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प्रस्तावना
पुण्यं सुपात्र-गत-दानसमुत्थमन्यत् । पुण्यं व्रतानुचरणादुपवासयोगात्
पुण्यार्थिनामिति चतुष्टयमर्जनीयम् ॥" -आदिपुराण, प. २८, श्लोक २१६ जिनेन्द्र भगवान् की पूजा से उत्पन्न होने वाला पुण्य प्रथम है। सुपात्र को दान देने से उत्पन्न पुण्य दूसरा है। व्रतों के पालन से उत्पन्न पुण्य तीसरा है। उपवास करने से चौथा पुण्य होता है। इस प्रकार पुण्यार्थी पुरुष को पूजा, दान, व्रत तथा उपवास-द्वारा पुण्य का उपार्जन करना चाहिए।
प्रश्न-पूजा, दान, व्रत तथा उपवास से आत्मा को क्या लाभ होगा?
समाधान-इन चार कारणों से कषायभाव मन्द होते हैं। आत्मा की विभाव परणति न्यून होने लगती है। उससे अशुभ का संवर होता है। पूर्वबद्ध पापराशि प्रलय को प्राप्त होती है। इसी प्रकार पुण्य बन्ध के साथ मोक्ष के अंगरूप संवर और निर्जरा तत्त्वों की भी प्राप्ति होती है।
मुमुक्षु को मोक्षाभाव-जैन धर्म का कथन निरपेक्ष नहीं है। शुद्धोपयोगरूप परम समाधि की स्थिति में पुण्य उपादेय नहीं रहता है। उस अवस्था में यह जीव मुमुक्षु भी नहीं कहा जा सकता है। सूक्ष्म दृष्टि से विचारने पर यह कहना होगा कि मोक्ष जानेवाले व्यक्ति को मुमुक्षु की भी उपाधि से विमुक्त होना पड़ेगा। जब तक यह जीव मुमुक्षु रहेगा, तब तक उसे मोक्ष नहीं प्राप्त होगा और वह संसार में परिभ्रमण करेगा। "मोक्तुमिच्छु: मुमुक्षुः” –जिसके मोक्ष की इच्छा है, वह मुमुक्ष है। जब तक मोक्ष की इच्छा है, तब तक राग भाव है, क्योंकि इच्छा रागरूप परिणाम है। रागी को मोक्ष नहीं प्राप्त होता है; विरागी ही मोक्ष प्राप्त करता है।
पद्मनन्दिने ‘पंचविंशतिका' में कहा है"मोक्षेऽपि मोहादभिलाषदोषो विशेषतो मोक्षनिषेधकारी। यतस्ततोऽध्यात्मरतो मुमुक्षुभवेत्किममन्यत्र कृताभिलाषः ॥" --पद्मनन्दिपंच विंशतिका, श्लोक ५५
मोहवश मोक्ष की इच्छा भी दोष रूप है, जो विशेष रूप से मोक्ष की प्राप्ति में बाधक है; इससे आत्मतत्त्व में लीन मुमुक्षु अन्य पदार्थ की इच्छा कैसे करेगा?
उन्होंने यह भी कहा है कि परिग्रहधारी के सच्चा कल्याण असम्भव है। “परिग्रहवतां शिवं यदि तदानलः शीतलः" -यदि परिग्रही व्यक्ति को कल्याण का लाभ हो जाए, तो कहना होगा कि अग्नि शीतल हो गयी।
परम प्रवीण वीतराग ऋषियों ने संसारी विषयलोलुपी जीव की मनोदशा को सम्यक प्रकार ज्ञात कर उसे पुण्य के माध्यम से श्रेष्ठ इन्द्रियजनित सुखों की ओर आकर्षित करते हुए धर्म की ओर आकर्षित किया है तथा पश्चात् विषयसुख की निःस्सारता का उपदेश देकर उसे निर्वाण दीक्षा की ओर आकर्षित करते हैं और शुद्धोपयोगी बना मुक्तिश्री का स्वामी बना देते हैं। उनकी तत्त्वदेशना की पद्धति यह है कि जीव को सर्वप्रथम पापों से विमुख बनाकर पुण्य की ओर उन्मुख कर उसके फल वैभव को भी त्याग कर अकिंचन भावना द्वारा उसे त्रिलोकीनाथ बनाया जाए। जो व्यक्ति हीनप्रवृत्ति को अपनाकर पाप में निमग्न हो रहा है, उसे कोई पाप से विमुख न बनाकर पुण्यक्रियाओं से विमुख बनाता है, तो वह उस जीव के कल्याण के प्रति महान् शत्रुता दिखाता है। पूज्यपाद स्वामी का यह कथन स्मरणीय है
“अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः।
अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥" -समाधिशतक, श्लोक ८३ असंयमी जीवन-द्वारा पाप का संचय होता है। अहिंसादि व्रतों के द्वारा पुण्य की प्राप्ति होती है। पुण्य-पाप दोनों के क्षय होने पर मोक्ष होता है। इससे मोक्षार्थी मुनि अभेद रत्नत्रयरूप निर्विकल्प समाधि का आश्रय लेकर अव्रत के समान विकल्पात्मक व्रतों को भी त्यागे।
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