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________________ ५४ महाबन्ध के प्रकाश में भी णमोकार मन्त्र अनादि मूल मन्त्र निश्चित होता है। ऐसी स्थिति में मुद्रित हिन्दी धवला टीका के नाम पर जिन्होंने यह धारणा बना ली है कि यह णमोकार पुष्पदन्त आचार्य की रचना है, वह योग्य नहीं है। यह णमोकार मन्त्र उसी प्रकार अनिबद्ध मंगल रूप है, जिस प्रकार णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं आदि वेदना खण्ड, वर्गणा खण्ड तथा 'महाबन्ध' के मंगल सूत्र अनिबद्ध मंगल हैं। प्रश्न- 'षट्खण्डागम' के प्रारम्भ में पुष्पदन्त आचार्य णमोकार मन्त्र रूप मंगल सूत्र को उद्धृत करके जीवट्ठाण को अलंकृत किया गया, चौथे, पाँचवें तथा छठे खण्ड में भूतबलि स्वामी ने भी ग्रन्थान्तर का मंगल उद्धृत किया, तो क्या दूसरे और तीसरे खण्ड में भी इसी प्रकार अनिबद्ध मंगल को अपनाने की पद्धति अंगीकार की गयी है? समाधान-दूसरे तथा तीसरे खण्ड में भूतबलि स्वामी ने स्वयं मंगल पद्यों को रचकर उन खण्डों को निबद्ध मंगल युक्त किया है। इस प्रकार 'षट्खण्डागम' सूत्र में निबद्ध और अनिबद्ध दोनों प्रकार के मंगल पाये जाते हैं। अन्य ग्रन्थों में निबद्ध मंगल ही पाया जाता है। निबद्ध मंगल-दूसरे खण्ड में क्षुद्रबन्ध में यह महत्त्वपूर्ण मंगल श्लोक है “जयउ धरसेणणाहो जेण महाकम्मपयडि-पाहुड-सेलो। बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ पुप्फयंतस्स॥" वे धरसेन स्वामी जयवन्त हों, जिन्होंने महा-कर्मप्रकृति-प्राभृत रूप पर्वत को अपनी बुद्धिरूपी मस्तक के द्वारा धारण करके उसे पुष्पदन्त को सौंपा। इस गाथा में भूतबलि आचार्य ने 'महाकम्म-पयडि-पाहड' ग्रन्थ की पर्वत से तलना की है। पर्वत विशाल होता है, यह दुर्गम होता है, असमर्थ तथा दुर्बल हृदयवाले उस पर्वत के पास नहीं जाते हैं, इसी प्रकार यह कर्मविषयक ग्रन्थ महान् है, गम्भीर है तथा सर्व साधारण की पहुँच के परे है। यह महाज्ञानियों की बुद्धि के द्वारा गम्य है। भूतबलि आचार्य की महत्ता-इस ग्रन्थ का उपदेश धरसेन स्वामी ने पुष्पदन्त के साथ भूतबलि को भी दिया था, किन्तु अत्यन्त विनम्र भाव से भूषित हृदय होने से भूतबलि स्वामी अपना कोई भी उल्लेख न करके अपने साथी का ही वर्णन करते हैं। बन्ध-स्वामित्व-विचय नाम के तीसरे खण्ड की मंगल गाथा इस प्रकार है “साहू-वज्झाइरिए अरहते वंदिऊण सिद्धे वि। जे पंच लोगवाले वोच्छं बंधस्स सामित्तं॥" साधु, उपाध्याय, आचार्य, अरहंत तथा सिद्ध-इन पंच लोकपालों की वन्दना करके मैं बन्ध-स्वामित्व . विचय ग्रन्थ का कथन करता हूँ। पाँचों परमेष्ठी का जीवन त्रस तथा स्थावर जीवों का रक्षक होने से उनको लोकपाल कहा है। वे प्राणीमात्र का रक्षण करते हैं। 'षट्खण्डागम' सूत्र के विषय में यह बात ज्ञातव्य है कि जीवट्ठाण के १७७ सूत्रों के सिवाय द्रव्यप्रमाणानुगम आदि समस्त ग्रन्थ भूतबलि मुनीन्द्र की रचना होते हुए भी उन्होंने प्रकारान्तर से भी अपने नाम की झलक तक नहीं दी। (वेदना खण्ड, ताम्रपत्र, पृ. ४०, ४१) में टीकाकार वीरसेन-स्वामी ने कहा है-'एवं पमाणीभूदमहरिसि-पणालेण आगंतूण महाकम्मपयडि-पाहुडामिय-जलप्पवाहो धरसेणभडारयं संपत्तो। तेण वि गिरिणयर-चंदगुहाए भूदबलि-पुप्फदंताणं महाकम्मपयडिपाहुडं सयलं समप्पिदं। तदो भूदबलिभडारयेण सुदणईपवाह-वोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहटुं महाकम्म-पयडिपाहुडं उवसंहरिय छखंडाणि कयाणि"-इस प्रकार प्रमाणरूप महर्षिरूप प्रणालिका से आता हुआ महाकर्म-प्रकृतिप्राभृतरूप अमृत जल का प्रवाह धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ। उन्होंने गिरिनगर की चन्द्रगुहा में भूतबलि तथा पुष्पदन्त को सम्पूर्ण महाकर्मप्रकृतिप्राभृत प्रदान किया। इसके अनन्तर भूतबलि भट्टारक ने श्रुतज्ञान रूप नदी के प्रवाह के व्युच्छेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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