SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना मध्यम तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़बुद्धि अर्थात् मजबूत स्मरण शक्ति युक्त थे, एकाग्रमन थे, मोहरहित होते थे। इससे उनसे जो अतिचार होता था, उस दोष की वे गर्दा करते थे और शुद्ध चारित्रवाले बनते थे। ___"पुरिम-चरिमा दु जम्मा चलचित्ता चेव मोहलक्खा च। तो सव्वपडिक्कमणं अंधलम-घोडय-दिटुंता ॥१५८॥" आद्यन्त तीर्थंकरों के शिष्य चंचलचित्त हैं। उनका मन दृढ़ नहीं है। मोह से उनका मन आक्रान्त है। वे ऋजुजड़ और वक्रजड़ हैं। अतः सर्व प्रतिक्रमण दण्डकों का वे उच्चारण करते हैं। उनके लिए का दृष्टान्त है। जैसे वैद्य पुत्र ने अन्धे घोड़े की औषधि का ज्ञान होने से नेत्र की भिन्न-भिन्न दवाओं को क्रम-क्रम से लगा, उसे रोगमुक्त कर दिया, उसी प्रकार सर्व प्रतिक्रमणों का उच्चारण करते हैं, क्योंकि सर्व प्रतिक्रमण दण्डक कर्मक्षय के कारण हैं। उच्छ्वास का उपयोग-दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक आदि प्रतिक्रमणों में णमोकार के जप की आवश्यकता कही गयी है। मूलाचार में लिखा है-“दैवसिक प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में एक सौ आठ उच्छ्वास करना चाहिए। अर्थात् छत्तीस बार पंच नमस्कार का जाप करना चाहिए। एक बार णमोकार का पाठ करने में तीन उच्छ्वास का काल लगता है। ‘णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं' में एक उच्छ्वास, ‘णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं' में दूसरा उच्छ्वास तथा ‘णमो लोए सव्वसाहूणं' पदोच्चारण में तीसरा उच्छ्वास होता है। प्राण वायु को भीतर लेना और बाहर छोड़ना, यह उच्छ्वास का लक्षण है। रात्रिक प्रतिक्रमण में चौवन उच्छ्वास करना चाहिए अर्थात् १८ बार पंच नमस्कार मन्त्र को चौवन उच्छ्वासों में पढ़ना चाहिए। पाक्षिक प्रतिक्रमण तीन सौ उच्छ्वासों में अर्थात् सौ बार णमोकार पढ़ना चाहिए। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सौ उच्छ्वास, सांवत्सरिक में पाँच सौ उच्छ्वास कहे हैं। (मूलाचार पृ. ३३८, अ. ७, गा. १८५, १८६) अनगारधर्मामृत टीका (अ. ८, पृ. ६७५) में यह पद्य उद्धृत किया गया है, “सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे। सन्ति पंचनमस्कारे नवधा चिन्तिते सति ॥" पंचनमस्कार मन्त्र का नौ बार चिन्तवन करने में २७ उच्छ्वास होते हैं। इस प्रकार इसका चिन्तवन संसार का उच्छेद करने में समर्थ होता है। णमोकार मन्त्र के पाठ में तीन उच्छ्वास प्रमाण काल लगता है। यह उच्छ्वास व्यवहार काल का भेद कहा है। 'आवलि असंखसमया संखेज्जावलि समूहमुच्छ्वासो'-असंख्यात समय प्रमाण आवलि होती है तथा संख्यात आवली प्रमाण उच्छ्वास होता है। चरणानुयोग रूप आगम में णमोकार के जाप की गणना को उच्छ्वास के माध्यम से भी कहा गया है। जैसे नौ बार णमोकार का जाप करे, इसको इस रूप से कहेंगे कि २७ उच्छ्वास करते हैं। अनगारधर्मामृत में लिखा है "उच्छ्वासा : स्युस्तनूत्सर्गे नियमान्ते दिनादिषु। पंचस्वष्ट-शतार्ध-त्रि-चतुःपंचशतप्रमाः ॥८-७२॥" दिन, रात्रि, पक्ष, चतुर्मास, संवत्सर इन पाँच अवसरों पर वीर भक्ति करते समय जो कायोत्सर्ग किया जाता है, उसमें क्रम से एक सौ आठ, चौअन, तीन सौ, चार सौ, और पाँच सौ उच्छ्वास हुआ करते हैं। अनादि मन्त्र मानने में हेतु-जैनधर्म का प्राण श्रमण धर्म है। उस मुनिधर्म को निर्दोष बनाने के लिए साधुगण संदा प्रतिक्रमणादि-द्वारा अपनी आत्मा को परिशुद्ध करते हैं। उस प्रतिक्रमण कार्य में पंच णमोकार का स्मरण अत्यन्त आवश्यक अंग है। भगवान् ऋषभनाथ तीर्थंकर के समय में भी जो साधुराज होते थे, वे प्रतिक्रमण करते समय णमोकार मन्त्र को पढ़ा करते थे। अतः यह णमोकार मन्त्र गौतम गणधर से ही सम्बन्धित नहीं है, किन्तु इसका सम्बन्ध प्रथम गणधर वृषभसेन स्वामी से भी रहा है। यथार्थ में यह अनादि मूल मन्त्र है। चौदह पूर्व के अन्तर्गत जो विद्यानुवाद नाम का दशम पूर्व है, उसमें णमोकार मन्त्र को पैंतीस अक्षरों से युक्त मन्त्र के रूप में निरूपण किया गया है। अतः चरणानुयोग रूप परमागम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy