________________
पयडिबंधाहियारो १८४. संजदासंजद-तित्थयराणंबंधगा संखजा, अबंधगा असंखेजा। सेसंबंधा० आयु दो ५० असंखेजा (?)। असंजदेसु-धुविगाणं बंधगा अणंता, अबंधगा णत्थि । थीणगिद्वितियं मिच्छत्तं अणंताणुवं०४ ओरालियसरीरं बंधगा अणंता । अबंधगा संखेजा। तित्थयरं बंधगा असंखेज्जा, अबंधगा अणंता । सेसं तिरिक्खोघं । एवं किण्ण-णीलकाऊणं । णवरि किण्ण. णील तित्थयराणं बंधगा संखेज्जा, अबंधगा अणंता। तेऊएमणुसायु-आहारदुगं बंधगा संखेजा, अबंधगा असंखेजा। पच्चक्खाणावरणीय०४ अबंधगा संखेजा । सेसाणं असंखेजा । एवं पम्माए । णवरि किंचि विसेसो जाणिदव्यो। सुकाए -मणजोगिभंगो । णवरि दोआयु-आहारदुगं बंधगा संखेजा, अबंधगा असंखेजा।
१८५. भवसिद्धिया०-काजोगिभंगो। णवरि वेदणीयस्स अबंधगा संखेजा।
बन्धसामित्तविचयखण्ड में लिखा है कि तीर्थंकर प्रकृति के बन्धके भवको मिलाकर तीसरे भव में तीर्थंकर प्रकृतिकी सत्तावाला जीव मोक्ष जाता है, ऐसा नियम है । अर्थात् इससे अधिक वह संसार में भवधारण नहीं करता है। १८४. संयतासंयतोंमें--तीर्थकर प्रकृति के बन्धक संख्यात हैं, अबन्धक असंख्यात हैं।
विशेष-सेसं बंधा० आयु दो० प० असंखेज्जा'-इस पंक्तिका स्पष्ट भाव समझमें नहीं आया, अतः नहीं लिखा ।
असंयतों में-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक अनन्त हैं , अबन्धक नहीं हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४, औदारिक शरीरके बन्धक अनन्त हैं, अवन्धक संख्यात हैं। तीर्थकरके बन्धक असंख्यात हैं, अवन्धक अनन्त हैं। शेप प्रकृतियों में तियचोंके ओघवत जानना चाहिए। कृष्ण, नील, कापोत लेश्यामें इसी प्रकार है। विशेप, कृष्ण, नील लेश्यामें तीर्थकरके बन्धक संख्यात तथा अबन्धक अनन्त हैं । तेजोलेश्यामें - 'मनुष्यायु, आहारकद्विकके बन्धक संख्यात, अबन्धक असंख्यात हैं। प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक संख्यात हैं। शेष प्रकृतियों के बन्धक,अबन्धक असंख्यात हैं। पद्मलेश्यामें - इसी प्रकार है। इसमें जो कुछ विशेषता है उसे जान लेना चाहिए ।
विशेष-इस लेश्यामें तेजोलेश्याकी अपेक्षा एकेन्द्रिय, स्थावर तथा आतपका बन्ध नहीं होता है।
शुक्ललेश्यामें - मनोयोगीके समान भंग है। विशेष, दो आयु, आहारकद्विकके बन्धक संख्यात, अबन्धक असंख्यात हैं।
१८५. भव्यसिद्धिकों में - काययोगीके समान भंग है। विशेष, यहाँ वेदनीयके अबन्धक संख्यात हैं।
विशेष-भव्य जीवों में अयोगकेवली गुणस्थान भी पाया जाता है, इस अपेक्षा वेदनीयके अबन्धक यहाँ कहे गये हैं। सम्यक्त्वे इति भिन्नविभक्तिकरणं तत्सम्यक्त्वे स्तोकान्तमहर्तकालत्वात् पोडशभावना-समृद्धयभावात् तद्बन्ध प्रारम्भो न इति केषांचित् पक्षं ज्ञापयति ।। -संस्कृतटीका.पृ०७८। पारद्धतित्ययबंधभवादो तदियभवे । तित्थयर संतकम्मिय जीवाणं मोकावगमण नियमादो ॥ -बंधसामित्तविचय,ताम्रपत्र प्रति पृ० ७५ ।
१. मिच्छस्मंतिमणवयं वारं णहि तेउपम्मेसु ।" -गो० क०, गा० १२०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org