव नहीं हैं, तथापि तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग प्रमाण स्वयंप्रभ पर्वतके पर भागमें स्वस्थान स्थित
१. आभिणिवोहिय - सुद ओहिणाणी सत्याण समुग्वादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अभागा देणा । उत्रवादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । छवोट्सभागा देणा । - ० ० सूत्र १५६ - १६४ । २. मणपज्जवणाणी सत्थाणसमुग्धादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स अलंखेज्जदिभागो । उववादं णत्थि । - खु० नं०, १६५ - १६६ । ३. पमत्त संदष्प हूडि जाव अजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो - षटूखं०, फो०, सू० है ।
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पयडिबंधाहियारो
२६१ बंधगा सव्वलोगो। अबं० अट्ठबारह० । वेउव्विय-छक्क आयुचदुक्कं तित्थयरं च
ओघं । सेसं मदि-अण्णाणिभंगो। चक्खुदं. तस-पज्जत्त-भंगो। णवरि केवलिभंगो णस्थि । अचक्खुदं० ओघं । णवरि केवलिभंगो णस्थि । संयतासंयत पाये जाते हैं।
समुद्घातोंकी अपेक्षा संयतासंयतोंने लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। अतीत कालकी अपेक्षा देशोन पंह भाग स्पर्श किया है । वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घात पदोंसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यात गुणे क्षेत्रको स्पर्श किया है। मारणान्तिक समुद्घातसे देशोन ६४ भागोंका स्पर्श किया है, क्योंकि तियचों में से अच्युन कल्प तक मारणान्तिक समुद्घातको करनेवाले संयता. संयत जीवों के उपर्युक्त स्पर्शन पाया जाता है। संयतासंयत गुणस्थानके साथ उपपादका विरोध होनेसे यहाँ उपपाद पद नहीं होता। ___असंयतोंमें-ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकांका सर्वलोक है; अबन्धक नहीं हैं । स्त्यानगृद्धि त्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धकोंका ६ है । मिथ्यात्वकै बन्धकोंका सर्वलोक है ; अबन्धकों का ६४, १३ हे । वैक्रियिकषट्क, आयु ४ तथा तीर्थकरका ओघवत् भंग है । शेप प्रकृतियोंका मत्यज्ञान के समान भंग है । चक्षदर्शनमें - त्रस-पर्याप्तके समान भंग है। विशेष, केवली भंग नहीं है । अचक्षदर्शनमें ओघवत् जानना चाहिए। विशेष, केवलीभंग नहीं है।
विशेषार्थ-चक्षुदर्शनी जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। अतीत कालकी अपेक्षा देशोन ६ भाग स्पर्श किया है। इन जीवांने स्वस्थानसे तीन लोकों के असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यात गुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा चक्षदर्शनी जीवों-द्वारा देशोन ६ भाग स्पृष्ट है । क्योंकि आठ राजू बाहल्यसे युक्त राजप्रतरके भीतर चक्षुर्दर्शनी जीवों के विहारका कोई विरोध नहीं है।
. चक्षुर्दर्शनी जीवों द्वारा समुद्घात पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है। अतीत कालकी अपेक्षा देशोन - भाग स्पृष्ट है क्योंकि विहार करनेवाले देवोंमें उत्पन्न वेदना कषाय और वैक्रियिक समुद्घातोंसे स्पर्श किया जानेवाला भाग प्रमाण क्षेत्र देखा जाता - है। मारणान्तिक-समुद्घातकी अपेक्षा स्पर्शन सर्वलोक प्रमाण है, देव व नारकियों द्वारा मारणान्तिक समुदघातकी अपेक्षा १३ भाग स्पष्ट है। क्योंकि लोकनालीके बाहर इनके उत्पाद का अभाव होनेसे मारणान्तिक समुद्घात के द्वारा गमन नहीं होता। तिर्यच व मनुष्योंके द्वारा सर्वलोक स्पृष्ट है, क्योंकि लोकनालीके बाहर और भीतर मारणान्तिक समुद्घातसे उनका गमन पाया जाता है।
इन चक्षुदर्शनी जीवोंमें उपपाद कथंचित् पाया जाता है, कथंचित् नहीं भी पाया जाता है ( उववादं सिया अत्थि, सिया णत्थि )|चक्ष-इन्द्रियावरणके क्षयोपशम रूप लब्धिकी अपेक्षा उपपाद है, वह अपर्याप्त कालमें भी पाया जाता है । गोलकरूप चक्षुकी नियत्तिका
१. संजदासजदा सत्याणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्म असंखेज्जदिभागो। छचोहसभागा वा देसूणा। उववादं णस्थि । -खु० बं०,सू० १७१-१७६।
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महाबंधे २१२. किण्ह-णील-काउ - धुविगाणं बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा णस्थि । थीणगिद्धि३ अर्णताणु०४ बंधगा अबंधगा खेत्तभंगो। मिच्छत्तबंधगा सबलोगो । अबंधगा पंच-चत्तारि-बे-चौदसभागो वा । दो आयु-देवगदि-देवाणु० तित्थयर-बंधगा खेत्तभंगो । अबंधगा सव्वलोगो ।
नाम निवृत्ति है। वह अपर्याप्त काल में नहीं है। इसलिए - "लद्धि पडुच्च अत्थि, णिवत्तिं पडुश्च णत्थि ।" (सू० १८६ खु० बं० )। लब्धिकी अपेक्षा उपपाद पदसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है । यह वर्तमान काल की अपेक्षासे है । अतीत कालकी अपेक्षा सर्वलोक स्पृष्ट है।
चक्षुदर्शनी तिथंच और मनुष्यों में से चक्षुदर्शनियों में उत्पन्न हुए देव व नारकियां-द्वारा १४ भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि लोकनालीके बाहर चक्षुदर्शनी जीवोंका अभाव है, तथा आनतादि उपरिम देवोंका तियचोंमें उत्पाद भी नहीं है। यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है । एकेन्द्रिय जीवोंमें-से चक्षु-इन्द्रिय सहित जीवोंमें उत्पन्न हुए जीवों द्वारा प्रथम समयमें सर्वलोक स्पृष्ट है; क्योंकि वे अनन्त हैं तथा सर्व प्रदेशोंसे उनके आगमनकी सम्भावना भी है । (खु० बं० ४३४-४३७ )।
_अचक्षुदर्शनीमें असंयतके समान भंग है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके तुल्य नहीं है, क्योंकि अचक्षुदर्शनियों में तैजस तथा आहारक समुद्घान पद पाये जाते हैं ।
विशेषार्थ-कृष्णादि लेश्यात्रयमें असंयतोंके समान भंग है । असंयतोंमें नपुंसक वेदके समान भंग है । नपुंसक वेद में स्वस्थान, समुद्घात तथा उपपादसे सर्वलोकस्पृष्ट है।
२१२. कृष्ण-नील-कापोत लेश्यामें - ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंके सर्वलोक है; अबन्धक नहीं है । स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकों, अबन्धकोंका क्षेत्र के समान भंग है । मिथ्यात्वके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धकोंका ५४, ३४.३४ है ।
विशेष-मारणान्तिक समुद्धात तथा उपपाद-पद-परिणत छठे नरकके नारकी सासादन गुणस्थानीने कृष्णलेश्यायुक्त हो १४, नील लेश्यावाले ५वीं पृथ्वीवालोंने ४ तथा कापोत लेश्यावाले तीसरी पृथ्वीके नारकी सासादनसम्यक्त्वी जीवोंने 3 भाग स्पर्श किया है (पृ० २६१)।
देवायु, नरकायु, देवगति, देवानुपूर्वी तथा तीर्थंकरके बन्धकोंका क्षेत्र के समान लोक
१. सणाणुवादेण चक्खुदंसणी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं कोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्ठचोद्दसभागा वा देसूणा । समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो अटुचोद्द सभागा देसूणा। सव्वलोगो वा उववादं सिया अस्थि सिया पत्थि । लद्धि पडुच्च अस्थि, णिवत्ति पडुच्च णत्थि । जदि लद्धि पडुच्च अत्यि, केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। सव्वलोगो वा । -खु० ब०,सू० १७-१८६ । अचक्खुदंसणी असंजदभंगो । सू० १६० । असंजदाणं णसयभंगो १७७ । णव॑सयवेदा सत्थाण-समुग्घाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सबलोगो -सू० १३८, १३९ । २. लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-का उलेस्सियाणं असंजदभंगो -सू० १६३, खु० बं०। ३. सासणसम्मादिट्रीहि केवडियं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्ठबारहचोदृसभागा वा देसूणा । सू० ३-४। सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । पंचचत्तारिवेचोद्दसभागा वा देसूणा। स० - १४७, १४८ ।
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२६३
पयडिबंधाहियारो तिरिक्ख-मणुसायु० णqसगभंगो । चदुआयु-बंधगा अबंधगा सबलोगो । णिरयगदिदुर्ग वेगुम्वियदुगं बंधगा छच्चोद्दस-चत्तारिबे० । अबंधगा सव्वलोगो। ओरालि० बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा छचत्तारि-बेचोद्दस ० । दोणं सरीराणं बंधगा सबलोगो । अबंधगा णस्थि । सेसाणं असंजदभंगो। तेउलेस्साए-पंचणा० छदंस० चदुसंज० भयदुगुं तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ बादर-पजत्त-पत्तेय. णिमि० पंचंत० बंधगा अट्ठणवचो० । अबधगा णस्थि । थीणगिद्धितियं अणंताणुबंधि०४ बंधगा अढणवचो० । अबंधगा अट्ठचोदसभागो। सादासाद-बंधगा अट्ठणवचो० । दोण्णं बंधगा अट्ठणवचो० । अबंधगा का असंख्यातवाँ भाग है ;. अबन्धकोंका सर्वलोक है। तियंचायु, मनुष्यायुका नपुंसकवेदके समान भंग है । चारों आयुके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक जानना चाहिए।
नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंके कई, १४, १३ है: अबन्धकोंके सर्वलोक हैं।
विशेष-इन प्रकृतियों के बन्धक मनुष्य तथा तिथंच ही होंगे। देव तथा नारकी इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करते हैं। सातवें नरकमें मारणान्तिककी अपेक्षा कृष्ण लेश्यामें कर है। नील लेश्यामें ५वीं पृथ्वीकी अपेक्षा उपपाद या मारणान्तिकके द्वारा ३ है। कापोत लेश्यामें तीसरी पृथ्वीको अपेक्षा ३ है। ..
औदारिक शरीरके बन्धकोंके सर्वलोक है। अबन्धकों के कहर, २४ है। दोनों शरीरोंके बन्धकों के सर्वलोक है, अबन्धक नहीं है। शेष प्रकृतियोंका असंयतोंके समान भंग है।
विशेष-औदारिक शरीर के अबन्धक नारकियोंमें मारणान्तिककी अपेक्षा सातवीं, पाँचवीं तथा तीसरी पृथ्वीकी दृष्टिसे, छ, के भाग कहा है।
तेजोलेश्यामें-५ज्ञानावरण,६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय-जुगुप्सा, तैजस-कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धकोंका है। अबन्धक नहीं है।'
विशेषार्थ-विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पद परिणत मिथ्यात्वी जीवोंने र भाग, मारणान्तिक समुद्घात परिणत जीवोंने ६ भाग स्पर्श किया है । ( २६५)
'खुद्दाबन्ध'टीकामें लिखा है-तेजो लेश्यावाले जीवों द्वारा स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है । अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह (६) भाग स्पृष्ट है । विहारवतस्वस्थानकी अपेक्षा कुछ कम - भाग स्पृष्ट है, क्योंकि विहार करते हुए तेजोलेश्यावाले देवों के इतना स्पर्शन पाया जाता है।
समुद्घातकी अपेक्षा इस लेश्यावाले जीवों के द्वारा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है। अतीत कालकी अपेक्षा वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदोंसे परिणत तेजोलेश्यावाले जीवों-द्वारा भाग स्पृष्ट है, क्योंकि विहार करते हुए देवोंके ये तीनों पद सर्वत्र पाये जाते हैं। मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कर भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि मेरु मूलसे दो राजुओंके साथ ऊपर सात राजु स्पशेन पाया जाता है ।
१. "तेउलेस्सिएसु मिच्छादिठि-सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठणवचोद्दसभागा वा देसूणा।" -षट् खं०,फो०,सू० १५१-१५२ ।
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२६४
महाधे
1
स्थि । एवं चदुणोक० थिरादि - तिणि-युगलं । मिच्छत्त-उज्जोव-बंधगा अडणवचोद्दस ० | अपश्चक्खाणावरण०४ बंधगा अडणवचो० । अबंधगा दिवड्ढचोदसभागो । पच्चक्खाणावरण ०४ बंधगा अट्टणवचो० । अबंधगा खेत्तभंगो । इत्थ० पुरिस० बंधगा अट्ठचोदस० ।
are अपेक्षा वर्तमान कालकी दृष्टिसे लोकका असंख्यात भाग स्पर्शन है । अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम डेढ़ बटे चौदह १३ भाग स्पृष्ट हैं; क्योंकि मेरु मूलसे डेढ़ राजू मात्र ऊपर चढ़कर प्रभा पटलका अवस्थान है I
शंका- सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पोंके प्रथम इन्द्रक विमानमें स्थित तेजोलेश्यावाले देवों में उत्पन्न करानेवर १३ राजूसे अधिक क्षेत्र क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि सौधर्म, कल्पसे थोड़ा ही ऊपर जाकर सानत्कुमार कल्लका प्रथम पटल अवस्थित है । ऐसा न माननेपर उपर्युक्त १३- राजू क्षेत्र में जो कुछ न्यूनना बतलायी है, वह बन नहीं सकती । ( खु० नं०, टीका पृ० ४३६-४४० )
स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकों का प है । अबन्धकोंका ६४ है ।
विशेष - विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक तथा मारणान्तिक पद परिणत मिश्र तथा अविरत सम्यक्त्वी जीवोंने पीत लेश्या में ६४ स्पर्शन किया है। विशेष, मिश्र गुणस्थानमें मारणान्तिक नहीं होता है । उपपादपरिणत अविरत सम्यक्त्वी जीवोंके १३ भाग
४
होता है । ( २६६ )
साता,
असाताके बन्धकोंका १४, १४ है । दोनोंके बन्धकोंका ४४ है; अबन्धक नहीं है । हास्यरति, अरतिशोक, स्थिरादि तीन युगलमें इसी प्रकार जानना चाहिए । मिथ्यात्व तथा उद्योतके बन्धकोंके १४, ६४ है, अबन्धकोंके है । अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंके ६४, ६४ है; अबन्धकोंके १३ है ।
१४
विशेष – विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक पदसे परिणत मिध्यात्वी तथा सासादन गुणस्थानवर्ती जीवोंने १४, मारणान्तिक समुद्घात परिणत उक्त जीवोंने ४ तथा उपपाद परिणत उन जीवोंने स्पर्श किया है । मिश्र तथा अविरत गुणस्थान में भी ६४, ६४ भाग है । विशेष, मिश्र में मारणान्तिक नहीं होता है । उपपाद परिणत अविरत सम्यक्त्वो जीवोंने स्पर्श किया है।
प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंका १४, १४ है । अबन्धकोंका क्षेत्र के समान लोकका
१. तेउलेस्सियाणं सत्याणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठचोसभागा वा देसूणा । समुग्धादगदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठचोद्द सभागा वा सूना । उववादेहि केडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । दिवड्ढ चोद्द सभागा वा देसूणा - खु० नं०, सू० १६४ - २०२ । २. सम्मामिच्छादिट्टि असंजद सम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठचोदसभागा वा देसूणा । - षट्खं०, फो० सू० १५२ - १५३ । ३. संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । दिवड्ढचोद्दसभागा वा देसूणा । - सू० १५४ - १५५ ।
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२६५
पयडिबंधाहियारो अबंधगा अट्ठणवचो० । णस० बंधगा अट्ठणवचो० । अबंधगा अट्ठचोदस० । तिण्णि वेदाणं बंधगा अट्ठणवचो० । अबंधगा णस्थि । इस्थिभंगो दोआयु-मणुसगदिदुगं पंचिंदि० पंचसंठा० ओरालि. अंगो० छस्संघ आदा० दोविहा० तस-सुभग-आदे० तित्थयरं उच्चागोदं च । णqसगभंगो तिरिक्खगदिदुगं एइंदि० हुंडसंठा० थावर-दूभग-अणादे० णीचागोदं च । देवायु-आहारदुगं बंधगा खेत्तभंगो । अबंधगा अट्ठणवचोद्दस० । देवगदि०४ बंधगा दिवड्ढ-चोद्दसभागो। अबंधगा अट्ठणवचो० । ओरालियसरीरं बंधगा अट्ठणवचो० । अबंधगा दिवड्ढचोदसभागो। एवं पत्ते. साधारणेण वि । सन्चपगदीणं बंधगा अढणवचोदसभागो। अबंधगा णत्थि । आयु० अंगोवंग-संघडणविहाय [ एवं ] । पम्माए-पंचणा० छदसणा० चदुसंजल० भयदु० पंचिंदि० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमिण-पंचंतराइयाणं बंधगा अट्ठ० । अबंधगा णत्थि । असंख्यातवाँ भाग है । स्त्रीवेद, पुरुषवेदके बन्धकोंका छ, अबन्धकोंके ६४, ६ है । नपुंसकवेदके बन्धकोंके ६४, ६४ है; अबन्धकोंके ६४ है। तीनों वेदोंके बन्धकोंके ६४, ३४ है। अबन्धक नहीं हैं। मनुष्य-तिथंचायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय, पंच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, आसप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, आदेय, तीर्थकर तथा उच्चगोत्रका स्त्रीवेदके समान जागना चाहिए। तियचगति. तियचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, हुण्डकसंस्थान, स्थावर, दुभंग, अनादेय तथा नीचगोत्रका नपुंसकवेद के समान भंग है। देवायु, आहारकद्विकके बन्धकोंके क्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवाँ भाग है । अबन्धकोंका ६४, ६४ है । देवगति, देवगत्यापूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंके १३, अबन्धकोंके ६४, ६४ है । औदारिक शरीरके बन्धकोंके पंड, पंड है, अबन्धकोंके १३ है। प्रत्येक तथा सामान्यसे भी इसी प्रकार है। शेष सर्व प्रकृतियों के बन्धकोंके ६४, ६४ है; अबन्धक नहीं हैं । आयु, अंगोपांग, संहनन तथा विहायोगतिमें ( इसी प्रकार जानना चाहिए)। . पनलेश्यामें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय-जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धकोंके ६४ है। अबन्धक नहीं हैं।
विशेष-पालेश्यावाले मिथ्यात्वसे अविरत सम्यक्त्वी पर्यन्त जीवोंने विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक तथा मारणान्तिककी अपेक्षा ६ राजू ऊपर तथा नीचे दो राजू, भाग स्पर्श किया है। उपपादं परिणत उक्त जीवोंने ५४ स्पर्श किया है। विशेष, मिश्र गणस्थानमें उपपाद मारणान्तिकपनेका अभाव है। (पृ० १९८)। ___ 'खुद्दाबन्ध टीकामें लिखा है, पद्मलेश्यावाले जीवोंने स्वस्थान और समुद्घात पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम ६ भाग स्पर्श किये हैं। स्वस्थान पदकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यात गुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है। बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक समुद्घात पदोंसे परिणत इन जीवों द्वारा कुछ कम छ
१. "पम्मलेस्सिएमु मिच्छादिटिप्पडि जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असोजविभागो । अट्टयोद्दसभागो वा देसूणा।" -षट्खं०,फो० सू० १५४-१५५ ।
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२६६
महाबंधे थीणगिद्धितियं मिच्छत्त० अणंताणु०४ बंधा अबंधगा अट्ठचोद्दसभागो। एवं दोआयु० उज्जोवं तित्थयरं च । सादासादाणं बंधा अबंधगा अठ्ठचोद्दसभागो । दोण्णं बंधगा अट्ठचोद्दसभागो । अबंधगा णस्थि । एवं बंधगा (?) वेदणीयभंगो। सेसाणं पत्तेगेण साधारणेण । णवरि देवायु-बंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा अट्ठचोदसभागो। तिण्णं आयु० बंधा अबंधगा अठ्ठचोद्दसभागो। देवगदि०४ बंधगा पंचचोद्दस० । अबंधगा अट्ठचोद्दसभागो। अपचक्खाणा०४ ओरालियस० ओरालिय० अंगो० बंधगा (१). छस्संघ०साधारणेण अबंधगा पंचचोदस० | पच्चक्खाणा०४ बंधगा अट्ठचोद्दस । अबंधगा खेत्तभंगो। आहारदुगं देवायुभंगो। सुकाए-पंचणा० छदंस० अट्ठकसा०
भाग स्पृष्ट है, क्योंकि पद्मलेश्यावाले देवोंके एकेन्द्रिय जीवों में मारणान्तिक समुद्घातका अभाव है। उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है। अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम ५४ भाग स्पृष्ट है। क्योंकि मेरु मूलसे पाँच राजू मात्र मागे जाकर सहस्रार कल्प. का अवस्थान है।'
. स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकों,अबन्धकोंका है। मनुष्य तियचायु, उद्योत तथा तीर्थकर का इसी प्रकार है। साता, असाताके बन्धकों, अबन्धकोंका 4ह है। दोनोंके बन्धकोंका ६ है; अबन्धक नहीं है । शेष प्रकृतियोंका प्रत्येक तथा सामान्यसे इसी प्रकार वेदनीयका भंग है। विशेष, देवायुके बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है; अबन्धकोंका है । तीन आयु (नरकायु बिना) के बन्धकों, अवन्धकोंका ६४ है। देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंका ५४ है; अबन्धकोंका ६४ है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, ६ संहननके बन्धकों,अबन्धकोंका सामान्यसे ५४ है।
विशेष-देशसंयमी पद्मलेश्यावाले जीवोंके मारणान्तिक समुद्घातको अपेक्षा शतार, सहस्रार कल्पके स्पर्शनकी दृष्टिसे १४ कहा है।।
प्रत्याख्यानावरण.४ के बन्धकोंका ६४ है। अबन्धकोंका क्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवाँ भाग भंग है।
विशेष-प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक प्रमत्तसंयतोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग कहा है।
आहारकद्विकका देवायुके समान भंग है अर्थात् बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग है; अबन्धकोंके ६४ है।
शुक्ल लेश्यामें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, प्रत्याख्यानावरणादि ८ कषाय, भय.
१. पम्मलेस्सिया सत्थाण-समुग्धादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्टचोद्दसभागा वा देसूणा । उबवादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। पंचचोद्दसभागा वा देसूणा । खु० बं०,सू० २०३-२०८ । २. "संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेजदिभागो। पंचचोद्दसभागा वा देसूणा ।" -षट्खं, फो०, सू० १५६-१६०। ३. 'प्रमत्ताप्रमत्तलॊकस्यासंख्येयभागः ।" -स० सि०१८ ।
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पडबंधाहियारो
२६७
भयदु० पंचिदि० तेज क० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमिण-पंचंतराइयाणं बंधगा छच्चोद्द सभागो । अबंधगा केवलिभंगो। थीणगिद्धि ०३ मिच्छत्त- अट्ठकसा० मणुसायु - तित्थयरं बंधगा छच्चोद्द सभागो । अबंधगा छच्चोद्दसभागो, केवलिभंगो | सादantarataभाग वलिभंगो । अबंधगा छच्चोद्द सभागो । असाद-बंधगा बच्चोसभागो । अबंधगा बच्चोद्दस ० केवलिभंगो । दोष्णं बंधगा छच्चोद्दसभागो केवलि - भंगी । अधगा णत्थि | देवग दि०४ बंधगा छच्चोद्दस० । अबंधगा छच्चोद्दस • केवलिभंगो० । एवं दव्वं । भवसिद्धि ओघं ।
1
जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय, तैजस- कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धकका ४ है । अबन्धकोंके केवली-भंग है ।
विशेष - मिध्यात्व, सासादन, मिश्र तथा असंयत सम्यक्त्वी शुक्ललेश्यावालोंने विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक तथा मारणान्तिक पद परिणत जीवोंने स्पर्श किया है । स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक पद परिणत संयतासंयतोंने लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। मारणान्तिक पद परिणत शुक्ललेश्यावालोंने ४ भाग स्पर्श किया है। कारण तिर्यंच संयतासंयतोंका शुक्ललेश्या के साथ अच्युत कल्प में उपपाद पाया जाता है। मिश्र गुणस्थान में उपपाद तथा मारणान्तिक पढ़ नहीं होते हैं । ( पृ० ३०० )
स्त्यानगृद्धि ३, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी आदि ८ कपाय, मनुष्यायु, तीर्थंकर के बन्धकोंके १४ भाग हैं, अबन्धकोंके ४ वा केवली भंग है । साताके बन्धकोंके १४ भाग तथा केवली भंग है : अबन्धकोंके हैं । असाताके बन्धकोंके हैं। अबन्धकोंके १४वा केवलीभंग है। दोनों के बन्धकोंके ४ वा केवली-भंग है; अबन्धक नहीं है । देवगति ४ के बन्धकोंके है अबन्धकों तथा केवली भंग है। शेष प्रकृतियोंका इसी प्रकार निकालना चाहिए । भव्य सिद्धिकों में ओघवत् भंग है ।
विशेषार्थ - भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवों द्वारा स्वस्थान, समुद्घात एवं उपपादपदों से सर्वलोक स्पृष्ट है । स्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिक और उपपाद पदों से अतीत व वर्तमान कालमें भव्यसिद्धिक एवं अभव्यसिद्धिकं जीवों द्वारा सर्वलोक स्पृष्ट है । विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा वर्तमानकाल में क्षेत्रके समान प्ररूपणा है । अतीत काल में द भाग पृष्ट है। वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवाँ भाग और मनुष्य लोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पष्ट है । भव्यसिद्धिक जीवों में शेष पदों की अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण ओके समान है । ( खु० बं० टी० पृ० ४४५ ) ।
१. "सुक्कले स्सिएसु मिच्छादिट्ठिप्पहूडि जाव संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । चोद्दसभागां वा देसूणा ।" -सू० १६२ - १६३ । २. शुक्कलेस्सिया सत्याण उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । छचोसभागा वा देसूणा । समुग्धादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । छवोसभामा वा देसूणा / असंखेज्जा वा भागा । सव्वलोगो वा । - खु० बं० सृ० २०९-२१६ । ३. “भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छादिट्टित्पहूडि जाव अजोगिकेवलित्ति ओघं ।" - पटू खं०, फो० सू० १६५ । भवियाणुवादेण भवसिद्धिय अभवसिद्धिय सस्थाण- समुग्वाद- उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो - खु० बं० सू० २१७-२१८, पृ. ४४४-४५
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महाबंधे ___२१३. सम्मादिट्टि ओधिभंगो। णवरि केवलिभंगो कादयो । खड्ग-सम्मादिट्टि० पंचणा० छदंस० बारसक० पुरिस० भयदु० पंचिंदि० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदेज-णिमिण-उच्चागोद-पंचंतराइगाणं बंधगा अट्टचोद्दस० । अबंधगा केवलिभंगो। एवं सेसाणं पगदीणं सम्मादिठि-भंगो। णवरि मणुसगदिपंचगं अबंधगा, देवगदि०४ बंधगा खेत्तभंगो।
२१३. सम्यक्त्वियोंमें' अवधिज्ञानके समान भंग है । विशेष, यहाँ केवलो-भंग करना चाहिए ।
विशेष-सम्यक्त्वमार्गणामें चतुर्थसे लेकर चौदहवें गुणस्थानका सद्भाव है। इस कारण यहाँ केवली-भंग भी कहा है।
क्षायिक सम्यक्त्वीमें-५ ज्ञानावरण,६दर्शनावरण, १२ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय, तैजस-कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायके बन्धकोंका पाई है; अबन्धकोंका केवली-भंग है ।
विशेषार्थ-विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक तथा मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा अविरत गुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यक्त्वीने नई भाग स्पर्श किया है । (ध० टी०) फो० पृ० ३०२)।
विशेषार्थ-क्षायिक सम्यक्त्वी जीवोंमें स्वस्थानपदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है । अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम नई भाग स्पर्श किया है ( यह कथन विहारवत् स्वस्थानकी अपेक्षा है)।
समुद्धात पदोंसे क्षायिक सम्यग्दृष्टियों द्वारा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है। अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम ई भाग स्पृष्ट है। इनके द्वारा वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक समुद्घात पदोंसे देशोन भाग स्पृष्ट है । प्रतर समुद्घातगत केवलीकी अपेक्षा वातवलयको छोड़कर शेष समस्त लोकमें व्याप्त जीव प्रदेश पाये जाते हैं। दण्डसमु. द्घातगत केवलियोंके द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवाँ भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। कपाट समुद्घातगत केवलियोंके द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवाँ भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। लोकपूरण समुद्घातकी अपेक्षा सवलोक स्पर्शन है।
उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है (खु० बं० टीका पृ० ४४६-४५१)। ___ इस प्रकार शेष प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टिके समान भंग है। मनुष्यगति ५ के अबन्धकोंमें तथा देवगति ४ के बन्धकोंमें क्षेत्रके समान भंग है।
१. "सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलित्ति ।" -सू० १६७ । २. ख इयसम्मादिट्ठी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्टचोद्द सभागा वा देसूणा । समग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्रचोदृसभागा वा देसूणा। असंखेज्जा वा भागा । सव्वलोगो वा । उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। -खु० ब०, सू० २३०-२३९ ।
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पयडिबंधाहियारो २१४. वेदगे ओधिभंगो पत्तेगेण साधारणेण । अबंधगा पत्थि । उवसमस० खड्गसम्मादिद्विभंगो । णवरि केवलिभंगो णस्थि । तित्थयरं बंधगा खेत्तभंगो। सासणे धुविगाणं बंधगा अट्ठबारह । अबंधगा पत्थि । सादासादबंधगा.अबंधगा अहवारह. दोण्णं बंधगा अहवारह० । अबंधगा णस्थि । एवं चदुणोक० । थिरादि-तिण्णि-युगलं । इत्थि. पुरिस० बंधगा अबंधगा अट्ठएकारसभागो० । दोणं बंधगा अट्ठएकारस० ) अबंधगा णस्थि । एवं पंचसंठा० पंचसंघ० (१) दो विहाय दोसर० । दो आयु
२१४. वेदकसम्यक्त्वमें-अवधिज्ञानके समान प्रत्येक तथा सामान्यसे भंग है। यहाँ अबन्धक नहीं हैं।
_ विशेषार्थ-वेदक सम्यक्त्वियोंने स्वस्थान तथा समुद्घात पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है । अतीतकालकी अपेक्षा देशोन र भाग स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदोंसे देशोन भाग स्पृष्ट है। - उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग अथवा देशोन भाग स्पृष्ट है । तियच और मनुष्योंमेंसे देवोंमें उत्पन्न होनेवाले वेदक सम्यग्दृष्टियों-द्वारा स्पृष्ट है'।
उपशमसम्यक्त्वमें-क्षायिकसम्यक्त्वीके समान भंग है। विशेष, यहाँ केवली-भंग नहीं है । तीर्थकरके बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है।
विशेषार्थ-उपशम सम्यक्त्वियों-द्वारा स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है। अतीतकालकी अपेक्षा देशोन : भाग स्पृष्ट है। उपपाद तथा समुद्घात पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है। मारणान्तिक समुद्घात व उपपाद पदोंसे परिणत उपशम सम्यक्त्वियों द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवाँ भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि मानुष क्षेत्र में ही मरणको प्राप्त होनेवाले उपशम सम्यग्दृष्टि पाये जाते हैं (माणुसखेतम्मि चेव मरंताणं उवसमसम्माहट्ठीणमुवलंभादो)।
शंका-वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा उपशम सम्यग्दृष्टि देवोंमें ६ भाग यहाँ क्यों नहीं कहा?
__ समाधान-ऐसा निरूपण करनेपर सासादन सम्यग्दृष्टिके मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा भी भाग होते हैं, ऐसा सन्देह न हो अतः उसके निराकरणके लिए यह निरूपण नहीं किया गया है । (पृ० ४५४,खु० बं०)
सासादनमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंका १, ३३ है अबन्धक नहीं है। साता, असाताके बन्धकों,अबन्धकोंका पंह, १३ है। दोनोंके बन्धकोंका है। अबन्धक नहीं है । इस प्रकार हास्यादि चार नोकषाय तथा स्थिरादि तीन युगलमें जानना चाहिए । स्त्रीवेद, पुरुषवेदके बन्धकों,अबन्धकोंके ट है। दोनोंके बन्धकोंकेत है; अबन्धक नहीं है। ५ संस्थान (हुण्डक बिना), ५ संहनन (असम्प्राप्तामृपाटिका बिना), दो विहायोगति तथा दो
१. वेदगसम्मादिट्ठी सत्थाणसमुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अटुचोद्दसभागा वा देसूणा । उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। छच्चोहसभागा वा देसूणा -खु० बं०,सू० २४०-२४५ । २. उवसमसम्माइट्ठी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठचोद्दसभागा वा देसूणा । समुग्घादेहि उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदि. भागो । -खु० बं०,सू० २४६-२५० ।
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महाबंधे मणुसगदिदुगं उच्चागोदं बंधगा अट्टचोद्दस० । अबंधगा अट्ठबारह० । देवायुबंधगा खेत्तभंगो । अबंधगा अट्ठबारह । तिण्णि आयु-पंधगा अढचोदस० । अबंधगा अहबारहभागो। तिरिक्खगदिदुगं णीचागोदं च बंधगा अवारह० । अबंधगा अट्ठचोदस भागो। देवगदि०४ बंधगा पंचचोदस० । अबंधगा अवारहभागो । तिण्णं गदीणं बंधगा अट्ठबारह । अबंधगा णस्थि । ओरालि० ओरालि० अंगो पंचसंघ० (१) बंधगा अट्ठबारह । अबंधगा पंचचोद्दसभागो। उजोवं बंधगा अबंधगा अदुवारहभागो। सुभग-आदे० बंधगा अठ्ठचोद्दस० । अबंधगा अट्ठयारहभागो । भगअणादे० बंधगा अठ्ठयारह० । अबंधगा अठचोद्स० दोण्णं बंधगा वेदणीयभंगो।
स्वरमें इसी प्रकार है।
विशेष-पंच संहननका कथन आगे भी आया है, अतः यह पाठ अधिक प्रतीत होता है। तियंच-मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानु पूर्वी, उच्चगोत्रके बन्धकोंके ट है ; अबन्धकों के पद तथा १३ है । देवायुके बन्धकोंमें क्षेत्रवत् भंग है। अबन्धकोंमें हैं. १३ है । तीन आयु (नरक बिना) के बन्धकों के दर, अबन्धकोंके ६४, १३ है। तिर्यचगति, ति य चानुपूर्वी नीचगोत्र के बन्धकोंके , १३ है ; अबन्धकोंके कर है। देवगति ४ के बन्धकों के १४ है। अबन्धकोंके , १३ है । तीनों गतियोंके ( नरक बिना) बन्धकों के पैट, १३ है; अबन्धक नहीं है । औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, ५ संहननके बन्धकोंके इंट, १३ है ; अबन्धकोंके है। उद्योतके बन्धकों, अंबन्धकोंके , २३ है। सुभग, आदेयके बन्धकोंके ६४ है; अबन्धकोंकेर, १३ है । दुर्भग, अनादेयके बन्धकोंके ४, १३ है। अबन्धकोंके ६४ है । सुभग, दुर्भग तथा आदेय-अनादेयके बन्धकोंमें वेदनीयके समान भंग है।
विशेषार्थ-सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यासवाँ भाग स्पर्श किया है । अतीतकालमें विहारवत्स्वस्थान पदसे परिणत सासादन गुणस्थानी जीवोंने देशोन 4 भाग स्पर्श किया है। उसने समुद्घात पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। अतीत कालकी अपेक्षा वेदना कषाय और वैक्रियिक समुद्घातोंसे देशोन र भाग स्पष्ट है । मारणान्तिक समुद्घातसे देशोन १३ भाग स्पृष्ट है, क्योंकि मेरु मूलसे नीचे पाँच राजू और ऊपर सात राजू आयामसे मारणान्तिक समुद्घात पाया जाता है।
उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है । अतीतकालकी अपेक्षा देशोन ११ भाग स्पृष्ट है, क्योंकि सासादन गुणस्थानके साथ पंचेन्द्रिय तियचोंमें उत्पन्न होनेवाले छठी पृथ्वीके नारकियोंके ५ भाग उपपादसे प्राप्त होते हैं तथा देवोंसे तिर्यचोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके वह भाग प्राप्त होते हैं।इन दोनोंके जोड़ रूप १ भाग प्रमाण स्पर्शन होता है ।
प्रश्न-ऊपर कर भाग क्यों नहीं प्राप्त होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि सासादन सम्यक्त्वियोंकी एकेन्द्रियों में उत्पत्ति नहीं है।
प्रश्न-एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त हुए सासादन सम्यग्दृष्टि जीव उनमें क्यों नहीं उत्पन्न होते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि आयुके नष्ट होनेपर उक्त जीव मिथ्यात्व गुणस्थानमें आ जाते
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पयडिबंधाहियारो २१५. सम्मामिच्छादिट्टि धुविगाणं बंधगा अठ्ठ-चोद्दस०। अबंधगा णत्थि । देवगदि०४ बंधगा खेत्तं-भंगो। अबंधगा अठ्ठ-चोदसभागो । मणुसगदिपंचगं बंधगा अट्ठ-चोद्दस० । अबंधगा वेत्तभंगो। सेसाणं पत्तेगेण बंधगा अबंधगा अट्ठ-चोद्दसभागो । साधारणेण धुविगाणं भंगो : सण्णी मणजोगिभंगो। असण्णी खेत्तभंगो : णवरि हैं। अतः मिथ्यात्वमें आकर सासादन गुणस्थानके साथ उत्पत्तिका विरोध है (खु. बंक,टीका पृ० ४५५-४५७) ।
२१५. सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें-धूव प्रकृतियोंके बन्धकोंका है ; अबन्धक नहीं है।
विशेषार्थ-सम्मग्मिय्यादृष्टि जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग वर्तमानकी अपेक्षा स्पर्श करते हैं । अतीतकी अपेक्षा मिश्रगुणस्थानवाले जीवोंने विहारवत्स्वस्थानसे देशोन कर भाग स्पर्श किया है। इनके समुद्घात तथा उपपादपद नहीं होते । क्योंकि इस गुणस्थानमें मरणका अभाव है।
शंका-वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातोंकी यहाँ प्ररूपणा क्यों नहीं की गयी ? समाधान नहीं, क्योंकि उनकी प्रधानता नहीं है।
विशेष-विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा मेरुतलसे ऊपर ६ राजू तथा नीचे दो राजू , क भाग है । (ध० टी०,फो० पृ० १६७)
देवगति ४ के बन्धकों के क्षेत्रके समान भंग है। अबन्धों के 4 है। मनुष्यगति ५ के बन्धकोंके पर है । अबन्धकोंके क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियों के प्रत्येकसे बन्धकों, अबन्धकोंका है । सामान्य से ध्रुव प्रकृतियोंका भंग है।
संज्ञीमें-मनोमागियों का भंग है।
विशेषार्थ-संज्ञी जीवोंने स्वस्थानकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग, विहारवत्स्वस्थानसे देशोन बट भाग स्पर्श किया है। समुद्धातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। अतीत कालमें वेदना, कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घातोंकी अपेक्षा देशोन
र भाग स्पृष्ट है । सर्वलोक स्पृष्ट है। यह कथन मारणान्तिककी अपेक्षा है। त्रसकायिक संज्ञी जीवोंमें मारणान्तिक करनेवाले संज्ञी जीवोंकी अपेक्षा देशोन १३ भाग स्पृष्ट है।
उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग अथवा अतीतकालकी दृष्टिसे सर्वलोक स्पृष्ट है। संज्ञी जीवोंमें उत्पन्न हुए असंज्ञी जीवोंके सर्वलोक स्पर्श पाया जाता है। किन्तु संज्ञियोंमें उत्पन्न हुए असंज्ञी जीवोंका स्पर्शन ११ भाग है। सम्यक्त्वी संज्ञियोंका उपपाद क्षेत्र भाग है।
१. सासणसम्माइट्ठी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अदुचोहसभागा वा देसूणा । समुग्धादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठ-बारह बोहरभागा बा देणा। उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदें? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । एक्कारहचोद्दसभागा वा देसूणा -खु. बं० सू० २५१-२५६ । २. सम्मामिच्छाइट्ठीहि सत्थाणेहि केवडियं खेत फोसिदं ? लोगस्स असंखेजदिभागो । अट्ठचाद्दसभागा वा देसूणां । समुग्धाद उववादं णस्थि । -खु० बं०,सू० २६०-२६३ । समुग्धाद उववाद पत्थि। कुदो ? सम्मामिच्छत्त- गुणेण मरणाभावादो वेयण-कसाय-वेउब्वियसमुग्घादाण त्थ परूवणं किण्ण कंदं ? ण, तैसि पहाणत्ताभावादो। -खु० बं०, टी० पृ० ४५८ । ३. सणियाणुवादेण सणी सत्थाणेहि केवडिय खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अटूचोइसभागा वा देसूणा फोसिदा। समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अट्रचोदसभागा वा देसूणा सवलोगो वा। उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा। -खु० बं०,सू० २६५-२७४ ।
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२७२
महाबंधे एइंदियपगदीणं एइंदियभंगो। आहारादि ( १ ) ( आहार० ) ओघ । णवरि केवलि. भंगो णस्थि । अणाहार० कम्मइगभंगो । णवरि वेदणीयं साधारणेण ओघं ।
एवं फोसणं समत्तं
असंज्ञीमें-क्षेत्रके समान भंग है। विशेष, एकेन्द्रियादि प्रकृतियोंका एकेन्द्रियके समान भंग है।'
आहारकोंमें ओघवत् भंग है ; किन्तु केवलिभंग नहीं है।
विशेषार्थ-यहाँ स्वस्थान उपपाद समुद्घात पदोंसे सर्वलोक स्पर्शन है। विहारवत्स्वस्थानसे पट भाग है। वैक्रियिक समुद्घातसे तीनों लोकोंका संख्यातवाँ भाग है। (खु० बं०टी० पृ. ४६१)
विशेष-मिथ्यादृष्टि जीवके सर्वलोक है, सासादनके लोकका असंख्यातवाँ भाग, , २३ भाग है। मिश्र तथा अविरत सम्यक्त्वीके लोकका असंख्यात वाँ भाग, पर है । देशसंयतके असंख्यातवाँ भाग वा ४ है। प्रमत्तसंयतसे सयोगि जिनपर्यन्त लोकका असंख्यातवाँ भाग है। विशेष, सयोगकेवलीके प्रतर तथा लोकपूरण समुद्घात आहारक अवस्थामें नहीं होते। ___अनाहारकोंमें- कार्मण काययोगवत् है। विशेष, वेदनीयका सामान्यसे ओघवत् भंग है।
इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ।
१. असण्णी मिच्छाइट्ठिभंगो 1-खु० बं०,सू० २७५ । २. “आहाराणुवादेण आहारएसु मिच्छादिट्ठि ओघ । सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ओघं । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेजदिभागो।" -षट्खं०,फो०सू० १८१-१८३ । ३. "अनाहारकेषु मिध्यादृष्टिभिः सर्वलोक: स्पृष्टः । सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः, एकादश चतुर्दशभागा पा देशोनाः। सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभागः सर्वलोको वा । अयोगकेवलिनां लोकस्यासंस्वेयभागः ।" -स०सि०१-८। "अणाहारएसु कम्मइयकायजोगिभंगो । णवरि विसेसो। अजोगिकेवलीहि केवडिय सेत फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो।" -सू०१८४-१५५। अणाहारा केवडियं खेतं फोसिदं ? सभालोगो वा -खु० बं०,सू० २७८-२७९ ।
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[ कालाणुगम-परूवणा] २१६. कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य ।
२१७. तत्थ ओघेण पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त सोलसक० भयदु० तेजाक० आहारदुर्ग वण्ण०४ अगु०४ आदाउजो० णिमिण. तित्थयर-पंचंतराइगाणं बंधगा अबंधगा केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा । सादासादाणं बंधा-अबंधगा० सव्वद्धा । दोण्णं बंधगा-अबंधगा केवचिरं कालादो होति ? सबद्धा । एवं सेसाणं पगदीणं
[कालानुगम] २१६. कालानुगमका ( नानाजीवोंकी अपेक्षा ) ओघ तथा आदेशसे दो प्रकार निर्देश करते हैं।
विशेषार्थ-यहाँ 'केवचिरं कालादो होति कितने काल तक रहते हैं ; इसका अर्थ 'धवला'टीकाकार इस प्रकार करते हैं-'क्या नरकगतिमें नारकी जीव अनादि अपर्यवसित हैं ?
