________________
२०२
महा बंधे
चदुदंस०
चदुसंज०
अधगा
साद० जस० उच्चागोद० पंचंतराइगाणं बंधगा संखेजा, अनंता । अकसाइ - सादबंधगा संखेजा, अबंधगा अनंता [ एवं ] केवलणा • केवलदंस० विभंग० पंचिंदिय-तिरिक्ख-भंगो | णवरि किंचि विसेसो जाणिदव्वो । आभिणि० सुद० अधि० - पंचणा० छदंस० अट्ठकसाय पुरिस० भयदु० पचिदि० तेजाक० समचदु० वण्ण०४ अगुरु ०४ पसत्थ० तस०४ सुभग० सुस्सरआदेज० णिमि० उच्चा० पंचत० बंधगा० केत्तिया ? असंखेजा । अबंधगा संखेजा । सादासादबंधगा अबंधगा असंखेज्जा । दोष्णं वेदणीयाणं बंधगा असंखेजा, अबंधगा णत्थि । चदुणोकसायाणं बंधगा अबंधगा असंखेजा । दोण्णं युगलाणं बंधगा असंखेजा । अबंधगा संखेज्जा । एवं दोग दि- दोसरीर दोअंगोवंग- दोआणुपुब्वि० थिरादितिष्णियुगलाणं । मणुसायु - आहारदुगं बंधगा संखेजा, अबंधगा असंखेजा । अपच्चक्खाणावरण ०४ देवायु ० वज्ञरिसभ० तित्थयराणं बंधगा अबंधगा असंखेज्जा । एवं अधिदं० उवसम० । वरि उवसम तित्थयराणं बंधगा संखेजा, अबंधगा असंखेज्जा ।
मिथ्यात्व के अबन्धक नहीं हैं । अपगतवेद में - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायोंके बन्धक संख्यात हैं । अबन्धक अनन्त हैं । अकषाय जीवों में - साताके बन्धक संख्यात हैं, अबन्धक अनन्त हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन में इसी प्रकार है । विभंगावधि में - पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका भंग है । इसमें जो किंचित् विशेषता है, उसे जान लेना चाहिए।
आभिनिबोधिक, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान में - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ८ कपाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस - कार्मण, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र तथा ५ अन्तरायोंके बन्धक कितने हैं ? असंख्यात हैं । अबन्धक संख्यात हैं। साता तथा असाताके बन्धक,अबन्धक असंख्यात हैं। दोनों वेदनीयों के बन्धक असंख्यात हैं, अबन्धक नहीं हैं । चार नोकषायों ( हास्य- रति, अरति शोक ) के बन्धक, अबन्धक असंख्यात हैं । इन दोनों युगलों के बन्धक असंख्यात हैं, अबन्धक संख्यात हैं । इस प्रकार दो गति, २ शरीर, २ अंगोपांग, २ आनुपूर्वी तथा स्थिरादि तीन युगलों में जानना चाहिए। मनुष्यायु तथा आहारकद्विकके बन्धक संख्यात, अबन्धक असंख्यात हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४, देवायु, वज्रवृपभ संहनन तथा तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धक, अबन्धक असंख्यात हैं । अवधिदर्शन और उपशम सम्यक्त्व में इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष, उपशम सम्यक्त्व में तीर्थंकर के बन्धक संख्यात, अबन्धक असंख्यात हैं ।
विशेषार्थ - कुछ आचार्योंका मत है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्वका काल अन होने से उसमें तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता है, किन्तु द्वितीयोपशम में तीर्थंकर प्रकृति के बन्धके त्रिषयमें मतभेद नहीं है ।
१. "पढमुवसमये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि । तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते ॥" - गो० क० गा० ९३ । - प्रथमोपशमसम्यक्त्वे शेष द्वितीयोपशम- क्षायोपशमिक क्षायिक सम्यक्त्वेषु च असंयताद्यमन्तान्तमनुष्या एवं तीर्थंकरबंधं प्रारम्भन्ते तेऽपि प्रत्यक्ष केवलिश्रुतकेवलिश्रीपादोपान्त एवं । अत्र प्रथमोपाग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org