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प्रस्तावना
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आत्मा अपने प्रयत्न से कर्मों के जाल में फँसता है । जो ज्ञान नामक सामग्री बन्धन को और पुष्ट करती है, वह तो महान् अविद्या है। श्रेष्ठ कला, विद्या, विज्ञान या चमत्कार तो इसमें है कि यह आत्मा कर्मों की राशि को पृथक् करके अपने अनन्त तथा अमर्यादित विभूतियों से अलंकृत 'आत्मत्व' को अभिव्यक्त करे । भगवान् वृषभदेव ने आसमुद्रान्त विशाल साम्राज्य को छोड़कर 'आत्मवान्' की प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। अर्थशास्त्री रुपयों के हानि-लाभ पर ही दृष्टि रखता है, किन्तु ज्ञानी जीव आत्मा के स्वरूप को ढकनेवाले आस्रव को हानि तथा संवर और निर्जरा को अपना लाभ समझता है । वही सच्चा सम्पत्तिशाली है, जि आत्मत्व की उपलब्धि है और वही चमत्कारपूर्ण शक्ति विशिष्ट है, जिसने कर्म राशि को चूर्ण किया है तथा इसमें उद्योग करता रहता है।
नाटक समयसार में कितनी सुन्दर बात कही गयी है
"जे जे जगवासी जीव थावर जंगम रूप, ते ते निज बस करि राखे बल तोरिके । महा अभिमानी ऐसो आस्रव अगाध जोधा, रोपि रणथम्म ठाड़ो भयो मूठ मोरिके ॥ आयो तिहि थानक अचानक परमधाम, ज्ञान नाम सुभट सवायो बल फेरिके । आस्रव पछारयो रणथम्भ तोड़ि डास्यो ताहि निरखि बनारसि नमत कर जोरिके ।”
अभिमानी आस्रव सुभट को पछाड़कर विजय प्राप्त करनेवाले आत्मज्ञानी को 'महाबन्ध' सदृश शास्त्र अपूर्व बल प्रदान करते हैं। कर्मों का आत्मा के साथ जो बन्ध है, वह इतना सुदृढ़ और सूक्ष्म है कि भयंकर से भयंकर अस्त्र-शस्त्रादि के प्रहार होने पर भी उस पर कुछ भी असर नहीं होता। आध्यात्मिक शक्ति के जागृत होते ही कर्मों का सुदृढ़ बन्धन ढीला होने लगता है। ऐसे ग्रन्थ उस आत्मीक तेज को प्रवृद्ध करते हैं, जिसके द्वारा यह आत्मा कर्मबन्धन के प्रपंच से मुक्त होने के मार्ग में लग जाता है। कर्मों के प्रपंच से छूटने का उपाय ही यथार्थ में सबसे बड़ा चमत्कार है। संसार के समस्त भौतिक चमत्कार और अन्वेषण एक ओर रखकर दूसरी ओर कर्मनाश करने की आत्मचातुरी अथवा चमत्कार को रख सन्तुलन किया जाए, तो यह आत्मबोध की कला ही श्रेष्ठ निकलेगी, जो अनन्तभव से बँधे हुए अनन्त दुःखों के मूलकारण कर्मों का पूर्णतया उन्मूलन कर आत्मा में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य तथा अनन्तसुख को अभिव्यक्त कर देती है। भौतिकता की आराधना से आत्मत्व का हास ही हुआ करता है। इसका ही कारण है जो जीव अपने 'स्व' को भूलकर 'पर' का उपासक बनता है। अनादि काल से मोह - महाविद्यालय में अभ्यास करनेवाला यह जीव जहाँ भी जाता है और जिस किसी पदार्थ के सम्पर्क में आता है, वहाँ वह या तो आसक्ति धारण करता है या द्वेषभाव रखता है। वीतरागता का प्रकाश कभी भी इसकी जीवनवृत्ति को आलोकित नहीं कर
पाया।
'महाबन्ध' सदृश शास्त्र के परिशीलन से आत्मा को पता चलता है कि किस-किस कर्म का मेरे साथ सम्बन्ध होता है, उसके स्वरूपादि का विशद बोध होने से राग, द्वेष तथा मोह का अध्यास एवं अभ्यास मन्द होने लगता है। आर्त और रौद्र नामक दुर्ष्यानों का अभाव होकर धर्मध्यान की विमल चन्द्रिका का प्रकाश तथा विकास होता है जो आनन्दामृत को प्रवाहित करती है और मोह के सन्ताप का निवारण करती है। समुद्र के तल में डुबकी लगाने वालों को बाह्यजगत् की शुभ, अशुभ बातों का पता नहीं चलता; इसी प्रकार कर्मराशि का विशद तथा विस्तृत विवेचन करने वाले इस ग्रन्थार्णव में निमग्न होने वाले मुमुक्षु के चित्त में राग-द्वेषादि सन्तापकारी भाव नहीं उत्पन्न होते। वह बड़ी निराकुलता तथा विशिष्ट शान्ति का अनुभव करता है।
व्यायामादि का सम्यक् अभ्यासशील व्यक्ति व्याधियों के आक्रमण से प्रायः बचा रहता है; इसी प्रकार
१. “विहाय यः सागरवारिवाससं वधूमिवेमां वसुधावधूं सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः ॥" बृहत्स्व. ३
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