क्या, अनादि सपर्यवसित हैं ? क्या सादि अपर्यवसित हैं ? क्या सादि सपर्यवसित हैं ?' इस .शंकाका यहाँ उद्दीपन किया गया है। इसके उत्तर में कहा है-नाना जीवोंकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकी जीव सर्वकाल रहते हैं अर्थात् नारकी जीव अनादि-अपर्यवसित हैं, शेष तीन विकल्पोंमें नहीं है । जिस प्रकार नार कियोंका सामान्यसे अनादि-अपर्यवसित संतान काल कहा है, उसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें ही नारकियोंका सन्तानकाल अनादि-अपर्यवसित है । “पादेक्कं संताणस्स वोच्छेदो ण होदि त्ति वुत्तं होदि"-इस सूत्रका यह अभिप्राय है कि प्रत्येक सन्तानका व्युच्छेद नहीं होता।
२१७. ओघसे-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय-जुगुप्सा, तैजस, कार्मण , आहारकद्विक, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आतप, उद्योत, निर्माण, तीर्थकर, ५ अन्तरायों के बन्धक,अबन्धक कितने काल तक होते हैं ? नानाजीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं। साता असाताके बन्धक अबन्धक कितने काल तक होते हैं ? सर्वकाल होते हैं। दोनोंके बन्धक,अबन्धक कितने काल तक होते हैं ? सर्वकाल होते हैं ।
विशेषार्थ-यहाँ मूलमें 'आगतं बन्धा' का अर्थ बन्धक है। 'बन्धसामित्तविचय'
१. केवचिरं कालादो होति त्ति एदस्सत्थो-णिरयगदीए जेरइया किमणादि-अपज्जवसिदा, किमणादिसपज्जवसिदा, कि सादि-अपज्जवसिदा कि सादि-सपज्जवसिदा त्ति सिस्सस्स आसंकुद्दीवणमेदेण कयं । अणादि. अपज्जवसिदा होंति सेस तिसु वियप्पेसु णत्थि""जहा णेरइयाणं सामण्णेण अणादिओ अपज्जवसिदो संताणकालो वुत्तो तथा सत्तसु पुढवीसु णेरइयाणं पि। पादेक्कं संताणस्स वोच्छेदो ण होदि त्ति वुत्तं होदि । -खुद्दाबन्ध, टीका,पृ०४६२, ४६३,सूत्र १.२ २. "ओघेण मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा । सम्वकालं जाणाजीवे पडुच्च मिच्छादिट्रीणं वोच्छेदो णत्थि त्ति भणिदं होदि ॥"-ध०टी०. का० पृ० ३२३ । “सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमभो, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।" -पटूखं०,का० सू०५,६।
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२७४
महाबंधे वेदणीय-भंगो । णवरि तिण्णिायु-बंधगा केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। अबंधगा सव्वद्धा । तिरिक्खायुबंधाबंधगा केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा । एवं चदुआयुगाणं । एवं
ओघभंगो काजोगीसु ओरालियकाजोगी० भवसिद्धि० आहारगत्ति । णवरि भवसिद्धिये दोवेदणीयस्स अबंधगा केव० कालादो होंति ? साधारणेण जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सेसाणं मग्गणाणं वेदणीयस्स साधारणेण अबंधगा पत्थि । णवरि काजोगिओरालियका० तिण्णं आयुगाणं जहण्णेण एगसमओ।
२१८. आदेसेण णेरइयेसु धुविगाणं बंधगा केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा । अवंधगा णस्थि । थीणगिद्धि-तियं मिच्छत्त-अणंताणु०४ उजोव-तित्थयराणं ओघं । तिरिक्खायु-बंधगा केव० कालादो होंति ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा सम्बद्धा । मणुसायु-बंधगा केव० जहण्णुकसेण अंतोमुहुत्तं । तृतीय खण्ड में पंचम सूत्रमें आगत शब्द "को बन्धो को अबन्धो ?” की टीकामें वीरसेन आचार्य कहते हैं "बंधो बंधगोत्ति भणिदं होदि।” (पृ०७)-बन्धका भाव बन्धक है।
शेष प्रकृतियोंका वेदनीयके समान भंग है। विशेष, ३ आयुके बन्धक कितने काल तक होते हैं ? जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग तक है । अबन्धकोंका सर्वकाल है। तियचायुके बन्धक,अबन्धक कितने काल तक होते हैं ? सर्वकाल होते हैं। इसी प्रकार चार आयुका जानना चाहिए।
'काययोगी, औदारिककाययोगी, भव्यसिद्धिक तथा आहारक मार्गणामें ओघवत् जानना चाहिए । इतना विशेष है कि भव्यसिद्धिकोंमें दो वेदनीयके अबन्धक कितने काल तक होते हैं ? सामान्यकी अपेक्षा जघन्य तथा उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है।
विशेष-दोनों वेदनीयके अबन्धक अयोगी जिनकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त काल कहा है।
शेष मार्गणाओं में सामान्यसे वेदनीयके अबन्धक नहीं हैं। विशेष, काययोगियों, औदारिक काययोगियोंमें तीन आयुके बन्धक कितने काल तक होते हैं ? जघन्यसे एक समय पर्यन्त होते हैं।
२१८. आदेशसे-नारकियोंमें ध्रुवप्रकृतियोंके बन्ध कितने काल तक होते हैं ? सर्वकाल होते हैं; अबन्धक नहीं हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४, उद्योत और तीर्थकरके बन्धकोंमें ओघके समान सर्वकाल जानना चाहिए। तियंचायुके बन्धक कितने काल तक होते हैं ? जघन्यसे अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ठसे पल्यके असंख्यातवें भाग होते हैं । अबन्धक सर्वकाल होते हैं । मनुष्यायुके बन्धक कितने काल तक होते हैं ? जघन्य तथा उत्कृष्ट से
१. जोगाणुवादेण...कायजोगी ओरालियकायजोगी--केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा -खु० बं, सू० १६, १७ । भवियाणुवादेण भवसिद्धिया अभवसिद्धिया केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा ( ४२, ४३ ) आहारा अणाहारा केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा (५४, ५५) । २. “चदुण्हं खवगा अजोगिकेवलो केवचिरं कालादो होति ? गाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।"-षट्खं०,का०,सू० २६ । ३. "णेर इएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ।-षटखं०,का०.३३ ।
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पयडिबंधाहियारो
२७५ अबंधगा सव्वद्धा । दो-आयु बंधगा केवचिरं? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। अबंधगा सव्वद्धा । सेसाणं पत्तगेण सव्वे विगप्पा सव्वद्धा । साधारणेण अबंधगा णस्थि । एवं सव्वणेरडगाणं ।
२१६. तिरिक्खेसु-चदुआयु ओघं । सेसाणं सव्वे विगप्पा सम्बद्धा । एवं एइंदि० पुढवि० आउ० तेउ० वाउ० वणप्फदि-पत्तेय० तेसिं बादर-बादर-अपजत्त-सव्वसुहुम० वणप्फदि-णिगोद-मदि० सुद० असंजद० तिण्णि लेस्सा० अब्भवसि० मिच्छादिट्टिअसण्णित्ति ।
२२०. पंचिंदिय-तिरिक्खेसु चदुआयु जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा सव्वद्धा । सेसाणं सव्वे भंगा सम्बद्धा ।
अन्तर्मुहूर्त होते हैं । अबन्धक सर्वकाल होते हैं। दो आयु अर्थात् मनुष्य-तियंचायुके बन्धक कितने काल तक होते हैं ? जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भाग होते हैं । . अबन्धक सर्वकाल होते हैं। शेष प्रकृतियों में सर्व विकल्प पृथक्-पृथक् रूपसे सर्वकालरूप होते हैं । साधारणसे अबन्धक नहीं हैं। इसी प्रकार सर्व नारकियोंमें जानना चाहिए ।
२१६. 'तिर्यंचगति में चार आयुके बन्धक, अबन्धक कितने काल तक होते हैं ? ओघके समान जानना चाहिए। शेष सर्व विकल्प सर्वकाल प्रमाण हैं। एकेन्द्रिय, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पति, प्रत्येक तथा इनके बादर तथा बादर अपर्याप्तकोंमें, सर्व सूक्ष्मोंमें, वनस्पति निगोदोंमें, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्गादिलेश्यात्रय, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि असंज्ञी पर्यन्तमें पूर्ववत् जानना चाहिए ।
___२२०. पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमें-चार आयुके बन्धक जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भाग पर्यन्त होते हैं ; अबन्धक सर्वकाल होते हैं। शेष प्रकृतियोंके सर्व विकल्प सर्वकाल जानना चाहिए।
१. "तिरिक्खगदीए तिरिक्खेस मिच्छादिट्रो केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सन्वता।" -षटखं०,का०४७। २. "एइंदिया केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा।" -सू० १०७॥ "पुढविकाइया-आउकाइया-तेउकाइया-वाउकाइया केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा।" -सू० १३९ । 'बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवणप्फदिकाइय-पत्तेयसरीर-अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा।” (१४८) "सुहुमपुढविकाइया सुहुमआउकाइया सुहुमतेउकाइया सुहमवाउकाइया सुहमवणंप्फदिकाइया सुहमणियोदजीवा सुहुमेइंदिय पज्जत्तअपज्जत्ताणं भंगो।' -सू० १५१। "णाणाणुवादेण मदि अण्णाणि-सुदअण्णाणीसु मिच्छादिट्ठी ओघं।" (२६०) "असंजदेसु मिच्छादिट्टप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठि ओघं ।" (२७५) । "किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा।" (२८३)। "अभवसिद्धिया केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा।" (३१५) । "मिच्छादिट्टी ओघं ।" (३२९)। "असण्णो केवचिरं कालादो होति? णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा।" (३३४)। ३. तिरिक्खगदीए तिरिक्खा पंचिदिय, तिरिक्खा पंचिदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिदिय तिरिक्खजोणणी पंचिदिय तिरिक्ख अपज्जत्ता..केवचिरं कालादो होंति ? सम्बद्धा। (४,५)
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२७६
महाबंधे २२१. एवं पंचिंदिय-तिरिक्ख-पअत्तजोणिणीसु । पंचिंदिय-तिरिक्ख-अपज०-दो आयुबंधगा जहण्णेण अंतोमुहत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिमागो। अबंधगा सव्वद्धा । एवं सम्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-तस० अपजत्त-बादर-पुढवि० आउ० तेउ० वाउ-बादरवणप्फदिपत्तेय-पजत्ताणं ।
२२२. मणुसेसु सादासादबंधगा सव्वद्धा । दोणं वेदणीयाणं बंधगा सम्बद्धा । अबंधगा जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । दोआयु. बंधगा जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। अबंधगा सव्वद्धा । दोआयु० बंधगा जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । अचंधगा सव्वद्धा। चदुआयुबंधगा जहण्णेण अंतोमुडुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा सव्वद्धा । सेसाणं सव्वे भंगा सव्वद्धा।
२२३. एवं मणुसपजत्त-मणुसिणीसु । णवरि चदुआयु पत्तेगेण साधारणेण य बंधगा जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । अबंधगा केवचिरं कालादो होति ? सम्बद्धा।
२२१. पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियंचपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिमतियों में इसी प्रकार जानना चाहिए । पंचेन्द्रिय तियेचलमध्यपर्याप्तकोंमें दो आयु (नर-तियचायु) के बन्धक जघन्यसे अन्तमहत, उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भाग होते हैं। अबन्धक सर्वकाल होते हैं। सर्वविकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय त्रस इनके अपर्याप्तकोंमें बादर-पृथ्वी-जल-अग्नि-वायुकायिक, बादर बनस्पति प्रत्येक तथा इनके पर्याप्तकोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए।
२२२. मनुष्योंमें-साता-असाता वेदनीयके बन्धकोंका सर्वकाल है। दोनों वेदनीयके बन्धकोंका सर्वकाल है । अबन्धकोंका जघन्य उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेष-दोनों वेदनीयके अबन्धक अयोगिजिनोंकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कहा गया है।
दो आयुके बन्धक जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भाग होते हैं । अबन्धक सर्वकाल होते हैं । दो आयुके बन्धक जघन्य-उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त होते हैं ; अबन्धकोंका सर्वकाल है। चारों आयुके बन्धकोंका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भाग होते हैं; अबंधक सर्वकाल होते हैं। शेष प्रकृतियोंके सर्वेभंग सर्वकाल जानना चाहिए।
२२३. मनुष्य पर्याप्तकों, मनुष्यनियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि चार आयुके प्रत्येक तथा सामान्यसे बन्धक जघन्य और उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त पर्यन्त होते हैं । अबन्धक कितने काल तक होते हैं ? सर्वकाल होते हैं।
१. इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा सुहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता बीइंदिया ती इंदिया चरिदिया पंचिदिया । तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा । १२, १३ कायाणुवादेण पुढविकाइया आरकाझ्या तेउकाइया वाउकाइया वणप्फदिकाइया णिगोदजीवा वादरा सुहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता बादर वणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता तसकाइय-पज्जत्ता अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? सम्वद्धा -१४,१५, खु० बं०। २. मणुसगदीए मणसा मणुस-पज्जत्ता मणुसिणी केवचिरं कालादो होति? सम्वद्धा (४,५)। ३. "चदुहं खवगा अजोगिकेवली केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त ।"-षटखं०,का०,२६ ।
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पडबंधाया
२७७
२२४. मणुस-अपजत्तगेसु-धुविगाणं बंधगा केव० कालादो होंति ? जहणेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा णत्थि । सादासादबंघमा अबंधगा जहणणेण एगसमओ, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । दोष्णं बंधगा जहणेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा णत्थि । दो- आयु० पत्तेगेण साधारणेण य बंधगा-अबंधगा जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । ओरालि० अंगो० छस्संघड० परधादुस्सा० आदाउजो० दोविहाय दोसरं बंधगा - अबंधगा जहणणेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । एवं पत्तेगेण साधारणेण वि । सेसाणं वेदणीयभंगो ।
•
२२५. देवाणं णिरयभंगो। णवरि एइंदियपयडि जाणिदूण भाणिदव्वं । २२६. पंचिंदिय-तस० तेसिं पञ्जत्ता वेदणीयं साधारणेण अबंधगा जहण्णुक
२२४. मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकों में ध्रुव प्रकृतियों के बन्धक कितने काल तक होते हैं ? जघन्यसे क्षुद्रग्रहण काल, उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भाग पर्यन्त होते हैं; अबन्धक नहीं हैं | साता असता वेदनीयके बन्धक, अबन्धक जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्य के असंख्यातवें भाग होते हैं । दोनोंके बन्धक जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण पर्यन्त उत्कृष्टसे पल्य के असंख्यातवें भाग होते हैं; अबन्धक नहीं हैं। दो आयु ( मनुष्य तिर्यंचायु) के बन्धक - अबन्धक प्रत्येक साधारणसे जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग है । औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, परघात उच्छ्वास आतप, उद्योत, दो विहायोगति, दो स्वर के बन्धक, अबन्धक जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं । सामान्य तथा प्रत्येकसे इसी प्रकार जानना चाहिए। शेषका वेदनीयके समान भंग जानना चाहिए । अर्थात् जघन्य से एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है ।
२२५. देवोंमें- नारकियोंके समान भंग है । विशेष यह है कि यहाँ एकेन्द्रिय प्रकृतिको भी जानकर कहना चाहिए ।
विशेष - नारकी जीव मरणकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक मनुष्य या तिर्थंच होते हैं, किन्तु देवों की उत्पत्ति एकेन्द्रियों में भी होती है । अतः देवगति में एकेन्द्रिय जाति के बन्धका भी उल्लेख है ।
२२६. पंचेन्द्रिय त्रस तथा इनके पर्याप्तकों में साधारणसे वेदनीयके अबन्धकोंका
१. " मणुस-अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।" - षट्खं०, का०१८३-८४ | खुदाबंध, सू० ६, ७, ८ । २. "णेरइएसु मिच्छादिट्टी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सन्वद्धा । सासणसम्मादिट्ठीसम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ।” -षट्खं०, का०, ३६ । देवगदीए देवा केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा । - खु० बं० सू०६, १० । “ सासण-सम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।” (५,६ ) । " सम्मामिच्छाइट्टी के वचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।" ( ९, १० ) असंजदसम्मादिट्टी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सब्वद्धा ।"-षट्खं०,का०,१३ ।
"
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२७५
मद्दाबंघे
स्सेण अंतोमुहुत्तं चदुष्णं आयुगाणं बंधगा जहणणेण अंतोमुहुत्तं उक० पलिदोवमस्स • असंखेञ्जदिभागो | सेस-भंगा सव्वद्धा ।
1
२२७. एवं तिणि मण० तिष्णि वचि० । णवरि वेदणीयस्स साधारणेण अबंधगा णत्थि । चदुआ बंधगा जहणणेण एगस०, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेञ्जदिभागो । दोमण० दोवचि ० पंचणा० छदंसणा ० चदुसंज० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिण० पंचतराइगाणं बंधगा सव्वद्धा । अबंधगा जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुतं । सादासादाणं बंधगा- अबंधगा सव्वद्धा । दोष्णं बंधगा सव्वद्धा, अबंधगा णत्थि । इत्थि० पुरिस० णवंसगवेदाणं बंधगा- अबंधगा सव्वद्धा । तिष्णं वेदाणं बंधगा सव्वद्धा । अबंधगा जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं दोयुगलचदुर्गादि- पंचजादिदोसरीरछस्संठाण- चदुआणुपुव्वि० तस थावरादि-णवयुगलं दोगोदं च । आहारदुगं दोअंगो छस्संघ० परघादुस्सास- आदाउजो० दो विहाय दोसर • तित्थय० पत्तेगेण साधारण बंधगा-अबंधगा सव्वद्धा । चदुष्णं आयुगाणं बंधगा जह० एस ०, उक्क०, पलिदोवस्त असंखेजदिभागो । अबंधगा सव्वद्धा ।
२२८. एवं चक्खुदं० अचक्खुदं० सण्णि त्ति ) णवरि चक्खुदं० सणि० आयु० जघन्य, उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । चार आयुके बन्धकोंका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । शेष भंग सर्वकाल है ।
२२७. तीन मनोयोग, तीन वचनयोगमें इसी प्रकार है । इतना विशेष है कि वेदनीयके सामान्यसे अबन्धक नहीं है। चार आयुके बन्धकका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग काल है। दो मन तथा दो वचनयोगमें-पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजस- कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा पाँच अन्तरायोंके बन्धकोंका सर्वकाल है । अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है । साता असता बन्धकों-अबन्धकोंका काल सर्वकाल है। दोनोंके बन्धकोंका सर्वकाल है, अबन्धक नहीं हैं । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेदके बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वकाल है । तीनों वेदोंके बन्धकोंका सर्वकाल है । अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है । हास्यादि दो युगल, चार गति, पाँच जाति, दो शरीर, छह संस्थान, ४ आनुपूर्वी, त्रस-स्थावरादि नव युगल तथा दो गोत्रों में भी इसी प्रकार जानना, अर्थात् अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त है तथा बन्धकोंका सर्वकाल है । आहारकद्विक, २ अंगोपांग, ६ संहनन, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, २ स्वर तथा तीर्थंकर प्रकृति के बन्धकों, अबन्धकोंका प्रत्येक तथा सामान्यसे सर्वकाल है। चार आयुके बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है; अबन्धकोंका सर्वकाल है । १
२२८. चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन तथा संज्ञी जीवों में इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष,
०
१. जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी कायजोगी ओरालियकायजोगी ओरालिय मिस्सकायजोगी वेउव्वियकायजोगी कम्मइयकायजोगी केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा - खु० बं०, १६, १७ ।
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२७६
पयडिबंधाहियारो तस-भंगो । अचक्खुदं० आयु. ओघं ।
२२६. ओरालिमि०-धुविगाणं बंधगा सव्वद्धा। अबंधगा जह० एगसमओ) उक्कस्सेण संखेजसमया । सादासाद-बंधगा-अबंधगा सव्वद्धा। दोण्णं बंधगा सव्वद्धा, अबंधगा णत्थि । इत्थि० पुरिस० णqसगवेदाणं बंधगा-अबंधगा सव्वद्धा । तिण्णं वेदाणं बंधगा सव्वद्धा । अबंधगा जह० एगस० । उक० संखेजसमया। एवं दोणं युगलाणं । दोआयु ओघ । देवगदि०४ तित्थय० बंधगा जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । अबंधगा सव्वद्धा। दोगदिबंधगा- अबंधगा सव्वद्धा। तिण्णं गदीणं बंधगा सव्वद्धा । अबंधगा जह० एगसमओ । उक्क० संखेजसमया। मिच्छत्तबंधगा सव्वद्धा। अबंधगा जह० एगस०, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। थीणगिद्धि-तियं अणंताणुबंधि० ४ ओरालि० बंधगा सव्वद्धा । अबंधगा जह० एगसमओ । उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं चक्षुदर्शन, एवं संज्ञी जीवोंमें आयुका त्रसके समान भंग है । आयुका अचक्षुदर्शनमें ओघवत् जानना चाहिए।
२२६. औदारिकमिश्र काययोगमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंका सर्वकाल है, अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे संख्यात समय प्रमाण है । साता-असाताके बन्धकोंअबन्धकोंका सर्वकाल है । दोनों के बन्धकोंका सर्वकाल है, अबन्धक नहीं है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेदके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वकाल है। तीनों वेदोंके बन्धकोंका सर्वकाल है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे संख्यात समय है । इस प्रकार दो युगलों में जानना चाहिए। दो आयुमें ओघवत् जानना चाहिए । देवगति ४, तीर्थकरके बन्धकोंका जघन्यसे, उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त काल है । अबन्धकोंका सर्वकाल है। दो गतिके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वकाल है । तीन गतिके बन्धकोंका सर्वकाल है । अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे संख्यात समय है। मिथ्यात्वके बन्धकोंका सर्वकाल है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ तथा औदारिक शरीरके बन्धकोंका सर्वकाल है । अबन्धकोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है । इसी
१. दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओहिदसणी केवलदसणी केवचिरं कालादो होति ? सम्वद्धा -३८, ३६ सू०,खु० बं० । सण्णियाणुवादेण सण्णी असणी केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा। -५२, ५३, खु० ब०,सू०। २. "दंड समुद्घातसे कपाटको प्राप्त होकर वहाँ एक समय रहकर प्रतर समुद्घातको प्राप्त हुए केवलियोंके यह एक समय प्रमाण काल होता है । अथवा रुचकसे कपाटसमुद्घातको प्राप्त होकर और एक समय रहकर दण्डसमुद्घातको प्राप्त होनेवाले केवलियोंके एक समय काल होता है। कपाटसमुद्घातके आरोहण-अवरोहणरूंप क्रिया संलग्न क्रमशः दण्ड, प्रतररूप पर्याय परिणत संख्यात समयोंकी पंक्तिमें स्थित संख्यातकेवलियोंके द्वारा अधिकृत अवस्थामें संख्यात समय पाये जाते हैं।" -ध०टी०, का० ४२४ । "सजोगिकेवली केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं; उक्कस्सेण संखेज्जसमयं"-षट्खं०,का०,१९३-९४ । ३. "असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति ? जाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।"-षट्खं०,का० १८९-९०। ४. “सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।"-षटखं०, का०, १८५-८६।
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२८०
सव्वाणं दव्वं ।
२३०. एवं कम्मइका० । णवरि थीणगिद्धि तिगं मिच्छ० अर्णताणु ०४ बंधगा सव्वद्धा, अबंधगा जह० एगसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो । देवदि०४ तित्थयरं बंधगा जह० एस० । उक्क० संखेजसमया । अबंधगा सव्वद्धा । ओरालिय-बंधगा सव्वद्धा । अबंधगा जह० एगसमओ । उक्कस्सेण संखेजसमया ।
महाबंचे
२३१. वेविकायजोगिस्स देवोघं । वेउच्चियमिस्स ० धुविगाणं बंधगा जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स संखेजदिभागो । अबंधगा णत्थि । थीणगिद्वितिगं मिच्छत्त अनंताणुबंधि०४ बंधगा- अबंधगा जहणणेण अंतोमुडुतं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । णवरि मिच्छत्त-अबंधगा जहणणेण एगसमओ । दोवेदणीय-बंधगा - अबंधगा जहण्णेण एगसमओ, उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । दोष्णं बंधगा जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा णत्थि । एवं तिष्णं वेदाणं दोष्णं युगलाणं दोगदि-दोजादि - छस्संठाणदोपुव्वितसथावरादि-पंच- युगल-दो गोदाणं च । ओरालि - अंगोवंग छस्संघडण -
प्रकार सर्व प्रकृतियोंका जानना चाहिए ।
२३०. कार्मण काययोगियोंमें - इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि स्त्यानद्धित्रिक, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंका सर्वकाल है । अबन्धकोंका' जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे आवलीका असंख्यातवाँ भाग है । देवगति ४, तीर्थंकर के बन्धकका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे संख्यात समय है । अबन्धकोंका सर्वकाल है । औदारिक शरीर बन्धकोंका सर्वकाल है । अबन्धकोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट संख्यात समय है ।
२३१. वैक्रियिक काययोगियों में देवोंके ओघवत् जानना चाहिए। वैक्रियिक मिश्र काययोगियों में ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकों का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्टसे पल्य के असंख्यातवें भाग है अबन्धक नहीं हैं । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चारके बन्धकों, अबन्धकोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्य के असंख्यातवें भाग है। विशेष यह है कि मिथ्यात्व के अबन्धकोंका जघन्य काल एक समय है। दोनों वेदनीय के बन्धकों, अबन्धकोंका काल जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्यका असंख्यातवाँ भाग है। दोनों के बन्धकोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूत, उत्कृष्टसे पल्यका असंख्यातवाँ भाग है : अबन्धक नहीं है । तीनों वेदों, हास्यादि दो युगलों, २ गति, २ जाति, ६ संस्थान, दो आनुपूर्वी, त्रस स्थावरादि पंचयुगल तथा दो गोत्रों में इसी प्रकार जानना चाहिए। औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, दो विहायोगति
१. " सास सम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहणणेण - एगसमयं उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।" षट्खं०, का०, २२०-२१ । २. "वेउब्विय मिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।" - षट्खं०, का०, २०१ - २०२ । ३. " सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।” - पटखं०, का०, २०५-२०६ ।
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२८१
पयडिबंधाहियारो दोविहायगदि-दोसराणं बंधगा अबंधगा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेअदिभागो । तित्थयरं बंधगा जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अबंधगा जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। आहारका०-धुविगाणं बंधगा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । अबंधगा णस्थि । सेसाणं बंधगा अबंधगा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आहारमि०-धुविगाणं बंधगा जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । अबंधगा णस्थि । वेदणीय-बंधगा-अबंधगा जहण्णेण एगसमओ, उक्करसेण अंतोमुहुत्तं । दोण्णं बंधगा जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । अबंधगा गत्थि । आयु० तित्थय० सादभंगो।
२३२. इस्थिवे०-पं. 'गा० चदुदंस० चदुसंज. पंचंत० बंधगा सव्वद्धा । अबंधगा णत्थि । थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त-बारसक० आहारदुग-परघादुस्सास-आदा-उजोव-तित्थयराणं बंधगा अबंधगा सव्वद्धा। णिद्दापचल( ला )-भयदु. तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० बंधगा सव्वद्धा। अबंधगा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सादासाद-बंधगा अबंधगा सव्वद्धा । दोणं बंधगा सव्वद्धा । अबंधगा णस्थि । एवं तथा दो स्वरोंके बन्धकों-अबन्धकोंका काल जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । तीर्थकर के बन्धकोंका जघन्य तथा उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है । अबन्धकोंका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्योपसका असंख्यातवाँ भाग है।
आहारककाययोगियोंमें ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है । अवन्धक नहीं है। शेष प्रकृतियों के बन्धकों,अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है।
__ आहारकमिश्रमें-ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकोंका जघन्य तथा उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है। अबन्धक नहीं है। वेदनीयके बन्धकों अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। दोनों के बन्धकोंका जघन्य तथा उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है। अबन्धक नहीं है। आयु तथा तीर्थकर में साताके समान भंग है।
.. २३२. स्त्रीवेदमें -५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, ५ अन्तरायके बन्धकोंका सर्वकाल है। अबन्धक नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, १२ कषाय, आहारकद्विक, परधात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत तथा तीर्थकरके बन्धकों अबन्धकोंका सर्वकाल है। निद्रा-प्रचला, भय-जुगुप्सा, तैजस कार्मण , वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणके बन्धकोंका सर्वकाल है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है । साता असाता वेदनीयके बन्धकों
१. "आहारकायजोगीसु पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेशं अंतोमुत्तं ।" -षट्खं० का०२०९-२१० । २. "आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं।" -षट्खं० का०२१३-१४। ३. "इत्थिवेदेसु मिच्छादिट्टी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा।" -षट्खं० का०२२७ । "वेदाणुवादेण इत्थिवेदा पुरिसवेदा णवंसयवेदा अवगदवेदा केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा।" - २७, २८ ख० बं०। ४. "असंजदसम्मादिदो केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सन्त्रद्धा।" -षटूखं० का०२३२ । ५. "चदुण्णं उवसमा केवचिरं कालादो होति? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।" -षट्खं०का०२२-२३ ।
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२८२
महाबंधे तिण्णि-वेद-जस०-अजस० दोगोदं च । हस्सरदि-अरदि-सोगं बंधगा अबंधगा सव्वद्धा । दोणं युगलाणं बंधगा सम्बद्धा। अबंधगा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुडुत्तं । सेसाणं पत्तेगेण साधारणेण वि हस्सरदीणं भंगो। चदुआयुगाणं बंधगा पत्तेगेण जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। अबंधगा सव्वद्धा । साधारणेण चदुआयुगाणं बंधगा जहणणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। अबंधगा सबद्धा । एवं पुरिसवेदस्स वि। एवं चेव णqसगवेद-कोधादितिण्णं कसायाणं । णवरि तिरिक्खायुबंधगा अबंधगा सम्बद्धा। साधारणेण चदुआयुगाणं अबंधगा सबद्धा । एवं चेव लोभे वि । णवरि पंचणा० चदुदं० पंचंतराइगाणं बंधगा सव्वद्धा । अबंधगा णथि । अवगदवेदेसु-सादस्स बंधाबंधगा सव्वद्धा । सेसाणं बंधगा जहण्णेण एगसमओ, उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । अबंधगा सव्वद्धा । अकसाइगेसु-सादस्स बंधगा अबंधगा सव्वद्धा । एवं केवलणा० केवलदंस०।।
- २३३. विभंगे पंचिंदिय-तिरिक्ख-भंगो। णवरि मिच्छत्त-अबंधगा जहण्णेण एगअबन्धकोंका सर्वकाल है। दोनोंके बन्धकोंका सर्वकाल है । अबन्धक नहीं है। तीन वेद, यश कीर्ति, अयश कीर्ति तथा दो गोत्रों में इसी प्रकार जानना चाहिए। हास्य-रति, अरतिशोकके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वकाल है । दोनों युगलोंके बन्धकोंका सर्वकाल है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंमें प्रत्येक तथा सामान्यसे हास्य रतिके समान भंग जानना चाहिए । चार आयुके बन्धकोंका प्रत्येकसे जघन्यकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त काल है, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । अबन्धकोंका सर्वकाल है। सामान्यसे चार आयुके बन्धकोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट से पल्यका असंख्यातवाँ भाग है । अबन्धकोंका सर्वकाल है।
पुरुषवेदमें-इसी प्रकार जानना चाहिए। नपुंसकवेदमें भी इसी प्रकार है। क्रोध-मानमायाकषायमें भी इसी प्रकार है । विशेष यह है कि तियच आयुके बन्धकों अबन्धकोंका सर्वकाल है । सामान्यसे चार आयुके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वकाल है। लोभकषायमें-इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेष यह है कि ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण तथा ५ अन्तरायोंके बन्धकोंका सर्वकाल है ; अबन्धक नहीं है।
अपगत वेदमें -सातावेदनीयके बन्धकों अबन्धकोंका सर्वकाल है। शेष प्रकृतियोंके बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है । अबन्धकोंका सर्वकाल है।
अकषायियोंमें-साता वेदनीयके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वकाल है। केवलज्ञान, केवलदर्शनमें इसी प्रकार जानना चाहिए।
२३३. विभंगज्ञानमें -पंचेन्द्रिय तियंचके समान भंग जानना चाहिए । विशेष यह है
१. "कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई अकसाई केवचिरं कालादो होति ? सम्वद्धा"-खु०बं०.सू.२८, २९ । २. "णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी विभंगणाणो आभिणिवोहियसुद-ओहिणाणीमणपज्जवणाणी केवलणाणी केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा" -खु० बं० सू० ३१, ३२ । ३. "विभंगणाणीसू मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति? जाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा।"-पट खं० का०२६२। "सासणसम्मादिट्टी ओघ (२६५) णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्ज. दिभागो।" ५.६।
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पयडिबंधाहियारो
२८३ समओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो।
२३४. आभि० सुद० ओधि०-धुविगाणं बंधगा सव्वद्धा। अबंधगा जहण्णेण एगसमओ, उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । अट्ठकसा० आहारदु० बजरिसभ० तित्थय० बंधाबंधगा सम्बद्धा । सेसाणं दोणं मणजोगीणं भंगो। णवरि मणुसायु० मणुसिभंगो । देवायु० ओघं।
२३५. एवं ओधिदंस० । एवं चेव मणपजव० सामा० छेदो० । णवरि देवायु० मणुसिभंगो । संजदा मणुसिभंगो।
२३६. परिहार-धुविगाणं बंधगा सव्वद्धा। अबंधगा णत्थि । दोवेदणीयाणं बंधापंधगा सव्वद्धा । दोण्णं पगदीणं बंधगा सम्बद्धा । अबंधगा णस्थि । देवायु० मणुसिभंगो । सेसं वेदणीयभंगो।
२३७. एवं संजदासंजदाणं । देवायु० ओघं । सुहुम० सव्वाणं बंधगा जहण्णेण
कि मिथ्यात्वके अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है।
___ २३४. आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञानमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंका सर्व. काल है । अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त है । आठ कषाय, आहारक
वृषभसंहनन. तीर्थकरके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वकाल है। शेष प्रकृतियोंका दो मनोयोगियों के समान भंग है। अर्थात् बन्धकोंका सर्वकाल है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है। विशेष यह है कि मनुष्यायुका मनुष्यनियोंके समान भंग है । देवायुके विषय में ओघवत् जानना चाहिए।
२३५. इसी प्रकार अवधिदर्शनमें जानना चाहिए। मनःपर्ययज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना, संयममें इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि देवायुके बन्धकोंमें मनुष्यनीका भंग जानना चाहिए । संयतोंमें मनुष्यनीका भंग है।
२३६. परिहारविशुद्धिसंयममें-ध्रुवप्रकृतियोंके बन्धकोंका सर्वकाल है। अबन्धक नहीं है । दोनों वेदनीयोंके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वकाल है। दोनों प्रकृतियों के बन्धकोंका सर्यकाल है । अबन्धक नहीं है। देवायुका मनुष्यनीके समान भंग है। शेष प्रकृतियोंमें वेदनीयका भंग है। ___ २३७. संयतासंयतोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। देवायुका ओघवत् भंग जानना
१. "आभिणिबोहियणाणि-सुदणाणि-ओधिणाणीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव खीणकषायवीदरागछदुमत्यात्ति ओघं ।"-सू० २६६। "असंजदसम्मादिट्टी केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। संजदासंजदा"""सव्वद्धा । पमत्त-अप्पमत्तसंजदा...'"सम्वद्धा। चउण्हं उवसमा...""णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण अंतोमुहुतं । चदुण्हं खवगा अजोगिकेवली'"" "जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।" -सू० १३, १६, १९, २२, २३, २६, २७। २. "मणपज्जवणाणी केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा"-खु० बं०,३१, ३२ । “संजमाणुवादेण । संजदा सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा जहाक्खादावेहारसुद्धिसंजदा संजदासजदा असंजदा केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा ।"
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२८४
महाबंधे एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अबंधगाःणस्थि ।
२३८. तेऊ देवोघं । एवं पम्माए वि । सुकाए धुक्गिाणं बंधाबंधगा सव्वद्धा । सेसं मणुस-पचत्तभंगो।
२३६: सम्मादि० दोआयु. ओधिभंगों से सव्यद्धा । एवं खइग-सम्मा० । दोआयु सुक्कभंगो । वेदगे०-धुविगाणं बंधा सच्चद्धा, अबंधगा णत्थि । सेसं ओधिभंगो। बरि साधारणेण अबंधगा गस्थि ।
२४०. उवसमसम्मा०-धुविगाणं बंधगा जहण्णेण अंतोमुहत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। अबंधगा जहण्णेण एगसमओ, उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । चाहिए । 'सूक्ष्मसाम्परायसंयममें सर्व प्रकृतियों के बन्धकोंका जघन्यकाल एक समय, उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है । अबन्धक नहीं है। .. विशेषार्थ-उपशान्तकषाय वा अनिवृत्ति बादर साम्पराय प्रविष्ट जीवोंके सूक्ष्म साम्परायिक गुणस्थानको प्राप्त होनेके द्वितीय समयमें मरणकर देवोंमें उत्पन्न होनेपर एक समय जघन्यकाल पाया जाता है। उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है, उसमें संख्यात अन्न मुहूर्ताका समावेश है । (खु० बं०, टीका,पृ० ४७३, ४७४) .
२३८. 'तेजोलेश्यामें-देवोंके ओघ समान है। पद्मलेश्यामें-इसी प्रकार है। शुक्ललेश्यामेंध्रवप्रकृतियोंके बन्धकों अबन्धकोंका सर्वकाल है। शेष प्रकृति योंका मनुष्यपर्याप्तकके समान भंग है।
२३९. सम्यग्दृष्टियोंमें-दो आयुके बन्धकों अबन्धकोंका ओषके समान भंग है । शेष प्रकृतियों में सर्वकाल भंग है । क्षायिकसम्यक्त्वियों में-इसी प्रकार है। दो आयुका शुक्ललेझ्याके समान मंग है । वेदकसम्यक्त्वियोंमें--ध्रवप्रकृतियों के बन्धकोंका सर्वकाल है। अबन्धक नहीं है। शेष प्रकृतियोंका अवधिज्ञानके समान भंग है। विशेष यह है कि सामान्यसे अबन्धक नहीं है।
२४०. उपशमसम्यक्त्वियोंमें-ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भाग हैं। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तमुहूते है।
१. "सुहुममापराइयसुद्धिसंजदेसु सुहमसांपराइयसुद्धिसंजदा उवसमा खवाः ओघं ।" -२७२ । २. "तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी...."सन्धद्धा" -षट्खं०, का०,२९१ । "सासणसम्मादिट्ठो ओघं ।" -२६४ । “सम्मामिच्छादिट्टी ओघं ।" -२९५ । “संजदासंजदपमत्तअप्पमत्त. संजदा. सव्वद्धा।"-२९६ । ३. "सुक्कलेस्सिएसु चदुण्हमुवसमा चदुहं खवगा सजोगिकेवली ओघं ।'"-३०८। ४. “सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठो खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्टी मिच्छाइट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा" -खु००, सू० ४४, ४५। ५. "उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।" -षट् खं०,का० सू०३१६-२०। "उवसमसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टी केवचिरं कोलादो होति ? जहण्णेण अंतोमुहुत्त । उक्कस्सेण मलिविमस्स असंखेरुजदिभागो"-खु००,कालाणुगम-सू०४६-४८। “पमत्त संजदप्पहुडि जाव उवसंतकसायबोदरामछदुमत्थात्ति केवनिरं कालादो होति.? :गाणाजीवं पडुच्च जहएणेण एगलमयं उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ।" -३२३-२४।
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पयडिबंधाहियारो
२८५ अपचक्खाणा०४ बंधगा- अबंधगा जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। पचखाणा०४ बंधगा जहयोण अंतोमुहुत्तं, उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेअदिभागो। अबंधगा जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सादासाद-बंधगा-अबंधगा जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। दोणं वेदणीयाणं बंधगा जहण्णेण . अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेनदिभागो। अबंधगा णस्थि । मणुसगदि-पंचगं बंधगा-अबंधगा जहण्णेण अंतीमुहुत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्म असंखेअदिमागो। देवयदि०४ बंधमा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिमागो। एवं अबंधा। गवरि जहण्णेण अंतोमुहुतं । आहारदुगं बंधगा जहण्णण एगसमओ, उकस्सेण अंतोमु हुत्तं। अबंधगा। जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। एवं तित्थयरस्स । चदुणोकसायाणं बंधगा-अबंधगा जहण्णण एगसमओ । उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेअदिभागो। दोणं युगलाणं बंधगा जहण्णण अंतोमुहुतं । उकस्सेण पलिदोवमास्स असंखेजदिभागो। अबंधगा जहण्णेण एगसमओ, उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं थिरादितिष्णियुगलाणं । सासणेधुविगाणं बंधगा जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखेजदिभागो। अबंधगा णस्थि । एवं वेदणीयं पत्तेगेण बंधगा- अबंधगा। “साधारणेण बंधगा- अबंधगा जहण्णण एग
अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकों अबन्धकोंका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंका जघन्यसे अन्तमुहूत, उत्कृष्टसे पल्यापमका असख्यातवां भाग है। अबन्धकांका जघन्य तथा उत्कृष्टसे अन्तमुहूते है । साताअसाताके.बन्धकों, अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग जानना चाहिए। दोनों वेदनीयों के बन्धकोंका जघन्यसे अन्नमुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है ; अबन्धक नहीं है। मनुष्यगतिपंचकके बन्धकों,अबन्धकोंका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । देवगति ४ के बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। इसी प्रकार अबन्धकोंका जानना चाहिए । इतना विशेष है कि यहाँ जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। आहारकद्विकके बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है। अबन्धकोंका जघन्यसे अन्नमुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। तीर्थकरका इसी प्रकार जानना चाहिए। चार नोकषायोंके बन्धकों, अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। दोनों युगलोंके बन्धकोंका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है। स्थिरादि तीन युगलोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए।
सासादममें-'ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है ; अबन्धक नहीं है । वेदनीयके बन्धकों, अबन्धकोंमें प्रत्येकसे इसी प्रकार है । सामान्यसे बन्धको अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय है, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ
१. 'सासणसम्माविट्ठी फेवचिरं कालादो होति ? भाणाजीवं पडुच्च जहष्णेण एगसमओ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।"-षट् खं०,का०,५-६ ।
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महाबंधे
२८६ समओ। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा णधि । एवं सव्वाणं । दोआयु० बंधाबंधगा जहण्णण अंतोमुहुत्तं, उक० पलिदो० असंखेजदिमागो। मणुसायुबं० देवभंगो। अबंधगा जह. एगस० उक० पलिदो० असंखेजदिमागो। एवं साधारणेण वि।
२४१. सम्मामि० धुविगाणं बंधगा जहण्णेण अंतोमुहुतं, उक्क० पलिदो. असंखेजदिभागो। अंबंधगा णत्थि । सादासादाणं बंधगा. जह० एगसमओ, उक. पलिदो० असंखेजदिभागो । दोण्णं बंधगा जहण्णण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा णत्थि । एवं परियत्तमाणियाणं सव्वाणं । मणुसगदिपंचगं देवगदि०४ बंधाबंधगा जहण्णेण अंतोमुहुतं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिमागो। एवं साधारण वि । अबंधगा णस्थि ।
२४२. अणाहारे धुविगाणं बंधगा- अबंधगा सम्बद्धा । देवगदिपंचगं बंधगा जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण संखेज्जा समया। अबंधगा सव्वद्धा । सेसाणं बंधाबंधगा सव्वद्धा।
एवं कालं समत्त ।
भाग है; अबन्धक नहीं है । शेष प्रकृतियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । दो आयुके बन्धकों, अबन्धकोंका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट से पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। मनुष्यायुके बन्धकोंमें देवोंके समान भंग है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। इसी प्रकार सामान्यसे भी जानना चाहिए।
२४१. सम्यक्त्वमिथ्यात्वमें-'ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है; अबन्धक नहीं है। साता-असाताकेब जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। दोनोंके बन्धकोंका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है , उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है, अबन्धक नहीं है। परिवर्तमान सर्वप्रकृतियोंमें इस प्रकार जानना चाहिए । मनुष्यगतिपंचक, देवगति ४ के बन्धकों,अबन्धकों का जघन्यसे अन्तमुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। इस प्रकार सामान्यसे भी भंग जानना चाहिए; अबन्धक नहीं है।
___ २४२. अनाहारकोंमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वकाल है। देवगतिपंचकके बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे संख्यात समय है। अबन्धकोंका सर्वकाल है। शेष प्रकृतियोंके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वकाल है।
इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा कालप्ररूपणा समाप्त हुई।
१. "सम्मामिच्छादिट्ठी केवचिरं कालदो होति ? गाणाजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहत्त, उपकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।" -६-१० । २. "आहारा अणाहारा केवचिरं कालादो होंति ? सम्वा" -खु० ब०,सू०५४, ५५ ।
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[ अंतराणुगम-परूवणा ]
२४३. अंतरानुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य ।
I
२४४. तत्थ ओघेण-पंचणा० णवदंस० मिच्छत्त० सोलसक० भयदु० आहारदुगं तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ आदाउजो० णिमिण - तित्थयर - पंचंतराइगाणं बंधा - अनंधगा णत्थि अंतरं, निरंतरं । तिण्णि आयु० बंधगा जहणेण एगसमओ उक्कस्सेण चउव्वीसं हुतं । अबंधगा णत्थि । तिरिक्खायुबंधाबंधगा णत्थि अंतरं । चदुआयु बंधाअबंधगा णत्थि अंतरं । सेसविगप्पाणं बंधगा अबंधगा णत्थि अंतरं । एवं काजोगि ( 2 ) । २४५. ओघभंगो काजोगि ओर लियका जोगि भवसिद्धि- आहारगत्ति । णवरि भवसिद्धि० ।
[ अन्तरानुगम ]
[ अन्तर शब्द छिद्र, मध्य, विरह आदि अनेक अर्थोंका द्योतक है। यहाँ अन्तर शब्द विरहकालका द्योतक है । एक वस्तु अवस्थाविशेष में कुछ समय रहकर कुछ कालके लिए अवस्थान्तर रूप हो गयी और बाद में वह उस अवस्थाविशेषको पुनः प्राप्त हो गयी। इस मध्यवर्ती कालको अन्तर कहते हैं । यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा वर्णन किया गया है । ]
२४३. यहाँ ओघ तथा आदेशकी अपेक्षा अन्तरका दो प्रकार से निर्देश करते हैं ।
२४४. ओघसे ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, आहारकद्विक, तैजस-कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आतप, उद्योत, निर्माण, तीर्थंकर और ५ अन्तरायोंके बन्धकों अबन्धकोंका अन्तर नहीं है, निरन्तर बन्ध है ।
विशेषार्थ - धवलाटीका में लिखा है “निर्गतमन्तरमस्माद्याशेरिति णिरंतरं”, जिस राशिमें अन्तरका अभाव है वह निरन्तर है । ' णत्थि अन्तरं ' - अन्तर नहीं है यह प्रसज्य प्रतिषेध हैं, क्योंकि यहाँ की प्रधानताका अभाव है। 'निरंतरं' निरन्तर हैं यह पर्युदास प्रतिषेध है. कारण यहाँ प्रतिषेधकी प्रधानता नहीं है । इस प्रकार प्रसज्य और पर्युदास रूप अभाव युगलका कथन किया गया है । ( खु० बं० अं० पृ० ४७१-४८० )
नरक - मनुष्य- देवायुके बन्धकों का जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से २४ मुहूर्त अन्तर है । अबन्धक नहीं है । तिर्यंचायुके बन्धकों अबन्धकोंका अन्तर नहीं है । चार आयुके बन्धकों अबन्धकोंका अन्तर नहीं है । शेष प्रकृतियोंके बन्धकों अबन्धकोंका अन्तर नहीं है ।
२४५. काययोगी, औदारिक काययोगी, भव्यसिद्धिक तथा आहारकमें ओघकी तरह अन्तर जानना चाहिए। भव्यसिद्धिकों में विशेष जानना चाहिए ।
१. " अन्तरशब्दस्यानेकार्थवृत्ते रिछद्रमध्यवि रहेष्वन्यतमग्रहणम् । त० रा० पृ० ३० । “अन्तरमुच्छेदो विग्रहो परिणामान्तरगमणं णत्थित्तगमणं अष्णभावव्वहाणमिदि एयट्ठो ।" -ध० टी० अन्तरा० पृ० ३ ।
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२८८
महाबंधे ___ २४६. आदेसण जरइगेसु-दो-आयुबंधगा जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण चउव्वीसं मुहुत्तं, अडदालीसं मुहुत्त, पक्खं, मासं, वेमासं, चत्तारि मासं, छम्मासं, बारसमासं । एवं सव्वणेरडगाणं । सेसं पगदीणं णत्थि अंतरं।
२४७. तिरिक्खेसु-आयु० ओघं । सेसं णत्थि अंतरं । एवं एइंदिय-प्रढवि० आउ० तेउ० वाउ० तेसिं चेव बादरअपज्ज. सव्वसुहुम-सव्ववणप्फदि-निगोद-बादरवणप्फदि-पय तस्सेव अपजत्त-मदि० सुद० असंज. तिण्णिले० अब्भवसिद्धि-मिच्छादिट्टि याव असण्णित्ति । एदेसिं च किंचि विसेसं ओघादो साधेदण णेदव्वं । पंचिंदिय तिरिक्ख०४ तिण्णि आयु० ओघ । तिरिक्खायु-बंधगा जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमुहुन । पजत्तजोगिणीसु चउव्वीसं मुहुत्त। चदु-आयु-तिरिक्खायुभंगो । पंचिंदिय
___२४६. आदेशसे-नारकियों में मनुष्य-तिर्यंचायुके बन्धकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे २४ मुहूर्त, ४८ मुहूर्त, पक्ष, मास, दो मास, चार मास, छह मास तथा बारह मास अन्तर है । इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका अन्तर नहीं है, कारण उनका निरन्तर बन्ध होता है।
___२४७. तिथंचो में-आयुके बन्धकों का अन्तर ओघवत् जानना चाहिए। शेष प्रकृतियों के बन्धकों का अन्तर नहीं है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, पृथ्वी, अप , तेज, वायु तथा इनके बादर अपर्याप्तक भेदों में, सम्पूर्ण सूक्ष्म, सर्व वनस्पति निगोद, बादरवनस्पति--प्रत्येक तथा उनके अपर्याप्तकों में एवं मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान', असंयम, तीन लेश्या', अभव्य सिद्धिक, मिथ्यादृष्टिसे असंज्ञी पर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए। इनमें पायी जानेवाली विशेषताओं को ओघ-वर्णनसे जानकर निकालना चाहिए।
- पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यचपर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यचअपर्याप्त तथा पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतीमें-तीन आयुका ओघवत् है। तिर्यंचायुके बन्धकों का अन्तर जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहर्त है। पर्याप्तक योनिमती तिर्यचों में अन्तर २४ मुहूर्त है। चार आयुके बन्धकों में तियचायुके समान भंग है।
१. इंदियाणुवादेण एइंदिय-बादर-सहम-पज्जत्त-अपज्जत्त-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदय-पंचिंदिय-पज्जत्त-अपज्जत्ताण-. मंतरं केवचिरं कालादो होंदि ? णस्थि अंतरं, गिरतरं (१५-१७) कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-बाउकाइय-यणप्फदिकाइय-णिगोद जीव-बादर-सुहम-पज्जत्त-अपज्जत्ता बादरवणफदिकाइय-पत्तेयसरीरपज्जत्ता अपज्जत्ता तसकाइय-पज्जत्ता-अपज्जणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्यि अंतरं ।" १८,१९, २. "णाणाणवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणि-विभंगणाणि-आभिणिवोहिय-सूदओहिणाणिमणपज्जवणाणि-केवल. णाणीणमंतर केवचिरंकालादो होदि? णत्यि अंतरं निरंतरं" (३६-३८)। ३. "संजमाणुवादेण संजदा"संजदा. 'संजदा-असंजदाणमंतरंणस्थि अंतरं निरंतरं" (३९.४१)। ४. "लेस्साणवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउ. लेस्सिय-पम्मलेस्सिय-मुक्कलेस्सियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? णत्थि अंतरं :णिरंतरं (४८-५०) भवियाणवादेण भवसिद्धिय-अभव-सिद्धियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्थि अंतरं णिरंतर (५१-५३)। ५. "सम्मत्तागु वादेण सम्माइटि-खइयसम्माइट्रि-वेदगसम्माइट्रि-मिच्छाइट्रीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? णस्थि अंतरं णिरंतर” (५४-५६) । ६. "सणियाणुवादेण सण्णि-असण्णीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्थि अंतरं णिरंतरं-खु० बं० सूत्र ६३.६५ अन्तराणुगम ।
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पयडिबंधाहियारो
२८९ तिरिक्ख-अपज तिरिक्खायु० जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । मणुसायु
ओघं । दो-आयु० तिरिक्खायुभंगो। सेसं णस्थि अंतरं । एवं पंचिंदिय-तस-अपज० विगलिंदिय-बादर-पुढवि० आउ० तेउ० वाउ० बादर-वणफदि-पत्तेय-पञ्जत्ताणं । णवरि तेउ० आयु चउन्धीसं मुहुतं ।
२४८. मणुसेसु-चदु-आयुबंधगा जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण चउव्वीसं मुहुत्तं । दो वेदणी० अबंधगा जहण्णण एगस० । उक्कस्सेण छम्मास० । मणुसिणीसु वासपुधत्तं । सेसं णत्थि अंतरं । मणुस-अपज्ज. सव्वाणं जहण्गेण एगसमओ । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो।
२४६. देवाणं-णिरयभंगो । णवरि सवढे पलिदोवमस्स संखेजदिभागो। ~~~
पंचेन्द्रिय तियं च अपर्याप्तकों में तिथंचायुका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यायुका ओघवत् अन्तर है। दो आयुके बन्धकों का तिथंचायुके समान भंग है । शेष प्रकृतियों में अन्तर नहीं है।
इसी प्रकार पंचेन्द्रिय-त्रस-अपर्याप्तक, विकलेन्द्रिय, बादर पृथ्वी, बादर अप् , बादर तेज, बादर वायु, बादर वनस्पति प्रत्येक पर्याप्तकों में जानना चाहिए। विशेप, तेजकायमें आयुका २४ मुहूर्त अन्तर है।
२४८. मनुष्यगतिमें-चार आयुके बन्धकों का जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे २४ मुहूर्त अन्तर है । दो वेदनीयके अबन्धकों का जघन्यसे अन्नर एक समय, उ कृट से छह माह हैं।
विशेष'-साता-असातायुगल के अबन्धक अयोगकेवली होगे । उनका नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है, उत्कृष्ट अन्तर छह मास है।
मनुष्यनियोंमें दोनों वेदनोयोंके अबन्धकोंका अन्तर वर्षपृथक्त्व है । शेषका अन्तर नहीं है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें-सर्व प्रकृतियोंका जघन्यसे अन्तर एक समय, उत्कृष्ट से पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है ।
विशेषार्थ-शंका-इस इतनी महान राशिका अन्तर किसलिए होता है ?
समाधान-यह तो राशियोंका स्वभाव ही है और स्वभाव में युक्तिवादका प्रवेश नहीं है, क्योंकि उसका भिन्न विषय है । ( ध० जी० अंत० टीकापृ०५६)
__२४२. देवोंमें-नरकके समान भंग है। विशेष इतना है कि सर्वार्थसिद्धि में पल्योपमके संख्यातवें भाग प्रमाण अन्तर है।
१. “चदुण्हं खवग-अजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होंदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं उक्कस्सेण छम्मासं ।" -षट् खं०,अंतरा० १६, १७ । “उत्कृष्टेन षण्मासाः।" -स० सि. १, ८ । २. 'मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु चदुण्हमुवसामगाणमंतरं के चिरं कालादो होंदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणणेण एगसमयं उक्कस्सेण वासपुधत्तं ।"-७०,७१ । "मणसू-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होंदि ? णाणाजीवं पच्च जहण्णेग एगसमयं ।" ७८ । मणस अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एगसमओ। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो- चु० बं०,असू०८-१०1 "किम?-मेदस्स एम्महंतस्स रासिस्स अंतरं होंदि ? एसो सहाओ एदस्स । ण च सहावे जत्तिवादस्स पवेसो अत्यिभिण्णविसयादो।" -ध० टी०,अ० पृ०५६ । “उक्कमेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।"-: । ३. देवगदीए देवाणमंतरं केवचिरं कालादो होंदि ? णत्थि अन्तरं णिरंतरं (११-१३) भवणवामिय जाव सव्वमिद्धिविमाणवासिय देवा देवगदिभंगो १४-खु० बं०,अंतरा।
३७
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महाबंधे
पंचिदियतस०२ तिणि आयु-बंधगा जहणेण एगस० । उक्कस्सेण चउव्वीसं मुहुत्तं । तिरिक्खायु-बंधगा जहणेण एगस० । उक्कस्सेण अंतोमुहुतं । पत्ते चउव्वीसं मुहुतं । सेसं मणुसोघं । तिष्णि-मण० तिणि वचि० चदुआयु० बंधगा जहणेण एगस० । उक्करसेण चउव्वीसं मुहुत्तं । सेसं णत्थि अंतरं ।
२६०
२५०. दोमण० दोवचि ० चदुआयु० तिष्णि मणभंगो | पंचणा० छदंसणा० चदुसंज० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतराइगाणं बंधगा णत्थि अंतरं । अधगा जहणेण एगस० । उक्कस्सेण छम्मासं । सेसं पत्तेगेण साधारणेण य बंधगा णत्थि अंतरं । अबंधगा जहणेण एगस० । उक्कस्सेण छम्मासं । णवरि थीणगिद्वितिगं मिच्छत्त बारसक० दोअंगो० छस्संघ० परघादुस्सासं आहारदुगं आदाउजोवं दो - विहाय ० दोसरं बंधगा - अबंधगा णत्थि अंतरं ।
२५१. एवं चक्खु ० अचक्खु ० सष्णिति । णवरि अचक्खुदंस० आयु० ओघं । ओरालियमस०-धुविगाणं बंधगा णत्थि अंतरं । अबंधगा जहण्णेण एगस, उक्कस्सेण
1
1
पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-पर्याप्त, त्रस त्रस पर्याप्तकों में - तीन आयुके बन्धकोंका अन्तर जघन्य से एक समय, उत्कृष्टसे २४ मुहूर्त है । तिर्यंचायुके बन्धकोंका जघन्य से एक समय, उसे अन्तर्मुहूर्त अन्तर जानना चाहिए । पर्याप्तकों में २४ मुहूर्त हैं। शेष प्रकृतियों में मनुष्यों के ओघवत् जानना चाहिए ।
तीन मनोयोगी, तीन वचनयोगी में - ४ आयुका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे २४ मुहूर्त अन्तर है, शेष प्रकृतियोंमें अन्तर नहीं है ।'
२५०. दो मनयोगी, दो वचनयोगीमें-४ आयुके अन्तरका तीन मनोयोगीके समान भंग है । अर्थात् जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से २४ मुहूर्त है । पाँच ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, तैजस-कार्माण, वणे ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायों के बन्धकका अन्तर नहीं है । अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे छह मास अन्तर है । शेषके बन्धकोंका सामान्य तथा प्रत्येक रूपसे अन्तर नहीं है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे ६ माह अन्तर है। विशेष यह है कि स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व १२ कषाय, दो अंगोपांग, ६ संहनन, परघात, उच्छ्वास, आहारकद्विक, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, दो स्वरोंके बन्धकों अबन्धकोंका अन्तर नहीं है।
२५१. इसी प्रकार अचक्षुदर्शनसे संज्ञी पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष यह है कि अचक्षुदर्शन में आयुका ओघवत् अन्तर I
औदारिक मिश्रकाययोगमें- ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकका अन्तर नहीं है; अबन्धकों का जघन्यसे एक समय उत्कृष्ट से वर्षपृथक्त्व अन्तर है ।'
विशेष- इस योग में ध्रुव प्रकृतियों के अबन्धक सयोगकेवली होंगे। वहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व हैं । कारण, कपाट
१. जोगाणुवादेण पंचमणजोगि- पंचवचिजोगि अंतरं केवचिरं कालादो होंदि ? णत्थि अंतरं निरंतरं ( २१-२३) २. "सजोगिकेवलीणमंतरं केत्रचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणणे एगसमयं उक्कस्सेण वासवुधत्तं । ” – षट् खं० अंतरा० १६६-६७ ।
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२६१
पयडिबंधाहियारो वासपुधत्तं । थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४ ओरालि० बंधगा णत्थि अंतरं । अबंधगा जहण्णण एगस० । उक्कस्सेण मासपुधत्तं । दोआयु० छस्संघ० दोविहाय० दोसर० बंधा-अबंधगा णस्थि अंतरं। णवरि मणुसायु ओघ । तित्थयर० बंधगा जह.. एगस० । उक्कस्सेण वासपुधत्तं । अबंधगा णस्थि अंतरं। सेसाणं पोगेण साधारणेण य णत्थि अंतरं । अबंधगा जहण्णेण एगस० । उक्कस्सेण वासपुधत्त ।
२५२. वेउव्वियका०-देवोघं । वेउव्वियमिस्स-धुविगाणं बंधगा जहण्णेण एगस०। उक्कस्सेण बारस मुहुन् । अबंधगा णत्थि अंतरं । थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त-अणताणुबं०४ अबंधगा, तित्थय० बंधगा ओरालियमिस्सभंगो । सेसाणं बंधाबंधगा जहण्णेण एगस० उक० बारसमुहुत्तं । णवरि एइदिय०३ चउव्वीस मुहुत्त । समुद्धात रहित केवली जघन्यसे एक समय तथा उत्कृष्ठसे वर्षपृथक्त्व पर्यन्त होते हैं ।-ध० टी०,अन्तरा० पृ०६१।
स्त्यानगृद्वित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ तथा औदारिक शरीरके बन्धकोंका अन्तर नहीं है। अबन्धकोंका अन्तर ज वन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे मासपृथक्त्व अन्तर है । दो आयु, ६ संहनन और २ विहायोगति, २ स्वरके बन्धकों, अबन्धकोंका अन्तर नहीं है। विशेष यह है कि मनुष्यायुके विषयमें ओघवत् जानना ।' तीर्थकरके बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से वर्षपृथक्त्व अन्तर है । अबन्धकोंका अन्तर नहीं है।
विशेष-इस योगमें तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धक चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव होंगे। उनका जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व अन्तर कहा है।
शेष प्रकृतियोंके बन्धकोंका प्रत्येक तथा सामान्यसे अन्तर नहीं है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे वर्षपृथक्त्व अन्तर है।
२५२. वैक्रियिक काययोगमें-देवोंके ओघवत् जानना चाहिए । वैक्रियिक मिश्रकाययोगमें ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकोंका जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट १२ मुहूर्त अन्तर है।
विशेषार्थ-सर्व वैक्रियिक मिश्रकाययोगियोंके पर्याप्तियोंको पूर्ण कर लेनेपर एक समयका अन्तर होता है। देव तथा नारकियोंमें न उत्पन्न होनेवाले जीव यदि बहुत अधिक काल तक रहते हैं तो बारह मुहूर्त तक ही रहते हैं । यह कैसे जाना ? .
