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________________ महाबंधे २०४ सम्मादिष्टि धुविगाणं बंधगा असंखेजा, अबंधगा अणंता । सेसाणं धुविगाणं भंगो । पत्तेगेण साधारणेण वि मणुसायुआहारदुगं बंधगा संखेज्जा । एवं खइगसम्मादिट्ठीणं । णवरि देवायुबंधगा संखेजा, अबंधगा अणंता । वेदग०-धुविगाणं बंधगा असंखेजा। . विशेषार्थ-भव्य सिद्धिक जीव द्रव्य प्रमाणसे कितने हैं ? इसके उत्तर में 'खुद्दाबन्ध सूत्र में आचार्य कहते हैं "अणंता” (१५६) । अभव्यसिद्धिक जीव भी 'अणंता' अनंत कहे गये हैं। 'धवलाटीकामें यह शंका-समाधान दिया गया है: शंका- व्ययके न होनेसे व्युच्छित्तिको प्राप्त न होनेवाली अभव्यराशिके 'अनन्त' यह ..संज्ञा कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अनन्तरूपके केवलज्ञानके ही विषयमें अवस्थित संख्याके उपचारसे अनन्तपना मानने में कोई विरोध नहीं आता। यद्यपि अभव्य जीवराशि भव्य राशिके समान अनन्त कही गयी है, किन्तु उनमें बहुत अन्तर है । गोम्मटसार'जीवकाण्डमें लिखा है : अवरो जुत्ताणतो अभव्वरासिस्स होदि परिमाणं । तेण विहीणो सम्वो संसारी भवरासिस्स ॥५६०॥ __ अभव्यराशिका परिमाण जघन्य मुक्तानन्त है। उससे रहित संसारी जीवोंकी संख्या प्रमाण भव्य जीवराशि कही है। अभव्यराशिको अनन्तगुणा किया जाये, तो सिद्ध राशिके अनन्तवें भाग प्रमाण संख्या आती है । उतना समय प्रबद्धका प्रमाण कहा गया है। कहा भी है : 'सिद्धाणंतिमभागं अभवसिद्धादर्णतगुणमेव । समयपबद्धं बंधदि जोगविसादो दु विसरित्थं ॥ गो० क०,४॥ 'धवला टीकामें लिखा है- "सिद्धि-पुरक्कदा भविया णाम' सिद्धि पुरस्कृत जीवोंको भव्य कहते हैं। 'तव्विदीया अभविया णाम' - इसके विपरीत जीवोंको अभव्य कहते हैं। "सिद्धा पुण न भविया, ण च अभविया तन्विवरीद-सरूवत्तादो” (खु० बं०,पृ० २४२ ) सिद्ध जीव न तो भव्य हैं और न अभव्य हैं, क्योंकि उनका स्वरूप भव्य तथा अभव्यसे विपरीत है । भव्योंकी राशि अक्षय अनन्त कही गयी है। भूतबलि स्वामी कहते हैं : "अणंताणंता हि ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण" ( खु० बंसू० १५७ ) भव्य सिद्धिक जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी प्रमाणकालसे अपहृत नहीं होते। सम्यग्दृष्टियोंमें - ध्रुवप्रकृतियोंके बन्धक असंख्यात हैं। अबन्धक अनन्त हैं । शेष प्रकृतियोंका ध्रुव प्रकृतिवत् भंग है । प्रत्येक तथा सामान्यसे मनुष्यायु तथा आहारकद्विकके बन्धक संख्यात हैं। क्षायिक सम्यक्त्वियोंमें - इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, देवायुके बन्धक संख्यात, अबन्धक अनन्त हैं। वेदकसम्यक्त्वमें - ध्रुव प्रकृतियों के बन्धक असंख्यात हैं, २. सिद्धराश्यनन्तकभागं, अभव्यसिद्धेभ्योऽनन्तगुणं तु पुनः योगवशाद् विसदृशं समयप्रबद्धं बध्नाति । समय समय प्रबध्यते इति समयप्रबद्धः । णय जे भग्वाभन्दा मत्तिसूहातीदणंतसंसारा। ते जीवा णायचा णेव य भव्वा अभव्वा य ।। -गो० जी०,५५६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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