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________________ ६४ महाबन्ध विकास-क्रम-कोई-कोई सद्गुरु का शरण न मिलने से पाप को तो जोर से पकड़ते हैं और पुण्य को छोड़कर यह सोचते हैं कि उन्होंने मोक्षमार्ग को प्राप्त कर लिया है। उन्हें पूज्यपाद स्वामी-द्वारा 'समाधिशतक' में प्रतिपादित त्याग का यह क्रम हृदयंगम करना चाहिए "अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः।। त्यजेत्तानपि सम्प्राप्य परमं पदमात्मनः ॥"-समाधिशतक, श्लोक ८४ सर्वप्रथम प्राणातिपात, अदत्तादान, असत्यभाषण, कुशील सेवन, परिग्रहासक्तिरूप पाप के कारणों को-अव्रतों को छोड़कर अहिंसा, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहरूप व्रतों में पूर्णता प्राप्त करनी चाहिए। इसके पश्चात् आत्मा के निर्विकल्प स्वरूप में लीन हो परम समाधि को प्राप्त करता हुआ उन विकल्परूप व्रतों को छोड़कर आत्मा के परम पद को प्राप्त करे। जब सविकल्प दशावाले परिग्रह-त्यागी मुनीश्वरों के लिए पुण्य का कारण शुभयोग अथवा शुभोपयोगयुक्त सरागसंयम आश्रयणीय है, तब प्रमादमूर्ति परिग्रही गृहस्थ के लिए आर्त, रौद्र ध्यान से सम्बन्धित अशुभयोग का त्याग करते हुए पुण्य हेतु शुभयोग सदा उपादेय रहता है। शुद्धोपयोग सर्वश्रेष्ठ । निधि है, किन्तु विषय कषायों के कारण जिसकी आत्मा अत्यन्त अशक्त है, वह निर्विकल्प परम समाधिरूप अप्रमत्त दशाको नहीं प्राप्त कर सकता है, अतः उसके लिए शुभोपयोग कथंचित् उपादेय है तथा अशुभयोग दुर्गति का बीज होने से सर्वथा तथा सर्वदा हेय है। अमृतचन्द्रसूरि की यह वाणी सर्वदा स्मरण योग्य है-“अत्यन्तहेय एवायमशुभोपयोगः”। 'आत्मानुशासन' में गुणभद्राचार्य कहते हैं “परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्य-पापयोः प्राज्ञाः। तस्मात्पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः ॥" ज्ञानी पुरुष पुण्य तथा पाप का कारण जीव का परिणाम ही कहते हैं, अतः निर्मल परिणामों के द्वारा पूर्वसंचित पाप का विनाश तथा आगामी पुण्य का संचय करना चाहिए। उन्होंने कहा है "शुभाशुभे पुण्य पापे सुख-दुःखे च षट् त्रयम्। हितमाघमनुष्ठेयं शेषत्रयमथाहितम् ॥" -वही, श्लोक २३६ शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप, सुख-दुःख से छह अर्थात् तीन युगल हैं। इनमें आधशुभ, पुण्य तथा सुख-ये तीन उपादेय हैं तथा शेष अशुभ, पाप और दुःख त्याज्य हैं। "तत्राप्याद्यं परित्याज्यं शेषौ न स्तः स्वतः स्वयम् । शुभं च शुद्धे त्यक्त्वाऽन्ते प्राप्नोति परमं पदम् ॥" -वही, श्लोक २४० पूर्वोक्त शुभ, पुण्य और सुख इनमें से प्रथम शुभ का त्याग होने पर पुण्य तथा इन्द्रियजनित सुख स्वयमेव दूर हो जाएँगे। राग-द्वेषरहित उदासीनतारूप शुद्ध परिणति को प्राप्त होने पर शुभ का त्याग कर मोक्षरूप उत्कृष्ट पद को प्राप्त होता है। यह बात स्मरण योग्य है कि योग्य के द्वारा कर्मों का आस्रव होता है। इसके पश्चात् आत्मा और कर्मों का एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध रूप बन्ध है।' उस समय की अवस्था को पंचाध्यायीकार इस प्रकार समझाते १. “आत्माकर्मणोरन्योन्यानुप्रवेशात्मको बन्धः” -स.सि.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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