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प्रस्तावना
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अल्पज्ञानी पुरुषों के के लिए बन्ध के विषय में परिज्ञान कराने के लिए सूत्रकार उमास्वामी ने लिखा
“प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः॥"-त. सू. ८,३ उस बन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश बन्ध ये चार भेद हैं। विस्तृतरुचि एवं सूक्ष्मबुद्धिधारी महाज्ञानियों के लिए सही तत्त्व महर्षि भूतबलि ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण 'महाबन्ध' शास्त्र-द्वारा निबद्ध किया है। 'महाबन्ध' के विमल और विपुल प्रकाश से साधक अपनी आत्मा के अन्तस्तल में छिपे हुए अज्ञान एवं मोहान्धकार को दूर कर जीवन को 'महाधवल' बनाता है। जिस प्रकार जिनेन्द्रदेव की आराधना के द्वारा पूजक जिनेन्द्र का पद प्राप्त करता है, उसी प्रकार 'महाधवल' के सम्यक् परिशीलन तथा स्वाध्याय से जीवन भी 'महाधवल' हो जाता है। अनुभागबन्ध की प्रशस्ति में ग्रन्थ को 'सत् पुण्याकर' बताया है। यथार्थ में यह सातिशय पुण्य की उत्पत्ति का कारण है। प्रशस्त पुण्य का भण्डार है। श्रेयोमार्ग की सिद्धि का निमित्त है। 'प्रवचनसार' में कुन्दकुन्द स्वामी ने अर्हन्त की पदवी को पुण्य का फल कहा है। 'पुण्णफला अरहंता' (गाथा १, ४५)। अमृतचन्द्र सूरि ने टीका में पुण्य को 'कल्पवृक्ष' कहते हुए उसके पूर्ण परिपक्व फल को 'अर्हन्त' कहा है। 'अर्हन्तः खलु सकल-सम्यक् परिपक्व-पुण्य-कल्पपादपफला एव' (प्रवचनसार टीका, पृष्ठ ५८) प्रशस्ति-परिचय
'महाबन्ध' ग्रन्थ में ऐतिहासिक उल्लेख का दर्शन नहीं होता। प्रकृतिबन्ध-अधिकार के प्रारम्भिक अंश के नष्ट हो जाने से उसके ऐतिहासिक उल्लेख का परिज्ञान होना असम्भव है। इस अधिकार के अन्त में प्रशस्तिरूप में भी कोई उल्लेख नहीं है। स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध तथा प्रदेशबन्ध-इन तीन अधिकारों के अन्त में ही प्रशस्ति पायी जाती है।
प्रशस्ति में ग्रन्थ कर्ता का नाम तक नहीं आया है। स्थितिबन्ध के पद्य नं. ७ और प्रदेश-बन्ध के पद्य नं. ५ से, जो समान हैं, विदित होता है, कि सेनवधू वनितारन मल्लिका देवी ने अपने पंचमी व्रत के उद्यापन में शान्त तथा यतिपति माघनन्दि महाराज को इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि अर्पण की थी।
मल्लिका देवी को शीलनिधान, ललनारत्न, जिनपदकमलभ्रमर, सिद्धान्त शास्त्र में उपयुक्त अन्तःकरणवाली तथा अनेकगुणगण अलंकृत बताया है। उन्होंने पुण्याकर 'महाबन्ध' पुस्तक जिन माघनन्दि मुनीश्वर को भेंट की थी। वे गुप्तित्रयभूषित, शल्यरहित, कामविजेता, सिद्धान्तसिन्धु की वृद्धि करने को चन्द्रमा तुल्य तथा सिद्धान्त शास्त्र के पारंगत विद्वान थे।
वे मेघचन्द्र व्रतपति के चरणकमल के भ्रमर-सदृश थे।
मल्लिका देवी सारे जगत् में अपने गुणों के कारण विख्यात थी। ‘सत्कर्ष-पंजिका' से ज्ञात होता है कि प्रशस्ति में आगत 'सेन' का पूरा नाम शान्तिषेण है। वे राजा थे। राजपत्नी मल्लिका देवी-द्वारा व्रतोद्यापन के अवसर पर शास्त्र का दान इस बात को सूचित करता है कि उस समय महिला जगत के हृदय में जिनवाणी माता के प्रति विशेष भक्ति थी।
राजा शान्तिषेण सद्गुण-भूषित थे। प्रशस्ति में गुणभद्रसूरि का भी उल्लेख आया है। उनको कामविजेता, निःशल्य बताया है। उग्रादित्य नाम के लेखक ने 'महाबन्ध' की कापी लिखी थी, यह बात सत्कर्मपंजिका से ज्ञात होती है। प्रशस्ति इस प्रकार है
१. कर्नाटक के गंगवंश की महिलाओं ने प्राचीन काल में महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं। इस वंश की महिला अतिमव्वेने अपने
द्रव्य के द्वारा महाकवि पोन्न रचित शान्तिनाथ पुराण की एक हजार प्रतियाँ लिखवाकर दान की थीं। ऐसी प्रसिद्धि है कि उस वीरांगना ने सोना, चाँदी, जवाहरात आदि की बहुमूल्य सैकड़ों मूर्तियाँ मन्दिरों में विराजमान की थीं।
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