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प्रस्तावना
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आचार्य शान्तिसागर महाराज की श्रेष्ठ श्रुतसेवा इस सम्बन्ध में यह कथन उल्लेखनीय है कि चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर महाराज ने सन् १६४३ के दशलक्षण पर्व के समय स्वर्गीय ब्रह्मचारी फतेचन्द्रजी परवारभूषण के द्वारा एक पत्र भिजवाया था । उसमें यह लिखा था कि '१०८ पूज्य आचार्य महाराज 'महाबन्ध' के सूत्रों की प्रतिलिपि चाहते हैं, अतः उसको लिखकर शीघ्र भिजवाएँ।' उस समय हमने आचार्य महाराज को समाचार भेजा था कि 'महाबन्ध' भूतबलि स्वामी रचित सूत्ररूप ही है। उस पर कोई टीका नहीं है। चालीस हजार प्रमाण ग्रंथ की प्रतिलिपि के लिए लेखक भिजवाना आवश्यक होगा। दुर्भाग्य से ग्रन्थ के १४ ताड़पत्र नष्ट हो जाने से तीन-चार हजार श्लोक सदा के लिए विलुप्त हो गये।"
हमारे पत्र को प्राप्त कर प्रवचनभक्ति-भावना-भूषित आचार्य महाराज के हृदय में अपार चिन्ता उत्पन्न हो गयी। उन्होंने कहा था- "तुम्हारे पत्र को पाकर हमें ऐसी ही चिन्ता हो गयी थी, जैसी चिन्ता धरसेन स्वामी के मन में शास्त्र के उद्धार हेतु हुई थी। रात्रि को नींद नहीं आयी। हमने सोचा तीन, चार हजार श्लोक तो नष्ट हो चुके । यदि शीघ्रता से ग्रन्थों की रक्षा का कार्य नहीं किया गया, तो और भी अपार क्षति हो जाएगी । इससे हमने कुन्धलगिरि में संघपति गेंदनमल भट्टारक जिनसेन (नोंदणी मठ), चन्दूलाल सराफ, बारामती आदि के समक्ष कहा था कि हमारी इच्छा है कि धवल, 'महाधवल' और जयधवल इन आगम-ग्रन्थों को ताम्रपत्र में खुदवाकर उनकी रक्षा की जाए, जिससे वे चिरकाल तक सुरक्षित रह सकें। उस समय संघपति सेठ गेंदनमल ने कहा कि वे इस काम के लिए सारा खर्चा देने को तैयार हैं; किन्तु हमने कहा कि यह काम एक का नहीं है। समाज के द्वारा यह कार्य होना चाहिए। लोगों ने रात्रि के समय बैठक करके इस कार्य के लिए अर्थ की व्यवस्था की। इस कार्य के लिए जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था की स्थापना की गयी । 'महाराज ने हमसे कई बार कहा था कि इन सिद्धान्त ग्रन्थों को ताम्रपत्र में उत्कीर्ण किये जाने में मुख्य कारण तुम हो। तुम्हारे पत्र के कारण ही हमारा ध्यान ताम्रपत्र में ग्रन्थ को उत्कीर्ण कराने को गया था ।” उक्त संस्था के मन्त्री श्री बालचन्द्र देवचन्द शहा, बी. ए. सोलापुर ने महत्त्वपूर्ण सेवा की ।
उन जगद्वंद्य, बालब्रह्मचारी, श्रमणशिरोमणि आचार्य महाराज की प्रेरणा से एक लाख सत्तर हजार श्लोक के लगभग सिद्धान्त शास्त्र ताम्रपत्र में उत्कीर्ण हो गये तथा उनकी पाँच सौ प्रतियाँ भी कागज में मूल रूप
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मुद्रित हो गयीं । उन प्रभावक मनस्वी गुरुदेव के प्रभाव से जैनधर्म तथा रत्नत्रय की ज्योति बहुत दीप्तिमान् हुई थी, किन्तु उनके कार्यों में सिद्धान्त-शास्त्र-संरक्षण तथा उसका प्रचार कार्य सर्वोपरि गिना जाएगा। उन्हीं साधुराज की इच्छानुसार सम्पूर्ण मूल रूप 'महाबन्ध' के संशोधन, सम्पादन का कार्य करके ताम्रपत्र में उत्कीर्ण कराने में हमें भी अपनी नम्र ऑनरेरी सेवा अर्पण करने का परम सौभाग्य मिला । हमने सम्पूर्ण 'महाबन्ध' मुद्रित कराकर सन् १६५४ के दशलक्षण पर्व में फलटण के जिनालय में आचार्य शान्तिसागर महाराज के कर-कमलों में सविनय समर्पण कर उनका हार्दिक आशीर्वाद प्राप्त किया था। हमारे द्वारा एक वर्ष में ही सम्पूर्ण कार्य को सम्पन्न देखकर उन गुरुदेव को अपार आनन्द तथा सन्तोष हुआ था।
१. श्री १०८ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर दिगम्बर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था की रिपोर्ट में लिखा है - " आचार्य शान्तिसागर महाराज ने अनेक बार यह कहा था कि इस जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था के कार्यपूर्ति के कारण दिवाकरजी हैं, क्योंकि इनके द्वारा जब पूज्य श्री को महाघवल ग्रन्थ के चार, पाँच हजार श्लोकों के नष्ट होने की सूचना प्रेषित की गयी, तब आचार्यश्री के मन में श्रुतरक्षण की ऐसी ही तीव्र भावना उत्पन्न हुई, जिस प्रकार आचार्य धरसेन स्वामी को श्रुतरक्षण की चिन्ता उत्पन्न हुई थी। श्री पं. सुमेरचन्दजी दिवाकर शास्त्रीजी ने महाधवल के सम्पादन, प्रकाशन आदि का कार्य बहुत धर्मप्रेमवश परिश्रमपूर्वक किया और उसके बदले में किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता या भेंट स्वीकार नहीं की। फलटण में उक्त पण्डित जी को आचार्यश्री के समक्ष संवत् २०१० भाद्रपद वदी ५ को सम्मानित किया । आचार्यश्री ने पं. दिवाकरजी की निःस्वार्थ सेवा और किसी प्रकार की भेंट स्वीकार न करने पर अत्यन्त हर्ष प्रदर्शित करते हुए पण्डितजी को मंगलमय पवित्र आशीर्वाद प्रदान किया।" (पृष्ठ ६ तथा ७ संवत् २०१० से २०१६ का अहवाल, प्रकाशक, बालचन्द देवचन्द शहा, बी.ए. मन्त्री तथा माणिकचन्द मलूकचन्द दोशी, बी. ए. एल एल बी, उपमन्त्री, फलटण (महाराष्ट्र ) ।
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