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महाबन्ध
पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि " - जब तक मैं अरहन्त भगवान् को नमस्कार करता हूँ, पर्युपासना करता हूँ, तब तक मैं पापकर्म तथा दुश्चरित्र के कारण शरीर के प्रति उदासीनो भवामि - मैं उदासीनता धारण करता हूँ । पर्युपासना के विषय में टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द इस प्रकार प्रकाश डालते हैं- “एकाग्रेण हि विशुद्धेन मनसा चतुर्विंशत्युत्तर- शतत्रयाद्युच्छ्वासैरष्टोत्तरशतादिवारान् पञ्चनमस्कारोच्चारणमर्हतांपर्युपासनकरणं”(बृहत्प्रतिक्रमण, पृष्ठ १५१ ) । एकाग्रचित्त हो विशुद्ध मनोवृत्तिपूर्वक तीन सौ चौबीस उच्छ्वास में एक सौ आठ बार पंचनमस्कार का उच्चारण करना अर्हन्त की पुर्वपासना है।” इससे स्पष्ट होता है कि प्रतिक्रमण करते समय १०८ बार णमोकार का जापरूप पर्युपासना का कार्य आवश्यक है। अतः णमोकार मन्त्र की रचना 'षट्खण्डागम' सूत्रों के मंगल रूप में आचार्य पुष्पदन्त द्वारा की गयी है, यह धारणा पूर्णतया भ्रान्त प्रमाणित होती है। यह द्वादशांगवाणी का अंग है ।
यह णमोकार मन्त्र जैन संस्कृति का हृदय है। श्रमणों तथा उपासकों के लिए प्राणसदृश है। धर्मध्यान के दूसरे भेद पदस्थ ध्यान में मन्त्रों के जाप और ध्यान का कथन किया गया है। पंचपरमेष्ठी के वाचक पैंतीस अक्षर रूप मन्त्र का ध्यान तथा जप का उल्लेख आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने द्रव्यसंग्रह गाथा ४६ में किया है। उसकी टीका में द्वादश सहस्र श्लोकप्रमाण पंचनमस्कार ग्रन्थ का उल्लेख किया गया है । '
निष्कर्ष - इस प्रकार णमोकार मन्त्र की प्राचीनता के विषय में शास्त्राधार तथा गुरुपरम्परा सद्भाव होने से उसे द्वादशांग वाणी का अंग मानना चाहिए। इस चर्चा से यह ज्ञात होता है कि सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्रों के प्रारम्भ में महाज्ञानी मुनीन्द्र पुष्पदन्त स्वामी ने णमोकारमन्त्र रूप अनिबद्ध मंगल को निबद्ध किया था तथा वेदना, वर्गणा तथा 'महाबन्ध' रूप तीन खण्डों के लिए णमो जिणाणं' आदि ४४ मन्त्रों को भूतबलि स्वामी ने मंगल सूत्र बनाये, जो कि णमोकार मन्त्र के समान ही द्वादशांग वाणी के ही साक्षात् अंग रूप । वास्तव में यह हमारा अनादिमूलमन्त्र है तथा यथार्थ में यह अपराजित मन्त्रराज है । 'अनादिमूलमन्त्रोऽयम्' यह पाठ पूजा के समय पढ़ा जाता है; वह वास्तविकता से सम्बन्ध रखता है।
यह भी स्मरणीय बात है कि श्वेताम्बर जैन साहित्य में भी इस महामन्त्र को दिगम्बरों के समान ही पूज्य और प्राचीन माना गया है।
जिस प्रकार गौतम गणधर के मंगलसूत्रों को भूतबलि स्वामी ने अपनी रचना का मंगल बनाया, तदनुसार इस हिन्दी टीका में भी वीरसेन स्वामी के मंगलपद्यों को हमने विघ्न विनाश निमित्त अपने मंगलरूप में ग्रहण किया ।
प्रतिलिपि के विषय में
'महाबन्ध' की मूल प्रति ताड़पत्र पर कन्नड़ लिपि में है । भाषा प्राकृत है। प्राचीन प्रति होने के कारण उसकी लिपि भी पुरातन कन्नड़ है। 'महाबन्ध ग्रन्थ २१६ ताड़पत्रों में है। इसके आरम्भ के २६ ताड़पत्रों का 'महाबन्ध' से कोई सम्बन्ध नहीं है । उसमें सत्कर्मपंजिका है जो 'षट्खण्डागम' के अन्य विषय स्थलों पर प्रकाश डालती है । 'महाबन्ध' का प्रारम्भिक ताड़पत्र अनुपलब्ध है । सम्पूर्णग्रन्थ के १४ पत्र नष्ट हो चुके हैं। इससे लगभग तीन-चार सहस्र श्लोक प्रमाण, शास्त्र तो सदा के लिए हमारे दुर्भाग्य से चला गया। कहीं-कहीं पत्र इतस्ततः त्रुटित भी हैं । इसके कारण अनेक महत्त्वपूर्ण स्थलों का अवबोध नहीं हो सकता तथा किसी विषय का सहसा रस भंग हो जाता है, कारण प्रसंग-परम्परा का अभाव हो गया है। ऐसे अवसर पर हृदय में अवर्णनीय वेदना होती है कि हमारी असावधानी के कारण उसे द्वादशांग वाणी की महानिधि का वह अंश लुप्त हो गया जो जगत् के कल्याण निमित्त धरसेन स्वामी ने भूतबलि मुनीन्द्र के द्वारा बड़ी कठिनता से नष्ट होने से बचाया था। आज उस लुप्त अंश की पूर्ति की कथा ही दूर, उसकी पंक्तियों की पूर्ति करना भी असम्भव है। कारण भूतबलि स्वामीसदृश क्षयोपशम किसे प्राप्त है ?
१. “ द्वादश सहस्र-प्रमित-पंचनमस्कारग्रन्थ-कथितक्रमेण लघुसिद्धचक्रं, बृहत्सिद्धचक्रमित्यादिदेवार्चन - विधानं भेदाभेदरत्नत्रयाराधक- गुरुप्रसादेन ज्ञात्वा ध्यातव्यम् ॥”
बृहत् द्रव्यसंग्रह, २०४
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