समाधान-जिण-वयण-विणिग्गय-वयणादो-जिनेन्द्रके मुखसे निकले हुए वचनोंसे जाना जाता है । (खु० बं०,टीका,पृ० ४८५)
अबन्धकोंका अन्तर नहीं है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धकोंका तथा तीर्थंकरके बन्धकोंका औदारिक मिश्रकाय योगके समान भंग जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंके बन्धकों,अबन्धकोंका जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट १२ मुहूर्त अन्तर है। विशेष यह है कि एकेन्द्रियत्रिकका अन्तर २४ मुहूर्त जानना चाहिए ।
१. "असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमयं उक्कस्सेण वासपुधत्तं ।'-१६३-६४ । २. "वेउव्वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं उक्कस्सेण बारसमुहुत्तं ।" -षट्खं०,अंतरा० १७०-१७१ ।
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महाबंध
२५३. आहार० आहारमिस्स ० धुविगाणं बंधगा जहण्णेण एगस० । उक्कस्सेण वासyधत्त । अबंधगा णत्थि अंतरं । सेसाणं बंधाबंधगा जह० एगस० । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ।
२५४. कम्मइग-कायो ओरालियमिस्स भंगो ।
२५५ इत्थवेदे - धुविगाणं बंधगा णत्थि अंतरं । अबंधगा णत्थि । णिद्दा- पचलाभयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ उप० णिमिणं बंधगा णत्थि अंतरं । अबंधगा जहण एस० । उक्कस्सेण वासपुधत्तं अंतरं । थीण गिद्धि०३ मिच्छत्त बारसकसा० दोअंगो० संघ० आहारदु • परवादुस्सा० आदाउज्जोव - दोविहाय दोसर० बंधगा० णत्थि अंतरं । अबंधगा णत्थि अंतरं । एवं वेदणीय तिण्णिवेद -जस० अञ्जस० तित्थय० दोगोदाणं । सेसाणं पत्तेगेण बंधाचंधगा णत्थि अंतरं । साधारणेण बंधाबंधगा णत्थि अंतरं । अबंधगा जहण्णेण एगस० । उक्कस्सेण वासपुधत्तं अंतरं ।
०
०
२५६. एवं पुरिसवेदं वंसगवेदं । णवरि पुरिसे यं हि वासपुधत्तं तं हि वासं सादिरेयं । इत्थि० पुरिस० चदुआयु० पंचिंदिय-पज्जतभंगो | णवुंसगे ओघं ।
२६२
२५३. आहारक तथा मिश्रकाययोगमें- ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व अन्तर है : अबन्धकों में अन्तर नहीं है । शेष प्रकृतियों के बन्धकों, अबन्धकोंका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व अन्तर है ।
२५४. कार्मण काययोगमें-औदारिक मिश्रकाययोगके समान भंग जानना चाहिए । २५५. स्त्रीवेद में- ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंका अन्तर नहीं है । इनके अबन्धक नहीं हैं । निद्राप्रचला, भय, जुगुप्सा, तैजस- कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, उपघात, निर्माणके बन्धकों का अन्तर नहीं है । अबन्धकोंका जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट से वर्षपृथक्त्व अन्तर है । स्त्यानद्धित्रिक, मिथ्यात्व, बारह कषाय, दो अंगोपांग, ६ संहनन, आहारकद्विक, परघात उच्छ्वास, उद्योत, २ विहायोगति / २स्वर के बन्धकोंका अन्तर नहीं है। अबन्धकोंका भी अन्तर नहीं है । इसी प्रकार वेदनीय, ३ वेद, यशः कीर्ति, अयशःकीर्ति, तीर्थंकर तथा २ गोत्रका जानना । शेष प्रकृतियों के बन्धकों अबन्धकोंका प्रत्येकसे अन्तर नहीं है । सामान्यसे भी इनका अन्तर नहीं है । अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे वर्षपृथक्त्व अन्तर है ।
आतप,
२५६. पुरुषवेद नपुंसक वेद में इस प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि पुरुषवेद में वर्ष-पृथक्त्व के स्थान में साधिकवर्ष जानना चाहिए ।
विशेष - पुरुषवेद के द्वारा अपूर्वकरण क्षपक गुणस्थानको प्राप्त हुए सभी जीव ऊपर के गुणस्थानोंको चले गये, अतः अपूर्वकरण गुणस्थान अन्तर युक्त हो गये । पुनः ६ मास व्यतीत
१. "आहारकायजोगी आहार मिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीव पडुच्च जहणेण एगसमयं उक्कस्सेण वासपुधत्तं ।” - १७४ - १७५ । २. " इत्थिवेदेसु दोण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णुवकस्समोघं ।" - षट्खं०, अंतरा० १८७ । ३. " णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं उक्कस्सेण वासपुधत्तं ।" -षट्खं०, अंतरा० १२, १३ । ४. "पुरिस वेदसु दोन्हं खवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं, उक्कस्सेण वासं सादिरेयं ।" - षट्खं०, अंतरा० १९३, २०४, २०५ ।
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पयडिबंधाहियारो
२९३ २५७. कोधादिसु तिसु पुरिसभंगो। मवरि तिरिक्खायु ओघं । एवं लोभे, मवार छम्मासं ।
२५८. अवगदबेदेसु सादबंधा अबंधगा णत्थि अंतरं । सेसं बंधगा जहण्णेण एगस०, उक्कस्सेण छम्मासं । अबंधगा पत्थि अंतरं ।
२५६. अकसाइगेसु साद-बंधा अबंधगा णस्थि अंतरं । एवं केवलदंसणा० । विभंगे पंचिंदिय-तिरिक्ख-पज्जत्तभंगो।
२६०. आभि० सुद० ओधि० दो-आयु० बंधगा जहण्णेण एगस०, उक्कस्सेण मासपुधत अंतरं । सेसाणं दो-मणभंगो। ओधिणा वासपुधत्त ।
२६१. एवं मणपज्जव० ओधिदं० । वरि मणपजव० देवायु ० वासपुधत्त । होनेपर सभी जीव स्त्रीवेदके द्वारा क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ हो गये । पुनः ४, ५ मासका अन्तर करके नपुंसकवेदके उदयसे कुछ जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़े। पुनः १, २ मासका अन्तर कर कुछ जीव स्त्रीवेदके द्वारा क्षपकश्रेणी पर चढ़े। इस प्रकार संख्यात बार स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके उदयसे ही क्षपकश्रेणीपरः आरोहण करा करके पश्चात् पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणी चढ़नेपर साधिक वर्ष प्रमाण अन्तर हो जाता है। क्योंकि निरन्तर ६ मासके अन्तरसे अधिक अन्तरका होना असम्भव है। इसी प्रकार, 'पुरुषवेदी' अनिवृत्तिकरण क्षपकका भी अन्तर जानना चाहिए। 'कितनी ही सूत्र पोथियोंमें पुरुषवेदका उत्कृष्ट अन्तर ६ मास पाया जाता है। (जीवट्ठाण अन्तरा० पृ० १०६)
स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा ४ आयुके बन्धकों, अबन्धकों में पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के समान भंग जानना चाहिए । नपुंसकवेदमें-ओघवत जानना चाहिए ।
२५७. क्रोध-मान-मायाकषायमें-पुरुषवेदके समान भंग है। विशेष इतना है कि ति यचायुके बन्धकों, अबन्धकोंका अन्तर ओघवत् जानना चाहिए । लोभकषायमें-इसी प्रकार समझना चाहिए । विशेष, यहाँ अन्तर छह मास जानना चाहिए।
२५८. अपगत वेदमें-साताके बन्धकों, अबन्धकोंमें अन्तर नहीं है। शेष प्रकृति के बन्धकोंमें जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे छह माह अन्तर है ; अबन्धकोंका अन्तर नहीं है।
२५९. अकषायियोंमें-साताके बन्धकों अबन्धकोंमें अन्तर नहीं है। केवलज्ञान, केवलदर्शनमें इसी प्रकार जानना। विभंगावधिमें पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तकोंका भंग जानना चाहिए।
२६०. आभिनिबोधिक श्रुत तथा अवधिज्ञानमें-दो आयु अर्थात् मनुष्य-देवायुके बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे मासपृथक्त्व अन्तर है। शेष प्रकृतियोंमें दो मनयोगियों के समान भंग है । अवधिज्ञानियों में वर्षपृथक्त्व अन्तर है ।
२६१. मनःपर्ययज्ञान,अवधि दर्शनमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि मनःपर्ययज्ञानमें देवायुका अन्तर वर्षपृथक्त्व है ।'
१. केसुवि सुत्तपोत्यएसु पुरिसवेदमंतरं छम्मासा - जी०,अंत० पृ० १०६ । २: "आभिणिबोहिय-सुदओहिणाणीसु""चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण मासपुधत्तं ।" -षटूखं०,अंतरा०२३२, २४१, २४२, २४५। ३. "मणपज्जवणाणीसु.. चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं उक्कस्सेण 'वासपुधत्तं ।" -२४६, २४६, २५० ।
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२६४
महाबंधे २६२. एवं परिहारे संजदु० (?) तं चेव, णवरि मास-पुधत्त । एवं सामाइ० छेदोप० । संजदासंजदा० सुहुमसं० सव्वाणं बंधगा जहणण एगस० । उक्कस्सेण छम्मासं अंतरं । अबंधगा णत्थि । यथाक्खाद०-सादबंधगा पत्थि अंतरं। अबंधगा जहण्णेण एगेस० उक्कस्सेण छम्मास० (सं)।
२६३. तेउपम्माणं-तिण्णि-आयु० बंधा जह० एगस० । उकस्सेण अडदालीसं मुहुत्तं, पक्खं ।
२६४. सुक्काए-दो आयु० मासपुधत्तं ।
२६५. सम्मादिट्ठि आभिणिभंगो । खइगसम्मा० वासपुधत्तं । सेसाणं णस्थि अंतरं । वेदगसम्मा० आयु० आभिणिभंगो । सेसं णत्थि अंतरं। ..
२६६. उवममसम्मा०-पंचणा० छदंस०चदुसंज० पुरिस० भयदु० पंचिदि० तेजाक० समचदु० बजरिसभ० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर
२६२. परिहारविशुद्धिमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि वर्षपृथक्त्वके स्थानमें मासपृथक्त्व अन्तर जानना चाहिए । इसी प्रकार सामायिक,छेदोपस्थापना संयममें जानना चाहिए। संयतासंयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयसमें सर्व प्रकृतियोंके बन्धकोंका' जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे छह मास अन्तर है । अबन्धक नहीं है।
विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंके बिना जघन्यसे एक समय देखा जाता है। उत्कृष्ट से अन्तर छह मास होता है; कारण क्षपकश्रेणी आरोहणका छह मासोंसे अधिक उत्कृष्ट अन्ता नहीं पाया जाता है । ( खु० बं० टी०, पृ० ४८९)।
यथाख्यातसंयम में-साता वेदनीयके बन्धकोंका अन्तर नहीं है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कष्ट छह मास अन्तर जानना चाहिए।
विशेष-साता वेदनीयके ,अबन्धकोंका इस संयम में अयोगकेवली गुणस्थान है। उसका जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट अन्तर छह मास है।
२६३. तेजोलेश्या-पद्मलेश्यामें-तीन आयुके बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे ४८ मुहूर्त तथा पक्षप्रमाण अन्तर है।
२६४. शुक्ललेश्यामें-दो आयुके बन्धकोंका मासपृथक्त्व अन्तर है।। __ २६५. सम्यग्दृष्टियोंमें-आभिनिबोधिक ज्ञानके समान भंग है। क्षायिक सम्यक्त्वीमें दो आयुके बन्धकोंका वर्षपृथक्त्व अन्तर है। शेष प्रकृतियोंका अन्तर नहीं है । वेदक सम्यक्त्वियों में-आयुके बन्धकोंका आभिनिबोधिक ज्ञानके समान है। शेष प्रकृतियों में अन्तर नहीं है।
२६६. उपशमसम्यक्त्वियों में-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस-कार्माण, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभसंहनन, वर्ण ४,
१. सुहुमसापराइयसुद्धिसंजदाणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एगसमयं उक्कस्सेण छम्मासाणि -खु० बंसू०४२-४४। २. 'चदुण्हं खबगअजोगिकेवलोणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणणेण एगसमयं उक्कस्सेण छम्मासं।" -१६, १७। ३. "चदुण्हमवसामगाणमंतर केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पड्डच्च जहण्णण एगसमयं उक्कस्सेण वासपुधत्तं ।” -पटूखं०,अं० सू० ३४३, ४४।
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पयडिबंधाहियारो
२९५ आदेज्ज-णिमिण-उच्चागोदं पंचंतराइगाणं बंधगा जहण्णेण एगस० उक्कस्सेण सत्तरादिदियाणि । [अबंधगा] जहण्णेण एगस०, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । णवरि वज्जरिस० अबंधगा सत्तरादिंदियाणि । मणुसगदि०४ वारिसभ-भंगो। दोवेदणी० बंधा-अबंधगा जहण्णेण एगस० । उक्कस्सेण सत्तरादिदियाणि । दोण्णं बंधगा जहण्णे० एगस० । उक्कस्सेण सत्तरादिदियाणि । अबंधगा णत्थि । चदुणोक. बंधा-बंधगा जहण्णेण एगस० । उक्कस्सेण सत्तरादिंदियाणि । दोणं युगलाणं बंधगा जहण्णेण एगस० । उक्कस्सेण सत्तरादिदियाणि । अबंधगा जहण्णेण एगस० । उक्क. वासपुधत्तं । एवं परियत्ति [माणि] याणं । अपच्चक्खाणावरण०४ बंधगा जहण्णण एगस० । उक्क० सत्तरादिदियाणि । अबंधगा जह० एगस० । उक्क० चोइसरादिदियाणि। पच्चक्खाणावरण०४ बंधगा जह० एगस० । उक्क० सत्तरादिदि० । अबंधगा जह० एगस० । ' उक्क० पण्णारसरादिदि० । आहारदुगं तित्थयरं बंधगा जह० एगस० । उक्क० वासअगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायों के बन्धकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे सात रात-दिन है। . विशेषार्थ-रात्रिंदिव शब्द द्वारा दिवसका ग्रहण किया गया है, क्योंकि सम्मिलित दिन तथा रात्रिमें दिवसका व्यवहार देखा जाता है । (खु० बं० टीका पृ० ४६२)
[अबन्धकोंका ] जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे वर्षपृथक्त्व अन्तर है।
विशेष-इन प्रकृतियोंके अबन्धक उपशान्तकषायी होंगे, उनका जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व है।
विशेष यह है कि वनवृषभनाराचके अबन्धकोंका अन्तर सात दिन-रात है। मनुष्यगति ४ के बन्धकोंका अन्तर वज्र वृषभनाराचसंहननके समान है। दो वेदनीयके बन्धकों, अबन्धकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे सात दिन-रात है। साता-असाताके बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे सात दिन-रात है। अबन्धक नहीं है । चार नोकषायों अर्थात् हास्यादिचतुष्कके बन्धकों, अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे ७ दिन-रात अन्तर है। दोनों युगलोंके बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे ७ दिन-रात अन्तर है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ठसे वर्षपृथक्त्व है। परिवर्तमान प्रकृतियोंमें इसी प्रकार भंग जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे सात दिनरात अन्तर है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे १४ दिन-रात है । प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे ७ दिनरात अन्तर है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे १५ दिनरात है। आहारकंद्विक तथा तीर्थकरके
१. "उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं उक्कस्सेण सत्तरादिदियाणि ।" -षट्खं०, अं० सू० ३५६, ३५७ । रादिदियमिदि दिवसस्स सण्णा । अहोरत्तेहि मिलिएहि दिवसववहारदसणादो। एत्थ उवसंहारगाहा - सम्मत्ते सत्त दिणा विरदाविरदीए चोद्दस हवंति । विरदीसु अ पण्णरसा विरहिदकालो मुणेयब्वो ॥ -खु० बं०टी० पृ० ४६२ । २. "संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पड़च्च जहणेण एगसमयं उक्कस्सेण चोद्दसरादिदियाणि ।" -षट्खं० अं० सू० ३६०, ३६१ । ३. “पमत्तअप्पमत्तसं जदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं उक्कस्सेण पण्णारसरादि दियाणि ।" -३६४, ६५ |
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महाबंधे
२६६ पुधत्तं । अबंधगा जह० एगस० । उक्कस्सेण सत्तरादिंदियाणि ।
२६७. सासणे-सव्वे विगप्पा जहण्णण एगस० । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । एवं सम्मामि० ।
२६८. अणाहारे–धुविगाणं बंधा-अबंधगा णत्थि अंतरं । एवं सेसाणं । णवरि देवगदि०४ बंधगा जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण मासपुधत्त अंतरं । तित्थयरं बंधगा जहण्गेण एगसमओ । उक्कसण वासपुधत्तं अंतरं । अबंधगा णस्थि ।
एवं अंतरं समत्तं ।
बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे वर्षपृथक्त्व है। अबन्ध कोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे ७ दिनरात है।
२६७. 'सासादनमें सर्व विकल्प जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं । इसी प्रकार सम्यमिथ्यात्वमें जानना ।
२६८. अनाहारकोंमें-ध्रुवप्रकृतियोंके बन्धकों, अबन्धकोंका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंमें भी जानना चाहिए। विशेष, देवगति चार के बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे मासपृथक्त्व अन्तर है। तीर्थकर प्रकृति के बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे वर्षपृथक्त्व अन्तर है ; अबन्धक नहीं हैं।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ।
१. “सासणसम्मादिट्ठी- सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ?. णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।" -३७५, ७६ । २. आहाराणुवादेण आहार-अणाहाराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्थि अंतरं, णिरंतरं । -खु० ०,सू० ६६-६८ , पृ. ४६४
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[ भावारणुगम - परूवणा ]
२६६. भावानुगमेण दुविहो णिद्देसो । ओघेण आदेसेण य ।
[ भावानुगम ]
२६६. भावानुगमका ओघ तथा आदेशसे दो प्रकार निर्देश करते हैं
विशेषार्थ – यहाँ नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव रूप चतुर्विध निक्षेप रूप भावों में से नोआगम भाव रूप भावनिक्षेपका अधिकार है। वीरसेन स्वामीने 'धवलाटीका में भावानुगमपर प्रकाश डालते हुए लिखा है- "पदेसु चदुसु भात्रेसु केण भावेण श्रहियारो ? णोश्रागमभावभावेण । "
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - " णामादि- सेस भावेहि चोहस- जीवसमासाणमणप्पभूदेहि इह पोजणाभाषा " - चौदह जीव समासोंके लिए अनात्मभूत नामादि शेष भावनिक्षेपोंसे यहाँपर कोई प्रयोजन नहीं है । इससे ज्ञात होता है कि यहाँ नोआगमभाव - भावनिक्षेपसे ही प्रयोजन है ।
भावप्राभृतका ज्ञाता तथा उपयोग विशिष्ट जीव आगमभावरूप भावनिक्षेप है । नोआगमभाव - भावनिक्षेप औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा पारिनामिक भेदसे पंच प्रकार है। कर्मोदयजनित औदयिक भाव है। कर्मोंके उपशमसे उद्भूत औपशमिक भाव है । कमाँके क्षयसे प्रकट होनेवाला जीवका भाव क्षायिक है । कर्मोदय होते हुए भी जो जीवके गुणका खण्ड ( अंश ) प्राप्त होता है, वह क्षायोपशमिक भाव है । पूर्वोक्त चार भावोंसे व्यतिरिक्त जीव तथा अजीवगत भाव पारणामिक नाम युक्त है।
ये पाँचों भाव जीव में पाये जाते हैं । पुद्गल द्रव्यों में औदायिक तथा पारिणामिक भाव पाये जाते हैं - "पोग्गलदव्वेसु श्रवश्य-पारिणामियाणं दोन्हं वेव भावाणमुवलंभा ।" धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल द्रव्योंमें पारिणामिक भाव है ।
भावका क्या स्वरूप है, इसपर धवला टीकाकार इस प्रकार प्रकाश डालते हैं - "भावो नाम जीवपरिणामो तिव्व-मंद- णिज्जराभावादिरूवेण अणेयपयारो” ( जीवद्वाण भावाणुगमध० टी०, पृ० १८५, १८६ ) - भाव नाम जीवके परिणामका है। वह तीव्र, मंद, निर्जराभाव आदि के रूपसे अनेक प्रकारका है ।
अभव्य जीवोंके असिद्धता, धर्मास्तिकायमें गमनहेतुता, अधर्म द्रव्यमें स्थितिहेतुता, आकाश में अवगाहनत्व, कालमें परिणमनहेतुता आदि अनादि-निधन भाव हैं । भव्यमें असिद्धता, भव्यत्व, मिथ्यात्व असंयम आदि अनादि-सान्त भाव हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन - आदि सादि-अनन्त भाव हैं। सम्यक्त्व और संयमको धारण कर पीछे आये हुए जीवके मिथ्यात्व तथा असंयम आदि सादि-सान्त भाव हैं ।
१. " कम्मोदए संविजं जीवगुणक्खंडमुवलंभदि सो खओवसमिओ भावो णाम" - जी०, भाव० टीका, पृ० १८५ ।
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२६८
महाबंधे २७०. तत्थ ओघेण-पंचणा० छदसणा० मिच्छ० (१) सोलसक० (चदुसंज०) भयदुगुं० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणपंचंतराइगाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो ? उवसमिगो वा खइगो वा । थीणगिद्धितिगं बारसकसा० बंधगात्ति को भावो १ ओदइगो भावो। अबंधगात्ति को भावो ? उवसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा। मिच्छत्त-बंधगात्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो ? उचसमिओ वा खइगो वा खयोवसमिगो वा पारिणामिगो वा । साद-बंधगात्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो ?
- २७०. ओघसे - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व(?), १६ कषाय, (४ संज्वलन). भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तरायोंके बन्धकोंके कौन भाव हैं ? औदयिक भाव हैं।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वका वर्णन आगे आया है अतः यहाँ उसका पाठ असंगत प्रतीत होता है। बारह कषायोंका वर्णन आगे किया गया है, अतः सोलह कषायके स्थानमें चार संज्वलनका पाठ सम्यक् प्रतीत होता है ।
अबन्धकोंके कौन भाव हैं ? औपशमिक भाव वा क्षायिकभाव हैं।
विशेष-इन प्रकृतियोंका अबन्ध उपशान्त कषाय अथवा क्षीणमोहमें होगा, अतएव उपशम श्रेणीकी अपेक्षा औपशमिक और क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा क्षायिकभाव है।
स्त्यानगृद्धित्रिक, १२ कषायके बन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक भाव है । अबन्धकोंमें कौन भाव है ? औपशमिक वा क्षायिक वा क्षायोपशमिक है ।
विशेष-इनके अबन्धकोंका प्रमत्तसंयत गुणस्थान होगा। वहाँको अपेक्षा तीन भाव कहे गये हैं।
- मिथ्यात्वके बन्धकोंमें कौन-सा भाव है ? औदयिक है। अबन्धकोंमें कौन-सा भाव है ? औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक या पारिणामिक ।
विशेष-मिथ्यात्वके अबन्धकोंमें पारिणामिकभाव सासादन गुणस्थानकी अपेक्षा कहा गया है।
शंका-सासादन गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उदयकी अपेक्षा औदयिक भाव क्यों नहीं कहा ?
समाधान-यहाँ दर्शन मोहनीयकर्म के सिवाय अन्य कर्मोके उदयकी विवक्षा नहीं की
गयी है।
१. "मिच्छे खलु ओदइओ विदिए पुण पारणामिओभावो। मिस्से खओवसमिओ अविरदसम्मम्हि तिणेव ॥ ११ ॥ एदे भावा णियमा दंसणमोहं पडुच्च भणिदा है। चारितं पत्थि जदो अविरदअंतेसु ठाणेसु ॥ १२॥" गो० जी० ।
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पयडिबंधाहियारो ओदइगो वा खइगो वा [ असाद-बंधगात्ति को भावो ? ] ओदइ० । [अबंधगात्ति को भावो ? ओदहगोवा ] खइगो वा खयोवसमिगो वा । दोण्णं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो? खइगो भावो। इत्थि० णवंस० बंधगात्ति को भावो ? ओदहगो भावो । अबंधगात्ति को भावो । ओदइगो वा उवसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा। णवरि णवूस० पारिणामिगो भावो । पुरिसवे० बंधगात्ति ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो ? ओदइगो वा उपसमिगो वा खइगो वा । . सातावेदनीयके बन्धकों में कौन भाव है ? औदयिक भाव है । अबन्धकोंमें कौन भाव है ? औदयिक या क्षायिक है।
विशेष-सातावेदनीयको बन्धव्युच्छित्तिवाले अयोगकेवली गुणस्थानमें क्षायिकभाव है, किन्तु असाताके बन्धक किन्नु साताके अबन्धकके औदायिक भाव है; कारण साता और असाताके परस्पर प्रतिपक्षी होनेसे असाताके बन्धकाल में साताका अबन्ध होगा। इस दृष्टिसे औदयिक भावका निरूपण किया है ।
[असाता वेदनीयके बन्धकोंके कौन-सा भाव है ? ] औदायिक है। [ अबन्धकोंके कौनसा भाव है ? औदयिक ] या क्षायिक या क्षायोपशमिक है।'
विशेष-असाताको बन्धव्युच्छित्ति प्रमत्तसंयतमें होती है, अतएव अप्रमत्त गुणस्थानकी अपेक्षा भायोपशमिक भाव कहा है। . दोनों के बन्धकोंमें कौन-सा भाव है ? औदायिक भाव है। अबन्धकों में कौन-सा भाव है ? क्षायिकभाव है।।
विशेष--यहाँ दोनोंके अबन्धक अयोगकेवलीकी अपेक्षा क्षायिकभाव कहा है। ___ स्त्रीवेद, नपुंसकवेदके बन्धकोंमें कौन-सा भाव है ? औदायिक भाव है । अबन्धकोंमें कौन-सा भाव है ? औदयिक, औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक है। इतना विशेष है कि नपुंसकवेदके अबन्धकोंमें पारिणामिक भाव भी पाया जाता है ।
विशेष-यहाँ स्त्रीवेद, नपुंसकवेदके अबन्धकोंमें औदयिक भावका निरूपण पुरुषवेदके बन्धककी अपेक्षासे किया है। नपुंसकवेदके अबन्धक सासादन गुणस्थानमें होते हैं । वहाँ दर्शनमोहनीयके उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशमका अभाव होनेसे पारिणामिक भाव कहा है।
पुरुषवेदके बन्धकोंमें कौन-सा भाव है ? औदयिक भाव है। अबन्धकों में कौन-सा भाव है ? औदयिक, औपशमिक वा क्षायिक है ।।
विशेष-पुरुषवेदके अबन्धक अनिवृत्तिकरणके अवेद भागमें होंगे। वहाँ चारित्र मोहनीयके उपशम अथवा क्षयमें तत्पर जीवोंकी अपेक्षा औपशमिक तथा क्षायिक भाव है। पुरुषवेद के अबन्धक किन्तु स्त्री-नपुंसकवेदके बन्धककी अपेक्षा औदायिक भाव होगा।
१. देसविरदे पमत्ते इदरे य खओवसमियभावो दु ।
सो खलु चरित्तमोहं पडुच्च भणियं तहा उवरिं ॥ १३ ॥ तत्तो उवरि उवसमभावो उवसामगेसु खवगेसु । खइओ भावो णियमा अजोगिचरमोत्ति सिद्धे य ॥ १४ ॥
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३००
महाबंधे
तिण्णं वेदाणं बंधगात्ति को भायो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो १ खइगो वा उवसमिगो वा । इत्थि णबुंसकभंगो [अरदिसोग] चदु-आयु-तिण्णिगदि-चदुजादिओरालि० पंचसंठा० ओरालि० अंगो० छस्संघ० तिण्णि आणु० आदावुज्जो० अप्पसत्थवि. थावरादि०४ अप्पसत्थवि० ( अथिरादिछक्क ) उच्चागोदं ( णीचागोदं ) च । पुरिसभंगो हस्सरदि-देवगदि-पंचिंदि० वेउवि० आहार० समचदु० दोआंगो० देवाणु० परघादुस्सा० पसत्थविहाय० तस०४ थिरादि-छक्कं तित्थयरं (उच्चागोदं च । पत्तेगेण साधारणेण चदुआयु-दो-अंगो० छस्संघ०२ विहाय दोसराणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो। अबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो वा उपसमिगो वा खइगो वा । णवरि चदुआयु० छस्संघ. अबंधगात्ति को भावो ? ओदइगो वा उवसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा । दो युगल-चदुगदि-पंचजादि-दोसरीर०छस्संठा. चदुआणु० तसथावरादिणवयुगलं दोगोदं च बंधगाति को भावो १ ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो ? उपसमिगो वा खइगो वा । एवं ओघभंगो मणुसगदि (१) तिगं
तीनों वेदोंके बन्धकोंमें कौन-सा भाव है ? औदयिक है। अबन्धकों के कौन-सा भाव है ? क्षायिक या औपशमिक है।
_ विशेष-वेदत्रयके अबन्धकके अनिवृत्तिकरणके अवेद भागमें क्षायिक तथा औपशमिक भाव कहे हैं।
- [अरति शोक ] ४ आयु, देवगतिको छोड़कर तीन गति, ४ जाति, औदारिक शरीर, समचतुरस्र संस्थानको छोड़कर शेष पाँच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, देवानुपूर्व के विना तीन आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावरादि४, अप्रशस्त विहायोगति (?) तथा उच्च गोत्रके(?) बन्धकोंमें स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके बन्धकोंके समान भाव जानना चाहिए अर्थात् बन्धकोंके औदायिक भाव हैं तथा अबन्धकोंके औदायिक, औपशमिक, क्षायिक वा मायोपशमिक है।
विशेष-यहाँ अप्रशस्त विहायोगतिका दो बार उल्लेख आया है। प्रतीत होता है, अस्थिरादिषट्क के स्थान में अप्रशस्तविहायोगतिका पुनः उल्लेख हो गया है। यहाँ उच्चगोत्रके स्थानमें नीचगोत्रका पाठ उचित प्रतीत होता है।
___ हास्य, रति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक तथा आहारक-अंगोपांग, देवानुपूर्वी, परघात, उछ्वास, प्रशस्त विहायोगति, स ४, स्थिरादि ६, तीर्थंकर प्रकृति, [ उच्च गोत्र ] के बन्धकोंमें पुरुषवेदके समान भंग है अर्थात् बन्धकोंमें औदायिक भाव है, अबन्धकोंमें औदायिक, क्षायिक वाक्षायोपशमिक है । प्रत्येक तथा सामान्यसे ४ आयु, २ अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरों के बन्धकोंमें कौन भाव है ? औदयिक है। अबन्धकोंके कौन भाव हैं ? औदयिक, औपशमिक तथा क्षायिक भाव हैं। विशेष, ४ आयु, ६ संहननके अबन्धकोंमें कौन भाव हैं ? औदयिक, औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव हैं। हास्य रति युगल, ४ गति, ५ जाति, औदारिक, वैक्रियिक शरीर, ६ संस्थान, ४ आनुपूर्वी, बसस्थावरादि ९ युगल और दो गोत्रोंके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक भाव है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक या क्षायिक भाव है।
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पयडिबंधाहियारो
३०१ पंचिंदिय-तस०२ पंचमण. पंचवचि० काजोगि-ओरालिय का० चक्खु. अचक्खु० सुक्कले० भवसिद्धि० सण्णि-अणाहारग (१) त्ति । णवरि जोगादिसु (अजोगिसु) वेदणीय बंधगा णत्थि ।
__२७१. आदेसेण णेरइगेसु-धुविगाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा णस्थि । थीणगिद्धितिगं अणंताणुबंधि०४ बंधगात्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो ? उवसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा । सादासादवंधगा अबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो। दोण्णं बंधगा ति० १ ओदइगो भावो । अबंधगा णत्थि । एवं चदुणोकसा० थिरादि-तिण्णियुगलं० । मिच्छत्तं बंधगा
. विशेष-गोत्रादिके अबन्धक उपशान्तकषाय या क्षीणकषाय गुणस्थानमें होंगे, वहाँ औपशमिक क्षायिक भाव कहे हैं।
मनुष्य त्रिक ( मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त तथा मनुष्यनी), पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, त्रस, त्रसपर्याप्तक, पंच मनोयोगी, पंच वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यक, भव्यसिद्धिक, संज्ञी तथा अनाहारकोंमे(?) ओघके समान भंग है । इतना विशेष है कि ( अ )योगादिकोंमें वेदनीय के बन्धक नहीं है (?)।
विशेष-अनाहारकोंका कथन आगे पृष्ठ २७८ पर आया है, अतः यहाँ आहारकोंका पाठ सम्यक् प्रतीत होता है। वेदनीयके अबन्धक, अयोगकेवली होते हैं। इस दृष्टिसे 'जोगादिसु के स्थानपर 'अजोगी' पाठ संगत प्रतीत होता है।
__२७१. आदेशसे-नारकियोंमें ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है । अबन्धक नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक भाव है। अबन्धकों के कौन भाव है ? औपशमिक, क्षायिक वा क्षायोपशमिक है। साताअसाताके बन्धकों.अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक माव है।
विशेष-नरक गतिमें साताका बन्धक असाताका अबन्धक होगा, असाताका बन्धक साताका अबन्धक होगा, इसलिए अन्यतरके बन्धककी अपेक्षा औदयिक भाव कहा है ।
दोनों के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक है ; अबन्धक नहीं है। इसी प्रकार चार नोकषाय, स्थिरादि तीन युगल में जानना चाहिए। मिथ्यात्वके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक है। विशेषार्थ-इस प्रसंगमें 'धवलाटीकामें महत्त्वपूर्ण शंका-समाधान किया गया है।
शंका-मिथ्यात्वके बन्धक मिथ्यादृष्टिके सम्यमिथ्यात्व प्रकृति के सर्वघाती स्पर्धकोंके उदय-क्षयसे, उनके सदवस्थारूप उपशमसे तथा सम्यक्त्व प्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदय-क्षायसे, उनके सदवस्थारूप उपशमसे अथवा अनुदय रूप उपशमसे और मिथ्यात्व प्रकृति के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयसे मिथ्यादृष्टिरूप भाव उत्पन्न होता है । अतः उसके क्षायोपशमिक भाव क्यों नहीं माना जाये ?
___ समाधान-सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व प्रकृतियोंके देशघाती स्पर्धकोंके उदय-क्षय अथवा सदवस्थारूप उपशम अथवा अनुदयरूप उपशमसे मिथ्यादृष्टि भाव नहीं होता। कारण, ऐसा मानने में दोष आता है। जो जिससे नियमतः उत्पन्न होता है, वह उसका कारण होता है। ऐसा न मानने पर अनवस्था दोष आयेगा। कदाचित् यह कहा जाये कि मिथ्यात्वके
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३०२
महाबंधे त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? उपसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा पारिणामिगो वा । इथि० णवंस-बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो १ ओदइगो वा उवसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा। णवरि णवूस० अबंधगात्ति पारिणामियो वि । पुरिस बंधा-अबंधगा त्ति ओदइगो भावो । तिण्णि वेदाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा णत्थि । एवं इत्थि-णवुसभंगो तिरिक्खायु-तिरिक्खगदि-पंचसंठा० पंचसंघ० तिरिक्खाणु उज्जोवअप्पसत्थवि० दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदं च । पुरिसभंगो मणुसायु-मणुसगदि-समचदु०-बजरिसभ० मणुसाणु० पसत्थवि० सुभग० सुस्सर० आदे० तित्थय० उच्चागोदं उत्पन्न होनेके काल में जो भाव विद्यमान हैं, वे उसके कारणपनेको प्राप्त होते हैं, तो फिर ज्ञानदर्शन,असंयम आदि भी मिथ्यात्वके कारण हो जायेंगे, किन्तु ऐसा नहीं है; कारण इस प्रकारका व्यवहार नहीं पाया जाता। अतएव यह सिद्ध होता है कि मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्यादष्टि भाव होता है,कारण इसके बिना मिथ्यात्व भावकी उत्पत्ति नहीं होती (ध० दी०, भा० पृ० २०७) : इससे मिथ्यात्व के बन्धकोंके औदयिक भाव कहा है।
मिथ्यात्वके अबन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक वा पारिणामिक है।
स्त्रीवेद, नपुंसकवेदके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है। अबन्धकोंके कौन भाव हैं ? औदयिक, औपशमिक, क्षायिक वा क्षायोपशमिक है।
विशेष—यहाँ उक्त वेदद्वयके अबन्धक, किन्तु पुरुषवेदके बन्धककी अपेक्षा औदायिक भाव कहा है।
यहाँ इतना विशेष है कि नपुंसकवेदके अबन्धकोंमें पारिणामिक भाव भी पाया जाता है । पुरुषवेदके बन्धकों,अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है।
विशेष-नरक गतिमें आदिके चार ही गुणस्थान होते हैं और पुरुषवेदकी बन्धव्युच्छित्ति नवें गुणस्थानमें होती है, तब पुरुषवेदके अबन्धकका भाव अन्य वेदोंके बन्धका समझना चाहिए । अन्य वेदोंका बन्ध होते हुए पुरुषवेदका बन्ध न होना यहाँ पुरुषवेदका अबन्धकपना है । इस अपेक्षासे अबन्धकके औदायिक भाव कहा है।
तीन वेदोंके बन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक है । अबन्धक नहीं है।
तियच आयु, तियचगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तियेचानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, तथा नीच गोत्रमें स्त्रीवेद तथा नपुंसक वेदके समान भंग जानना चाहिए । अर्थात् बन्धोंके औदयिक भाव हैं; अबन्धकोंके औदयिक, औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक हैं। मनुष्यायु, मनुष्यगति, समचतुरस्त्र संस्थान, वन. वृषभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, तीर्थकर तथा उच्चगोत्र में पुरुषवेदके समान भंग है; अर्थात् बन्धकों,अबन्धकोंके औदयिक भाव है। शेष प्रकृ.
१. अणंताणुबंधीणमुदएणेव सासणसम्मादिट्ठी होदि त्ति ओदइयो भावो किग्ण उच्चदे ? आइल्लेसु चदुसु वि गुणट्ठाणेसु चारित्तावरणतिव्वोदएण पत्तासंजमेसु दंसणमोहणिबंधणेसु चारित्तमोहविवक्खाभावा । अप्पिदस्स देसणमोहणीयस्स उदएण उवसमेण, खएण, खओवसमेण वा सासणसम्मादिट्टी ण होदित्ति पारणामिओ भावो। -ध०टी०भा०,पृ०२०७।
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पय डिबंधाहियारो
३०३ च । पत्तेगेण साधारणेण सेसाणं सव्वाणं बंधगा ओदइगो भावो । अबंधगा णत्थि । एवं पढमाए । विदियाए याव सत्तमा ति एवं चेव । णवरि खड्गं णस्थि । सत्तमाए मिच्छत्त-तिरिक्खायु बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो वा उपसमिगो वा खयोवसमिगो वा पारिणामियो वा । णवरि मिच्छत्तअबंधगात्ति को भावो ? ओदइगो णत्थि । तियों के बन्धकों में प्रत्येक तथा साधारणसे औदायिक भाव है. अबन्धक नहीं हैं। इस प्रकार पहली पृथ्वीमें जानना। दूसरीसे लेकर सातवों पृथ्वी पर्यन्न इसी प्रकार जानना । विशेष यह है कि द्वितीय आदि पृथ्वियोंमें क्षायिक भाव नहीं है।' [ कारण क्षायिकसम्यक्त्वी जीवका प्रथम पृथ्वीपर्यन्त उत्पाद होता है। ] सातवीं पृथ्वीमें मिथ्यात्व तथा तिथंचायुके वन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है। अबन्धकों के कौन भाव हैं ? औदायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक वा पारिणामिक है। विशेष, मिथ्यात्वके अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव नहीं है अर्थात् यहाँ औपशमिक, क्षायोपशमिक वा पारिणामिक भाव हैं। _ विशेष- सासादन गुणस्थानकी अपेक्षा पारिणामिक भाव है, मिश्र गुणस्थानकी अपेक्षा क्षायोपशमिक है तथा अविरत सम्यक्त्वीकी अपेक्षा औपशमिक तथा क्षायोपशमिक भाव है।
'धवलाटीकामें नारकीके औपशमिकभावके सम्बन्धमें लिखा है- दर्शन मोहनीयके उदयाभाव लक्षणवाले उपशमके द्वारा उपशम सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता है, इससे वह औपशमिक है।
शंका-यदि उदयाभावको भी उपशम कहते हैं, तो देवपना भी औपशमिक होगा, क्योंकि वह देवपना नरकादि शेष तीन गतियोंके उदयाभावसे उत्पन्न होता है. ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वहाँ तीनों गतियोंका स्तिबुक-संक्रमणके द्वारा उदय पाया जाता है अर्थात् स्तिबुक संक्रमणके द्वारा अनुदय प्राप्त तीनों गतियोंका संक्रमण होकर विपाक होता है । (तिण्हं गईणं स्थिउक्कसंकमेण उदयस्सुवलंभा) अथवा देवगति नामकर्मका उदय होनेसे देवगतिको औपशमिक नहीं कहा है । (पृ०२१०)
क्षायोपशमिक भावके विषयमें यह कथन ध्यान देने योग्य है. दर्शन मोहनीयकी सम्यक्त्व प्रकृति के उदयसे जो चल, मलिन तथा अगाढ सम्यक्त्व होता है, वह वेदक सम्यक्त्व है। जीवकाण्ड गोम्मटसार में लिखा है :
"दसणमोहुदयादो उप्पजइ जं पयत्थसद्दहणं । चल-मलिणमगाढं तं वेदयसम्मत्तमिदि जाणे ॥६४६॥"
१. “विदियादिसु पुढवीसु खइयसम्मा दिट्ठीणमुप्पत्तीए अभावा।" - जीव० भा० टी० पृ० २११। २. "आदेसेण गइयाणुवादेण णिरयगईए णेरइएसु मिच्छादिट्टि त्ति को भावो, ओदइओ भावो। सासणसम्माइट्टि त्ति को भावो, पारिणामिओ भावो । सम्मामिच्छाइदिति को भावो, खओवसमिओ भावो। असंजदसम्माइट्रि त्ति को भावो ? उवसमिओ वा खइयो वा खओवसमिओ वा भावो।" -जी० भावाणु० सूत्र १०-१४।
३. "पिंडपगईण जा उदयसंगया तीए अणुदयगयाओ।
संकामिऊण वेयइ जं एसो थिबकसंकामो॥" - पंच०सं०.संक्रम.८०॥ -पिंड प्रकृतियोंमें से किसीके उदय आनेपर अनुदय प्राप्त शेष प्रकृतियोंका उस प्रकृतिमें संक्रमण होकर उदय आनेको स्तिबुक संक्रमण कहते हैं।
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३०४
महाबंधे
_ 'धवलाटीकामें सम्यक्त्व प्रकृतिको 'वेदगसम्मत्तफद्दय'-वेदक-सम्यक्त्व स्पर्धक कहा है। वहाँ कहा है-"दर्शन मोहनीयकी अवयव स्वरूप देशघाती लक्षणवाले वेदक सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दृष्टिभाव क्षायोपशमिक कहलाता है।
वेदकसम्यक्त्व प्रकृतिके स्पर्धकोंको क्षय संज्ञा है, क्योंकि उसमें सम्यग्दर्शनकीप्रतिबन्धक शक्तिका अभाव है। मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनोंके उदयाभावको उपशम कहते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त क्षय तथा उपशम इन दोनों के द्वारा उत्पन्न होनेसे सम्यग्दृष्टिभाव क्षायोपशमिक कहलाता है।
'गोम्मटसार'जीवकाण्डकी संस्कृत टीकामें लिखा है-"एवं सम्यक्त्वप्रकृत्युदयमनुभवतो जीवस्य जायमानं तत्त्वार्थश्रद्धानं वेदकसम्यक्त्वमित्युच्यते । इदमेव तायोपशमिक-सम्यपत्वं नाम दर्शनमोहसर्वघातिस्पर्धकानामुदयाभावलक्षणक्षये देशघातिस्पर्धकरूपसम्यक्त्वप्रकृत्युदये तस्यैवोपरितनानुदयप्राप्तस्पर्धकानां सवस्थालक्षणोपशमे च सति समुत्पन्नत्वात्" (पृ०५०) -इस प्रकार सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयका अनुभव करनेवाले जीवके उत्पन्न होनेवाला तत्त्वार्थका श्रद्धान वेदक सम्यक्त्व कहा जाता है। इसे ही क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहा है, क्योंकि दर्शनमोहके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयका अभाव लक्षणक्षय होनेसे तथा देशघाति स्पर्धक रूप सम्यक्त्व प्रकृतिके उदय होनेपर तथा उसके आगेके अनुदय अवस्थाको प्राप्त स्पधकोंका सदवस्था लक्षण उपशम होनेपर यह उत्पन्न होता है।
आचार्य पूज्यपाद भी क्षायोपशमिक भावके लक्षणमें देशघाति स्पर्धकोंका उदय, सर्वघातिस्पर्धकोंका उदय क्षय तथा उनका सदवस्था रूप उपशम कहते हैं । उन्होंने सर्वार्थसिद्धिमें लिखा है.-"सर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमात् देशघातिस्पर्धकानामुदये पायोपशमिको भावो भवति (स. सि०,०२, सू०५ की टीका,पृ०६३) तत्त्वार्थराजवातिकमें आचार्य अकलंकदेवने सर्वार्थसिद्धिकी उपरोक्त परिभाषाको स्वीकार कर उसपर भाष्य लिखकर स्पष्टीकरण किया है । (रा० वा०, पृ०७४,सू० ५, अ०२)।
इस समस्त विवेचनको दृष्टिमें रखनेपर यह ज्ञात होता है कि 'धवला'टीकामें क्षयो. पशमकी भिन्न प्रकार व्याख्या की गयी है। वहाँ आचार्य सर्वघातिके स्पर्धकोंके उदयाभावको क्षय न कहकर देशघाति के स्पर्धकोंको 'क्षय' संज्ञा प्रदान करते हैं तथा सर्वघातिके स्पर्धकोंके उदयाभावको उपशम कहते हैं। इस प्रकार क्षय और उपशम युक्त भावको धवलाटीकामें क्षयोपशम कहा है । पूज्यपाद, अकलंकदेव आदिने देशघातिके उदयका प्रतिपादन किया है, अतः उन्होंने देशघातिकी 'क्षय' संज्ञाका समर्थन नहीं किया है। जब देशघातिके उदयसे चल, मल तथा रुचिशैथिल्य रूप अगाढ दोष उत्पन्न होते हैं, तब देशघातिको 'क्षय' स्वीकार करनेमें कठिनता उपस्थित होती है।
क्षयोपशमके विषयमें गोम्मटसार' टीकामें पं० टोडरमलजीने इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है : "सर्वत्र क्षयोपशमका स्वरूप ऐसा ही जानना जहाँ प्रतिपक्षी कर्मके देशघातिया स्पर्धकनिका उदय पाइये तीहि सहित सर्वपातिया स्पर्धक उदयनिषेक सम्बन्धी तिनिका उदय
१. आप्तागमपदार्थश्रद्धानावस्थायामेव स्थितं कम्प्रमेव अगाढमिति कोय॑ते । तद्यथा सर्वेषामहत्परमेष्ठिनां अनन्तशक्तित्वे समाने स्थितेऽपि अस्मै शान्तकर्मणे शान्तिक्रियायै शान्तिनाथदेवः प्रभुर्भवति, अस्मै विघ्नविनशनादिक्रियायै पार्श्वनाथदेवः प्रभुरित्यादिप्रकारेण रुचिशैथिल्यसम्भवात्, यथा वृद्धकरतलगतयष्टि : शिथिल. संवन्धतया अगाढा तथा वेदकसम्यक्त्वमपि ज्ञातव्यम् । -गो०जी० संस्कृत टीका,पृ०५१ ।
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पयडिबंधाहियारो २७२. तिरिक्खेसु-दु(धु)विगाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा णस्थि । थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त-अणंताणुबं०४ बंधगात्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? उवसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा। णवरि मिच्छत्त-अबंधगा पारिणामिगो भावो । वेदणी० णिस्यभंगो । एवं चदुणोकसा० । थिरादितिण्णियुग० तिण्णिवेदं णिरयभंगो। अपच्चक्खाणा०४ बंधगात्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा ति को भावो ? खयोवसमिगो भावो। इत्थि-णqसभंगो
न पाइए बिना ही उदय दीये निर्जरै सोई क्षय अर जे उदय न प्राप्त भए आगामी निषेक तिनिका सत्तास्वरूप उपशम तिनि दोऊनि कौं होते दायोपशम हो है" (गो० जी०,पृ. ३७)
इस प्रकार क्षयोपशमके विषयमें दो प्रकारसे निरूपण किया गया है।
२७२. तिर्यचोंमें-ध्रव प्रकृतियोंके बन्धकोंके कौन भाव हैं ? औदयिक भाव हैं। अबन्धक नहीं है।
विशेष—इनके अबन्धक उपशान्त कषायादि गुणस्थानवाले होंगे। तिर्यंचोंमें केवल आदिके पाँच गुणस्थान होते हैं। इस कारण तिर्यंचोंमें ध्रुव प्रकृतियों के अबन्धकों का अभाव कहा है।
स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चारके बन्धकोंके कौन भाव हैं ? औदयिक हैं। अबन्धकोंके कौन भाव हैं ? औपशमिक, क्षायिक वा क्षायोपशमिक हैं। इतना विशेष है कि मिथ्यात्वके अबन्धकोंके पारिणामिक भाव भी पाया जाता है । वेदनीयका नरक गति के समान भंग है, अर्थात् साता-असाताके बन्धक, अबन्धकोंमें औदयिक भाव हैं। दोनों के बन्धकोंमें औदायिक भाव है; अबन्धक नहीं हैं।
चार नोकषायमें इसी प्रकार है। स्थिरादि तीन युगल, तीन वेदके बन्धको अबन्धकोंमें नरक्रगतिके समान भंग है । अप्रत्याख्यानावरण चारके बन्धकोंके कौन भाव हैं ? औदयिक हैं। अबन्धकोंके कौन भाव हैं ? क्षायोपशमिक भाव हैं।
विशेष-यहाँ देशसंयमी तिथंचोंकी अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव कहा है । इस सम्बन्धमें धवलाकार इस प्रकार स्पष्टीकरण करते हैं - क्षयोपशमरूप संयमासंयम परिणाम चारित्र मोहनीयके उदय होनेपर उत्पन्न होते हैं। यहाँ प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन और नोकषायोंके उदय होते हुए भी पूर्णतया चारित्रका विनाश नहीं होता। इस कारण प्रत्याख्यानादिके उदयकी क्षय संज्ञा की गयी है। उन्हीं प्रकृतियोंकी उपशम संज्ञा भी है, कारण वे चारित्र अथवा श्रेणीको आवरण नहीं करती । इस प्रकार क्षय और उपशमसे उत्पन्न हुए भावको क्षायोपशमिक भाव कहा है। .. कोई आचार्य कहते हैं - अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदय-क्षयसे उन्हीके सदवस्थारूप उपशमसे तथा चारों संज्वलन और नव नोकषायोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावी क्षय, उनके सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे और प्रत्याख्यानावरण चारके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे देशसंयम होता है।
- इस सम्बन्धमें धवलाकारका यह कथन है कि - उदयके अभावकी उपशम संज्ञा करनेसे उदयसे विरहित सर्व प्रकृतियोंकी तथा उन्हींके स्थिति, अनुभागके स्पर्ध कोंको उपशम
१. "देशविरदे पमत्ते इदरे य खओवसमियभावो दु ।" - गो० जीव० गा०१३।
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महाबंधे तिण्णि-आयु० तिण्णिगदि-चदुजादि-ओरालि० पंचसंठा० ओरालि० अंगो० छस्संघ० तिण्णि आणु० आदावुजो० अप्पसत्थवि० थावरादि०४ दूभग-दुस्सर-अणादे० णीचागोदं च । पुरिसवेदभंगो देवायु-देवगदि-पंचिंदि० वेउब्विय० समचदु० वेउवि० अंगो० देवाणु० परघादुस्सा० पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदेज-उच्चागोदं च । एवं पत्तेगेण साधारणेण वेदणीय-भंगो। णवरि चदुआयु-दोअंगोवंग. छस्संघ. दोविहा० दोसर० बंधगा-अबंधात्ति को भावो ? ओदइगो भावो । णवरि छस्संघडणाणं अबंधगात्ति ओदइगादिचत्तारिभावो । संज्ञा प्राप्त हो जाती है। जिसका वर्तमानमें क्षय नहीं है, किन्तु उदय विद्यमान है उसका क्षय नामकरण अयुक्त है; इसलिए ये तीनों ही भाव उदयोपश मिकपनेको प्राप्त होते हैं। किन्तु इस बात का प्रतिपादक कोई सूत्र नहीं है । फलको देकर तथा निर्जराको प्राप्त होकर दूर हुए कम-स्कन्धोंकी 'क्षय' संज्ञा करके देशविरत गुणस्थानको क्षायोपशमिक कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेपर मिथ्यादृष्टि आदि सभी भावोंके क्षायोपशमिकत्वका प्रसंग प्राप्त होगा । (ध० टी०,भावानु० पृ० २०२-२०३)
___ तीन आयु (देवायुको छोड़कर ) तीन गति, चार जाति, औदारिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान बिना शेष पाँच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, देवानुपूर्वी बिना तीन आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावरादिक ४, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय तथा नीच गोत्रमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेदके समान भंग है। अर्थात् बन्धकोंके औदयिक भाव हैं। अबन्धकोंके औदयिक, औपशमिक, क्षायिक तथा आयोपशमिक भाव है।
देवायु, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, देवानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, स ४, सुभग, सुस्वर, आदेय तथा उच्च गोत्रके बन्धकोंमें पुरुषवेदके समान भंग हैं; अर्थात् बन्धकों अबन्धकोंमें औदयिक भाव है।
विशेष-तिर्यंच गतिमें देवायु, देवगति, आदिकी बन्ध-व्युच्छित्तिवाले गुणस्थानका अभाव है, कारण यहाँ देश संयम गुण स्थान तक ही पाये जाते हैं; अतः अबन्धकोंका यह भाव है कि इन प्रकृतियोंके स्थानमें नरकायु आदिका बन्ध होता है; अतः देवायु आदिकी अबन्ध स्थितिमें नरकायु आदिके बन्धकी अपेक्षा अंबन्धकोंमें औदयिक भाव कहा है।
इस प्रकार प्रत्येक तथा साधारणसे वेदनीयके समान भंग है अर्थात् बन्धकोंके औदयिक भाव हैं; अबन्धक नहीं है । विशेष यह है कि चार आयु, दो अंगोपांग, छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वरके बन्धकों,अबन्धकोंके कौन भाव हैं ? औदयिक भाव हैं। विशेष छह संहननके अबन्धकों में औदायिक आदि चार भाव ( पारिणामिकको छोड़कर ) हैं।
___ विशेष-शंका - दो अंगोपांग, छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वर, चार आयुके बन्धकोंके औदायिक भाव ठीक हैं, इनके अबन्धकोंमें औदयिक कैसे कहा ? दूसरी बात यह है कि जब छह संहननके अबन्धकोंमें औदायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक भाव कहे गये, तब यहाँ भी विहायोगति आदिके अबन्धकोंमें केवल औदायिक भाव क्यों कहा ?
