________________
महाबन्ध
महाबन्ध की प्रतिलिपि- 'महाबन्ध' आदि सिद्धान्त ग्रन्थों की जो कन्नड़ लिपि में ताड़पत्र में उत्कीर्ण प्रति मूडबिद्री के सिद्धान्त मन्दिर में विद्यामन है, वह यथार्थ में मूल प्रति नहीं है। वह प्रति सात या आठ सौ वर्ष पुरानी कही जाती है। उस प्रति के आधार पर अन्य प्रतियाँ तैयार कराकर कुछ स्थानों पर भेजी गयी हैं। हमने मूडबिद्री जाकर इन ग्रन्थों को देखा, कारण ताम्रपत्र की प्रति तैयार करने में कोई त्रुटि न रह जाए, अतः मूडबिद्री की कॉपी का सूक्ष्म निरीक्षण आवश्यक था। 'महाबन्ध' की हमारी प्रति में पाठ कहीं-कहीं दूसरा था, ज्ञानपीठ काशी से मुद्रित प्रति में भिन्न था। इससे मूडबिद्री के ताड़पत्र के शास्त्र का क्या पाठ है, यह जानना आवश्यक तथा पुण्य कर्त्तव्य था। हम अपने साथ में सन् १९५३ में छोटे भाई अभिनन्दनकुमार दिवाकर एम.ए., एल-एल. बी, एडवोकेट को भी मूडबिद्री ले गये थे, क्योंकि ग्रन्थ का सम्यक्-परिशीलन बड़े उत्तरदायित्व का कार्य था। पं. चन्द्रराजैय्या कन्नड़ी भाषा के विशेषज्ञ से ग्रन्थ को हम बँचवाते थे। उस समय हमें ज्ञात हुआ था कि ताड़पत्र की प्रतियाँ कहीं-कहीं अशुद्ध पाठयुक्त भी हैं। पं. लोकनाथजी शास्त्री, पं. नागराजजी शास्त्री तथा पं. चन्द्रराजेन्द्रजी ने पहले हमारे लिए देवनागरी लिपि में प्रतिलिपि तैयार की थी। उसमें कुछ त्रुटियों को देखकर ताड़पत्र की प्रतिलिपि के साथ अपनी प्रतिलिपि का दोबारा सन्तुलन का कार्य पं. चन्द्रराजेन्द्र शास्त्री ने बड़े परिश्रम से सम्पन्न किया था। फलतः महत्त्वपूर्ण भूलों को सुधारा गया है।
महारानी मल्लिका देवी का शास्त्र-दान-मूडबिद्री में विद्यमान ताड़पत्रीय प्रति के विषय में यह बात ज्ञातव्य है कि वनितारत्न महारानी मल्लिकादेवी ने अपने पंचमी व्रत के उद्यापन में उक्त प्रतिलिपि तैयार कराकर यतिपति मुनिराज श्रीमाघनन्दि महाराज को अर्पण की थी। अतः भूतबलि स्वामी के द्वारा लिखित 'महाबन्ध' की मूल प्रति मूडबिद्री में है, ऐसी कल्पना अयथार्थ है। प्रथम प्रति के जीर्ण होकर नष्ट होने के पूर्व दूसरी प्रति श्रुतभक्त व्यक्तियों-द्वारा तैयार की गयी थी। ऐसा ही क्रम अन्य ग्रन्थों के विषय में रहा है। अतः ग्रन्थों के पाठों में संशोधन आदि कार्य करते समय जो यह सोचा जाता है कि यह परिवर्तन भूतबलि, पुष्पदन्त रचित मूल सूत्रों के विषय में किया गया है, यथार्थ में यह बात नहीं है। वास्तव में बात यह है कि मूडबिद्री की प्रतियाँ भी प्रतिलिपियाँ ही हैं। इतने बड़े ग्रन्थों को ताड़पत्र में उत्कीर्ण करने के अनेक वर्ष के परिश्रमसाध्य कार्य में प्रमाद, क्षयोपशम की मन्दता अथवा शारीरिक परिस्थिति आदि अनेक कारणों से कहीं कुछ अयथार्थ लिखा जाना असम्भव नहीं है। पापभीरु, आगमभक्त, श्रुतसेवी विद्वान् पूर्वापर सम्बन्ध, परम्परा आदि के प्रकाश में कार्य किया करते हैं।
मूडबिद्री की प्रति-पूर्ण 'महाबन्ध' २१६ ताड़पत्रों में अंकित है। उसमें २७ पत्र पंजिका के हैं, जिसका 'महाबन्ध' से कोई सम्बन्ध नहीं है। ग्रन्थ के १४ ताड़पत्र नष्ट हो गये; इस प्रकार 'महाबन्ध' की ताड़पत्रीय प्रति १७८ पत्रों में विद्यमान है।
'महाबन्ध' में प्रकृतिबन्ध का कथन ताड़पत्र ५० पर्यन्त है। 'महाबन्ध' के इस प्रथम खण्ड में २२ ताड़पत्रों का मूल तथा अनुवाद छापा जा रहा है। स्थितिबन्ध का वर्णन ताड़पत्र ११३ पर्यन्त है, अनुभाग बन्ध का वर्णन एक सौ तेरह ताड़पत्र तक है तथा प्रदेशबन्ध दो सौ उन्नीस ताड़पत्र पर्यन्त है। मूड़बिद्री के पण्डित लोकनाथ जी शास्त्री के नेतृत्व में हमने देवनागरी लिपि में प्रतिलिपि तैयार करायी थी। उन्होंने हमें लिखा था कि ताड़पत्र की प्रति लगभग सात सौ या आठ सौ वर्ष प्राचीन होगी। 'महाबन्ध' की ताड़पत्र की राशि में चार-पाँच त्रुटित ताड़पत्र भी अलग हैं, जो किसी-किसी प्रकरण के त्रुटित अंश के पूरक प्रतीत होते हैं।
'महाबन्ध शास्त्र द्वादशांगवाणी से साक्षात् सम्बन्ध रखता है। इस ग्रन्थराज पर कोई भी टीका उलब्ध नहीं होती है। कहते हैं, तुम्बलर नामक आचार्य ने 'महाबन्ध' पर सात हजार श्लोक प्रमाण टीका रची थी, किन्तु उसकी अब तक उपलब्धि नहीं हुई है। 'महाबन्ध' के सूत्र गद्यरूप हैं। इसके प्रारम्भ में सोलह गाथाएँ आयी हैं। स्थितिबधाधिकार में तीन गाथाएँ और पायी जाती हैं।
महाबन्ध में भिन्न परम्परा का संकेत-यह चालीस हजार श्लोकप्रमाण 'महाबन्ध' शास्त्र भूतबलि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org