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महाबन्ध
आस्रव के भेद-'द्रव्यसंग्रह' में कहा है-जीव के जिन भावों से कर्मों का आगमन होता है उनको भावास्रव कहते हैं। कर्मों का आगमन द्रव्यास्रव है। भावास्रव में मिथ्यात्वादि का समावेश किया गया है।
"मिच्छत्ताविरदि-पमाद-जोग-कोधादओ अथ विण्णेया। पण-पण-पण-दस-तिय-चदु कमसो भेदा दु पुव्वस्स ॥"-द्रव्यसंग्रह, गा.३०
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग तथा क्रोधादि कषाय ये भावास्रव के भेद हैं। उनके क्रमशः पाँच, पाँच पन्द्रह, तीन तथा चार भेद कहे गये हैं।
“णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो स णेओ अणेयभेओ जिणक्खादो ॥"-द्रव्यसंग्रह, गा. ३१
ज्ञानावरणादि आठ कर्मों रूप परिणमन करने योग्य जो पुदगल आता है, वह द्रव्यास्रव है। उसके अनेक भेद होते हैं, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है।
आस्रव के उत्तर क्षण में बन्ध
आस्रव और बन्ध के पौर्वापर्य के विषय में विचार करते हुए पण्डितप्रवर आशाधरजी अपने 'अनगारधर्मामृत' में लिखते हैं
“प्रथमक्षणे कर्मस्कन्धानामागमनमास्रवः, आगमनानन्तरं द्वितीयक्षणादौ जीवप्रदेशेष्ववस्थानं बन्ध इति भेदः।"-पृ. ११२
प्रथम क्षण में कर्मस्कन्धों का आगमन-आस्रव होता है। आगमन के पश्चात् द्वितीय क्षणादिक में कर्मवर्गणाओं की आत्मप्रदेशों में अवस्थिति होती है, उसे बन्ध कहते हैं। यह उनमें अन्तर है। और भी ज्ञातव्य बात यह है
“आस्रवे योगो मुख्यो बन्धे च कषायादिः। यथा राजसभायामनुग्राह्यनिग्रह्ययोः प्रवेशने राजादिष्टपुरुषो मुख्यः, तयोरनुग्रहनिग्रहकरणे राजादेशः” (११२)।
“आस्रव में योग की मुख्यता है तथा बन्ध में कषायादिक की प्रधानता है। जैसे राजसभा में अनुग्रह करने योग्य तथा निग्रह करने योग्य पुरुषों के प्रवेश कराने में राज्य-कर्मचारी मुख्य है; किन्तु प्रवेश होने के पश्चात् उन व्यक्तियों को सत्कृत करना या दण्डित करना इसमें राजाज्ञा मुख्य है।"
इस प्रकार योग की मुख्यता से कर्मों के आगमन का द्वार खोल दिया जाता है। आगत कर्मों का आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध होना कषायादि की मुख्यता से होता है।
योग की प्रधानता से आकर्षित किये गये तथा कषायादि की प्रधानता से आत्मा से सम्बन्धित कर्म किस भाँति जगत की अनन्त विचित्रताओं को उत्पन्न करने में समर्थ होता है? कोई एकेन्द्रिय है, कोई दो इन्द्रिय है, आदि ८४ लाख योनियों में जीव कर्मवश अनन्त वेष धारण करता फिरता है। यह परिवर्तन किस प्रकार सम्पन्न होता है; इस विषय को कुन्दकुन्दस्वामी इन शब्दों-द्वारा स्पष्ट करते हैं
“जह पुरिसेणाहारो गहिओ परिणमदि सो अणेयविहं। मंसवसारुहिरादीभावे उदरग्गिसंजुत्तो ॥ तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं।
बज्झंते कम्मं ते णयपरिहीणा दु ते जीवा ॥"-समयसार, गा. १७६-१८० जैसे पुरुष के द्वारा खाया गया भोजन जठराग्नि के निमित्तवश मांस, चर्बी, रुधिर आदि पर्यायों को प्राप्त होता है, उसी प्रकार ज्ञानवान् जीव के पूर्वबद्ध द्रव्यास्रव बहुत भेदयुक्त कर्मों को बाँधते हैं। वे जीव परमार्थ दृष्टि से रहित हैं।
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