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महाबन्ध
ऐसे पुण्यानुबन्धी वाङ्मय के परिशीलन-द्वारा भव्य जीव उस आध्यात्मिक परिशुद्ध व्यायाम को करता है, जिससे आत्मा बलिष्ठ होती है और भौतिक चमक-दमक चित्त में चमत्कृति या विकृति उत्पन्न नहीं कर पाती तथा काम-क्रोध-मोहादि दोष आत्मशक्ति को न्यून नहीं कर पाते।
विपाकविचय धर्मध्यान का साधक-शास्त्रकारों ने धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान को निर्वाण का कारण बताया है। धर्म ध्यान के चार भेदों में विपाकविचय नाम का ध्यान कहा गया है। आचार्य अकलंक लिखते हैं-“कर्मफलानुभवनविवेकं प्रति प्रणिधानं विपाकविचयः। कर्मणां ज्ञानावरणादीनां द्रव्यक्षेत्रकाल-भवभावप्रत्ययफलानुभवनं प्रति प्रणिधानं विपाकविचयः।" -त. रा., ३५३ । “कर्मों के फलानुभव विवेक के प्रति उपयोग का होना विपाकविचय है। ज्ञानावरणादिक कर्मों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव के निमित्त से जो फलानुभवन होता है, उस ओर चित्तवृत्ति को लगाना विपाकविचय है।" कर्मों के विपाक आदि के विषय में अनुचिन्तन करने से रागादि की मन्दता होती है और कषायविजय का कार्य सरल हो जाता है। समय प्राभृतकार के शब्दों में जीव विचारता है
“जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा व फड्ढया केई। णो अज्झप्पट्ठाणा व य अणुभायठाणाणि ॥५२॥ जीवस्स णत्थि केई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा। णेव य उदयट्ठाणा मग्गट्ठाणया केई ॥५३॥ णो ठिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा ॥५४॥ णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स।
जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा ॥५५॥" इस जीव के न तो वर्ग है, न वर्गणा है, न स्पर्धक है, न अध्यवसायस्थान है, न अनुभागस्थान है। जीव के न योगस्थान है, न बन्धस्थान है, न उदयस्थान है, न मार्गणास्थान है, न स्थितिबन्धस्थान है, न संक्लेशस्थान है, न विशुद्धिस्थान है, न संयमलब्धिस्थान है। जीव के न जीवस्थान है, न गुणस्थान है, कारण ये सब पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं।
यह है-परिशुद्ध परमार्थ दृष्टि। मुमुक्षु व्यवहार दृष्टि को भी दृष्टिगोचर रखता है। यदि एकान्त शुद्ध दृष्टि पर आश्रित हो जाए, तो फिर वह मोक्षमार्ग के विषय में अकर्मण्य बनकर विषयादि में प्रवृत्ति कर पाप-पंक में अधिक निमग्न होता है। जिसने अपूर्ण अवस्था में भी अपने को साक्षात् पूर्ण मान लिया है, उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है; इसी प्रकार निश्चयैकान्त का आश्रय ह्रास का हेतु बन जाता है। व्यवहारैकान्तवाला तात्त्विक दृष्टि को सर्वथा भुला अपने को 'दासोऽहं' का पाठ पढ़ने वाला समझता है। 'सोऽहं' की विमल दृष्टि उसे नहीं प्राप्त होती है। ‘सोऽहं' का भक्त यदि कल्याण चाहता है, तो उसे 'दासोऽहं' के पूर्व में 'उदासोऽहं' का पथ भी पकड़ना आवश्यक है; अन्यथा एकान्तवाद की महामारी उसका पिण्ड नहीं छोड़ती है। इस कारण समन्तभद्र स्वामी कहते हैं
“निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्॥” –आ. मी., १०८ विवेकी साधक व्यवहार दृष्टि से विचारता है
__ “ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया।
गुणगाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ॥समयपाहुड. गा. ५६॥ ये वर्ण आदि गणस्थान पर्यन्त भाव व्यवहार नय से पाये जाते हैं। निश्चय नय की अपेक्षा वे कोई नहीं हैं।
१. “परे मोक्षहेतू"-त. सू. ६, २६.
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