समाधान-तिर्यंच गतिमें छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वर तथा दो अंगोपांगके अबन्धक एकेन्द्रियत्वके साथ हैं, कारण एकेन्द्रियमें संहनन, विहायोगति, स्वर तथा अंगोपांग
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पडबंधाहियारो
३०७
२७३. एवं पंचिदिय - तिरिक्ख ०३ । णवरि जोणिणीसु खड्गं णत्थि । सव्वअपजत्ताणं तसाणं सव्वे० (१) खयोवसम-पारिणामियं णत्थि । विगप्पा ओदइ० ।
२७४ एवं अणुद्दिस याव सव्वदृत्ति ।
२७५. सव्वएइंदिय सव्त्रविगलिंदिय- सव्व पंचकाय ० आहार० आहारमि० मदि०
का उदय नहीं है; इससे एकेन्द्रियकी अपेक्षा औदयिक भाव कहा है। एकेन्द्रियके सिवाय देव. और नारकी भी संहननरहित पाये जाते हैं, उनकी अपेक्षा सम्यक्त्वत्रयकी दृष्टि से औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव भी अबन्धकों में कहे हैं ।
२७३. पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंचपर्याप्त तथा पंचेन्द्रिय योनिमती तिचों में इसी प्रकार जानना | इतना विशेष है कि योनिमती तिर्यंचों में क्षायिक भाव नहीं है ।
विशेष - तिर्यच स्त्री में क्षायिक भावके अभावका कारण यह है कि दर्शन मोहनीयका क्षपण मनुष्य गति में ही होता है और बद्धायुष्क क्षायिकसम्यक्त्वी जीवकी स्त्रीवेदी रूपसे उत्पत्ति नहीं होती । अतः स्त्रीतिर्यंच में क्षायिक भाव नहीं पाया जाता । ( ध० टी०, भावा० पृ० २१३ )
सर्व अपर्याप्त त्रसोंमें [औपशमिक, क्षायिक] क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक नहीं है । [सर्व] विकल्पों में औदयिक भाव है ।
२७४. अनुदिश स्वर्ग से सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त इसी प्रकार है ।
विशेषार्थ - अनुदिश आदिसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों में सभी सम्यग्दृष्टि होते हैं । उनके औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव भी है।
इसपर धवलाकार इन शब्दों में प्रकाश डालते हैं- "जैसे वेदक सम्यग्दृष्टि देवों के क्षायोपशमिक भाव, क्षायिक सम्यग्दृष्टि देवोंके क्षायिक भाव और उपशम सम्यग्दृष्टि देवों के पशमिक भाव होता है ।
शंका-अनुदिश आदि विमानोंमें मिध्यादृष्टि जीवोंका अभाव होते हुए उपशम सम्यग्दृष्टियोंका होना कैसे सम्भव है, क्योंकि कारणका अभाव होनेपर कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है ।
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उपशम सम्यक्त्वके साथ उपशम श्रेणीपर चढ़ते और उतरते हुए मरणकर देवोंमें उत्पन्न होनेवाले संयतों के उपशम सम्यक्त्व पाया जाता है । ( जी० भावा० टीका पृ० २१६ )
२७५. सर्व एकेन्द्रिय, सर्व विकलेन्द्रिय, सर्व पंचकाय, आहारक, आहारकमिश्र,
१. खइयसम्मादिट्टीणं बद्धाउआणं त्योवेदएसु उपत्तीए अभावा । मणुसगइवदिरित्त सेसगईसु दंसणमोहणीयखवणार अभावादो च । - ध० टी०, पृ० २१३ । २. अणुदिसादि जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासिय देवेसु असंजद सम्मादिट्ठित्ति को भावो ? ओवसमिओ वा खइओ वा खओवसमिओ वा भावो । -जी० भावा० सूत्र २८ । ३. आहारक, आहारक मिश्र में चार संज्वलन और सात नोकषायोंके उदय प्राप्त देशघाती स्पर्धकोंकी उपशम संज्ञा है; कारण पूर्णतया चारित्र के घातलेकी शक्तिका वहाँ उपशम पाया जाता है । उन्हीं ग्यारह चारित्र मोहनीयकी प्रकृतियोंके सर्वघाती स्पर्धकोंकी क्षय संज्ञा है; क्योंकि उनका उदय भाव नष्ट हो चुका है। इस प्रकार क्षय और उपशमसे उत्पन्न संयम क्षायोपशमिक है। पूर्वोक्त ग्यारह प्रकृतियोंके उदयकी ही क्षयोपशम संज्ञा है; कारण चारित्रके घातनेकी शक्तिके अभावकी ही क्षयोपशम संज्ञा है। इस प्रकार
. क्षयोपशमसे उत्पन्न प्रमादयुक्त संयम क्षायोपशमिक है। -ध० टी०, भावाणु०, पृ० २२१ ।
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महाबंधे सुद० विभंग. अन्भवसि० सासण० सम्मामि० मिच्छादि० असण्णि त्ति । णवरि मदि० सुद० विभंगे मिच्छ० अबंधगात्ति को भावो ? पारिणामिगो भावो ।
२७६. देवाणं णिरयोघं याव णवगेवजा त्ति । णवरि देवोघादो याव सोधम्मीसाणा त्ति । एइंदिय-आदाव-थावर-बंधगात्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो ? ओदइगो वा उवसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा पारिणामिगो वा । तप्पडिपक्खाणं बंधा-अबंधगात्ति को भावो ? ओदइगो भावो । दोण्णं बंधगा त्ति मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंगावधि, अभव्यसिद्धिक, सासादन, सम्यगमिथ्यात्वी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञीमें इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान तथा विभंगावधिमें मिथ्यात्वके अबन्धकोंके कौन भाव है ? पारिणामिक भाव है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचकाय, अभव्यसिद्धिक, असंज्ञी, मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्व गुणस्थान कहा है। अतः इनके औदयिक भाव जानना चाहिए। मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंगज्ञानमें मिथ्यात्व,सासादन गुणस्थान पाये जाते हैं। उनमें मिथ्यात्व के अबन्धक सासादन गुणस्थानवाले जीवों के दर्शन मोहनीयकी अपेक्षा पारिणामिक भाव कहा गया है। सासादन गुणस्थानमें पारिणामिक भाव है, मिश्रगुणस्थानमें क्षायोपशमिक भाव कहा है । 'गोम्मटसार' जीवकाण्ड में लिखा है-"मिश्रगुणस्थाने क्षायोपशमिकभावो भवति । कुतः ? मिथ्यात्वप्रकृतेः सर्वघातिस्पर्धकानामुदयाभावलक्षणे क्षये सम्यगमिथ्यात्वप्रकृत्युदये विद्यमाने सत्यनुयप्राप्तनिषेकाणामुपशमे च समुद्भूतत्वादेव कारणात्" (संस्कृत टीका, पृ० ३४ )-मिश्रगुणस्थानमें क्षायोपशमिक भाव किस प्रकार होता है ? मिथ्यात्व प्रकृतिके सर्वघाति-स्पर्धकोंका उदयाभाव लक्षण क्षय होनेपर तथा सम्यग मिथ्यात्व प्रकृतिके उदय होनेपर और उदयको प्राप्त न हुए तिर्यंचोंके उपशम होनेपर यह क्षायोपशमिक भाव होता है ।
आचार्य वीरसेन धवलाटीकामें इस परिभाषासे असहमति प्रकट करते हुए कहते हैं"तण्ण घडदे" यह परिभाषा घटित नहीं होती है। उनका कथन है- "सम्मामिच्छत्तुदए संते सद्दहणासदहणप्पो करंचिओ जीवपरिणामो उप्पजइ । तत्थ जो सद्दहणंसो सो सम्मत्तावयवो। तं सम्मामिच्छत्तदओ ण विणासेदि त्ति सम्मामिच्छत्तं खोवसमियं (जी० भा० टीका,पृ० १९८) सम्यक्त्व-मिथ्यात्व कर्मके उदय होनेपर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक करंचित अर्थात् शबलित ( मिश्रित ) जीव परिणाम उत्पन्न होता है, उसमें जो श्रद्धानांश है, वह सम्यक्त्वका अवयव है। उसे सम्यगमिथ्यात्व कर्मका उदय नष्ट नहीं करता है, इससे सम्यगमिथ्यात्व भाव क्षायोपशमिक है।
विशेष-यहाँ 'सासादन गुणस्थानकी दृष्टिसे दर्शन मोहनीयकी अपेक्षा पारिणामिक भाव कहा गया है।
२७६. देवोंमें-नव प्रैवेयकपर्यन्त देवों में नारकियोंके ओघवत् जानना चाहिए। सामान्य देवोंसे सौधर्म ईशान स्वर्ग पर्यन्त विशेष है। एकेन्द्रिय आतप स्थावरके बन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक भाव है। अबन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक, औपश मिक, क्षायिक वा क्षायोपशमिक वा पारिणमिक भाव है। इनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियोंके बन्धकों, अबन्धकोंके
१. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभंगज्ञानेषु मिथ्यादृष्टि: सासादनसम्यग्दृष्टिश्चास्ति ॥ -स० सि०, पृ० ११ । एकेन्द्रियादिषु चतुरिन्द्रियपर्यन्तेषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् । पृथ्वीकायादिषु वनस्पतिकायान्तेषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् । असंज्ञिषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् ।
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पयडिबंधाहियारो
३०६ को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधा गत्थि । भवणवासि-वाण।तर जोदिसिगेसु खड्गं णस्थि ।
२७७. ओरालिमि० पंचणा० छदंस० बारसक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचतराइगाणं बंधगात्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो ? खइगो भावो। थीणगिद्धि०३ मिच्छत्त-अणंताणु०४ बंधगा ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? खइगो वा खयोवसमिगो वा । गवरि मिच्छत्त-पारिणामियो वि अत्थि। सादबंधाबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । असाद-बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो। अबंधगा ति को भावो ?
ओदइगो वा, खइगो वा । दोण्णं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा कौन भाव है ? औदायिक है। दोनों के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक है; अबन्धक नहीं है। भवनवासी, दाण व्यन्तर तथा ज्योतिषियोंमें क्षायिक भाव नहीं है।
विशषार्थ-धवलाटीकामें यह शंका-समाधान दिया गया हैशंका-भवनत्रिक आदि देव और देवियों में क्षायिक भाव क्यों नहीं कहा ? ।
समाधान नहीं, क्योंकि भवनवासी वाणव्यन्तर, ज्योतिषी देव, द्वितीयादि छह पृथ्वियोंके नारकी, सर्वविकलेन्द्रिय, सर्वलब्ध्यपर्याप्तक और स्त्रीवेदियोंमें सम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्ति नहीं होती है। तथा मनुष्यगतिके अतिरिक्त अन्य गतियों में दर्शन मोहनीयकी क्षपणाका अभाव है। इससे उक्त भवनत्रिक आदि देव-देवियोंमें क्षायिक भाव नहीं बतलाया गया। (जीव० ध०,टीका भावा० पृ. २१५)
२७७. औदारिक मिश्र काययोगमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तथा ५ अन्तरायोंके बन्धकोंके -कौन भाव है ? औदायिक भाव है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? क्षायिक भाव है।
विशेष-यहाँ ध्रुव प्रकृतियोंके अबन्धक कपाट समुद्धातयुक्त सयोगकेवलीकी अपेक्षा क्षायिक भाव कहा है।
स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? क्षायिक वा शायोपशमिक है। मिथ्यात्वके अबन्धकों में पारिणामिक भाव भी पाया जाता है।।
विशेषार्थ-शंका-यहाँ औपशमिक भाव क्यों नहीं कहा गया ?
समाधान-'चारों गतियों के उपशमसम्यक्त्वी जीवोंका मरण न होनेसे इस योगमें उपशमसम्यक्त्वका सद्भाव नहीं पाया जाता।
शंका-उपशम श्रेणीपर चढ़ते-उतरते हुए संयतजीवोंका उपशमसम्यक्त्व के साथ मरण पाया जाता है।
१. ओवसमिओ भावो एत्थ किण्ण परुविदो? ण, चउग्गा उवसमसम्मादिट्ठीणं मरणाभावादो ओरालियमिस्सम्हि उवसमसम्मत्तस्सुवलंभाभावा । उवसमसेढि चढंत-ओअरंत संजदाणमुवसमसम्मत्तेण मरणं, अत्थि त्ति चे सच्चमत्थि, किंतु ण ते उवसमसम्मत्तेण ओरालियमिस्सकायजोगिणो होंति, देवदि मोत्तूण तेसिमण्णत्थ उप्पत्तीए अभावा । -ध० टी०भा०,पृ०२१९ ।
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३१०
महाबंघे
णत्थि । इत्थण सबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? ओदगो वा खइगो वा खयोवसमियो वा । णवरि णवंसगेसु पारिणामियो वि अत्थि । पुरिसवेदगे बंधगाति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ?
समाधान - यह सत्य है, किन्तु उपशम श्रेणी में मरनेवाले उपशमसम्यक्त्वीके औदारिक मिश्रकाययोग नहीं होता, कारण इनकी देवोंके सिवाय अन्यत्र उत्पत्तिका अभाव है । ( ध० टी०, भावाणु० पृ० २१९ ) ।
साताके बन्धकों, अबन्धकोंके कौन भाव हैं ? औदयिक भाव है । असात के बन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक भाव है। अबन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक वा क्षायिक भाव हैं | साता असाताके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है; अबन्धक नहीं है ।
विशेष - शंका - जब साताके बन्धकों-अबन्धकों में औदयिक भाव कहा, तब असाताके बन्धकों, अन्धकोंमें औदयिक भाव ही कहना था । यहाँ असात के अबन्धकोंमें औदयिकके साथ क्षायिक भाव क्यों कहा है ?
समाधान —यहाँ यह ध्यान देना चाहिए कि औहारिक मिश्रयोगमें मिध्यात्व, सासादन, अविरत तथा सयोगकेवली गुणस्थान होते हैं । साताके अबन्धक अयोगकेवली ही होंगे, जिनने साताकी बन्ध-व्युच्छित्ति कर ली है । औदारिक मिश्रकाययोगमें अयोगकेवली गुणस्थान न होनेसे साता-असाताके युगलके अबन्धकोंका यहाँ अभाव कहा है ।
साता और असाता बन्धकोंके औदयिक भाव हैं। साताका बन्ध होनेपर असाताका बन्ध नहीं होता और असाताका बन्ध होनेपर साताका बन्ध नहीं होता, कारण ये परस्पर प्रतिपक्षी प्रकृतियाँ हैं । एकके बन्ध होनेपर अन्यका अबन्ध होगा । यह अबन्ध बन्धव्युच्छित्तिका द्योतक नहीं है। अबन्धके अनन्तर तो पुनः बन्ध हो भी जाता है; किन्तु जिस गुणस्थान में बन्धव्युच्छित्ति हुई है, उसमें आनेके पूर्व उस प्रकृतिका बन्ध नहीं होगा। साताकी बन्धव्युच्छित्ति जब सयोगकेवली गुणस्थान में होती है, तब साता अबन्धका अर्थ है - असाताका बन्ध । असाताकी बन्धव्युच्छित्ति प्रमत्तसंयत में होती है, उसके पूर्व असाताके अबन्धका तात्पर्य साताके बन्धका होगा । प्रमत्त संयत के आगे
साताके अबन्धका भाव उसकी बन्धव्युच्छित्तिका होगा । इस कारण औदारिक मिश्रयोगकी अपेक्षा साताके अबन्धक तथा बन्धकके औदयिक भाव कहा है । कारण यहाँ साताके अबन्धकके असाताका बन्ध होगा । असाता वेदनीयकी बात दूसरी है, वहाँ असाताके बन्धकके औदयिक भाव होगा और असाताके अबन्धक अर्थात् साताके बन्धक सयोगी जिनकी अपेक्षा शायिक भाव होगा। असाताके अबन्धकके अप्रमत्त आदि गुणस्थान इस योग में नहीं होंगे, इसलिए यहाँ औदयिक भावके साथ क्षायिक भाव भी असाताके अबन्धकके साथ
गया है । साताका अबन्धक इस योग में चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त ही पाया जायेगा, उसके असाताका बन्ध होगा । इससे बन्धक, अबन्धकके औदयिक भाव कहा है ।
स्त्रीवेद, नपुंसक वेदके बन्धकोंके कौन भाव हैं ? औदयिक भाव है । अबन्धकोंके बन्धक कौन भाव हैं ? औदयिक, क्षायिक वा क्षायोपशमिक हैं । इतना विशेष है कि नपुंसक वेदके अबन्धकोंके पारिणामिक भाव भी पाया जाता है ।
विशेष- इस योग में उपशम सम्यक्त्वका अभाव होनेसे औपशमिक भाव नहीं कहा । पुरुष वेदबन्धकोंके कौनं भाव हैं ? औदयिक भाव है । अबन्धकोंके कौन भाव हैं ?
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३११
पयडिबंधाहियारो ओदइगो वा खइगो वा। तिण्णं वेदाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? खइगो भावो । इत्थि-णकुंस० भंगो दोआयु-दोगदि-चदुजादि-ओरालि. पंचसंठा० ओरालिय-अंगो० छस्संघ. दोआणु० आदावुजो० अप्पसत्थवि० थावरादि०४ भग-दुस्सर-अणा० णीचागोदं च । पुरिसवेदभंगो चदुणोक० देवगदि-पंचिंदि० वेउवि० समचदु० वेउवि० अंगो देवाणु० परघादुस्सा० पसत्थवि० तस०४ थिरादिदोण्णियुगलं सुभग-सुस्सर-आदेज-उच्चागोदं च । एवं पत्तेगेण साधारणेण वि। दो आयुबंधगा ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा पारिणामियो वा। एवं दो अंगो० छस्संघ० दो विहा० दो सर० किंचि विसेसो जाणिण णेदव्वं । सेसाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो। अबंधगा ति को भावो ? खइगो भावो । तित्थयरं बंधगात्ति को मावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो वा खइगो वा । औदयिक वा क्षायिक भाव है।
विशेष-पुरुष वेदके अबन्धक किन्तु स्त्री-नपुंसक वेदके बन्धकोंकी अपेक्षा औदायिक भाव कहा है। पुरुष वेदकी बन्धव्युच्छित्तियुक्त गुणस्थान इस योगमें सयोगकेवलीका होगा उस अपेक्षासे क्षायिक भाव कहा है।
तीनों वेदोंके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? क्षायिक भाव है।
विशेष-औदारिकमिश्रकाययोगमें तीनों वेदोंके अबन्धक सयोगी जिन होंगे, इस कारण उपशम भाव न कहकर, क्षायिक भाव ही कहा है।
दो आयु, दो गति, चार जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावरादि चार, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय तथा नीचगोत्रके बन्धकोंका स्त्रीवेद, नपुंसक वेद के समान जानना चाहिए। हास्यादि चार नोकषाय, देवगति, पंचेंद्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, देवानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, बस चार, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय तथा उच्चगोत्रमें पुरुषवेदके समान जानना चाहिए । इसी प्रकार प्रत्येक तथा सामान्यसे जानना चाहिए। दो आयुके बन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक भाव है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक वा पारि. णामिक हैं।
विशेष-इस योगमें उपशम सम्यक्त्व न होनेसे तथा उपशम चारित्रका भी सद्भाव न होनेके कारण औपशमिक भाव नहीं कहा है।
इस प्रकार दो अंगोपांग, छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वरके विषयमें किंचित् विशेषताको जानकर भंग निकाल लेना चाहिए। शेष प्रकृतियों के बन्धकोंके कौन भाव हैं ?
औदयिक भाव है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? क्षायिक भाव है। तीर्थकर प्रकृतिके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है। अबन्धकोंके कौन भाव हैं ? औदयिक वा क्षायिक भाव है।
विशेष-तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध न करनेवाले मिथ्यात्वीके दर्शन मोहनीयके उदयकी
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महाबंधे
२७८. वेउब्धियका०-देवोघं । वेउवि० मि० तं चेव । गवरि आयु-णत्थि।
२७६. कम्मइगका० धुविगाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अवंधगात्ति को भावो ? खइगो भावो। थीणगिद्धितियं मिच्छत्त-अणंताणु०४ बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो? उपसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा । मिच्छ०[अबंध० पारिणामियो भावो। साद-बंधाबंधगा त्ति को भावो? ओदइगो भावो । असादबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो। अबंधगा त्ति को भावो १ ओदइगो खइगो वा। दोण्णं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा णत्थि । इथि-णवुसबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा ति को भावो ? ओदइगो वा उपसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा ।
अपेक्षा औदायिक भाव कहा जा सकता है। तीर्थकर प्रकृतिकी बन्ध व्युच्छित्तियुक्त इस योगमें सयोगी जिनकी अपेक्षा शायिक भाव कहा है।
२७८. वैक्रियिक काययोगियोंमें देवोंके ओघवत् जानना चाहिए।
वैक्रियिक मिश्रकाययोगियों में देवांके ओघवत् है । इतना विशेष है कि यहाँ आयुका बन्ध नहीं पाया जाता है।
विशेष-इस योगमें मिथ्यात्वीके औदयिक, सासादन सम्यक्त्वीके पारिणामिक तथा असंयत सम्यक्त्वीके औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव हैं।
२७६. कार्मण काययोगियों में ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? क्षायिक भाव है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चारके बन्धकों के कौन भाव है ? औदायिक है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव हैं।
विशेष-यहाँ उक्त प्रकृतियोंके अबन्धक अविरत सम्यक्त्वीको अपेक्षा औपशमिक, क्षायिक तथा शायोपशमिक भाव कहे हैं। सयोगकेवलीकी भी अपेक्षा क्षायिक भाव है।
मिथ्यात्वके बन्धकों(?)के कौन भाव हैं ? पारिणामिक भी है।
विशेष-यहाँ बन्धकोंके स्थानपर अबन्धक पाठ ठीक बैठता है, कारण पारिणामिक भाव सासादन गुणस्थानमें पाया जाता है जहाँ मिथ्यात्वका अबन्ध है ।
साताके बन्धकों,अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है.। असाताके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक वा क्षायिक भाव है। साता-असाता दोनों के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है; अबन्धक नहीं है।
स्त्रीवेद, नपुंसकवेदके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक, औपशमिक, क्षायिक तथा शायोपशमिक भाव है। नपुंसकवेदके
१ "कम्म इशकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी सजोगिकेवली ओघ । कुदो ? मिच्छादिदीणमोदइएण, सासणाणं पारणामिएण, कम्मइयकायजोगि-असंजदसम्मादिट्रोणं ओवसमिय-खइय-खओ. वसमियभावेहि सजोगिकेवलीणं खइएण भावेण ओघम्मि गदगुणटाणेहि साधम्मुवलंभा।" -जी० भा०,सू० ४०,पृ० २२१
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पय डिबंधाहियारो
३१३ णवूस पारिणामियो भावो। पुरिस० बंधगा ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो ? ओदइगो वा खइगो वा। तिण्णं बंधगात्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? खइगो भावो । एवं इत्थिभंगो तिरिक्खग० चदुसंठा० चदुसंघ० तिरिक्खाणु० उजो० अप्पसत्थ० दूभग-दुस्सर-अणा० णीचागोदं च । णवुसकभंगो चदुजादि-हुंडसंठा० असंपत्तसे० आदाव-थावरादि०४ । पुरिसभंगो चदुणोक० दोगदि० पंचिंदि० दोसरीर-समचदु. दोअंगो० वज्जरिसभ० दो-आणु० परपादुस्सा० पसत्थवि० तस०४ थिरादि दोणि युगलं सुभग-सुस्तर-आदे० उच्चागोदं च । एवं पत्तेगेण साधारणेण वि ओरालियमिस्स-भंगो ।
. २८०. इत्थिवेदेसु-पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० पंचंतराइ गाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा णत्थि । थीणगिद्धि-तिय-मिच्छत्त-बारसक० बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? उवसमिगो वा खइगो वा अबन्धकोंमें पारिणामिक भाव भी पाया जाता है ।
_ विशेष-इसके अबन्धक सासादन गुणस्थानवी जीवोंको अपेक्षा पारिणामिक भाव कहा है।
पुरुष वेदके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक वा क्षायिक है।
विशेष-इस योगमें पुरुषवेद के बन्धका अभाव प्रतर तथा लोकपूरण समुद्घातगत सयोगकेवलीके होगा, यहाँ मोह-शायजनित क्षायिक भाव है। अन्य वेदद्वयके बन्धककी अपेक्षा औदायिक भाव भी कहा है।
___ तीनों वेदोंके बन्धकों के कौन भाव है ? औदायिक है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? शायिक है।
विशेष-यहाँ सयोगी जिनकी अपेक्षा क्षायिक भाव कहा है।
तिर्यंचगति, चार संस्थान, चार संहनन, तिय चानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, तथा नीच गोत्रका स्त्रीवेदके समान भंग जानना चाहिए। चार जाति, हुण्डक संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, आतप तथा स्थावरादि चारमें नपुंसकवेदके समान भंग जानना चाहिए। चार नोकषाय, दो गति, पंचेन्द्रिय जाति, दो शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो अंगोपांग, वनवृषभसंहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चार, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्च गोत्रके बन्धकोंमें पुरुषवेदके समान भंग जानना चाहिए। प्रत्येक और सामान्यसे औदारिक मिश्रकाययोगके समान भंग जानना चाहिए।
२८०. स्त्रीवेदमें'-५ ज्ञानाका ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, ५ अन्तरायोंके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक है; अवयक नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, बारह कषायके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक, क्षायिक
१. वेदानुबादेन त्रिपु वैदेपु मिश्यादृष्टयादीनि अनिवृत्ति बादरस्थानान्तानि सन्ति । - स० सि०, पृ० ११ ।
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महाबंधे खयोवसमिगो वा । मिच्छत्त० पारिणामि० । णिद्दापचला० भयदु. तेजाक० वण्ण०४ अगुरु० उप० णिमि० बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो? उवसमिगो वा खइगो वा । साद-बंधाबंधगा त्ति को भावो? ओदइगो भावो । असादबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो। अबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा। दोण्णं बंधगा त्ति को भावो? ओदइगो भावो। अबंधगा णस्थि । तिण्णं वेदाणं पत्तेगेण ओघं । णवरि पुरिस अबंधगा त्ति ओदइगो भावो। साधारणेण बंधा० ओदइगो भावो । अबंधगा णस्थि । हस्सादि०४ पत्तेगेण ओघभंगो । साधारणेण बंधगा
तथा क्षायोपशमिक भाव है। विशेष, मिथ्यात्वके अबन्धकों के पारिणामिक भाव भी है । निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मणः, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक तथा क्षायिक हैं।
साताके बन्धकों अबन्धकोंके कौन भाव हैं ? औदयिक है । विशेष-यहाँ साताके अबन्धकोंके असाताके बन्धककी अपेक्षा औदायिक भाव
कहा है।
___ असाताके बन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक हैं। दोनों के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक है। अबन्धक नहीं हैं। तीनों वेदोंका पृथक-पृथक रूपसे ओघवत् जानना चाहिए। विशेष यह है कि पुरुषवेदके अबन्धकोंमें औदयिक भाव है। सामान्यसे इनके बन्धकोंके औदयिक भाव है। अबन्धकोंका अभाव है । हास्यादि चारका प्रत्येकसे ओघवत् भंग जानना चाहिए । सामान्यसे हास्यादिके बन्धकों के औदयिक भाव है । अबन्धकोंके औपशमिक तथा क्षायिक भाव है । इस प्रकार शेष प्रकृतियोंमें ओघके समान भंग जानना चाहिए। ___विशेष-हास्यादिकके अबन्धक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें होंगे। उनके उपशम तथा झायिक चारित्रकी दृष्टिसे औपशमिक तथा क्षायिक भाव कहे हैं । ____ शंका-अनिवृत्तिकरणमें कर्मोंका उपशम न होनेसे औपशमिक भाव कैसे कहा जायेगा ?
समाधान-उपशम शक्तिसे समन्वित अनिवृत्तिकरणके औपशमिक भाव मानने में आपत्ति नहीं है। इस प्रकार उपशम होनेपर उत्पन्न होनेवाला तथा उपशम होने योग्य कर्मों के उपशमनार्थ उत्पन्न हुआ भाव औपशमिक कहलाता है । अथवा, भविष्यमें उत्पन्न होनेवाले उपशम भाव में भूतकालका उपचार करनेसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें औपशामिक भाव वन जाता है। जैसे, सब प्रकारके असंयममें प्रवृत्त हुए चक्रवर्ती तीथकरके 'तीर्थकर' यह संज्ञाकरण बन जाता है।
शंका-अनिवृत्तिकरणमें मोहनीयका क्षय न होनेसे क्षायिक भावका . उचित नहीं है।
समाधान-मोहनीयका एकदेश क्षय करनेवाले बादरसाम्पराय सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकों के भी कर्मक्षयजनित भाव पाया जाता है । कर्मक्षयके निमित्तभूत परिणाम पाये जानेसे अपूर्वकरण गुणस्थानमें भी शायिकभाव माना है । अथवा उपचारसे अपूर्वकरण संयत के
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पयडिबंधाहियारो ओदइ० । अबंध० उवसमि० खइगो । एवं सव्वाणं ओघं । णवरि जस० अज्जस० दोगोदं पत्तेगेण साधारणेण वि वेदणीयभंगो।
२८१. एवं पुरिस० णवूस कोधादि०४ । णवरि कोधे परिस० हस्सभंगो । माणे तिण्णं संजलणा० । मायाए दोण्णं संजलणा० । लोमे लोभ-संजल. धुविगाणं भंगो । सेस-संजलणं णिद्दाभंगो।
२८२. अवगदवेदेसु-पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० जस० उच्चागोद-पंचंतराइगाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो। अबंधगा त्ति को भावो ? उवसमिगो वा खइगो वा । सादबंध० को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा ति को भावो ? खइगो भावो।
२८३. अकसाइगेसु-साद-बंधगा० ओदइगो भावो । अबंधगा० खइगो भावो । क्षायिक भाव मानना चाहिए। इसमें अतिप्रसंगकी आशा नहीं करनी चाहिए । कारण, प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अथके प्रसंगवश अतिप्रसंग दोपका परिहार होता है । (ध० टी०, भावाणु० पृ० २०५-६)
इतना विशेष है कि यशाकीर्ति, अयशाकीर्ति, तथा दो गोत्रोंका प्रत्येक सामान्यकी अपेक्षा वेदनीयके समान भंग है।
२८१. पुरुषवेद, नपुंसकवेद तथा क्रोध आदि चार कषायोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए।' विशेष यह है कि क्रोधमें, पुरुपवेदके बन्धकोंका हास्यके समान भंग है । मानमें, तीन संज्वलन, मायामें, दो संज्वलन तथा लोभमें लोभ संज्वलनके बन्धकोंका ध्रुव प्रकृतिके समान भंग है; अर्थात् बन्धकों के औदयिक और अबन्धकोंके औपशमिक तथा क्षायिक भाव हैं। संज्वलन कषायमें बन्ध होनेवाली शेष प्रकृतियोंके बन्धकोंका निद्रांके समान भंग है। अर्थात् बन्धकोंके औदयिक, अवन्धकोंके औपशमिक तथा क्षायिक हैं।
२८२. अपगत वेद में - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, यशःकीर्ति, उच्च गोत्र तथा ५ अन्तरायोंके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है। इनके बन्धकोंके कौन भाव है ? औपशभिक तथा क्षायिक है। ___साता वेदनीयके बन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक भाव है ? अबन्धकोंके कौन भाव है ? क्षायिक भाव है।
विशेषार्थ-अपगत वेदियोंमें द्रव्य वेदका नाश नहीं होता। यहाँ भाव वेदका विनाश होता है। धवला टीकामें लिखा है- मोहनीयके द्रव्य कर्म स्कन्धको अथवा मोहनीय कर्मसे उत्पन्न होनेवाले जीवके परिणामको वेद कहते हैं। उनमें वेदजनित जीवके परिणामका अथवा परिणामके साथ मोहकर्म-स्कन्धका अभाव होनेसे जीव अपगत वेदी होता है। (ध० टी० भा०, पृ० २२२)
अपगतवेदमें साताके अबन्धक अयोगकेवली होंगे, उनके क्षायिक भाव है।
२८३. अकषायियोंमें - साताके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है। अबन्धकों के कौन भाव है ? क्षायिक भाव है।
१. "क्रोधमानमायासु मिथ्यादृष्टयादीनि अनिवृत्तिबादरस्थानान्तानि सन्ति । लोभकषाये तान्येव सूक्ष्मसाम्परायस्थानाधिकानि ।" -स० सि०,पृ० ११ ।
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महाबंधे २८४. एवं केवलणा० यथाखाद० केवल-दसणा० ।
२८५. आभि० सुद० ओधि० मणपज्जव० संजद० ओधि० सम्मादि० खइग० ओघं । प्रवरि मिच्छ-संयुत्ताओ वज०।
२८६. सामाइ० छेदो०-पंचणा० चदुदंस० लोभसंजल० उच्यागोद-पंचंतराइगाणं बंधगा० ओदइगो भावो । अबंधा णत्थि । सेसं मणपज्जव-भंगो । परिहारे-देवायुबंध० ओदइगो भावो । अबंध० ओदइ० खयोवसमिगो वा । एवं असादादिछ । सेसं ओदइ० भावो । सुहुमसं०-संजदासंजद-सव्वाणं बंध० ओदइ० ।
विशेष-शंका - अकषाय मार्गणा नहीं बन सकती, कारण जीवका जैसे ज्ञानदर्शन गुण है, उसी प्रकार कषाय नामका भी गुण है । गुणका विनाश माननेपर गुणीका भी विनाश होगा । इस प्रकार अकष यमार्गणा माननेपर जीवका अभाव हो जायगा।
समाधान-ज्ञानदर्शनके समान कषाय नहीं है, अतएव कषाय जीक्का लक्षण नहीं हो सकता। कर्मजनित कपाय भावको, जीवका लक्षाण या गुण मानना अयुक्त है। कषायोंका काँसे उत्पन्न होना असिद्ध नहीं है, कारण कषायकी वृद्धि होनेपर जीवके ज्ञानकी हानि अन्य प्रकारसे नहीं बन सकती है, इसलिए कषायका कर्मसे उत्पन्न होना सिद्ध है । गुण गुणान्तरका विरोधी नहीं होता, क्योंकि अन्यत्र वैसा नहीं देखा जाता। (ध० टी०,भावा०५, पृ० २२३) .
२८४. केवलज्ञान, यथाख्यातसंयम, केवलदर्शन में इसी प्रकार जानना चाहिए।
२८५. आभिनिबोधिक, श्रुत, 'अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, संयन, अवधिदर्शन, सम्य. ग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टिके ओघवत् भाव जानना चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ मिथ्यात्वसंयुक्त प्रकृतियों को नहीं लेना चाहिए।
२८६. सामायिक,छेदोपस्थापना संयममें-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्च गोत्र, तथा ५ अन्तरायों के बन्धकोंके औदयिक भाव है; अबन्धक नहीं है। शेष प्रकृ. तियोंके बन्धकों-अबन्धकोंमें मनःपर्ययज्ञानके समान भंग जानना चाहिए।
विशेषार्थ-यह संयम छठेसे नवें गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है, इससे इसमें ज्ञानावरणादिके अबन्धकोंका अभाव कहा है । उनके अबन्धक उपशान्तकषायादि होते हैं।
परिहारविशद्धि संयममें - देवायुके बन्धकोंके औदयिक भाव है। अबन्धकोंके औदयिक तथा क्षायोपशामिक भाव है।
विशेष-परिहारविशुद्धि संयम प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानमें पाया जाता है। वहाँ देवायुका बन्ध न करनेवाले जीवोंके चारित्रमोहनीयकी अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव कहा है। अन्य प्रकृतियोंके बन्धकोंकी अपेक्षा औदायिक भाव है।
इसी प्रकार असाता, अस्थिर, अशुभ, अयश-कीर्ति, शोक तथा अरतिमें जानना चाहिए। शेषमें औदायिक भाव है । सूक्ष्मसाम्पराय तथा संयमासंयममें - सब प्रकृतियोंके बन्धकोंके औदयिक भाव है।
१. “यथाख्यातविहारशुद्धिसंयता उपशान्तकषायादयोऽयोगकेवल्यन्ताः।' २. 'आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानेषु असंयतसम्यग्दृष्ट यादीनि क्षीणकषायान्तानि सन्ति। मनःपर्यय ज्ञान प्रमत्तसंयतादयः क्षीणकषायान्ताः सन्ति । संयताः प्रमत्तादयोऽयोगकेवल्यन्ताः । क्षायिकसम्यक्त्वे असंयतसम्यग्दष्टयादीनि अयोगकेवल्यन्तानि सन्ति ।"-स० सि०, पृ० १२ । ३. "तेजःपद्मलेश्ययोमिथ्यादृष्ट्यादीनि अप्रमत्तस्थानान्तानि ।" -स० सि०,पृ० १२।
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पयडिबंधाहियारो २८७. असंजद० तिण्णि ले०-तिरिक्खोघं । णवरि अपच्चक्खाणा०४ अबंधगा णत्थि । तित्थय० बंधगा अस्थि ।
२८८. तेऊए-पंचणा० छदंसणा० चदुसंज० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ बादर-पजत्त-पत्तेय-णिमि० पंचंत० बंधगा, ओदइगो भावो। अबंधगा णत्थि । थीणगिद्धि०३ अणंताणुबंधि०४ बंधगा० ओदइगो भावो। अबंधगा त्ति उपसमि० खइ० खयोवस० । मिच्छत्त० ओघं । साद० बंधा-अबंधगा ति ओदइगो भावो। असाद बंध० ओदइगो भावो। अबंध० ओदइ० खयोवसमिगो वा ।. दोण्णं बंधा०
ओदइगो भावो । अबंधा णस्थि । एवं चदुणोक. थिरादि-तिण्णियुगल-इत्थि-णqस० बंधगा ओदइगो भावो । अबंधगा ओदइ० उवसमि० खइगो० खयोवस० । णवुस० पारिणामि० । पुरिसवे० बंधा अबं० ओदइगो भावो । तिण्णि बंधा० ओदइगो भावो। अबंधगा णत्थि । तिरिक्खायुबंधा० ओदइगो भावो । अबंधगा ओदइ० उवस० खइ०
२८७. असंयतों तथा कृष्णादि तीन लेश्यावालोंमें - तिर्यचोंके ओघवत् जानना चाहिए । विशेष यह है कि यहाँ अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक नहीं है, किन्तु यहाँ तीर्थकरके बन्धक हैं।
विशेष-अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक देशसंयमी होते हैं उनका यहाँ अभाव है, कारण अशुभ-त्रिक लेश्या असंयतोंमें ही होती है।
२८८. तेजोलेश्यामें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय-जुगुप्सा, तैजसकार्मण, वर्ण ४; अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंके बन्धकोंके औदयिक भाव है। अबन्धक नहीं है।
विशेष-तेजोलेश्या अप्रमत्त संयतपर्यन्त पायी जाती है, अतः यहाँ ज्ञानावरणादिके अबन्धक नहीं पाये जाते हैं। ___ स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक है । मिथ्यात्वमें ओघके समान है। साता वेदनीयके बन्धकों, अबन्धकोंमें औदयिक भाव है ? असाताके बन्धकोंमें औदयिक भाव है। अबन्धकोंमें कौन भाव है ? औदयिक अथवा क्षायोपशमिक भाव है।
विशेष-असाताको बन्धव्युच्छित्तियुक्त अप्रमत्त गुणस्थानकी अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव है। असाताके अबन्धक.किन्त साताके बन्धककी अपेक्षा औदयिक भाव कहा है।
— साता-असाता दोनोंके बन्धकोंके औदयिक भाव है। अबन्धक नहीं हैं । इस प्रकार ४ नोकषाय, स्थिरादि ३ युगलमें जानना चाहिए। स्त्रीवेद, नपुंसकवेदके बन्धकोंके औदयिक भाव है । अबन्धकोंके औदायिक, औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव है। विशेष यह है कि नपुंसकवेदके अबन्धकोंमें पारिणामिक भाव भी है।
पुरुषवेदके बन्धकों, अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है। तीनों वेदोंके बन्धकोंमें औदायिक भाव है । अबन्धक नहीं है। तियंचायुके बन्धकोंमें औदयिक भाव है।
१. "परिर वशुद्धिसंयताः प्रमत्ताप्रमत्ताश्च ।" -स० सि०,१२। २. "कृष्णनीलकापोतलेश्यासु मिथ्यादृष्टयादीसिम्यग्दृष्टयन्तानि सन्ति ।
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महाबंधे खयोवस० । मणुस-देवायु बंधा० ओदइ । अबंधगा ओदइ० खयोव० । तिण्णिआयु० बंधा० ओदइ० | अबंध० ओदइ० खयोव० । इत्थि-णqसग-भंगो तिरिक्खगदि-एइंदियजादि-पंचसंठा० पंचसंघ० तिरिक्खाणु० आदा-उजो० अप्पसत्थवि० थावरभंगदुस्सर-अणा० णीचागोद च। मणुसगदि-ओरालि० ओरालि० अंगो० वअरिस० मणुसाणु • बंध० ओदइगो भावो । अबं० ओदइ० खयोवसमिगो वा। देवगदि०४ पंचिंदि० आहारदुग-समचदु० पसत्थवि० तस० सुभग-सुस्सर-आदे० तित्थय? बंध० अबं० ओदइगो भावो । तिण्णं गदीणं बंध० ओदइ० । अबंधगा णत्थि। एदेण बीजपदेण णेदव्यं ।
२८६. एवं पम्माए, एइंदिय० आदाव-थावरं वज्ज ।
२६०. वेदगे-धुविगाणं बंधगा० ओदइगो भावो । अबंधा गत्थि । सेसाणं तेउ-भंगो।
अबन्धकोंमें औदायिक, औपशमिक, क्षायिक तथा झायोपशमिक भाव है।
विशेष-अन्य आयुवन्धकी अपेक्षा औदायिक भाव है तथा तिर्यंचायुके अबन्धक अविरतसम्यक्त्वीके सम्यक्त्वत्रयवालों की अपेक्षा औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव है । देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्तकी अपेक्षा श्रायोपशमिक भाव है।
मनुष्यायु-देवायुके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक भाव है। अबन्धकोंके औदयिक, क्षायोपशमिक भाव है। तिर्यंच-मनुष्य-देवायुके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है।
विशेष-तेजोलेश्यामें नरकायुका बन्ध नहीं होनेसे उसका ग्रहण नहीं किया है।
आयुत्रयके अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक तथा क्षायोपामिक है।
तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, ५ संस्थान, ५ संहनन, तिर्यंचानुपूर्वो, आतप, उद्योत, अप्रशस्त-विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय तथा नीच गोत्रमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेदके समान भंग जानना चाहिए। अर्थात् बन्धकों के औदायिक है। अवन्धकोंके औदयिक, औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक हैं।
मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वनवृपभसंहनन तथा मनुष्यानुपूर्वी के बन्धकों के औदायिक भाव है । अबन्धकोंके औदायिक वा क्षायोपशमिक भाव है।
देवगति ४, पंचेन्द्रिय जाति, आहारकद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, स, सुभग, सुस्वर, आदेय तथा तीर्थकरके बन्धकों,अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक भाव है। तीन गतियों के बन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक भाव है; अबन्धक नहीं है। इसी बीजपढ़के द्वारा अन्य प्रकृतियों का वर्णन जानना चाहिए ।
२८६. पद्मलेश्यामें - इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ एकेन्द्रिय, आतप तथा स्थावर प्रकृतियोंको नहीं ग्रहण करना चाहिए।
२६०. वेदकसम्यक्त्वमें - ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक भाव है। अबन्धक नहीं है।
१. “मिच्छस्संतिमणवयं वारं न हि तेउपम्मेसु ।" -गो० क० गा० १२० ।
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पडबंधाहियारो
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O
२६१. उवसम० - पंचणा० छदंस० चदुसंज० पुरिस० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ पंचिदि० अगुरु ०४ पत्थवि० तस०४ सुभग- सुस्सर-आदे० णिमि० तित्थयर० उच्चागोदं पंचत० बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंध उवसमियो भावो । साद- बंधा - अबंध० ओदइगो भावो । असाद-बंधगा त्ति को भावो ? ओदह० । अबंधगा त्ति० ओदइग० उवस० खयोवस० । दोष्णं बंधगा० ओदइ० । अबंधा णत्थि । अकसा • बंध० ओदइगो भावो । अबंध० उवसः खयोवस मिगो वा । हस्तरदि०
गतिको भाव ? ओदइगो भावो । अबंध० ओदगो वा उवसमिगो वा । अरदिसोगं बंधगाति ओदइ० । अबंधगा० ओदइ० उवस० खयोव० | दोष्णं बंधगाि
विशेष – वेदकसम्यक्त्व अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है और ध्रुव प्रकृतियोंके अबन्धक 'उपशान्तकषायी होते हैं। इस कारण यहाँ ध्रुव प्रकृतियोंके अबन्धक नहीं कहे हैं।
शेष प्रकृतियों में तेजोलेश्या के समान भंग है ।
२९१. उपशम सम्यक्त्वमें - ५ ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक रहित ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, तैजस- कार्मण शरीर, वर्ण ४, पंचेन्द्रिय जाति, अगुरुलघु, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर, उच्च गोत्र तथा पाँच अन्तरायोंके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है । अबन्धकोंके औपशमिक भाव है । सातावेदनीयके बन्धकों, अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है । असाता वेदनीय बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक, औपशमिक तथा क्षायोपशमिक है ।
साता-असाताके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है; अबन्धक नहीं हैं। आठ कषायों के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक वा क्षायोपशमिक है ।
हास्य,रतिके बन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक भाव है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक वा औपशमिक है । अरति शोकके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक, क्षायोपशमिक तथा औपशमिक भाव है ।
विशेष-- अरति शोकके अबन्धक, किन्तु हास्य रतिके बन्धककी दृष्टिसे औदयिक भाव हैं । अरति, शोककी बन्ध-व्युच्छित्ति प्रमत्तसंयतों के होती है। अतएव अरति, शोकके, अबन्धक अप्रमत्त संयतों की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव कहा है । उपशम श्रेणीकी अपेक्षा औपशमिक भाव कहा है ।
हास्य- रति, अरति शोक इन दोनों युगलोंके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है । अन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक भाव है ।
विशेष – इन चारोंके अबन्धक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती होंगे, वहाँ चारित्रमोहनी की अपेक्षा औपशमिक भाव कहा है ।
१. “क्षायोपशमिकसम्यक्त्वे असंयतसम्यग्दृष्ट्यादीनि अप्रमत्तान्तानि ।” स० सि० पृ० १२ । २. "औपशमिकसम्यक्त्वे असंयतसम्यग्दृष्ट्यादीनि उपशान्तकषायान्तानि ।" - पृ० १२ ।
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महाबंधे ओदइ० । अबंध० उपसमिगो भात्रो। एवं दोगदि-दोआणु० दोसरीर-दोअंगोवंगआहारदुग-थिरादि-तिण्णियुगलं ।
२६२. अणाहारे-कम्मइगभंगो। णवरि साद० ओघ । साधारणेण वि ओघं । मिच्छत्त-संजुत्ताओ सोलस-पगदीओ ओघाओ। सव्वत्थ याव अणाहारग ति बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा ति को भायो ? ओदइगो वा उपसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा पारिणामिओ वा भावो।
एव भावं समत्तं ।
इस प्रकार मनुष्य-देव गति, दो आनुपूर्वी, औदारिक-वैक्रियिक शरीर, २ अंगोपांग, आहारकद्विक, स्थिरादि तीन युगलोंके बन्धकों में कौन भाव है ? औदायिक भाव है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक भाव है।
२९२. अनाहारकमें- कार्मण-काययोगके समान भंग है। विशेष यह है कि यहाँ साता वेदनीयका ओघवत् भंग जानना चाहिए। इसी प्रकार सामान्यसे भी ओघवत् जानना चाहिए । मिथ्यात्व संयुक्त १६ प्रकृतियों का ओघवत् भंग है । अनाहारकपर्यन्त सर्वत्र बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक वा पारिणामिक है।
विशेषार्थ-अनाहारकोंमें मिथ्यात्व गुणस्थानकी अपेक्षा औदयिकभाव है। सासादनकी अपेक्षा पारिणामिक है। चतुर्थ गुणस्थानकी अपेक्षा औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपमिक है। समुद्घातगत सयोगी तथा अयोगी जिनकी अपेक्षा क्षायिक भाव है।
इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ।
१. "मिच्छत्तहुं डसंढा संपत्तेयक्खथावरादावं । सुहुमतियं वियलिंदी णिरयदुणिरयायुगं मिच्छे ॥" -गो० क०,गा०६५। २. "अणाहाराणं कम्मइयभंगो। णवरि विसेसो अजोगिकेवलि त्ति को भावो? खइओ भावो । -जी० भावा०, सूत्र० ९२, ६३ । अनाहारकेषु विग्रहगत्यापन्नेषु त्रीणि गुणस्थानानि, मिथ्यादृष्टिः सासादनसम्यग्दृष्टिरसंयतसम्यग्दृष्टिश्च। समुद्घातगतः सयोगकेवल्ययोगकेवली च॥" -स० सि०,०८, अ० १, पृ०१२।
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[ अप्पाबहुगपरूवणा] २६३. अप्पाबहुगं दुविधं, जीव-अप्पाबहुगं चेव, अद्धा-अप्पाबहुगं चेव । तत्थ जीव-अप्पाबहुगं दुविधं, सत्थाणं परत्थाणं च । सत्थाण-जीवअप्पाबहुगे दुविहो णिद्देसो ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा पंचणाणावरणं अबंधगा जीवा, [बंधगा] अणंतगुणा । सव्वत्थोवा चदुदंसणावरणाणं अबंधगा जीवा । णिहापचलाणं अबंधगा
[अल्पबहुत्व ] २६३. अल्पबहुत्वके दो भेद हैं - एक जीव अल्पबहुत्व, दूसरा काल अल्पबहुत्व । जीव अल्पबहुत्व भी स्वस्थान जीव अल्पबहुत्व और परस्थान जीव अल्पबहुत्वके भेदसे दो प्रकार है।
विशेष-अल्पता, बहुलताका वर्णन करनेवाला अनुगम अल्पबहुत्वानुगम है। ओघवर्णनमें अभेद दृष्टिको ग्रहण करनेवाले द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन लिया जाता है। आदेश वर्णनमें भेदयुक्त दृष्टिको ग्रहण करनेवाले पर्यायार्थिक नयका आश्रय लिया गया है।
___ यह अल्पबहुत्व नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भावके भेदसे चार प्रकारका है। द्रव्य अल्पबहुत्व आगम, नोआगमके भेदसे दो प्रकार है। जो अल्पबहुत्व विषयक प्राभृतको जाननेवाला है, परन्तु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित है, उसे आगमद्रव्य अल्पबहुत्व कहते हैं। नोआगम द्रव्य अल्पबहुत्व ज्ञायक शरीर, भावी और तव्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकारका है। इसमें तद्व्यतिरिक्त अल्पबहुत्व सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे त्रय युक्त है। इनमें जीव द्रव्यविषयक अल्पबहुत्व सचित्त है-"जीवदव्यप्पाबहुरं सचित्तं"। शेष द्रव्य विषयक अल्पबहुत्व अचित्त है । दोनोंका अल्पबहुत्व मिश्र है।
प्रश्न-“एदेसु अप्पाबहुपसु केण पयद"-इन अल्पबहुत्वोंमें-से प्रकृतमें किससे प्रबोजन है ?
