________________
५२
महाबन्ध गौतम गणधर की दृष्टि
गणधरदेव गौतम स्वामी ने जो मंगलसूत्रों की रचना की थी, वह व्यवहार नय की अपेक्षा से की थी, क्योंकि उन्होंने व्यवहार नय को अनेक जीवों का कल्याणकारी मानकर उसका आश्रय लिया है। जयधवला टीका के ये शब्द विशेष महत्त्वपूर्ण हैं - "ववहारणयं पडुच्च पुण गोदमसामिणा चदुबीसण्हमणियोगद्दाराणमादीए मंगल कदं" व्यवहार नय का आश्रय लेकर गौतम स्वामी ने चौबीस अनुयोगद्वारों के प्रारम्भ में (णमो जिणाणं आदि) मंगल किया है।
यहाँ यह शंका होती है कि गणधर देव ने अभूतार्थ व्यवहार नय का आश्रय क्यों लिया, वह तो छोड़ने योग्य नय है; क्योंकि वह असत्य है।
समाधान-“ण च ववहारणओ चप्पलओ। तत्तो सिस्साण-पउत्तिदंसणादो। जो बहुजीवाणुग्गहकारी ववहारणओ, सो चेव समस्सिदब्यो त्ति मणेणावहारिय गोदमथेरेण मंगलं तत्थकयं"-"व्यवहार नय चपल अर्थात् असत्य नहीं है। क्योंकि उससे शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है। गौतम स्थविर ने इस बात को मन में अवधारण करके वहाँ मंगल रचना की कि व्यवहार नय बहत जीवों का अनग्रहकारी है और उस व्यवहार नय का आश्रय लेना चाहिए। इसके द्वारा व्यवहार नय का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है।
णमोकार मन्त्र की प्राचीनता पर प्रकाश-णमोकार मन्त्र अनादि मूलमन्त्र है। इसके लिए जैन परम्परा में यह प्रसिद्धि है
"अनादिमूलमन्त्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः ।
मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलो मतः ॥" इसके सिवाय मूलाराधना टीका में अपराजित सूरि ने (पृ. २) कहा है कि गणधर ने ‘णमो अरहंताणं' इत्यादि शब्दों-द्वारा सामायिक आदि 'लोकबिन्दुसार' पर्यन्त समस्त परमागम में पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया है।" ग्रन्थ में ये शब्द आये हैं-“यद्येवं सकलस्य श्रुतस्य सामायिकादेर्लोकबिन्दुसारान्तस्यादौ मंगलं कुर्वद्भिर्गणधरैः णमो अरहताणमित्यादिना कथं पंचानां नमस्कारः कृतः ?"
प्रायश्चित्त में णमोकार का उपयोग-मुनि-जीवन में प्रतिक्रमण रूप अन्तरंग नय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान् ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर महावीर के तीर्थ में अपराध न करनेवाले भी श्रमणों को प्रतिक्रमण रूप प्रायश्चित्त करने का विधान है। शेष बाईस तीर्थंकरों के तीर्थ में होनेवाले मुनियों के लिए ऐसा कथन नहीं आया है। उनके तीर्थ में दोष लगने पर ही प्रतिक्रमणरूप प्रायश्चित्त किया जाता था, किन्तु आदि जिन और अन्तिम जिन के तीर्थ में दोष लगाने की सदा सम्भावना रहने से प्रायश्चित्त कहा है। प्रायश्चित्त के भेद प्रतिक्रमण में णमोकार मन्त्र के जाप का आवश्यक और महत्त्वपूर्ण स्थान है। मूलाचार में कहा है
'."सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स।
अवराहे पढिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥७,१५४॥" आदि जिन तथा पश्चिम जिन अर्थात वीरभगवान ने प्रतिक्रमण युक्त धर्म का उपदेश दिया है। अपराध न होने पर भी प्रतिक्रमण करना ही चाहिए, ऐसी आद्यन्त तीर्थंकरों ने शिष्यों को आज्ञा दी है। मध्यम तीर्थंकरों ने अपराध होने पर प्रतिक्रमण कहा है। इसका हेतु मूलाचार में यह दिया है
"मज्झिमया दिढबुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खा य। . तम्हा हु जमाचरंति तं गरहंता विसुज्झंति ॥७,१५७॥"
१. कोश में 'चपल' शब्द का अर्थ 'असच्च'-असत्य किया है-दे. नाममाला ३-२० । Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org