________________
प्रस्तावना
“जीवः कर्मनिबद्धो हि जीवबद्धं हि कर्म तत् ॥ - २ । १०४
- जीव कर्म से निबद्ध हो जाता है और कर्म जीव से बद्ध हो जाता है। दोनों का परस्पर में संश्लेष होता है। इस संश्लेष तथा परस्पर बन्धनबद्धता का भाव यह है कि कर्म अपना फलोपभोग दिये बिना आत्मा से पृथक् नहीं होते ।
शंका - तत्त्वार्थसूत्र में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को बन्ध का कारण कहा है ( अ. ८, सू. १० ) । इसी प्रकार समयसार में भी मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग बन्ध का कारण गिनाया है। कहा भी है
“सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसाय-जोगा य बोधव्वा ॥ १०६ ॥ " 'गोम्मटसार' कर्मकाण्ड में मिथ्यात्व आदि को आस्रवरूप कहा है
“मिच्छत्तं अविरमणं कसाय-जोगा य आसवा होंति ।
पण बारस पण बीसं पण्णारसा होंति तब्मेया ॥ ७८६ ॥ "
६५
इस प्रकार भिन्न कथनों में कैसे समन्वय किया जा सकता है?
समाधान- इस विषय में 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' से इस प्रकार समाधान प्राप्त होता है । उसमें कहा है कि मिथ्यात्व आदि चारों कारण बन्ध और आस्रव में हेतु हैं, क्योंकि उनमें दोनों प्रकार की शक्तियाँ पायी जाती हैं; जिस प्रकार अग्नि में दाहकत्व और पाचकत्वरूप शक्तियों का सद्भाव पाया जाता है । जो मिथ्यात्वादि प्रथम समय में आस्रव के कारण होते हैं, उन्हीं से द्वितीय क्षण में बन्ध होता है, इसलिए पूर्वोक्त कथनों में अपेक्षा भेद है; वस्तुतः देशना में भिन्नता नहीं है । 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' के निम्नलिखित पद्य ध्यान देने योग्य हैं
Jain Education International
" चत्वारः प्रत्ययास्ते ननु कथमिति भावास्रवो भावबन्धश्चैकत्वाद्वस्तुतस्तो बत मतिरिति चेतन्न शक्तिद्वयात्स्यात् । एकस्यापीह वह्नेर्दहन- पचन - भावात्म-शक्तिद्वयाद्वै वह्निः स्याद्दाहकश्च स्वगुणगणबलात्पाचकश्चेति सिद्धेः । मिथ्यात्वाद्यात्मभावाः प्रथमसमय एवास्रवे हेतवः स्युः पश्चात्तत्कर्मबन्धं प्रतिसमसमये तौ भवेतां कथञ्चित् । नव्यानां कर्मणागमनमिति तदात्वे हि नाम्नास्रवः स्याद्
आयत्यां स्यात्स बन्धः स्थितिमिति लयपर्यन्तमेषोऽनयोर्मित् ॥” – परिच्छेद ४
शंका- श्लोकवार्तिक में एक शंका उत्पन्न करके समाधान किया गया है। शंकाकार कहता है, “योग एव आस्रवः सूत्रितो न तु मिथ्यादर्शनादयोऽपीत्याह " - योग ही आस्रव कहा गया है, मिथ्यादर्शनादि को आस्रव नहीं कहा गया है, इसका क्या कारण है?
समाधान - ज्ञानावरणादि कर्मों के आगमन का कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्यादृष्टि ही होता है; सासादन सम्यग्दृष्टि आदि के नहीं होता है। अविरति पूर्णतया असंयत के ही पूर्णतया तथा एकदेश रूप से पायी जाती है, संयत के नहीं पायी जाती है। प्रमाद भी प्रमत्तपर्यन्त पाया जाता है; अप्रमत्तादि के नहीं । कषाय सकषाय के ही पायी जाती है, उपशान्त कषायादि के नहीं पायी जाती है । भोगरूप आस्रव सयोगकेवली पर्यन्त सबके पाया जाता है। अतः उसे आस्रव कहा है। मिथ्यादर्शनादि का संक्षेप से भोग में ही अन्तर्भाव हो जाता है । (६,२, पृ. ४४३ )
T
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org