उत्तर-'सचित्तदव्यप्पाबहुएण पयदं'-यहाँ सचित्त द्रव्य अल्पबहुत्वसे प्रयोजन है।
इस अल्पबहुत्व प्ररूपणाका सबके अन्त में निरूपण किया गया है, क्योंकि वह पूर्वोक्त सभी अनुपयोग द्वारोंसे सम्बद्ध है।
स्वस्थान जीव अल्पबहुत्वमें ओघ तथा आदेशसे दो प्रकार निर्देश किया जाता है। ___ ओघसे-५ ज्ञानावरणके अबन्धक जीव सबसे कम है। [बन्धक ] जीव उनसे अनन्तगुणे हैं।
चार दर्शनावरणके अबन्धक जीव सबसे कम हैं। निद्रा, प्रचलाके अबन्धक जीव
१. "अप्पं च बहुरं च अप्पाबहुमाणि । तेसिमणुगमो अप्पाबहुआणुगमो। तेण अप्पाबहुआणुगमेण जिद्देसो दुविहो होदि । ओघो आदेसो ति । संगहिदवयणकलावो दम्वट्ठियणिबंधणो ओघो णाम । असंगहिदबयणकलामो पुब्बिलत्यावयवणिबंधो पज्जवट्रियणिबंधो आदेसो णाम।"-ध०टी०,अप्पाबहु० पृ० २४३ । मल्पबहुत्वमन्योन्यापेक्षया विशेषप्रतिपत्तिः -स० सि०, पृ० १० । २. एदेसि पच्छा अप्पाबहुगाणुगमो परूविदो, सम्बाणिबोगद्दारेसु परिवदत्तादो-खु० ब०,सामित्ताणुगम टीका,पृ०२७।
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३२२
महाबंधे जीवा विसेसाहिया । थीणगिद्धि ०३ अबंधगा जीवा विसेसाहिया । बंधगा जीवा अणंतगुणा । णिहापचलाबंधगा जीवा विसेसाहिया । चदुदंस० बंधगा जीवा विसेसाहिया। सव्वत्थोवा सादासादाणं दोणं पगदीणं अबंधगा जीवा । सादबंधगा जीवा अणंतगुणो । असादबंधगा जीवा संखेजगुणा । दोण्णं बंधगा जीवा विसेसाहिया ।।
२६४. सव्वत्थोवा लोभसंजलण-अबंधगा जीवा । माय-संजलण-अर्बधगा जीवा विसेसाहिया । माण-संजलणअबंधगा जीवा विसेसाहिया । कोधसंजलण-अबंधगा जीवा विसेसाहिया। पञ्चक्खाणा०४ अबंधगा जीवा विसेसाहिया । अपचक्खाणावर०४ अबंधगा जीवा विसेसाहिया । अणंताणुबंधि०४ अबंधगा जीवा विसेसाहिया। मिच्छत्तअबंधगा जीवा विसेसाहिया, बंधगा जीवा अणंतगुणा । अणंताणुबंधि०४ बंधगा जीवा विसेसाहिया। अपञ्चक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसेसाहिया। पञ्चक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसेसाहिया। कोधसंजलण-बंधगा जीवा विसे | माणसंजलण-बंधगा जीवा विसे० । मायसंजलण-बंधगा जीवा विसे० । लोभसंजलण-बंधगा जीवा विसे ।
२६५. सव्वत्थोवा णवणोकसायाणं अबंधगा जीवा । पुरिसवेदस्स बंधगा जीवा इनसे विशेष अधिक हैं। स्त्यानगृद्धित्रिकके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। इनके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। निद्रा, प्रचलाके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। चार दर्शनावरणके बन्धक जीव इनसे विशेषाधिक हैं।
साता-असाता दोनों प्रकृतियोंके अबन्धक जीव सबसे कम अर्थात् स्तोक हैं। साताके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। असाताके बन्धक जीव संख्यातगुणित हैं। दोनोंके बन्धक जीव इनसे विशेषाधिक हैं।
विशेषार्थ-साता-असाताके अबन्धक अयोगकेवली हैं। उनकी संख्या ५६८ है। 'गोम्मटसार' जीव काण्डमें लिखा है-प्रमत्त गुणस्थानवाले ५६३९८२०६ हैं, अप्रमत्त गुणस्थानवाले २६६६६१०३ हैं, उपशम श्रेणीवाले चार गुणस्थानवर्ती ११९६, क्षपक श्रेणीवाले चारों गुणस्थानवर्ती २३६२ हैं, सयोगीजिन ८९८५०२ हैं । इनको जोड़नेपर CELLE३६६ संख्या होती है। तीन घाटि नव कोटि प्रमाण समस्त सकल संयमियोंकी संख्या में-से उक्त प्रमाण घटानेपर ५९८ अयोगीजिन कहे गये हैं। (गो० जी०सं० टीका पृ०. १०८५.) । . २६४. सबसे स्तोक लोभ संज्वलनके अबन्धक जीव हैं। माया संज्वलनके अबन्धक जीवं इनसे विशेषाधिक है। मान संज्वलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । क्रोध संज्वलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्व के बन्धक जीव इनसे अनन्तगुणे हैं। अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। क्रोध संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मान संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। माया संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। लोभ संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
२६५. नव नोकषायोंके अबन्धक जीव सर्वसे स्तोक अर्थात् अल्प हैं। पुरुषवेदके
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पयडिबंधाहियारो
३२३
अनंतगुणा । इत्थवेदस्त बंधगा जीवा संखेजगुणा । हस्सरदिबंधगा जीवा संखेजगुणा । अरदिसोगाणं बंधगा जीवा संखेजगुणा । णवुंसगवेदस्स बंधगा जीवा विसेसाहिया | भयदुपुं० बंधगा जीवा विसे० ।
O
२६६. सव्वत्थोवा मणुसायु-बंधगा जीवा । णिरयायुबंधगा जीवा असंखेजगुणा । देवायुबंधगा जीवा असंखेजगुणा । तिरिक्खायुबंधगा जीवा अनंतगुणा । चदुष्णं आयुगाणं बंधगा जीवा विसेसाहिया । अबंधगा जीवा संखेञ्जगुणा |
२६७, सव्वत्थोवा देवरादि-बंधगा जीवा । णिरयगदिबंधगा जीवा संखेज्जगुणा । चदुष्णं गदीणं अबंधगा जीवा अनंतगुणा | मणुसगदि-बंधगा जीवा अनंतगुणा । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा संखेजगुणा । चदुष्णं गदीणं बंधगा जीवा विसेसाहिया | सव्वत्थोवा पंचणं जादीणं अबंधगा जीवा । पंचिदिय० - बंधगा जीवा अनंतगुणा ।
दुरिंदि -बंधगा जीवा संखेजगुणा । तीइंदिय-बंधगा जीवा संखेञ्जगुणा । बीइंदिय int जीवा संखेrगुणा । एइंदिय-बंधगा जीवा संखेजगुणा । पंचन्हं जादीणं बंधगा जीवा विसेसाहिया । सव्वत्थोवा आहारसरीरस्स बंधगा जीवा । वेउव्वयसरीरस्स बंधगा जीवा असंखेजगुणा | पंचण्णं सरीराणं अबंधगा जीवा अनंतगुणा | ओरालियसरीरस्स बंधगा जीवा अनंतगुणा । तेजाकम्मइग- सरीरस्स बंधगा जीवा विसेसाहिया । यथा जादिणामाणं तथा संठाणणामाणं । सव्वत्थोवा आहार० अंगोवंग० बंधगा जीवा । उव्विय- अंगो० बंधगा जीवा असंखेज्जगुणा । ओरालिय- अंगो० बंधगा जीवा अनंत
बन्धक जींव इनसे अनन्तगुणे हैं । स्त्रीवेद के बन्धक जीव इनसे संख्यातगुणे हैं । हास्य, रति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। नपुंसक वेद बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । भय, जुगुप्साके बन्धक जीव विशेपाधिक हैं ।
२६६. सर्वस्तोक मनुष्यायुके बन्धक जीव हैं । नरकायुके बन्धक इनसे असंख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तिर्यंचायुके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। चारों आयुओंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं
२६७. देवगतिके बन्धक जीव सर्वस्तोक अर्थात् सबसे कम हैं। नरकगति के बन्धक 'जीव संख्यातगुणे हैं। चारों गतियोंके अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। मनुष्यगति के बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । तिर्यंचगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। चारों गतियों के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । पाँच जातियोंके अबन्धक जीव सबसे अलग हैं। पंचेन्द्रिय जातिके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । चतुरिन्द्रियके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । त्रीन्द्रियके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । द्वीन्द्रियके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । एकेन्द्रियके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पाँचों जातियोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। आहारक शरीर के बन्धक सबसे स्तोक
। वैक्रियिक शरीर के बन्धक असंख्यातगुणे हैं । पाँचों शरीरोंके अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । औदारिक शरीर के बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । तैजस- कार्मण शरीरके बन्धक जीव - विशेषाधिक हैं ! जाति नामकर्म के अल्पबहुत्व के समान संस्थान नामकर्मका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। आहारक अंगोपांगके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं । वैक्रियिक अंगोपांग के बन्धक
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३२४
महाबंधे
गुणा । तिण्णि अंगोवंगाणं बंधगा जीवा विसेसाहिया । अबंधगा जीवा संखेजगुणा । सव्वत्थोवा वज्जरिसभसंघडणं बंधगा जीवा । वजणारायाणं बंधगा जीवा संखेजगुणा । णारायाण बंधगा जीवा संखेजगुणा। अद्धणारायाण बंधगा जीवा संखेजगुणा । खीलिय० बंधगा जीवा संखेजगुणा । असंपत्तसेवट्ट० बंधगा. जीवा संखेअगुणा । छस्संघडण-बंधगा जीवा विसेसाहिया। अबंधगा जीवा संखेजगुणा । सव्वत्थोवा वण्ण०४ णिमिण-अबंधगा जीवा, बंधगा जीवा, अणंतगुणा । यथागदि तथाआणुपुव्वि । सव्वत्थोवा अगुरु० उपघा० अबंधगा जीना । परघादुस्सा० बंधगा जीवा अणंतगुणा। अबंधगा जीवा संखेजगुणा । अगुरु० उपघा० बंधगा जीवा विसेसाहिया । सव्वत्थोवा आदावुजो० बंधगा जीवा, अबंधगा जीवा संखेजगुणा । सव्वत्थोवा पसत्थविहाय० सुस्सर० बंधगा जीवा । अप्पसत्थविहाय० दुस्सर० बंधगा: जीवा संखेजगुणा । दोणं चंधगा जीवा विसेसाहिया । अबंधगा जीवा संखेजगुणा । सव्वत्थोवा तसथावर-अबंधगा जीवा । तस० बंधगा जीवा अणंतगुणा । थावरबंधगा जीवा संखेजगुणा । दोण्णं बंधगा जीवा विसेसाहिया । एवं सेसाणं जुगलाणं गोदंतियाणं । सम्वत्थोवा तित्थयर-बंधगा जीवा । अबंधगा जीवा अणंतगुणा। सव्वत्थोवा पंचंतराइगाणं अबंधगा जीवा । बंधगा जीवा अणंतगुणा । जीव असंख्यातगुणे हैं। औदारिक अंगोपांगके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। तीनों अंगोपांगों के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वनवृषभसंहननके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। वज्रनाराचसंहननके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । नाराचसंहननके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अर्धनाराचसंहननके बन्धक जीव संख्यात गुणे हैं। कीलित संहननके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। असंप्राप्तामृपाटिका संहननके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। छह संहननके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वर्णचतुष्क तथा निर्माणके अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। इनके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। गतिके समान आनुपूर्वीका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। अगुरुलघु, उपघातके अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। परघात, उच्छ्वासके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । अगुरुलघु, उपघातके अबन्धक जीव विशेषाधिक है। आतप, उद्योतके बन्धक जीव सर्वस्तोक है। अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । प्रशस्त विहायोगति, सुस्वरके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं । अप्रशस्त विहायोगति, दुःस्वर के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं , अवन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। बस स्थावर के अवन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। त्रसके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । स्थावर के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। दोनों के बन्धक जीव विशेष अधिक हैं।
इस प्रकार गोत्र कर्म है अन्त में जिनके-ऐसे शेष युगलोंका क्रम जानना चाहिए।
विशेष-बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, आदेय-सदृश नामकर्मको शेष युगल प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व त्रस स्थावर के समान जानना चाहिए। गोत्र कर्मका भी ऐसा ही है।
तीर्थकर प्रकृतिके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं, अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। ५ अन्त. रायोंके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं बन्धक जीव अनन्तगुणे है।
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पयडिबंधाहियारो
३२५ २६८. आदेसेण-गदियाणुवादेण णिरयगदि-णेरइएसु-सव्वत्थोवा थीणगिद्धि० ३ अबंधगा जीवा, बंधगा जीवा असंखेजगुणा। छदंस० बंधगा जीवा विसेसाहिया ।
२६६. सव्वत्थोवा सादबंधगा जीवा, असादबंधगा जीव संखेनगुणा । दोण्णं बंधगा जीव विसेसाहिया।
३००. सव्वत्थोवा अणंताणुवं०४ अबंधगा जीवा। मिच्छत्त-अबंधगा जीवा विसे साहिया । बंधगा जीवा असंखेजगुणा। अणंताणुबंधि०४ बंधगा जीवा विसेसाहिया। पारसकसायाणं बंधगा जीवा विसेसाहिया । सव्वत्थोवा पुरिसवेदस्स बंधगा जीवा । इस्थिवेदस्स बंधगा जीवा संखेजगुणा। हस्सरदिबंधगा जीवा विसेसाहिया। णवंसकवेदस्स बंधगा जीवा संखेजगुणा। अरदिसोगाणं बंधगा जीवा विसेसाहिया । भयदु० बंधगा जीवा विसे।
__३०१. सव्वत्थोवा मणुसायुबंधगा जीवा । तिरिक्खायुबंधगा जीवा असंखेजगुणा। दोणं आयुगाणं बंधगा जीवा विसेसाहिया। अबंधगा जीवा संखेजगुणा । सव्वत्थोवा मणुसगदिबंधगा जीवा । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा संखेजगुणा । दोणं बंधगा जीवा विसेसाहिया । अबंधगा णस्थि । एवं दो आणु० दो विहाय. थिरादिछयुगलं दोगोदं च। समचदु० बंधगा जीवा सव्वत्थोवा। सेससंठाणं बंधगा जीवा
२६८. आदेशसे-गति के अनुवाद से नरक गतिके नारकियों में स्त्यानगृद्धित्रिकके अयन्धक जीव सर्व स्तोक हैं बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। छह दर्शनावरणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
विशेष-५ ज्ञानावरण, ५ अन्तरायके सर्व नारकी बन्धक हैं। अबन्धक नहीं है । इस कारण उनका अल्पबहुत्व यहाँ नहीं कहा है । उनका एक साथ निरन्तर बन्ध होता है ।
२६६. साताके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। असाताके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
_३००. अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। मिथ्यात्व के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषा. धिक हैं। १२ कपायोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव सर्व स्तोक है। स्त्रीवेदके बन्धक संख्यातगुणे हैं। हास्य, रतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नपुंसकवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अरति, शोकके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। भय, जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।।
३०१. मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । तियंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। दोनों आयुओंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
मनुष्यगतिके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। तियंचगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ; अबन्धक नहीं हैं । इसी प्रकार २ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, स्थिरादि छह युगल तथा दो गोत्रोंमें जानना चाहिए ।
समचतुरस्रसंस्थानके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। शेष संस्थानों के बन्धक जीव संख्यात
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महाबंधे
संजगुणा । एवं संघ० । सव्वत्थोवा उज्जीवं बंधगा जीवा । अबंधगा जीवा संखेजगुणा । सव्वत्थोवा तित्थयरं बंधगा जीवा । अबंधगा जीवा संखेञ्जगुणा |
३०२. एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि मज्झिमासु सव्वत्थोवा मणुसायुबंधगा जीवा । तिरिक्खायुबंधगा जीवा असंखेञ्जगुणा । दोष्णं आयुगस्स बंधगा जीवा विसेसाहिया | अबंधगा जीवा असंखेजगुणा । सव्वत्थोवा सत्तमाए पुढवीए मणुसगदि - मसाणुपुच्चि उच्चागोदाणं बंधगा जीवा । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणुपुव्वि णीचागोदाणं गाजीवा असंखेजगुणा । दोण्णं बंधगा जीवा विसेसाहिया । अबंधगा जीवा णत्थि । सव्वत्थोवा तिरिक्खायुबंधगा जीवा, अबंधगा जीवा असंखेज्जगुणा ।
1
३०३. तिरिक्खेसु - सव्वत्थोवा थीणगिद्धि०३ अबंधगा जीवा । बंधगा जीवा अनंतगुणा । छदंसणा बंधगा जीवा विसेसाहिया । सव्वत्थोवा सादबंधगा जीवा । अदबंधगा जीवा संखेजगुणा । दोष्णं बंधगा जीवा विसेसाहिया । अबंधगा णत्थि । सव्वत्थोवा अपच्चक्खाणा ०४ अबंधगा जीवा । अनंताणुबं०४ अबंधगा असंखेजगुणा । मिच्छत्त-अवधगा जीवा विसे० | बंधगा जीवा अनंतगुणा । अनंताणु ०४ बंधगा जीवा विसेसा० । पच्चक्खागावरण ०४ (१) बंधगा जीवा विसेसा० । अडकसायाणं बंधगा जीवा विसेसाहिया । सव्वत्थोवा पुरिसवेदस्स बंधगा जीवा । इत्थिवेदस्स बंधगा जीवा
गुणे हैं । इस प्रकार संहनन में भी जानना चाहिए ।
उद्योतके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं; अवन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं; अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ।
३०२. इसी प्रकार सात पृथ्वियों में जानना चाहिए। विशेष यह है कि मध्यम पृथ्वियोंमें मनुष्यायु बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । तिर्यंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। दोनों आयुओं के बन्धक जीव विशेपाधिक हैं; अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
सातवीं पृथ्वी में - मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी तथा उच्च गोत्रके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । तिर्यंचगति, तिचानुपूर्वी तथा नीच गोत्र के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । दोनों के ( मनुष्यगति, तिर्यंचगति आदि ) बन्धक जीव विशेष अधिक हैं; अबन्धक नहीं हैं । तिर्यचायुके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं; अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
३०३. तिर्यंचों में -- स्त्यानगृद्धिन्त्रिकके अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं, बन्धक जीव अनन्त गुण हैं । ६ दर्शनावरणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
सातावेदनीयके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं; असाताके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । दोनों के बन्धक जीव विशेष अधिक हैं; अबन्धक नहीं हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । मिथ्यात्व के अबन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इसके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । ८ कषाय, 5 प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
विशेष- यहाँ प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धकके स्थान में अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक पाठ सम्यक् प्रतीत होता है ।
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पयडिबंधाहियारो
३२७ संखेजगुणा । हस्सरदिवंधगा जीवा संखेजगुणा। अरदिसोगाणं बंधगा जीवा संखेजगुणा। णबुंसकवेदस्स बंधगा जीवा विसेसाहिया। भयदुगुच्छाणं बंधगा जीवा विसेसाहिया । आयु० अंगोवं० संघ० आदा० उजो० विहाय. संठाणं च मूलोघं। सव्वत्थोवा पंचिंदिय-बंधगा जीवा । सेस-बंधगा जीवा संखेजगुणा। सव्वत्थोवा देवगदिबंधगा जीवा । णिरयगदिबंधगा जीवा संखेजगणा । मणुसगदिबंधगा जीवा अणंतगुणा । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा संखेजगुणा । चदुण्णं गदीणं बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा वेउब्धिय-बंधगा जीवा । ओरालियबंधगा जीवा अणंतगुणा। तेजाकम्मइगबंधगा जीवा विसेसा० । संठाणं णिरयभंगो । सव्वत्थोवा परघादुस्सा० बंधगा जीवा । अबंधगा जीवा संखेजगुणा । अगु० उप० बंधगा जीवा विसेसा० । सेसाणं युगलाणं सादासादभंगो। एवं पंचिंदियतिरिक्खाणं। णवरि यं हि अणंतगुणं तं हि असंखेजगुणं कादव्वं ।
३०४. पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिणीसु-दसणावरण-मोहणीय-गोदे एसेव भंगो। सव्वत्थोवा मणुसायुबंधगा जीवा । णिरयायुबंधगा जीवा असंखेजगुणा । देवायु-बंधगा
पुरुपवेदके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । हास्य, रति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। भय, जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
आयु, अंगोपांग, संहनन, आतप, उद्योत, विहायोगति, संस्थानके बन्धकोंमें मूलके ओघवत् जानना चाहिए।
पंचेन्द्रिय जातिके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। शेष जातियों के बन्धक जीव संख्यावगुणे हैं। देवगति के बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। नरक गति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति के बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। तियं चगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। चारों गति के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। तैजस, कार्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। . संस्थानोंके बन्धकोंमें नरकगतिके समान भंग हैं। अर्थात् समचतुरस्र संस्थानके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। शेषके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। परघात, उछ्वासके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। अबन्धक जीव संख्यातगणे हैं। अगुरुलघु, उपघात के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष युगलों के बन्धकोंमें साता-असाताका भंग जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि जहाँ 'अनन्तगुणा' है वहाँ 'असंख्यातगुणा' लगाना चाहिए।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-पर्याप्तकोंका पृथक् वर्णन नहीं किया गया है, अतः प्रतीत होता है कि पंचेन्द्रिय तिय चोंके समान उनका वर्णन होगा।
३०४. पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-योनिमतियोंमें - दर्शनावरण, मोहनीय और गोत्रके बन्धकों में यही भंग जानना चाहिए।
मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। नरकायु के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तिर्यंचायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। चारों
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३२८
महाबंधे
जीवा असंखे गुणा । तिरिक्खायुबंधगा जीवा संखेजगुणा । चदुष्णं आयुगाणं बंधगा 'जीवा विसेसा० । अबंधगा जीवा संखेज्जगुणा । सव्वत्थोवा देवगदि-बंधगा जीवा । मणुसग दि-बंधगा जीवा संखेअगुणा । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा असंखेजगुणा । रियगदिबंधगा जीवा संखेजगुणा । सव्वत्थोवा चदुरिंदिय-गंधगा (?) - जीवा । तीइंदियबंधा जीवा संखेजगुणा । बीइंदिय-बंधगा जीवा संखेजगुणा । एइंदिय-बंधगा जीवा संखेअगुण । पंचिदिय-बंधगा जीवा संखेजगुणा (१) । सव्वत्थोवा ओरालिय- सरीरबंधगा जीवा । वेउब्विय-बंधगा जीवा संखेजगुणा । तेजाकम्मइग० बंधगा जीवा विसेसा० । संठाणं संघडणं पंचिदिय-तिरिक्खभंगो । सव्वत्थोवा ओरालिय- अंगोवंग-बंधगा जीवा । दोणं अंगो० अबंधगा जीवा संखेजगुणा । वेउच्चिय- अंगो० बंधगा जीवा संखेञ्जगुणा । दोणं अंगो० बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा परघादुस्सा० अंबंधगा जीवा । बंधगा जीवा संखेनगुणा । अगु० उप० बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा पसत्थविहाय गदिबंधा जीवा सुस्सर बंधगा जीवा० । दोण्णं अबंधगा जीवा संखेजगुणा । अप्पसत्थविहायगदि - बंधगा, दुस्सरबंधगा जीवा संखेजगुणा । सव्वत्थोवा थावरादि ०४ वंधगा जीवा । तसादि ०४ बंधगा जीवा संखेअगुणा ।
I
आयुके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं; अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ।
देवगतिके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। मनुष्यगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तिर्यंचगतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। नरक गतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । चतुरिन्द्रिय जाति के बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । त्रीन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। दो इन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । एकेन्द्रियके बन्धक जीव संख्यातगुणे
| पंचेन्द्रियके बन्धक (?) जीव संख्यातगुणे हैं ।
विशेषार्थ - पंचेन्द्रिय जातिके बन्धक जीव सर्व रोक होना चाहिए, । कारण " सबत्थोवा पंचिदिया" - पंचेन्द्रिय सर्व स्तोक हैं । अतः पंचेन्द्रियके बन्धक संख्यातगुणे हैं, यह पाठ असम्यक् प्रतीत होता है। पंचेन्द्रियकी अपेक्षा चौइन्द्रियपना विशेष सुलभ है, अतः पंचेन्द्रिय बन्धक सर्व स्तोक होंगे।
I
औदारिक शरीर बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। वैक्रियिक शरीर के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तैजस, कार्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । संस्थान और संहननके बन्धकों में पंचेन्द्रिय तिर्यंचका भंग जानना चाहिए। औदारिक अंगोपांगके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। दोनों अंगोपांगके अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। दोनों अंगोपांगके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । परघात, उच्छ्वास के अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । अगुरुलघु, उपघात के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । प्रशस्त विहायोगति तथा सुस्वर के बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। दोनों के अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । अप्रशस्त विहायोगति के बन्धक और दुस्वर के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । स्थावरादि ४ के बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। त्रसादि ४ के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ।
१. "पंचहमिदियाणं खर्वोवसनलद्धीए सुट्ठ दुल्लभत्तादो । चउरिदिया विसेसाहिया, कुदो ? पंचह मिदियाणं सामग्गीदो चदुहमिदियाणं सामग्गीए अइसुलभत्तादो। खु० बं०, टीका, पृ० ५२४ ।
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३२६
पयडिबंधाहियारो ३०५. पंचिंदिय-तिरिक्ख-अपजत्तगेसु-सव्वत्थोवा पुरिसवेदबंधगा जीवा । इत्थिवेदबंधगा जीवा संखेजगुणा । हस्सरदिबंधगा जीवा संखेज्जगुणा । अरदिसोगबंधगा जीवा संखेज्जगुणा। णवूस० बंधगा जीवा विसेसा० । भयदु० बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा मणुसायु-बंधगा जीवा । तिरिक्खायुबंधगा जीवा असंखेजगुणा । दोणं बंधगा जीवा विसेसा० । अबंधगा जीवा संखेजगुणा। सव्वत्थोवा मणुसगदिबंधगा जीवा । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा संखेजगुणा। दोणं बंधगा जीवा विसेसा० । अबंधगा पत्थि । सव्वत्थोवा) पंचिंदिय-बंधगा जीवा० । चदुरिंदिय-बंधगा जीवा संखेजगुणा । तीइंदिय-बंधगा जीवा संखेज० । बीइंदि० बंधगा जीवा संखेज० । एइंदियबंधगा जीवा संखेजगुणा । सव्वत्थोवा ओरालिय-अंगो० आदा-उजो० बंध० जीवा । अवंधगा जीवा संखेज० । संठाण-संघडण० पर० उस्सा० दो विहा० तसथावरादि-दसयुगलं दोगोदं च पंचिंदिय-तिरिक्खभंगो। एवं सव्व-अपजत्तगाणं तसाणं सत्रएइंदिय-विगलिंदिय-सव्वपंचकायाणं च । णवरि वणप्फदि काय-णिगोदेसु सवत्थोवा मणुसायु-बंधगा जीवा । तिरिक्खायुबंधगा जीवा अणंतगणा। दोणं बंधगा जीवा विसे० । अबंधगा जीवा संखेज० ।
३०६. मणुसेसु-सव्वत्थोवा पंचणा० अबंधगा जीवा, बंधगा जीवा असंखेज
३०५. पंचेन्द्रिय तियं च लब्ध्यपर्याप्तकोंमें - पुरुषवेदके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। भय, जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। .
___ मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। तियं चायुके, बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक संख्यातगुणे हैं।
मनुष्यगति के बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। तियंचगतिके बन्धक संख्यातगुणे हैं। दोनोंके बन्धक विशेषाधिक हैं; अबन्धक नहीं हैं। पंचेन्द्रिय जातिके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। चौइन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। त्रीन्द्रिय जातिके बन्धक संख्यातगुणे हैं। दोइन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । एकेन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। औदारिक अंगोपांग, आतप. उद्योतके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। अबन्धक जीव संख्यातणे हैं । संस्थान, संहनन, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगति, बस-स्थावरादि दस युगल तथा दो गोत्रोंके बन्धकोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यचके समान भंग जानना चाहिए।
. इसी प्रकार सर्व लब्ध्यपर्याप्तक त्रसों, सर्व एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सर्व पंचकायवालोंमें है । विशेष यह है, कि वनस्पति काय-निगोदियों में मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। तियेचायुके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । दोनों के बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। दोनोंके अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
३०६. मनुष्योंमें - ५ ज्ञानावरणके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। बन्धक जीव असं
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३३०
महाबंधे गुणा । एवं अंतराइगाणं चेव । सव्वत्थोवा चदुदंस० अबंधगा जीवा। णिहापचलाअबंधगा जीवा विसेसा० । थीणगिद्धि०३ अबंधगा जीवा संखेजगुणा । बंधगा जीवा असंखेजगुणा । णिद्दापचला-बंधगा जीवा विसेसा० । चदुदंस० बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा सादासाद-अबंधगा जीवा। साद-बंधगा जीचा असंखेजगुणा । असादबंधगा जीवा संखेजगुणा । दोण्णं बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा लोभसंजल. अबंधगा जीवा। मायासंज० अबं० जीवा विसेसा०। माणसंज० अबं० जीवा विसेसा० । कोधसंज. अबं० जीवा विसेसा० । पञ्चक्खाणावरण०४ अब० जीवा संखेज० । अपच्चक्खाणाव०४ अबं० जीवा संखेज० । अणंताणुबंधि०४ अर्ब० जीवा संखेजगु० । मिच्छ० अबं० जीवा विसेसा० । बंधगा जीवा असंखेजगुणा । अणंताणुबं०४ बंधगा जीवा विसेसा० । अपच्चक्खाणावर०४ बंधगा जीवा विसेसा० । पच्चक्खाणावर०४ बंधगा जीवा विसेसा। कोधसंज० बंधगा जीवा विसेसा। माणसंज० बंधगा जीवा विसेसा० । माया-संज० बंधगा जीवा विसेसा । लोभसंज० बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा णवण्णं णोकसायाणं अबंधगा जीवा । पुरिस० बंधगा जीवा असंखेजगुणा । सेसं तिरिक्खोघं । सव्वत्थोवा णिरयायु-बंधगा जीवा । देवायुबंधगा ख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार अन्तरायोंमें भी जानना। अर्थात् अबन्धक जीव सर्व स्तोक और बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
चार दर्शनावरणके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। निद्रा-प्रचलाके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। स्त्यानगृद्धित्रिकके अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। निद्रा-प्रचलाके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। चार दर्शनावरणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
साता, असाता वेदनीयके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। साताके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। असाताके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
__ लोभ-संज्वलनके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। माया-संज्वलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मान-संज्वलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। क्रोध-संज्वलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मिथ्यात्वके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। क्रोध-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मान-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। माया-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । लोभ-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
नव नोकषायके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंके तिर्यचोंके ओघवत् जानना चाहिए ।
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पयडिबंधाहियारो
३३१ जीवा संखेजगु० । मणुसायु-बंधगा जीवा असंखेजगु० । तिरिक्खायु-बंधगा जीवा असंखेजगुणा | चदुण्णं आयुगाणं बंधगा जीवा विसेसा० । अबंधगा जीवा संखेजगुणा । सव्वत्थोवा चदुण्णं गदीणं अबंधगा जीवा । देवगदिबंधगा जीवा संखेजगुणा। णिरयगदिबंधगा जीवा संखेजगु०। मणुसगदिबंधगा जीवा संखेज० । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा संखेज० । सवत्थोवा पंचण्णं जादीणं अबंध० जीवा । पंचिंदि० बंधगा जीवा असंखेजगुगा । सेसं बंधगा जीवा संखेजगुणा । सव्वत्थोवा आहारसरीर-बंधगा जीवा । पंचण्णा सरीराणं अबंधगा जीवा संखेजगुणा । वे उब्वियसरीरबंधगा जीवा संखेज० । ओरालि. बंधगा जीवा असंखे० । तेजाक० बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा छण्णं संठाणाणं अबंधगा जीवा । समचदु० बंधगा जीवा असंखेजगुणा। सेसं ओघ । सव्वत्थोवा आहार० अंगो० बंधगा जीवा । वे उब्धियअंगो० बंधगा जीवा संखेजगु० । ओरालि० अंगो० बंधगा जीवा असंखेजगु० । तिण्णि अंगोवंगाणं बंधगा जीवा विसेसा० । अबंधगा जीवा संखेजगु० । संघड. आदाउजो० दो विहा० दोसर० ओघं। सव्वत्थाव वण्ण०४ णिमिण-अबंधगा जीवा । बंधगा जीवा असंखेज० । सव्वत्थोवा अगु० उप०
विशेष-स्त्रीवेदके बन्धक संख्यात गुणे हैं। हास्यरतिके बन्धक संख्यातगुणे हैं । अरति शोकके बन्धक संख्यात गुणे हैं । नपुंसकवेदके बन्धक विशेषाधिक है। भय-जुगसाके बन्धक विशेपाधिक हैं।
नरकायुके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। देवायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुव्यायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तियंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। चारों आयुओंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
चारों गतिके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। देवगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । नरकगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तिथंच गतिके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। पाँचों जातिके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। पंचेन्द्रिय जाति के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष जातियों के बन्धक जीव संख्यानगुणे हैं । आहारक शरीरके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। पाँचों शरीरोंके अवन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीर के वन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुण हैं। तैजस, कार्मण के बन्धक जीव विशेपाधिक हैं। ६ संस्थानोंके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । समचतुरस्रसंस्थानके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
शेष संस्थानों में ओघवत् जानना चाहिए । अर्थात् शेपके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। आहारक अंगोपांगके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। औदारिक अंगोपांग बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तीनों अंगोपांगके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अन्यक जीव संख्यातगुणे हैं। संहनन, आतप, उद्योन, २ विहायो. गति, २ स्वरों में ओघवत् जानना चाहिए । वर्ण ४ और निर्माणके अवन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। अगुमलघु, उपघात के अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। परघात, उपवन बन्धक जीव असंख्यानगणे हैं । अबन्धक जीव संख्यानरण है। अगुरु
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३३२
महाबंध
अबंधगा जीवा । परधादुस्सा० बंधगा जीवा असंखेज्जगुणा । अबंधगा जीवा संखेञ्जगु० । अगुरु ० उप० बंधगा जीवा विसेसा | ससाणं युगलाणं ओघ -भंगो। णवरियं हि अनंतगुणं तं हि असंखेञ्जगुणं कादव्वं । सव्वत्थोवा तित्थयरबंधगा जीवा । अबंधगा जीवा असंखेजगुणा ।
।
३०७. मणुसपजत्त मणुसिणीसु एसेव भंगो। णवरि यं हि असंखेजगुणं दव्वं, तं हि संजगुणं कादव्वं । यासु सरिसताओ इमाओ पगदीओ गदिसु च जादिसु च णिरयगदि-पंचिंदिय पच्छा कादव्वा । आहारसरीरबंधगा थोवा | पंचणं सरीराणं अधगा जीवा संखेञ्जगुणा । ओरालि० बंधगा जीवा संखेज्जगुणा । वेउच्चि ० बंधगा जीवा संखेज ० | तेजाक० बंधगा जीवा विसेसा० । तसादि चदुयुगलाणं च । सव्वत्थोवा अबंधगा जीवा अप्पसत्थाणं बंधगा जीवा संखेञ्जगुणा । तसादि०४ बंधगा star संखेज्ज० । विहाय ० सरणाम तिरिक्खिणीभंगो ।
३०८. देवेसु - णिरयभंगो । एवं याव सदरसहस्सारति । किंचि : विसेसो देवो - घा याव ईसा त्ति, तं पुण इमं । सव्वत्थोवा पुरिसवे० बंधगा जीवा । इत्थवे ०
लघु, उपघात के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष युगलों में ओघ के समान भंग जानना चाहिए | इतना विशेष है कि जहाँ 'अनन्तगुणा' कहा है वहाँ 'असंख्यातगुणा' कर लेना चाहिए ।
तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । ३०७, मनुष्यपर्याप्तक, मनुष्यनियोंमें - इसी प्रकार भंग जानना चाहिए । यह विशेष है कि जहाँ असंख्यातगुणित द्रव्य कहा है, वहाँ संख्यातगुणित कर लेना चाहिए ।
जो गति और जाति नामकी समान प्रकृतियाँ हैं उनमें नरक गति और पंचेन्द्रिय जातिको पीछे कर लेना चाहिए।
विशेष- चारों गति के अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं; मनुष्यगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं; तिर्यच गतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं, नरकगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ।
पंच जातियों के अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। पंचेन्द्रियको छोड़कर शेष के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं | पंचेन्द्रियके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
आहारक शरीर के बन्धक स्तोक हैं । ५ शरीर के अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । औदारिक शरीरके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । वैक्रियिक शरीर के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तैजस, कार्मण शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
यही क्रम स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक के युगलों में भी लगा लेना चाहिए ।
स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्तक साधारण इन अप्रशस्त प्रकृतियोंके अबन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। त्रसादिक चतुष्क के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । विहायोगति, स्वर नामक प्रकृतियों में तिर्यचिनीके समान भंग जानना चाहिए ।
३०८. देवों में नारकियोंके समान भंग जानना चाहिए। यह बात शतार, सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त जाननी चाहिए। किन्तु देवोधकी अपेक्षा ईशान स्वर्ग पर्यन्त किंचित् विशेषता है वह यह है ।
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पय डिबंधाहियारो
३३३ बंधगा जीवा संखेजगुणा। हस्सरदि-बंधगा जीवा संखेज० । अरदिसोग-बंधगा जीवा संखेज० । णवूस० बंधगा जीवा विसेमा० । भयदु. बंधगा जीवा विसेसा० । सवत्थोया पंचिंदियस्स बंधगा जीवा । एइंदिय-बंधगा जीवा संखेज० । सव्वत्थोवा
ओरालि० अंगो० बंधगा जीवा। अबंधगा जीवा संखेजगुणा । संघड० आदा-उज्जो० दोविहाय दोसर० ओघभंगो । एवं विसेसो णादव्यो आणद याव णवगेवजा त्ति । सव्वत्थोवा थीणगिद्धि०३ बंधगा जीवा। अबंधगा जीवा संखेजगुणा । सेसाणं बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा मिच्छत्त-बंधगा जीवा । अणंताणुवं०४ बंधगा जीवा विसेसा० । अबंधगा जीवा संखेज्जगुणा । मिच्छत्तस्स अबंधगा जीवा विसेसा० । सेसबंधगा जीवा विसे० । सव्वत्थोवा इत्थि-बंधगा जीवा। णqसबंधगा जीवा संखेजगुणा । हस्सरदि-बंधगा जीवा संखेजगु० । अरदिसो० बंध० जीवा संखेज० । पुरिसवे०
विशेष-सौधर्म द्विक पर्यन्त एकेन्द्रिय, स्थावर, आतपका बन्ध होना है। सहस्रार पर्यन्त नियंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, तिर्यंचायु तथा उद्योतका बन्ध होता है।
पुरुषवेदके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हास्यरतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। नपुंसक वेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। भय, जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। पंचेन्द्रिय जाति के बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। एकेन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
विशेषार्थ-देवोंका विकलत्रयमें उत्पाद नहीं होता। इससे दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय चौइन्द्रिय जातिके बन्धकोंका उल्लेख नहीं है । देवोंका एकेन्द्रियमें उत्पाद होनेसे एकेन्द्रिय जातिका वर्णन किया गया है।
औदारिक अंगोपांगके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। संहनन, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, २ स्वरका ओघवत् जानना चाहिए।
आनतसे लेकर नव गवेयक पर्यन्त विशेषता निकाल लेनी चाहिए ।
विशेष-आनतादिस्वर्गों में तिथंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, तिथंचायु तथा उद्योतका बन्ध नहीं होता है। सानत्कुमारादि में एकेन्द्रिय, स्थावर तथा आतपका बन्ध नहीं होता है।
स्त्यानगृद्धित्रिकके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियों के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
मिथ्यात्व के बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक जीव संख्यातगुण हैं। मिथ्यात्वके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धक विशंपाधिक है। स्त्रीवेदके बन्धक सबसे स्तोक हैं। नपुंसक वेदके बन्धक जीव रख्यात गुणे हैं। हास्य, र तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । अरति शोकके बन्धक
१. "कप्पिथ सु ण तित्थं सदरसहस्मारगोत्ति तिरियदुर्ग ।
तिरियाऊ उज्जोवो अत्थि तदो णत्थि सदरचऊ ॥" -गो० गा०११२। २. "णि रयेव होदि देवे आईसाणोत्ति सत्त वाम छिदी। सोलस चेव अबंधा भवणतिए णस्थि तित्थयरं ॥" -गो० क०,गा० ११३ ।
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महाबंधे
३३४ बंधगा जीवा विसेसा० । भयदु० बंध. जीवा विसेसा० । मणुसायुबंध० जीवा थोवा। अबंधगा जीवा असंखेजः । णग्गोद० बंध० जीवा थोवा । सादिय० बंध० जीवा संखेजगु० । खुज० बंध० जीवा संखेज० । वामण० बंध० जीवा संखेजगु० । हुंडसं० बंध. जीवा संखेज० । समचदु० बंध० जीवा संखेज० । संघडणं संठाणभंगो । अप्पसत्थवि० भग-दुस्सर-अणादेज-णीचागोदाणं बंधगा जीवा थोवा । तप्पडिपक्खाणं बंधगा जीवा संखेज० । सेसाणं युगलाणं णिरयभंगो। तित्थयरं बंधगा जीवा थोवा । अबंधगा जीवा संखेज्ज० । अणुदिस याव सव्वट्ठ ति सव्वत्थोवा हस्सरदि बंध० जीवा । अरदिसोग-बंध० जीवा संखेज्ज० । पुरिसवे० भयदु० बंध० जीवा विसेसा० । सेसाणं युगलाणं गिरयभंगो । आयु० तित्थय० आणदभंगो । णवरि सव? आयु० बंधगा जीवा थोवा । अबंध० जीवा संखेज्ज।
३०६. पंचिंदियेसु-पंचणा० सव्वत्थोवा अबंध० जीवा। बंधगा जीवा असंजीव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेद के बन्धक विशेष अधिक हैं। भय, जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
मनुष्यायुके बन्धक जीव स्तोक हैं। अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। विशेष-आनतादि स्वर्गों में एक मनुष्यायका ही बन्ध होता है।
न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। स्वाति संस्थानके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । कुरुजकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । वामनके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हुण्डक संस्थानके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। समचतुरस्र संस्थानकें बन्धक जीव संख्यातगुगे हैं। - संहननोंमें संस्थानके समान भंग है । अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय तथा नीचगोत्रके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं।
इनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियाँ अर्थात् सुभग, सुस्वर, आदेय तथा उच्चगोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । शेष युगलों के विषयमें नरक गतिके समान भंग हैं। तीर्थकर प्रकृति के बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिमें - हास्य रतिके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । अरतिशोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेद तथा भय-जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । शेष युगलोंमें नरक गति के समान भंग हैं ।
. आयु तथा तीर्थकरके बन्धकोंमें आनत के समान भंग हैं। विशेष, सर्वार्थसिद्धिमें आयुके बन्धक सर्व स्तोक हैं । अबन्धक जीव संख्यातगणे हैं।
विशेषार्थ-सर्वार्थसिद्धिके देवोंकी संख्या संख्यात होनेसे यहाँ 'असंख्यात'का उल्लेख नहीं किया गया है। जीवट्ठाणमें उनका प्रमाण मनुष्यनीके प्रमाणसे तिगुना कहा है, 'मणुसिणिरासीदो तिउणमेत्ता हवंति' (ताम्रपत्र प्रति पृ० २८६ )। ___३०६. पंचेन्द्रियोंमें - ५ ज्ञानावरणके अबन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। बन्धक जीव
१. “सन्चट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा।" - जीव० ताम्रपत्र प्रति पृ०२८६।
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पयडिबंधाहियारो
३३५ खेज० । चदंस० अबंध० जीवा थोवा। णिहापचला-अबंध. जीवा विसेसा० । थीणगिद्धि०३ अबंध० जीवा असंखेज । बंध० जीवा असंखेज० । णिद्दा-पचलाणं बंध० जीवा विसेसा० । चदुण्णं दंसणावरणाणं बंध० जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा लोभ-संजल० अबंधगा जीवा। माया-संज० अबंध० जीवा विसेसा० । माणसंज. अबंध० जीवा विसेसा० । कोधसंज०. अबं० जीवा विसेसा० । पचक्खाणावरणी०४ अबंधगा जीवा असंखेजगुणा (?) । [ अपच्चक्खाणा०४ अबंधगा जीवा असंखेज०।] अणंताणुबंध०४ अबंध० जीवा असंखेज । मिच्छत्त-अबंध० जीवा विसेसा० । बंधगा जीवा असंखेञ्जः । एत्तो पडिलोमं विसेसाहियं । सादा-साद-पंचजादि-संठाण-संघड० वण्ण०४ अगुरु०४ आदाउजो० दोविहाय० तसादि-दसयुगल. तित्थय० दोगोद० पंचतराइगाणं मणुसोघं। मणुसायुबंधगा जीवा थोवा। णिरयायु-बंधगा जीवा असंअसंख्यातगुणे हैं । ४ दर्शनावरणके अबन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । निद्रा-प्रचलाके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। स्त्यानगृद्धित्रिकके अवन्धक जीव असंख्यातगणे हैं। बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । निद्रा, प्रचलाके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। ४ दर्शनावरण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
लोभ- संज्वलन के अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। माया-संज्वलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । मान-संज्वलन के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। क्रोध- संज्वलनके अबन्धक जीव विशेष अधिक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
विशेषार्थ-प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक सकल संयमी हैं। उनकी संख्या तीन घाटि नव कोटि प्रमाण है, अतः 'असंखेज्जगणा' के स्थानमें 'संखेज्जगुणा' पाठ सम्यक् प्रतीत होता है।
अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
विशेषार्थ-अप्रत्याख्यानावरण ४ के प्रबन्धक देशसंयमी तेरह करोड़ प्रमाण कहे गये हैं। उनसे अधिक तियं च पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । (गो० जी०,गा० ६२४)
अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मिथ्यात्वके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
इससे विपरीत क्रम विशेष अधिकका शेष बन्धकोंमें लगाना चाहिए अर्थात् अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीवोंमें विशेषाधिकका क्रम जानना चाहिए तथा क्रोध, मान, माया तथा लोभ संज्वलनमें विशेषाधिककी योजना प्रत्येकमें करनी चाहिए।
- साता, असाता, पंचजाति, ६ संस्थान, ६ संहनन, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, त्रसादि दस युगल, तीर्थकर, दो गोत्र, ५ अन्तरायोंके बन्धकोंमें मनुष्योंके ओघवत् जानना चाहिए।
१. सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृष्टयोऽसंयतसम्यग्दृष्टयः संयतासंयताश्च पल्योपमासंख्येयभागप्रमिताः । -स० सि०,पृ. १३ ।
मिच्छा सावय-सासण-मिस्साऽविरदा दुवारणंता य । पल्लासंखेज्जदिममसंखगुणं संखसंखगुणं ॥-गो० जी०, गा०६२४ ।
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महाबंधे
खेज० । देवायु-बंधगा जीवा असंखेज० । तिरिक्खायुबंधगा जीवा असंखेज० । चदुण्णं आयुगाणं बंधगा जीवा विसेसा० । अबंधगा जीवा संखेजगुणा । सव्वत्थोवा चदण्णं गदीणं अबंधगा जीवा.। देवगदि बंध० जीवा असंखेज। णिरयगदि-बंधगा जीवा संखेजगु० । मणुसगदिबंधगा जीवा असंखेज । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा संखेजः । सव्वत्थोवा आहारस० बंध० जीवा । पंचण्णं सरीराणं अबंधगा जीवा संखेज्जगुणा । वेउवि० बंध० जीवा असंखेजगुणा। ओरालि. बंध० जीवा असंखेजगुणा । तेजाकम्मइ-बंधगा जीवा विसेमाहिया। आहार अंगो० बंधगा जीवा थोवा । वेउब्बि० अंगो० बंधगा जीवा असंखेज । ओरालि० अंगो० बंधगा जीवा असंखेज० । तिण्णं अंगोवंगाणं बंधगा जीवा विसेसाहिया । अधगा जीवा संखेजगुणा। गदिभंगो आणुपुव्वीए।
३१०. पंचिंदिय पज्जत्तगेसु-एसेव भंगो। गवरि आयु. पंचिंदिय-तिरिक्खपज्जत्तभंगो। चदुगदिअबंधगा जीवा थोवा । देवगदिबंधगा जीवा असंखेजगुणा । मणुसगदिबंधगा संखेजगुणा । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा संखेजगुणा (?) णिरयगदिबंधगा जीवा संखेजगुणा । चदुण्णं गदीणं बंधगा जीवा विसेसा० । पंचजादीणं अवंधगा जीवा थोवा । चदुरिंदियबंधगा जीवा असंखेजगुणा । तीइंदि० बंध० जीवा संखेज० ।
__ मनुष्यायुके बन्धक जोव स्तोक हैं । नरकायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तिर्यंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। चारों आयुओंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अवन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
४ गतिके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। देवगतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। नरकगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तिर्यंचगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। आहारक शरीर के बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। पाँचों शरीराके अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। तैजस, कार्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। आहारक अंगोपांगके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। औदारिक शरीर अंगोपांगके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तीनों अंगोपांगके बन्धक जीव विशेषाधिक है। अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। आनुपूर्वीमें गतिके समान भंग जानना चाहिए।
३१०. पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में ऐसे ही (पंचेन्द्रिय समान ) भंग जानना चाहिए । विशेष यह है कि आयुके बन्धक जीवोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तकके समान भंग करना चाहिए। चारों गतिके अबन्धक जीव स्तोक हैं । देवगतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तियंचगतिके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। नरकगतिके बन्धक जीव संख्यात गुणे हैं। चारों गतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। पाँचों जातिके अबन्धक जीव स्तोक हैं। चौइन्द्रिय जातिके बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। त्रीन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यात गुणे हैं। दो इन्द्रिय जातिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
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पयडिबंधाहियारो
बीइंदि० बंधगा जीवा असंखेजः । एइंदियबंधगा जीवा संखेज० । पंचिंदिय-बंधगा जीवा संखेजगुणा (१) आहारस० बंध० जीवा थोवा । पंचणं सरीराणं अबंधगा जीवा संखेजगुणा । ओरालि० बंध० जीवा असंखेन्ज । वेउन्वि० बंधगा जीवा संखेज । तेजाक० बंध० जीवा विसेसाहिया । आहारस० अंगो० बंधगा जीवा थोवा । ओरालि. अंगो. बंधगा जीवा असंखेजः । तिणि अंगो० अबंधगा जीवा संखेज० । वेउन्वि० अंगो० बंधगा जीवा संखेज. । तिण्णं अंगोवंगाणं बंधगा जीवा विसेसाहिया। [तस] थावरादि०४ अबंधगा जीवा थोवा । [थावरादि ] बंधगा जीवा असंखेजगुणा। तसादि४ बंधगा जीवा संखेजगुणा । थिरादि६ युगल-दोगोदाणं अबंधगा थोवा । थिरादिछक्क-उच्चगोदाणं च बंधगा असंखेजगुणा । तप्पडिपक्खाणं बंधगा जीवा संखेजगुणा । णवरि दोविहा० दोसर० पंचिंदिय-तिरिक्ख-पजत्तभंगो। एवं विसेसो तसेसु पंचिंदियोघं । णवरि पञ्जत्तगेसु तिरिक्खायुबंधगा जीवा संखेज्जगुणा । णामस्स सव्वत्थोवा चदुगदि-अबंधगा जीवा । देवगदिबंधगा जीवा असंखेज्जगुणा। मगुसगदि-बंध० जीवा संखेजः । णिरयगदि-बंधगा जीवा संखेज्जगु० । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा संखेन्ज । पंचण्णं जादीणं अबंधगा जीवा थोवा । चदुरिंदियबंधगा असंखेज्जगुणा। तीइंदियबंधगा जीवा संखेज्ज०। बीइंदिय-बंधगा जीवा संखेन्ज । पंचिंदियएकेन्द्रियके बन्धक जीव संख्यातगुगे हैं। पंचेन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं (?)।
आहारक शरीरके बन्धक जीव स्तोक हैं। पाँचों शरीरोंके अबन्धक जीव संख्यातगणे हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तैजस, कार्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
___आहारक शरीरांगोपांगके बन्धक जीव स्तोक हैं। औदारिक अंगोपांगके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तीनों अंगोपांगके अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तीनों अंगोपांगके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। [स] स्थाव. रादि चतुष्कके अबन्धक जीव स्तोक हैं। [स्थावरादिके ] बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। त्रसादिचतष्कके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। स्थिरादि छह युगल, २ गोत्रोंके अबन्धक जीव स्तोक हैं। स्थिरादिषट्क तथा उच्च गोत्रके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं अर्थात् अस्थिरादि षट्क तथा नीच गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। विशेष यह है कि २ विहायोगति, २ स्वरोंके विषयमें पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्तकके समान भंग जानना चाहिए।
त्रस जीवोंमें-पंचेन्द्रियके ओघवत् विशेषता जाननी चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ पर्याप्तकोंमें तिथंचायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
नामकर्मसम्बन्धी चार गतियोंके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। देवगतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। नरकगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तियंचगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पाँचों जातियोंके अबन्धक जीव स्तोक हैं। चौइन्द्रिय जातिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। त्रीन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। दोइन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पंचेन्द्रिय जातिके बन्धक
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३३८
महाबंधे
बंधगा जीवा संखेज्ज० । एइंदिय-बंध० जीवा संखेज्जगुणा । तस-थावरादि चदुयुगलं [अ]बंधगा जीवा थोत्रा । तसादि०४ बंधगा जीवा असंखेज्ज । थावरादि४ बंधगा जीवा संखेज्जगु० । एदेण बीजेण णेदव्वं । पंचमण. तिण्णिवचि. छण्णं कम्माणं पंचिंदियभंगो। गवरि वेदणी० अबंधा गस्थि । मणुसायु: बंधगा जीवा थोवा। णिरयायुबंधगा जीरा असंखेजगुगा। देवायुबंधगा जीवा असंखज्ज। तिरिक्खा सुबंधगा जीवा असंखज्ज०। चदुआयु-बंधगा जीवा विसेसा० । अबंधगा जीवा संखज्जगुणा। चदुण्णं गदीणं अबंधगा जीवा थोवा । णिरयगदिबंधगा जीवा असंखज्ज । देवगदिबंधगा जीवा असंखेज्ज । मणुसगदिबंधगा जीवा संखेज्ज । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा संखेजगु० । चदुण्णं गदीणं बंधगा जीवा विसेसा० । पंचणं जादीणं अबंधगा जीवा थोवा। चदुरिदिय-बंध० जीवा असंखेज्ज। तीइंदिय-बंधगा जीवा संखेज० । बीइंदि० बंधगा जीवा संखेज्ज । पंचिंदिय० बंधगा जीवा असंखेन । एइंदिय० बंधना जीवा संखेन्ज । पंचणं जादीणं बंधगा जीवा विसेसा० । पंवगं सरीराणं अबंधगा जीवा थोत्रा । आहारस० बंधगा जीवा संखेज्ज। वेउधिय. बंधगा जोवा असंखेज० । ओरालि० बंधगा जीवा संखेज्जगुणा । तेजाक. जीव संख्यातगुणे हैं । एकेन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
स-स्थावरादि चार युगल के [अ]बन्धक जीव स्तोक हैं। सादि चारके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। स्थावरादि ४ के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इस बीजसे अर्थात् इस ढंगसे अन्य प्रकृतियों में जानना चाहिए ।
विशेष-त्रस-स्थावरादि चार युगलके समान शेष बचे स्थिर, शुभ, सुभगादि युगलोंका वर्णन जानना चाहिए।
५ मनोयोगी, ३ वचनयोगियोंमें ६ कोंके बन्धक जीवोंमें पंचेन्द्रियके समान भंग निकालना चाहिए । विशेष यह है कि वेदनीयके अबन्धक नहीं हैं।
मनुष्यायुके बन्धक जीव स्तोक हैं । नरकायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तिर्य चायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। चारों आयुके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
चारों गति के अबन्धक जीव स्तोक हैं। नरक गातके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवगतके बन्धक जीव असंख्यातगणे हैं। मनुष्य गतिके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। तियंचगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। चारों गतिके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं।
___पाँचों जातिके अबन्धक जीव रतोक हैं। चौइन्द्रिय जातिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। त्रीन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। दोइन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पंचेन्द्रिय जातिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। एकेन्द्रिय जाति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । पाँचों जातियोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
पाँचों शरीरके अबन्धक जीव स्तोक हैं। आहारक शरीरके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव
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asबंधाहियारो
३३९
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बंधा जीवा विसेसाहिया । संठाणं अंगोवं० संघड० वण्ण०४ आदा-उज्जो० दोविहाय० तसथावरादिछयुगल- णिमिण- तित्थयर० पंविदियभंगो । गदिभंगो आणुपुव्वि० । अगु० उप० अ० जीवा थोवा । परधादुस्सा० अबंधगा जीवा असंखेज ० | बंधगा जोवा असंखेज्ज • । अगु० उप० बंधगा जोवा विसेसा० । सव्वत्थोवा बादरादि- तिष्णियुगाणं अबंधगा जीवा । सुहुमादितिष्णिबंधगा जीवा असंखेज्ज | बादरादि-तिण्णि बंधा जीवा असंखेज्जगु० । दोष्णं बंधगा जीवा विसेसा० ।
०
