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________________ महाबन्ध 'महाबन्ध' का प्रभाव समस्त जैनवाङ्मय में बन्ध के विषय में 'महाबन्ध' श्रेष्ठ रचना है। इतना ही नहीं, किन्तु विश्व के कर्म-सम्बन्धी साहित्य में यह श्रेष्ठ कृति ही अत्यन्त प्राचीन, पूज्य तथा प्रामाणिक ग्रन्थ होने के कारण यह महाशास्त्र भूतबलि स्वामी के पश्चाद्वर्ती प्रायः सभी महान शास्त्रकारों का बन्ध के विषय में मागदर्शक रहा है। 'तत्त्वार्थवार्तिकालंकार' के देखने से ज्ञात होता है कि अकलंक स्वामी पर 'महाबन्ध' का प्रभाव पड़ा है। वे 'महाबन्ध' को 'आगम' शब्द से संकीर्तित करके अपना आदर तथा श्रद्धा का भाव व्यक्त करते हुए प्रतीत होते हैं “आगमे ह्युक्तं मनसा मनः परिच्छिद्य परेषां संज्ञादीन जानाति, इति मनसात्मनेत्यर्थः । तमात्मनावबुध्यात्मन परेषां च चिन्ता-जीवित-मरण-सुख-दुःख-लाभालाभादीन् विजानाति। व्यक्तमनसां जीवानामर्थं जानाति, नाव्यक्तमनसाम्।" -त. रा., पृ. ५८। "मणेण माणसं पडिविंदइत्ता परेसिं सण्णासदिमदिचिंतादि विजाणदि। जीविदमरणं लाभालाभं सुहदुक्खं णगरविणासं देहविणासं जणपदविणासं अदिवुट्ठि-अणावुट्ठि-सुबुट्टि-दुवुट्टि-सुभिक्खं दुभिक्खं खेमा-खेमं भयरोगं उब्भमं इब्भमं संभमं। वत्तमाणाणं जीवाणं, णोअवत्तमणाणं जीवाणं जाणदि।" । - 'महाबन्ध', ताम्रपत्र प्रति, पृ. २ 'गोम्मटसार' पर भी 'महाबन्ध' का प्रभाव स्पष्टतया दृग्गोचर होता है। उदाहरणार्थ, इस प्रकृतिबन्धाधिकार के बन्धसामित्तविचय अध्याय से तुलना करें, तो पता चलेगा, कि यहाँ वर्णित कर्मप्रकृतियों के बन्धकों, अबन्धकों आदि का कथन 'गोम्मटसार' कर्मकाण्ड की 'मिच्छत्तहंडसंढा' आदि गाथा ६५ से १२० तक पद्यरूप में निबद्ध हैं। 'महाबन्ध' में बन्ध के सादि-अनादि, ध्रुव-अध्रुवरूप भेदों का वर्णन ३३-४३ पृष्ठ पर किया गया है। वह गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा १२२ से १२४ में निरूपित हुआ है। 'महाबन्ध' के पृ. २१-२४ में 'ओगाहणा जहण्णा' आदि सोलह गाथाएँ हैं, वे तनिक परिवर्तन के साथ गोम्मटसार जीवकाण्ड की ज्ञानमार्गणामें वर्णित हैं। अन्य आगम पर 'महाबन्ध' का प्रभाव प्रकट ज्ञात होगा। वहाँ भी उनमें 'महाबन्ध' के प्रमेयसम्बन्धी चर्चा की गयी है, कारण बन्धविषय के विशदरूप से प्रतिपादक 'महाबन्ध' से प्राचीन ग्रन्थराज की अनुपलब्धि ग्रन्थ की उपयोगिता भौतिक उपयोगितावादी 'महाबन्ध' को देखकर आनन्दामृत पान नहीं कर सकेगा, कारण उसकी दृष्टि में बाह्य पदार्थों की उपलब्धि ही आत्मोपलब्धि है। अनेक व्यक्तियों की यह धारणा रही है कि इन सिद्धान्तग्रन्थों में अपूर्व तथा अश्रुतपूर्व विद्या का भण्डार है, जिसके बल से लोहा सोना रूप में परिणत किया जा सकता है, आकाश में विमान उड़ाये जा सकते हैं, आदि विविध वैज्ञानिक चमत्कारों का आकर होने की मधुर कल्पना के कारण लोगों की इन शास्त्रों के प्रति अत्यधिक ममता रही; किन्तु प्रत्यक्ष परिचय के द्वारा जब यह ज्ञात होता है कि 'महाबन्ध' में केवल प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेशरूप बन्धचतुष्टय का सूक्ष्म एवं विस्तृत वर्णन है, तब वह सोचता है कि इससे हमें क्या करना है? अपना काम करो, ऐसी रचनाओं में अपने बहुमूल्य समय का व्यय क्यों किया जाए? आपाततः यह दृष्टि प्रिय तथा आकर्षक मालूम पड़ती है, किन्तु ज्ञानवान व्यक्ति को यह विचार अविद्यान्धकार पूर्ण प्रतीत होता है। लौकिक अर्थभक्त, अनर्थ की जननी तथा आत्मनिधि का लोप करनेवाली सामग्री को सर्वस्व मानता है। वह इन ग्रन्थों में भौतिक विज्ञान की सामग्री न पाकर निराश होता है, किन्तु ज्ञानवान् तथा आत्मनिधि के वैभव को समझनेवाला सत्पुरुष यह अनुभव करता है कि वास्तविक वैज्ञानिक चमत्कारपूर्ण सामग्री से यह महाशास्त्र आपूर्ण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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