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प्रस्तावना
स्वामी की अनुपम रचना है। इस ग्रन्थ में आचार्य भूतबलि स्वामी ने कहीं-कहीं भिन्न गुरुपरम्परा का द्योतक उल्लेख भी किया है। वे काल प्ररूपणा में (ताम्रपत्र, पृ. १२, १३) तेजोलेश्या की अपेक्षा प्ररूपणा करते हैं- “थीणगिद्धितिगं अणुंताणुबं. ४ एय.। उक्क. वेसागरोव. सादिरे. । णवरि केसिं च जह. एगस." पद्मलेश्या का कथन करते हुए आचार्य लिखते हैं-"थीणगिद्धि. अणंताणु. ४ एगसं (स.)। उक्क. अट्ठारस. सादि.। णवरि के सिंच एगस.।" यहाँ 'केसिं च' शब्द-द्वारा अन्य पक्ष का प्रतिपादन किया गया है। यह अन्य पक्ष किनका है, इसका उल्लेख नहीं हुआ है। यह प्रकृतिबन्ध खण्ड का कथन है।
'महाबन्ध' के स्थिति बन्ध खण्ड में (ताम्रपत्र प्रति ७७) 'अद्धच्छेद परूवणा' का निरूपण करते हुए कहते हैं-"सहमसं. पंचणाणा. चददंस. पंचतरा उक्क. द्विदि. महत्तपधत्तं, अंतोम. आबधा. णिसे.। सादावे. जसगि. उच्चागो. उक्क. ट्ठिदि. मासपधत्तं अंतो. आबा. णिसे.। अथवा पंचणा. चदुदंस. पंचतरा. उक्क. द्विदि. दिवसपुधत्तं अंतो. आबा. णिसे.। सादा. जसगि. उच्चा. उक्क. द्विदि. वासपुधत्तं, अंतो आबा. णिसे.” यहाँ 'अथवा' के द्वारा भिन्न परम्परा का कथन किया प्रतीत होता है।
यतिवृषभ आचार्य का भिन्न मत
_ 'गोम्मटसार' में भूतबलि आचार्य के कथन से भिन्न 'कषाय प्राभृत' के चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ का कथन मिलता है। यतिवृषभ आचार्य कहते हैं कि नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव में उत्पन्न हुए जीव के प्रथम समय में क्रमशः क्रोध, माया, मान तथा लोभ का उदय होता है अर्थात् नारकी के क्रोध का, तिर्यंच के माया का, मनुष्य के मान का और देव के लोभ का उदय प्रथम समय में पाया जाता है, किन्तु भूतबलि आचार्य का कथन है कि इस विषय में कोई नियम नहीं है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने दोनों मान्यताओं का प्रतिपादन इस गाथा में किया है
"णारय-तिरिक्ख-णर-सुरगईस उप्पण्ण-पढमकालम्हि।
कोहो माया माणो लोहुदओ अणियमो वापि ॥गा. २८८॥"--जीवकाण्ड ___ इस काल में, इस क्षेत्र में केवली, श्रुतकेवली का असद्भाव रहने से ‘गोम्मटसार' में दोनों मान्यताओं का कथन किया है। संस्कृत टीकाकार के शब्द महत्त्वपूर्ण हैं:-“अस्मिन् भरते तीर्थंकर-श्रुतकेवल्याभावात्; आरातीयाचार्याणां सिद्धान्तशास्त्रकर्तृभ्यो ज्ञानातिशयवतामभावाच्च"-इस भरत क्षेत्र में तीर्थंकर तथा केवली का अभाव है और उक्त सिद्धान्तशास्त्रों के कर्ताओं से अधिक ज्ञानियों के पश्चातवर्ती आचार्यों का अभाव है। ऐसी स्थिति में दोनों मतों का कथन करने के सिवाय अन्य मार्ग नहीं है।
'गोम्मटसार कर्मकाण्ड' में भी भूतबलि स्वामी का मत प्रतिपादन के साथ दूसरा मत भी प्रदर्शित किया है। उदय-व्युच्छित्ति का वर्णन करते हुए भूतबलि आचार्य का मत इस गाथा-द्वारा व्यक्त किया है
"पण-णव-इगि-सत्तरसं-अड-पंच च चउर छक्क छच्चेव।
इगि-दुग-सोलस-तीसं बारस उदये अजोगंता ॥२६४॥" मिथ्यात्व गुणस्थान में ५, सासादन में ६, मिश्र में १, अविरत में १७, देशविरत में ८, प्रयत्तसंयत में ५, अप्रमत्तसंयत में ४, अपूर्वकरण में ६, अनिवृत्तिकरण में ६, सूक्ष्मसाम्पराय में १, उपशान्तकषाय में २, क्षीणकषाय में १६, सयोगीजिन में ३० तथा अयोगकेवली में १२ प्रकृति की व्युच्छित्ति कही है। अन्य आचार्य-परम्परा का कथन इस गाथा में किया है
“दस-चउ-रिगि-सत्तरसं अट्ठ य तह पंच चेव चउरो य।
छच्छक्क-एक्क-दुग-दुग-चोद्दस उगुतीस तेरसुदयविधिः ॥२६३॥" मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में दस, चार, एक, सत्रह, आठ, पाँच, चार, छह, छह, एक, दो, दो, चौदह, उन्तीस तथा तेरह प्रकृतियों की उदय च्युच्छित्ति कही है।
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