३११. वचिजोगि-असच्चमोसवचि ० तसपज्जत्तभंगो। काजोगोसु ओरालियका०ओघभंगो, किंचि विसेसा० (सो० ) । ओरालिय- मिस्से - सव्वत्थोवा छमणा० अबंधगा जीवा । थी गिद्ध३ अबंधगा० संखेज ० । अबंधगा (बंधगा) जीवा अनंतगु० । दंसणा बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा बारसक० अबंधगा जीवा । अणंताणु ०४ अबंधगा० संखेज० | मिच्छ० अबंधगा जीवा असंखेज ० । बंधगा जीवा अगुगा । अतानुबंध - ४ बंधगा ० विसेसा० । बारसक० बंधगा० जीवा विसेसा० ।
०
संख्यातगुणे हैं । तैजस, कार्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
संस्थान, अंगोपांग, संहनन, वर्ण ४, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, त्रस-स्थावर तथा स्थिरादि ६ युगल, निर्माण और तीर्थंकर के बन्धकों में पंचेन्द्रियके समान भंग जानना चाहिए । आनुपूर्वी गतिके समान जानना चाहिए ।
अगुरुलघु, उपघातके अबन्धक जीव स्तोक हैं। परघात, उच्छ्वासके अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । बन्धक जीव असंख्यात गुणे । अगुरुलघु उपघातके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
बादरादि तीन युगलों के अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । सूक्ष्मादि तीनके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । बादरादि तीनके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
३११. वचनयोगी, असत्यमृषा वचनयोगी अर्थात् अनुभय वचनयोगी में त्रस पर्याप्तकके समान भंग हैं ।
काययोगियों तथा औदारिक काययोगियोंमें - ओघके समान भंग है । किन्तु उसमें जो विशेषता है उसे जानना चाहिए ।
औदारिक मिश्र में - ६ दर्शनावरणके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । स्त्यानगृद्धित्रिक के अन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक के अबन्धक ( बन्धक) जीव अनन्तगुणे हैं । ६ दर्शनावरणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
विशेष - द्वितीय बार आगत स्त्यानगृद्धित्रिक के अबन्धक के स्थान में बन्धकका पाठ उपयुक्त प्रतीत होता है ।
अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कषायके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । मिथ्यात्व के अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । बारह कषायके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
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३४०
महाबंधे तिणं गदी] [अ]बंधगा जीवा थोवा । देवगदिबंधगा जीवा संखेज० । मणुसगदिबंधगा जीवा अणंतगुणा । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा संखेज्जगुणा । तिण्णि गदीणं बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा चदुण्णं सरीराणं अबंधगा जीवा । वेउव्वियसरीरं बंधगा जीवा संखेज्जः । ओरालि. बंधगा० अणंतगु० । तेजाक० बंधगा. विसेसा० । वेउब्धिय अंगो० बंधगा जीवा थोवा । ओरालि० अंगो० बंधगा जीवा अणंतगु० । दोण्णं बंधगा जीवा विसे० । अबंधगा जीवा संखेन्ज । गदिभंगो आणुपुन्छि । सेसं ओघं ।
३१२. वेउब्वियका० वेउब्धियमि० देवोघं । ३१३. आहार० आहारमि० सव्वट्ठभंगो।
३१४. कम्मइ० ओरालिय-मिस्स-भंगो। णवरि सव्वत्थोवा छदसणा० अबधगा जीवा । थीणगिद्धि३ अबंधगा जीवा असंखे० । बंधगा जीवा अणंतगुणा । छदसणा० बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा बारसक० अबंधगा जीवा । अणंताणुबंधि०४ अबंधगा जीवा असंखेजगुणा । मिच्छ० अबंधगा जीवा विसेसाहिया । बंधगा जीवा अणंतगु० । अणंताणुवं०४ बंधगा जीवा विसेसा० । वारसक० बंध० जीवा
तीन गति के[अ] बन्धक जीव स्तोक हैं। देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति के बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। तिर्यच गतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तीनों गतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
विशेष—यहाँ नरकगतिका बन्ध नहीं होता है। इस कारण तीन गतियोंका वर्णन किया गया है।
चारों शरीरके अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव संख्यात. गुगे हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जोव अनन्तगुणे हैं । तैजस कार्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं
वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धक जीव स्तोक हैं। औदारिक अंगोपांगके बन्धक जीव अनन्तगणे हैं। दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ।
आनुपूर्वी में गतिके समान भंग कहना चाहिए। शेष प्रकृतियोंमें ओघवत् जानना चाहिए।
३१२. वैक्रियिक काययोगी और वैक्रियिक मिश्रयोगीमें देवोंके ओघवत् जानना चाहिए।
३१३. आहारक काययोगी और आहारक मिश्रयोगीमें सर्वार्थसिद्धिके समान भंग हैं।
३१४. कार्मण काययोगियोंमें - औदारिक मिश्र काययोगीके समान भंग कहना चाहिए। विशेष यह है कि ६ दर्शनावरणके अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। स्त्यानगृद्धि ३ के अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। ६ दर्शनावरणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। १२ कषायके अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । मिथ्यात्वके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । १२ कषायके बन्धक जीव विशेषाधिक
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पडबंधाहियारो
३४१
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विसेसा० । सव्वत्थोवा तिष्णं गदीणं अबंधगा जीवा । देवगदि-बंधगा जीवा संखेज्ज० । मग दिबंधगा जीवा अणंतगु० । तिरिक्वगदिबंधगा जीवा संखेज्जगुणा । एदेण कमेण णेदव्वं ।
}
O
३१५. इत्थि वेद ० - सव्वत्थोवा णिद्दापचलाणं अबंधगा जीवा । थीण गिद्धि ३ अधगा जीवा असंखेज्ज० । बंधगा जीवा असंखेज्ज० णिद्दापचलाणं बंधगा जीवा विसेसा० । चदुदंसण० बंधगा जीवा विसेसा० । वेदणीयं मणभंगो। सव्वत्थोवा पच्चक्खाणा० चदु० अबंधगा जीवा । अपच्चक्खाणा०४ अबंधगा जीवा असंखेज्ज० । अता ०४ अधगा जीवा असंखेज्ज० । मिच्छत्त-अबंध० जीवा विसेसा० | बंधगा जीवा असंखेज्ज० । अनंताणु ०४ बंध० जीवा विसेसा० । अपच्चक्खाणा ०४ बंधगा जीवा विसेसा० । पञ्चक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसेसा० । चदुसंजलग-बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा पुरिसवेद-बंधगा जीवा । इत्थिवेद-बंधगा जीवा संखेज्जगु० । इस्सर दि-बंधगा जीवा संखेज्जगु० । अरदिसोग-बंधगा जीवा संखेज्ज० । ण स ० बंधा जीवा विसा० । भय-दुगुं० बंधगा जीवा विसेसा० । गत्रणोक० बंधगा जीवा विसेसा० । आयुचदुक्क-पंचिंदि० - तिरिक्ख-पजत्तभंगो । सव्वत्थोवा चदुष्णं गदीणं
हैं। तीनों गतिके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । मनुष्यगतिके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । तिर्यंचगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इस क्रमसे अन्यत्र जानना चाहिए।
विशेष- - इस योग में नरकगतिका बन्ध नहीं होता है ।
३१५. स्त्री वेद में - निद्रा, प्रचलाके अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं । स्त्यानगृद्धि त्रिकके अबन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं । बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । निद्रा, प्रचलाके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। चारों दर्शनावरणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
विशेष - यहाँ दर्शनावरण ४ के अबन्धक जीव नहीं पाये जाते । वे उपशान्तकषाय गुस्थान में पाये जाते हैं ।
वेदनीयके बन्धक जीवों में मनोयोगी के समान भंग हैं ।
प्रत्याख्यानावरण ४के अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४के अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । अनन्तानुबन्धी ४ के अबन्धक जीव असंख्यात गुगे हैं। मिथ्यात्व के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । बन्धक जीव असंख्यात गुगे हैं । अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । ४ संज्वलन के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
पुरुषवेदके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं । स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । अरति शोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । नपुंसक वेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। भय, जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । नोकत्रायके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । ४ आयुके बन्धकों में पंचेन्द्रिय तिर्यंचपर्याप्तकका भंग जानना चाहिए ।
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महाबंधे
३४२ अबंधगा जीवा । देवगदिबंधगा जीवा असंखेज्ज० । णिरयगदिबंधगा जीवा संखेज। मणुसगदिबंधगा संखेज्ज० । तिरिक्खगदिवंधगा जीवा संखेज्जगुणा । चदुण्णं गदीणं बंधगा जीवा विसे० । सव्वत्थोवा पंचजादि-अबंधगा जीवा । चदुरिंदिय-बंधगा जीवा असंखेज० । तीइंदि० बंध० जीवा संखेज० । बीइंदिय-बंधगा जीवा संखेज० । एइंदि० बंधगा जीवा संखेन्ज । पंचजादीणं बंधगा जीवा विसेसाहिया। पंचसरीर० छसंठाणं तिण्णि-अंगो० छस्संघ० दोविहा० दोसरं मणजोगिभंगो। सव्वत्थोवा अगु० उप० अबंधगा जीवा । परघादुस्सा० अबंध० जीवा असंखेज । बंधगा जीवा संखेजः । अगुरु० उप० बंधगा जीवा विसेसा० । तसथावरादि पंचयुगल-तित्थयर-दोगोदाणं मणजोगिभंगो। णवरि जस-अजस० दोगोदाणं साधारणेण अबंधगा पत्थि। सव्वस्थोवा बादरादि-तिण्णि-युगल-अबंधगा जीवा । सुहुमादितिण्णि युगल (१) बंधगा जीवा असंखेज । बादरादि-तिण्णि युगल (१) बंधगा जीवा संखेजगुणा । एवं पुरिसवे० । णqसगवे. ओघभंगो । णवरि विसेसो वि इत्थिवेदेण साधिजदि। अवगद
चारों गति के अबन्धक जाव सर्वस्तीक हैं। देवगति के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। नरक गतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तिर्यच गति के बन्धक जीव संख्यातेगुणे हैं। चारों गतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।।
पंच जातियोंक अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। चौइन्द्रिय जातिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । त्रीइन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। दो इन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । एकन्द्रिय जाति के बन्धक जाव संख्यातगुणे हैं। पाँचों जातियोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
विशेष-यहाँ पंचेन्द्रिय जांतिके बन्धकोंका प्रमाण वर्णन करनेसे छूट गया प्रतीत होता है।
५शरीर, ६ संस्थान, ३ अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरके बन्धक जीवोंमें मनोयोगियोंके समान भंग जानना चाहिए।
अगुरुलघु, उपघातके अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। परघात, उच्छ्वासके अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अगुरुलघु, उपघातके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
स, स्थावर, स्थिरादि ५ युगल, तीर्थकर,२ गोत्रके विषयमें मनोयोगियों में समान भंग हैं। विशेष यह है कि यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति तथा दोनों गोत्रोंके सामान्यसे अबन्धक नहीं हैं। बादरादि तीन युगलके अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। सूक्ष्मादि तीन युगल (?) के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। बादरादि तीन युगल (?) के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
विशेष-यहाँ सूक्ष्मादि तीन तथा बादरादि तीनके बन्धकोंके साथमें युगल शब्द अधिक प्रतीत होता है। कारण सूक्ष्मादि तीन युगलके ही अन्तर्गत बादरादि तीन प्रकृतियाँ हैं, एवं बादरादि तीन युगलमें सूक्ष्मादि तीन प्रकृतियाँ हैं।
पुरुषवेदमें-स्त्रीवेदके समान भंग है। ___ नपुंसकवेदमें-ओघवत् भंग है। विशेष, स्त्रीवेदसे जो विशेषता हो, उसे निकाल लेना चाहिए।
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पयडिबंधाहियारो
३४३ वेदेसु-सव्वत्थोवा पंचणा० बंधगा० । अबंधगा जीवा अणंतगुणा । एवं चदुदंसणा०, साद० जस० उच्चगो० पंचंत० । सव्वत्थोवा कोध-संजल० बंधगा । माण-संजल. बंधगा जीवा विसेसा० । माया-संज. बंधगा जीवा पिसेमा० । लोभसंज० बंध० जीवा विसेसा० । तस्सेव अबंधगा जीवा अणंतगुणा। मायासंज. अबंधगा जीवा विसे । माण-संज० अबं० जीवा विसे० । कोध-संज० अबंध० जीवा विसेसा० ।।
३१६. कोधे-णqसकभंगो। णवरि णव णोकसायं ओघं। माणे-सव्वत्थोवा कोध-संज० अ० जीवा । सेसं ओघं । णवरि कोध बंधगा जीवा विसे । माण-मायलोभ-संजलणबंधगा जीवा विसेसा । मायाए-सव्वत्थोवा माणसंज० अबं० जीवा । सेसं माणकसाइ-भंगो। णवरि मायलोभसंज. बंधगा जीवा विसे । लोभे-मोह० ओघं । सेसं कोधभंगो । अफसाइ-सबत्योवा साद-बंध० । अबंधगा जीवा अणंतगु० । एवं केवलणा० केवलदंसणा० ।
___३१७. मदि० सुद०-सव्वत्थोवा मिच्छत्त-अबंधगा जीवा । बंधगा जीवा
- अपगतवेदियोंमें-५ ज्ञानावरणके बन्धक जाव सर्वस्तीक हैं। अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार ४ दर्शनावरण, साता वेदनीय, यश कीति, उच्चगोत्र और ५ अन्तरायों के बन्धकों,अबन्धकोंमें भी जानना चाहिए।
क्रोध-संज्वलनके बन्धक जीव सवस्तोक हैं। मान संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। माया-संज्वलन के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। लोभ-संघलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। लोभ संज्वलन के अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। माया-संज्वलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मान-संज्वलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। क्रोध संचलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
३१६. क्रोध में नपुंसकवेदके समान जानना चाहिए। विशेष यह है कि ९ नोकषायोंके बन्धकोंमें ओघवत् जानना चाहिए।
मानमें-क्रोध-संज्वलनके अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। शेष प्रकृतियों में ओघवत् जानना चाहिए। विशेष, क्रोधके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मान, माया, लोभ संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
___ मायामें-मान-संचलनके अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। शेष प्रकृतियों में मान-कषायियोंके समान भंग जानना । विशेष यह है कि माया, लोभ संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
लोभमें-मोहनीयके प्रकृतियोंमें ओघके समान भंग है। शेष प्रकृतियोंमें क्रोधके समान भंग हैं।
अकषाय जीवोंमें-साता वेदनीयके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं । अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार केवलज्ञानी, केवलदर्शनवाले जीवोंमें जानना चाहिए ।
३१७. मत्यज्ञान, श्रुताज्ञानमें-मिथ्यात्वके अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं।
विशेषार्थ-मत्यज्ञान तथा श्रुताज्ञान में मिथ्यात्व तथा सासादन गुणस्थान पाये जाते
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महाबंधे
३४४ अणंतगुणा । सोलसक० बंधगा जीवा विसेसा० । सेसं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मत्त-संयुत्तं णत्थि । विभंगे-सव्वत्थोवा मिच्छत्त-अ० जीवा। बंधगा जीवा असंखेजः। सोलसक० बंधगा जीवा विसेसा० । दोवेदणी० णवणोक० छस्संठाण छस्संघ० दोविहा० तसथावरादि छयुगलाणं दोगोद० देवोघ-भंगो। सम्बत्थोवा मणुसायु-बंधगा जीवा । णिरयायु-बंधगा जीवा असंखेजगु० । देवायु-बंधगा जीवा असंखेजः । तिरिक्खायु-बंध० जीवा असंखेज० । चदुण्णं आयुबंधगा जीवा विसे० । अबंधगा जीवा संखेज० । णिरयगदि-बंध. जीवा थोवा। देवगदि-बंध० जीवा असंखेजः । मणुसगदि बंधगा जीवा असंखेज० । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा संखेञ्जः । चदुण्णं गदीणं बंधगा जीवा विसेसा० । एवं आणुपु० । चदुरिंदिय-बंधगा जीवा थोवा । तीइंदियबंधगा जीवा संखेज। बीइंदिय-बंधगा जीवा संखेज०। पंचिंदि० बंध० जीवा असंखेज० । एइंदिय-बंधगा जीवा संखेज०। पंचजादीणं बंधगा जीवा विसेसा० । वेउव्वियसरीरबंधगा जीवा थोवा । ओरालि० बंधगा जीवा असंखेज० । हैं। मिथ्यात्वके अबन्धक सासादन गुणस्थानकी अपेक्षा कहे गये हैं। मिथ्यात्वके बन्धक अनन्तगुणे कहे गये हैं, क्योंकि मिथ्यात्वी जीवोंकी संख्या अनन्त है। परिमाणानुगममें कहा है-"मिच्छत्तस्स बंधगा अणंता"।
सोलह कषाय के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियों के बारेमें तिर्यचोंके ओघसमान जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ सम्यक्त्व के साथ बँधनेवाली प्रकृतियोंका अभाव है।
विशेष-तीर्थकर तथा आहारकद्विकका सम्यक्त्वके साथ ही बन्ध होता है। अतः यहाँ इनका बन्ध न होगा।
विभंगज्ञानियों में-मिथ्यात्वके अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। सोलह कषायक बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। २ वेदनीय, ६ नोकषाय, ६ संस्थान, ६ संहनन, २ विहायोगति, त्रस-स्थावर स्थिरादि ६ युगल तथा दो गोत्रों में देवोंके ओघवत् भंग हैं।
मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। नरकायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तियंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। चारों आयुके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
नरकगतिके बन्धक जीव स्तोक हैं । देवगति के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । मनुष्यगतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तियेचगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। चारों गतिके बन्धक जीव विशेष
इसी प्रकार आनुपूर्वियोंमें जानना चाहिए ।
चौइन्द्रिय जाति के बन्धक जीव स्तोक हैं । त्रीइन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। द्वीन्द्रिय जातिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पंचेन्द्रिय जातिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । एकेन्द्रियके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। ५ जातियों के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव स्तोक हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यात
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पर्याडबंधा हियारो
३४५
1
तेजाक० बंध० जीवा विसे० । सव्वत्थोवा वेउन्वि० अंगो० बंधगा जीवा । ओरालि० अंगो० बंधगा जीवा असंखेज० । दोण्णं अंगो० बंधगा जी० विसेसा० । अबंधगा जीवा असंखेज ० । परघादुस्सा० अबंध० जीवा थोवा । बंधगा जीवा असंखेज० । अगु० उप० बंधगा जीवा विसेसा० । आदावुञ्जव-देवोघं । सव्वत्थोवा सुहुमादितिणि बंधगा जीवा । तप्पडिपक्खाणं बंधगा जीवा असंखेजगुणा । दोष्णं बंधगा जीवा -विसेसा० । आभि० सुद० अधि० - सव्वत्थोवा पंचणा० अबंधगा जीवा । बंधगा जीवा असंखेज ० । एवं अंतराइगं । सव्वत्थोवा चदुदंस० अबं० जीवा । णिद्दापचलाअबं० जी० विसेसा० । बंधगा जीवा असंखेज्जगु० । चदुदंस० बंध० जीवा विसेसा० । दोवेदणी० देवोधं । सव्वत्थोवा लोभसंज० अबं० जीवा । मायासंज० अ० जीवा विसेसा० । माणसंज० अ० जीवा विसेसा० । कोधसंज० अ० जीवा विसेसाहिया । पच्चक्खाणावर०४ अबंध० जीवा संखेज० । अपच्चक्खाणावर०४ अबंध० जीवा असंखेजगु० | बंध० जीवा असंखेज ० । पच्चक्खाणा०४ बंध० जीवा विसेसा० । कोधसंज० बंध० जीवा विसेसा० । माणसंज० बंध० जीवा विसे० । मायासंज० बंध०
हैं। कर्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं । औदारिक अंगोपांगके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। दोनों अंगोपांगके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक जीव असंख्यातहैं।
विशेषार्थ - आहारकद्विकका बन्ध अप्रमत्त गुणस्थान में होनेसे यहाँ उनका वर्णन नहीं किया गया है ।
परघात, उच्छ्वासके अबन्धक जीव स्तोक हैं । बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । अगुरुलघु, उपघातक बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। आतप, उद्योतके विषय में देवोघवत् जानना चाहिए । सूक्ष्मादि ३ के बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। इनके प्रतिपक्षी बादरादि ३ के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
आभिनिबोधक, श्रुत, अवधिज्ञान में ५ ज्ञानावरणके अबन्धक जीव स्तोक हैं। बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। ऐसा ही अन्तराय वर्णन जानना चाहिए अर्थात् अबन्धक जीव सर्वतोक है और बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
४ दर्शनावरण के अबन्धक जीव सबसे कम हैं। निद्रा, प्रचलाके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। इसके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । ४ दर्शनावरणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
दो वेदनीयके बन्धक, अबन्धक जीवों में देवोघवत् जानना ।
लाभ-संज्वलन के अबन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । माया-संज्वलन के अबन्धक जीव विशेष अधिक हैं। मान-संज्वलन के अबन्धक जीव इनसे कुछ अधिक हैं । क्रोध-संज्वलन के अबन्धक जीव विशेष अधिक हैं । प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के अवन्धक जीव असंख्यात गुगे हैं तथा बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं । प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । क्रोध-संज्वलन के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । मान-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । माया-संज्वलनके बन्धक जोव
४४
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३४६
महाबंधे जीवा विसे० । लोभसंज. बंध० जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा सत्तणोक० अबंधगा जीवा । हस्सरदिबंधगा जीवा असंखेजगु० । अरदिसोग-बंधगा जीवा विसेसा० । भयदुगुच्छाबंधगा जीवा विसेसा० । लोभसंज. बंधगा जीवा विसेसा० । सपत्थोवा सत्तणोक० पुरिस० बंधगा जीवा विसेसा० । मणुमायु-बंधगा जीवा थोवा । देवाउगं बंधगा जीवा असंखेजः । दोण्णं बंधगा जीवा विसे० । अबं. जीवा असंखेजः । दोणं गदीगं अबंध० जीवा थोवा । देवगदि-बंधगा जीवा असंखेज० । मणुसगदिबंधगा जीवा असंखेज० । दोणं बंध. जीवा विसेमा० । सम्वत्थोवा पंचिंदि० समचदुर० बजरिसभ-संघ० वण्ण०४ अगुरु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदे०णिमिण-उच्चागोदाणं अबंधगा । बंध. जीवा असंखेज। पंचसरी० अबंधगा जोवा थोवा । आहारसरीर-बंधगा जीवा संखेज्जगु० । वे उन्विय० बंधगा जीवा असंखेज्ज । ओगलि० बंधगा जीवा असंखेज्जः। तेजाक. वंधगा जीवा विसेमा० । सम्बत्योवा तिण्णि-अंगो० अबंधगा जीवा । आहार. अंगो० बंधगा जीवा संखेज० । वेउब्धिय० विशेषाधिक हैं । लोभ-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
__सात नोकषायके अबन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। हास्य-रतिके बन्धक जीव असंख्यातगुगे हैं। अरति शोकके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। भय-जुगुःसाके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । पुरुषवेद के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
विशेषार्थ-नपुंसकवेदके बन्धक मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती है। स्त्रीवेदके बन्धक सासादन पर्यन्त हैं। अतः इस सम्यक्ज्ञानके वर्णनमें उक्त वेदद्वयको छोड़कर सात नोकषायका कथन किया गया है।
मनुध्यायुके बन्धक जीव स्तोक हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुगे हैं। दोनों के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
विशेषार्थ-नरकायुकी बन्धव्युच्छित्ति मिथ्यात्व गुगस्थानमें होती है। तिर्य चायुकी सासादनमें बन्ध व्युच्छित्ति कही है, इससे यहाँ इन दो आयुआंका कथन नहीं किया गया है।
दोनों गतिके अबन्धक जीव स्तोक हैं। देवगतिके बन्धक जीव असंख्यातगगे हैं। मनुष्य गतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
पंवेन्द्रिय जाति, समचतुरस्र संस्थान, वनवृषभसंहनन, वर्ण ५, अगुम्लघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और उच्च गोत्रके अबन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
५ शरीरके अबन्धक जीव स्तोक हैं। आहारक शरीरके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । औदारिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तैजस, कार्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
तीनों अंगोपांगके अबन्धक जीव सबसे कम हैं। आहारक अंगोपांगके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। औदारिक अंगोपांगके
* एतचिह्नान्ततिः पाठोऽधिकः प्रतिभाति ।
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पयडिबंधाहियारो
३४७ अंगो० बंधगा जीवा असंखेजः । ओरालि० अंगो० बंधगा जीवा असंखेजः । तिण्णं बंधगा जीवा विसे | थिरादि-तिण्णि-युगलं पंकिंदिय-भंगो। तित्थयरं बंधगा जीवा थोवा । अबंधगा जोवा असंखेज० । एवं ओधिदंस० । मणपजवणा० ओधिभंगो। णरि असंखेजगदीओ णस्थि । संखेज्जगुणं कादव्वं ।
३१८. एवं संजद० वेदणीयमणुसिभंगो।।
३१६. सामाइ० छेदो०- सव्वत्थोवा मायासंज. अबं० जीवा । माणसंज० अबं० जीवा विसेसा० । कोधसंज. अबं० जीवा विसेसा० । बंधगा जीवा असंखेज. (?) माणसंज० बंधगा जीवा विसेसा० । मायासंज. बंधगा जीवा विसे० । लोभसंज० बंधगा जीवा विसे० । सेसाणं किंचि विसेसेण मणपजत्रभंगो ।
३२०. परिहार०-आहारकाजोगिभंगो। णवरि आहारदुर्ग अस्थि । सुहुमसंपराबधा असंख्यातगुणे हैं । तीनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
स्थिरादि ३ युगलोंका पंवेन्द्रियके समान भंग जानना चाहिए ।
तीर्थकरके बन्धक जीव स्तोक हैं । अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अवधि-दर्शनमें जानना चाहिए । मनःपर्ययज्ञानमें अवधिज्ञान के समान भंग है। विशेष यह है कि यहाँ मनःपर्ययज्ञानमें असंख्यातगुणी संख्यावाली प्रकृति नहीं है। उनके स्थानमें संख्यातगुणेका पाठ करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि मनःपययज्ञान में संख्यातगुणका क्रम लगाना चाहिए।
"मणपज्जवणाणी दवपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा" ( दव्वपमाणाणुगम सूत्र १२४, १२५) । इस कारण यहाँ संख्य तगुणे करनेका विशेष कथन किया गया है।
३८. इसी प्रकार संयममार्गणामें जानना चाहिए । वेदनीयका मनुष्यनीके समान भंग है। अर्थात् साता-असाताके. अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। साताके बन्धक संख्यातगुणे हैं। असाताके बन्धक संख्यातगुणे हैं । दोनोंके बन्धक विशेषाधिक हैं।
३१६. सामायिक छेदोपस्थापना संयममें - माया-संज्वलनके अबन्धक जीव सबसे कम हैं। मान-संज्वलनके अबन्धक जाव विशेषाधिक हैं। क्रोध-संज्वलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । क्रोध संबलनके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं ( ? ) मान-संचलनके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। माया-संचलनके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। लोभ-संज्वलनके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष प्रकृतियोंमें कुछ विशेषताके साथ मनःपर्ययज्ञानके समान भंग हैं।
विशेषार्थ'खुदाबन्ध में इन संयमियोंकी संख्या 'कोडि पुधत्तं' - कोटि पृथक्त्व कही है (सू०१२६ द० प्र०)। इससे क्रोध-संग्वलनके बन्धक 'असंख्यातगुणे'के स्थानमें 'संख्यातगुणे'
होना चाहिए।
३२०. परिहार विशुद्धि संयममें - आहारक काययोगीके समान भंग है। विशेष, इस संयममें आहारकद्विकका बन्ध पाया जाता है।
... विशेष - परिहारंविशुद्धि संयममें आहारकद्विकके उदयका विरोध है, बन्धका नहीं है।'
१. "मणपज्जवपरिहारे णवरि ण संढित्यिहारदुगं ।" -गो० क०,३२७ ।
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३४८
महाबंधे इयस्स-णस्थि अप्पाबहुगं । यथाक्खादस्स-अबंधगा जीवा थोवा । बंधगा जीवा संखेज्जगुणा । संजदासंजदा-परिहारभंगो। णवरि थोवा देवायु-तित्थयर-बंधगा जीवा । अबंधगा जीवा असंखेजः । असजद-तिरिक्खोघं । णवरि अपच्चक्खाणावरणस्स अर्ब धगा णत्थि । तित्थयरं ओघं ।
३२१. चक्खुदंस०-तसपञ्जत्तभंगो। अचक्खुदं० ओघं । णवरि एदेखि दोणं विसेसो णादव्यो।
३२२. तिण्णिलेस्सा-असंजदभंगो। तेऊए-सव्वत्थोवा थीणगिद्धि३ अब०। बंधगा जीवा असंखेज० । छदसण. बंधगा जीवा विसेसा० । दोवेदणी० णवणोक० छस्संठाणछसंघ० आदाउज्जो० दोविहा० तसथाव० थिरादिछयुगं दोगोदं देवोघं । सव्वत्थोवा पच्चक्खाणा०४ अबंधगा जीवा । अपञ्चक्खाणा०४ अबंध० जीवा असंखेज० । अपंता
सूक्ष्मसाम्परायमें अल्पबहुत्व नहीं है।
विशेष-यहाँ ज्ञानावरण ५, अन्तराय ५, दर्शनावरण ४, यशःकीर्ति, उच्च गोत्र तथा सातावेदनीयका बन्ध होता है। इनके बन्धकोंमें होनाधिकपनेका अभाव है। यहाँ इन १७ प्रकृतियोंका बन्ध सबके पाया जायेगा।
यथाख्यातसंयम में अबन्धक जीव स्तोक हैं । बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
विशेषार्थ-यथाख्यात संयम उपशान्त कषायसे अयोगी जिन पर्यन्त पाया जाता है। अयोगी जिनको छोड़कर शेष जीवोंके साता वेदनीयका ही बन्ध होता है। अयोगी जिन ५६८ कहे गये हैं । ये अबन्धक हैं । इनकी अपेक्षा बन्धक संख्यातगुणे कहे हैं।
संयतासंयतोंमें-परिहारविशुद्धिके समान भंग है। विशेष, देवायु तथा तीर्थकरके बन्धक स्तोक हैं। अबन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। असंयममें-तियंचोंके ओघवत् हैं। विशेष, यहाँ अप्रत्याख्यानावरणके अबन्धक नहीं हैं। तीर्थकर प्रकृतिका ओघवत् जानना चाहिए।
विशेषार्थ-असंयममें अप्रत्याख्यानावरणका बन्ध होता है। इससे उसके अबन्धकका निषेध किया है।
३२१. चक्षुदर्शनमें-त्रस पर्याप्तकके समान भंग हैं।
अचभुदर्शनमें- ओघवत् जानना चाहिए । विशेष यह है कि इन दोनोंमें जो विशेषता है उसे जान लेना चाहिए।
विशेषार्थ-चक्षुदर्शन त्रसोंके ही होता है । चक्षुदर्शनी असंख्यात कहे हैं । अचक्षुदर्शन स्थावरोंके भी होता है । अचक्षुदर्शनी अनन्त हैं। (खु० ब०, द्र० प्र० सू० १४१, १४४)
३२२. कृष्णादि तीन लेश्यामें-असंयतके समान भंग हैं।
तेजोलेश्यामें-स्त्यानगृद्धिके अबन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । ६ दर्शनावरण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
२ वेदनीय, ६ नोकषाय, ६ संस्थान, ६ संहनन, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, त्रस, स्थावर, स्थिरादि ६ युगल तथा २ गोत्रका देवोधके समान समझना चाहिए।
प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव सबसे कम हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के अब
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पयडिबंधाहियारो णुवं०४ अबंधगा जीवा असंखेज्ज० । मिच्छत्त ० अबं० जीवा विसेसा० । बंधगा जीवा असंखेज० । अणंताणु०४ बंधगा जीवा विसेसा० । अपचक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसेसा० । पच्चक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसेसा० । चदुसंज. बंधगा जीवा विसेसा० । सव्वत्थोवा मणुमायु-बंधगा जीवा । तिरिक्खायु-बंधगा जीवा असंखेज० । देवायुबंधगा जीवा विसेसा० । तिण्णि बंधगा जीवा विसेसा० । अबं० जीवा असंखेजः । एवं चिंतिञ्जदि । एवं पुण परिज्जदि । सम्वत्थोवा मणुसायु-बंधगा जीवा । देवायु-बंधगा जीवा असंखेज । तिरिक्खायु-बंधगा जीवा असंखेन । तिण्णं बंधगा जीवा विसेसा०। अबंधगा जीवा संखेजः । देवगदि-बंधगा जीवा थोवा । मणुसगदिवंधगा जीवा संखेज० । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा संखेज० । तिण्णं गदीणं बंधगा जीवा विसे० । एवं आणुपुवि० । पंचिंदिय-बंधगा जीवा थोवा । एइंदिय-बंधगा जीवा संखेजगु० । दोण्णं बंधगा जीवा विसे० | आहारस० बंधगा जीवा थोवा । वेउवियबंधगा जीवा न्धक जीव असंख्यानगुणे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कक अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मिथ्यात्वके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। इसके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। चारों संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
विशेषार्थ-संज्वलनके अबन्धक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें होते हैं । तेजोलेश्या देशविरतित्रिकमें पायी जाती है, इस कारण इस लेश्या में संज्वलनके अबन्धक नहीं कहे है ।
__ मनुष्यायुके बन्धक जीव सबसे कम हैं। तियंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तीनों आयुके बन्धक जीव विशेषाधिक है। अबन्धक जीव असंख्यातगुण है।
विशेष-अशुभत्रिक लेश्यामें नरकायुका बन्ध होता है । इस लेश्या में नरकायुका बन्ध नहीं होता है।
यह चिन्तनीय है तथा ऐसा समझमें आता है कि मनुष्यायुके बन्धक जीव सबसे कम हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तिर्यंचायुके बन्धक जोव असंख्यातगुणे हैं । तीनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ।
विशेष-आयुके विषयमें दो प्रकार की प्रतिपादना सम्भवतः दो परम्पराओंको बताती है।
देवगतिके बन्धक जीव स्तोक हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तिर्यच. गति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तीनों गति के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
इसी प्रकार आनुपूर्वीमें भी जानना चाहिए ।
पंचेन्द्रियके बन्धक जीव स्तोक हैं। एकेन्द्रियके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
विशेषार्थ-शंका-तेजोलेश्यामें जब द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रियके बन्धकोंका कथन नहीं है, तब यहाँ एकेन्द्रियके बन्धकका निषेध क्यों नहीं किया गया ?
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३५०
महाबंधे असंखे० । ओरालि० बंध० जीवा संखेजः । तेजाक० बंधगा जीवा विसेसा० । तिण्णं अंगो० एवं चेव । णवरि तिण्णं अंगो० बंधगा जीवा विसे। अबं० जीवा संखेज। एवं पम्माए। णवरि थोवा इथिवेदाणं बंध० जीवा । णवुस० बंधगा जीवा संखेज। हस्सरदि-बंधगा जीवा असंखेज० । अरदिसोग-बंधगा जीवा संखेजः । पुरिस० बंधगा जीवा विसेसा० । भयदु० बंधगा जीवा विसेसा० । मणुसायु-बंधगा जीवा थोवा । तिरिक्खायु-बंधगा जीवा असंखेज० । देवायु-बंधगा जीवा विसे० । तिण्णं बंधगा जीवा विसे० । अबंधगा जीवा असंखेज० । मणुसगदि-बंधगा जीवा थोवा । तिरिक्खगदिबंधगा.जीवा संखेज० । देवगदि-बंधगा जोवा असंखेजः । तिण्णं बंधगा जोवा विसे । एवं आणुपुवि० । सव्वत्थोवा आहारस० बंधगा जीवा। ओरालि० बंधगा जीवा असंखेज० । वेउब्धि० बंधगा जीवा असंखेज्जः। तेजाक० बंधगा जीवा विसे० । एवं अंगो० । सव्वत्थोवा णग्गोदपरि० बंधगा जीवा । सादियसं० बंधगा जीवा संखेज० । खुजसं० बंधगा जीवा संखेज्ज । वामणसं० बंधगा जीवा संखेज० ।
समाधान-सौधर्म,ईशान स्वर्ग तक के देव तेजोलेश्याधारी होते हुए विकलत्रयमें जन्म न ले, एकेन्द्रिय पर्याय प्राप्त करते हैं, इस कारण यहाँ एकेन्द्रियके बन्धक कहे गये हैं। ऐसी आगमकी आज्ञा है।
आहारक शरीरके बन्धक जीव स्तोक हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। औदारिक शरीर के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तैजस, कार्मणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
तीनों अंगोपांगमें ऐसा ही है, किन्तु तीनों अंगोपांगके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
पद्मलेश्यामें इसी प्रकार जानना चाहिए । यहाँ इतना विशेष है, स्त्रीवेदके बन्धक जीव स्तोक हैं। नपुंसकवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य-रतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । अरति-शोकके बन्धक जाव संख्यात पुणे हैं । पुरुषवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। भय-जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
मनुष्यायुके बन्धक जीव स्तोक हैं । तियंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । देवायु: के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तीनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अबन्धक जीव असं. ख्यातगुणे हैं।
__ मनुष्यगतिके बन्धक जीव स्तोक हैं । तियं चगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। देव. गतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तीनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
इसी प्रकार आनुपूर्वी में भी समझना चाहिए।
आहारक शरीरके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । औदारिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तैजस, कार्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
इसी प्रकार अंगोपांगमें भी समझना चाहिए ।
न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानके बन्धक जीव सबसे कम हैं। स्वातिकसंस्थानके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । कुब्जकसंस्थानके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वामनसंस्थानके बन्धक
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पडबंधाहियारो
३५१
०
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हुंडठाण - गंधगा जीवा संखेज० | समचदुर० बंधगा जीवा असंखेज ० । छष्णं बंधगा जीवा विसेसा० । वज्ञरिसभ संघ० बंधगा जीवा थोवा । वञ्जणाराच० बंधगा जीवा संखेज० । उवरि संखेज्जगुणं कादव्वं । छस्संघड० बंधगा जीवा विसेसा० । अबंधमा जीवा असंखेज्ज० । उज्जोव - तित्थय बंधगा जीवा थोवा । अबंधगा जीवा असंखेज० । अप्पसत्थवि० दुर्भाग- दुस्सर-अणादे० - णीचागो० बंधगा जीवा थोवा । तप्पडिपक्खं बंधा जीवा असंखेज्ज० । दोष्णं बंधगा जीवा विसेसा० । थिरादि तिष्णि-युगलं देवोघं । सुक्काए - पंचणा० पंचिंदि० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमि० पंचतराइगाणं अबंधगा जीवा थोत्रा । बंधगा जीवा असंखेज्ज० । चदुदं० अबंधगा जीवा थोत्रा । णिद्दापचला० अबंधगा जीवा विसेसाहिया । थीणगिद्धि ३ [ अ ] बंधगा जीवा असंखेज ० । बंधगा जीवा संखेज्जगुणा । णिद्दा पचला-बंधगा जीवा विसे० । चदुदं० बंधा जीवा विसेसा० । वेदणीयं देवोघं । लोभ-संज० अबंधगा जीवा थोवा । मायासंज० अ० जीवा विसे० | माण संज ० अ० जीवा विसे० । कोध संज० अ० जीवा विसे० | पच्चक्खाणा०४ अबं० जीवा संखेज० । अपच्चक्खाणा०४ अबं० जीवा असंखेज्ज० । मिच्छत्त-अबंधगा जीवा असंखेज० । अनंत ०४ [ अ ]बंधगा जीवा
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जीव संख्यातगुणे हैं । हुण्डकसंस्थान के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । समचतुरस्र संस्थान के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। छहों संस्थानोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
वज्रवृषभसंहननके बन्धक जीव स्तोक हैं । वज्रनाराचसंहननके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। आगे संहननोंमें संख्यातगुणे अधिकका क्रम लगाना चाहिए। छह संहननोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
उद्योत, तीर्थंकर के बन्धक जीव स्तोक हैं । अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके बन्धक जीव स्तोक हैं । इनके प्रतिपक्षी प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्र के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
I
स्थिरादि ३ युगलों का देवोघ के समान जानना चाहिए ।
शुक्ल लेश्या में - ५ ज्ञानावरण, पंचेन्द्रिय जाति, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४, निर्माण और ५ अन्तरायके अबन्धक जीव स्तोक हैं । बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
४ दर्शनावरणके अवन्धक जीव स्तोक हैं। निद्रा, प्रचलाके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । स्त्यानगृद्धित्रिक के [अ]बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । निद्रा प्रचलाके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । ४ दर्शनावरणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । वेदनीयका देवो के समान जानना चाहिए ।
लोभ-संज्वलनके अबन्धक जीव स्नोक हैं । माया-संज्वलन के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । मान-संज्वलन के अबन्धक जीव विशेष अधिक हैं। क्रोध संज्ञलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मिथ्यात्व के अवन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
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३५२
महाबंधे विसेसा० । अबंधगा (बंधगा) जीवा संखेजगुणा । मिच्छत्त-अबंधगा (?) बंधगा जीवा विसेसा० । अपचक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसे० । पचक्खाणावरण० बंधगा जीवा विसे० । कोषसंज० बंधगा जीवा विसे० । माणसंज. बंधगा जीवा विसे० । मायासंज० बंधगा जीवा विसेसा० । लोभसंज. बंधगा जीवा विसे० । सव्वत्थोवा णवणोक० अबंधगा जीवा । इत्थिवे. बंधगा जीवा असंखेज० । णवुमक० बंधगा जीवा संखेज० । हस्सरदि-बंधगा जीवा संखेज्ज० । अरदिसोग-बंधगा जीवा संखेजगुणा। पुरिसवे० बंधगा जीवा विसेसा० । भयदु० बंधगा जीवा विसे । सव्वत्थोवा मणुमायुबंधगा जीवा । देवायु-बंधगा जीवा विसेसा० । दोण्णं बंधगा जीवा विसेसा० । अबंधगा जीवा असंखेज० । सव्वत्थोवा दोण्णं गदीणं अबंधगा जीवा । देवगदि-बंधगा जीवा असंखेज । मणुसगदि-बंधगा जीवा असंखेज्जः । दोण्णं गदीणं बंधगा जीवा विसेसा०। पंचण्णं सरीराणं अबंधगा जीवा थोवा । आहारस० बंध० जीवा संखेज० । वेउवियबंधगा जीवा असंखेजगुणा । ओरालि० बंध० जीवा असंखेजः । तेजाक० बंधगा जीवा विसे । एवं अंगो०। सम्वत्थोवा लस्संठा० अबं० जीवा । णग्गोद बंधगा जीवा असंखेज० । सादिय-बंधगा जीवा संखेजगु० । खुज्जसं० बंधगा जीवा संखेज०।
अनन्तानुबन्धी ४ के [अ] बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । इनके अबन्धक (बन्धक) जीव संख्यातगुणे हैं । मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। क्रोध-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मान-संघलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। माया-संचलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। लोभ-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
नव नोकषायके अबन्धक जीव सबसे कम हैं। स्त्रीवेद के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। नपुंसकवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य-रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अरतिशोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेढके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। भय, जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
मनुष्यायुके बन्धक जीव सबसे कम हैं। देवायुके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
दोनों गति ( देव-मनुष्यगति ) के अबन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। देवगतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। दोनों गतियोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। . पाँचों शरीरके अबन्धक जीव स्तोक हैं। आहारक शरीरके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तैजस, कार्मणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। इसी प्रकार अंगोपांगमें भी जानना।
६ संस्थानोंके अबन्धक जीव सबसे कम हैं । न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। स्वातिक संस्थानके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। कुब्जकके बन्धक जीव
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पयधाहियारो
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बामणवं० जीवा संखेज० । हुंडसं० बंध जीवा संखेज्ज० । समचदु० बंधगा जीवा संखेज ० ० । छष्णं बंधगा जीवा विसेसा० । एवं छस्संघ० । दोविहा० सुभगादि - तिण्णियुगल-णीचुच्चागो० अ० जीवा थोवा । अप्पसत्थवि० दूभग दुस्सर अणादे० णीचागो० बंगा जीवा असंखेज ० । तप्पडिपक्खाणं बंधगा जीवा संखेज ० । थिरादितिष्णियुग० मणभंगो | सव्वत्थोवा तित्थयरबंधगा जीवा । अबंधगा जीवा संखेज्ज० । भवसिद्धि०ओघं । अब्भवसिद्धिया-मदिभंगो । णवरि मिच्छत्त अबंधगा जीवा णत्थि ।
३२३. सम्मादिट्ठीसु -- सव्वत्थोवा पंचणा० पंचिंदि० समचदु० वज्जरिसभ० वण्ण०४ अगुरु०४ पसत्थविहा० तस०४ सुभगादितिष्णियु० णिमिण- तित्थय ० उच्चागो० पंचत• बंधगा जीवा । अबंध० अनंतगुणा । सव्वत्थोवा णिद्दापचला-बंधगा जीवा । चदुदंस० बंधगा जीवा विसेसा० । अबं० अणंतगुणा । णिद्दापचला अबंधगा जीवा विसेसा० । साद-बंधगा जीवा थोवा । असाद-बंधगा जी० संखेज्ज० | दोणं बंधगा ater विसेमा० । अधगा जीवा अनंतगु० । अपच्चक्खाणा०४ बंध० जीवा थोवा । संख्यातगुणे हैं। वामन संस्थानके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हुण्डकसंस्थान के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । समचतुरस्रसंस्थान के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। छहों संस्थानोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
I
इस प्रकार ६ संहननमें जानना चाहिए ।
२ विहायोगति, सुभगादि ३ युगल, नीच तथा उच्चगोत्रके अबन्धक जीव स्तोक हैं । अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, नीच गोत्रके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनके प्रतिपक्षी प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय तथा उचगोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्थिरादि ३ युगलों में मनोयोगियोंके समान भंग हैं।
तीर्थकर प्रकृति के बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । भव्यसिद्धिकोंमें ओघवत् जानना चाहिए। अभव्यसिद्धिकों में - मत्यज्ञानके समान जानना चाहिए। विशेष, मिथ्यात्व के अबन्धक जीव नहीं हैं ।
३२३. सम्यग्दृष्टियोंमें—५ ज्ञानावरण, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभसंनन, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभगादि तीन युगल, निर्माण, तीर्थकर, उच्च गोत्र, ५ अन्तरायके बन्धक जीव स्तोक हैं। अबन्धक अनन्तगुणे हैं ।
निद्रा, प्रचलाके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । ४ दर्शनावरणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । इनके अबन्धक अनन्तगुणे हैं । निद्रा, प्रचलाके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
साताके बन्धक जीव स्तोक हैं। असाताके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं ।
विशेषार्थ - साता तथा असाताके अबन्धक अयोगकेवली अल्पसंख्या युक्त हैं । यहाँ अबन्धक जीव अनन्तगुणे कहे गये हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि होते हुए वेदनीयका अबन्धकपना अनन्त सिद्धों में भी पाया जाता है । 'खुद्दा बन्ध में सम्यक्त्व मार्गणा में अल्पबहुत्व का कथन करते हुए सिद्धांकी अनन्तराशिका वर्णन किया गया है, "यथा सम्मत्ताणुवादेण सव्वत्थोवा सम्मा-मिच्छाइट्ठी । सम्माहट्टो श्रसंखेजगुणा, सिद्धा श्रणंतगुणा, मिच्छाइट्ठी अनंत गुणा” ( सू० १८२ - १६२ ) ।
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महाबंधे
पच्चक्खाणा ०४ बंधगा जीवा विसे० । कोध-सं० बं० जी० विसे० । माणसंज० बंध० जी० विसेसा० । मायासंज० बंध० जी० विसेसा० । लोभसंज० बंधगा जीवा विसे० | अबंध अनंतगुणा | मायासं० अबं० जीवा विसे० । माणसंज० अबं० जीवा विसेसा०| 1 कोधसंज० अ० जीवा विसे० । पञ्चक्खाणा ०४ अबं० जीवा विसे० । अपच्चक्खाणा ०४ अवं० जीवा विसेसा० । हस्सर दि-बंधगा जीवा थोवा । अदसोग-बंधगा जीवा संखेजगुणा । भयदु० बंध० जीवा विसे० । पुरिस-वे० बंधगा जीवा विसे० । अबंध अनंतगुणा । भयदु० अ० जीवा विसे० । अरदिसोग- अबं० जीवा विसे० । हस्रदि - अ० जी० विसे० | मणुसायुबंधगा जीवा थोवा । देवायु-बंधगा जीवा असंखेज्ज० । दोष्णं बंधगा जीवा विसे० । अबंध० जीवा अनंतगुणा | देवग दि-बं० जीवा थोवा | मणुसग दि-बंधगा जीवा असंखेज० । दोष्णं बंध० जीवा विसे० । अनं० अतगुणा । एवं दो आणुपुच्चि ० । आहारसरी० बंधगा जीवा थोवा । वेउब्वि० बंधगा जीवा असंखेज० । ओरालि० बंधगा जीवा असंखेज्ज० । तेजाक० बंधगा जीवा विसेसा० । अबंधगा जीवा अनंतगुणा । एवं तिण्णि अंगो० । थिरादि-तिष्णियुगलं
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३५४
अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव स्तोक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। क्रोध -संज्वलन के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मान-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । माया-संज्वलन के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। लोभ-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। इसके अबन्धक अनन्तगुणे हैं । माया-संज्वलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मान-संज्वलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। क्रोध -संज्वलन के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
हास्य, रतिके बन्धक जीव स्तोक हैं । अरतिशोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । भयजुगुप्सा के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । पुरुषवेद के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । भय, जुगुप्साके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अरति, शोकके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । हास्य, रतिके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
बन्धक जीव स्तोक हैं । देवायुक्रे बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। दोनों के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं ।
विशेषार्थं - यहाँ नरकायु तथा तिर्यंचायुका कथन नहीं किया गया है, कारण नरकायुकी बच्छित्ति मिथ्यात्व गुणस्थानमें तथा तिर्यंचायुकी बन्धव्युच्छित्ति सासादन गुणस्थान में होती है ।
देवगतिके बन्धक जीव स्तोक हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। दोनोंबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । इनके अबन्धक अनन्तगुणे हैं ।
इसी प्रकार दो आनुपूर्वी ( देवमनुष्यानुपूर्वी ) में भी जानना चाहिए ।
आहारक शरीर के बन्धक जीव स्तोक हैं। वैक्रियिकशरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । औदारिकशरीर बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तैजस, कार्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अवन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार ३ अंगोपांगमें भी जानना चाहिए ।
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पयडिबंधाहियारो वेदणीय-भंगो। एवं खइग-सम्मा० । णवरि थोवा देवायु-बंधगा जीवा । मणुसायुबंधगा जीवा विसे । सव्वत्थोवा अपच्चक्खाणा०४ बंधगा जीवा । पच्चक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसे । एवं चदुसंजल० बंधगा जीवा विसे० । अबं० अणंतगुणा । सेसं पडिलोमेण भाणिदव्वं । हस्सरदि-बंधगा जीवा थोवा । अरदिसोग-बंधगा जीवा संखेज। भयदु० बंधगा जीवा विसे० । पुरिसवेद-बंधगा जीवा विसे० । अबं० अणंतगुणा । सेसं पडिलोमेण भाणिदव्वं । वेदगे-सव्वत्थोवा पञ्चक्खाणा०४ अबंधगा जीवा । अपच्चक्खाणा०४ अबंधगा जीवा असंखेज । बंधगा जीवा असंखेजगुणा । पञ्चक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसे० । चदुसंज. बंधगा जीवा विसे० । सम्वत्थोवा हस्सरदि-बंधगा जीवा । अरदिसोग-बंधगा जीवा संखेज० । भयदु० पुरिसवे. बंधगा जी० विसे० । मणुसायु-बंधगा जीवा थोवा । देवायु-बंधगा जीवा असंखेज० । दोण्णं बंधगा जीवा विसे० । अबं० जीवा असंखेजः । देवदि-बंधगा जीवा थोवा । मणुसगदि-बंधगा स्थिरादि ३ युगल के बन्धकोंमें वेदनीयके समान भंग जानना चाहिए ।
क्षायिकसम्यक्त्वमें - इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि देवायके बन्धक स्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक विशेषाधिक हैं। ___अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। इसी प्रकार ४ संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अबन्धक अनन्तगुणे हैं।
शेष भंग प्रतिलोमसे जानना चाहिए, अर्थात् प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं, अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
हास्य, रतिके बन्धक जीव स्तोक हैं। अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। भय, जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। शेष भंगमें प्रतिलोमसे जानना चाहिए अर्थात् भय, जुगुप्साके अबन्धक जोव विशेषाधिक हैं। अरति-शोकके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। हास्य-रतिके अबन्धक जीव भी संख्यातगुणे हैं ।
वेदकसम्यक्त्वमें - प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जाव असंख्यातगुणे हैं। बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। ४ संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
विशेष-संज्वलनचतुष्कके अबन्धक जीवोंका यहाँ वर्णन नहीं किया गया। कारण वेदकसम्यक्त्व ४ से ७ वें गुणस्थान तक पाया जाता है, और संचलन क्रोध, मान, माया, लोभको बन्धव्युच्छित्ति आनवृत्तिकरणमें होती है। अतः वेदकसम्यक्त्वकी अपेक्षा संज्वलन ४ के अबन्धक जीवका अभाव होनेसे वर्णन नहीं किया गया।
हास्य-रतिके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। अरति-शोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। भय-जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। पुरुषवेद के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
मनुष्यायुके बन्धक जीव स्तोक हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
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महाबंधे असंखेज० । दोण्णं बंधगा जीवा विसे० । एवं दो आणुपुब्बि० । आहार० बंधगा जीवा थोवा । वेउब्बिय० बंधगा जीवा असंखेज० । ओरालि० बंधगा असंखेजः । तेजाक. बंधगा जीवा विसे । एवं तिण्णि अंगोवंग । वारिसभ-संघ ओधिभंगो । सेसं युगलं देवोघं । उवसमसं०-ओधिभंगो। सासणे-वेदणीय-पंचसंठा० उज्जोव-दोविहाय० थिरादि-छयुग० दोगोदं णिरयोघं । सव्वत्थोवा पुरिसवे. बंधगा जीवा । हस्सरदिबंधगा जीवा विसे० । इथिवे. बंधगा जीवा संखेज० । अरदिसोग-बंधगा जीवा विसे । भयदु० बंधगा जीवा विसे० । मणुसायु-बंधगा जीवा थोवा । देवायु-बंधगा जीवा असंखेन्ज । तिरिक्खायु-बंधगा जीवा असंखेज० । तिण्णं बंधगा जीवा विसे । अबं० जोवा असंखेजः । देवगदि-बंधगा जीवा थोवा। मणुसगदि-बंधगा जीवा असंखेज० । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा संखेजः। तिण्णं बंधगा जीवा विसे० । एवं आणुपुव्वि० । देउब्वियस० बंधगा जीवा थोवा । ओरालि० बंधगा जीवा असंखेज।
देवगतिके बन्धक जीव स्तोक हैं । मनुष्यगति के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक है।
इसी प्रकार दोनों आनुपूर्वियोंमें भी जानना चाहिए।
आहारक शरीरके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव असं. ख्यातगुणे हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तैजस-कार्मण शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। इसी प्रकार तीनों अंगोपांगमें भी जानना चाहिए। वज्रवृषभनाराच-संहननमें अवधिज्ञानके समान भंग है। शेष युगलोंमें देवोंके ओघ समान जानना चाहिए।
उपशमसम्यक्त्वमें अवधिज्ञानके समान भंग जानना चाहिए। सासादनसम्यक्त्व मेंवेदनीय, ५ संस्थान, उद्योत, २ विहायोगति, स्थिरादि ६ युगल, २ गोत्रके बन्धकों में नरकके ओघवत् जानना चाहिए।
पुरुषवेदके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। हास्य-रतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। अरति-शाक के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। भयजुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
मनुष्यायुके बन्धक जीव स्तोक हैं । देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तियंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तीनांके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। इनके अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
विशष-नरकायुका मिथ्यात्वगुणस्थान तक बन्ध होनेसे यहाँ उसका अभाव है।
देवगति के बन्धक जीव स्तोक हैं । मनुष्यगति के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तिर्यच. गतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तीनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
इसी प्रकारका क्रम आनुपूर्वी में भी जानना चाहिए।
बैंक्रियिक शरीरके बन्धक जीव स्तोक हैं। औदारिक शरीर के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तैजस, कार्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। इसी प्रकार अंगोपांगमें भी जानना चाहिए।
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पयडिबंधा हियारों
३५७
तेजाक० बंधगा जीवा विसे० । एवं अंगोवंग० । पंच संघ० अबंधगा जीवा थोवा । वञ्जरिसभ० बंधगा जीवा असंखेज० । उवरि संखेज्जगुणा । पंचणं बंधगा जीवा विसे० । सम्मामिच्छे-वेदणी० सत्तणोक० दोग दि-दो- सरीर- दोअंगो० वञ्जरिसभ० थिरादितिष्णियुगलं वेद [ग]भंगो | मिच्छादिट्ठि असण्ण-अन्भव सिद्धिय-भंगो ।
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३२४. सण्णी - मणजोगि-भंगो। आहार- ओघभंगो । अणाहार० - पंचणा० पंचंत ० aur०४ णिमि० अबंधगा जीवा थोवा । बंधगा जीवा अनंतगुणा । छदंस० अबंधगा जीवा थोक | थीणगिद्धि३ अबंधगा जीवा विसे० । बंधगा जीवा अणंतगु० । छर्दस० बंधगा जीवा विसे० | सेसं ओघं । णवरि थोवा देवगदि-बंधगा । तिष्णं गदीणं अधगा जोत्रा अनंतगुणा | मणुमगदि-बंधगा [ जीवा अणंतगुण] तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा ० संखेअ० । तिण्णं बंधगा जीवा विसे० । एवं आणुपुच्त्रि ० | अंगो० कम्मइगभंगो । एवं सत्थाण- जीव- अप्पा बहुगं समत्तं ।
1
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५ संहननके अबन्धक जीव स्तोक हैं। वज्रवृषभनाराचसंहननके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । वज्रनाराच, नाराच आदि संहननों के बन्धक जीवोंमें संख्यातगुणित क्रम जानना चाहिए । पाँचों संहननोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
विशेष - हुण्डक संस्थानकी बन्धव्युच्छित्ति प्रथम गुणस्थान में होनेसे उसका वर्णन नहीं हुआ ।
सम्यक्त्व-मिथ्यात्व में, २ वेदनीय, ७ नोकषाय, २ गति, २ शरीर, २ अंगोपांग, वावृषभसंहनन, स्थिरादि ३ युगलमें वेदकसम्यक्त्वके समान भंग जानना चाहिए । मिथ्यादृष्टि तथा असंज्ञा में अभव्यसिद्धिकों का भंग जानना चाहिए ।
३२४. संज्ञा में - मनोयोगियोंका भंग जानना चाहिए। आहारक में - ओघवत् भंग हैं। अनाहारकों में - ५ ज्ञानावरण, ५ अन्तराय, वर्ण ४, निर्माणके अबन्धक जीव स्तोक हैं । इनके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । ६ दर्शनावरणके अबन्धक जीव स्तोक हैं । स्त्यानगृद्धि त्रिकके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । ६ दर्शनावरणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंमें ओघवत् हैं । विशेष यह है कि देवगतिके बन्धक जीव स्तोक हैं। तीनों गति के अन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। मनुष्य गतिके बन्धक [अबन्धगुणे हैं ] तिर्यचगतिके बन्धक जीव संख्यातगुगे हैं। तीनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
विशेष - अनाहारकों में नरकगतिके बन्धकोंका अभाव है, इससे उसकी यहाँ परिगणना
इसी प्रकार आनुपूर्वी में भी जानना चाहिए। अंगोपांगमें कार्मण काययोगके समान भंग जानना चाहिए ।
