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प्रस्तावना
के भय से भव्यलोक के अनुग्रह के हेतु महाकर्मप्रकृतिप्राभृत का उपसंहार करके छह खण्ड रूप रचना की।" इस प्रकार धवलाटीकाकार भूतबलि भट्टारक के विषय में प्रकाश डालते हैं, जिससे यह प्रतीत हो जाता है कि इस ग्रन्थरचना में उनका बहुत बड़ा हाथ था। फिर भी, वे महापुरुष अपने विषय में मौन धारण करते हैं; ऐसी विश्वपूज्य आत्माओं का जीवन धन्य माना गया है। यथार्थ में धरसेन स्वामी, पुष्पदन्त स्वामी, भूतबलि स्वामी ये रत्नत्रय तुल्य थेआचार्य धरसेन की विशेषता-वीरसेन स्वामी धरसेन भट्टारक के विषय में लिखते हैं
“पसियउ यहु घरसेणो पर-वाइ-गओह-दाण-वर-सीहो।
सिद्धतामिय-सायर-तरंग-संघाय-धोय-मणो ॥४॥" वे धरसेन आचार्य मुझ पर प्रसन्न हों जो परवादी रूप गजसमूह के मद को नष्ट करने के लिए श्रेष्ठ सिंह के समान हैं तथा जिनका अन्तःकरण सिद्धान्त रूपी अमृत के सागर की तरंगों के समूह से परिशुद्ध हो चुका है। पुष्पदन्त को प्रणामांजलि
“पणमामि पुप्फदंतं दुकयंतं दुण्णयंधयार-रविं।
भग्ग-सिव-भग्ग कंटयनिसि-समिइ-वई सया दंतं ॥५॥" ___ मैं उन पुष्पदंत आचार्य को प्रणाम करता हूँ जो दुष्कृतों का अन्त करनेवाले हैं, कुनयरूपी अन्धकार के लिए सूर्य के समान हैं, जिन्होंने मोक्षमार्ग के कंटकों को नष्ट कर दिया है, जो ऋषि समाज के स्वामी हैं तथा निरन्तर इन्द्रियों का दमन करते हैं।
भूतबलि भट्टारकभूतबलि स्वामी के विषय में आचार्य वीरसेन कहते हैं
“पणमह कय-भूय-बलिं भूयबलि केस-वास परिभूय-बलिं।
विणिहय-वम्मह पसरं वड्ढाविय विमल-णाण-वम्मह-पसरं ॥६॥" जो प्राणिमात्र अथवा भूत जाति के व्यन्तर देवों से पूजे गये हैं, जिन्होंने अपने केशपाश के द्वारा जरा आदि से उत्पन्न हुई शिथिलता को तिरस्कृत किया है, जिन्होंने कामभाव के प्रसार को नष्ट करके वर्द्धमान, निर्मल ज्ञान के द्वारा ब्रह्मचर्य के प्रसार को बढ़ाया है, ऐसे भूतबलि स्वामी को प्रणाम करो।
जैनी दीक्षा में उपयोग-इस महामन्त्र णमोकार का जैन संस्कृति में दीक्षा प्रदान करते समय उपयोग किया जाता है। 'महापुराण' में नवीन जैन दीक्षा लेनेवाले व्यक्ति के लिए इस प्रकार संस्कार का वर्णन आया है-"जिनेन्द्र भगवान के समवसरण में मंगल की पूजा हो जाने के उपरान्त आचार्य उस भव्य पुरुष को जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा के सम्मुख बैठाएँ और बार-बार उसके मस्तक को स्पर्श करता हुआ कहें कि यह तेरी श्रावक की दीक्षा है-“तवोपासकदीक्षेयं” (पर्व ३६, श्लोक ४१)। पंच गुरु मुद्रा के विधानपूर्वक उसके मस्तक का स्पर्श करें तथा तू दीक्षा से पवित्र हुआ है-“पूतोऽसि दीक्षया", इस प्रकार कहकर उससे पूजा के शेषाक्षत ग्रहण कराएँ।
"ततः पंचनमस्कारपदान्यस्मा उपादिशेत् ।
मन्त्रोऽयमखिलात्पापात्त्वां पुनीतादितीरयन् ॥४३॥" इसके पश्चात् आचार्य उस भव्य को पंचनमस्कार पदों का उपदेश दें तथा उसके पूर्व यह आशीर्वाद दें कि यह मन्त्र समस्त पापों से तुझे पवित्र करे।
यह अडतालीस प्रकार की दीक्षान्वय क्रिया के अन्तर्गत तीसरी स्थानलाभ नाम की क्रिया कही गयी है।
गणधर कथित पर्युपासना में णमोकार-गौतम गणधर रचित 'प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी में प्रतिक्रमण करते समय यह पाठ पढ़ा जाता है-“जाव अरहंताणं भयवंताणं णमोक्कारं करेमि, पज्जुवासं करेमि ताव कायं
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