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________________ प्रस्तावना ५१ परिवर्तित पाठ यह किया गया-'सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कय-देवदा-णमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं' (पृ. ४१, ध. टी. १)। प्रश्न-इस छोटे-से परिवर्तन से क्या बाधा हो कि? समाधान-सूत्रकर्ता के द्वारा स्वयं रचित देवता का नमस्कार निबद्ध मंगल है तथा जीवट्ठाण निबद्ध मंगल है, इससे सामान्य बुद्धि के पाठकों को यह भ्रम हो गया कि णमोकार रूप मंगल निबद्ध मंगल है। यथार्थ बात यह है कि टीकाकार वीरसेन स्वामी ने णमोकार मन्त्र कौन-सा मंगल है, यह चर्चा ही नहीं की। उन्होंने मंगल के दो भेद कहने के पश्चात् मात्र सूचित किया कि जीवट्ठाण में मंगल है। वह ग्रन्थ मंगलरहित नहीं है। 'कसायपाहुड' में मंगलाचरण नहीं रचा गया; ऐसी अवस्था इस जीवट्ठाण की नहीं है, इसे स्पष्ट करने को आचार्य ने कहा-'जीवट्ठाणं णिबद्धमंगलं' (१९४१)-यह जीवट्ठाण ग्रन्थ मंगलाचरण युक्त है। यह ग्रन्थ निबद्ध मंगल नहीं है। भूतबलि स्वामी की विशिष्ट दृष्टि-भूतबलि स्वामी-जैसे महाज्ञानी, प्रतिभासम्पन्न तथा परम विवेकी आचार्य ने वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड और 'महाबन्ध'-इन तीन खण्डों के लिए स्वतन्त्र मंगल रचना न करके गौतम गणधर रचित 'महाकम्मपयडि पाहुड' के अन्तर्गत वेदना खण्ड के आरम्भ में दिये णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं आदि सूत्रों को वहाँ से उठाकर अपनी रचना में मंगलरूप में स्थापित किया, इससे यह सूचित होता है कि वे महर्षि परम वीतरागभावसम्पन्न थे। वे अपनी रचना-द्वारा अपना पाण्डित्य प्रदर्शन करने की कल्पना नहीं सोचते थे। प्रतीत होता है कि वे गौतम गणधर के उन सूत्रों से विशेष प्रभावित थे। अतः उन्हें अन्य मंगल रचना करने की आवश्यकता नहीं प्रतीत हुई। अपनी रचना को वे स्वयं की कृति न सोचकर जिनेन्द्र की वाणी मानते थे। जैसे समस्त ग्रन्थ गणधर रचित 'महाकम्म-पयडि पाहुड' का अवयव है, उसी प्रकार उन्हीं गणधर की रचना रूप मंगलसूत्र को लेना किसी प्रकार भी अनुचित नहीं प्रतीत हुआ। णमो जिणाणं' आदि सूत्रों को वीरसेन आचार्य गौतम गणधर की कृति स्वीकार करते हैं। उन्होंने वेदनाखण्ड की 'धवला टीका' में लिखा है “महाकम्म-पयडि-पाहुडस्स कदिआदि-चउवीस-अणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा परूविदस्स भूदबलि भडारएण वेयणाखंडस्स आदीए मंगलटुं ततो आणेदूण ठविदस्स णिबद्धत्त विरोहादो-तम्हा अणिबद्धमंगलमिदं” (पृ. ३१, ताम्रपत्रीय प्रति)। वेदनाखण्ड, वर्गणा खण्ड तथा 'महाबन्ध' के मंगलरूप गौतम गणधर रचित 'णमो जिणाणं' आदि सूत्र हैं। अतः उनके मूलका भूतबलि स्वामी नहीं हैं। अन्य कृत रचना को अपने ग्रन्थ में निबद्ध करने के कारण उन सूत्रों को अनिबद्ध मंगल माना गया है। अलंकार चिन्तामणि में लिखा है “स्वकाव्यमुखे स्वकृतं पद्यं निबद्धं परकृतमनिबद्धम्" __ नय-दृष्टि- 'महाबन्ध' का प्रथम मंगलसूत्र ‘णमो जिणाणं' द्रव्यार्थिक नयाश्रित लोगों के अनुग्रह हेतु गौतम स्वामी ने रचा था। इसके पश्चात् रचित ४३ सूत्रों को पर्यायार्थिक नयाश्रित जीवों के अनुग्रह हेतु रचा था। उनमें 'णमो ओहिजिणाणं' प्रथम सूत्र है। वेदना खण्ड में टीकाकार वीरसेन स्वामी ने कहा है-“एवं दव्वट्ठिय-जणाणुग्गहटुं णमोक्कारं गोदमभडारओ महाकम्म-पयडि-पाहुडस्स आदिम्हि काऊण पज्जवट्ठिय-णयाणुग्गहणट्ठमुत्तर-सुत्ताणि भणदि" (ताम्रपत्रीय प्रति, पृ. ४)-इस प्रकार द्रव्यार्थिक दृष्टि युक्त जीवों के अनुग्रह हेतु गौतम भट्टारक ने 'महाकर्म प्रकृति' प्राभृत के आरम्भ में नमस्कार करके पर्यायार्थिक नयवालों के अनुग्रह के हेतु उत्तरसूत्र कहते हैं। इस प्रकार स्याद्वाद दृष्टि को श्रद्धा की दृष्टि से देखनेवाले महर्षि ने दोनों नयों के प्रति समान आदरभाव व्यक्त किया। १. जयधवला भाग १, पुस्तक १, पृ. ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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