इसी प्रकार स्वस्थान-जीव अल्प-बहुत्वका वर्णन समाप्त हुआ ।
१. “महाराणुवादेण सम्वत्थोवा अणाहारा अबंधा । बंधा अनंतगुणा ।" - खु० बं०, अप्पा० सू० २०३, २०४ । २. "सग्णियाणुवादेण सम्वत्योत्रा सण्णी । णेत्र सण्णी, णेव असण्णी अनंतगुणा । असण्णी अनंतगुणा । - सू० २०० - २०३ ।
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[ परत्थाण -जीव-अप्पा-बहुगपरूवणा । ३२५. परत्थाण-जीव-अप्पा-बहुगाणुगमेण दुविहो गिद्देसो। ओघेण, आदेसेण य।
३२६. तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा आहारसरीर-बंधगा जीवा । तित्थयर-बंधगा जीवा असंखेजगुणा । मणुसायु-बंधगा जीवा असंखेज० । णिरगायु-बंधगा जीवा असंखेजगुणा । देवायु-बंधगा जीवा असंखेजगुणा। देवगदि-बंधगा जीवा संखेञ्जः । णिरयगदिबंधगा जीवा संखेज० । वेउवि० बंधगा जीवा विसे । तिरिक्खायु-बंधगा जीवा अणंतगुणा । उच्चागोद-बंधगा जीवा संखेज० । मणुस-गइ-बंधगा जीवा संखेज०। पुरिस० बंधगा जीवा संखेज० । इस्थिवे. बंधगा जीवा संखेज० । जसगित्तिबंधगा जी० संखेज० । हस्सरदि-बंधगा जीवा संखेज० । साद-बंधगा जीवा विसे० । असादअरदिसो० बंधगा जीवा संखेज० । अजस० बंधगा जीवा विसे० | णम० बंधगा० जीवा विसे । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा विसे । णीचागो० बंधगा जीवा विसे ।
[परस्थान-जीव-अल्प-बहुत्व] ३२५. अब परस्थान जीव अल्पबहुत्व अनुगमका ओघ और आदेशसे दो प्रकार वर्णन करते हैं।
विशेषार्थ-स्वस्थान जीव-अल्पबहुत्व प्ररूपणामें बन्धक तथा अबन्धक जीवोंका कथन किया गया है। इस परस्थान जीव अल्पबहुत्व प्ररूपणामें बन्धकोंका ही कथन किया गया है। परस्थान जीव अल्पबहुत्व प्ररूपणामें स्वस्थान प्ररूपणाके समान कथन न करके सामान्य रूपसे सभी कर्मों के बन्धकोंका अल्पबहत्वके आधारपर कथन किया गया है। इसमें सजातीय तथा भिन्नजातीय प्रकृतियोंका यथायोग्य मिला हुआ वर्णन पाया जाता है।
३२६. ओघकी अपेक्षा आहारक शरीरके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। तीर्थकर प्रकृति के बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यायुके' बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। नरकायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। देवगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। नरकगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तियंचायुके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । मनुष्यगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। यश कीर्त्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य-रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। साता-वेदनीय के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। असाता, अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगुण हैं। अयश कीर्तिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तियेचगतिके बन्धक जीव विशेषाधिक
१. आहारकायजोगी दब्वपमाणेण केवडिया? चदुवण्णं । आहारमिस्सकायजोगी दव्वपमाणेण केवडिया? -संखेज्जासूत्र ९८-१००,खु० बं०, पृ. २८० | आइरियपरंपरागदउवदेसेण पुण सत्तावीसा होति । -ध० टी०,पृ०२८१।
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पय डिबंधाहियारो
३५९ ओरालि. बंधगा जी. विसे । मिच्छत्तवंधगा जी० विसे । थीणगिद्धि ३ अणंताणु०४ बंधगा जीवा विसे० । अपचक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसे० । पच्चक्खाणा० बंध. जीवा विसे० । णिद्दापचला-बंधगा जीवा विस० । तेजाक० बंधगा जीवा विसे। भयदु० बंधगा जीवा विसे । कोध-संज०बंधगा जीवा विसे० | माणसं० बं० जीवा विसे । माया-सं० बंधगा जीवा विसे । लोभसं० बंधगा जीवा विसे० । पंचणा०, चदुदंस०, पंचंत०. बंधा तुल्ला विसेसाहिया।
___३२७. आदेसेण णेरइएसु-सव्वत्थोवा मणुसायु बंधगा जीवा । तित्थय० बंधगा जीवा असंखेज० । तिरिक्खायु-बंधगा जीवा असंखे । उच्चागो० बंधगा जी० संखेज० । मणुसगदिबंधगा जीवा संखेज० । पुरिसवे. बंधगा जीवा संखेज० । इथि० बंधगा जीवा संखेज० । साद-जस-हस्स-रदिबंधगा जीवा विसेसा० । णवुस० बंधगा जीवा संखेन्ज । असाद-अरदिसो० अजसगित्ति-बंधगा जीवा विसे० । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा विसेसा० । णीचागो. बंधगा जीवा विसेसा० । मिच्छत्तबंधगा जीवा विसेसाहिया। थीणगिद्धि-तिय-अणंताणुबंधि०४ बंधगा जीवा विसेसाहिया । सेसाणं पगदीणं तुल्ला विसेसाहिया । एवं पढमाए । पंचसु मज्झिमासु एवं चेव । णवरि उच्चागोदस्स बंधगा जीवा असंखेजगुणा । सत्तमाए पुढवीएहैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। निद्रा, प्रचलाके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तैजस, कार्मण शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। भय, जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। क्रोध-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मान-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। माया-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक. है। लोभ-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तरायके बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक हैं। . ३२७. आदेशसे–नार कियोंमें-मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। तीर्थकर प्रकृतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तिर्यंचायुके बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। मनुष्यगतिक बन्धक जीव संख्यात गुणे हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रावेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। साता-वेदनीय, यशःकीति, हास्य, रतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नपुंसकवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । असाता-वेदनीय, अरति, शोक, अयशःकीर्त्तिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तियंचगतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्व के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। स्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव. विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंमें बन्धक जाव समान रूपसे विशेष अधिक क्रमवाले हैं। इसी प्रकार प्रथम पृथ्वीमें जानना चाहिए।
मध्यवर्ती ५ पृथ्चियोंमें अर्थात् दूसरीसे छठी पर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए ।
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३६०
महाबंधे मव्वत्थोवा मणुसगदि-उच्चागो. बंधगा जीवा । तिरिक्खायु-बंधगा जीवा असंखेजगुणा । पुरिसवे० बंधगा जीवा असंखेज । इथि० बंधगा जीवा संखेजगुणा । उवरि सो चेव भंगो। णवरि मिच्छत्त-बंधगा जीवा विसेसा० । थीणगिद्वितियं अणंताणुवंधि४ तिरिक्खगदि-णीचागो. बंधगा जीवा सरिसा विसेसा० । सेसाणं बंधगा जीवा विसेसा।
३२८. तिरिक्खेसु-सव्वत्थोवा मणुसायु-बंधगा जीवा। णिरयायु-बंधगा जीवा असंखेज० । देवायु-बंधगा जीवा असंखेज० । देवगदि-बंधगा जीवा संखेज ० । णिरयगदि-बंधगा जीवा संखेज० । वेउव्विय बंधगा विसेसा० । तिरिक्खायु-बंधगा जीवा अणंतगुणा । उच्चागोदस्स बंधगा जीवा संखेज० । मणुसगदि बंधगा जीवा संखेज० । पुरिस० बंधगा जीवा संखेजः । इथि० बंधगा जीवा संखेज० । जस० बंधगा जीवा संखेन । साद-हस्सरदि-बंधगा जीवा संखेज० । असाद-अरदि-सोगबंधगा जीवा संखेज० । अजस० बंधगा जीवा विसेसा० । णवंस० बंधगा जीवा विसेसा० । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा विसेसा० । णीचागो० बंधगा जीवा विसेसा० । विशेष, उच्चगोत्रके बन्धक जीव असंख्यातगणे हैं।
_ विशेषार्थ-तीर्थकर प्रकृति के बन्धक तीसरी पृथ्वी पर्यन्त पाये जाते हैं, नीचे नहीं पाये जाते।
सातवों पृथ्वीमें-मनुष्यगति, उच्चगोत्रके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। तियंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
विशेषार्थ-सातवीं पृथ्वीमें मनुष्यायुका बन्ध नहीं होता है, "चरिमे मिच्छेव तिरियाम्" (गो० क० १०६)। "छटोत्ति य मणुवाऊ।" सातवीं पृथ्वीमें मिथ्यात्वगुणस्थानमें ही तिथंचायुका बन्ध होता है । मनुष्यायुका छठी पृथ्वी तक बन्ध कहा है, इससे यहाँ मनुष्यायुका कथन नहीं किया गया है।
पुरुषवेदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे गणे हैं। आगे इसी प्रकार संख्यातगुणे संख्यातगुणका भंग है। विशेष यह है कि मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। स्त्यानगृद्धि त्रिक, अनन्तानुबन्धी ४, तिथंचगति और नीच गोत्रके बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
३२८. तिर्यचोंमें - मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। नरकायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। नरकगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । तिर्यंचायु के बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । यशःकीतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । साता-वेदनीय, हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। असाता, अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अयशःकीतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तियंचगति के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
hotho.the
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पयडिबंधाहियारो ओरालि० बंधगा जीवा विसेसा० । मिच्छत्त-बधगा जीवा विसेसा० । थीणगिद्धि-तियं अणंताणुबंधि०४ बंधगा जीवा विसेसा० । अपचक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसेसा० । सेसाणं पगदीणं बंधगा जीवा सरिसा त्रिसेसाहिया। एवं पंचिंदिय-तिरिक्ख० । णवरि असंखेजगुणं कादव्वं ।
३२६. पंचिंदिय-तिरिक्ख-पज्जत्त-जोणिणीसु-सव्वत्थोवा मणुसायुबंधगा जीवा। णिरयायु-बंधगा जीवा असंखेज्जगु० । देवायु-बंधगा जीवा असंखेज्ज। तिरिक्खायुबंधगा जीवा संखेज०। देवगदि-बंधगा जीवा संखेज०। उच्चागोद बंधगा जीवा संखेज०। मणुसगदि-बंधगा जीवा संखेज०। पुरिस० बंधगा जीवा संखेज। इत्थिवे. बंधगा जीवा संखेज । जस० बंधगा जीवा संखेजः । साद-हस्स-रदि-बंधगा जीवा संखेन्ज । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा संखेज । ओरालि० बंधगा जीवा विसेसा० । णिरयगदि-बंधगा जीवा संखेजगुणा । वेउव्वि० बंधगा जीवा विसेसा० । असाद-अरदि-सोगबंधगा जीवा विसेसा० । अजस० बंधगा जीवा विसेसा० । णवंस.. बंधगा जीवा विसेसा० । णीचागो० बंधगा जी० विसेसा०। मिच्छत्त-बंधगा जीवा विसेसा० । थीणगिद्धितियं अणंताणुबंधि०४ बंधगा जीवा विसेसा० । अपच्चक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसेसा० सेसाणं पगदीणं बंधगा सरिसा विसेसा०। पंचिंदियतिरिक्ख-अपजत्तगेसु-सव्वत्थोवा मणुसायु-बंधगा जीवा। तिरिक्खाय-बंधगा जीवा
औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेपाधिक हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेपाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक हैं।
पंचेन्द्रिय तियचों में इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, यहाँ असंख्यातगुणा क्रम करना चाहिए।
३२६. पंचेन्द्रिय-तिर्य च-पर्याप्त, पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-योनिमतियों में - मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्वम्तोक हैं । नरकायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यात. गुणे हैं । तियं चायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके वन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। यशाकीर्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। साता-वेदनीय, हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तिर्य वगतिक बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नरकगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। असाता. अरति. शोकके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अयशःकीर्तिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्ध : जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियों के बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक है।
पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। तियचायुके ४६
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महाबंधे असंखेजगु० । उच्चागो० बंधगा जीता संखेजगु०। मणुसगदि-बंधगा जीवा संखेज । पुरिस० बंधगा जीवा संखेज्जगु० । इथिवे. बंधगा जीवा संखेन्ज । जस० बंधगा जीवा संखेज० । सादहस्सरदि-बंधगा जीवा संखेजगु० । असाद-अरदि-सो० बंधगा जीवा संखेञ्जः। अज्जस० बंधगा जीवा विसे० । णस० बंधगा जीवा विसे । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा विसे० । णीचागो० बंधगा जीवा विसे० । सेसाणं पगदीणं बंधगा सरिसा विसेसाहिया।
३३०. मणुसेसु-सव्वत्थोवा आहार० बंधगा जीवा । [तित्थयर बंधगा जीवा] संखेज्जगुणा । णिरयायु-बंधगा जीवा संखेज्ज० । देवायु-बंधगा जीवा संखेज्जगु० । देवगदि-बंधगा जीवा संखेज्ज । णिरयगदि-बंधगा जीवा संखेज्ज० । वेउवि० बंधगा जीवा. विसे० । मणुसायु-बंधगा जीवा असंखेज्जगु० । तिरिक्खायुबंधगा जीवा असंखेज्ज० । उच्चागोद० बंधगा जीवा संखेज्ज० । मणुसगदिबंधगा जीवा संखेज्ज। पुरिस० बंधगा जीवा संखेज०। इत्थिवे० बंधगा जीवा संखेज०। जस० बंधगा जीवा संखेज० । हस्सरदि-बंधगा जीवा संखेज०। साद-बंधगा जीवा विसेसा० । असाद-अरदि-सोग-बंधगा जीवा संखेज० । अजस० बंधगा जीवा विसेसा० । णवूस० बंधगा जीवा विसेसा० । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा विस०। णीचागो. बंधगा जीवा विसे० । ओरालि० बंधगा जीवा विसेसा० । मिच्छ० बंधगा जीवा विस० ।
बन्धक जोव असंख्यातगुणे हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । यशःकीर्तिके बन्धक जोव संख्यातगुणे हैं। साता, हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । असाता, अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अयशःकीर्तिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। तिर्यंचगति के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक हैं।
३३०. मनुष्य गतिमें आहारक शरीरके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। [ तीर्थकरके बन्धक ] संख्यातगुणे हैं। नरकायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। नरकगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तिर्यंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यात गणे हैं। यशःकीर्तिके बन्धक जीव संख्यात गणे हैं। हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे ह । साता वेदनीयके बन्धक जीव विशेषाधिक है। असाता वेदनीय, अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । अयश कीर्तिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । नपुंसक वेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तिर्यचगतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्वके
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पडबंधा हियारो
उवरि मूलोघं ।
३३१. मणुस -पजत्त मणुसिणीसु - सव्वत्थोवा आहार० बंधगा जीवा । तित्थय ० बंधा जीवा संखेञ्जगु० । मणुसायुबंधगा जीवा संखेजगु० । णिरयायु-बंधगा जीवा संखेज० । देवायु-बंधगा जीवा संखेञ्जगु० । तिरिक्खायुबंध० जीवा संखेअगु० । देवदि-बंधगा जीवा संखेजगु० । उच्चागो० बंधगा जीवा संखेजगु० । मणुसगदिबंधा जीवा संखेज० । पुरिस० बंधगा संखेज ० । इत्थि० बंधगा जीवा संखेज० । जस० बंधगा जीवा संखेज० । हस्सरदि-बंधगा जीवा संखेज० । साद-बंधगा जीवा विसे० । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा संखेज० । ओरालि० बंधगा जीवा विसे० । णिरयगदि-बंधगा जीवा संखेज० । वेउब्वि० बंधना जीवा विसे० । असाद-अरदिसोगबंधगा जीवा विसे० । अजस० बंघगा जीवा विसे० । णवुं स० बंधगा जीवा विसे० । णीचागो० बंधगा जीवा विसे० । मिच्छत्तबंधगा जीवा विसे० । उवरि मूलोघं | मणुस-अपजत्त-पंचिदिय-तिरिक्ख-अपजत्तभंगो ।
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३३२. देवेसु सव्वत्थोवा मणुसायु-बंधगा जीवा । तित्थय० बंधगा जीवा असंखेज्जगु० । तिरिक्खायु- चंधगा असंखेज्ज० । उच्चामो० बंधगा जीवा संखेज्ज० ।
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बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। आगेकी प्रकृतियोंमें अर्थात् स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४, अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४, निद्रा, प्रचला, तैजस, कार्मण, भय, जुगुप्सा, संज्वलन-क्रोध मान माया लोभ, ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तराय मूलके ओघवत् जानना चाहिए।
_ ३३१. मनुष्यपर्याप्तक, मनुष्यनियों में आहारक शरीरके बन्धक सर्वस्तोक हैं । तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । मनुष्यायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । नरकायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तिर्यचायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । यशः कीर्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। सातावेदनीयके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । तिर्यंचगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नरकगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरको बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । असाता, अरति शोकके बन्धक विशेष अधिक हैं । अयशःकीर्त्तिके बन्धक विशेषाधिक हैं। नपुंसकवेदके बन्धक विशेपाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
आगेकी प्रकृतियों में अर्थात् ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४, अन्तराय ५, स्त्यानगृ द्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ आदि में मूलके ओघवत् जानना चाहिए ।
मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकों में - पंचेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्तकके समान भंग है ।
३३२. देवोंमें - मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तिर्यंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उच्च गोत्रके बन्धक जीव
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महाबंधे मणुसगदि-बंधगा जोवा संखेज्नगु० । पुरिस० बंधगा जीवा संखेजगु० । इथि० ६० जी० संखे० । साद-हस्स-रदि-जसगि० बंधगा सरिसा संखेज्जगु० । असाद-अरदि-सोगअज्जसगि० बंधगा जीवा सरिसा संखेज्जगु० । णवूस० बंधगा जीवा विसे० । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा विसेसा० । णीचागो० बंधगा जीवा विसे० । मिच्छ० बंधगा जीवा विसेसा०। थीणगिद्धि३ अणंताणुवं०४ बंधगा जीवा विसे० । सेसाणं बंधगा जीवा सरिसा विसे । एवं भवण. याव ईसाणत्ति । णवरि जोदिसियसोधम्मीसाणे उच्चागोदस्स बंधगा जीवा असंखेज्ज० । सणक्कुमार याव सहस्सारत्ति विदियपुढविभंगो । आणद याव उवरिमगेवजाति सव्वत्थोवा मणुसायुबंधगा जीवा । इस्थिवे. बंधगा जीवा असंखेञ्जः । णवुस० बंधगा जीवा संखेजगु० । णीचागो० बंधगा जीवा विसे० । मिच्छत्तबंधगा जी० विसे० । थीणगिद्धि-तिय० अणंताणुवं०४ बंधगा जीवा विसे० । साद-हस्स-रदि-जसगि० बंधगा जीवा संखेजगु० । असाद-अरतिसोग-अज० बंधगा जीवा संखेजगु० । उच्चागो० बंधगा जीवा विसे० । पुरिसके० बंधगा जीवा विसे० । सेसाणं बंधगा जीवा सरिसा विसेसा० । अणुद्दिस-अणुत्तर० सव्वत्थोवा मणुसायु-बंधगा जीवा । साद-हस्स-रदि-जसगि० बंधगा जीवा असंखेज्ज० । असादअरदि-सोग-अजस० बंधगा जीवा संखेज्जगु० । सेसाणं बंधगा जीवा सरिसा विसेसा० । संख्यातगुणे हैं । मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यात गुणे है। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। साता, हास्य, रति, यश कीत्ति के बन्धक जोव समान रूपसे संख्यातगुणे हैं। असाता, अरति, शोक, अयशःकत्तिके बन्धक जीव समान रूपसे संख्यात गुणे है। नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तिर्यंचगतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । स्त्यानगृद्धि ३, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक है। शेष प्रकृतियोंके अर्थात् अप्रत्याख्यानावरणादिके बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक हैं।
भवनवासियोंसे ईशान स्वर्गपर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए। ... विशेष यह है कि ज्योतिष्कदेव तथा सौधर्म, ईशान स्वर्गवासियोंमें उच्चगोत्रके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
सनत्कुमारसे सहस्रार स्वर्ग तक दूसरे नरकके समान भंग जानना चाहिए।
आनतसे उपरिम वेयक तक मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। स्त्रीवेद के बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं । नपुंसकवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक विशेषाधिक हैं। साता, हास्य, रति, यश कीत्ति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। असाता, बरति, शोक, अयश-कीर्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । पुरुषवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियों के बन्धक जीव समान रूपसे विशेष अधिक हैं।
- अनुदिश अनुत्तरवासी देवोंमें - मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्वस्तीक हैं । साता, हास्य, रति, यशःकीर्तिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। असाता, अरति, शोक, अयशःकीर्तिके
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पयडिबंधाहियारो
एवं सव्वट्टे । णवरि संखेज्जगुणं कादव्वं ।
३३३. सव्वएइंदिय- सव्चविगलिंदिय- सव्वपंचकायाणं पंचिंदियतस-अपज्जत्ताणं च पंचिदिय-तिरिक्ख - अपज्जतभंगो । णवरि एइंदियग्वणफ्फदिणिगोदेसु तिरिक्खायुबंधगा जीवा अनंतगुणा । ते उ वाउ० - मणुसग दि- मणु साणुपु० उच्चागो० बंधगा जीवा णत्थि | पंचिदिय-तसाणं मूलोघं । णवरि तिरिक्खायु-बंधगा जीवा असंखेज्जगुणा । पंचिदिय-पज्जत गेसु - सव्वत्थोवा आहार-बंधगा जीवा । मणुसायु-बंधगा जीवा असं
अगुणा । णिरयायुबंधगा जीवा असंखेज० | देवायु-बंधगा जीवा असंखेञ्ज ० । तिरिक्खायुबंधगा जीवा संखेज्ज० | देवगदिबंधगा जीवा संखेजगु० । उच्चागो० बंधगा जीवा संखेज्ज० । मणुसग० बंधगा जीवा संखेज्जगु० । पुरिसवे० बंधगा जीवा
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बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियों के बन्धक जीव समान रूपसे विशेष अधिक हैं । सर्वार्थसिद्धिमें ऐसा ही जानना चाहिए। विशेष, वहाँ 'संख्यातगुणे' क्रमकी योजना करनी चाहिए ।
विशेषार्थ - सर्वार्थसिद्धि के देवोंकी संख्या संख्यात कही गयी है अतः यहाँ बन्धकों में संख्यातगुणे क्रमकी योजनाका कथन किया गया है। खुद्दाबन्ध टीका में लिखा है मनुष्यनियोंसे सर्वार्थसिद्धिवासी देव संख्यातगुणे हैं । धवलाटीकाकार लिखते हैं: “गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । कोई आचार्य सात रूप, कोई चार रूप और कितने ही आचार्य सामान्य रूपसे संख्यात गुणकार कहते हैं। इससे यहाँ गुणकारके विषय में तीन उपदेश हैं । तीनोंके मध्यमें एक ही जात्य ( श्रेष्ठ ) है परन्तु वह जाना नहीं जाता, कारण इस विषय में विशिष्ट उपदेशका अभाव है। इस कारण तीनोंका हो संग्रह करना चाहिए। ( अप्पाबहुगाणुग महादण्डक पृ० ५७७ )
३३३. सर्व एकेन्द्रिय, सर्व विकलेन्द्रिय, सर्व पंचकायवालोंमें पंचेन्द्रिय तथा त्रसके लब्ध्यपर्याप्तकोंमें - पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक के समान भंग जानना चाहिए। विशेष, एकेन्द्रिय वनस्पति निगोद जीवों में तिर्यवायुके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं ।
तेजकाय वायुकायमें - मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, उच्च गोत्रके बन्धक जीव नहीं हैं।
पंचेन्द्रिय तथा त्रसोंमें - मूलके ओघवत् जानना चाहिए। विशेष यह है कि तिर्यंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें - आहारक शरीरके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। नरकायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तिर्यंचायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । देवगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव
१. " को गुणकारो ? संखेज्जसमया । के वि आयरिया सत्तरूवाणि के वि पुण चत्तारि रूवाणि, के वि सामणेण संखेज्जाणि रुवाणि गुणगारो त्ति भणति । तेणेत्यगुणगारे तिष्णि उवएसा । तिष्णं मज्झे एक्कोच्चिय जन्वोवएसो, सो विण णव्वइ, विसिट्टोव एसाभावादो । तम्हा तिन्हं पि संगहो कायन्त्र - पृ० ५७७ । २. "मणुवदुगं मणुवाक उच्चं नहि तेउवाउम्हि ॥ - गो० क० २१४ ।
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महाबंधे
संखेज्ज । इत्थिवे. बंधगा जीवा संखेज्ज । जस० बंधगा जीवा संखे० गु० । हस्सरदिबंधगा जीवा संखेज्ज । साद०-बंधगा जीवा विसेसा० । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा संखेन्ज । ओरालि० बंधगा जीवा विसे० । णिरयगदिबंधगा जीवा संखेन्ज । वेउविय० बंधगा जीवा विसे० । असाद-अरदि-सोग-बंधगा जीवा विसे० । अज्ज० बंधगा जीवा विसे० । णवंस० बंधगा जीवा विसे० । णीचागो० बंधगा जीवा विसे० मिच्छत्तबंधगा जीवा विसे० । सेसं मूलोघं ।
३३४. तस-पजत्तगेसु-सव्वत्थोवा आहार० बंधगा जीवा । मणुसायुबंधगा जीवा असंखेज० । णिरयायुबंधगा जीवा असं० गु० । देवायुबंधगा जीवा असंखेजः । तिरिक्खायुबंधगा जीवा संखे० गु० । देवगदिबंधगा जीवा संखेजगु० । उच्चागो० बंधगा जीवा संखेजगु० । मणुसगदिबंधगा जीवा संखेज० । पुरिस० बंधगा जीवा संखेज० । इत्थिवे. बंधगा जीवा संखे० ०। जस० बंधगा जीवा संखे० गु० । हस्सरदिबंधगा जीवा सं० गु० । सादबंधगा जीवा विसे। णिरयगदिबंधगा जीवा संखेज्जगु० । वेउब्धिय० बंधगा जीवा विसे० । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा संखेजगुः ।
ओरालिय० बंधगा जीवा विसे० । असाद-अरदि-सोगबंधगा जीवा विसे० । अज० बंधगा जीवा विसेसा० । णवुस० बंधगा जीवा विसे० । णीचागो. बंधगा जीवा विसे० । मिच्छत्त ० अबंधगा (बंधगा) जीवा विसे० । सेसं मलोघं ।। संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेद के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। यशःकीर्ति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। साता वेदनीयके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तियंचगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नरकगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। असाता. अरति. शोकके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अयशाकीर्तिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियों में मूलके ओघवत् जानना चाहिए।
३३४. सपर्याप्तकोंमें - आहारक शरीरके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। नरकायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तिर्यंचायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । उच्चगोत्रके वन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। यश:कीर्ति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। सातावेदनीयके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नरकगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तिर्यंचगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । असाता, अरति, शोकके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अयश कीर्ति के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके अबन्धक ( ?) जीव विशेषाधिक हैं । शेष
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पयडिबंधाहियारो
३६७ ३३५. पंचमण० तिण्णिवचि०--सव्वत्थोवा आहार० बंधगा जीवा । मणुसायुबंधगा जीवा असंखेजः । णिरयायुबंधगा जीवा असं० गु० । देवायुबंधगा जीवा असंखेज० । णिरयगदि-बंधगा जीवा संखेज० । तिरिक्खायुबंधगा जीवा असंखेज्ज० । देवगदिबंधगा जीवा संखेज्जगु० । वेउव्विय० बंधगा जीवा विसे० । उच्चागो० बंधगा जीवा संखेज्ज । मणुसग बंधगा जीवा संखेज्ज । पुरिस० बंधगा जीवा संखेज० । इथिवे. बंधगा जीवा संखेजगु, जस० बंधगा जीवा संखेज० । हस्सरदि-बंधगा जीवा संखेजगु०, अथवा विसेसाहिसं । साद-बंधमा जीवा विसे । असाद-अरदि-सो० बंधगा जीवा संखेजगु० । अज० बंधगा जीवा विसे० । णवुस० बंधगा जीवा विसे । तिरिक्खगदिबंधगा जीवा विसे० । णीचागोद० बंधगा जीवा विसे० । ओरालि. बंधगा जीवा विसे० । मिच्छ० बंधगा जीवा विसे । उवरि ओषभंगो । वचिजोगिअसच्चमोस०-तसपज्जत्तभंगो। काजोगि-ओरालिय-काजोगि-ओघभंगो । ओरालियमिस्से--सव्वत्थोवा देवगदि-वेगुवि० बंधगा जीवा। मणुसायु-बंधगा जीवा असंखेज० । तिरिक्खायु-बंधगा जीवा अणंतगुणा । उच्चागो. बंधगा जीवा संखेज्ज० । मणुसगदि-बंधगा जीवा संखेज्ज । पुरिसवे० बंधगा जीवा संखेजगुणा । प्रकृतियोंमें मूलोघवत् जानना चाहिए।
विशेष—यहाँ मिथ्यात्वके अबन्धकके स्थानमें बन्धक पाठ उपयुक्त प्रतीत होता है ।
३३५. पाँच मन, तीन वचनयोगमें-आहारक शरीरके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । नरकायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। नरकगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तियचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगणे है । यश-कीर्त्तिके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं अथवा विशेषाधिक हैं। साता वेदनीयके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। असाता, अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अयश कीर्तिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तियंचगतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अवशेष आगेकी प्रकृतियोंमें ओघवत् जानना चाहिए।
वचनयोगी, असत्यमृषा अर्थात् अनुभयवचनयोगीमें-त्रसपर्याप्तकके समान भंग हैं। काययोगी, औदारिक काययोगीमें ओघभंग है।
औदारिक मिश्र काययोगीमें - देवगति, वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तिर्यंचायुके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । पुरुष---
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महाघे
इत्थवे ० | धगा जीवा संखेज्ज० । जस० बंधगा जीवा संखेजगु० । हस्सरदिबंधगा जीवा संखेज ० | साद-बंधगा जीवा विसे० । असाद- अरदि-सो० बंधगा जीवा संखेज्ज० । अज बंधगा जीवा विसे० । णवंस० बंधगा जीवा विसेसा० । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा विसेसा० । णीचागो० बंधगा जीवा विसे० । मिच्छत्त० बंधगा जीवा विसेसा० । थी गिद्ध ३ अनंताणुबंधि०४ ओरालि० बंधगा जीवा विसेसा० । सेसाणं बंधगा सरिसा विसेसा० । वेउन्चिय-काजो०, वेउब्वियमि० देवोघं । णवरि मिस्से आयुगं
। आहार आहारमिस्स ० - सव्वत्थोवा तित्थयरबंधगा जीवा । देवायु-बंधगा जीवा संखेज्जगुणा | सादहस्स - रदि जसगित्ति -बंधगा जीवा संखेजगुणा । असाद-अरदिसोग - अजगत्तिधगा जीवा संखेजगुणा । सेसाणं बंधगा सरिसा विसेसाहिया । कम्मइका० सव्वत्थोवा देवग दि-वेउब्विय० बंधगा जीवा । उच्चागो० बंधगा जीवा अनंतगुणा | मणुसग० बंधगा जीवा संखे० गुणा । पुरिस० बंध० जीवा
वेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । यशः कीर्त्ति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । साताके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । असाता, अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । अयशःकीर्त्तिके बन्धक जीवाधिक हैं । नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । तिर्यंचगति के बन्धक जीव विशेपाधिक हैं । नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्व के बन्धक जीव विशेषाfur हैं | स्त्यानगृत्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ तथा औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेप प्रकृति के बन्धक जीवों में समान रूपसे विशेष अधिकका क्रम है ।
वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगियों में देवोंके ओघवत् जानना चाहिए । विशेष, वैक्रियिकमिश्र काययोगमें आयुका बन्ध नहीं है ।
विशेषार्थं - वैक्रियिक मिश्रकाययोगमें नरकायु तथा देवायुका बन्ध निषिद्ध है, कारण देव तथा नारकी मरण कर देव तथा नारकी अवस्थाको नहीं बाँधते हैं । वैक्रियिक मिश्रकाययोग में "देवे वा वेगुवे मिस्से णरतिरियाउगं णत्थि " ( गो० क०, ११८ ) के नियमानुसार मनुध्यायु तथा तिर्यंचायुका भी बन्ध नहीं होता है। इससे यहाँ आयुबन्धका 'निषेध किया है ।
आहारक, आहारक मिश्रकाययोगियों में बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । साता, हास्य, रति, असाता, अरति, शोक, अयशःकीर्त्तिके बन्धक जीव जीव समान रूप से विशेषाधिक हैं ।
तीर्थंकर के बन्धक सर्वस्तोक हैं । देवायुके यशः कीर्त्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धक
विशेषार्थ - आहारक तथा आहारक मिश्रकाययोगियों में इतना अन्तर है कि आहारक काययोगीके देवायुका बन्ध होता है, किन्तु आहारक मिश्रकाययोगियों में देवायुका बन्ध नहीं होता । गोम्मटसार कर्मकाण्डमें लिखा है, "छट्टगुणं वाहारे तम्मिस्से णत्थि देवाऊ ।" ( गाथा ११८ ) ।
कार्मण काययोगियोंमें - देवगति, वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उच्च गोत्रके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । पुरुष
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पयडिबंधाहियारो संखेजगुणा । इत्थिवे. बंधगा जीवा संखेजगु० । जस० बंधगा जीवा संखेजगुणा । हस्स-रदि-बंधगा जीवा संखेजगुणा । साद-बंधगा जीवा विसेसा० । असाद-अरदि-सो० बंधगा जीवा संखेजगु० । अज्ज० बंधगा जीवा विसेसा०। णवूस बंधगा जीवा विसेसा० । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा विसेसा० । णीचागो० बंधगा जीवा विसेसा० । मिच्छत्तबंधगा जीवा विसेसा० । थीणगिद्धि३ अणंताणुबं०४ बंधगा जीवा विसेसा० । ओरालि० बंधगा जीवा विसेसा० । सेसाणं बंधगा जीवा सरिसा विसेसा० ।
३३६. इथिवे. पुरिस०-सव्वत्थोवा आहार० बंधगा जीवा । मणुमायु-बंधगा जीवा असंखेज० । णिरयायु-बंधगा जीवा असंखेज० । देवायु-बंधगा जीवा असंखेज०। तिरिक्खायुबंधगा जीवा संखेज० । देवगदि-बंधगा जी० संखेजगु० । णिरयगदि-बंधगा जीवा संखे० गुणा । वेउव्विय-बंधगा जी० विसेसा० । उच्चागो० बंधगा जीवा संखेजगु० । मणुसगदि० बंधगा जीवा संखेजगु० । पुरिसवे० बंधगा जीवा संखे० गुणा । इत्थिवे. बंधगा जीवा संखेजगु० । जस० बंधगा जीवा संखे० गुणा । हस्सरदिबंधगा जीवा संखेजगु० । अथवा हस्सरदि० बंधगा जीवा विसेसा० । साद-बंधगा जीवा विसेसा० । असाद-अरदि-सोग-बंधगा जीवा संखे० गुणा। अज० बंधगा जीवा
वेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। यश कीर्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। सातावेदनीयके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । असाता, अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। अयशःकीर्तिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तियंच गतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक तथा अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक हैं।
विशेषार्थ- कार्मण काययोगमें आयु चतुष्कका बन्ध नहीं होता, इससे यहाँ आयुबन्धका वर्णन नहीं किया गया है। कहा भी है-"कम्मे उरालमिस्सं वा णाउदुगेपि।" (गो० क०,११६)।
३३६. स्त्रीवेद, पुरुषवेदमें - आहारक शरीरके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । मनुष्यायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । नरकायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तिर्यंचायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। देवगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। नरकगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति के वन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। यशःकीर्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। अथवा हास्य, रतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। साताके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । असाता, अरति, शोकके बन्धक जीव संख्यातगणे हैं। अयशःकीर्तिके बन्धक जीव विशेषा
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महाबंधे विसेसा० । णस० बंधगा जीवा विसे० । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा विसेसा । णीचागोद-बंधगा जीवा विसेसा० । ओरालि. बंधगा जीवा विसेसा० । मिच्छत्तबंधगा जीवा विसेसा० । थीणगिद्धि३ अणंताणुबंधि०४ बंधगा जीवा विसेसा० । अपच्चक्खाणा०४ बंध० जीवा विसेमा० । पच्चकवाणा०४ बंधगा जीवा विसेसा० । णिदापचलाणं बंधगा जी० विसे । तेजाक० बंधगा जी० विसे । भयदु० बंधगा जीवा विसे० । संसाणं बंधगा सरिसा विसेसा० । णवुसगवे०--मूलोघं । णवरि भयदुगुच्छादो उवरि तुल्ला विसेसा०।
३३७. अवगदवे०-सव्वत्थोवा कोध-संज० बंधगा जीवा । माणसंज० बंधगा जीवा विसेसा० । माया-संज० बंधगा जीवा विसे० । लोभ-संज० बंधगा जीवा विसे० । पंचणा० चदुदंस० जस० उच्चागो० पंचंत० बंधगा जीवा विसेसा० । साद-बंधगा जीवा संखेज० । कसायाणुवादेण-कोधादि०४ याव भयदुगु ताव मूलोघं । उवरिं साधेदुण भाणिदव्वं ।
३३८. मदि० सुद०--तिरिक्खोघं । णवरि मिच्छत्त-बंधगा जीवा विसेसा० । धिक हैं। नपुंसकवेदके वन्धक जीव विशेषाधिक हैं। लिय वगति के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नोच गोत्रके बन्धक जीव विशेपाधिक हैं। औदारिक शरीर के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। स्त्यानगृद्धि ३, अनन्तानुवन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। निद्रा, प्रचलाके बन्धक जीव विशेपाधिक हैं। तैजस, कार्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । भय, जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक हैं।
विशेष-यहाँ हास्य, रति के बन्धक जीवोंको संख्यातगुणा कहा है अथवा कहकर उनके बन्धकोंको विशेषाधिक कहा है । यह कथन भिन्न परम्पराओंको सूचित करता है । पाँच मनोयोगी तथा तीन वचनयोगी जीवों में भी इसी प्रकार हास्य-रति के विषयमें कथन किया गया है।
नपुंसक वेदमें मूलके ओघवत् जानना चाहिए। विशेप, भय, जुगुप्साके आगेकी प्रकृतियोंमें अर्थात् संज्वलन क्रोधादि ४ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तरायमें समान रूपसे विशेषाधिकता है।
३३७. अपगतवेद में-क्रोध-संचलनके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। मान-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । माया-संचलन के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। लोभ-संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, यशकीर्ति, उच्च गोत्र तथा ५ अन्तरीयोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । सातावेदनीयके बन्धक जीव संख्यातगुण हैं।
कषायानुवादसे-क्रोधादि ४ से लेकर भय, जुगासापर्यन्त मूलके ओघवत् कथन है । आगेकी प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व योग्य रीतिसे निकाल लेना चाहिए।
३३८. मत्यज्ञान-श्रुताज्ञानमें ति यं चोंके ओघवत् जानना चाहिए। विशेष, मिथ्यात्व के
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पडबंधाहियारो
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साणं बंधगा जीवा सरिसा विसेसा० । विभंगे -- सव्वत्थोवा मणुसायु-बंधगा जीवा । 'णिरयायु-बंधगा जीवा असंखे० | देवायु-बंधगा जीवा असंखेज ० । णिरयगदि - बंधगा जीवा संखेज ० | देवगदि बंधगा जीवा संखेज्ज० । वेउब्विय० बंधगा जी० विसेसा० । तिरिक्खायु-बंधगा जी० असंखेज० । उच्चागो० बंधगा जीवा संखेजगु० । मणुसगदिबंगा जीवा संखेजगु० । पुरिसवे० बंधगा जीवा संखे० गुणा । इत्थवे ० बंधगा जी० संखे० गुणा । जस० धगा [ जीवा ] संखेज्जगु० । साद-हस्स-रदि-बंधगा जीवा विसेसा० । असाद - अरदि-सो० बंधगा जीवा संखेज्जगु० । अज० बंधगा जीवा विसेसा०
'स० बंधगा जीवा विसे० । तिरिक्खगदि बंधगा जी० विसे० । णीचागोद० बंधगा जीवा विसे० । ओरालि बंधगा जीवा विसे० । मिच्छत्तबंधगा जीवा विसे० । सेसाणं बंगा सरिसा विसेसा० ।
३३६. आभि० सुद० अधि० -- सव्वत्थोवा आहारस० बंधगा जीवा । मणुसायु-बंधगा जीवा संजगुः । देवायु-बंधगा जीवा असंखेज ० | देवगदिवे उव्वि० बंधगा जीवा असंखेज० । हस्स-रदिबंधगा जी० असं० गुणा । जस० बंधगा जीवा विसेसा० ० | साद-बंधगा जीवा विसे० । असाद-अरदि-सोग- अज्जस० बंधगा जीवा संखेज्ञगुणा | मणुसगदि-ओरालि० बंधगा जीवा विसेसा० । अपच्चक्खाणा ०४ बंधगा जीवा विसेसा० । पच्चक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसेसा० । णिद्दापचला-बंधगा
वन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेपके बन्धक जीव समान रूपसे विशेपाधिक हैं ।
त्रिभंगावधि में—मनुष्यायुके, बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। नरकायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं | देवा युके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। नरकगति के बन्धक जीव संख्यातगुण हैं । देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुगे हैं । वैकियिक शरीर के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । तिर्थं चायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उच्चगोत्र के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । मनुष्यगति बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । पुरुपवेद के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेद के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । यशःकीर्ति बन्धक [ जीव ] संख्यातगुणे हैं । साता, हास्य, रतिके बन्धक जीव विशेपाधिक हैं । असाता, अरति शोकके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । अयशःकीर्ति बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नपुंसकवेदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । तिर्यंचगतिके बन्धक जीव विशेपाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । औदारिक शरीर के बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । मिध्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । शेप प्रकृतियोंके बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक हैं ।
३३६. आभिनि बोधिक श्रुत-अवधि ज्ञान में आहारक शरीर के बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । देवायुके बन्धक जीव असंख्यागुणे हैं । देवगति, वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । हास्य, रतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । यशःकीर्त्तिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । साता वेदनीयके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । असाता, अरति, शोक, अयशःकीर्तिके यन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति, औदारिक शरीर के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
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३७२
महाबंधे जीवा विसेसा० । तेजाक० बंधगा जीवा विसेसा० । भयदु० बंधगा जीवा विसे० । पुरिसवे. बंधगा जीवा विसे० । कोधसंज० बंधगा जीवा विसेसाहिया । माणसं० बंधगा जीवा विसेसा० । मायासं० बंधगा जीवा विसे० । लोभसं० बंधगा जीवा विसे० । पंचणा० चदुदंस० उच्चागो० पंचंत० बंधगा जीवा विसे० । मणपज्जव०-- सव्वत्थोवा आहार० बंधगा जीवा । देवायु-बंधगा जीवा संखेजगुणा । हस्स-रदि-बंधगा जीवा संखेजगु ० । जस० बंधगा जीवा विसे० । सादबंधगा जीवा विसे० । असादअरदि-सोग-अज० बंधगा जीवा संखेज्जगुणा । णिद्दा-पचला-बंधगा जीवा विस० । देवगदि-वेउव्विय० तेजाक बंधगा जीवा विसे० । पुरिसवे. बंधगा जीवा विसे० । कोधसंज० बंधगा जीवा विसे० । माणसं० बंधगा जीवा विसे० । मायासं० बंधगा जीवा विसे० । लोभसं० बंधगा जीवा विसेसा० । पंचणा० चदुदंस० उच्चागो० पंचंत० बंधगा जीवा विसे० ।
३४०. एवं संजद-सामाइ० छेदो० । णवरि याव मायासंजलणं ताव मणपज्जवभंगो। उवरि सेसाणं बंधगा सरिसा विसेसाहिया । प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । निद्रा, प्रचलाके बन्धक जीव विशेपाधिक हैं । तैजस, कार्मण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। भय-जुगुप्साके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। पुरुषवेद के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। क्रोधसंज्वलन के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । मानसंज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मायासंचलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। लोभसंज्वलन के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं।
मनःपर्ययज्ञानमें-आहारकशरीरके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं।
विशेषार्थ-यहाँ मनःपर्ययज्ञान में आहारक शरीरके बन्धकका कथन किया गया है, कारण मनःपर्ययज्ञान तथा आहारकद्विकके बन्धका विरोध नहीं है, इनके उदयका विरोध है । गो० क० की टीकामें लिखा है-अत्र (मनःपर्ययज्ञाने ) आहारकद्वयोदय एव विरुध्यते (पृ० ११२,सं० टीका)
देवायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । यशःकीर्ति के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। साताके बन्धक जीव विशेपाधिक हैं। असाता, अरति, शोक, अयशःकात्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । निद्रा, प्रचलाके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। देवगति, वैक्रियिक तैजस कार्मण शरीर के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। क्रोध संज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । मानसंज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मायासंज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। लोभसंज्वलनके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
. ३४०. संयम, सामायिक छेदोपस्थाना संयममें इसी प्रकार हैं। विशेष, माया संज्वलनपर्यन्त मनःपर्ययके समान भंग है। आगेकी शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीवोंमें सदृश रूपसे विशेषाधिकता है।
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पयडिबंधाहियारो
३७३ ३४१. परिहारे--सव्वत्थोवा देवायुबंधगा जीवा । आहार० बंधगा जीवा संखेज्जः । साद हस्स-रदि-जसगि० सरिसा संखेजगुणा । असाद-अरदि-सोग-अञ्ज० बंधगा जीवा संखेजगुणा । सेसाणं सरिसा विसेसा० ।
३४२. संजदासंजदा--सव्वत्थोवा देवायु-बंधगा जीवा । साद-हस्स-दि-जस० बंधगा जीवा संखेजगुणा । असाद-अरदि-सोग-अज. बंधगा जीवा संखेअगु० । सेसाणं बंधगा जीवा सरिसा विसेसाहिया ।
___३४३. असंजदेसु--तिरिक्खोघं । णवरि थीणगिद्धि३ अर्णताणुबंधि४ बंधगा जीवा विसेसा० । सेसाणं बंधगा जीवा सरिसा० विसेसा० ।
____३४४. चक्खुदंसणी-तस-पज्जत्तभंगो। अचखुदंसणी--ओघं । ओधिदंसणीओधिणाणिभंगो।
३४५. तिण्णि लेस्सा-असंजदभंगो। तेउलेस्सि--सव्वत्थोवा आहार बंधगा जीवा । मणुसायु-बंधगा जीवा संखेजः । देवायु-बंधगा जीवा असंखेजगु० । तिरिक्खायुबंधगा असंखेजः । देवगदि-वेउव्विय० बंधगा संखेजगुणा । उच्चागो०
३४१. परिहारविशुद्धि संयममें-देवायुके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं । आहारकशरीरके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । साता, हास्य, रति, यश कीर्ति के बन्धक जीव सदृश रूपसे संख्यातगुणे हैं । असाता, अरति, शोक, अयश कीर्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृति के बन्धक सदृश रूप विशेषाधिक हैं।
विशेषार्थ-परिहार विशुद्धि संयममें आहारकद्विकका बन्ध होता है । यहाँ आहारक शरीरके बन्धका विरोध न होनेसे आहारक शरीरके बन्धकोंका कथन किया गया है। इतना विशेष है कि इस संयममें आहारकके उदयका विरोध है । गो० कर्मकाण्ड टीकामें लिखा है"परिहारविशुद्धिसंयमे तीर्थकर आहारकद्विकबन्धोऽस्ति, नाहारकर्षिः- पृ० ११३ ।
३४२. संयतासंयतोंमें-देवायुके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। साता, हास्य, रति, यशःकीर्ति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । असाता, अरति, शोक, अयशःकीतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियों के बन्धक जीव सदृश रूपसे विशेषाधिक हैं।
३४३. असंयतोंमें-तिर्यचोंके ओघवत् जानना चाहिए। विशेष, स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव सदृश रूपसे विशेषाधिक हैं।
३४४. चक्षदर्शनवालोंमें-सपर्याप्तकके समान भंग जानना चाहिए। अचक्षुदर्शनवालोंमें ओघवत् जानना चाहिए । अवधिदर्शनवालोंमें-अवधिज्ञानके समान भंग हैं।
३४५. कृष्णादि तीन लेश्यावालोंमें-असंयतोंके समान भंग हैं।
विशेष-कृष्णादि लेश्यात्रय असंयत गुणस्थानपर्यन्त कही गयी हैं। अतः असंयतोंके समान इनका भंग कहा गया है।
तेजोलेश्यावालोंमें आहारक शरीरके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तियंचायुके बन्धक असंख्यातगुणे हैं । देवगति, वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उच्चगोत्रके
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३७४
महाबंधे बंधगा जीवा संखेजगुणा । मणुसग० बंधगा जीवा संखेजगुणा । पुरिसवे० बंधगा जीवा संखेजगु० । इथिवे. बंधगा संखेजगुणा । साद-हस्स-रदि-जस० बंधगा जीवा संखेजगु० । असाद-अरदि-सोग-अज्ज० बंधगा जीवा संखेज्जगुणा । णवुस० बंधगा जीवा संखेज्जगुणा । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा विसे० । णीचागो० बंधगा जीवा विसे । ओरालि. बंधगा जीवा विसे । मिच्छत्त-बंधगा जीवा विसे । थीणगिद्धि३ अणंताणुबंधि४ बंधगा जीवा विसेसाहिया । अपच्चक्खाणावर०४ बंधगा जी० विसे० । पच्चक्खाणावर०४ बं० जीवा विसे० । सेसाणं बंधगा सरिसा विसेसा । पम्माए-आहार० थोवा । मणुसाणु-बंधगा जीवा संखेजगुणा । तिरिक्खायु-बंध० जीवा असंखेजगु० । देवायु-बंधगा जीवा विसेसा० । मणुसग बंधगा जीवा संखेजगु० । इत्थिवे०. बं० जीवा संखेजगु० । णवुस० बंधगा जीवा संखेजगु० । तिरिक्खगदिबंधगा जी० विसे० । णीचागो० ६० जीवा विसे । ओरालि. बंधगा. जीवा विसे० । साद-हस्स-रदि-जस० बंधगा सरिमा असंखेजगुणा। असाद-अरदि-सो०-अन्जस० बंध० सरिसा संखेजगुणा । देवगदि-वेउन्वि० बंधगा जीवा विसे । उच्चागो० बंध० जी० विसे० । पुरिस० बंधगा जोवा विसे० । मिच्छत्त-बंधगा जीवा विसे । उवरि तेउभंगो। सुकाए-सव्वत्थोवा आहारस. बंधगा जीवा। मणुसायु-बंधगा जीवा
wwnand
बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके बन्धक संख्यातगुणे हैं । साता, हास्य, रति, यश कीर्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। असाता, अरति, शोक, अयश कीर्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । नपुंसकवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तियंचगतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीचगोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। औदारिक शरीर के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। स्त्यानगद्धि ३अनन्तानबन्धी४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव समानरूपसे विशेषाधिक हैं।
__ पद्मलेश्यामें-आहारक शरीर के बन्धक जीव स्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तिर्यंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । देवायुके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । नपुंसक वेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। तियं चगति के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीचगोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। साता वेदनीय, हास्य, रति, यश कीर्तिके बन्धक. जीव समान रूपसे असंख्यातगुणे हैं। असाता, अरति, शोक, अयश कीर्ति के बन्धक जीव समान रूपसे संख्यातगुणे हैं। देवगति, वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। उच्चगोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्व के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। आगेकी प्रकृतियोंमें अर्थात् स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ आदिमें तेजोलेश्याके समान भंग है।
शुक्ललेश्यामें--आहारक शरीरके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव
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पय डिबंधा हियारो
३७५ संखेजगु० । देवायु-बंधगा जीवा विसे० । देवगदि-वेउबि० बंधगा जीवा असंखेजगुः । इत्थिवे. बंधगा जीवा असंखेजगु० । णवुस० बंधगा जीवा संखेजगु० । णीचागो० बंधगा जीवा विसे० । मिच्छत्त-बंधगा जीवा विसे । थोणगिद्धि३ बं०, अणंताणुबं०४ बंधगा विसे । हस्स-रदि-बंधगा जीवा संखेजगु० । जस० बंधगा जीवा विसे । साद-बंधगा जीवा विसेसा० । असाद-अरदि-सोग] अज० बंधगा जीवा संखेजगुणा । उच्चागो० बंधगा जीवा विसेसा० । पुरिस. बंध० जीवा विसेसा० । मणुसग० ओरालि० बंधगा जी० विसे० । अपच्चक्खाणा०४ बंध० जीवा विसेसा० । पच्चक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसेसा० । उवरि ओषभंगो। भवसिद्धि-मूलोघं । अब्भवसिद्धि-मदिभंगो। णवरि मिच्छत्त-सोलस-कसा० एकत्थ भाणिदव्वा ।
३४६. सम्मादिट्ठि-ओधिभंगो। खड्ग-सम्मा०-सव्वत्थोवा आहार० बंधगा जीवा । देवायु-बंध० जी० संखेज० । मणुसायु-बंधगा जीवा विसे । देवगदि-वेउवि० बंधगा जीवा विसे । उवरि ओधिभंगो। वेदगे-सव्वत्थोवा आहार० बं० जीवा । मणुसायुबंधगा जीवा संखेजगु०। देवायु-बंधगा जीवा असंखेज्जगु० । देवगदि-वेउवि० संख्यातगुणे हैं । देवायुके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। देवगति, वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेद के बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। नपुंसकवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। नीचगोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । स्त्यानगृद्धित्रिकके बन्धक जीव और अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। यशःकीर्तिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। साताके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । असाता, अरति, [ शोक, ] अयश कीर्ति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उच्चगोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। पुरुपवेद के बन्धक जीव विशेषाधिक है। मनुष्यगति, औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक है । अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । प्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । आगेकी प्रकृतियोंमें - ओघवत् भंग जानना चाहिए।
भव्यसिद्धिकोंमें - मूल ओघवत् जानना चाहिए । अभव्य सिद्धिकों में - मत्यज्ञानवत् भंग जानना चाहिए। विशेष, मिथ्यात्व और • सोलह कपायके बन्धकोंका भंग एक साथ लगाना चाहिए।
विशेष-यहाँ मिथ्यात्वके साथ १६ कषायका सदा बन्ध होता है। इस कारण उनका पृथक् भंग नहीं कहा है।
३४६. सम्यग्दृष्टियों में - अवधिज्ञानके समान भंग जानना चाहिए। क्षायिकसम्यक्त्वमें - आहारक शरीरके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। देवायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। देवगति, वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । आगे अवधिज्ञानके समान भंग है।
वेदकसम्यक्त्वमें - आहारक शरीरके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवगति, वैक्रियिक शरीर के.
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३७६
महाबंधे बंधगा जीवा असंखेजगु० । साद-हस्स-रदि०-जस० बंधगा जी० असंखे० गु० । असादअरदि-सो० अजस० बंधगा जीवा संखेजगु० । मणुसग० ओरालि० बंधगा जीवा विसे । अपच्चक्खाणा०४ बंधगा जीवा विसे०। पच्चक्खाणा०४ बंध० जीवा विसे । सेसाणं बंधगा जीवा सरिसा विसे० । उवसम-सं० -सव्वत्थोवा आहार बंधगा जीवा। देवगदि-वे उव्विय-बंधगा जी० असंखेजगु० । उरि ओधिभंगो।।
३४७. सासणे-सव्वत्थोवा मणुसायु-बंधगा जीवा । देवायु-बंधगा जीवा असंखेजगु० । देवगदि-वेउवि० बंधगा जी० असंखे० गुणा । तिरिक्खायु-बंधगा जी० असंखे० गुणा । मणुसगदि-बंधगा जी० संखेजगुणा । पुरिसवे. बंधगा जीवा संखे० गुणा । साद-हस्स-रदि-जस० बंध० जीवा विसे० । इत्थिवे० बंधगा जी० संखेजगुणा । असाद-अरदि-सो० अज० ५० जीवा विसेसा० । अथवा असाद-अरदि-सो० अज० बंधगा जीवा संखेजगुः । इत्थिवे. बंधगा जीवा विसेसा० । तिरिक्खगदि० बंधगा जी० विसे । णीचागो० बंधगा जी. विसे० । ओरालि० बंधगा जी० विसे । बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। साता, हास्य, रति, यशःकोर्तिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । असाता, अरति, शोक, अयशःकीर्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति, औदा. रिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक
त्याख्यानावरण ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक है। शेष प्रकृतिके बन्धक जोव समानरूपसे विशेषाधिक हैं।
उपशमसम्यक्त्वमें - आहारक शरीरके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। देवगति, वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । आगेकी प्रकृतियोंमें अवधिज्ञानका भंग है।
विशेषार्थ-क्षायिक सम्यक्त्वमें, आहारक शरीरके बन्धकोंकी अपेक्षा देवायुके बन्धकोंको संख्यातगुणा कहा है। वेदक सम्यक्त्वमें आहारक शरीरके बन्धकोंकी अपेक्षा मनुष्यायुके बन्धकोंको संख्यातगुणा कहा है। उपशम सम्यक्त्वमें आयुका बन्ध नहीं होनेसे किसी भी आयुके बन्धकका कथन नहीं किया गया है। इन तीनों सम्यक्त्वोंकी' विशेषता ध्यान देने योग्य है।
३४७. सासादनसम्यक्त्वमें - मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं । देवगति, वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तियंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । साता, हास्य, रति, यशःकीर्तिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। असाता, अरति, शोक, अयशःकीर्तिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। अथवा असाता, अरति, शोक, अयशाकीर्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। तियंचगतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
१. "णवरि य सव्वुवसम्मे परसुरआऊणि णत्थि णियमेण। गो० क०,१२० गाथा । उपशमसम्यग्दृष्टीनां तिर्यग्मनुष्यगत्योर्दैवायुषोनरकदेवगत्योर्मनुष्यायुषश्वाबन्धादुभयोपशमसम्यक्त्वे तवयस्याप्यभावात् ।" -गो० क०सं० टीका,पृ० ११८ ।
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३७७
पयडिबंधाहियारो सेसाणं पगदीणं बंधगा जीवा सरिसा विसेसा० । सम्मामिच्छ०-सव्वत्थोवा देवगदिबंधगा जीवा, वेउवि० बंधगा जीवा। साद-हस्स-रदि-जस० बंधगा जीवा असंखे० गुणा । असाद-अरदि-सो० अज्ज. बंधगा जी० संखेजगु० । मणुसग० ओरालि. बंधगा जी० विसे० । सेसाणं पगदीणं बंधगा जीवा सरिसा विसे । मिच्छादिष्टि अभवसिद्धिभंगो।
३४८. सण्णीसु--सम्बत्थोवा आहार० बंधगा जीवा । मणुसायु-बंधगा जी० असंखे० गुणा । णिरयायु-बं० जीवा असंखे० गुणा। देवायु-बंधगा असंखे० गुणा । णिरयगदि-बंधगा जी० संखेजगुणा । तिरिक्खायुबंधगा जो० असंखे० गुणा । देवगदिबंधगा जी० संखेजगु० । वेउवि० बंधगा जी. विसे० । उच्चागो० बंधगा जी० संखेजगु० । मणुसग० बंधगा जी० संखेजगु० । पुरिस० बंधगा जीवा संखेजगु० । इथिवे. बंधगा जी० संखेजगु० । जस० बंधगा जी० संखे० गु० । हस्स-रदि-बंधगा जी.
शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक हैं।
विशेषार्थ-नरकायुकी बन्ध-व्युच्छित्ति मिथ्यात्व गुणस्थानमें होनेसे सासादन गुणस्थानके वर्णनमें नरकायुका कथन नहीं आया है।
__ सम्यग्मिथ्यात्वमें - देवगति के बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। चैक्रि यिक शरीर के बन्धक जीव भी इसी प्रकार हैं। साता वेदनीय, हास्य, रति, यशाकीर्तिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। असाता, अरति, शोक, अयश कीर्त्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति,
औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव समान रूपसे विशेषाधिक हैं।
विशेषार्थ-मिश्रगुणस्थानमें आयुके बन्धका निपेध है-"मिस्सूणे पाउस्स य" (गो० क० गा० ९२)। इससे यहाँ आयुके बन्धका वर्णन नहीं किया गया है। इस गुणस्थानमें मरणका निषेध है। मिश्रगुणस्थानके पूर्व जिस सम्यक्त्व या मिथ्यात्व भावमें आयु बन्ध हुआ था, उसी परिणाममें मरण होता है। कुछ आचार्य कथन करते हैं कि ऐसा नियम नहीं है।
मिथ्यादृष्टिमें - अभव्य सिद्धिकोंके समान भंग हैं।
३४८. संज्ञीमें - आहारक शरीर के बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव असंख्यातगणे हैं। नरकायके बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। देवायके बन्धक असंख्यातगणे हैं। नरकगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तियंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। यशःकीर्तिके
१. "सम्मत्तमिच्छपरिणामेसु जहिं असुगं पुरा बद्धं ।
तहिं मरणं मरणंतसमुग्धादो वि य ण मिस्सम्मि ॥" -गो० जी०,गा०२४।
४८
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३७८
महाबंधे विसे० । साद-बंधगा जीवा विसेसा० । उवरि मणजोगिभंगो। असण्णी-मिच्छादिहि. भंगो। आहारा-ओघभंगो । अणाहारा-कम्मइगभंगो ।
एवं परत्थाण-जीव-अप्पाबहुगं समत्तं ।
बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य, रतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। साता वेदनीयके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। आगेकी शेष प्रकृतियोंमें मनोयोगीके समान भंग हैं। असंज्ञीमें मिथ्यादृष्टिके समान भंग हैं।
आहारकमें - ओघके समान भंग हैं। अनाहारकोंमें - कार्मण काययोगीके समान भंग हैं।
इस प्रकार परस्थान जीव अल्प-बहुत्व समाप्त हुआ।
१. "सण्णियाणुवादेण सव्वत्थोवा सण्णी । णेवे सण्णी णेव असण्णी अणंतगुणा । असण्णी अणंतगुणा । -खु० ब०,अप्पाबहु सू० २००-२०२,पृ. ५७३
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[अद्धा-अप्पा-बहुगपरूवणा] ३४६. अद्धा-अप्पाबहुगं दुविहं । सत्थाण-अद्धा-अप्पाबहुगं चेव, परत्थाण अद्धाअप्पाबहुगं चेव । सत्थाण-अद्धा-अप्पाबहुगं पगदं। दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण-एत्तो परियत्तमाणियाणं अद्धाणं जहण्णुक्कस्सपदेण एकदो कादूण चोद्दसण्णं जीवसमासाणं ओघियअप्पाबहुगं वत्तइस्सामो। चोद्दस्सण्णं जीवसमासाणंसादासादं दोणं पगदीणं जहणियाओ बंध-गद्धाओ सरिसाओ थोवाओ। सुहुमअपजत्तस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । असादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा
[अडा अल्प बहुत्व ] ३४६. अद्धा-अल्पबहुत्वका अर्थ है कालसम्बन्धो हीनाधिकपना। यहाँ स्वस्थान-अद्धाअल्प-बहुत्व तथा परस्थान-अद्धा अल्प-बहुत्वके भेदसे अद्धा-अल्प-बहुत्व दो प्रकारका है । स्वस्थान-अद्धा-अल्प बहुत्व प्रकृत है। उसका ओघ तथा आदेश-द्वारा दो प्रकारसे निर्देश करते हैं।
ओघसे-यहाँ से आगे चौदह 'जीवसमासों में ओघसम्बन्धी अल्प-बहुत्वका परिवर्तमान प्रकृतियोंके कालको जघन्य और उत्कृष्ट पदके द्वारा एक-एक करके, वर्णन करेंगे।
चौदह जीव समासोंमें साता-असाता इन दोनों प्रकृतियोंके बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे स्तोक है।
विशेष-सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय. संज्ञी पंचेन्द्रिय. इन सातोंमें-से प्रत्येकके पयोप्त-अपयोप्त भेद करनेपर चौदह जीवसमास होते हैं। यहाँ वेदनीय २, वेद ३, हास्यादि ४, गति ४, जाति ५, शरीर २, संस्थान ६, संहनन ६, आनुपूर्वी ४, विहायोगति, त्रसस्थावरादि ४, स्थिरादि ६ युगल, अंगोपांग २, गोत्र २ ये परिवर्तमान प्रकृतियाँ जघन्य उत्कृष्ट कालके भेदसे चौदह जीवसमासोंमें वर्णित की गयी हैं।
सूक्ष्म अपर्याप्तकमें साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। असाताके बन्धक
१. "अत्थि चोद्दस जीवसमासा । के ते ? एइंदिया दुविहा बादरा सुहुमा। बादरा दुविहा, पज्जत्ता, अपज्जत्ता। सुहुमा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता। बीइंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता। तीइंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता। चउरिदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता। पंचिदिया दुविहा सणिणो असण्णिणो । सणिणो दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता । असण्णिणो दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता इदि । ऐदे चोद्दस जीवसमासा, अदीदजीवसमासा वि अस्थि ।" -ध०टी०भा०२ पृ०४१५, ४१६ ।
बादर-सुहमेइंदिय-बि-ति-चरिदिय-असण्णि-सण्णी य। पज्जत्तापज्जत्ता एवं ते चोदसा होति । -गो० जी०७२।
२. "पूर्णाः पर्याप्ताः, अपूर्णद्विकाः द्विधा - अपर्याप्ताः - निवृत्यपर्याप्ताः लब्ध्यपर्याप्ताश्चेति ।" . -गो० जी० सं० टी० पृ० १६० ।
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३८०
महाबंधे
संखेजगुणा । बादर-एइंदिय-अपजत्तस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । असादस्स उक्कस्तिया बंधगद्धा संखेजगुणा। सुहुम पञ्जत्तस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । असादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । बादर-एइंदिय-पज्जत्तस्स सो चेव भंगो । बेइंदिय-अपजत्तस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । तेइंदियअपजत्तस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसाहिया । चदुरिंदिय-अपजत्तस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसाहिया । बेइंदिय-अपञ्जत्तस्स असादस्स उकस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा। तेइंदिय अपजत्तस्स असादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसाहिया । चदुरिंदिय-अपञ्जत्तस्स असादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसाहिया । एवं पञ्जत्तगेसु वि सादासादाणं णेदव्यं । पंचिंदिय-असण्णि-अपज्जत्तस्स सादस्स उकस्सिया बंधगद्धा संखेजगुगा । असाइस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । पंचिंदिय-सण्णि-अपज्जत्तस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । असादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा। पंचिंदिय-असण्णिस्स पजत्तस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । असादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । पंबिंदिय-सण्णिस्स पज्जत्तस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । असादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा ।
३५०. चोद्दसणं जीवसमासाणं तिण्णि वेदाणं जहण्णिया बंधगद्धा सरिसा थोवा । सुहुम-अपज्जत्तस्स पुरिसवेदस्स उकस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । इत्थिवेदस्स का उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकमें साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । सूक्ष्म पर्याप्तकमें साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगणा है। असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल सं गुणा है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकमें सूक्ष्म पर्याप्तकके समान भंग है।
दोइन्द्रिय अपर्याप्तकमें-साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकमें-साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। चौइन्द्रिय अपर्याप्तकमें साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। दोइन्द्रिय अपर्याप्तकमें, असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकमें, असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। चौइन्द्रिय अपर्याप्तकमें, असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रियोंके पर्याप्तकोंमें, साता, असाताके बन्धकका काल पूर्ववत् जानना चाहिए।
पंचेन्द्रिय-असंज्ञी-अपर्याप्तकमें-साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। पंचेन्द्रिय संज्ञो-अपर्याप्तकमें-साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। पंचेन्द्रिय असंज्ञी-पर्याप्तकमें साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। पंचेन्द्रिय-संज्ञी पर्याप्तकमें-साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है ।
३५०. चौदह जीव-समासोंमें-तीन वेदोंके बन्धकोंका जघन्य बन्धकाल समान रूपसे स्तोक है। सूक्ष्म-अपर्याप्तकमें-पुरुषवेदके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । स्त्रीवेदके
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पडबंधाहियारो
३८१
I
।
उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । णव सकवेदस्स उकस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । बादर-अपात्तस्स तं चैव भाणिदव्वं । सुहुम चादर-पञ्जत्ताणं च तं चैव भंगो । बेइंदिय अपात्तस्स पुरिसवेदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखे० गुणा । तेइंदिय - अपजत्तस्स पुरिसवेदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसा हिया । चदुरिंदिय अपजत्तस्स पुरिसवेदस्स उकस्सिया बंधगद्धा विसेसा० । बेइंदिय- अपजत्तस्स इत्थवेदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संगुणा | इंदि-अपजत्तस्स इत्थवेदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसा० । चदुरिंदियअपजतस्स इत्थवेदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसा० । बेइंदिय- अपजत्तस्स ण सकवेदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखे० गुणा । तेइंदिय - अपज्जत्तस्स णवु सकवेदस्स उक्क० धगद्धा विसेसा० । चदुरिंदिय अपजत्तस्स वुसकवेदस्स उक्क० बंधगद्धा विसेसा० । एवं पत्तसु वि तिष्णं वेदाणं णेदव्वं । पंचिदिय-असण्णि-अपजत्तस्स पुरिस - वेदस्स उक० बंधगद्धा संखेजगुणा । इत्थवेदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखे० गुणा । ण सकवेदस्स उक्क० बंधगद्धा संखेजगुणा । पंचिंदिय-सण्णि-अपजत्तस्स तं चैव भाणिदव्वं । पंचिदिय असण-पजत्तस्स एसेव भंगो। पंचिदिय-सणि-पजत्तस्स तं चैव भंगो ।
1
३५१. हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं सादासाद भंगो । चदुष्णं गदीणं बंधगद्धाओ जहणियाओ सरिसाओ थोवाओ । सुहुम-अपजत्त- मणुसगदि उक्कस्सिया बंधगद्धा
बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । नपुंसक वेद के बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । बादर- अपर्याप्तक- एकेन्द्रिय में - उपरोक्त ही भंग है। सूक्ष्म पर्याप्तक तथा बादर पर्याप्तक में-यही भंग जानना चाहिए । दोइन्द्रिय- अपर्याप्तक में - पुरुषवेद के बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । त्रीन्द्रिय-अपर्याप्तक में - पुरुषवेद के बन्धकका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है । चौइन्द्रियअपर्याप्तक में - पुरुषवेद के बन्धकका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। दोइन्द्रिय- अपर्याप्तक में— स्त्रीवेदके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक में स्त्रीवेदके बन्धकका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। चौइन्द्रिय अपर्याप्तक में - स्त्रीवेद के बन्धकका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। दोइन्द्रिय अपर्याप्तक में - नपुंसक वेद के बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । श्रीन्द्रिय अपर्याप्तक में – नपुंसक वेद के बन्धकका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। इसी प्रकार दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय पर्याप्तकों में तीन वेदोंका काल जानना चाहिए।
पंचेन्द्रिय-असंज्ञी-अपर्याप्तक में – पुरुषवेदके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । वेद के बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । नपुंसक वेद के बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। पंचेन्द्रिय-संज्ञी अपर्याप्तक में- पूर्वोक्त भंग जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय-असंज्ञीपर्याप्तक में भी ऐसा ही जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय-संज्ञी - पर्याप्तक में भी पूर्वोक्त भंग' जानना चाहिए ।
३५१. चौदह जीव- समासों में - हास्य- रति, अरति शोकके बन्धकोंका उत्कृष्ट तथा जघन्यकाल साता तथा असाता वेदनीय के समान जानना चाहिए ।
चौदह जीव-समासों में - चारों गतिके बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे स्तोक
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३८२
महाबंधे संखेजगुणा । तिरिक्खगदि-उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । बादर० वेदणीयभंगो। एवं याव सण्णि-असण्णि अपज्जत्तग ति वेदणीयभंगो। पंचिंदिय असण्णि-अपज्जत्तस्स (पज्जत्तस्स) देवगदि-उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । मणुसगदि-उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा। तिरिक्खगदि-उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा। णिरयगदि-उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । एवं पंचिंदिय-सण्णि-पजत्तस्स० । पंचण्णं जादीणं जहणियाओ बंधगद्धाओ सरिसाओ थोवाओ । सुहुभ-अपजत्तस्स पंचिंदियस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । चदुरिंदियस्स उकस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । तेइदियस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । बेइंदियस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । एइंदियस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । एवं बादर-अपजत्ताणं । सुहुम-बादर-एइंदिय--पजत्ताणं च एवं चेव भंगो। बेइंदिय-अपज्जत्तस्स पंचिंदियस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । तेइंदियस्स-अपज्जत्तस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा विसे साहिया । चदुरिंदिय-अपजत्तस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसा० । एवं सेसाणं जादीणं । एवं पजत्ताणं च णेदव्यं । पंचिंदियं-सण्णि-असण्णि-अपजत्ता सुहुम-अपज्जत्तभंगो। पंचिंदिय-असण्णि-पज्जतस्सचदुरि० उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । तेइंदियस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा।
हैं । सूक्ष्म अपर्याप्तकमें-मनुष्यगतिके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। तियंचगतिके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। बादर-अपर्याप्तकमें-वेदनीयके समान भंग है । इसी प्रकार संज्ञी, असंज्ञी अपर्याप्तक पर्यन्त वेदनीयके समान भंग जानना चाहिए। पंचेन्द्रियअसंज्ञी पर्याप्तकमें - देवगति के बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। मनुष्यगति के बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । तिर्यंचगतिके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । नरकगतिके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। पंचेन्द्रिय-संज्ञी-पर्याप्तकमें - पंचेन्द्रिय असंज्ञी पर्याप्तकके समान जानना चाहिए।
___पंचजातियोंके बंधकोंका जघन्य काल समानरूपसे स्तोक है। .सूक्ष्म-अपर्याप्तकमेंपंचेन्द्रिय जातिके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । चौइन्द्रिय जातिके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। त्रीन्द्रियके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। दोइन्द्रियके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। एकेन्द्रिय जातिके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। बादर अपर्याप्तकमें इसी प्रकार भंग है। सूक्ष्म-बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्तकोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
दोइन्द्रिय-अपर्याप्तकमें-पंचेन्द्रिय जातिके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकमें-पंचेन्द्रिय जाति के बन्धकका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। चौइन्द्रियअपर्याप्तकमें-पंचेन्द्रिय जातिके बन्धकका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। चौइन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, दोइन्द्रिय जाति, एकेन्द्रिय जातिके बन्धकोंका काल इसी प्रकार जानना चाहिए। इसी प्रकारका वर्णन दोइन्द्रिय पर्याप्त क, त्रीन्द्रिय-पर्याप्तक, चौइन्द्रिय-पर्याप्तकमें जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय संज्ञो-असंज्ञी-अपर्याप्तकमें सूक्ष्म-अपर्याप्तकके समान भंग जानना चाहिए।
पंचेन्द्रिय-असंज्ञी पर्याप्तकमें-चौइन्द्रियके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है ।
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पयडिबंधाहियारो
३८३ बेइंदियस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । एइंदियस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । पंचिंदियस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । एवं सण्णि-पजत्ता । दोणं सरीराणं जहण्णिगाओ बंधगद्धाओ सरिसाओ थोवाओ। सुहुम-अपजत्तस्स ओरालियसरीरस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा। एवं याव पंचिंदिय-असण्णि-सण्णि-[] पज्जत्तगत्ति । तेसिं चेव पजत्तेसु ओरालियसरीरस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । वेउव्वियसरीरस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा। एवं पंचिंदिय-सण्णि-पज्जत्तयस्स०। छस्संठाणं छस्संघडणं चदु-आणुपुन्वि-दो-विहायगदि-तसथावरादि०४-थिरादिछयुगलं सादासादाणं भंगो याव पंचिंदिय-असण्णि-सण्णि-पजत्तात्ति । णवरि पचिंदिय-असण्णिपज्जत्तस्स थावर० उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा। तसस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । एवं पंचिंदिय सण्णि-पञ्जत्तस्स । एवं बादर-सुहुम-पजत्तापजत्त-पत्तेयसाधारणं कादव्वं । दो-अंगोवंगाणं सरीर-भंगो । दो-गोदं वेदणीय-भंगो।
३५२. आदेसेण-णेरइएसु दोण्णं जीवसमासाणं दोण्णं पगदीणं जहणियाओ बंधगद्धाओ सरिसाओ थोवा । अपजत्तयस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा।
त्रीन्द्रियके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। दोइन्द्रिय जातिके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । एकेन्द्रिय जातिके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। पंचेन्द्रिय जातिके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । पंचेन्द्रिय-संज्ञो-पर्याप्तकमें-इसी प्रकार भंग है।
दोनों शरीरों-वैक्रियिक-औदारिक शरीरके बंधकोंका जघन्य काल समान रूपसे स्तोक है। सूक्ष्म-अपर्याप्तकमें-औदारिक शरीरके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। पंचेन्द्रिय-असंज्ञी-संज्ञी [अ]पर्याप्तक पर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए। इसके ही पर्याप्तकोंमें अर्थात् पंचेन्द्रिय असंज्ञी-पर्याप्तकोंमें औदारिक शरीरके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । वैक्रियिक शरीरके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। पंचेन्द्रिय-संज्ञी-पर्याप्तकोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
६ संस्थान, ६ संहनन, ४ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, त्रस तथा स्थावरादि ४, स्थिरादि ६ युगलोंके विषयमें पंचेन्द्रिय असंज्ञी-संज्ञी-पर्याप्तक पर्यन्त साता, असाताके समान भंग जानना चाहिए। विशेष, पंचेन्द्रिय-असंज्ञी-पर्याप्तकमें स्थावर प्रकृतिके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। ब्रसके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय-संझी. पर्याप्तकमें भी जानना चाहिए। बादर-सूक्ष्म-पर्याप्त-अपर्याप्त प्रत्येक-साधारणमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। अर्थात् जिस प्रकार स्थावर तथा त्रसके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी बादर, सूक्ष्मादिके बन्धकोंमें जानना चाहिए। दो अंगोपांग अर्थात् औदारिक-वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंमें शरीरके समान भंग जानना चाहिए अर्थात् औदारिक, वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंके समान इनके भंग हैं। नीच, उच्च गोत्रके बन्धकोंमें वेदनीयके सदृश भंग है।
३५२. आदेशसे-नारकियोंमें - पर्याप्तक, अपर्याप्तक रूप दो जीव समासोंमें साताअसाता इन दो प्रकृतियों का जघन्य बन्धकाल समान रूपसे स्त्रोक है। अपर्याप्तक.नारकीमें
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महाबंधे
असादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा। पज्जत्तस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । असादस्स उक्कसिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । एवं तिण्णि-वेदाणं हस्स-रदिअरदि-सोगाणं दोगदि-छस्संठाणं छस्संघडण दो-आणुपुव्वि-दोविहायगदि-थिरादिछयुगलं दोगोदाणं च सादासादभंगो । एवं याव छट्ठिति । सत्तमाए एवं चेव । णवरि दोगदि-दोआणुपुन्वि-दोगोदाणं च णत्थि अप्पाबहुगं । तिरिक[क्ख] गदि-णqसगवेदमदिअण्णाणि - सुदअण्णाणि-असंजद-अचखुदंसणि-भवसिद्धिय-अन्भवसिद्धिय -मिच्छादिदि-असण्णि-आहारग ति ओघभंगो। णवरि असण्णीसु बारस जीवसमासा त्ति भाणिदव्यं । पंचिंदिय-तिरिक्खेसु-चदुण्णं जीवसमासाणं कादव्वं । पंचिंदिय-तिरिक्खपज्जत्तजोणिणीसु दोजीवसमासाणं भाणिदव्वं सण्णि-असण्णित्ति । पंचिंदिय-तिरिक्खअपज्जत्तगेसु दोजीवसमासा सण्णि-असण्णित्ति । मणुसेसु-दो जीवसमासा। पजत्तसाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । पर्याप्तक नारकोमें-साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, २ गति, (मनुष्य-तियेचगति), ६ संस्थान, ६ संहनन, २ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, स्थिरादि छह युगल तथा दो गोत्रों के बन्धकोंमें साता, असाता वेदनीयके समान भंग जानना चाहिए। यह क्रम प्रथम पृथ्वीसे छठी पृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। सातवीं पृथ्वीमें-इसी प्रकार भंग है । विशेष, दो गति, २ आनुपूर्वी, २ गोत्रोंके बन्धकोंमें अल्पबहुत्व नहीं है।
विशेष-सातवीं पृथ्वीमें मिथ्यात्व, सासादन गुणस्थानमें ही तियेचगति, तिथंचानुपूर्वी तथा नीच गोत्रका बन्ध होता है। तृतीय तथा चतुर्थ गुणस्थानमें ही मनुष्यगति, मनुप्यानुपूर्वी तथा उच्च गोत्रका बन्ध होता है। अतः इनके निमित्तसे सप्तम पृथ्वीमें अल्पबहुत्वपना नहीं पाया जाता है।
तिर्यंचगति, नपुंसकवेद, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयमी, अचक्षुदर्शनी, भव्य सिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टी, असंज्ञी, आहारक में ओघके समान भंग जानना चाहिए। विशेष, असंज्ञी जीवोंमें बारह जीवसमास कहना चाहिए।
विशेष-इनमें संज्ञी पर्याप्तक तथा संज्ञी अपर्याप्तक ये दो जीवसमास नहीं होते हैं।
पंचेन्द्रिय-तिर्यचोंमें-संज्ञी, असंज्ञी तथा इन दोनोंके पर्याप्तक, अपर्याप्तक भेदरूप चार जीवसमास हैं।
पंचेन्द्रिय-तियंच-पर्याप्तक तथा पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-योनिमतियोंमें-संज्ञी तथा असंज्ञी ये दो जीवसमास कहना चाहिए। पंचेन्द्रिय-तियंच-अपर्याप्तकोंमें-संज्ञी तथा असंज्ञी ये दो जीवसमास हैं।
मनुष्योंमें-संज्ञी पर्याप्तक तथा संज्ञी-अपर्याप्तक ये दो जीवसमास हैं। विशेषार्थ-मनुष्योंमें असंज्ञी भेद नहीं होता।' लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य भी संज्ञी ही
१. मनुष्यगती कर्मभूमौ आर्यखण्डे पर्याप्त-निवृत्त्यपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्तास्त्रयो जीवसमासाः । म्लेच्छखण्डे लब्ध्यपर्याप्तकाभावात् द्वौ जीवसमासौ। भोगभूमौ कुभोगभूमौ च द्वौ द्वो जीवसमासौ तत्रापि लब्ध्यपर्याप्तका. भावात् । कर्मभूमौ मनुष्याणां आर्यखण्डे गर्भजेषु पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्ती, संमूछिमे तु लब्ध्यपर्याप्त एवेति त्रयः । -गो० जी०सं० टीका,पृ० १६६ ।
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पयडिबंधाहियारो
जोणिणीसु एकं चेव । सादासादाणं जहणिया बंधगद्धा सरिसा थोवा । सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । असादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । एदेण कमेण भाणिदव्वं । एवं मणुस-अपजत्ता। देवाणं-णिरयभंगो याव सहस्सार त्ति । णवरि भवणवासिय याव ईसाण त्ति । दोण्णं जादीणं तसथावरादीणं दोणं जीवसमासाणं जहणिया बंधगद्धा सरिसा थोवा । अपजस-पंचिंदिय-तसस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । एइंदिय-थावरस्स उक्कस्सियो बंधगद्धा संखेज्जगुणा । तं चेव पजत्ते । आणद याव उपरिम-गेवजाति रइयभंगो। वरि मणुसगदि०२ धुवं कादव्यं । अणुद्दिसादि याव सवठ्ठत्ति-दोण्णं जीवसमासाणं दोवेदणीय-हस्स-रदि-अरदिसोग-थिरादि-तिण्णियुगलं पिरयभंगो। सेसाणं गथि अप्पाबहुगं । एइंदिएसु-चदुण्णं जीवसमासाणं ओघभंगो। एवं बादर० दोण्ण[ण्णं] जीवसमासाणं । सुहुम० दोण्णं जीवसमासाणं, बादर-पजत्त-अपजत्त-सुहुम-पज्जत्ता-पज्जत्तगेसु पत्तेगं पत्तेगं एगं जीवट्ठाणं।
होते हैं। भोगभूमि तथा कुभोगभूमिके मनुष्यों में लब्ध्यपर्याप्तक भेद नहीं है। म्लेच्छ खण्डके मनुष्योंमें भी लब्ध्यपर्याप्तक भेद नहीं है। आर्य खण्डके कर्मभूमिज मनुष्यों में पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्त भेद कहे हैं। गर्भज कर्मभूमि या आर्य खण्डके मनुष्योंमें लब्ध्यपर्याप्तक भेद नहीं है । सम्मूर्छन मनुष्य ही होते हैं।
मनुष्य-पर्याप्तक तथा मनुष्यनीमें-एक पर्याप्तक रूप ही जीवसमास है। साताअसाताके बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे स्तोक है। साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। इस क्रमसे अन्य प्रकृतियोंके बन्धका काल जानना चाहिए।
मनुष्य-अपर्याप्तकोंमें-इसी प्रकार जानना चाहिए।
देवगतिमें-सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त नारकियोंके समान भंग है । विशेष, भवनत्रिक तथा सौधर्म ईशानमें त्रस-स्थावरादिके बन्धकोंका जघन्यकाल दोनों जीवसमासोंमें समान रूपसे स्तोक हैं । अपर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रिय-त्रसका उत्कृष्ट बन्धकाल संख्यातगुणा है। एकेन्द्रिय-स्थावरका उत्कृष्ट बन्धकाल संख्यातगुणा है। पर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रिय-त्रस तथा एकेन्द्रिय-स्थावरके बन्धकके विषय में अपर्याप्तकोंके समान भंग है । आनतसे उपरिम प्रैवेयक पर्यन्त-नारकियोंके समान भंग है। विशेष यह है, कि यहाँ मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वीका ध्रुव भंग करना चाहिए । कारण वहाँ तिय चगतिद्विकका बन्ध नहीं होता है। अनुदिशसे सर्वार्थसिद्धि-पर्यन्तपर्याप्त अपर्याप्त रूप दोनों जीव समासोंमें-दो वेदनीय, हास्य-रति, अरति-शोक, स्थिरादि तीन युगलके बन्धकोंका नरकके समान भंग जानना चाहिए। शेष प्रकृतियों में अल्पबहुत्व नहीं है।
एकेन्द्रियोंमें-सूक्ष्म, बादर तथा इनके पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक रूप चार जीवसमास होते हैं, उनमें ओघवत् भंग है। इसी प्रकार बादरमें पर्याप्त, अपर्याप्त रूप दो जीवसमास हैं। सूक्ष्म में भी पूर्वोक्त पर्याप्त, अपर्याप्तमें दो जीवसमास हैं। बादर, पर्याप्त-अपर्याप्त तथा सूक्ष्म पर्याप्त-अपर्याप्तमें प्रत्येक,प्रत्येकका एक जीवसमास है।
विशेष-एकेन्द्रियों में बादर, सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त,अपर्याप्त इस प्रकार चार पृथकपृथक् जीवसमास होते हैं।
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३८६
महाबंधे
एवं पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-णिगोदाणं । णवरि तेउ-बाऊणं मणुसगदितियं णत्थि । वणफदि-काइय-छण्णं जीवसमासाणं । बादर-वणफदि-पत्तेय० दोणं जीवसमासाणं। विकलिंदि० दोण्णं जीवसमासाणं । पज्जत्तापज्जत्ताणं एक्कं चेव जीवसमासा। पंचिंदिएसु चदुण्णं जीवसमासाणं । पज्जत्ते दोणं जीवसमासाणं । अपज्जत्ते दोण्णं जीवसमासाणं । तसेसु-दस-जीवसमासाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं पंच जीवसमासाणं ।
__ ३५३. पंचमण० पंचवचि० वेउब्विय० वेउव्वियमिस्सका० [आहार] आहारमिस्सका० कम्मइग० अवगद० कोधादि०४ सुहुमसांपराय-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्टि-अणाहारगत्ति णत्थि अप्पाबहुगं। काजोगीसु-वेउब्धियछकं वज्ज सेसाणं
ओघभंगो कादव्यो। एवं ओरालिय-काजोगि-ओरालियमिस्स-काजोगीसु । णवरि सत्तण्णं जीवसमासाणं ति भाणिदव्यं । इस्थिवेद-पुरिसवेदेसु-चदुण्णं जीवसमासात्ति
पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक तथा निगोदियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, तेजकायिक, वायुकायिकमें मनुष्यगति, मनुष्य-गत्यानुपूर्वी तथा उच्चगोत्रका बन्ध नहीं होता है । वनस्पति कायिकमें साधारण तथा प्रत्येक ये दो भेद हैं । इनमें से प्रत्येकके पर्याप्त तथा अपर्याप्त ये दो भेद हैं। साधारणके बादर तथा सूक्ष्म ये दो भेद हैं । बादर के पर्याप्त तथा अपर्याप्त और सूक्ष्म के भी पर्याप्त तथा अपर्याप्त इस प्रकार वनस्पतिकायिकमें ६ जीव-समास हैं। बादर-वनस्पति प्रत्येकके पर्याप्तक, अपर्याप्तक ये दो जीवसमास हैं। विकलेन्द्रियके पर्याप्तक, अपर्याप्तक ये दो जीव-समास हैं। इनके पर्याप्तकों तथा अपर्याप्तकों में एक-एक जीव-समास हैं। पंचेन्द्रियों में चार जीव-समास हैं। पर्याप्तकों में संज्ञी और असंज्ञी ये दो जीव-समास हैं। अपर्याप्तकोंमें भी संज्ञी और असंज्ञी ये दो जीवसमास हैं।
__ सोंमें-दस जीव समास हैं, पर्याप्तकों में पाँच अर्थात् दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय ये पाँच हैं तथा अपर्याप्तकों में भी पाँच जीव समास हैं। इस प्रकार दोनों मिलकर दस जीव-समास होते हैं।
___३५३. ५ मनोयोगी, ५ वचनयोगी, वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, [ आहारक, ] आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी, अपगतवेद, क्रोधादि ४ कषाय, सूक्ष्मसाम्पराय, सासादनसम्यक्त्वी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अनाहारकमें अल्पबहुत्व नहीं है।
काययोगियों में बैंक्रियिकपटकको छोड़कर शेष प्रकृतियोंका ओघवत् भंग करना चाहिए। औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगीमें-इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेष, यहाँ सात जीव-समास करना चाहिए। अर्थात् औदारिककाययोगमें पर्याप्तकों के सूक्ष्म-बादर-एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय ये सात भेद हैं तथा औदारिक मिश्रमें अपर्याप्तकोंके भी ये सात जीव-समास हैं ।
स्त्रीवेदियों, पुरुपवेदियोंमें पर्याप्त, अपर्याप्त भेद युक्त संज्ञी तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय ये चार जीव-समास कहना चाहिए ।
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पयडिबंधाहियारो
३८७ भाणिदव्वं । विभंगे वेउव्विय छकं तिण्णिजादि-सुहुम-अपजत्त-साधारणाणं णस्थि अप्पाबहुगं । सेसाणं देवभंगो। आभि० सुद. ओधिणाणीसु-दोण्णं जीवसमासाणं दोवेदणीय-चदु-णोकसाय-थिरादि-तिण्णि-युगलाणं ओघं । सेसाणं णत्थि अप्पाबहुगं। एवं ओधिदं० सम्मादिट्ठी-खइग-सम्मादिट्ठी-वेदग-सम्मादिट्ठी-उवसम-सम्मादिट्ठी त्ति । मणपज्जवणाणिओधिभंगो। णवरि एक जीवट्ठाणं । एवं संजद-सामाइय-छेदोवट्ठावणं परिहार-संजदासंजद० । चक्खु-दंसणी तिण्णि जीवसमासाणि। तिण्णिलेस्सि० वेउब्धियछक्क पंचजादि-तसथावरादि०४ णत्थि अप्पाबहुगं । सेसाणं णिरय-भंगो । तेउलेस्सि०देवगदि०४ वज सेसाणं देवोधभंगो। एवं पम्माए । णवरि सहस्सार-भंगो । सुकाएआणद-भंगो । सण्णिस्स दोणं जीवसमासाणं ओघं ।
एवं सत्थाणं अद्धा अप्पाबहुगं समत्तं । एवं पत्तेगेण णीदं ।
विभंगावधिमें-वैक्रियिकपटक, तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्तक-साधारणके बन्धकोंमें अल्पबहुत्व नहीं है । शेप प्रकृतियों के विषय में देवगतिके समान भंग हैं।
आभिनिवोधिक-श्रुत-अवधिज्ञानियों में--पर्याप्तक, अपर्याप्तकरूप दो जीव-समास हैं। इनमें दो वेदनीय, चार नोकषाय, स्थिरादि तीन युगलके बन्धकोंमें ओघवत् जानना चाहिए । शेष प्रकृतियों में अल्पबहुत्व नहीं है।
अवधिदर्शन, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टिमेंइसी प्रकार जानना चाहिए। मन पर्ययज्ञानीमें-अवधिज्ञानके समान भंग है। विशेप, यहाँ संज्ञी पर्याप्तकरूप एक ही जीव स्थान है।
संयमी, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, संयतासंयतोंमें-मनःपर्ययज्ञानके समान एक जीव-स्थान है । चक्षुदर्शनी में-चौइन्द्रिय पर्याप्तक तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक एवं असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक ये तीन जीव-समास हैं।
कृष्ण-नील-कापोत-लेश्याओंमें-वैक्रियिकषट्क, ५ जाति, त्रस स्थावरादि ४के बन्धकोंमें अल्पबहुत्व नहीं है। शेष प्रकृतियोंमें नरकगति के समान भंग हैं।
तेजोलेश्यामें-देवगति ४ को छोड़कर शेष प्रकृतियोंके विपयमें देवोंके ओघवत् भंग है।
____ पद्मश्यामें- इसी प्रकार भंग है । विशेप यह है कि यहाँ सहस्रार स्वर्गके समान भंग है।
शुक्ललेश्यामें-आनत स्वर्ग के समान भंग है। संज्ञोमें-पर्याप्तक, अपर्याप्तक ये दो जीव-समास हैं। उनमें ओववत् जानना चाहिए।
इस प्रकार स्वस्थान अद्धा-अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
इस प्रकार प्रत्येक रूपसे वर्णन किया।
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[ परत्थाण-अद्धा-अप्पाबहुगपरूवणा ] ३५४. एतो परत्थाण-अद्धा-अप्पाबहुगेण पगदं। एत्तो परियत्तमाणियाणं अद्धाणं जहण्णुक्कस्सेण पदेण एकदो कादण ओघियं परत्थाण-अद्धा-अप्पाबहुगं वत्तइस्सामो। आयुगवजाणं ससारस पगदीणं जहणियाओ बंधगद्धाओ सरिसाओ थोवाओ। चदुण्णं आयुगाणं जहणिया बंधगद्धा सरिसा संखेजगुणा । उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । देवगदि उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेअगुणा। उच्चागोदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । मणुसग० उक्कस्सिया बंधगद्धा संखे० गुणा । पुरिसवेदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । इस्थिवेदस्स उक्क० बंधगद्धा संखेजगुणा । सादावे० हस्सरदि-जसगित्तिस्स उक्कस्सि० बंधगद्धा संखे० गुणा। तिरिक्खगदि-उक्कस्सि० बंधगद्धा संखेजगुणा। णिरयग० उक्कस्सि० बंधगद्धा संखे० गुणा । असाद-अरदि-सोगअजसगित्ति० उक्कस्सि. बंधगद्धा विसेसा० । णqसगवेदस्स उक्कस्सि० बंधगद्धा विसेसा० । णीचागोदस्स उकस्सिया बंधगद्धा विसेसा० । ३५५, एवं ओघभंगो तिरिक्खा-पंचिंदिय-तिरिक्ख, पंचिदिय-तिरिक्ख-पञ्जत्त,
[परस्थान-अडा-अल्पबहुत्व ] ३५४. अब परस्थान-अद्धा अल्पबहुत्व प्रकृत है। यहाँ से परिवर्तमान प्रकृतियों के काल. को जघन्य तथा उत्कृष्ट पद-द्वारा पृथक्-पृथक् करके ओघसम्बन्धी परस्थान-अद्धा-अल्पबहुत्व कहेंगे।
विशेष-यहाँ परिवर्तमान प्रकृतियोंका परस्थानमें जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थानों द्वारा अल्पबहुत्वका प्रतिपादन करते हैं। यहाँ ४ गति, ३ वेद, २ गोत्र, २ वेदनीय, ४ आयु, हास्यरतियुगल तथा यशःकीर्ति युगल इन २१ प्रकृतियोंका ओघ तथा आदेशसे जघन्य, उत्कृष्ट कालका अल्पबहुत्व वर्णन किया गया है ।
चार आयुको छोड़कर (पूर्वोक्त ) सत्रह प्रकृतियोंके बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे अल है । ४ आयुके बन्धकोंका जघन्य काल सदृश रूपसे संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । देवगतिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। उच्चगोत्रके बन्धकों को उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। मनुष्यगति के बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात गुणा है। पुरुष. वेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगणा है। स्त्रीवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । सातावेदनीय, हास्य, रति, यशाकीर्ति के बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। तिर्यंच. गतिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । नरकगतिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात गुणा है। असाता, अरति, शोक, अयशःकीर्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है । नपुंसकवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। नीच गोत्रके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है।
३५५. तिथंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियंचपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनि
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पयडिबंधाहियारो
३८९ पंचिंदियतिरिक्ख-जोणिणीसु-मणुस०३ पंचिदिय-तस०२ इथि० पुरिस० णस० मदिअण्णाणि सुदअण्णाणि० असंजद० चक्खुदं० अचक्खुदं० भवसिद्धि० अन्भव सिद्धि० मिच्छादि० सण्णि-असण्णि-आहारगत्ति ।
३५६. आदेसेण–णेरइएसु-आयुगवजाणं पण्णारसण्णं पगदीणं जहणियाओ बंधगद्धाओ सरिसाओ थोवाओ । दोण्णं आयुगाणं जहणिया बंधगद्धा सरिसा संखेजगुणा। उक्क० बंधगद्धा संखेजगुणा। उच्चागोदस्स उक्कस्सि० बंधगद्धा संखेजगुणा । मणुसगदि-उक्कस्सि० बंधगद्धा संखेजगुणा । पुरिसवेदस्स उकस्सि० बंधगद्धा संखेजगुणा । इत्थिवेदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा। साद-हस्सरदि-जस० उक्कस्सि० बंधगद्धा विसेसा० । णवुसग-वेदस्स उक्कस्सि० बंधगद्धा संखे० गुणा । असाद-अरदि-सोग-अजस० उक्कस्सि० बंधगद्धा विसेसा० । तिरिक्खगदि-उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसा० । णीचागोदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसा० । एवं छसु पुढवीसु०। सत्तमाए आयुग-बज्जाणं एकारसण्णं पगदीणं जहण्णियाओ बंधगद्धाओ सरिसाओ थोवाओ। तिरिक्खायु-जहणिया बंधगद्धा संखेज्जमतियोंमें, मनुष्य, मनुष्यपर्याप्तक, मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, त्रस, त्रस-पर्याप्तक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक में ओववत् भंग जानना चाहिए।
३५६. आदेशसे, नारकियोंमें-आयुको छोड़कर १५ प्रकृतियोंके बन्धकोंका समान रूपसे स्तोककाल है।
विशेष-यहाँ पूर्वोक्त २१ प्रकृतियों में से चार आयु तथा नरकगति, देवगतिको घटानेसे शेष १५ प्रकृति रहती हैं। नरकगति, देवगतिका बन्ध नारकियोंके नहीं पाया जाता है । (गो० क०,गा० १०५ )।
मनुष्यायु, तियचायुके बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट बन्धकोंका काल संख्यातगुणा है। उच्चगोत्रके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। मनुष्यगतिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणाहै। पुरुषवेद के बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात गुणा है। स्त्रीवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । साता, हास्य, रति, यशःकीर्तिके बन्धकोंका उन्कृष्ट काल विशेषाधिक है। नपुंसकवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। असाता, अर ति, शोक, अयशाकीर्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है । तिर्यंचगतिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। नीच गोत्रके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है।
इस प्रकार छह पृश्चियोंमें जानना चाहिए ।
सातवीं पृथ्वीमें-आयुको छोड़कर ११ प्रकृतियों के बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे स्तोक है।
विशेष-नारकियोंकी सामान्यसे १५ प्रकृतियाँ हैं। उनमें से मनुष्यगति, तिथंचगति तथा दो गोत्रको घटानेसे ११ शेष रहती हैं। इसका कारण यह है कि सातवें नरकमें मनुष्यगति तथा उच्चगोत्रका बन्ध सम्यक्त्व, मिथ्यात्व तथा अविरतसम्यक्त्व गुणस्थानमें ही होता
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महाबंधे गुणा । उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । पुरिसवेदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुगा। इत्थिवेदस्स उक्कस्सि० बंधगद्धा संखेज्जगुणा। साद-हस्स-रदि-जस० उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसा० । णवूसगवेदस्स उक्कस्सि० बंधगद्धा संखेज्जगुणा | असाद-अरदि-सोगअज्जस० उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसा०। पंचिंदिय-तिरिक्ख-अपज्जत्तेसु-आयुगवजाणं पण्णारसण्णं पगदीणं जहणिया बंधगद्धा सरिसा थोवा । दोण्णं आयुगाणं जहणिया बंधगद्धा सरिसा संखेजगुणा। उक्कस्सि० बंधगद्धा सरिसा संखे० गुणा। उच्चागोदस्स उक्कस्सि० बंधगद्धा संखे० गुणा | मणुस० उक्कस्सि० बंधग० संखे० गुणा । पुरिसवे. उकस्सि० बंधग० संखे० गुणा । इथिवे. उक्कस्सि० बंधग० संखे० गुणा। साद-हस्स-रदि-जस० उक्कस्सि० बंधगद्धा संखे० गुणा। असाद-अरदि-सोग. अज० उक्कस्सि. बंधगद्धा संखे० गुणा । णqसगवे. उक्कस्सि० बंधग० विसेसा० । तिरिक्खग० उक्कस्सिया
है; मिथ्यात्व, सासादनमें नहीं होता। प्रथम, द्वितीय' गुणस्थानमें ही तिर्यंचगति तथा नीच गोत्र का बन्ध होता है। इस प्रकार ये चार प्रकृतियाँ परिवर्तमान नहीं रहती हैं। कारण, प्रतिपक्षी प्रकृतियोंका अभाव हो जाता है।
. तिथंचायुके बन्धकोंका जघन्य काल संख्यातगुणा है। उत्कृष्ट काल संख्यात गुणा है । पुरुषवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। सीवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । साता, हास्य, रति, यश-कीर्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। नपुंसकवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगणा है। असाता. अरति, शोक, अयशाकीर्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है।
पचेन्द्रिय-तिर्यंच-अपर्याप्तकोंमें-आयुको छोड़कर पन्द्रह प्रकृतियोंके बन्धकोंका जघन्यकाल समान रूपसे स्तोक है।
विशेष-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में नरकगति तथा देवगतिका बन्ध नहीं होता है। इस कारण आयुको छोड़कर शेष बची १७ प्रकृतियोंमें से दो घटानेपर पन्द्रह प्रकृतियाँ रह जाती हैं।
मनुष्य-ति यंचायुके बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे संख्यातगुणा है। दोनों आयुओंके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। उचगोत्रके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। मनुष्यगति के बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । पुरुषवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । स्त्रीवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । साता, हास्य, रति, यश कीर्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगणा है। असाता, अरति, शोक, अयशःकीर्ति के बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। नपुंसकवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल
१. "मिस्साविरदे उच्च मणुवदुगं सत्तमे हवे बंधो ।
मिच्छा सासणसम्मा मणुवदुगुच्चं ण बंधंति ॥"-गो० क०,१०७ । २. “सामण्ण-तिरियपंचिदियपुण्णगजोणिणीसु एमेव ।
सुरणिरयाउ अपुण्णे वेगुम्वियछक्कमवि गत्थि ॥"-गो० क०,१०६ ।
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पयडिबंधाहियारो
३९१ बंधग० विसेसा० । णीचागोदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसा० । एवं सव्व-अपज्जत्ताणं तसाणं सव्वएइंदि० सव्वविगलिंदि० सव्वपुढवि० - आउ० वणप्फदिणिगोदाणं च ।
३५७. देवेसु-भवणवासिय याव ईसाण ति पंचिंदिय-तिरिक्ख-अपज्जत्त-भंगो। सणक्कुमार याव सहस्सार ति णिरयभंगो। आणद याव उवरिमगेवज्जात्ति-आयुगवजाणं तेरसण्णं पगदीणं जहणिया बंधगद्धा सरिसा थोवा । आयु० जहणिया बंधगद्धा संखे० गुणा । उक्क० बंधग० संखे० गुणा । उच्चागो० उक.. बंधग० संखे० गुणा । पुरिसवे० उक्क० बंधग० संखे० गुणा । इथिवे. उक्क० बंधग० संखे० गुणा । साद० हस्स-रदि-जस० उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसा० । णसवे० उक्क० बंधग० संखे० गुणा । असाद-अरदि-सो० अज्ज० उक्क० बंधग० विसेसा० । णीचागो० उक्क० बंधग० संखे० गुणा । अणुदिस याव सव्वदृत्ति-आयुगवजाणं अट्ठण्णं पगदीणं जहणिया बंधगद्धा सरिसा थोवा । आयुग० जह० बंधगद्धा संखेज्जगुणा । उक्क० बंधग० संखे० गुणा । साद-हस्सरदि-जस० उक्क० बंधग० संखे० गुणा । असादअरदि-सो० अजस० उक्क० बंधगद्धा संखे० गुणा । विशेषाधिक है। तिर्यंचगति के बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। नीच गोत्रके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है।
सर्व अपर्याप्तक त्रसों, सर्व एकेन्द्रिय, सर्व विकलेन्द्रिय, सर्व पृथ्वीकाय-अप्काय तथा वनस्पतिनिगोदोंका इसी प्रकार भंग जानना चाहिए।
____३५७. देवोंमें-भवनवासियोंसे ईशान पर्यन्त पंचेन्द्रिय-तिर्यच अपर्याप्तकों के समान भंग है । सनत्कुमारसे सहस्रारपर्यन्त नरकगतिके समान भंग है। आनतसे उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त आयुको छोड़कर १३ प्रकृतियोंके बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे स्तोक है।
विशेष-आनतादि स्वर्गों में केवल मनुष्यगतिका बन्ध होता है। अतः परिवर्तमान १७ प्रकृतियों में-से गतिचतुष्क घटा ली गयीं । इस प्रकार १३ प्रकृतियाँ शेष रहों।
___ मनुष्यायुके बन्धकोंका जघन्य काल संख्यातगुणा है। उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । उच्चगोत्रके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। पुरुषवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात गुणा है । स्त्रीवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । साता, हास्य, रति, यशःकीर्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। नपुंसकवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। असाता, अरति, शोक, अयशःकीर्त्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। नीचगोत्रके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है ।
अनुदिशसे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त आयुको छोड़कर आठ प्रकृतियोंके बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे स्तोक है ।
विशेष-अनुदिशादि स्वर्गों में सम्यग्दृष्टि जीव ही होते हैं। उनके नीच गोत्र, स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेदका बन्ध नहीं होता है। अतः गोत्रद्वय तथा तीन वेदनिमित्तक परिवर्तन न होनेसे आनतादिकी १३ प्रकृतियोंमें-से ५ प्रकृतियाँ घटानेपर ८ प्रकृतियाँ शेष रहती हैं।
मनुष्यायुके बन्धकोंका जघन्य काल संख्यातगुणा है। उत्कृष्ट काल संख्यातंगुणा है। साता, हास्य, रति, यश-कीर्ति के बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । असाता, अरति, शोक, अयश-कीर्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है।
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३९२
३५८, तेउ० वाउ०- आयुगवज्जाणं एक्कारसण्णं पगदीणं जहणिया बंधगद्धा सरिसा थोवा | आयु० जहणिया बंधगद्धा संखे० गुणा । [ उक्क० बंधग० संखे० गुणा | ] पुरिसवे उक्क बंधगद्धा संखे० गुणा । इत्थवे ० उक्कस्सि० बंधग० संखे० गुणा | साद-हस्स- रहि-जस० उक्क० बंधग० संखे० गुणा । असाद-अरदि-सो० अजस• उक्क० बंधगद्धा संखे० गुणा । स० उक्क बंधगद्धा विसेसा० । पंचमण० पंचवचि० वेउव्वि ० वेउव्वियमि० आहार० आहारमि० कम्मइग० अवगदवे० कोधादि०४ सासण० सम्मामिति साधेण णेदव्वं । णवरि कोघा०४ कसायाणं साधेदुण दव्वं । कसायकालो थोवो । उक्क० बंधगद्धा संखे० गुणा । ओरालि० ओरालिमि० पंचिंदिय-तिरिक्ख- अपजत्तभंगो । विभंगे- णिरयभंगो । आभि० सुद० ओधि० आयुगवज्जाणं अणं पगदीणं जहणिया बंधगद्धा सरिसा थोवा । आयु० जह० बंघगद्धा संखे० गुणा । उक्क० बंधगद्धा संखे० गुणा । साद-हस्स-रदि-जस० उक्क० बंधग०
महा
•
३५८. तेजकाय, वायुकाय में - आयुको छोड़कर ११ प्रकृतियोंके बन्धकोंका जघन्य काल समान रूप से स्तोक है।
विशेष - अनुदिशसम्बन्धी पूर्वोक्त आठ प्रकृतियोंमें अर्थात् हास्य, रति, अरति, शोक, यशः कीर्ति, अयशःकीर्ति, साता, असाता में वेदत्रयको जोड़ने से ११ प्रकृतियाँ होती हैं । यहाँ वेदयका बन्ध होने से परिवर्तमान प्रकृतियों में उनको परिगणित किया है ।
तिचायुके बन्धकों का जघन्य काल संख्यातगुणा है । [ उत्कृष्ट बन्धकाल संख्यातगुणा है ।] पुरुषवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । स्त्रीवेदके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । साता, हास्य, रति, यशः कीर्त्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । असाता, अरति, शोक, अंयशःकीर्त्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। नपुंसक वेद के बन्धका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है ।
५ मनोयोगी, ५ वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारकआहारक मिश्र योगी, कार्मण काययोगी, अपगतवेद, क्रोधादि चार कषाय, सासादनसम्यक्त्वी, सम्यक मिथ्यात्व में परिवर्तमान प्रकृतियों के बन्धकका बन्धकाल निकालकर जान लेना चाहिए | विशेष - क्रोधादि चार कषायों में विचार करके भंग जानना चाहिए। कषायका काल स्तोक है । बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है ।
औदारिक तथा औदारिक मिश्रकाययोग के पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा अपर्याप्तक के समान भंग हैं।
विभंगावधि में - नरकगति के समान भंग है अर्थात् वहाँ १५ प्रकृतियाँ हैं । आभिनिबोधिक ज्ञान, अवधिज्ञान में - आयुको छोड़कर शेष ८ प्रकृतियोंके बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे रोक है ।
विशेष - यहाँ साता, हास्य, रति, अरति, शोक, असाता, यशःकीर्त्ति, अयशःकीर्त्ति ये परिवर्तमान प्रकृतियाँ हैं ।
आयुके बन्धकका जघन्य काल संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है ।
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पयडिबंधाहियारो
३६३
संखे० ० गुणा । असाद- अरदि-सोग० अज० उक्कस्सिया बंधगद्धा संखे० गुणा । एवं मणपञ्जव । णवरि दो - आयुगाणं भाणिदव्वं (व्वे) एकं चैव भाणिदव्वं ।
३५६, संजदा - सामाइ० छेदो० परिहार० संजदासंजद० मणपज्जव० भंगो । अधिदं० अधिणाणिभंगो ।
३६०. किण्णणीलकाउलेस्सि० णिरयभंगो। तेउ०- देवोघं । पम्म० - सहस्सारभंगो । सुक्कले ० - आणदभंगो ।
O
३६१. सम्मादिट्ठी - खइग० वेदग० उवसम० ओघिणा णि-भंगो। णवरि उवसम० आयुगाणं णत्थि अप्पा बहुगं ।
३६२. आहाराणुवादेण-आहारा मूलोघं । अणाहारा कम्म (?) कम्मइ० काजोग-भंगो |
एवं परत्थाण- अद्धा - अप्पा बहुगं समत्तं । एवं पगदिबंधो समत्तो ।
साता, हास्य, रति, यशःकीर्ति के बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । असाता, अरति, शोक, अयशःकीर्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । मन:पर्ययज्ञान में - इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेष, यहाँ बन्धकोंमें दो आयुके स्थान में एक देवायुका ही बन्ध कहना चाहिए ।
३५१. संयत, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि तथा संयतासंयतों में- मन:पवत् भंग है ।
अवधिदर्शन में - अवधिज्ञानका भंग है ।
३६०. कृष्ण-नील-कापीत लेश्या में - नरकगति के समान भंग है । तेजोलेश्या में - देवोंके ओघवत् है । पद्मलेश्या में - सहस्रार स्वर्गके समान भंग है । शुक्ललेश्या में - आनत - स्वर्गका भंग है।
३६१. सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टिमें – अवधि - ज्ञानके समान भंग है । विशेष, उपशमसम्यक्त्वमें आयुकृत अल्पबहुत्व नहीं है ।
विशेष - सम्यग्दृष्टिके मनुष्य अथवा देवायुका ही बंन्ध होता है, उपशम सम्यक्त्व मेंइन दोनोंका ही बन्ध नहीं होता है ।'
३६२. आहारानुवादसे - आहारकोंमें मूलके ओघवत् जानना चाहिए। अनाहारकमेंकार्मण काययोगवत् जानना चाहिए ।
इस प्रकार परस्थान - अंद्धा - अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार प्रकृतिबन्ध समाप्त हुआ ।
१. "णवरिय सब्बुवसम्मे णरसुरआऊणि णत्थि नियमेण ।” गो० क० गा० १२० ।
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