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प्रस्तावना
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आचार्य पूज्यपाद तथा अकलंक स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि (८,२) और राजवार्तिक (६,७) में भी यही लिखा है।
जिस प्रकार भोज्यवस्तु प्रत्येक के आमाशय में पहुँचकर भिन्न-भिन्न रूप में परिणत होती है, उसी प्रकार योग के द्वारा आकर्षित किये गये कर्मों का आत्मा के साथ संश्लेष होने पर अनन्त प्रकार परिणमन होता है। इस परिणमन की विविधता में कारण रागादि परणति की हीनाधिकता है।
क्या बन्ध का कारण अज्ञान है?
आत्मा के बन्धन-बद्ध होने का कारण कोई लोग अज्ञान या अविद्या को बताते हैं। अज्ञान से ही बन्ध होता है और ज्ञान से मुक्ति लाभ होता है-इस विचार की मीमांसा करते हुए स्वामी समन्तभद्र कहते हैं
"अज्ञानाच्चेद् ध्रुवो बन्धो ज्ञेयानन्त्यान केवली।
ज्ञानस्तोकाद्विमोक्षश्चेदज्ञानाद् बहुतोऽन्यथा ॥* -आप्तमीमांसा, कारिका, ६६ - “अज्ञान के द्वारा नियम से बन्ध होता है, ऐसा सिद्धान्त अंगीकार करने पर कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञकेवली न हो सकेगा, कारण ज्ञेय अनन्त हैं। अनन्त ज्ञेयों का बोध न होगा, अतः जिनका ज्ञान नहीं हो सकेगा, वे बन्ध के हेतु होंगे। इससे सर्वज्ञ का सद्भाव न होगा। कदाचित् यह कहा जाए कि समीचीन अल्पज्ञान से मोक्ष प्राप्त हो जाएगा, तो अवशिष्ट महान् अज्ञान के कारण बन्ध भी होगा। इस प्रकार किसी को भी मुक्ति का लाभ नहीं होगा।"
शंकाकार कहता है-आपके सिद्धान्त में भी तो अज्ञान को बन्ध तथा दुःख का कारण बताया गया है, फिर 'अज्ञान से बन्ध होता है' इस पक्ष के विरोध करने में क्या कारण है? देखिए, अमृतचन्द्र सूरि क्या कहते हैं?
“अज्ञानान्मृगतृष्णकां जलधिया धावन्ति पातुं मृगाः अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः। अज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरङ्गाब्धिवत्
शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कीभवन्त्याकुलाः ॥-समयसारकलश, श्लो. ५८ -अज्ञान के कारण मृगगण मृगतृष्णा में जल की भ्रान्तिवश पानी पीने के लिए दौड़ते हैं। अज्ञान के कारण लोग रस्सी में सर्प की भ्रान्ति धारण कर भागते हैं। जैसे पवन के वेग से समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार अज्ञानवश विविध विकल्पों को करते हुए स्वयं शुद्धज्ञानमय होते हुए भी अपने को कर्ता मानकर ये प्राणी दुःखी होते हैं।
समाधान-यहाँ मिथ्यात्व भाव विशिष्ट ज्ञान को अज्ञान मानकर उस अज्ञान की प्रधानता की विवक्षावश उपर्युक्त कथन किया गया है। यथार्थ में देखा जाए, तो बन्ध का कारण दूसरा है। राग-द्वेषादि विकारों सहित अज्ञान बन्ध का कारण है। थोड़ा भी ज्ञान यदि वीतरागता सम्पन्न हो तो कर्मराशि को विनष्ट करने में समर्थ हो जाता है। 'परमात्मप्रकाश' टीका में लिखा है
“वीरा वेरग्गपरा थोवं पि हु सिक्खिऊण सिझंति।
ण हु सिज्झति विरागेण विणा पढिदेसु वि सव्वसत्येसु ॥"-अ. २, दो. ८४ टीका -वैराग्यसम्पन्न वीर पुरुष अल्प ज्ञान के द्वारा भी सिद्ध हो जाते हैं। सम्पूर्ण शास्त्रों के पढ़ने पर भी वैराग्य के बिना सिद्ध पद की प्राप्ति नहीं होती।
१. “जठराग्न्यनुरूपाहारग्रहणवत्तीव्रमन्दमध्यमकषायाशयानुरूपस्थित्यनुभवविशेषप्रतिपत्त्यर्थम्"-स.सि. ८,२,२५२. २. “ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययदिष्यते बन्धः।" -सांख्यकारिका, ४४
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